विवेचन सारांश
काम, क्रोध तथा लोभ- नरक के द्वार

ID: 2230
Hindi - हिन्दी
शनिवार, 07 जनवरी 2023
अध्याय 16: दैवासुरसंपद्विभागयोग
2/2 (श्लोक 11-24)
विवेचक: गीता विदूषी सौ वंदना जी वर्णेकर


गीता मैया के चरणों में नमन करते हुए, शुभारंभ प्रार्थना, दीप प्रज्वलन, गुरु वंदना, भगवान वेदव्यास जी, संत ज्ञानेश्वर जी महाराज व गुरुदेव स्वामी गोविंददेव गिरि जी महाराज के चरणों में शत-शत वंदन करते हुए यह विवेचन सत्र प्रारंभ हुआ।

भगवद्गीता एक अद्भुत ग्रंथ है जिसमें किंकर्तव्यविमूढ़ व हतोत्साहित अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने कर्त्तव्य पथ पर लाने के लिए ज्ञान दिया। भगवद्गीता महाभारत का अंग है जिसे भगवान वेदव्यास जी ने अट्ठारह अध्यायों में संपादित किया था। यह शाश्वत ज्ञान की एक धारा है जो हम सब के कल्याण के लिए भगवान ने प्रवाहित की है। मैं कौन हूँ? मेरा इस सृष्टि के साथ क्या नाता है और सृष्टिकर्ता के साथ मेरा क्या संबंध है? मैं भगवान को कैसे पा सकता हूँ? इन सब प्रश्नों का समाधान हमें श्रीमद्भगवद्गीता में प्राप्त होता है। इसके लिए हमें कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है।

ज्ञानेश्वर जी महाराज कहते हैं कि अपने ही स्थान पर रहते हुए, अपना कर्त्तव्य करते हुए, उस परमात्मा के साथ नित्य संबंध जोड़ना तथा भगवान को पहचानना, अपने को पहचानना, यह सब हमें भगवद्गीता सिखाती है। ज्ञानेश्वर जी महाराज बताते हैं  कि "का आपुला ठांव ना छांडिता..." एक कमल होता है 'चंद्र विकास कमल', जो चाँदनी में ही खिलता है। वह चन्द्रकमल अपने ही स्थान पर रहते हुए चाँदनी का आस्वादन करता है, आलिंगन करता है, आह्लादित होता है तथा अपना पूर्ण विकास करता है। इसी प्रकार हम भी अपने स्थान पर रहते हुए भगवद्गीता के द्वारा अपने आप को जान सकते हैं, भगवान को पा सकते हैं।

भगवान संपूर्ण सृष्टि को दो विभागों में विभाजित करते हैं। किसी जाति, संपत्ति, धन, प्रतिष्ठा, देश, संप्रदाय या उच्चता, नीचता के आधार पर नहीं बल्कि सद्गुणों और दुर्गुणों के आधार पर, सदाचार व दुराचार के आधार पर। भगवान ने पहले ही दैवी संपत्ति के छब्बीस गुणों को बता दिया था। इस सोलहवें अध्याय, दैवासुरसम्पद्विभागयोग, में दैवीय गुणों व आसुरी गुणों का विशद वर्णन किया है।

प्रत्येक व्यक्ति में अच्छे व बुरे दोनों गुण होते हैं। रामदास स्वामी जी कहते हैं कि उत्तम गुणों का निरंतर अभ्यास करके हम बुरे को छोड़ सकते हैं। उत्तम गुणों के आधान से बुरे गुण हटते जाते हैं। प्रत्येक मनुष्य सद्गुणों और दुर्गुणों का मिश्रण होता है। महाभारत में कौरव दुर्गुणों के तथा पांडव सद्गुणों के प्रतीक माने जाते हैं। पांडवों के युधिष्ठिर जी अपने धर्माचरण के कारण धर्मराज कहलाते थे, सदैव सत्य ही बोलते थे और इस कारण से उनका रथ भूमि से चार इंच ऊपर चलता था, तथापि एक असत्य भाषण "अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो वा" से वह रथ पृथ्वी पर टिक गया। अतः गुरुदेव कहते हैं कि हमारी दृष्टि सदैव ऊपर अच्छाई की ओर रहनी चाहिए।

