विवेचन सारांश
आसुरी सम्पदा के लक्षण और उनसे बचने के उपाय

ID: 2682
हिन्दी
रविवार, 16 अप्रैल 2023
अध्याय 16: दैवासुरसंपद्विभागयोग
2/2 (श्लोक 13-24)
विवेचक: गीता विशारद डॉ. संजय जी मालपाणी


पारम्परिक दीप प्रज्वलन, प्रार्थना और गुरु वन्दना के साथ सोलहवें अध्याय के उत्तरार्द्ध का विवेचन प्रारम्भ हुआ।

इस अध्याय के प्रथम तीन श्लोकों में श्रीभगवान ने छब्बीस दैवी सम्पद् गुणों के विषय में अर्जुन को बताया।

अभयं सत्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्ययस्तप आर्जवम।।

अहिंसा सत्यमक्रोधस्तयागः शान्तिरपैशुनम।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्।।

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत।।

तत्पश्चात श्रीभगवान ने आसुरी सम्पदा के लक्षणों को इस अध्याय में विस्तार से बताया है। भगवान ने आसुरी सम्पदा के छः लक्षण ही बताये हैं परन्तु साथ ही यह भी बताया कि आसुरी सम्पदा का एक भी लक्षण यदि आ जाए तो वह सम्पूर्ण दैवी सम्पदा के प्रभाव को नष्ट कर देता है। वैसे ही जिस प्रकार एक छोटा सा चन्द्रमा, विशालकाय सूर्य को भी ग्रसित कर देता है।

दैवी सम्पदा के विषय में भगवान ने पूर्व के अध्याय में भी बताया है परन्तु आसुरी सम्पदा के विषय में विस्तार से बताने के लिए यहाँ भगवान ने पुनः इस बारे में बताया है। 

अतः मनुष्य को निरन्तर आसुरी सम्पदा के लक्षणों के प्रति सजग रहते हुए इनसे बचने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह एवं मत्सर ये छः आसुरी सम्पदाएँ हैं जिनमें काम, क्रोध और लोभ ये तीनों ही प्रमुख हैं। 

16.13

इदमद्य मया लब्धम्, इमं(म्) प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे, भविष्यति पुनर्धनम्।।16.13।।

वे इस प्रकार के मनोरथ किया करते हैं कि - इतनी वस्तुएँ तो हमने आज प्राप्त कर लीं (और अब) इस मनोरथ को प्राप्त (पूरा) कर लेंगे। इतना धन तो हमारे पास है ही, इतना (धन) फिर भी हो जायगा।

विवेचन:-  श्रीभगवान कहते हैं कि जो मनुष्य लोभ से प्रेरित होकर धन कमाता है और सदैव और अधिक की लालसा रखता है वह भी आसुरी सम्पदा से ग्रसित है। भगवान धन कमाने को गलत नहीं कहते हैं। वे तो स्वयं पुरुषार्थ करने को कहते हैं।

जिस प्रकार भगवान ने स्वयं अर्जुन को युद्ध करने को कहा-

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।

ठीक उसी प्रकार धन अर्जित करना बुरा नहीं है किन्तु उसका लोभ करना बुरा है। अर्जित धन को परमार्थ के कार्यों में लगाना चाहिए।

भगवान धन कमाने के लिए परिश्रम और पुरुषार्थ में कमी करने को नहीं कह रहे अपितु यहाँ मनोरथ शब्द महत्त्वपूर्ण है कि मन को नियन्त्रित करना है। धन कमाते हुए भी सादा जीवन जीना है। जिस प्रकार श्री रतन टाटा ने बहुत धन कमाया और अनेकानेक परमार्थ के प्रकल्प चलाए, चिकित्सालय बनवाया, स्कूल, कॉलेज और अनेक समाजसेवी उपक्रमों की श्रृँखला खड़ी कर दी। रतन जी टाटा स्वयं एक छोटे से घर में  रहते हुए भी समाज का चिन्तन करते हैं और फिर कमाया हुआ धन समाज पर ही न्यौछावर कर देते हैं। दान करने के लिए धन कमाना आवश्यक है। दान देना दैवी सम्पदा का एक लक्षण है।

