विवेचन सारांश
परमात्मा के ऐश्वर्य तत्व का परिचय

ID: 1145
हिन्दी
रविवार, 17 जुलाई 2022
अध्याय 10: विभूतियोग
1/3 (श्लोक 1-13)
विवेचक: गीता विशारद श्री श्रीनिवास जी वर्णेकर


भारतीय संस्कृति की सनातनी परंपरा अनुसार ईश्वर स्तुति, मनमोहक दीप प्रज्वलन, गुरु चरण वंदन और भारत माता को नमन करते हुए पवित्र गंगा के तट पर स्थित पुण्य नगरी ऋषिकेश में  परम पूज्य गुरूदेव के सानिध्य में आज के विवेचन का आरंभ हुआ ।

दशमअध्याय विभूति योग दिखने में अत्यंत सरल प्रतीत होता है, वास्तव में यह अत्यंत गहन है जिसकी गहराई कुछ अलग ही है।  यह अध्याय हमें भगवद् दर्शन करवाता है। नवम अध्याय में भगवान ने अर्जुन को राजविद्या राजगुह्य  योग, अपने ह्रदय की परम गोपनीय बात और ज्ञान के विषय में बताया। परमात्मा के बारे में बताते हुए स्वयं का परिचय दिया कि

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योस्ति न प्रियः ।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ।। 9 .29 ।।
  

यह  ज्ञान जानकर अर्जुन शांत बैठे हैं और जब भगवान ने यह जाना कि अर्जुन ने यह समस्त ज्ञान ग्रहण किया है तो उन्हें लगा कि अब अर्जुन को आगे और भी बातें बताई जाये इसीलिये भगवान कहते हैं।

10.1

श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो,शृणु मे परमं(म्) वचः।
यत्तेऽहं(म्) प्रीयमाणाय, वक्ष्यामि हितकाम्यया॥10.1॥

श्रीभगवान् बोले -- हे महाबाहो अर्जुन ! मेरे परम वचन को (तुम) फिर भी सुनो, जिसे मैं मुझमें अत्यन्त प्रेम रखने तुम्हारे लिए हित की कामना से कहूँगा।

विवेचन: भगवद्गीता के प्रारंभ में अर्जुन अवसाद की अवस्था में चले जाते हैं परंतु भगवान जानते हैं कि उन्हें इस स्थिति से निकालकर उनका मनोबल कैसे बढ़ाया जाये इसीलिए वे अर्जुन को महाबाहो कहकर संबोधित करते हैं। भगवान ने उन्हें अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग नामों से संबंधित किया है। वे कहते हैं कि हे अर्जुन! तुम बलशाली हो। अगर कभी पूछा जाये कि भगवान पर किसका प्रेम सबसे अधिक है तो गोपियों का नाम लिया जाता है परंतु भगवान के सबसे प्रिय अर्जुन ही हैं। तभी तो भगवान अग्निदेव से उनकी प्रीति का वरदान मांगते हैं। भगवान ने नवम अध्याय में अर्जुन को अपना परम गोपनीय रहस्य  बताया। यहाँ भगवान उससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात बताने जा रहे हैं अथवा उसी ज्ञान को और अधिक विस्तार से बता रहे हैं। यहाँ अर्जुन श्रोता है। परंतु हमारे ऊपर भी भगवान की असीम कृपा है कि भगवद्गीता के रूप में साक्षात भगवान की वाणी हमें पढ़ने और सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनका हम पर भी अर्जुन की तरह असीम प्रेम है तभी तो यह सब संभव हो पाया। भगवद्गीता सुनना भगवान का संवाद सुनने के समान है। भगवान अब अर्जुन के साथ हमारे भी हित की बात बताने जा रहे हैं।

10.2

न मे विदुः(स्) सुरगणाः(फ्), प्रभवं(न्) न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां(म्), महर्षीणां(ञ्) च सर्वशः॥10.2॥

यह (विज्ञान सहित ज्ञान अर्थात् समग्र रूप) सम्पूर्ण विद्याओं का राजा (और) सम्पूर्ण गोपनीयों का राजा है। यह अति पवित्र (तथा) अतिश्रेष्ठ है (और) इसका फल भी प्रत्यक्ष है। यह धर्ममय है, अविनाशी है (और) करने में बहुत सुगम है अर्थात् इसको प्राप्त करना बहुत सुगम है।

