विवेचन सारांश
कर्म, विकर्म तथा अकर्म की व्याख्या
4.12
काङ्क्षन्तः(ख्) कर्मणां(म्) सिद्धिं(म्), यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं(म्) हि मानुषे लोके, सिद्धिर्भवति कर्मजा॥12॥
विवेचनः जो लोग कर्मो की सिद्धि की आकांक्षा करते हुए कर्म करते हैं, वे देवी-देवताओं को पूजते हैं। देवताओं की पूजा गलत नहीं है पर सकाम भाव उचित नहीं है। यह सिद्धि प्राप्ति स्वप्न की भांति होती है, जो देर तक रहने वाली नहीं होती। जब तक तप करते रहते हैं, तब तक सिद्धि रहती है। जिस प्रकार हमने गीताजी को अभ्यास करते-करते कण्ठस्थ किया और गीतावृती बन गए। यदि हम इस अभ्यास को जारी नहीं रखेंगे तो हमें गीता याद नहीं रह पाएगी। जिस प्रकार हम अलग अलग तरह के टैक्स भरते हैं उसी प्रकार मानव जीवन में देवी-देवताओं का पूजन करना भी आवश्यक है, इससे सिद्धि की प्राप्ति हो सकती है। लेकिन जब हम अहैतु कार्य करते हैं तब हम भगवान के लिए कर रहे होते हैं। जब हम कोई कार्य बिना किसी आकांक्षा के भगवान को धन्यवाद करते हुए करते हैं, वह भगवान का कार्य होता है, वह मन को आनन्द देता है।
निर्माणों के पावन युग में, हम चरित्र निर्माण न भूलें।
स्वार्थ साधना की आँधी में, वसुधा का कल्याण न भूलें।।
चातुर्वर्ण्यं(म्) मया सृष्टं(ङ्), गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां(म्), विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥13॥
कौरवों की ग्यारह अक्षौहिणी सेना थी, उसमें केवल एक सेनापति था। पाण्डवों की सात अक्षौहिणी सेना थी, उस सेना में अलग-अलग विभाग के सात सेनापति थे। यही वर्ण व्यवस्था है। Distribution of work चतुर्वर्ण की स्थापना का मूल है। संजय सूत पुत्र थे परंतु गुण कर्म के आधार पर वेदव्यास जी ने उन्हें मंत्री बनाया। कृष्ण ने भगवान होते हुए भी सारथी का कार्य किया। गणेश भगवान ने शूद्र मूषक को अपने ध्वज पर जगह दी और उसे अपना वाहन बनाया। उन्होंने मूषक के गुण देखे जो किसी भी स्थान पर प्रवेश कर सकता है। पानी में चल सकता है और अपना स्थान स्वयं बना लेता है। वह जो भी कार्य शुरू करता है उसे पूरा करता है।
न मां(ङ्) कर्माणि लिम्पन्ति, न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां(म्) योऽभिजानाति, कर्मभिर्न स बध्यते॥14॥
एवं(ञ्) ज्ञात्वा कृतं(ङ्) कर्म, पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं(म्), पूर्वैः(फ्) पूर्वतरं(ङ्) कृतम्॥15॥
विवेचनः पूर्वकाल में मोक्ष की इच्छा रखने वाले मुमुक्षुओं ने भी कर्म किये हैं, इसलिये तू भी पूर्वजों के द्वारा सदा से किये जाने वाले कर्मों को जानकर उनके जैसे कर्म (उन्हीं की तरह) कर। कर्म से छुटकारा नहीं है। गीता कभी भी कर्म त्याग करने को नहीं कहती। वह कहती है कर्मों में कुछ दोष होंगे फिर भी आपको कर्म करने हैं। यदि आपके कर्मों में दोष है तो भी आपको उसका त्याग नहीं करना है। गीता कर्मयोग की शिक्षा देती है। तीसरे अध्याय में भगवान ने हमें कर्मयोग समझाया है। भगवान कहते हैं हर कर्म में कोई न कोई दोष तो है ही। हम रसोई भी करते हैं तो अग्नि जलाते हैं, कितने छोटे छोटे जीव उसमें जलकर मर जाते हैं। हर कर्म में दोष है पर हम कर्मों को छोड़ नहीं सकते। पवित्र अग्नि में भी धुएँ का दोष है। कर्म को नहीं छोड़ना है कर्म के फल की आकांक्षा को छोड़ना है। अकर्म की और बढ़ाना है। कर्मयोगी बनना है, कर्तापन छोड़ना है और कर्म करते रहना है।