एक घटना जो अभी परसों ही घटित हुई। संगमनेर में रोटरी क्लब द्वारा आँखों का चिकित्सालय चलाया जाता है। एक आदिवासी बालिका के आँख में काँटा घुस गया। चिकित्सक ने लेंस बदलने का सुझाव दिया। जिसके लिए धन की आवश्यकता थी। सभी सदस्यों ने चर्चा करके एक मिनट में प्रति सदस्य एक हज़ार रुपए की दर से बीस हज़ार रुपए एकत्र कर लिए और उस बालिका की नेत्रों की ज्योति बचा ली।

महाराणा प्रताप वर्षों तक वन में भटकते रहे कि कभी उन्हें कोई भामाशाह मिल जाए और जब उन्हें भामाशाह मिले और उन्होंने महाराणा प्रताप की अर्थ सहायता की तो महाराणा प्रताप अपनी मातृभूमि के लिए लड़े। किन्तु आज बिल्कुल विपरीत स्थिति दिखाई देती है। आज भामाशाह तो बहुत हैं किन्तु कोई महाराणा प्रताप जैसा तेजस्वी नहीं जो अपने देश, समाज, मातृभूमि के लिए संघर्ष करे। जहाँ महाराणा प्रताप जैसे लोग मिल जाते हैं वहाँ अच्छे कार्यों के लिए धन की कभी कमी नहीं होती है, वहाँ धन की वर्षा हो जाती है। धन तो अर्जित करें किन्तु केवल स्वयं के भौतिक सुख साधनों के लिए नहीं अपितु समाज सेवा के लिए, तो यह आसुरी प्रवृत्ति में नहीं आता है।

यह दान सात्त्विक दान होना चाहिए।

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्।।17.20।।

अर्थात जो दान देशहित में, समयानुसार एवं सुपात्र को दिया जाये, वही सात्त्विक दान है।

16.14

असौ मया हतः(श्) शत्रु:(र्), हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं(म्) भोगी, सिद्धोऽहं(म्) बलवान्सुखी।।16.14।।

वह शत्रु तो हमारे द्वारा मारा गया और (उन) दूसरे शत्रुओं को भी (हम) मार डालेंगे। हम ईश्वर (सर्व समर्थ) हैं। हम भोग भोगने वाले हैं।हम सिद्ध हैं, (हम) बड़े बलवान (और) सुखी हैं।

विवेचन:- श्रीभगवान कहते हैं कि अहङ्कार भी एक आसुरी सम्पदा है। मैंने इस शत्रु को मार दिया, कल मैं उसको मार दूँगा, मैं सर्व शक्तिमान हूँ, मैं परम सुखी हूँ। इस प्रकार की सोच वाले रावण और हिरण्यकश्यप असुर ही कहलाए। इनका विवरण तो शास्त्रों में मिलता है किन्तु हमारे आसपास भी अनेक ऐसे लोग हैं जो दूसरों के प्रति हिंसा की भावना रखते हैं और निरपराध लोगों की हिंसा करते हैं।

हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को भाँति- भाँति की यातनाएँ दी। वह स्वयं को ही भगवान कहता था और जब प्रह्लाद नारायण को भगवान कहते तो उसने प्रह्लाद को पहाड़ी से नीचे गिराया, होलिका के साथ जलाने की कोशिश की, सर्पदंश करवाया, किन्तु प्रह्लाद का विश्वास अधिक था। उनकी ईश्वर में स्थाई आस्था के कारण ही उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान उनको हमेशा बचाते थे।