16.11

चिन्तामपरिमेयां(ञ्) च, प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा, एतावदिति निश्चिताः।।16.11।।

(वे) मृत्यु पर्यन्त रहने वाली अपार चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, पदार्थों का संग्रह और उनका भोग करने में ही लगे रहने वाले और 'जो कुछ है, वह इतना ही है' - ऐसा निश्चय करने वाले होते हैं।

विवेचन- मनुष्य कभी भी पूरा ना होने वाली कामनाओं, वासनाओं को पूरा करने के पीछे लगा रहता है। मोह के कारण कामनाओं की पूर्ति करने में और वस्तुएँ बटोरने में वह भूल जाता है कि एक देह में हम आए हैं और यह देह छोड़कर जाना भी है। ऐसे लोग दंभ के कारण भ्रष्ट आचरण अपनाते हैं और अशुद्ध कृत्यों की प्रतिज्ञा लेते हैं।

आसुरी संपदा के लोग प्रलय तक (अर्थात मृत्यु तक) जो चिंताएँ समाप्त नहीं होगी, ऐसी असंख्य चिंताओं का आश्रय लेकर जीवन जीते हैं। फिर कृत्रिम चिंता करते हैं कि क्या हो सकता है इस देश का? कुछ नहीं हो सकता और इसी अज्ञानता में अपना एक निश्चित मत कर लेते हैं कि अपना यही, जो हो रहा है, परम श्रेष्ठ है। अपनी कामवासनाओं, लालसाओं की पूर्ति करना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य बना लेते हैं। खाओ, पियो, जियो और मौज करो के जीवन दर्शन के साथ वे मृत्यु के समय तक अनगिनत व्यग्रताओं के साथ जीते हैं।

16.12

आशापाशशतैर्बद्धाः(ख्), कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थम्, अन्यायेनार्थसञ्चयान्।।16.12।।

(वे) आशा की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर पदार्थों का भोग करने के लिये अन्याय पूर्वक धन-संचय करने की चेष्टा करते रहते हैं।

विवेचन- भगवान कहते हैं आशा (अर्थात अपेक्षा) के पाश में बद्ध रहने वाले काम, क्रोध परायण होते हैं। अपनी कामना पूरी करने के लिए अन्याय से, भ्रष्ट आचरण रखते हुए धन कमाते हैं, उल्टा सीधा कुछ भी करते हैं, और यह कामना होती है कि विश्व का सारा धन मुझे ही प्राप्त होना चाहिए। उनका जीवन दर्शन ऐसा ही हो जाता है, जैसा कि चार्वाक ने कहा था-

यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।

एक पाश्चात्य चिंतक शॉपेनहार ने कहा कि जब तक यौवन है तब तक जियो। भरपूर जिओ, खाओ, पियो आनंद लो और जैसे ही वृद्ध हो जाओ आत्महत्या कर लो। फिर एक दिन एक उपनिषद (जर्मन अनुवाद) की प्रति उनके हाथ में आई और उसे पढ़ने के बाद उसने कहा कि मैंने आज तक जो कुछ भी कहा है, पढ़ाया है, बताया है वह सब मिथ्या था।

हमारे जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष हैं इसमें अर्थ व काम ऐसे पुरुषार्थ हैं जो धर्म व मोक्ष की मर्यादा में करने चाहिए। भगवद्गीता हमें बताती है कि भौतिक उन्नति भी होनी चाहिए किंतु हमारा जीवन नि:श्रेयस भी होना चाहिए।

16.13

इदमद्य मया लब्धम्, इमं(म्) प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे, भविष्यति पुनर्धनम्।।16.13।।

वे इस प्रकार के मनोरथ किया करते हैं कि - इतनी वस्तुएँ तो हमने आज प्राप्त कर लीं (और अब) इस मनोरथ को प्राप्त (पूरा) कर लेंगे। इतना धन तो हमारे पास है ही, इतना (धन) फिर भी हो जायगा।

विवेचन- भगवान कहते हैं कि आसुरी संपदा के लोग कामनाओं का ही चिंतन करते रहते हैं। मैंने आज यह प्राप्त किया, आगे यह प्राप्त करूँगा, इतना मेरा धन बढ़ेगा, भविष्य में इतना मैं और बढ़ा लूँगा। कामनाओं के स्थान पर यदि भगवान का चिंतन करने लगे तो भौतिक उन्नति भी होती है और जीवन भी नि:श्रेयस बनता है।

