विवेचन सारांश
भगवान के प्रिय भक्तों के लक्षण

ID: 2332
Hindi - हिन्दी
शनिवार, 21 जनवरी 2023
अध्याय 12: भक्तियोग
2/2 (श्लोक 13-20)
विवेचक: गीता विशारद डॉ. संजय जी मालपाणी


प्रार्थना, दीप प्रज्वलन एवं गुरु वंदना के साथ भक्तियोग के उत्तरार्द्ध के विवेचन का सत्र आरंभ हुआ। वैसे तो श्रीमद्भगवद्गीता का चाहे कर्मयोग हो या ज्ञान (सांख्य)योग, या कोई अन्य अध्याय हो, भक्ति का समावेश तो होता ही है। भक्तियोग गीता का प्राण है।

अर्जुन ने पहले पूछा था कि कौन श्रेष्ठ है? सगुण, साकार की उपासना करने वाले या निर्गुण, निराकार की उपासना करने वाले? भगवान ने कह दिया सगुण, साकार की उपासना करने वाले श्रेष्ठ योगी हैं तथापि कर्मयोग व सांख्ययोग मार्ग से भी वे मुझ तक ही पहुँचते हैं किंतु यह मार्ग कठिन है।

भगवान ने अर्जुन से कहा था कि तू अपने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पण कर तथापि यह कठिन कार्य है।

यद्यपि प्रथम अध्याय में भगवान तो कुछ बोले ही नहीं थे। धृतराष्ट्र ने संवाद प्रारंभ किया और फिर सञज्य धृतराष्ट्र को युद्ध का घटनाक्रम बताने लगे थे। अर्जुन जब युद्ध क्षेत्र में आते हैं तो भगवान श्रीकृष्ण से रथ को रणाङ्गण के मध्य में लेने के लिए कहते हैं और सारा परिदृश्य देखकर अर्जुन गलितगात्र हो जाते हैं तथा भगवान से लगातार कह रहे होते हैं कि मैं युद्ध नहीं करना चाहता।

भगवान कुछ बोलते ही नहीं है फिर भी अध्याय के अंत में कहा जाता है-

"ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोध्याय:"

 यह श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद फिर किस प्रकार घटा? भगवान तो बोले ही नहीं थे। अर्जुन बोल रहे थे और भगवान श्रीकृष्ण सुन रहे थे, संवाद घट गया। 

भक्तियोग में भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तू मुझ में मन लगा और मुझ में ही बुद्धि लगा, अगर तुम्हें यह कठिन लगता हो तो मेरे लिए काम करो और अपने कर्मों को मुझे अर्पण करो। इस प्रकार तुम परम सिद्धि को प्राप्त करोगे।


एक बार पांडुरंग शास्त्री आठवले ने एक स्वाध्याय परिवार संगठन स्थापित किया जिसमें लोगों को किसी एक मंदिर में एकत्रित होकर स्वाध्याय करना सिखाया। एक दिन बहुत तेज बारिश आई। इतनी तेज नदी पार कर मंदिर में जाना संभव नहीं था। पांडुरंग शास्त्री आठवले वहाँ पहुँचे तो देखा कोई भी अन्य भक्त नहीं है। उन्होंने स्वाध्याय किया और वापस आए तो उनके साथ के एक आदमी ने पूछा कि दादा आपने स्वाध्याय किसके लिए किया? वहाँ तो कोई था ही नहीं? तब पांडुरंग शास्त्री आठवले बोले कि यह स्वाध्याय मैंने अपने लिए, भगवान के लिए किया। वहाँ पर और कोई नहीं पहुँचा पर हनुमान जी तो बैठे ही थे।