मीरा बाई को भी अपने भगवान पर विश्वास था और वह उनकी भक्ति में ही लीन रहती थी।

विस का प्याला राणा भेज्या, पीवत मीरा हाँसी रे।

अर्थात इसमें मीरा ने महाराजा राणा पर व्यङ्ग किया है। राणा ने मीरा को कुलद्रोही जान उन्हें मारने का प्रयास किया था। एक राजा होकर उन्होंने इतना घृणित कार्य किया परन्तु मीरा अपने कृष्ण के होते निश्चिन्त  है। वह जानती है कि कृष्ण के होते उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। वह फिर कहीं का राजा क्यों न हो। वह ज़हर का प्याला हँसकर पी लेती है। इस तरह वह राजा की मूर्खता पर व्यङ्ग कसती है।

विष का अर्थ केवल यह ही नहीं है, दूसरों के द्वारा कहे गए अपशब्द भी विष के समान ही होते हैं। यदि हम उन्हें अपने भीतर प्रवेश करने देते हैं तो वह विष के समान ही हमें धीरे-धीरे नष्ट करने लगते हैं। अतः इन अपशब्दों को अपने भीतर प्रवेश न देते हुए क्रिया की प्रतिक्रिया से बचना चाहिए। अन्यथा हम भी अपशब्द कहेंगे और हमारा रक्तचाप बढ़ जाएगा जो धीरे-धीरे हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा।

हमारे यहाँ सन्ध्या समय दीपक जलाकर प्रार्थना की जाती है कि-

शत्रु बुद्धि विनाशाय, दीपं ज्योति नमोस्तुते।।

अर्थात हे दीपक! तुम्हें नमन है। तुम जलना और मेरे भीतर के शत्रुत्व भाव को भी जलाकर नष्ट कर देना।

भगवान ने ग्यारहवें अध्याय में अपना विश्वरूप दर्शन करवाते हुए अर्जुन को दिखाया था कि भगवान के मुँह से निकलने वाली अग्नि में सम्पूर्ण कौरव सेना भस्मीभूत हो रही है। तब अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि यह मैं क्या देख रहा हूँ? तब भगवान कहते हैं कि ये सब तो पहले ही मेरे द्वारा नष्ट हो चुके हैं। तू विजय का यश ले किन्तु शत्रु भाव मत रख। तू सभी का कर्त्तव्य भाव से संहार कर। यह सम्पूर्ण कौरव सेना पहले ही मर चुकी है, मैं इन सभी को मार चुका हूँ।

श्रीभगवान ग्यारहवें अध्याय के अंतिम श्लोक में कहते हैं कि-

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।11.55।।

अर्थात श्रीभगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! जो सभी भूतमात्रों के प्रति निर्वैर भाव रखते हुए मात्र मेरे परायण होकर कार्य करता है अथवा अपना कर्त्तव्य कर्म करता है, केवल वही मुझसे आकर मिलता है।

जिस प्रकार एक सैनिक देश की रक्षा करते हुए किसी को मारता है तो वह अपने कर्त्तव्य का पालन करता है तथा रात को निश्चिन्त होकर सो पाता है। अन्यथा जो व्यक्ति शत्रु भाव से किसी को मारता है, वह कभी चैन से सो नहीं सकता है।

हिरण्यकश्यप शत्रु भाव से ही प्रह्लाद को बार-बार मारने का प्रयास कर रहा था। उसने प्रह्लाद से पूछा कहाँ है तेरा नारायण? क्या इस खम्भे में भी तेरा नारायण है? तो प्रह्लाद ने उत्तर दिया हाँ है। जब भक्त बुलाते हैं तो भगवान को भी आना पड़ता है। हिरण्यकश्यप ने खम्भे को लात मारी। बिजली कड़की, खम्भा टूट गया और उसमें से नरसिंह भगवान का अवतार हुआ। हिरण्यकश्यप को वरदान के अनुसार न कोई नर मार सकता था, न कोई देवता, न कोई असुर, न कोई पशु। वह किसी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मर सकता था। न दिन में मर सकता था, न रात में मर सकता था। न घर के अन्दर न ही बाहर। तब नरसिंह भगवान ने उसे सन्ध्या समय देहरी पर अपने नाखूनों से चीर कर मार दिया।