जैसे राजा मिडास की कहानी आसुरी संपदा का उदाहरण है। वह बहुत धनी राजा था। महल में रहता था। उसे किसी वस्तु की कमी नहीं थी। उसके एक कन्या भी थी और कुछ भी प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं थी। ऐसी स्थिति हो तब यह चिंतन करना चाहिए कि अब मैं दूसरों के लिए क्या कर सकता हूँ, मेरा तो उन्नयन हो गया। लेकिन मिडास ने भगवान से प्रार्थना-आराधना की और यह वर पाया कि मैं जिसे स्पर्श करूँ वह स्वर्ण का हो जाए। अब खाना-पीना, बिस्तर सब कुछ स्वर्ण का हो गया। उसने अपनी कन्या को स्पर्श किया तो वह भी स्वर्ण की हो गई, इस प्रकार जीवन अधोगति में चला गया। ऐसे जीवन क्या प्रयोजन? जीवन के लिए नाते-रिश्ते, संबंधी भी चाहिए। हवा, पानी, अन्न भी चाहिए। यह आसुरी वृत्ति है।

16.14

असौ मया हतः(श्) शत्रु:(र्), हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं(म्) भोगी, सिद्धोऽहं(म्) बलवान्सुखी।।16.14।।

वह शत्रु तो हमारे द्वारा मारा गया और (उन) दूसरे शत्रुओं को भी (हम) मार डालेंगे। हम ईश्वर (सर्व समर्थ) हैं। हम भोग भोगने वाले हैं।हम सिद्ध हैं, (हम) बड़े बलवान (और) सुखी हैं।

विवेचन- ऐसी लोभीवृत्ति के लोगों के शत्रु भी बहुत होते हैं। वे कहते हैं अब मेरे रास्ते में कोई आएगा तो उसे में समाप्त कर दूँगा। मेरे धन को छीनने आएगा उसे मार दूँगा। मेरी पद और प्रतिष्ठा के जो भी आड़े आएगा उसे में जीवित नहीं छोडूँगा।

ये लोग कर्मों के फल पर कोई विश्वास ही नहीं करते। ये समझते हैं मैं ही ईश्वर हूँ, मैं सिद्ध हूँ, शक्तिशाली हूँ, सुखी हूँ। आज के युग में भी हम देख सकते हैं ऐसे लोग Money, Men, Muscle, Media इनसे घिरे रहते हैं। महाभारत की चांडाल चौकड़ी शकुनि, दुर्योधन, दुशासन, कर्ण आदि उन सब की मनोवृत्ति भी ऐसी ही थी। शकुनि अपने भान्जों को ऐसी ही शिक्षा देता था। कर्ण पाण्डवों को सदैव अपना शत्रु मानता था। द्रौपदी को वेश्या भी कर्ण ने ही कहा था। इनकी मनोवृत्ति कैसी होती है यह भगवान ने आगे के श्लोक में कहा है

16.15

आढ्योऽभिजनवानस्मि, कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य, इत्यज्ञानविमोहिताः।।16.15।।

हम धनवान हैं, बहुत से मनुष्य हमारे पास हैं, हमारे समान दूसरा कौन है? (हम) खूब यज्ञ करेंगे, दान देंगे (और) मौज करेंगे - इस तरह (वे) अज्ञान से मोहित रहते हैं।

विवेचन- मैं बहुत संपन्न हूँ यह अभिमान है, मेरा बहुत बड़ा परिवार है यह दर्प (दंभ) है, इस बात का घमंड है। मेरे समान अन्य कौन है, ऐसे लोग अहंकार से आच्छादित रहते हैं। मैं यज्ञ करूँगा, मैँ दान दूँगा, मैं मौज करूँगा, केवल अपनी वाहवाही के लिए, अपने यश के लिए। इस प्रकार यह ज्ञान से बहक जाते हैं फलत: ये अपवित्र नरक में जाते हैं।

