विवेचन सारांश
गागर में सागर
अभी तक के श्लोकों में हमने देखा कि सात्विक, राजसी एवं तामसी धारणाएँ कैसी होती हैं अब आगे श्रीभगवान तीन प्रकार के सुखों का वर्णन करते हैं।
18.36
सुखं(न्) त्विदानीं(न्) त्रिविधं(म्), शृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र, दुःखान्तं(ञ्) च निगच्छति॥18.36॥
यत्तदग्रे विषमिव, परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं(म्) सात्त्विकं(म्) प्रोक्तम्, आत्मबुद्धिप्रसादजम्॥18.37॥
पहला सुख निरोगी काया।
दूसरा सुख घर में माया।
तीजा सुख कुलवन्ती नारी।
चौथा सुख पुत्र आज्ञाकारी।
पञ्चम सुख स्वदेश में बासा।
छठवाँ सुख राज हो पास।
सातवाँ सुख सन्तोषी जीवन।।
स्वस्थ्य शरीर, घर में समृद्धि, कुलवन्ती जीवन सङ्गिनी, आज्ञाकारी पुत्र, स्वदेश में निवास, घर और समाज में अपना वर्चस्व और संतोषी जीवन ये सात सुख बताये गये हैं। आज कल विदेश में प्रवास का प्रचलन है पर जो वहाँ रह रहे हैं संतुष्ट नहीं है एवं कुछेक को छोड़ कर सभी वापस आना चाहते हैं।
संतोषी जीवन निःसन्देह इन सब में सर्वोपरि है।
गोधन, गज-धन, बाजि-धन, और रतन धन-खान।
जब आवे संतोष-धन, सब धन धूरि समान!!
पर श्रीमद्भगवद्गीता की सुखों की व्याख्या सर्वथा पृथक है।
गीता के अनुसार प्रथम सुख है सात्विक सुख। यह प्रारम्भ में अथवा दूसरों की दृष्टि से देखने में विष समान लगता है पर यथार्थ में यह अमृत समान होता है। सात्विक सुख में कठोर से कठोर तप में भी आनन्द की अनुभूति होती है। उदाहरण स्वरूप एक व्यक्ति एकादशी के उपवास करता है। एक माह में दो और वर्ष में चौबीस उपवास हो गये। जो व्यक्ति एक भी उपवास करने में अक्षम है वह आश्चर्य करता है कि कोई व्यक्ति इतने उपवास कैसे कर सकता है पर जो व्रती है उसे तो आभास ही नहीं होता कि उसने उपवास कर रखा है अथवा कुछ खाया नहीं। लोग प्रसन्नता पूर्वक नवरात्र में नवाह्न पारायण के पश्चात भोजन ग्रहण करते हैं, गोवर्द्धन की परिक्रमा करते हैं। दण्डवत परिक्रमा करते हैं - उनके घुटने छिल जाते हैं पर वे आत्मिक आनन्द से विभोर रहते हैं।
सात्विक सुखों का आरम्भ पुण्य दृष्टि से होता है। यह आत्म सन्तुष्टि की स्थिति है। सात्विक कार्य करने से पुण्य की प्राप्ति तो अवश्य ही होती है पर इससे भी अधिक यह आनन्द प्रदान करती है। ऋषिकेश में एक धार्मिक सज्जन ने एक गूढ़ रहस्य की बात अनायास ही कह दी।
HOW SATISFIED - HOW HAPPY I AM FEELING INSIDE.
विषयेन्द्रियसंयोगाद्, यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव, तत्सुखं (म्) राजसं (म्) स्मृतम्॥18.38॥
क्यूँ कल्पना ख़ुशी की ख़ुशी से ज्यादा ख़ुशी देती है।
क्यों सामने की ख़ुशी मुट्ठी से रेत की तरह निकल जाती है।
राजसी सुख की परिभाषा बताते हुए श्रीभगवान कहते हैं - सभी भौतिक सुख जैसे जीवन साथी का चयन, नये घर की परिकल्पना, नये - नये उपकरणों जैसे मोबाइल फोन आदि की आकांक्षा सभी तात्कालिक सुख का अनुभव कराते हैं वे अमृत सामान भी प्रतीत होते हैं पर अन्ततोगत्वा वे विष समान ही होते हैं। एक भजन के माध्यम से इसे स्पष्ट किया -
उलझ मत दिल बहारों में बहारों का भरोसा क्या। ....