16.15

आढ्योऽभिजनवानस्मि, कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य, इत्यज्ञानविमोहिताः।।16.15।।

हम धनवान हैं, बहुत से मनुष्य हमारे पास हैं, हमारे समान दूसरा कौन है? (हम) खूब यज्ञ करेंगे, दान देंगे (और) मौज करेंगे - इस तरह (वे) अज्ञान से मोहित रहते हैं।

16.15 writeup

16.16

अनेकचित्तविभ्रान्ता, मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः(ख्) कामभोगेषु, पतन्ति नरकेऽशुचौ।।16.16।।

(कामनाओं के कारण) तरह-तरह से भ्रमित चित्त वाले, मोह-जाल में अच्छी तरह से फँसे हुए (तथा) पदार्थों और भोगों में अत्यन्त आसक्त रहने वाले मनुष्य भयंकर नरकों में गिरते हैं।

विवेचन :- श्रीभगवान कहते हैं कि जो मनुष्य यह सोचते हैं कि मैं धनी कुल में जन्मा हूँ अथवा किसी भी प्रकार का अभिमान जैसे- धन का, सौंदर्य का, कुल का, दान का, ज्ञान का अथवा यज्ञ आदि का, जिन्हें होता है, वे सदैव मोह जाल में फँसे रहते हैं और अनेकानेक नरक भोगते रहते हैं।

यहाँ स्वयं के मित्र के उदाहरण के माध्यम से बताया गया कि कैसे उसने नवें अध्याय के एक श्लोक को पढ़कर अपनी सुविधानुसार उसका अर्थ निकाल लिया।

यह श्लोक इस प्रकार है-

त्रेविद्या मां सोमपाः पूतपापा-
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-

मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्।।

उसके अनुसार खूब सोमरस का पान करो और फिर एक यज्ञ कर लो तो स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती है। परन्तु गीता को समझने के लिए उसका पूर्ण पठन आवश्यक है।

आगे के दो श्लोक उसने नहीं पढ़े जिनमें कहा गया है-

ते ते भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।

एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना-
गतागतं कामकामा लभन्ते।

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानामं योगक्षेमं वहाम्यहम्।।

नित्य अनन्य भाव से मेरी उपासना करने वाले ही मुझे प्राप्त कर सकते हैं, अन्यथा यह आना-जाना लगा ही रहता है। मृत्यु लोक से छुटकारा नहीं मिलता है। कुछ समय के लिये स्वर्ग मिल जाना और बात है और मुझे प्राप्त कर लेना कुछ और बात है।

यह उसी प्रकार है जैसे कि किसी पाँचतारा होटल में रुकने गये और वहाँ धनराशि जमा कर दी। जब तक धन समाप्त नहीं होता वहाँ खूब खातिरदारी होती है परन्तु समाप्त होने के बाद वहाँ एक क्षण भी नहीं रुकने दिया जाता है। वैसे ही थोड़े पुण्य करने से कुछ समय के लिए स्वर्गलोक मिल सकता है परन्तु वापस मृत्युलोक में ही आना पड़ता है। उसके लिए तो भगवान का निरन्तर चिन्तन आवश्यक है।

16.17

आत्मसम्भाविताः(स्) स्तब्धा, धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते, दम्भेनाविधिपूर्वकम्।।16.17।।

अपने को सबसे अधिक पूज्य मानने वाले, अकड़ रखने वाले (तथा) धन और मान के मद में चूर रहने वाले वे मनुष्य दम्भ से अविधिपूर्वक नाममात्र के यज्ञों से यजन करते हैं।