पू. गुलाबराव जी महाराज ने स्वर्ग और नरक के बारे में बताया है कि स्वर्ग सत्वगुणोदय होता है और नरक तमोगुणोदय। मृत्यु के उपरांत स्वर्ग और नरक तो देखा नहीं है किंतु इस धरती पर स्वर्ग और नरक यही है, जो सतगुणी लोग हैं वो स्वर्ग में है और जो तमोगुणी हैं वह लोग नरक में है।

हमारे अंतरंग की जैसी वृत्ति जोती है, बहिरंग में वैसा ही व्यवहार करते हैं। इन लोगों में अहंकारयुक्त बड़प्पन होता है। बड़प्पन होना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन बड़प्पन के कारण अहंकार जो होता है वह बुरी बात है। ज्ञानेश्वर जी महाराज कहते हैं "बड़प्पन प्राप्त करना चाहिए लेकिन वह भूलना चाहिए"। कहते हैं - प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय। जहाँ मैं वहाँ हरि नहीं, जहाँ हरि वहाँ मैं नाहीं। गुरुदेव कहते हैं बड़प्पन छाया के समान होना चाहिए।

16.16

अनेकचित्तविभ्रान्ता, मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः(ख्) कामभोगेषु, पतन्ति नरकेऽशुचौ।।16.16।।

(कामनाओं के कारण) तरह-तरह से भ्रमित चित्त वाले, मोह-जाल में अच्छी तरह से फँसे हुए (तथा) पदार्थों और भोगों में अत्यन्त आसक्त रहने वाले मनुष्य भयंकर नरकों में गिरते हैं।

विवेचन- भगवान कहते हैं आसुरी वृत्ति वालों के मस्तिष्क विभिन्न भ्रामक विचारों से भरे होते हैं और इस तरह वो मोह जाल में फँसे होते हैं। जैसे ही वे अपनी सांसारिक इच्छाओं को पूरा करने के लिए कार्यरत होते हैं वैसा ही उनका घोर नरक में पतन होता है।

16.17

आत्मसम्भाविताः(स्) स्तब्धा, धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते, दम्भेनाविधिपूर्वकम्।।16.17।।

अपने को सबसे अधिक पूज्य मानने वाले, अकड़ रखने वाले (तथा) धन और मान के मद में चूर रहने वाले वे मनुष्य दम्भ से अविधिपूर्वक नाममात्र के यज्ञों से यजन करते हैं।

विवेचन- आसुरी वृत्ति वाले लोग स्वयं को बहुत बड़ा मानते हैं तथा स्वयं की स्तुति करते हैं, वे केवल नाम मात्र के लिए, दिखावे के लिए, बिना शास्त्रोक्त विधि का पालन किए अहंकार से यज्ञ आदि करते हैं। आजकल तो विवाह में भी संस्कारों का महत्व समाप्त-सा हो गया है। केवल फोटो सेशन्स होते हैं। संस्कारों में किसी की भी रुचि नहीं रही। बस फोटो सेशन हो जाए, फेसबुक, इंस्टाग्राम पर अपलोड करना, यह वर्तमान की सबसे बड़ी सामाजिक विकृति बन रही है। भगवान इसके द्वारा यह भी बताना चाह रहे हैं कि स्वयं की स्तुति करना भी मृत्यु समान होता है।

महाभारत की कथा में बताया जाता है कि अर्जुन को अपने गांडीव धनुष पर बहुत मान था। उन्होंने एक बार प्रतिज्ञा की थी कि जो कोई भी मेरे गांडीव की निंदा करेगा मैं उसका वध कर दूँगा अथवा मैं अगर उसका वध नहीं कर सका तो स्वयं अग्नि काष्ठ भक्षण करूँगा। युधिष्ठिर का सामना जब कर्ण से हुआ तो दोनों में घमासान युद्ध हुआ लेकिन कर्ण जैसे धनुर्धर के सामने युधिष्ठिर कहाँ टिकते, लेकिन कर्ण कुंती के प्रति वचनबद्ध थे कि मैं अर्जुन को छोड़कर तुम्हारे किसी बेटे को नहीं मारूंगा। तुम्हारे पाँच बेटे रहेंगे। अर्जुन मरा तो भी मैं तुम्हारा बेटा हूँ और मैं मरा तो अर्जुन तुम्हारा बेटा है ही। इसलिए उन्होंने युधिष्ठिर को छोड़ दिया और कहा जाओ अर्जुन को भेज दो। अर्जुन को कहना मैंने तुम्हें छोड़ दिया। इससे युधिष्ठिर बहुत आहत व अपमानित हुए। वह जब शिविर में आए तो अर्जुन को बहुत भला-बुरा कहा। कहा कि बड़ा गर्व था अपने गांडीव धनुष पर, क्या हो गया तुम्हारे गांडीव को? गांडीव के रहते तुम्हारा बड़ा भाई अपमानित हो गया। अब अर्जुन धर्मसंकट में फँस गये क्योंकि उन्होंने प्रण लिया था कि जो मेरे गांडीव की निंदा करेगा मैं उसका वध कर दूँगा या स्वयं अग्नि काष्ठ भक्षण कर लूँगा। अब क्या करूँ? तब भगवान कृष्ण जो सारथी थे (सही रास्ते पर जो ले जाए वही सच्चा सारथी होता है) ने एक हल निकाला कि अर्जुन तुम अपनी स्तुति करो। स्वयं की स्तुति अपनी हत्या करने जैसा होता है। अर्जुन ने स्वयं की स्तुति की और इस तरह से प्रण पूरा हो गया।