भजन की लिंक -
https://drive.google.com/file/d/1UOZo6_YfEfe9Qlxm94qFinblNRKU4r5X/view?usp=drivesdk
प्राणी इन सुखों के माया जाल में फँस जाता है उसे भान रहता है कि वह गलत निर्णय ले रहा है पर उसकी लोलुपता उसके मार्ग में बाधक हो जाती है। एक मधुमेह के रोगी को ज्ञात है कि उसे मिठाई से दूर रहना चाहिये उसके लिये मिष्टान्न विष तुल्य है पर वह उन्हें ही अमृत तुल्य मानने की भूल करता है। यह राजसी सुख के लक्षण हैं।
प्राणी कर्ज ले कर, किस्तों पर आराम के - मनोरञ्जन के उपकरण क्रय कर के उनमें सुख का अनुभव करता है। प्रारम्भ में तो ये सुख अमृततुल्य लगते हैं पर जब किस्तें भरनी पड़ती हैं तो वे विष सामान लगती हैं।
यदग्रे चानुबन्धे च, सुखं(म्) मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं(न्), तत्तामसमुदाहृतम्॥18.39॥
एक सुन्दर उदाहरण से इस प्रकार के प्राणियों की मनःस्थिति की व्याख्या की गई।
एक गाँव में एक महात्मा पधारे एक ग्रामीण महिला रोज महाराज हेतु स्वादिष्ट भोजन बना के ले जाती महात्मा आनन्द पूर्वक उसे ग्रहण करते पर वही भोजन उस स्त्री के पति को स्वादिष्ट नहीं लगता था एवं इस बात से वह अपनी पत्नी से दुर्व्यवहार करता था। स्त्री ने अपनी दुविधा महात्मा को बताई, महात्मा जी ने कहा कि जा आज से तेरा पति तेरे भोजन की प्रशंसा करेगा। दूसरे दिन स्त्री पुनः दुःखी अवस्था में आई। महात्मा जी ने पूछा अब क्या हुआ। स्त्री ने कहा मेरा बनाया हुआ भोजन मेरे पति को इतना स्वादिष्ट लगा कि वह अधिक खा गया उसको अजीर्ण हो गया और अब उसका भी दोषारोपण वह मुझ पर ही कर रहा है।
तामसिक सुख निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होता है। ऐसे लोग केवल दिवा स्वप्न देखते हैं। उनको लगता है एक न एक दिन स्वयं उनके अच्छे दिन आ जायेंगे।
न तदस्ति पृथिव्यां(म्) वा, दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं(म्) प्रकृतिजैर्मुक्तं(म्), यदेभिः(स्) स्यात्त्रिभिर्गुणै:॥18.40॥
ब्राह्मणक्षत्रियविशां(म्), शूद्राणां(ञ्) च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि, स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥18.41॥
महाभारत में एक और कथा का विवरण आता है-महाराज शान्तनु के दरबार में एक वणिक आया वह अश्वों का व्यवसायी था। उसने महाराज के समक्ष यह दावा किया कि उसके घोड़े अतुलनीय हैं - असाधारण हैं उसके अश्व अगर कमल के फूलों के सरोवर को पार करते हैं तो कमल के फूलों की कलियों को कोई हानि नहीं होती, उसके घोड़े जब दौड़ते हैं तो उनके चलने की टाप सुनाई नहीं देती। यहाँ तक तो ठीक था अब उसने कह दिया कि उसके अश्वों को नाथा नहीं जा सकता। महाराज शान्तनु के पुत्र देवब्रत जिन्हें हम भीष्म पितामह के नाम से जानते हैं यह बात सुन कर क्रोधित हो गये और वणिक से कहा कि अगर वे उसके घोड़े को नाथ नहीं सके तो वे उस वणिक को क्षत्रित्व प्रदान करेंगे। कथा में बताया गया कि देवब्रत ने उन अश्वों को नाथा पर वे अश्व यथार्थ में अत्यन्त उच्च कोटि के थे अतः उस वणिक को एक राज्य का राजा बना कर क्षत्रिय बना दिया गया।