विवेचन :- ऐसे धनवान घमण्ड में चूर प्रभावशाली लोग बहुत यज्ञ आदि करते हैं किन्तु कुछ भी शास्त्र सम्मत नहीं हो रहा होता है। न ही मन्त्र बोले जा रहे होते हैं और न ही आहुति सही ढंग से दी जा रही होती है, न ब्राह्मणों की दक्षिणा ठीक तरह से दी जा रही है और न ही आचरण की शुद्धता होती है। सब कुछ दम्भपूर्ण होता है। दिखावे के लिए होता है। इस प्रकार के नाम मात्र के यज्ञ आसुरी सम्पदा के लक्षण हैं।

16.18

अहङ्कारं(म्) बलं(न्) दर्पं(ङ्), कामं(ङ्) क्रोधं(ञ्) च संश्रिताः ।
मामात्मपरदेहेषु, प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।16.18।।

(वे) अहंकार, हठ, घमण्ड, कामना और क्रोध का आश्रय लेने वाले मनुष्य अपने और दूसरों के शरीर में (रहने वाले) मुझ अन्तर्यामी के साथ द्वेष करते हैं (तथा) (मेरे और दूसरों के गुणों में) दोष दृष्टि रखते हैं।

विवेचन :- ऐसे अहङ्कारी, बलवान, घमण्डी, काम और क्रोध करने वाले मनुष्य दूसरों की निन्दा करते हैं।

भक्त के गुणों में अपैशुनम भी एक गुण बताया गया है जिसका अर्थ है किसी की पीठ पीछे भी निन्दा नहीं करना। इसका विपरीत पैशुनम है जो आसुरी सम्पदा है।

पीठ पीछे किसी की भी निन्दा हमारे मुख से सहज भाव से निकल जाती है। हमें सजग रहना होगा कि हम किसी की भी निन्दा न करें और निरन्तर इसके लिए प्रयास करना चाहिए। अगर कोई निन्दा हो भी जाए तो तुरन्त ईश्वर से क्षमा माँगनी चाहिए और कहना चाहिए कि मैं लगातार प्रयास कर रहा हूँ। हे भगवान! आप मेरा साथ दीजिए। मेर योग और क्षेम सब आपके हाथों में है।

जिस प्रकार इस भजन में कहा गया है- 

अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में,
है जीत तुम्हारे हाथों में, और हार तुम्हारे हाथो में।

मैं सभी मे तेरे दर्शन करूँ और दूसरों को देख कर मेरे मुख पर स्मित हास्य आ जाए। मैं दूसरों में तेरा रूप देखकर राम-राम करूँ। पहले बड़ी सुन्दर परिपाटी थी। आते भी राम-राम और जाते भी राम-राम कहने की। मैं भी राम कहूँ और दूसरा भी राम कहे। तेरे भी मन में राम मेरे भी मन मे राम। हम नमस्ते करते हैं। जिसका अर्थ है नमः ते अर्थात मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। ये झुकने की आदत ही शरणागति का भाव लाती है।
इस प्रकार अट्ठारहवें अध्याय के छ्यासठवें श्लोक में कहा गया है-

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।

अर्थात सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि, तुझमें यह सारा संसार,
इसी भावना से अंतर भर, मिलूँ सभी से तुझे निहार,
प्रतिपल निज इन्द्रिय- समूह से, जो कुछ भी आचार करूँ,
केवल तुझे रिझाने को, बस तेरा ही व्यवहार करूँ

भगवान आदि शंकराचार्य जी ने जो मानस पूजा लिखी है उसमें भी यही भाव हैं-

आत्मा त्वं गिरिजा मति: सहचरा: प्राणा: शरीरं गृहम्
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थिति:।
संचार: पदयो: प्रदक्षिणविधि: स्तोत्राणि सर्वा गिरो
यद्यत् कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्