ऐसे ही एक बार राजा ययाति मृत्यु के पश्चात स्वर्ग में पहुंचे तो इंद्र को भय लगा किया ययाति तो बहुत प्रतापी राजा रहे हैं। विश्व में उन्होंने बहुत बड़े-बड़े कार्य किए हैं, यह मेरे इंद्रासन को न छीन ले। इंद्र ने ययाति को कहा कि आपने पृथ्वी पर क्या-क्या बड़े कार्य किए हैं, उसका बखान तो करो। ययाति इंद्र के बहकावे में आ गए और अपने कार्यों का बखान शुरू कर दिया। जब पूरा बखान कर दिया तब इंद्र ने कहा हो गया आपके स्वर्ग का काम। तो व्यक्ति जब स्वयं का बखान करता है उसके पुण्य या गुण नहीं रहते, तिरोहित हो जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं।

16.18

अहङ्कारं(म्) बलं(न्) दर्पं(ङ्), कामं(ङ्) क्रोधं(ञ्) च संश्रिताः ।
मामात्मपरदेहेषु, प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।16.18।।

(वे) अहंकार, हठ, घमण्ड, कामना और क्रोध का आश्रय लेने वाले मनुष्य अपने और दूसरों के शरीर में (रहने वाले) मुझ अन्तर्यामी के साथ द्वेष करते हैं (तथा) (मेरे और दूसरों के गुणों में) दोष दृष्टि रखते हैं।

विवेचन- अहंकार, मैं जैसा कहूँ वैसा ही हो, यह आसुरी संपदा। यहाँ बल शक्ति नहीं एक आग्रह है। मैं और मेरा, यह दर्प, घमंड है, जो काम और क्रोध का आश्रय लेते हैं। अपने स्वयं के अंदर रहने वाले भगवान का द्वेष करते हैं और जो सामने जो लोग हैं उसके अहम् को ठेस पहुँचाकर इस तरह उनके अंदर भी रहने वाले भगवान से द्वेष करते हैं। पूरी तरह से अहंकार, बल, अभिमान, काम, और क्रोध के वशीभूत होकर ऐसे आसुरी वृत्ति के लोग मुझ से द्वेष करते हैं घृणा करते हैं। मैं उनके और दूसरों के शरीर में भी वास करता हूँ। यहाँ भगवान अपना पता देते हैं कि मैं कहाँ मिलता हूँ और पूरी गीताजी में भगवान बार-बार अपना पता देते हैं और बताते हैं कि मैं प्रत्येक जीव में हूँ।

16.19

तानहं(न्) द्विषतः(ख्) क्रूरान् , संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभान्, आसुरीष्वेव योनिषु।।16.19।।

उन द्वेष करने वाले, क्रूर स्वभाव वाले (और) संसार में महानीच, अपवित्र मनुष्यों को मैं बार-बार आसुरी योनियों में ही गिराता ही रहता हूँ।