विवेचन : भगवान कहते हैं कि अर्जुन मैंने अपने बारे में तुम्हें बताया परंतु मेरे प्रकट होने को कोई नहीं जानता, क्योंकि भगवान अपनी लीला से प्रकट होते हैं, अवतार लेते हैं। चौथे अध्याय में भगवान ने विस्तार से इस बारे में बताया है। भगवान देवताओं और महर्षियों सबके आदि हैं इसलिये उनके बाद उत्पन्न होने वाले उनके प्राकट्य को कैसे जान सकते हैं।  ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं कि जिस तरह माँ के गर्भ से प्रकट होने वाला शिशु  माँ को नहीं जान सकता वैसे ही सारे देवता भगवान से ही प्रकट हुए हैं इसलिये उनके प्राकट्य को नहीं जान सकते और इस बात को हुए पता नहीं कितने ही कल्प बीत गये हैं। हमारे सनातन धरम की काल गणना करना बहुत कठिन है। रूप बदल गए पर उत्पत्ति कब से  हुई ये कोई नहीं बता सकता। चारों युगो को मिलाकर एक चतुर्युग बनता है और ऐसे हजार चतुर्युगों से ब्रह्मा जी का एक दिन और रात्रि बनती है और एक कल्प समाप्त होता है। भगवान को प्रकट हुए ऐसे ना जाने कितने कल्प निकल गये हैं।भगवान कृष्ण रूप में गीता ज्ञान सुना रहे हैं परंतु उनके परमात्म रूप का प्राकट्य कब हुआ कोई नहीं जानता। वो देवों के देव अर्थात आदिदेव हैं इसलिए उन्हें जानना असंभव है। 

10.3

यो मामजमनादिं(ञ्) च,वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः(स्) स मर्त्येषु, सर्वपापैः(फ्) प्रमुच्यते॥10.3॥

जो (मनुष्य) मुझे अजन्मा, अनादि और सम्पूर्ण लोकों का महान् ईश्वर जानता है अर्थात् दृढ़ता से (संदेह रहित) स्वीकार कर लेता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान है (और) (वह) सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।

विवेचन : जिनका जन्म होता है उनकी मृत्यु निश्चित है परंतु भगवान को अजन्मा कहा जाता है क्योंकि वे सर्वदा हैं। जिसकी सत्ता सब पर चलती है वो ईश्वर है। वो सबके स्वामी हैं । महेश्वर याने सबसे महान ईश्वर और लोकमहेश्वर अर्थात सारे संसार के नियंता। वे ही श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट होकर गीताजी के प्रवक्ता बनकर अर्जुन को गीता ज्ञान सुना रहे हैं। ये भगवान का ईश्वरीय योग है और जिस प्रकार बालक का बालकत्व, वृद्ध का वृद्धत्व और माता का मातृत्व होता है  वैसे ही उस परमात्मा के तत्व अर्थात उसे भाव सहित जो सर्वरूप से जानता है वह व्यक्ति सबसे अधिक ज्ञानी और पापों से मुक्त हो जाता है। भगवद्गीता महाभारत का अंश है। इसे महाभारत का सार भी कहते हैं अथवा महाभारत को भगवद्गीता का विस्तार कहा जा सकता है। महाभारत में श्री कृष्ण उवाच अथवा श्री वासुदेव उवाच शब्द का प्रयोग किया जाता है परंतु गीता जी में श्री भगवान उवाच शब्द का प्रयोग किया गया है। ज्ञान, वैराग्य, श्री और धर्म जिनके पास है वे भगवान हैं। श्रीकृष्ण भगवद्गीता के प्रवक्ता हैं, वे भगवान ही हैं, जो उन्हें इस प्रकार जान लेता है वो समस्त पापों और अज्ञान से दूर हो जाता है। भगवान कौन हैं ये भी जानना आवश्यक है। वे ईश हैं, ब्रह्म हैं अथवा  ब्रह्माण्ड के नायक हैं। हमारा ब्रह्माण्ड कितना बड़ा है इसका पता लगाने में बडे़- बडे़ वैज्ञानिक भी असफल रहे हैं। इसमें हमारी पृथ्वी एक धूल के कण के बराबर है। ब्रह्माण्ड के नायक को तत्व से जानने वाला व्यक्ति सारे पापों, द्वंदों, सारी कुंठाओं और संघर्षों से मुक्त हो जाता है।अब भगवान आगे अपना और परिचय दे रहे हैं ।

