विवेचन सारांश
भगवान के ऐश्वर्य का वर्णन

ID: 1184
हिन्दी
रविवार, 24 जुलाई 2022
अध्याय 10: विभूतियोग
2/3 (श्लोक 14-28)
विवेचक: गीता विशारद श्री श्रीनिवास जी वर्णेकर


ईश्वर प्रार्थना, दीप प्रज्वलनऔर गुरु वंदन के साथ आज के सत्र का आरंभ हुआ। गीता जी के द्वारा जीवन जीने का नया दृष्टिकोण प्राप्त होता है। परमात्मा की असीम कृपा से अर्जुन के निमित्त हम सब यह ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं। अर्जुन पर परमात्मा की विशेष कृपा है कि भगवान ज्ञान का भंडार खोलते हैं। नवमें अध्याय में भगवान राजविद्याराजगुह्ययोग बताकर ज्ञान का सारा भंडार खोलते हैं। अर्जुन के प्रति विशेष प्रेम होने के कारण भगवान ज्ञान को विस्तार से बताते हैं। 

भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ৷৷10.1৷৷

भगवान अर्जुन को अपना परिचय देते हैं :-

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥10.8॥

सारी बातें सुनने के बाद अर्जुन को पूरी तरह से विश्वास हो गया है वे भगवान के घनीभूत होकर साक्षात परम ब्रह्म से साक्षात्कार कर रहे हैं। यशोदा मैया को भगवान ने साक्षात दर्शन दिए थे, अब वे अर्जुन को दे रहे हैं।


10.14

सर्वमेतदृतं(म्) मन्ये, यन्मां(म्) वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं(म्), विदुर्देवा न दानवाः॥10.14॥

हे केशव ! मुझसे (आप) जो कुछ कह रहे हैं, यह सब (मैं) सत्य मानता हूँ। हे भगवन् ! आपके प्रकट होने को न तो देवता जानते हैं (और) न दानव ही जानते हैं।

विवेचन : अर्जुन कहते हैं कि भगवान स्वयं के बारे में जो बता रहे हैं यह सत्य है, यह मैं मानता हूँ। जैसे जैसे भगवान स्वयं का परिचय अर्जुन को देने लगे अर्जुन समझ गए कि उसके समक्ष कोई साधारण मनुष्य नहीं, अपितु परमात्मा हैं। जब तक परमात्मा की कृपा नहीं होती उन्हें कोई भी देव या दानव जान नहीं सकता, उन्हें जानना सब के लिए संभव नहीं है। अर्जुन को यह ज्ञान होता हुआ कि उसके सखा, भाई, गुरु साक्षात परब्रह्म ही है। 

10.15

स्वयमेवात्मनात्मानं(म्), वेत्थ त्वं(म्) पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश,देवदेव जगत्पते॥10.15॥

हे भूतभावन ! हे भूतेश ! हे देवदेव ! हे जगत्पते ! हे पुरुषोत्तम ! आप स्वयं ही अपने-आपसे अपने-आपको जानते हैं।

विवेचन : जब तक भगवान की कृपा नहीं होती तब तक भगवान का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। ज्ञानेश्वर महाराज जी कहते हैं कि माली बहुत मेहनत करता है बीज, मिट्टी, खाद सब की व्यवस्था करता है पर जब तक बसंत ऋतु नहीं आती वृक्ष फलते-फूलते नहीं हैं। वैसे ही जब तक भगवत कृपा नहीं हो तब तक यह ज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं है। जो निर्माण होता है वह भूत है, सारे संसार का निर्माण परमात्मा से हुआ है इसलिए परमात्मा भूतभावन, समस्त भूतमात्र के ईश एवं विश्व के स्वामी हैं। हे देवों के देव, जगत के स्वामी, पुरुषोत्तम आप स्वयं ही स्वयं को जान सकते हैं।

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।।15.17।।

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।

अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।15.18।।

भगवान को जानने के लिए भगवान के साथ एकरूपता होनी चाहिए। ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं, आकाश की व्याप्ति कहाँ तक है यह केवल आकाश ही जानता है, परमात्मा को परमात्मा ही जानते हैं अतः अर्जुन भगवान की विभूतियों को जानना चाहते हैं। 

10.16

वक्तुमर्हस्यशेषेण,दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकान्, इमांस्त्वं(म्) व्याप्य तिष्ठसि॥10.16॥