विवेचन- भगवान कहते हैं इस प्रकार अशुभ, द्वेष करने वाले आसुरी संपत्ति वाले लोग (ऐसे क्रूर लोग जिनके लिए भगवान ने कठोरतम शब्द काम में लिया है) नराधम होते हैं। इन लोगों को मैं बारंबार आसुरी योनि में ही डालता हूँ। यद्यपि यह मनुष्य योनि में जन्म तो लेते हैं लेकिन यह मनुष्य में सबसे अधम होते हैं तभी इनको नराधम कहा। शक्ति परमात्मा से मिलती है और इच्छा जीव की होती है।

16.20

आसुरीं(य्ँ) योनिमापन्ना, मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय, ततो यान्त्यधमां(ङ्) गतिम्।।16.20।।

हे कुन्तीनन्दन ! (वे) मूढ मनुष्य मुझे प्राप्त न करके ही जन्म-जन्मान्तर में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, (फिर) उससे भी अधिक अधम गति में अर्थात् भयंकर नरकों में चले जाते हैं।

विवेचन- हे कौन्तेय, बारंबार असुरों के बीच जन्म लेने वाले ऐसे मूर्ख मुझे कभी प्राप्त नहीं करते। वे सर्वाधिक घृणित अवस्था में गिर जाते हैं। उनके अंदर परमात्म तत्त्व होते हुए भी परमात्मा को प्राप्त नहीं करते, वे अनेक जन्मों तक आसुरी योनि में भटकते हैं।

16.21

त्रिविधं(न्) नरकस्येदं(न्), द्वारं(न्) नाशनमात्मनः।
कामः(ख्) क्रोधस्तथा लोभ:(स्), तस्मादेतत्त्रयं(न्) त्यजेत्।।16.21।।

काम, क्रोध और लोभ - ये तीन प्रकार के नरक के दरवाजे जीवात्मा का पतन करने वाले हैं, इसलिये इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये।

विवेचन- भगवान कहते हैं काम, क्रोध तथा लोभ नरक के द्वार हैं। ये आत्मा का नाश करते हैं, इनसे जीवन अधोगति को प्राप्त होता है, जीवन का अपनयन होता है। इनके कारण आसुरी संपत्ति बढ़ती है अतः इनका त्याग करना चाहिए। कामना यदि मर्यादा में रहकर की जाए तो ईश्वर स्वरूप होती है किंतु अमर्यादित कामना, जैसी रावण ने की थी, से नाश होता है। रावण व बाली में ये तीनों आसुरी गुण थे। काम और क्रोध शारीरिक विकार हैं तथा लोभ मानसिक विकार है। शारीरिक विकार शारीरिक शक्ति कम होने पर क्षीण भी हो जाते हैं लेकिन मानसिक विकार ज्यादा घातक होता है क्योंकि मन कभी क्षीण नहीं होता।

स्वामी विवेकानंद ने एक बहुत सुंदर बात कही है-
Heaven and hells are not things for all. To be in company of good is heaven and company of bad is hell.

16.22

एतैर्विमुक्तः(ख्) कौन्तेय, तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः(श्) श्रेयस् , ततो याति परां(ङ्) गतिम्।।16.22।।

हे कुन्तीनन्दन ! इन नरक के तीनों दरवाजों से रहित हुआ (जो) मनुष्य अपने कल्याण का आचरण करता है, (वह) उससे परम गति को प्राप्त हो जाता है।

विवेचन- भगवान कहते हैं कि हे कुंतीपुत्र इन तीन नरक के द्वारों से जो छूट गया, मुक्त हो गया, वह परम गति में पहुँच जाता है। वह अपने सर्वोत्तम हित के अनुकूल ही अपना आचरण करता है। हमारे संतों, मनीषियों ने इस संबंध में कहा है कि इन से मुक्त होने के लिए व्यक्ति को स्वयं अपने को देखना होता है, किसी अन्य को नहीं।
कबीरदास जी कहते हैं-
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय ।
अर्थात जो संत पुरुष होते हैं वह सदैव यही कहते हैं कि मुझ में ही, जब भी ढूँढता हूँ, कोई न कोई बुराई मिल जाती है।

 शायर गालिब का एक शेर बताया गया है-
उम्र भर ग़ालिब यही भूल करता रहा.
धूल चेहरे पे थी और आईना साफ़ करता रहा
गीता का एक महत्वपूर्ण एवं परमप्रिय शब्द है श्रेय। श्रेय सदा पूछना पड़ता है। अर्जुन ने भी गीता के दूसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण से जब यह पूछा कि मेरा श्रेयस्कर क्या है, मुझे बताओ और अपनी शरणागति दर्शाई तब भगवान ने अपने मुखारविंद से अर्जुन को उपदेश दिया।