शमो दमस्तपः(श्) शौचं(ङ्), क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानंविज्ञानमास्तिक्यं(म्), ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥18.42॥
शम : मन से सदैव संयम
दम : इन्द्रियों का दमन
तप : धर्म पालन हेतु कष्ट सहने की प्रवृत्ति। सुख सुविधा को प्राथमिकता न देने की प्रवृत्ति।
शौचः अन्तर - बाह्य शुचिता। अन्दर एवं बाहर की पवित्रता।
क्षान्ति : दूसरे के अपराधों को क्षमा करने की वृत्ति
आर्जवम् : सरल स्वभाव, कपट रहित षड़यन्त्र विहीन आचरण - पूर्व प्रधान मन्त्री श्री लाल बहादुर शास्त्री इसके उत्कृष्टतम ज्वलन्त उदाहरण हैं। उनके चरित्र की विशेषता थी आर्जव।
आस्तिक : धर्म और यज्ञादि में अटूट आस्था
ज्ञान : ज्ञानी
विज्ञान : विज्ञान बुद्धि
इस प्रकार के नौ लक्षण जिस ब्राह्मण ने अपने आचरण में धारण कर रखे हैं वही ब्राह्मण कहलाने योग्य है। मात्र जन्म से ब्राह्मण होना पर्याप्त नहीं है।
ऐसा भी अनुभव किया गया है कि ब्राह्मण को संस्कृत के श्लोक सहजता से कण्ठस्थ हो जाते हैं पर इसका यह अर्थ नहीं है कि अन्यों को इसमें कठिनाई होती है। सभी कण्ठस्थीकरण करने की क्षमता रखते हैं।
शौर्यं(न्) तेजो धृतिर्दाक्ष्यं(म्), युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च, क्षात्रं(ङ्) कर्म स्वभावजम्॥18.43॥
कर्ण क्षत्रिय था पर सूत पुत्र था अतः गुरु द्रोणाचार्य ने उसे शिक्षा देने से मना कर दिया। परशुराम क्षत्रियों को शिक्षा नहीं देते थे। कर्ण ने परशुराम से झूठ कह दिया कि वह ब्राह्मण है एवं उनके आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने लगा। एक बार की बात है गुरु परशुराम शिष्य कर्ण की जङ्घा पर सर रख कर सो गये। अचानक एक बिच्छू कहीं से आ गया और उसने कर्ण के पाँव पर डंक मार दिया। कर्ण भीषण वेदना से ग्रसित हो गया पर उसने धैर्य का परिचय दे कर अपनी जङ्घा को स्थिर रखा ताकि गुरुदेव की निद्रा में विघ्न न घटे। पर बिच्छू के दंश से निकला रक्त उसकी जङ्घा से होता हुआ उसकी गोद में सोये हुए गुरुदेव के कान को छूने लगा। गुरुदेव रक्त के स्पर्श से उठ बैठे एवं उन्होंने सब कुछ अपनी आँखों से देखा। कर्ण यह सोच रहा था कि गुरुदेव प्रसन्न होंगे पर उसके विपरीत गुरुदेव परशुराम अत्यन्त क्रोधित हो उठे। उन्होंने कर्ण से कहा कि एक ब्राह्मण इतना कष्ट सहन नहीं कर सकता तुमने अवश्य मुझ से विद्या ग्रहण करने हेतु मिथ्या का सहारा लिया है। कर्ण को स्वीकार करना पड़ा कि वह क्षत्रिय है। परशुराम ने क्रोध में उसे श्राप दिया कि उसने उनसे जो भी विद्या ग्रहण की है वह उसे जब नितान्त आवश्यकता होगी उसे विस्मृत हो जायेगी।
समझने वाली बात यह है कि वर्णाश्रम धर्म के अनुसार ही सभी प्राणियों के आचरण का निर्माण होता है।
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं(म्), वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं(ङ्) कर्म, शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥18.44॥
