विवेचन सारांश
विज्ञान सहित ज्ञान का वर्णन

ID: 258
हिन्दी
शनिवार, 30 अप्रैल 2022
अध्याय 9: राजविद्याराजगुह्ययोग
1/3 (श्लोक 1-9)
विवेचक: गीता विशारद डॉ आशू जी गोयल


दीप प्रज्वलन एवं कृष्णवंदना तथा गुरु महाराज की प्रार्थना के साथ आज के इस प्रवचन का प्रारंभ हुआ।आज अत्यंत आनंद का दिवस है, learngeeta के नए भवन में आज के विवेचन आरंभ होने जा रहा है यह अत्यंत हर्ष की बात है। पता नहीं पूर्वजन्म के किस पुण्य के कारण या किस संत महात्मा की हमारे ऊपर कृपा के कारण हम गीता अध्ययन कर रहे। आठवें अध्याय में अर्जुन प्रश्न पूछते हैं भगवान उसका निराकरण करते हैं। भगवान तो उत्तमोत्तम वक्ता हैं  उनकी विशिष्ट शैली भी है। भगवान यह देखते हैं कि अर्जुन को बात का पूरा मतलब नहीं समझ में आया है। इसलिए भगवान इस अध्याय में आगे ज्ञान विज्ञान के बारे मे
बताते है। 

9.1

श्रीभगवानुवाच
इदं(न्) तु ते गुह्यतमं(म्), प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं(व्ँ) विज्ञानसहितं(य्ँ), यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥9.1॥

श्रीभगवान् बोले -- यह अत्यन्त गोपनीय विज्ञान सहित ज्ञान दोष दृष्टि रहित तेरे लिये तो (मैं फिर) अच्छी तरह से कहूँगा, जिसको जानकर (तू) अशुभ से अर्थात् जन्म-मरण रूप संसार से मुक्त हो जायगा।

विवेचन :- ज्ञान का अर्थ है परोक्ष ज्ञान, प्रथम जो गुरुओं से सुनते है और दूसरा होता है अपरोक्ष ज्ञान।अनुभवजन्य का ज्ञान यह विज्ञान कहलाता है  जैसे दूध से दही बनता है यह ज्ञान है। दूध से दही की प्रक्रिया क्या है? जैसे दूध गुनगुना होने पर ही जामन डाला जाएगा। हर मौसम में दही जमाने के लिए अलग-अलग समय लगेगा। इसके पीछे जो विज्ञान है। विधि-प्रक्रिया की सूक्ष्मता है, उसे विज्ञान कहते हैं। भगवान ने अर्जुन को ही गीता बताने के लिए क्यों चुना। क्योंकि अर्जुन में दोष दृष्टि नहीं  है। यानी दूसरों में दोष नहीं देखते इस कारण अर्जुन में पात्रता निर्माण होती है। अर्जुन सदशिष्य हैं।अर्जुन कहते है जिससे मेरा कल्याण हो वह ज्ञान मुझे बताइए । मुझे जो प्रिय है, वह मत बताइए। दो बातें होती हैं एक प्रेय और दूसरा श्रेय। प्रेय जो अच्छा लगता है। श्रेय जो मेरे लिए अच्छा है, कल्याणकारी है। अर्जुन श्रेय चाहते हैं, हम प्रेय चाहते है । भगवान कहते हैं यानी सबसे बड़ा रहस्य मैं तुम्हें बताऊंगा। यह एक कहानी के द्वारा बताया गया।