कहने का भाव यह कि अगर तुम रसोई करती हो तो यह सोचकर रसोई करो कि मुझे भगवान को भोग लगाना है, तुम कोई व्यापार करते हो तो यह सोच कर कि आने वाला प्रत्येक ग्राहक मेरा ही रूप है, भगवान का ही रूप है, यदि शिक्षक हो तो प्रत्येक बालक को भगवान स्वरूप जान कर उसको शिक्षा दो, डॉक्टर हो तो प्रत्येक रोगी में भगवान की छवि देखो। यदि तुम यह भी नहीं कर पाओ तो अपना कर्म करो और उसके फलों को मुझे अर्पण करो और मन को वश में रखकर अपने कर्मों के सारे फलों का त्याग करो। अपेक्षाएँ सारे दुःखों की जड़ है, अनपेक्षा का भाव जिस क्षण बन जाएगा मन शांत हो जाएगा। भगवान पुरुषार्थ करने के लिए कहते हैं। अर्जुन को भी कहा था युद्ध कर। कर्त्तव्य समझकर कर्म कर और उन कर्म फलों को मुझमें अर्पित कर, मन शांत होगा। शांत मन ही भक्ति कर सकता है। मन शांत होगा तो विचार रुक जाएगें। विचार रुक जाएँगे तो विकार रुक जाएँगे तब मन के अंदर एक स्थान बनेगा और उस स्थान पर भगवान प्रतिष्ठित होंगे।

हे अर्जुन! तुम इस उपदेश का पालन न भी कर पाए तो अपने आप को ज्ञान की साधना में नियुक्त करो। अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से परमात्मा का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी श्रेष्ठ है कर्म फल का त्याग। बिना किसी अपेक्षा के दान करोगे या अपने कर्म फल का त्याग करोगे, यह सर्वश्रेष्ठ है। वृक्ष अपने फलों को त्याग देते हैं, पहाड़ों पर जो वर्षा होती है वह कहाँ रुकती है, स्वप्न में कोई उपहार देता है तो जागने पर हम उसे भूल जाते हैं, कोई अपेक्षा नहीं रखते। बेटी को पाल पोस कर बड़ा करते हैं और फिर कन्यादान का जो आनंद है उसको अनुभूत करते हैं। कर्मफल त्याग से आने वाली शांति से मन मंदिर में भगवान की प्रतिष्ठा होती है। मंदिर अर्थात मन में शांति, मन में प्रवेश करना, मंदिर में जाना।
अब यह देखना है कि किस प्रकार से भक्त ऐसा कर सकते हैं?

12.13

अद्वेष्टा सर्वभूतानां(म्), मैत्रः(ख्) करुण एव च|
निर्ममो निरहङ्कारः(स्), समदुःखसुखः क्षमी||13||

सब प्राणियों में द्वेषभाव से रहित और मित्र भाव वाला (तथा) दयालु भी (और) ममता रहित, अहंकार रहित, सुख दुःख की प्राप्ति में सम, क्षमाशील, निरन्तर सन्तुष्ट, योगी, शरीर को वश में किये हुए, दृढ़ निश्चयवाला, मुझ में अर्पित मन बुद्धि वाला जो मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है। (12.13-12.14)

विवेचन- वह व्यक्ति जो द्वेष रहित हो, जो सभी लोगों के लिए, सभी प्राणियों के लिए किसी भी प्रकार का द्वेष नहीं रखता हो। सभी जीवों के लिए मैत्री और करुणा का भाव हो। जैसे- नाग पंचमी को नाग की पूजा की जाती है, चीटियों के लिए शक्कर-आटा डाला जाता है, पक्षियों को चुग्गा डाला जाता है।

भगवान कहते हैं जो व्यक्ति सदा संतुष्ट हो। जीवन की ABCD में B for Birth और D for Death होता है। इन दोनों के बीच में C आता है। यह C होता है Choice, अब यह आपकी Choice है कि आप संतुष्ट रहो या असंतुष्ट। इस C से सदैव यही सीखना है कि हम संतुष्ट रहें चाहे कैसी भी सम-विषम परिस्थिति हो।

भक्तियोगी सभी स्थितियों में क्षमाशील हो। जीवन में क्षमा का भाव न हो तो द्वेष का कांटा आत्मा में गड़ जाएगा और मृत्यु के समय यही कांटा इस भाव के साथ किसी दूसरे जन्म में चला जाएगा, जिसे कहते हैं ना इच्छाधारी नाग अर्थात बदला लेने की प्रवृत्ति।

पुनरपि जननं, पुनरपि मरणं..