हे शंभो! मेरी आत्मा आप हैं, बुद्धि पार्वतीजी हैं, प्राण आपके गण हैं, शरीर आपका मन्दिर है, सम्पूर्ण विषय-भोग की रचना आपकी पूजा है, निद्रा समाधि है, मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है तथा सम्पूर्ण शब्द आपके स्तोत्र हैं, इस प्रकार मैं जो-जो कर्म करता हूँ, वह सब आपकी आराधना ही है।

16.19

तानहं(न्) द्विषतः(ख्) क्रूरान् , संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभान्, आसुरीष्वेव योनिषु।।16.19।।

उन द्वेष करने वाले, क्रूर स्वभाव वाले (और) संसार में महानीच, अपवित्र मनुष्यों को मैं बार-बार आसुरी योनियों में ही गिराता ही रहता हूँ।

विवेचन:- श्रीभगवान कहते हैं कि अहङ्कार और द्वेष रखने वाले क्रूर लोगों को मृत्यु लोक में बारम्बार आसुरी सम्पदा के साथ ही जन्म लेना पड़ता है।

मराठी में एक कहावत है-

मनुष्य को दूसरों की आँख का तिनका भी दिख जाता है किन्तु स्वयं की मूसल जैसी त्रुटियाँ भी दिखाई नहीं देती हैं। कोई आत्मचिन्तन नहीं करता है।

16.20

आसुरीं(य्ँ) योनिमापन्ना, मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय, ततो यान्त्यधमां(ङ्) गतिम्।।16.20।।

हे कुन्तीनन्दन ! (वे) मूढ मनुष्य मुझे प्राप्त न करके ही जन्म-जन्मान्तर में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, (फिर) उससे भी अधिक अधम गति में अर्थात् भयंकर नरकों में चले जाते हैं।

विवेचन:- श्रीभगवान कहते हैं कि ऐसे लोग आसुरी प्रवृत्ति के कारण मनुष्य जन्म पाकर भी नीच गति को प्राप्त हो जाते हैं।

जीवन की ABCD में B और D हमारे हाथ में नहीं है। B से birth अथवा जन्म और D से death अथवा मृत्यु। किन्तु इनके बीच में जो C है वह हमारे हाथ में है। C से choice या वरण अर्थात इस मनुष्य जीवन में हम क्या करेंगे यह हमारे ऊपर निर्भर करता है।

यहाँ पुनः एक मित्र का उदाहरण दिया गया-

उसे किसी कारण से दफ्तर जाने में विलम्ब हो रहा था। जल्दी-जल्दी स्नान करने गया और वहाँ चोट लगने से पैर के अंगूठे का नाखून निकल गया। असहनीय पीड़ा हुई परन्तु अस्पताल जाने का समय नहीं था। किसी तरह दफ्तर पहुँचा और वहाँ विलम्ब होने के कारण डाँट खानीं पड़ी। बहुत कार्य था, वापस आते समय लोकल ट्रेन में उसी अँगूठे पर किसी का पैर लग गया। यह नरक के समान पीड़ा थी। वहाँ से उतरकर सोचा कि गन्ने का रस पी लेता हूँ तो कुछ ठण्डक मिलेगी। पैसे निकलने लगा तो पता चला कि बटुआ चोरी हो गया है। घर तक जाने के लिए भी कोई वाहन न ले सका और उस पीड़ा को सहते हुए घर पहुँचा। पत्नी ने भोजन लगाया। पहला कौर खाते ही पता लगा कि सब्जी में नमक नहीं है। 

सामान्य स्थिति में यह क्रोध की पराकाष्ठा थी जो यहाँ प्रकट होती परन्तु उसने सामान्य रहकर पत्नी को भी अपने साथ भोजन करने बैठा लिया। एक कौर खाते ही पत्नी को पता चल गया कि भोजन में नमक नही है।

वह क्रोध करके अपने घर के वातावरण को भी नरकीय बना सकता था, जिस अग्नि में सभी लोग झुलसते रहते क्योंकि उसने दिन भर यही सहन किया था। परन्तु उसने शान्ति और धैर्य का वरण किया जिससे बाद का समय तो सुखद हो गया। यह हमारे ऊपर ही है कि हम क्या चुनते हैं।