16.23

यः(श्) शास्त्रविधिमुत्सृज्य, वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति , न सुखं(न्) न परां(ङ्) गतिम् ।।16.23।।

जो मनुष्य शास्त्रविधि को छोड़कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि (अन्तःकरण की शुद्धि) को, न सुख (शान्ति) को (और) न परमगति को (ही) प्राप्त होता है।

विवेचन- जो व्यक्ति अपनी भौतिक इच्छाओं और कामनाओं को पूरा करने के लिए शास्त्रों के नियमों की अवहेलना करता है वह कभी सिद्धि, सुख या परम गति को प्राप्त नहीं करता। यह संपूर्ण सृष्टि नियमों से बंधी हुई है। सूर्य, पृथ्वी, चंद्रमा, ग्रह, नक्षत्र आदि सभी अपने अपने नियमों से अपनी कक्षाओं में अपने समयावधि के अनुरूप चलते हैं। हमारे वेद Constitution of Cosmos है। आसुरी संपदा के लोग नियमों के अनुसार कार्य नहीं करते।

16.24

तस्माच्छास्त्रं(म्) प्रमाणं(न्) ते, कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं(ङ्), कर्म कर्तुमिहार्हसि।।16.24।।

अतः तेरे लिये कर्तव्य-अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र (ही) प्रमाण है - (ऐसा) जानकर (तू) इस लोक में शास्त्रविधि से नियत कर्तव्य-कर्म करने योग्य है अर्थात् तुझे शास्त्रविधि के अनुसार कर्तव्य-कर्म करने चाहिये।

विवेचन- यह जानने के लिए कि क्या करना है और क्या नहीं करना, इसके लिए हमारे वेद-शास्त्र ही प्रमाण है, आधार हैं, इसलिए शास्त्रों के अनुसार ही कार्य करना चाहिए।

ज्ञानेश्वर जी महाराज कहते हैं कि -
शास्त्र म्हणेल जें सांडावें । तें राज्यही तृण मानावें ।
जें घेववी तें न म्हणावें । विषही विरुद्ध ॥ ४६० ॥
 "अगर शास्त्र ने कहा है कि यह छोड़ना है, तो राज्य को भी तृणवत मानना"। नियमों का पालन बहुत आवश्यक है, जैसे कोरोना काल में जिन लोगों ने नियम तोड़े, उन्हें बाद में भुगतना पड़ा। जिसके पास भी जो ज्ञान हो, प्रमाण हो उससे पूछो और प्राप्त कर लो।

प्रश्नोत्तर:-

प्रश्नकर्ता: अनुराधा दीदी

प्रश्न- आत्मस्तुति उचित है या अनुचित?

उत्तर- यहाँ पर आत्मस्तुति का भाव क्या है, इस पर निर्भर करता है। किसी को नीचा दिखाने के लिए की गई आत्म स्तुति सर्वथा अनुचित है। बच्चों को अपना अनुभव बताने के लिए या प्रोजेक्शंस बताने हो उसके लिए उचित है। कई बार हमें अपना परिचय भेजना पड़ता है तो उसमें सब लिखना पड़ता है मैंने यह यह किया है, तो यह भाव पर निर्भर करता है कि आप किस भाव से आत्म स्तुति कर रहे हैं।

  प्रश्नकर्ता: चन्द्रधर भैया

प्रश्न- शुचिता शब्द का क्या अर्थ है?

उत्तर- शुचिता अर्थात शुद्धता, जो इस सृष्टि के व्यवहार से भी प्रभावित नहीं होती हो।

  प्रश्नकर्ता: हरदीप जोशी जी

प्रश्न-
एक श्लोक में 'आत्मा का नाश' ऐसा वाक्यांश आया है?

उत्तर- आत्म स्तर पर, आत्म बुद्धि ढक जाती है, आत्मा पर आवरण आ गया, वहाँ से कोई ऊर्जा या प्रकाश नहीं मिलता यही भावार्थ है।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्याय:।।

इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘देवासुरसम्पदविभाग योग’ नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।