पानी और भाप दोनो ही H2O है। पानी ने जैसे ही अपना जड़त्व छोड़ा वैसे ही ऊपर की ओर उठ गया, उर्ध्वगति की ओर बढ़ गया। जैसे भाप बनाने के लिए पानी को तपना पड़ता है वैसे ही अपने अहम् को खत्म करने के लिए स्वयं को तपाना पड़ता है। शुभ और अशुभ दोनों कर्म हमें बाँधते हैं। शुभ कर्म सोने की जंजीर है, अशुभ कर्म लोहे की जंजीर हैं। लेकिन जंजीर तो जंजीर ही है। कर्तापन के भाव से मन में अहंकार पैदा होता है। उस अहंकार से जब हम छूटते हैं, तब हम प्रगतिशील हो जाते हैं और मन में शांति का सागर बहने लगता है।
एक बार अकबर और बीरबल जंगल में शिकार करने गए। वहाँ पर उन्होंने एक व्यक्ति को छलांग लगाकर नाला पार करते हुए देखा यह देख कर अकबर हैरान हो गए। उन्होंने उससे पूछा कि यह तुम कैसे कर लेते हो? वह बोला यह तो मेरा रोज का कार्य है। राजा ने उससे कहा, तुम एक बार और करके दिखाओ तो मैं तुम्हें एक स्वर्ण मुद्रा दूँगा। जब वह व्यक्ति दुबारा नाला पार करने के लिए गया तो उसका पाँव फिसल गया और वह गिर गया। इस पर बीरबल ने राजा को बोला, रोज तो यह नाले को बिना किसी आकांक्षा के आनंद में पार करता था परंतु आज इसके सर पर एक स्वर्ण मुद्रा की आकांक्षा का बोझ आ गया।
जब हम कोई कार्य किसी इच्छा से करते हैं तो कर्म होता है। बिना किसी आकांक्षा से करते हैं तो अकर्म होता है।
किं(ङ्) कर्म किमकर्मेति, कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि, यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥16॥
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं(म्), बोद्धव्यं(ञ्) च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं(ङ्), गहना कर्मणो गतिः॥17॥
विवेचनः कर्म की गति अति गहन होती है। इसके लिए हमें कर्म, विकर्म और अकर्म तीनों के तत्व को जानना होगा। पाप क्या है, पुण्य क्या है इसको जानना होगा। झूठ बोलना पाप है। परंतु यह किस परिस्थिति में बोला गया है, इस बात पर निर्भर करता है कि यह पाप है या पुण्य। एक व्यक्ति गाय को बचाने के लिए झूठ बोलता है, झूठ बोलना पाप कर्म है और गाय को बचाना पुण्य कर्म है। तीन प्रकार के कर्म होते हैं-
कर्म - बुद्धि कहती है तुम्हें करना होगा, मन बिना इच्छा के भी खिंचा चला जाता है इसको कर्म कहते है। दुकान जाना है, नौकरी पर जाना है पर आलस आ रहा है। शरीर कह रहा है घर पर रुक जाओ। मन कह रहा है आराम कर लो। बुद्धि कहती है, यह तुम्हारा कर्तव्य है जाना पड़ेगा। मन को खींचकर ले जाना पड़ता है क्योंकि बुद्धि कह रही है।
विकर्म - मन कहता हैं यह काम करो, बुद्धि कहती हैं यह काम नहीं करना। मन और बुद्धि में युद्ध हो जाता है। यदि मन जीता और बुद्धि हारी तो यह विकर्म है। यह विकृति की ओर ले जाता है।
अकर्म - इसमें बुद्धि कहती है कर और मन उसका साथ देता है। जब मन और बुद्धि का समत्व हो जाता है तो मन में आनन्द की प्राप्ति होती है।
हमारे जीवन में यश अलग-अलग प्रकार से आता है।