16.21

त्रिविधं(न्) नरकस्येदं(न्), द्वारं(न्) नाशनमात्मनः।
कामः(ख्) क्रोधस्तथा लोभ:(स्), तस्मादेतत्त्रयं(न्) त्यजेत्।।16.21।।

काम, क्रोध और लोभ - ये तीन प्रकार के नरक के दरवाजे जीवात्मा का पतन करने वाले हैं, इसलिये इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये।

विवेचन:- श्रीभगवान कहते हैं कि तीन चीजें तुम्हे नरक में धकेल सकती हैं, वे तुम्हारी अधोगति का कारण बन सकती हैं। काम, क्रोध और लोभ ही तेरे सबसे बड़े शत्रु हैं। इन तीनों का तुम्हें त्याग कर देना चाहिए।

कहा जाता है कि नरक में हमारा सिर धड़ से अलग करके गर्म तेल के कड़ाहे में डाल दिया जाता है। क्या ऐसा सच में होता है? हाँ! किन्तु इसी जन्म में। जब हमें क्रोध आता है तो हम बिना सिर के हो जाते हैं अर्थात हमारी सोचने समझने की शक्ति शून्य हो जाती है। हमारा रक्त चाप बढ़ जाता है, रक्त में उबाल आ जाता है, हम जलने लगते हैं। यही वह नरक की अग्नि है। यही वह यातना है जिसे हमें इसी जीवन में भोगना होता है, इस क्रोध के कारण। भगवान कहते हैं कि इन त्रिदोषों से हमें विमुक्त रहना होगा। 

16.22

एतैर्विमुक्तः(ख्) कौन्तेय, तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः(श्) श्रेयस् , ततो याति परां(ङ्) गतिम्।।16.22।।

हे कुन्तीनन्दन ! इन नरक के तीनों दरवाजों से रहित हुआ (जो) मनुष्य अपने कल्याण का आचरण करता है, (वह) उससे परम गति को प्राप्त हो जाता है।

विवेचन:- श्रीभगवान कहते हैं कि काम, क्रोध और लोभ ये तीनों अन्धकार के द्वार हैं। हे अर्जुन! तुझे इनसे विमुक्त रहना होगा। जो मनुष्य कल्याणप्रद आचरण करते हैं वह परम गति को प्राप्त होते हैं

16.23

यः(श्) शास्त्रविधिमुत्सृज्य, वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति , न सुखं(न्) न परां(ङ्) गतिम् ।।16.23।।

जो मनुष्य शास्त्रविधि को छोड़कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि (अन्तःकरण की शुद्धि) को, न सुख (शान्ति) को (और) न परमगति को (ही) प्राप्त होता है।

विवेचन:- श्रीभगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! जो मनुष्य शास्त्रों के बताए कर्त्तव्य पथ पर नहीं चलते हैं उन्हें सिद्धि, सुख और परम गति प्राप्त नहीं होती है। अतः मनुष्य को शास्त्रों के अनुसार अर्थात् वेद, उपनिषद और  भगवद्गीता के अनुसार कर्म करने चाहिए।

16.24

तस्माच्छास्त्रं(म्) प्रमाणं(न्) ते, कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं(ङ्), कर्म कर्तुमिहार्हसि।।16.24।।

अतः तेरे लिये कर्तव्य-अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र (ही) प्रमाण है - (ऐसा) जानकर (तू) इस लोक में शास्त्रविधि से नियत कर्तव्य-कर्म करने योग्य है अर्थात् तुझे शास्त्रविधि के अनुसार कर्तव्य-कर्म करने चाहिये।

विवेचन :- श्रीभगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का बोध कराने वाले शास्त्रों को प्रमाण मान कर ही कार्य करना श्रेयस्कर है।

इसके साथ ही विवेचन यहाँ समाप्त हुआ एवं प्रश्नोत्तर सत्र आरम्भ हुआ।

प्रश्नकर्ता : प्रमोद भैया

प्रश्न :  हनुमान चालीसा में जो त्रुटियाँ बताई जा रही हैं, उनके विषय में क्या करना चाहिए?