उसी प्रकार परिचर्या शूद्र का स्वाभाविक कर्म है। शूद्र की जैसी सेवा वृति अन्य में नहीं हो सकती।
पहले एक शब्द का प्रचलन था नौकरी अर्थात एक व्यक्ति कार्य करता था नौ व्यक्तियों का संसार चलता था। इस शब्द में परिवर्तन हुआ और शब्द बना चाकरी अर्थात चार व्यक्तियों का भरण पोषण आगे चल कर शब्द हो गया तनख्वाह अर्थात एक तन अर्थात स्वयं का भरण पोषण और अब शब्द है वेतन अर्थात जो बे-तन जो एक व्यक्ति का भी भरण पोषण न कर सके।
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः(स्), संसिद्धिं(म्) लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः(स्) सिद्धिं(म्), यथा विन्दति तच्छृणु॥18.45॥
यतः(फ्) प्रवृत्तिर्भूतानां(म्), येन सर्वमिदं(न्) ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य, सिद्धिं(म्) विन्दति मानवः॥18.46॥
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः(फ्), परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं(ङ्) कर्म, कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥18.47॥
सहजं(ङ्) कर्म कौन्तेय, सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण, धूमेनाग्निरिवावृताः॥18.48॥
1)सत्यनिष्ठा से वर्णाश्रम का पालन करे।
2) अपना कार्य पूजा समझ कर करे तो वह भगवान का कार्य हो जाता है।
3) अपने कर्म को ही श्रेष्ठ माने और यदि उसमें कोई पाप या दोष भी दिखाई तो भी उससे विरत न हो।
4) जैसे धुँए से अग्नि व्याप्त है उसी प्रकार प्रत्येक कर्म दोष युक्त है किन्तु वह त्याज्य नहीं है।
महाभारत में चार कथाएँ आती हैं-
1) तुलाधार वैश्य की कथा
2) पिंगला वैश्या की कथा
3) धर्मा कसाई की कथा
4) जाजानि की कथा
वैश्य ने अपना व्यापार करते हुए, पिंगला वैश्या ने अपना कार्य करते हुए और धर्मा कसाई ने जीवन भर माँस काटते हुए माँस का व्यापार करते हुए भगवत प्राप्ति की। भगवान कहते हैं कि अपने वर्णाश्रम का कार्य कितना भी घृणित दिखता हो उसको करके भी मनुष्य भगवत प्राप्ति कर सकता है।
एक बार व्हाट्सएप पर बड़ा ही सुन्दर वीडियो आया था जिसमें एक छोटा बच्चा समुद्र तट पर ज्वार के समय तट पर आई हुई जेली मछलियों को मरने से बचाने के लिए अपने नन्हे हाथों से लगातार तीन - चार घण्टे तक समुद्र में वापस फेंकता रहा। दूर खड़े एक व्यक्ति ने उसके पास आकर पूछा कि यह तुम क्या कर रहे हो? यह इतना बड़ा सागर तट है कितनी ही मछलियाँ हर पल आकर मर रही हैं। तुम्हारे इस कार्य से क्या लाभ हो जाएगा? तब उस नन्हें बालक ने एक मछली उठाकर कहा कि इसको फर्क पड़ता है। मैं सम्पूर्ण जगत को नहीं बदल सकता। सब कुछ ठीक नहीं कर सकता किन्तु मेरे अधिकार क्षेत्र में जो कुछ है और जो कुछ मैं कर सकता हूँ उसके लिए मैं प्रयासरत हूँ। अतः जितनी मछलियाँ मैं बचा पाऊँ बचा रहा हूँ।
ठीक उसी प्रकार हमें भी अपना कर्म करते रहना चाहिए। बिना यह सोचे कि हमारे कर्म से संसार बदल जाएगा किन्तु कुछ अच्छे बदलाव तो हो पाएंगे। अंग्रेजी में कहा जाता है- Charity begins at home, अर्थात परोपकार अपने घर से ही प्रारम्भ करना चाहिए। हम अपने घर आए हुए अखबार बेचने वाले, कोरियर वाले को पानी पिलाकर सेवा कर देनी चाहिए। घर में काम करने वाली बाई का ध्यान रखना अनजान लोगों को कम्बल - मिठाइयाँ बाँटने से अधिक श्रेयस्कर है।