इसलिए जिन विभूतियों से आप इन सम्पूर्ण लोकों को व्याप्त करके स्थित हैं, (उन सभी) अपनी दिव्य विभूतियों का सम्पूर्णता से वर्णन करने में (आप ही) समर्थ हैं।

विवेचन : अर्जुन कहते हैं अशेष, बाकी न रखते हुए सारी विभूतियों के बारे में मुझे बताइए। सातवें अध्याय में भगवान ने बताया है कि भगवान सर्वत्र हैं पर देखने के लिए, आप की अनुभूति कहां हो, ऐसे प्रभाव के स्थान को मैं जानना चाहता हूं, यह आप ही बता सकते हैं और कोई नहीं बता सकता। अनन्य भाव से आपका चिंतन कैसे हो, अन्य कार्य करते हुए भी ऐसी कौन सी बातें देखूँ जिनसे आपका ध्यान कर सकूं, ऐसे स्थान कृपया मुझे बताइए।

10.17

कथं(म्) विद्यामहं(म्) योगिंस्, त्वां(म्) सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु,चिन्त्योऽसि भगवन्मया॥10.17॥

हे योगिन् ! हरदम सांगोपांग चिन्तन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ ? और हे भगवन् ! किन-किन भावों में (आप) मेरे द्वारा चिन्तन किये जा सकते हैं अर्थात् किन-किन भावों में मैं आपका चिन्तन करूँ?

विवेचन : अर्जुन आगे पूछते हैं कि आप सर्वव्यापी है, यह मैं जानता हूं पर आपको विशेषत: कहां देखूं, कैसे देखूं। भगवान ने कहा था कि सारे भूतों में मैं समान हूं। पर क्या बुराई में भी हम भगवान को देख सकते हैं, कोई गलत व्यवहार कर रहा है, तो उसमें परमात्मा को कैसे देखें? आपका विशेष अनुभव कैसे प्राप्त करें? अच्छी बातों में आपकी विभूति कहाँ से प्राप्त करूँ?

 ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं कि आपका चिंतन करने के लिए कुछ आलंबन की बातें बताइए।

 अहोबी जाणू मि तुमला जाणू रे

स्लेट के ऊपर लिखना सीखते हैं, धीरे-धीरे से सीख जाते हैं, वैसे ही योगेश्वर कौन से भाव का आपका चिंतन कर सकूं यह विस्तार से बताइए। 

10.18

विस्तरेणात्मनो योगं(म्), विभूतिं(ञ्) च जनार्दन।
भूयः(ख्) कथय तृप्तिर्हि, शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्॥10.18॥

हे जनार्दन ! (आप) अपने योग (सामर्थ्य) को और विभूतियों को विस्तार से फिर कहिये; क्योंकि (आपके) अमृतमय वचन सुनते-सुनते मेरी तृप्ति नहीं हो रही है।

विवेचन : अर्जुन श्रीभगवान से निवेदन करता है, आपकी योग शक्ति कैसी है, आप कौन से रूप में प्रकट हो सकते हैं? सातवें अध्याय में आपने बताया था फिर से  विस्तार से बताइए, क्योंकि आप की मधुर वाणी में अमृत मय वचन सुनने से तृप्ति नहीं होती है। जैसे सूरज का प्रकाश, गंगाजल कभी बासी नहीं होता, वैसे ही आप की अमृतवाणी बार-बार सुनना चाहता हूं।

10.19

श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि, दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः(ख्) कुरुश्रेष्ठ, नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे॥10.19॥

श्रीभगवान् बोले -- हाँ, ठीक है। मैं अपनी दिव्य विभूतियों को तेरे लिये प्रधानता से (संक्षेप से) कहूँगा; क्योंकि हे कुरुश्रेष्ठ ! मेरी विभूतियों के विस्तार का अन्त नहीं है।

 विवेचन : श्रीभगवान कहते हैं, मैं मेरी प्रधान दिव्य विभूतियां तुम्हें बताता हूं, भगवान की विभूतियां तो अनंत हैं उनके विस्तार का कोई अंत ही नहीं है। ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं कि जैसे शरीर पर, शिर पर अनेक केश होते हैं जिन्हें कोई गिन नहीं सकता वैसे ही परमात्मा की अनंत विभूतियां हैं। जैसे बीज हाथ में आने से वृक्ष हाथ में आने जैसा है। वैसे ही अत्यंत महत्वपूर्ण विभूतियों के बारे में मैं तुम्हें बताऊंगा,जिससे सारी विभूतियों के बारे में तुम जान सको। 