10.4

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः, क्षमा सत्यं(न्) दमः(श्) शमः।
सुखं(न्) दुःखं(म्) भवोऽभावो, भयं(ञ्) चाभयमेव च॥10.4॥

बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, शम तथा सुख, दुःख, उत्पत्ति, विनाश, भय, अभय और

10.4 writeup

10.5

अहिंसा समता तुष्टि:(स्), तपो दानं(म्) यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां(म्),मत्त एव पृथग्विधाः॥10.5॥

अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश और अपयश - प्राणियों के (ये) अनेक प्रकार के और अलग-अलग (बीस) भाव मुझसे ही होते हैं।

विवेचन: भगवान जो भी बता रहे हैं ये सब भाव है। जैसे हमारी बुद्धि हमें दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार ज्ञान, क्षमाशीलता , दम अर्थात इंद्रियों का निग्रह और सत्य ये सब भी नजर नहीं आते। जैसे कंप्यूटर के दो भाग होते हैं  एक उसका हार्डवेयर जो नजर आता है परंतु केवल ये होने से कंप्यूटर काम नहीं कर सकता इसलिये उसमें  साफ्टवेयर डाला जाता है जो नजर नहीं आता पर अपना काम करता रहता है। वैसे ही हमारे भाव होते हैं। वैज्ञानिक मनुष्य का प्रारूप बनाने का बहुत प्रयास कर रहे हैं। वे उसमें कृत्रिम ज्ञान डाल सकते हैं पर भाव डालना असंभव है क्योंकि ये सब भगवान की रचना है। बुद्धि का अर्थ है निर्णय करने की शक्ति, सही गलत की पहचान करने का शक्ति। ज्ञान का अर्थ है आत्मज्ञान, अंतिम सत्य का ज्ञान। वैसे अलग-अलग स्तर पर हम इंद्रियों द्वारा भी ज्ञान प्राप्त करते हैं। यह सामान्य ज्ञान है और इन्हीं बातों को हम और गहराई से जानने का प्रयास करते हैं तो वह विज्ञान कहलाता है। जैसे पंखा चल रहा है यह ज्ञात होना सामान्य ज्ञान है परंतु उसके चलने के लिए क्या चाहिए इसका ज्ञान होना विज्ञान है। ज्ञान की व्याख्या भगवान ने तेरहवें अध्याय में स्पष्ट रूप से की है।

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम्। 
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा ।।

अध्यात्म ज्ञान अर्थात मैं कौन हूँ इसका ज्ञान प्राप्त करना और उस ज्ञान में नित्य स्थित रहना यही आत्मज्ञान है और इन सभी भावों का निर्माण भी परमात्मा से ही होता है। भगवान ने अर्जुन को नवम् अध्याय में यह ज्ञान देना प्रारंभ किया और उन्हें ये बात समझ आ गई तो भगवान उन्हें आगे और बताना चाहते हैं। इसके लिये ज्ञानेश्वर महाराज ने एक सुंदर उपमा दी है कि जैसे नये घडे़ में पानी भरना हो तो उसकी जांच करने के लिये हम उसमें थोड़ा पानी डालते हैं और सही निकलने पर उसमें और पानी भरते हैं, वैसे ही भगवान अर्जुन को आगे की और बातें भी बता रहे हैं कि यह दृष्य संसार ही नहीं अपितु अंतरंग समस्त भाव भी मुझसे ही निर्मित हैं। भगवान यहाँ अपने ऐश्वर्य का परिचय दे रहें हैं कि वे कौन हैं।

10.6

महर्षयः(स्) सप्त पूर्वे,चत्वारो मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता, येषां(म्) लोक इमाः(फ्) प्रजाः॥10.6॥