ऐस मनुष्य बार-बार जन्म मृत्यु के चक्कर में ही फंसा रहता है। 

भगवान आदि शंकराचार्य कहते हैं-

भज गोविंदं भज गोविंदं, गोविंदं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले, न हि न हि रक्षति डुकृञ करणे।।

जन्म - मरण का चक्कर तभी मिटेगा जब अंदर के सारे विकार निकल जाएंगे। जब शांति होगी, जब मन विकारों से मुक्त होगा, शुद्ध होगा तभी भगवान उसमें प्रवेश करेंगे। भगवान के विराजने के लिए श्वेतकमल चाहिए, मलिन स्थान नहीं। भगवान कहते हैं! जिसका संकल्प दृढ़ है और जिसके मन और बुद्धि मेरे चिंतन में रहते हैं वह व्यक्ति मेरा भक्त है और इसलिए वह मुझे अत्यंत ही प्रिय है।

12.14

सन्तुष्टः(स्) सततं(य्ँ) योगी, यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धि:(र्), यो मद्भक्तः(स्) स मे प्रियः॥12.14॥

12.14 writeup

12.15

यस्मान्नोद्विजते लोको, लोकान्नोद्विजते च यः|
हर्षामर्षभयोद्वेगै:(र्), मुक्तो यः(स्) स च मे प्रियः||15||

जिससे कोई भी प्राणी उद्विग्न (क्षुब्ध) नहीं होता और जो स्वयं भी किसी प्राणी से उद्विग्न नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (ईर्ष्या), भय और उद्वेग (हलचल) से रहित है, वह मुझे प्रिय है।

विवेचन- भगवान बताते हैं कि मेरे भक्तों में और क्या गुण होते हैं?

जिसके कारण किसी प्राणी को कोई पीड़ा नहीं पहुँचती और उसको भी दूसरों से कोई पीड़ा नहीं होती हो। जो हर्ष (क्षणिक आनंद की अनुभूति), अमर्ष (क्षणिक दु:ख / जिसे दूसरों की प्रगति पर दु:ख हो), उद्वेग (reactive होना, ना सुनने की आदत नहीं होना) और भय से मुक्त रहता है, वह मुझे बहुत प्रिय है। बड़े से बड़ा दु:ख भी क्षणिक होता है। गहन दुःख भी महीने दो महीने, साल, दो साल में समाप्त हो जाता है। आजकल उद्वेग भी बहुत बढ़ रहा है। उद्वेग के कारण लोग आत्महत्या तक कर लेते हैं। विद्यार्थी जिन्होंने परीक्षा में बड़ी अपेक्षाएँ पाल रखी होती है जब वह सफल नहीं होते इस उद्वेग से वह अपने आप को समाप्त कर लेते हैं।

एक भक्त स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास गए और उनसे निवेदन किया कि वह शराब छोड़ना चाहते हैं लेकिन शराब नहीं छूटती। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने उसे आश्वस्त किया और कहा कि बैठो। फिर स्वामी रामकृष्ण परमहंस अचानक मंदिर के बाहर गए और एक पेड़ को भुजाओं में अच्छी तरह पकड़ लिया और जोर - जोर से चिल्लाने लगे कि मुझे पेड़ ने पकड़ लिया, पेड़ ने पकड़ लिया, पेड़ ने पकड़ लिया। भक्त दौड़कर बाहर आया तो देखा गुरुजी चिल्ला रहे हैं और कहे जा रहे हैं कि मुझे पेड़ ने पकड़ रखा है, कोई मुझे छुड़ाओ तो भक्त बोला, गुरुदेव पेड़ को तो आपने पकड़ रखा है, पेड़ ने आपको कहाँ पकड़ रखा है। आप छोड़ दो, छूट जाएगा। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जोर से हँसे और बोले तू ने शराब को पकड़ रखा है शराब ने तुम्हें नहीं पकड़ रखा, तुम शराब को छोड़ दो, शराब छूट जाएगी।

भगवान कहते हैं - जो हर्ष, अमर्ष, भय व उद्वेग इन चारों को छोड़ देते हैं ऐसे भक्त मुझे अत्यंत प्रिय है।

12.16

अनपेक्षः(श्) शुचिर्दक्ष, उदासीनो गतव्यथः|
सर्वारम्भपरित्यागी, यो मद्भक्तः(स्) स मे प्रियः||16||

जो अपेक्षा (आवश्यकता) से रहित, (बाहर-भीतर से) पवित्र, चतुर, उदासीन, व्यथा से रहित (औरः सभी आरम्भों का अर्थात् नये-नये कर्मों के आरम्भ का सर्वथा त्यागी है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है।