10.20

अहमात्मा गुडाकेश, सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं(ञ्) च, भूतानामन्त एव च॥10.20॥

हे नींद को जीतने वाले अर्जुन ! सम्पूर्ण प्राणियों के आदि, मध्य तथा अन्त में मैं ही हूँ और सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तःकरण (ह्रदय) में स्थित आत्मा भी मैं हूँ।

विवेचन : यहां भगवान अर्जुन को गुड़ाकेश कहकर संबोधित करते हैं गुड़ाकेश  अर्थात जिसका अपनी निद्रा पर नियंत्रण है अर्जुन अभी मोह की अपनी निद्रा में हैं। सारी विभूति जानने से पहले अर्जुन एक बात ध्यान से जान लो सभी भूत में विद्यमान आत्म तत्व, परमात्मा ही है। असल में सभी एक दूसरे से जुड़े हैं। जैसे सूर्य का प्रकाश सबको प्रकाशित करता है वैसे सभी में स्थित आत्म रूप एक ही है। ज्ञानेश्वर महाराज पहले श्लोक में ही कहते हैं - आदि, मध्य, अंत मैं सभी में हूं। सबके अंतःकरण में एक ही परमात्मा विराजमान है।  

जेजे भेंटे भूत के ,ते ते मानी भगवन्त

महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध संत थे, वे सब्जी उगाते थे और कहते थे कांदा मूला भाजी अउगी मिठाई माउली।। यह सभी सब्जियां मेरे विठोबा ही हैं। राम- राम कहने का अर्थ है कि तुम्हारे भीतर के राम को प्रणाम। सभी के साथ प्रेम करना चाहिए। आत्मा सभी में है। रामकृष्ण परमहंस को अंतिम दिनों में गले का कैंसर हो गया था और वह मिठाई नहीं खा सकते थे। भक्त उनके लिए मिठाई लाते पर वे नहीं खा पाते तो दुखी होते ,तब उन्होंने कहा कि आप सभी के मुखों से मैं ही तो खा रहा हूं। जैसे बालक को खिलाकर मां की आत्मा भी तृप्त हो जाती है यह बात ध्यान में रखकर आगे की विभूति सुनना।

10.21

आदित्यानामहं(म्) विष्णु:(र्), ज्योतिषां(म्) रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि, नक्षत्राणामहं(म्) शशी॥10.21॥

मैं अदिति के पुत्रों में विष्णु (वामन) (और) प्रकाशमान वस्तुओं में किरणों वाला सूर्य हूँ। मैं मरुतों का तेज (और) नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा हूँ।

विवेचन : भगवान कहते हैं अदिति के 12 पुत्र में से विष्णु मैं हूं, कार्तिक मास में सूर्य का नाम विष्णु हो जाता है. प्रकाश देने वाली हजारों किरणों में रवि मैं ही हूं, वायु उनचास प्रकार की होती है, उसमें वायु देवता मैं  ही हूं। आकाश में हम नक्षत्र देखते हैं चंद्रमा दिखाई देता है जिसे देखकर प्रसन्नता का अनुभव होता है वह शशि, यह सब भगवान की ही विभूति हैं।  

10.22

वेदानां(म्) सामवेदोऽस्मि, देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां(म्) मनश्चास्मि, भूतानामस्मि चेतना॥10.22॥

(मैं) वेदों में सामवेद हूँ, देवताओं में इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ और प्राणियों की चेतना हूँ।