उत्तर : मेरी दृष्टि में जो हनुमान चालीसा पढ़ी जा रही है वह यदि सच्चे भाव से पढ़ रहे हैं तो इनके सुधार से कोई अन्तर नहीं आने वाला है क्योंकि अन्ततोगत्वा भाव ही महत्त्वपूर्ण हैं।

प्रश्नकर्ता : आकांक्षा दीदी

प्रश्न : हमारे अन्दर न चाहते हुए भी किसी के लिए नकारात्मकता आ जाती है। इसको दूर करने के लिए क्या करना चाहिए?

उत्तर : यह मानव स्वभाव है। उसे अच्छे की ओर लगाना पड़ेगा। जिस प्रकार पानी नीचे तो सहज ही चला जाता है किन्तु उसे ऊपर चढ़ाने के लिए मोटर लगानी पड़ती है तो यहाँ आपको भगवद्गीता की मोटर का सहारा लेना पड़ेगा।

प्रश्नकर्ता : बजरंग भैया

प्रश्न : यह आत्मा और शरीर अलग-अलग है। मैं यह शरीर नहीं आत्मा हूँ, क्या यही सही है और इसको जानने का क्या लाभ है?

उत्तर : जब आप ने जन्म लिया तो आपको एक नाम दिया गया। वह नाम आपकी आत्मा का था। मृत्यु होने के पश्चात कोई भी आपको आपके नाम से सम्बोधित नहीं करता है। सभी कहते हैं इस देह का अन्तिम संस्कार करना है। कोई नाम नहीं लेता। अतः यहीं पर सिद्ध हो जाता है कि हम शरीर नहीं आत्मा हैं। इसको जानने के लिए हमें तीन प्रकार की प्रेक्षा करनी पड़ेगी- पहली श्वास प्रेक्षा, दूसरी संवेदना प्रेक्षा, तीसरी विचार प्रेक्षा। आपको श्वास प्रेक्षा के लिए अपनी आती-जाती साँसो को अनुभव करना होगा। उसके पश्चात आपको संवेदना प्रेक्षा के लिए सीधे बैठकर स्थिर हो जाना है एवं किसी भी प्रकार की संवेदना पर ध्यान न देते हुए तटस्थ भाव से उसे देखना है, कोई प्रतिक्रिया नहीं देनी है। आप सीधे बैठे हैं, खुजली हो रही है ध्यान नहीं देंगे। खुजली आई और चली गई यह संवेदना प्रेक्षा हुई। इसके पश्चात विचार प्रेक्षा करनी होगी जिसके अन्तर्गत आपको अपने आते-जाते विचारों पर ध्यान केन्द्रित करना पड़ेगा और आती-जाती विचारों की श्रृँखला के मध्य जो शून्य है जिसमें कोई भी विचार नहीं आ रहा है उसे भी अनुभव करना होगा। जब आप यह भली-भाँति जान जाएँगे कि मैं यह शरीर नहीं आत्मा हूँ तो वर्षों के सहवास के पश्चात शरीर और आत्मा जब अन्त समय में विलग हो रहे होंगे, आत्मा मुक्त होने के लिए तड़प रही होगी तो जो यातना आपको अनुभव होगी वह आपको ज्यादा कष्टकारी नहीं लगेगी क्योंकि वह तो उस शरीर के साथ ही छूट जाने वाली है। आप तो आत्मा हैं। अन्त समय में भगवत नाम लेने मात्र से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्याय:।।

इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘देवासुरसम्पदविभाग योग’ नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।