वृद्धि इसमें एक व्यक्ति का विकास होता है, चहुँमुखी वृद्धि होती है।
समृद्धि इसमें हमारी वृद्धि में औरों का भी हिस्सा होता है। हम ऊपर उठते है औरों को भी अपने साथ ऊपर उठाते हैं। अपने परिवार को, अपने समाज को, अपने देश को ऊपर उठाते हैं। आपके साथ आपके साथ वाले भी आगे बढ़ते हैं और उनकी भी वृद्धि होती है।
कर्मण्यकर्म यः(फ्) पश्येद्, अकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु, स युक्तः(ख्) कृत्स्नकर्मकृत्॥18॥
यस्य सर्वे समारम्भाः(ख्), कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं(न्), तमाहुः(फ्) पण्डितं(म्) बुधाः॥19॥
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं(न्), नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि, नैव किञ्चित्करोति सः॥20॥
विवेचनः जो कर्म और फल की आसक्ति का त्याग करके आश्रय से रहित सदा तृप्त है वह कर्मों मे रत रहकर भी वास्तव में कुछ नही करता, वह अकर्मी बन जाता है। इन श्लोको में भगवान ने कर्म, विकर्म और अकर्म की व्याख्या की। इसके साथ ही इस विवेचन सत्र का यहाँ समापन हुआ और प्रश्नोत्तर सत्र प्रारम्भ हुआ।
प्रश्नकर्ता : शशांक जी
प्रश्न: हम जो कर्म कर रहे हैं कुछ बच्चों के अनुसार कर रहे हैं कुछ अपने हिसाब भी कर रहे हैं। आध्यात्मिक विकास के लिए पुस्तके भी पढ़ते है। पर अकर्म किस को कहें?
उत्तर: जीवन अब ढलती दिशा में है। घर परिवार भरा पूरा है। भगवान ने जीवन में जो कुछ चाहिए था सब दिया है। अब हो सकता है अंतिम कुछ दिनों में जो मन चाहता है वह ना मिले। यह भगवान ने हमारे लिए एक व्यवस्था खड़ी की है। अगर भगवान आज मुझे कुछ नहीं दे रहे तो इसमे भगवान का कुछ हेतू है। भगवान चाहते हैं मैं अपने को अनासक्त बना सकूँ। जल में रहूँ तो ऐसे रहूँ.जैसे जल में कमल का फूल और छोटी-छोटी बातों की उपेक्षा से मुक्त हो जाऊँ कि बेटे को यह करना चाहिए, बहू को यह करना चाहिए आदि। इन बातों को छोड़कर जो जितना कर रहा है उसी का अभिनंदन करके उसकी पीठ थपथपा देना चाहिए कि आप कितना करते हो। कोई अपेक्षा नहीं है परंतु फिर भी जिस क्षण उस उपेक्षा का विलीन हो जाए कि मेरी उपेक्षा कुछ नहीं है तो वो थोड़ा भी करेंगे तो बहुत आनंद आएगा। अगर वह कुछ नहीं करेंगे तो उसका दुख बना रहेगा। दुख के साथ अगर अंतिम क्षण आता है और मन में दुख का कांटा चुभा होता है तब तो मन फिर आत्मा को पकड़कर जाएगा। विलुप्त नहीं होगा। इसलिए भगवान कहते हैं इस प्रकार के चंचल मन को स्थिर करना। इस प्रकार की मन को आकांक्षा से रहित करना इसके लिए एक छोटी सी उपासना का रोज (प्रतिदिन) अभ्यास करें। अभ्यास से मैं तुम्हें प्राप्त होऊँगा। आज से ही नित्य अभ्यास शुरू करो इससे हमारी आत्म स्थिति सुधरेगी, आत्म स्थिति से मन की स्थिति सुधरेगी। मनोस्थिति सुधरने से परिस्थिति बदल जाएंगी।
प्रश्नकर्ता: बजरंग जी
प्रश्न : देह मान नहीं रखो देही भान रखो तो कैसे करें? दूसरा प्रश्न है, गीता के अंत में कहते हैं सब धर्मों को छोड़कर मेरी शरणागति में आ जाओ, वह कैसे करें।