विवेचन- भगवान कहते हैं! अनपेक्ष, जो अपेक्षा नहीं करता, शुचिता अर्थात अंतर, बाह्य निर्मलता रखता है। बाहर की शुचिता तो साबुन से भी हो जाती है लेकिन अंदर की शुचिता काम, क्रोध, कामनाओं को निकालने, अंदर के मैल को निकालने से आती है। इसके लिए भक्ति का साबुन चाहिए। इसलिए हमारे यहाँ स्नान के साथ ही भगवान को याद करने की परंपरा है।

दक्षता अर्थात् सावधान, उदासीन अर्थात् तटस्थ। दु:ख में भी जो शांति से रहे।

सर्वारंभ परित्यागी अर्थात् यह मैंने किया इस अहंकार का त्याग करता है, वह भक्त मुझे सबसे अधिक प्रिय है।

12.17

यो न हृष्यति न द्वेष्टि, न शोचति न काङ्क्षति|
शुभाशुभपरित्यागी, भक्तिमान्यः(स्) स मे प्रियः||17||

जो न (कभी) हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है (और) जो शुभ-अशुभ कर्मों से ऊँचा उठा हुआ (राग-द्वेष रहित) है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।

विवेचन- जो हर्ष से परे हो जाता है, जो द्वेष से मुक्त हो जाता है, शोच अर्थात शोक से भी मुक्त हो जाता है।

न कांङ्क्षति- जो किसी से भी कोई अपेक्षा नहीं रखता, अशुभ का भी परित्यागी, शुभ भी मेरा नहीं है, बस हो गया अर्थात 'इदं न मम'।

जब यज्ञ करते हैं तो हवि डालते हैं,

अग्नये स्वाहा
अग्नये इदं न मम- यह अग्नि का हो गया।

सूर्याय स्वाहा
सूर्याय इदं न मम- यह सूर्य का हो गया।

प्रजापतये  स्वाहा
प्रजापति इदं न मम- यह मेरा नहीं है प्रजापति का हो गया।

कैमरे से फोटो निकला, कैमरा स्वयं भी कहता है "क्या मेरा है"? फोटो निकलने के अगले ही क्षण शरीर बदल जाता है। लाखों कोशिकाएँ मर जाती हैं, लाखों कोशिकाएँ नई पैदा हो जाती हैं, जीवन आगे बढ़ता रहता है। क्या मेरा? मेरे हाथ में कुछ भी नहीं है इसलिए अहंकार भी किस बात का? अपने सौंदर्य का, ज्ञान का, पद-प्रतिष्ठा का, संपत्ति का जिसे कोई अहंकार नहीं, ऐसे भक्तगण मुझे अत्यंत प्रिय है।

12.18

समः(श्) शत्रौ च मित्रे च, तथा मानापमानयोः|
शीतोष्णसुखदुःखेषु, समः(स्) सङ्गविवर्जितः||18||

(जो) शत्रु और मित्र में तथा मान-अपमान में सम है (और) शीत-उष्ण (शरीर की अनुकूलता-प्रतिकूलता) तथा सुख-दुःख (मन बुद्धि की अनुकूलता-प्रतिकूलता) में सम है एवं आसक्ति रहित है (और) जो निन्दा स्तुति को समान समझने वाला, मननशील, जिस किसी प्रकार से भी (शरीर का निर्वाह होने न होने में) संतुष्ट, रहने के स्थान तथा शरीर में ममता आसक्ति से रहित (और) स्थिर बुद्धिवाला है, (वह) भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है। (12.18-12.19)

विवेचन- जो शत्रु तथा मित्र को समान मानने वाला, छोटी-छोटी चीजों से, बड़ी बातों के मान-अपमान में स्थिर रहे, यश-अपयश, गर्मी और सर्दी, सुख और दु:ख सभी में समान रहे। जो निंदा और प्रशंसा में समान रहे।

मौनी जिसने मौन धारण कर लिया अर्थात् मनन करने लगा, जो अपने अंदर देख रहा है।

अनिकेत जो स्थिरमति हो। निकेत अर्थात घर, जिसे अपने घर के प्रति भी कोई लगाव न रहे। जैसे- बादल आते हैं, काले, सफेद, पानी से भरे हुए, खाली, किंतु आकाश सदैव स्थिर रहता है।