एक गांव में एक सेठ जी बड़े अकड़ कर रहते थे। एक बार एक महात्मा के प्रवचन सुनने गए। महात्मा जी का ध्यान अपने ऊपर खींचने के लिए विविध प्रयास किये, किंतु महात्मा जी का ध्यान उन पर नहीं गया। एक बार देखा  कि महात्माजी तो दीक्षा देते हैं । महात्मा जी से दीक्षा मांगने लगे किंतु महात्मा जी ने ध्यान नहीं दिया। फिर एक बार देखा कि महात्मा जी को किसी ने खाने पर बुलाया। सेठ जी ने भी यह इच्छा व्यक्त की महात्मा जी बोले खाना नहीं खाऊंगा, मेरे कमंडल में जो डालना है उसे डाल देना। महात्मा जी के आने पर सेठ जी ने मावा, केसर डालकर खीर बनाई। वह कमंडल में डाल रहे थे, तो कमंडल  में देखा कि उसमें गोबर है और  खीर खराब हो गई है। महात्मा जी की तरफ देखा तो महात्मा जी ने कहा, ऐसे ही तुम्हारे मन मे मैल है। तुम्हारे मन में अहंकार है। इसलिए मैं तुम्हें दीक्षा नहीं दे सकता।  बिना पात्रता के ज्ञान नहीं दे सकते। मन में जो मैल है उसके साथ ज्ञान नहीं होता है।अर्जुन पवित्र है भगवान उसे यह ज्ञान देना चाहते हैं। भगवान साधुपुरुष, उत्तमपुरुष के दो गुण बताते हैं । वह आर्त होना चाहिए और अधिकारी होना चाहिए। आर्त यानी उसे जानने की बहुत इच्छा होनी चाहिए। वह ज्ञान का अधिकारी होता है। भगवान कहते हैं कि मैं तुम्हें जन्म मृत्यु के चक्र से छुडाऊँगा। अर्जुन का उद्धार करना चाहते हैं भगवान।

9.2

राजविद्या राजगुह्यं(म्), पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं(न्) धर्म्यं(म्), सुसुखं(ङ्) कर्तुमव्ययम्।।9.2।।

यह (विज्ञान सहित ज्ञान अर्थात् समग्र रूप) सम्पूर्ण विद्याओं का राजा (और) सम्पूर्ण गोपनीयों का राजा है। यह अति पवित्र (तथा) अतिश्रेष्ठ है (और) इसका फल भी प्रत्यक्ष है। यह धर्ममय है, अविनाशी है (और) करने में बहुत सुगम है अर्थात् इसको प्राप्त करना बहुत सुगम है।

विवेचन: - यह विद्या राजविद्या, संपूर्ण विद्याओं का राजा है और संपूर्ण गोपनियों में सर्वश्रेष्ठ गोपनीय ज्ञान है। यह पवित्र है, पवित्र से भी उत्तम पवित्र है। इसका फल भी प्रत्यक्ष है, करने योग्य है। तुरंत फल देने वाला है। जैसे बिटिया मां से अभी-अभी रोटियां बनने सीख रही है, तो रोटियाँ अलग-अलग देश के नक्शे के जैसे बनती है। फिर मां उपाय बताती है। रोटी बनाने के वक्त कैसे बेलन घुमाना है इत्यादि। फिर दो चार छ: महीने के बाद बेटी रोटी बनाना सीख जाती है। प्रत्यक्ष फल मिलता है। परंतु तुरंत नहीं मिलता है। किंतु अभ्यास से सिद्ध होने पर प्रत्यक्ष फल  मिलता है फिर गोल गोल रोटी बनती है।अभ्यास के कारण प्रत्यक्ष फल मिलता है।

सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥

 भावार्थ:-जो मनुष्य इस संत समाज रूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों फल पा
जाते हैं 

 मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥

भावार्थ:-इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है॥

अगर कोई सीए या डॉक्टर पिछले जन्म में डिग्री ले तो वह इस जन्म में काम में नहीं आएगी। किंतु भगवान कहते हैं यह ज्ञान जो प्राप्त कर लेता है। वह जन्म जन्मांतर के लिए होता है। इसके लिए हर बार डिग्री नहीं लेनी पड़ेगी। यह अव्यय है। किंतु इस ज्ञान को विज्ञान सहित मथना पड़ता है।