विवेचन : हमारे वेद सबके कल्याण के लिए भगवान की कृपा से ऋषि-मुनियों ने ग्रहण किए हैं। सारे विश्व का कारोबार वेदों की घटना से होता है। उसमें सामवेद मैं हूं, क्योंकि उसमें संगीत होता है, जब हम संगीत सुनते हैं तो संवेदनाएं तीव्र हो जाती हैं। देवों के राजा इंद्र और इंद्रियों का राजा मैं ही हूं। जहां हमारा मन होता है वही हम होते हैं मन सबसे श्रेष्ठ इंद्रिय है। एक अत्यंत रोचक कहानी से इसे स्पष्ट किया गया एक बार दो मित्र भगवत दर्शन के लिए भगवान जगन्नाथ पुरी की यात्रा के लिए जा रहे थे। जब भुवनेश्वर पहुंचे तो उन्हें पता चला कि वहां क्रिकेट मैच होने वाला है। क्रिकेट देखने के लिए पहला मित्र वहीं रुक गया उसका कहना था कि मैच तो प्रतिदिन नहीं होता भगवान के दर्शन तो बाद में भी किए जा सकते हैं किंतु दूसरे मित्र ने कहा कि नहीं, हम भगवत दर्शन के लिए आए हैं तो मैच देखने के लिए नहीं रुक सकते और वह जगन्नाथपुरी चला गया, जब वह दर्शन कर रहा था तो उसे ध्यान आ रहा था कि उसका मित्र मजे से मैच देख रहा होगा और यहां मैच देखते हुए पहला मित्र सोच रहा था कि मेरे मित्र ने दर्शन कर लिए होंगे मुझे भी चले जाना चाहिए था, अतः दोनों का शरीर जहां था, वहां मन नहीं था। हमारे शरीर से यदि  चैतन्य ही निकल जाए तो वह मृत हो जाता है, चेतन मन ही उसकी विभूति है यदि उसे भगवान में लगा दें  तो कितना आनंद होगा।

10.23

रुद्राणां(म्) शङ्करश्चास्मि,वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां(म्) पावकश्चास्मि, मेरुः(श्) शिखरिणामहम्॥10.23॥

रुद्रों में शंकर और यक्ष-राक्षसों में कुबेर मैं हूँ। वसुओं में पवित्र करने वाली अग्नि और शिखरवाले पर्वतों में सुमेरु मैं हूँ।

विवेचन :  तैंतीस कोटि देवता अर्थात तैंतीस प्रकार के देवता हैं 11 रूद्र है जिसमें शंकर मेरी ही विभूति हैं। यक्ष, कुबेर जिसका राज्य रावण ने छीन लिया था यह मेरी ही विभूति हैं। सब को पावन करने वाली अग्नि (अग्नि भगवान का रूप है, यज्ञ कुंड में हम उसका दर्शन कर सकते हैं), भूगोल का शिखर मेरु पर्वत सभी में परमात्मा विद्यमान है।

10.24

पुरोधसां(ञ्) च मुख्यं(म्) मां(म्), विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं(म्) स्कन्दः(स्),सरसामस्मि सागरः॥10.24॥

हे पार्थ ! पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति को मेरा स्वरूप समझो। सेनापतियों में कार्तिकेय और जलाशयों में समुद्र मैं हूँ।

विवेचन : गुरुओं के गुरु बृहस्पति, जिन्होंने शिव- पार्वती के विवाह में पुरोहित का कार्य किया था, परमात्मा का ही रूप है। माम् अर्थात् परमात्मा। भगवत गीता के प्रवक्ता साक्षात परमात्मा ही है, सेनानियों में कार्तिक, स्वामी स्कंध देवताओं के सेनापति परमात्मा का ही रूप है। वर्तमान समय में 1971 के युद्ध के समय देश के सेनापति जनरल मानिक शाह ने देश को विजय दिलाई थी वे भगवान का ही रूप हुए, और उन्हें फील्ड मार्शल की उपाधि दी गई थी। सारे जलाशय में सागर महत्वपूर्ण है। विश्व को व्याप्त करने वाला सागर एक ही है उसकी भव्यता देख कर मन भर आता है।

10.25

महर्षीणां(म्) भृगुरहं(ङ्),गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां(ञ्) जपयज्ञोऽस्मि, स्थावराणां(म्) हिमालयः॥10.25॥

महर्षियों में भृगु और वाणियों (शब्दों) में एक अक्षर अर्थात् प्रणव मैं हूँ। सम्पूर्ण यज्ञों में जप यज्ञ (और) स्थिर रहने वालों में हिमालय मैं हूँ।