उत्तर: देही से विदेही कैसे बने यह आपका प्रश्न है। देह में होने वाले छोटे-मोटे दर्द ढलती उम्र में तो आते ही हैं। मैं कौन हूँ अगर इसका उत्तर मिल गया है कि मैं शरीर नहीं हूँ, तो शरीर को आया दर्द मेरा नहीं है। यह अस्थाई है क्योंकि जिस दिन यह शरीर पांच महाभूतों में मिल जाएगा दर्द भी विलीन हो जाएगा। दर्द को निकाल नहीं सकते तो उसे स्वीकार करना पड़ेगा। उसके लिए दवा लेंगे, एक्सरसाइज करेंगे, किन्तु अगर दर्द फिर भी रहता है तो उसे स्वीकार करना पड़ेगा। कुछ लोगों को बहुत दर्द है, परेशानी है पर अगर उनसे पूछो कि आप कैसे हो तो भी मुस्कुरा कर कहते हैं,अच्छा हूँ बुढ़ापे के कारण छोटी मोटी तकलीफ है, पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह देही से विदेही बनना है फिर यह कि मुझे बहुत अच्छी चीजें खाने को मिलनी चाहिए, अच्छा सुनने को मिलना चाहिए। भगवान आपकी पावर को धीरे धीरे कम कर रहे हैं। आपके कान कम काम कर रहे हैं, आपकी दृष्टि कमजोर हो रही है। भगवान समझाना चाहते हैं कि बाहर का बहुत देख लिया, सुन लिया अब अंदर जाओ, अंदर को जानो। बाहर की आवाज सुनाई देना कम हो जाती है। भगवान आपके साथ बहुत अच्छा कर रहे हैं क्योंकि अपने बारे में कोई कटु शब्द कह रहा है तो सुनाई नहीं देगा। केवल भगवान का नाम अंदर आता रहे इसकी व्यवस्था कर दी है। देही से विदेही की और भगवान ले जाना चाहते हैं, लेकिन हम वह सुनना नहीं चाहते। हम कान में सुनने की मशीन लगवा लेते हैं ताकि पूरा सुने कि वह क्या बोल रहा है, और मेरे बारे में तो नहीं बोल रहा? इस प्रकार का संदेह हमें देही ही बनाएगा विदेही बनना मतलब है, शरीर के लगाव से बाहर निकलना। आत्मा को समझने का प्रयास करना जो धारा हमारे अंदर बह रही है अब उसको राधा बनाना।
भगवान ने अंतिम बात कह दी कि सब धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ। यहां धर्म का अर्थ हिंदू मुस्लिम से नहीं है, इसका अर्थ कर्तव्य से है। सब कर्तव्य छोड़कर आपका एक ही कर्तव्य है कि मैं भगवान को पा लूं। बस मुझे अपनी शरण में ले लेना ऐसा भाव हमारे अंदर रहना चाहिए। ऐसा भाव जब हमारे अंदर होता है तो हमसे कोई गलत काम नहीं होता। इसीलिए नाम सुमिरन का महत्व होता है ताकि नाम का सुमिरन करते रहें, भगवान की याद में खोए रहें, आखिर में उसकी शरण में जाना होगा। अर्जुन भी भगवान की शरण में गए और दूसरे अध्याय में उन्होंने भगवान से कहा है कि मुझे अपना शिष्य स्वीकार करो। मैंने अपना सारा जीवन आपको सौंप दिया है।
अब छोड़ दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में,
है हार तुम्हारे हाथों में, है जीत तुम्हारे हाथों में!!
यह भाव पूरा पूरा समर्पण का है। यह समर्पण जब तक नहीं होगा जो आनंद का झरना हमारे अंदर बह रहा है वह बाहर कैसे आएगा। भगवान कहते हैं युद्ध के समय में भी मेरा सुमिरन करते रहना, युद्ध तो करने पड़ेंगे चाहे वह अंदर के युद्ध हों चाहे बाहर के। सर्वधर्म मान परित्यज्य का भाव कर्ता बनाने योग्य है। यह बहुत महत्वपूर्ण है। बहुत सरल है और अपनाने योग्य है, कठिन बिल्कुल नहीं है। इसका हर रोज प्रयास करना चाहिए, अनुभव करना चाहिए अनुभव से आनंद आने लगता है तो हम समृद्ध बनते हैं और हम और अधिक प्रयास करने लगते हैं।
ज्ञानवर्धक प्रश्नोत्तर के पश्चात् सत्र का समापन हुआ।