लोगों ने काम और धर्म को अलग-अलग समझ लिया है। जब हमारा कर्म ही इतना अच्छा हो जाता है तो वही धर्म बन जाता है। गीता जी हमें वर्णाश्रम का आग्रह नहीं करती है किंतु गीता जी का उद्देश्य मानव कल्याण है। हम अपनी सूक्ष्म बुध्दि के द्वारा वाद विवाद में पड़ जाते हैं किन्तु गीताजी तो संवाद हैं। अतः अपने स्वाभाविक कर्म को ही पूजा मानकर करना चाहिए उसी से भगवत् प्राप्ति हो जाएगी।
असक्तबुद्धिः(स्) सर्वत्र, जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं(म्) परमां(म्), सन्न्यासेनाधिगच्छति॥18.49॥
सिद्धिं(म्) प्राप्तो यथा ब्रह्म, तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय, निष्ठा ज्ञानस्य या परा॥18.50॥
भगवान यहाँ एक नई बात कर रहे हैं- नैष्कर्म्य सिद्धि की। चौथे और पाँचवें अध्याय में भी नैष्कर्म्य कर्म की बात की गई है और अगर हम इसका साधारण अर्थ देखें तो कर्म न करना होता है। किन्तु यह सही नहीं है। तीन बातें होती हैं- निष्कर्मता, निष्कामता और निर्लिप्तता। इसी प्रकार कर्म को भी- कर्म, अकर्म और विकर्म तीन प्रकार का बताया गया है। अकर्म अर्थात् कामना रहित कर्म। यह कामना रहित कर्म ही नैष्कर्म्य कर्म है। नैष्कर्म्य कर्म से ही नैष्कर्म्य सिद्धि प्राप्त होती है। आगे श्रीभगवान बताते हैं कि किस प्रकार ज्ञान योग से भगवत् प्राप्ति होती है।
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो, धृत्यात्मानं(न्) नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा, रागद्वेषौ व्युदस्य च॥18.51॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी, यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं(म्), वैराग्यं(म्) समुपाश्रितः॥18.52॥
अहङ्कारं(म्) बलं(न्) दर्पं(ङ्), कामं(ङ्) क्रोधं(म्) परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः(श्) शान्तो, ब्रह्मभूयाय कल्पते॥18.53॥
इन श्लोकों में तीन मुख्य शब्द आए हैं- आसक्त बुद्धि, स्पृहा रहित, जितात्मा। पूर्व के श्लोकों में भूत, पदार्थ और प्राणी को समझाया गया है। भगवान ने तीन मुख्य स्थितियाँ बताई हैं-
1) भूतकाल में जो घटित हुआ उससे हम सङ्ग रहें।
2) वर्तमान में उसकी स्मृति न रहे।
3) इंद्रियों पर पूर्ण नियन्त्र्ण हो जाए।
प्रथम लक्षण बुद्धि आसक्ति रहित हो जाए। बुद्धि किसी भी विषय में आसक्त न हो।
दूसरा लक्षण स्पृहा रहित। यह अत्यन्त दुष्कर है। जिस प्रकार पूजा घर में कपूर का उपयोग करते हैं। कभी-कभी कपूर को चाँदी की डिबिया में रखा जाता है। यदि तीन - चार चाँदी की डिबियाँ हैं और उनमें से किसी एक में कपूर रखा गया है और फिर वह कपूर उसमें से निकाल कर उपयोग कर लिया गया और डिबिया खाली रखी गई है तो भी कई महीनों तक उसे खोलने पर कपूर की गन्ध आती रहती है।