विवेचन : श्री भगवान कहते हैं महर्षियों में महर्षि भृगु ने सारा भविष्य देखा है, उन्हें एक विशेष दृष्ष्टि प्राप्त हुई थी, कि वे काल के अतीत में जाकर देख सकते थे वे मेरे ही रूप हैं। शब्दों में आकाश में जितने भी शब्द हैं, ओंकार मूल नाद है, वह मेरा ही रूप है। सारे मंत्र गायत्री में लीन हो जाते हैं, ओंकार भगवान की ही विभूति है, उसके उच्चारण का अनुभव भगवत साक्षात्कार का अनुभव है। ऐसा यज्ञ कहीं भी किया जा सकता है।  स्वामी विवेकानंद अपने अंतिम क्षणों तक माला जप रहे थे। गुरु मंत्र का जप सर्वश्रेष्ठ मंत्र है, जितने भी पर्वत है नदियां हैं सब में परमात्मा स्थित है।

10.26

अश्वत्थः(स्) सर्ववृक्षाणां(न्),देवर्षीणां(ञ्) च नारदः।
गन्धर्वाणां(ञ्) चित्ररथः(स्), सिद्धानां(ङ्) कपिलो मुनिः॥10.26॥

सम्पूर्ण वृक्षों में पीपल, देवर्षियों में नारद, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि (मैं हूँ)।

विवेचन : अश्वत्थ वृक्ष की तुलना संसार से की गई है। अश्वत्थ वृक्ष, तुलसी, बट वृक्ष के दर्शन भगवान के दर्शन के समान हैं। यह प्रकृति में परमात्मा के लिए रूप हैं,  इनके पास जाकर भगवान की अनुभूति कर सकते हैं। दिव्य पुरुषों के दर्शन से हम नतमस्तक हो जाते हैं जितने भी सिद्ध संत है और कपिल मुनि सांख्य तत्व का ज्ञान जिन्होंने बताया परमात्मा की विभूति हैं।

10.27

उच्चैःश्रवसमश्वानां(म्),विद्धि माममृतोद्भवम्।
ऐरावतं(ङ्) गजेन्द्राणां(न्), नराणां(ञ्) च नराधिपम्॥10.27॥

घोड़ों में अमृत के साथ समुद्र से प्रकट होने वाले उच्चैःश्रवा नामक घोड़े को, श्रेष्ठ हाथियों में ऐरावत नामक हाथी को और मनुष्यों में राजा को मेरी विभूति मानो।

विवेचन : समुद्र मंथन के पश्चात अमृत से उत्पन्न होने वाला उच्चै:श्रवा नामक घोड़ा, ऐरावत गज इंद्र का हाथी जिस पर देवो के देव आरूढ़ होते है तथा मनुष्यों का राजा सब परमात्मा की विभूति हैं। मंथन से सार निकल आता है, इससे भगवान के दिव्य रूप को देख सकते हैं। सर्वज्ञ देखने के लिए नरों में श्रेष्ठ नर के अधिपति राजा में विश्व तत्व की जागृति की जाती है वह मेरी ही विभूति हैं मेरा ही प्रकट रूप हैं।  

10.28

आयुधानामहं(म्) वज्रं(न्), धेनूनामस्मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः(स्), सर्पाणामस्मि वासुकिः॥10.28॥

आयुधों में वज्र (और) धेनुओं में कामधेनु मैं हूँ। सन्तान-उत्पत्ति का हेतु कामदेव मैं हूँ और सर्पों में वासुकि मैं हूँ।

 विवेचन : शस्त्रों में सर्वश्रेष्ठ शस्त्र, दधीचि ऋषि की अस्थियों से तैयार किया गया वज्र सर्वश्रेष्ठ है, ( भारतीय सेना में सबसे ऊंचा सम्मान परमवीर चक्र पर वज्र अंकित है।) समुद्र मंथन से निकली कामधेनु भी भगवान की विभूति है। हर गाय माता कामधेनु ही है, बहुत सारी आवश्यकताएं पूरी करती है इसलिए पूजनीय है। प्रजनन के लिए आवश्यक कामदेव भी मेरा ही रूप हैं,  धर्म के अनुकूल कामना मेरा ही रूप है। वासुकि नाम का सर्प भगवान का ही रूप है।

 श्रेष्ठत्तम में जो श्रेष्ठ है उसमें भगवान का दर्शन करने की दृष्टि भगवान हमको प्रदान करें,  इस प्रार्थना के साथ आज के सत्र का समापन हुआ।  

ॐ गीतापर्ण अस्तु