इन समस्त गुणों के साथ जो सभी परिस्थितियों में संतुष्ट रहे ऐसे भक्त भगवान को बहुत प्रिय होते हैं।

12.19

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी, सन्तुष्टो येन केनचित्|
अनिकेतः(स्) स्थिरमति:(र्), भक्तिमान्मे प्रियो नरः||19||

12.19 writeup

12.20

ये तु धर्म्यामृतमिदं(य्ँ), यथोक्तं(म्) पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा, भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥12.20॥

परन्तु जो (मुझ में) श्रद्धा रखने वाले (और) मेरे परायण हुए भक्त इस धर्ममय अमृत का जैसा कहा कहा है, (वैसा ही) भली भांति सेवन करते हैं, वे मुझे अत्यन्त प्रिय हैं।

विवेचन- अंतिम श्लोक में भगवान कहते हैं कि तुम ऐसे बन सकते हो
क्या? धर्म का अमृत मैंने तुम्हें समझाया, तुम समझे या नहीं समझे?

एक दिन भगवान बुद्ध पर एक व्यक्ति ने थूक दिया। भगवान बुद्ध बोले- और भी कुछ कहना है?
बाद में उस व्यक्ति को बहुत दुःख हुआ, ग्लानि हुई और उसने मन में सोचा कि मैंने एक साधु आदमी को पीड़ा पहुँचाई, अपमान किया है। उसको पश्चाताप हुआ और वह अगले ही दिन भगवान बुद्ध के पास पुन: गया व उनको प्रणाम किया, पुष्प हार पहनाया।
इस बार भी भगवान बुद्ध ने कहा- और भी कुछ कहना है? अर्थात् तुम्हारे थूक और तुम्हारे फूल मेरे लिए दोनों एक समान हैं।

भगवान कहते हैं जैसा मैंने इस अमृत को कहा, वैसा ही जो प्राशन करेंगे, मुझ में श्रद्धा रखेंगे, ऐसे भक्त मुझे अत्यंत प्रिय होंगे। धर्म के अमृत का प्राशन कर तो लिया परंतु,' गीता पढ़ें, पढ़ाएँ, जीवन में लाएँ'। जीवन में लाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को थोड़ा-थोड़ा प्रयास प्रतिदिन करना चाहिए।

समापन प्रार्थना के साथ विवेचन सत्र समाप्त हुआ और परश्नोत्तर सत्र आरंभ हुआ।

प्रश्नोत्तर

प्रश्नकर्ता- शैलजा दीदी

प्रश्न- मैंने अभी L4 समाप्त किया है और मैं सतत् रूप से जुड़ी रहना चाहती हूँ तो मैंने पुन: मराठी भाषा में रजिस्ट्रेशन करवा लिया। अब मेरा प्रश्न है कि बारहवें अध्याय का जो बारहवाँ श्लोक है उसमें दोनों के हिंदी में और मराठी के अनुस्वार उच्चारण में अन्तर है?

उत्तर- दोनों ही उच्चारण सही है। पाणिनी के अनुसार यह भी सही है। जब पुस्तक में उसे छापना है तो जो उसका सर्वमान्य शुद्ध रूप है वह गुरुदेव से पूछ कर लिखा गया है। उच्चारण व्यक्तिपरक होता है। पाँच हजार पाँच सौ वर्षों से गीता आई तो निश्चित रूप से कुछ परिवर्तन भी हुए हैं और यहाँ पर उच्चारण तो कुछ कोस के अंतराल से भी बदल जाते हैं। आप अगर उसको बदल सकते हो तो बदलो, नहीं तो जो है वह भी ठीक है, आप तो बस गीता जी जीवन में उतारना आरंभ करो।

प्रश्नकर्ता- भूमिका जी चावड़ा

प्रश्न- मेरा मन चंचल है मेरा मन स्थिर नहीं है, मैं विद्यार्थी हूँ, श्रीमद्भगवद्गीता कैसे मदद करेगी?