सात महर्षि (और) उनसे भी पहले होने वाले चार सनकादि तथा चौदह मनु (ये सब-के-सब) (मेरे) मन से पैदा हुए हैं (और) मुझमें भाव (श्रद्धाभक्ति) रखने वाले हैं, जिनकी संसार में यह सम्पूर्ण प्रजा है।

विवेचन : जब भगवान के मन मे संकल्प आया तब इन सबका निर्माण हुआ। जैसे किसी भी नये भवन का निर्माण करना हो तो बनाने वाला पहले मन ही मन उसकी कल्पना करता है कि वो कैसा होगा। फिर उसे एक कागज पर उतारकर नक्शा बनाता है और उसके अनुसार निर्माण होता जाता है। उसी प्रकार इस सृष्टि का निर्माण भगवान के मन में आये संकल्प के अनुसार हुआ। इस बारे में जो बातें बताई जाती हैं उसमें  मुख्य रूप से यह माना जाता है कि ये समस्त निर्माण ब्रह्मा जी के संकल्प के अनुसार हुआ। जैसे चित्रकार पहले मन में चित्र की रचना कर फिर उसे कागज पर उतारता है वैसे ही ब्रह्मा जी के मन में आये विचारों ने बाद में स्थूल रूप ले लिया। इसमें अनेक आकृतियों के प्राणियों का निर्माण हुआ, मानव का निर्माण हुआ। इन मानवों में भी चार ऋषि सनत्, सनंदन, सनातन और सनत कुमार पहले प्रकट हुए फिर सप्तर्षि निर्माण हुए और फिर चौदह मनु हुए। प्रत्येक मनु के काल के मनवंतर कहा जाता है। अभी वैवस्वत मनवंतर चल रहा है। भगवान ने चौथे अध्याय में अर्जुन को बताया है कि उन्होंनें योगशास्त्र का ज्ञान सबसे पहले विवस्वान को बताया था और उन्होंनें सूर्य को सुनाई। भगवान कहते हैं ये सारे मनु, सप्तर्षि और ये सारे मनुष्य गण सभी मुझसे निर्मित हैं।

10.7

एतां(म्) विभूतिं(म्) योगं(ञ्) च, मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन,युज्यते नात्र संशयः॥10.7॥

जो मनुष्य मेरी इस विभूति को और योग (सामर्थ्य) को तत्त्व से जानता है अर्थात् दृढ़ता पूर्वक मानता है, वह अविचल भक्तियोग से युक्त हो जाता है; इसमें (कुछ भी) संशय नहीं है।

विवेचन : भगवान कहते हैं कि जो मेरी इस योगशक्ति को तत्व से जान लेता है उसका ज्ञान स्थिर हो जाता है और उसका मेरे साथ योग हो जाता है और ऐसा कौन जान सकता है? जैसे मातृत्व एक माता ही जान सकती है वैसे ही परमात्मा के तत्व को वही जान सकता है जो परमात्मा के साथ एकरूप हो गया हो। एकरूपता लाने के लिये अहं का समाप्त होना आवश्यक है। परमात्मा बहुत विशाल हैं। हमनें कल्पना की और माना कि वो एक विराट सागर हैं। जैसे सागर में बहुत सारी लहरें और बिंदु हैं और वो बिंदु जब तक स्वयं को सागर का अंश बिंदु समझता है तभी तक वो बिंदु है अन्यथा वो सिंधु है। जब तक एकरूपता का भाव नहीं आता वो बिंदु ही रहेगा परंतु यह भाव आते ही वो सागर में एकरूप हो जायेगा। परमात्मा की इस महानता को जानना आवश्यक है कि मैं उसी का एक अंश रूप हूँ और उस अंश का भी त्याग करने वाला उस परम तत्व में एकरूप हो जाता है।

10.8

अहं(म्) सर्वस्य प्रभवो, मत्तः(स्) सर्वं(म्) प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां(म्), बुधा भावसमन्विताः॥10.8॥

मैं संसारमात्र का प्रभव (मूल कारण) हूँ, (और) मुझसे ही सारा संसार प्रवृत्त हो रहा है अर्थात् चेष्टा कर रहा है - ऐसा मानकर मुझमें ही श्रद्धा-प्रेम रखते हुए बुद्धिमान् भक्त मेरा ही भजन करते हैं - सब प्रकार से मेरे ही शरण होते हैं।