एक बार रामजी ने हनुमान से प्रश्न पूछा कि तुम्हारा मेरा संबंध क्या है? हनुमान ने कहा - हमारे तीन संबंध है। आप स्वामी है, मैं दास हूं । आप ब्रह्म है, मैं जीव हूं। तीसरा जो आप है मैं वही हूं। एक बार ज्ञान प्राप्त करने के बाद वह खत्म नहीं होता। काकभुशुंडी की कथा आती है काकभुशुंडी कौवे हैं । जब मेघनाथ की शक्ति ने राम जी और लक्ष्मण जी को नागपाश में बांध दिया, तब गरुड़ जी ने नागपाश काटा तब राम जी और लक्ष्मण जी को होश आया। गरुड़ जी को भ्रम हो गया कि यह मेरे भगवान कैसे हो सकते हैं? यह प्रश्न उन्होंने शिवजी से पूछा तो उन्होंने कहा काकभुशुंडी के पास चले जाओ। काकभुशुंडी ने कहा मेरी कहानी 27 कल्प पुरानी है। एक बार सब जगह अकाल पड़ा था सिर्फ उज्जैन में ही नहीं पड़ा था ।सब लोग ने कहा कि राम जी से शिव जी की भक्ति बड़ी है। मै शिव जी की भक्ति करने लगा। गुरुमंत्र गुरु जी से लेकर भक्ति करने लग गया। एक बार गुरुजी ने कहा तुम तो राम के भूमि अयोध्या से हो, वहां तो सब राम की महिमा का वर्णन करते हैं। उसने कहा क्या गुरुजी? शिवजी के आगे रामजी क्या हैं ? इसके बाद वह गुरुजी को महत्व नहीं देने लगा  गुरुजी से ईर्ष्या और उनकी अवहेलना करने लगा। एक बार शिवालय मे बैठा था। तभी वहां गुरुजी आ गए, शिष्य ने देखकर उन्हें अनदेखा कर दिया और आँखें मूंदकर कर बैठा रहा। गुरुजी सरल स्वभाव के थे उन्होंने इस पर जरा भी ध्यान नहीं दिया । किंतु आकाश से आकाशवाणी हुई कि जैसे तुम गुरुजी का अनादर करते अजगर की तरह बैठे पड़े रहे वैसे हजार साल तक तुम पड़े रहोगे। गुरुजी को दया आ गए उन्होंने शिवजी की स्तुति करना चालू कर दिया। शिव ताण्डव स्त्रोत्र की लिंक दी जा रही है। 


भगवान महादेव ने प्रसन्न होकर साक्षात दर्शन दिए,  मैंने पाप किए थे इसलिए मुझे श्राप मिला था। लेकिन गुरु जी की विनती के कारण भगवान ने कहा यह उत्तम भक्त है। किंतु मेरा शाप बेकार नहीं जाएगा। किंतु इसका ज्ञान बना रहेगा। शाप खत्म होने पर उत्तम वेदांती  के घर मैंने जन्म लिया। पिता वेदांती थे तो मैं उनसे भक्ति के लिए बहस करने लगा। बाद में और ज्ञान प्राप्त करने के लिए लोमश ऋषि के यहां गया। उनसे भी मैंने वाद विवाद किया। लोमश ऋषि को क्रोध आ गया। उन्होंने कहा एक पक्ष के अलावा तुम कोई बात नहीं सुनते हो। जाओ तुम चांडाल पक्षी बन जाओ। शांति से शाप ग्रहण करके मैं वहां से उड़ गया। बाद में लोमश ऋषि ने कहा मैं तुमसे क्षमा मांगने आया हूं। लोमश ऋषि ने कहा तुम क्या चाहते हो? मैंने कहा भगवान की 1 से 5 वर्ष की आयु में मैं उनसे हर बार दर्शन करना चाहूंगा। ऋषी ने "तथास्तु" कहा। उपरांत  27 कल्पो में जब भी भगवान अवतार धारण करके आते हैं मैं उसके दर्शन करता हूं। एक बार भगवान बालक रूप में आए थे तो मुझे संदेह हो गया, क्या यही भगवान है ? मति भ्रम वश, भगवान श्री राम को मैं सामान्य मानव के रूप में देखने लगा था। बाद में मुझे भगवान ने एक छोटे से उपक्रम से दर्शा दिया कि  इतने  कल्पों तक मैंने साधना की लेकिन फिर भी माया बड़ी प्रबल है। इसलिए साधना निरंतर करनी चाहिए। प्रभु की भक्ति करनी चाहिए ।
 

9.3

अश्रद्दधानाः(फ्) पुरुषा, धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां(न्) निवर्तन्ते, मृत्युसंसारवर्त्मनि।।9.3।।

हे परंतप! इस धर्म की महिमा पर श्रद्धा न रखने वाले मनुष्य मुझे प्राप्त न होकर मृत्युरूप संसार के मार्ग में लौटते रहते हैं अर्थात् बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं।

विवेचन :- भगवान कहते हैं विज्ञान से ज्ञान की महिमा पर श्रद्धा न रखने वाले मनुष्य इससे लाभ नहीं उठा सकते हैं । जिसकी श्रद्धा नहीं होते हैं उसका नाश हो जाता है।

9.4

मया ततमिदं(म्) सर्वं(ञ्), जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि, न चाहं(न्) तेष्ववस्थितः।।9.4।।