उत्तर- श्रीमद्भगवद्गीता बहुत ज्यादा मदद करेगी। आप जैसे-जैसे आगे सीखते जाएँगी मन स्थिर होगा। भगवान ने छठवें अध्याय में बताया है आत्मनिग्रह के बारे में, कैसे एकाग्र होना है, सीखना होगा। अभी आपको मैं तीन बिंदु बता रहा हूँ, उनको व्यवहार में लाना शुरू कर दो।
1 सीधा बैठना।
2 अभ्यास प्रारंभ करने से पहले लंबी-लंबी दस साँसें लेना और जितने समय सांस अंदर लेना उतना ही बाहर छोड़ना।
3 यतात्मा दृढ़ निश्चय- जैसे अब मैं एक घंटा यहाँ से हिलूँगी ही नहीं।

प्रश्नकर्ता- विकास कुमार जी

प्रश्न- पंद्रहवें श्लोक को एक बार पुन: बताएं।

उत्तर- जो न कभी किसी को कष्ट देता है, न कभी दूसरों से पीड़ित होता है, जो हर्ष, क्रोध, भय और उद्वेग से मुक्त रहता है वह मुझे बहुत प्रिय है।

 प्रश्नकर्ता- अभिषेक जी

प्रश्न- बारहवें श्लोक में कर्म फल का त्याग करें तो क्या पुण्य मिलेगा? मैं परीक्षा में अच्छे नंबर लाने की कामना त्याग दूँ, तो क्या मुझे अच्छे नंबर मिलेंगे?

उत्तर- पढ़ाई तो आपको करनी पड़ेगी लेकिन यह अपेक्षा नहीं रखते हुए कि मुझे पहले नंबर पर आना है या मुझे इतने प्रतिशत नंबर लाना है, यह सब अपने मस्तिष्क में नहीं रखना। फल की अपेक्षा के कारण जो परीक्षा का फोबिया होता है वह नहीं होगा तो मन में शांति आएगी और उससे आप अधिक अच्छी तरह से प्रश्न पत्र हल कर पाएँगे। निश्चित ही आपको लाभ होगा।

प्रश्नकर्ता- अमृता जी

प्रश्न- क्रोध पर कैसे नियंत्रण लाएँ?

उत्तर- क्रोध पर नियंत्रण लाने के लिए हम अपने विवेक को जगाएँ। क्रोध वस्तुतः हमारे मस्तिष्क का अर्धचेतन स्तर पर अचेतन हो जाना है। इस अचेतनता को हटाने के लिए कुछ तो ऐसा करें जिससे कि ध्यान हटे। पहले जमाने में राम-राम, राम-राम करते थे अब कुछ ऐसा करना होगा जैसे  100-3, 97-3, 94-3, ??  इस तरह से जिस स्थान पर अटक जाएँगे तब क्रोध का जो बिंदु है वह नीचे आएगा। आप सदैव जागृत रहें। गीता कहती है भागो नहीं, जागो।

प्रश्नकर्ता- रंजना जी

प्रश्न- मेरे डेढ़ साल का छोटा बालक है उसे कैसे अच्छे संस्कार दूँ?

उत्तर- आप जब गीता पढ़ती हैं तो उसे अपने साथ बैठाएँ, उसे अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाएँ, पौराणिक पात्रों की, वीरों की। उससे खूब बातें करें, ज्ञानवर्धक बातें करें। आप कोई भी अच्छा काम करें तो उसे अपने साथ रखें। बच्चा सुनने से भी अधिक देख कर सीखता है। यूट्यूब पर मेरे वीडियो है "दो शब्द माँ के लिए, दो शब्द पिता के लिए" यद्यपि यह गीता से जुड़े हुए नहीं हैं पर आप उनको सुनते हैं तो आपको बहुत लाभ मिलेगा।

प्रश्नकर्ता- गीता जी

प्रश्न - मैं श्लोक मंत्र इत्यादि बोलती हूँ तो दूसरी बातों की चिंता बहुत सताती है, उस पर कैसे नियंत्रण पाएँ?

उत्तर - आप दो - दो नावों की सवारी मत करिए। किसी भी एक विषय पर ध्यान केंद्रित करिए। जैसे अभी गीता पढ़ रहे हो तो अन्य ग्रंथों को एक बार छोड़ दो केवल गीता को ही पढ़ो। दोनों में एक साथ सवारी मत करो। यद्यपि वह भी अच्छी बातें हैं, अच्छी चीजें हैं लेकिन एक समय में एक चीज पर एकाग्र होंगे तो ज्यादा अच्छा रहेगा।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः॥

इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘भक्तियोग’ नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।