विवेचन : सरे विश्व की उत्पत्ति का कारण परमात्मा है। कारण बड़ा है या कार्य ये समझना आवश्यक है। मिट्टी का घड़ा बना।  इसमें मिट्टी का घड़ा है कि घडे़ की मिट्टी है। यहाँ मिट्टी घडे़ के बनने का कारण है। घड़ा तो केवल मिट्टी का एक रूप है। इसी प्रकार इस समस्त जगत की उत्पत्ति का कारण वो परमात्मा है। भगवान उवाच का अर्थ वे साक्षात परमात्मा ही हैं जो श्री कृष्ण के रूप में अवतरित होकर अर्जुन से बात कर रहे हैं। उनके अस्तित्व से ही इस संपूर्ण विश्व का कार्य चलता है। ऐसे परमात्मा को जब हम जान लेते हैं तो प्रेम, भक्ति और श्रद्धा का भाव निर्माण होता है। उनके साथ एकरूप होकर भी ऐसे ज्ञानी उन्हीं का भजन करते रहते हैं और अधिक तीव्रता से उनकी भक्ति करते हैं। 

तुका झाला पांडुरंग ।
याचे भजन राही ना, मूल स्वभाव जाई ना ।।

ऐसा नहीं कहा जाता कि तुकाराम महाराज को पांडुरंग का दर्शन हुए अथवा उन्होंने पांडुरंग को जाना। कहा जाता है कि तुकाराम महाराज पांडुरंग हो गये और पांडुरंग होने के बाद भी उन्हीं का भजन कर रहे हैं।
भगवान के भक्त उनसे कभी अलग नहीं होते समर्थ रामदास स्वामी की भक्त की व्याख्या है -

विभक्त नभे तो भक्त

जो क्षण भर भी भगवान से अलग ना हो वो भक्त है। वो उनकी भक्ति और भजन करते हैं, उनसे प्रेम करते हैं। भजन शब्द का दूसरा अर्थ है भज सेवायाम। जिसने परमात्मा को जान लिया है उसे सर्वत्र परमात्मा का ही दर्शन होता है। 

जे जे भेटे भूत ते ते मानिजे भगवंत।

इसलिए हमेशा वो सभी की भलाई के लिये कार्य करते रहते हैं। परमात्मा के भक्त ऐसे ही होते हैं।

10.9

मच्चित्ता मद्गतप्राणा,बोधयन्तः(फ्) परस्परम्।
कथयन्तश्च मां(न्) नित्यं(न्), तुष्यन्ति च रमन्ति च॥10.9॥

मुझमें चित्तवाले, मुझमें प्राणों को अर्पण करने वाले (भक्तजन) आपस में (मेरे गुण, प्रभाव आदि को) जानते हुए और उनका कथन करते हुए नित्य-निरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं और मुझमें प्रेम करते हैं।

विवेचन : मन, बुद्धि और अहंकार से मिलकर चित्त बनता है और अंतरंग मन को भी चित्त कहा जाता है।  ऐसे व्यक्ति अपने अंतरंग मन से परमात्मा से एकाकार हो जाते हैं और अपने प्राण और अपना समस्त जीवन परमात्मा की भक्ति में अर्पण कर देते हैं, अपने जैसे ही अन्य लोगों के साथ परस्पर उनकी भक्ति का गुणगान करते रहते हैं। उन्हें भी इसका बोध करवाते रहते हैं। वे संतुष्ट होकर समाधान प्राप्त करते हैं और उसी में आनंदित होते रहते हैं। समाधान अर्थात समाधि अवस्था में प्राप्त होने वाला सुख जो कभी समाप्त नहीं होता और समाधि अर्थात योग की उच्चतम स्थिति। यम, नियम, आसन, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।योग के इन नियमों में समाधि उच्चतम स्थिति है। समाधि याने परमात्मा के साथ एकरूप होने का समाधान।

10.10

तेषां(म्) सततयुक्तानां(म्), भजतां(म्) प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं(न्) तं(म्), येन मामुपयान्ति ते॥10.10॥