यह सब संसार मेरे निराकार स्वरूप से व्याप्त है। सम्पूर्ण प्राणी मुझ में स्थित हैं; परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ तथा (वे) प्राणी (भी) मुझ में स्थित नहीं हैं - मेरे इस ईश्वर-सम्बन्धी योग (सामर्थ्य) को देख ! सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाला और प्राणियों का धारण, भरण-पोषण करने वाला मेरा स्वरूप उन प्राणियों में स्थित नहीं है। (9.4-9.5)

9.4 writeup

9.5

न च मत्स्थानि भूतानि, पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो, ममात्मा भूतभावनः।।9.5।।

विवेचन:- बर्फ में जल है। जल में बर्फ है बर्फ में जल की तरह संसार भगवान की सत्ता है। जल में तरंगे होती हैं पर जल तरंग नहीं होता न तरंग जल होती है,  ऐसे ही संसार भासता है किंतु होता नहीं है।

9.6

यथाकाशस्थितो नित्यं(व्ँ), वायुः(स्) सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि, मत्स्थानीत्युपधारय॥9.6॥

जैसे सब जगह विचरने वाली महान् वायु नित्य ही आकाश में स्थित रहती है, ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी मुझमें ही स्थित रहते हैं - ऐसा तुम मान लो।

विवेचन:- ऐसे ही संपूर्ण प्राणी भगवान से उत्पन्न होते हैं भगवान में स्थित होते तथा भगवान में ही लीन हो जाते हैं अर्थात भगवान को छोड़कर प्राणियों की स्वतंत्र सत्ता है ही नहीं।

9.7

सर्वभूतानि कौन्तेय, प्रकृतिं(य्ँ) यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि, कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥9.7॥

हे कुन्तीनन्दन ! कल्पों का क्षय होने पर (महाप्रलय के समय) सम्पूर्ण प्राणी मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं (और) कल्पों के आदि में (महासर्ग के समय) मैं फिर उनकी रचना करता हूँ।

विवेचन:-

हमारे शरीर की हर कोशिका साढ़े 3 साल में नई बनती है। यह संसार हर पल बदलता रहता है। तो क्या कल्प के अंत में हमारे पाप नष्ट होते हैं क्या? भगवान कहते नहीं कर्मफल कभी नष्ट नहीं होते हैं।

उदाहरण स्वरूप : मोबाइल में हमने फिल्म डाउनलोड करें अथवा  प्रवचन डाउनलोड करें तो क्या मोबाइल की मेमोरी फूलती है - नहीं। वैसे ही डिलीट करने पर सिकुड़ती  है - नहीं।  मोबाइल का वजन बढ़ेगा क्या? इसी तरह हमारे कर्म फल हैं वे हमारे साथ साथ आत्मसात हो कर हमारे संग संग जन्म जन्मान्तरों तक विचरण करते हैं। 

9.8

प्रकृतिं(म्) स्वामवष्टभ्य, विसृजामि पुनः(फ्) पुनः।
भूतग्राममिमं(ङ्) कृत्स्नम्, अवशं(म्) प्रकृतेर्वशात्।।9.8।।

प्रकृति के वश में होने से परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण प्राणी समुदाय की (कल्पों के आदि में) मैं अपनी प्रकृति को वश में करके बार-बार रचना करता हूँ।

विवेचन:- भगवान कहते प्राणी अपने कर्मों के अनुसार पेड़, पौधे, पक्षी, बिल्ली इत्यादि बनते हैं, उत्तम कार्य करने वाले मनुष्य बनते हैं। कोई-कोई तो अत्यंत उत्तम कार्य करने वाले लोग प्रधानमंत्री भी बन जाते हैं। जिसके जैसे कर्म वैसा वह बनेगा।

9.9

न च मां(न्) तानि कर्माणि, निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनम्, असक्तं(न्) तेषु कर्मसु।।9.9।।

हे धनञ्जय ! उन (सृष्टि-रचना आदि) कर्मों में अनासक्त और उदासीन की तरह रहते हुए मुझे वे कर्म नहीं बाँधते।

विवेचन :-  कर्मासक्ति और फलासक्ति के कारण मनुष्य कर्मों से बंध जाते हैं।  परंतु भगवान में कर्मासक्त, फलासक्त नहीं है। इसलिए सृष्टि के कर्म उन्हें नहीं बनते हैं। इसके बाद सुंदर भजन हुआ।


हरि शरणम धुन के साथ आज के विवेचन का समापन हुआ।