उन नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए (और) प्रेमपूर्वक (मेरा) भजन करने वाले भक्तों को (मैंः वह बुद्धियोग देता हूँ, जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है।

विवेचन : कभी ये सोचा जा सकता है कि जो निरंतर इस प्रकार भजन या सेवा में लगे रहते हैं उन्हें ज्ञान कैसे प्राप्त होगा। तो भगवान कहते हैं कि ऐसे भक्तों को बुद्धियोग और तत्व ज्ञान मैं ही प्रदान करता हूँ।  भक्ति और ज्ञान आपस में जुड़े हुए हैं जैसे जैसे भक्ति बढ़ती है ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञान बढ़ता है तो भक्ति दृढ़ होती जाती है। कर्मयोग में भगवान कहते है कि जो भी कार्य करो वह मुझे समर्पित कर दो और जो भक्त ऐसा कर्मयोग अपना लेता है उसका ज्ञान और बढ़ता जाता है और ज्ञान बढ़ने से वह और तीव्रता से कर्मयोग का आचरण करता है जिससे उसकी भक्ति और ज्ञान और उच्च हो जाता है और ऐसे ज्ञान से वो भगवान को ही प्राप्त कर लेते हैं। 

10.11

तेषामेवानुकम्पार्थम्,अहमज्ञानजं(न्) तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो, ज्ञानदीपेन भास्वता॥10.11॥

उन भक्तों पर कृपा करने के लिये ही उनके स्वरूप (होने पन) में रहने वाला मैं (उनके) अज्ञानजन्य अन्धकार को देदीप्यमान ज्ञानरूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ।

विवेचन : किसी कमरे में दो तानपुरे रखे हैं और एक तानपुरे की तान छेड़ने से जो कंपन होगा उससे दूसरा तानपुरा अपने आप कम्पित हो जाता है इसे अनुकम्पन कहते हैं। भगवान कहते हैं कि इसी प्रकार जो भक्त मुझसे एकरूप हो जाते हैं ऐसे  प्रेमी भक्तों के लिये मेरे मन में भी अनुकम्पा जागृत हो जाती है और उन्ही के अंतकरण में बैठा हुआ मैं उनके अज्ञान रूपी अंधकार को ज्ञान रुपी दीपक के प्रकाश से दूर करता हूँ। 

10.12

अर्जुन उवाच
परं(म्) ब्रह्म परं(न्) धाम, पवित्रं(म्) परमं(म्) भवान्।
पुरुषं(म्) शाश्वतं(न्) दिव्यम्, आदिदेवमजं(म्) विभुम्॥10.12॥

अर्जुन बोले - परम ब्रह्म, परम धाम (और) महान् पवित्र आप ही हैं। (आप) शाश्वत, दिव्य पुरुष, आदिदेव, अजन्मा (और) सर्वव्यापक हैं -

10.12 writeup

10.13

आहुस्त्वामृषयः(स्) सर्वे, देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो देवलो व्यासः(स्), स्वयं(ञ्) चैव ब्रवीषि मे॥10.13॥

(ऐसा) आपको सबके सब ऋषि, देवर्षि नारद, असित, देवल तथा व्यास कहते हैं और स्वयं आप भी मेरे प्रति कहते हैं।

विवेचन : जब इस तरह भगवान की कृपा प्राप्त होती है तो हम भगवान का गीत गाने लगते हैं। यहाँ अर्जुन भी इसी प्रकार भगवान का स्तुति गान कर रहे हैं। यहाँ ज्ञानेश्वर महाराज अर्जुन के मन की बात करते हुए कह रहे हैं।अर्जुन कहते हैं कि आपका गुणगान मैंने पहले भी सबके मुख से सुना परंतु अब इसे साक्षात अनुभव किया है क्योंकि आपने मुझ पर कृपा की, अर्जुन कहते है कि आप परमब्रह्म, परमज्ञान और परम पवित्र हैं। नारद मुनि आपका गुणगान करते थे तो वो सुनकर अच्छा लगता था किन्तु इसकी सत्यता आज पता चली।  परमात्मा को इस संसार में  कैसे देखना है यह चर्चा अगले सत्र में की जाएगी।  

ऊँ श्री कृष्णार्पणमस्तु ।