एक उदाहरण और है- जिस प्रकार बचपन में रूहअफजा की बोतल खाली हो जाने पर उसमें धोकर पानी भर लेते थे फिर भी तीन - चार महीने तक सैकड़ों बार उसमें पानी भरे जाने पर भी उसके पानी में रूह अफजा की खुशबू आती ही रहती थी। यह भी इस प्रकार है अर्थात् चिपक जाना। कोई स्वाद हमने बीस वर्ष की आयु में लिया या कोई घटना बीस वर्ष की आयु में घटित हुई और हमको अच्छी लगी तो वह हमारे मन मस्तिष्क में आज भी चिपकी हुई है। उसे दूर करना स्पृहा रहित होना है।
तीसरा लक्षण जितात्मा का अर्थ है अपनी मन और बुद्धि पर पूर्ण नियन्त्रण होना। इन तीनों में महारथ होने पर नैष्कर्म्य सिद्धि प्राप्त होती है।
जिसके आगे आठों सिद्धियाँ प्रकट हो जाएं- अणिमा , महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, इशित्व और वशित्व। इन आठों सिद्धियों से श्रेष्ठ नैष्कर्म्य सिद्धि है। यह सहज ही प्राप्त नहीं होती है। यह विचार कर प्रयास पूर्वक कार्य करने से ही प्राप्त होती है।
यह फल साधन तें नहिं होई।
तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई।।
यह सन्त महात्माओं के आशीर्वाद से प्राप्त होती है। विशुद्ध बुद्धि वाला मनुष्य पाँच बातों का ध्यान रखता है कि जो मैं कर्म कर रहा हूँ, क्या वह धर्म युक्त है, शास्त्र युक्त है, मेरे लिए और दूसरों के लिए श्रेयस्कर है? क्या मुझे उसकी आवश्यकता है? क्या मेरे द्वारा किया गया कर्म मुझे अपने लक्ष्य की ओर ले जा रहा है अथवा नहीं लक्ष्य अर्थात भगवत् प्राप्ति। इस प्रकार जो मनुष्य नित्य प्रति यह विचार कर अपने कर्म करता है वह नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त करता है।
लघ्वाशी का सामान्य अर्थ अल्पाहारी होता है किन्तु शास्त्रों में इसका अर्थ दिया गया है कि अपने जीवनोपयोगी सभी वस्तुओं को सूक्ष्म से सूक्ष्मतर करना। सेठ जी तीन वस्तुएँ खाते थे और तीन ही पहनते थे। पाँचों विषयों का भोग करते हुए भी किसी में भी आसक्ति नहीं रखता है। एकान्त जीवी (अन्जुमन में खिलवत, खिलवत में अन्जुमन), जिसकी इच्छा शक्ति दृढ़ है, जो सोच लिया वो करता है।
पार्वती जी के प्रसङ्ग में हमने देखा कि सप्तर्षि आ गए मनाने। फिर भी पार्वती जी ने कहा कि चाहे करोड़ों जन्म लग जाएँ शिवजी मिलेंगे तो ही ब्याह करुँगी अन्यथा कुँवारी ही रहूँगी। जिसका मन, वचन और कर्म पर पूर्ण नियन्त्रण होता है।
महावीर स्वामी का एक सुन्दर उदाहरण है। महावीर स्वामी सहज तपस्या करते थे। आँखें भी खुली रहती थीं। एक बार जङ्गल मे एक पेड़ के नीचे खड़े होकर वह भगवान का ध्यान कर रहे थे। एक गड़रिया वहाँ से गुजरा। उसने महावीर स्वामी से कहा आप मेरी गायों का ध्यान रखिएगा मैं दूसरी ओर देख कर आता हूँ किन्तु महावीर स्वामी ने उसे कोई उत्तर नहीं दिया। तब गड़रिए ने और ऊँची आवाज में कहा तब भी स्वामी जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। गड़रिए ने क्रोधित होकर पास में पड़ी एक सींखची महावीर स्वामी के कान में घुसा दी जिससे उनके कान से रक्त बहने लगा तब भी वह ध्यान अवस्था से बाहर नहीं आए। इस पर गड़रिए ने क्रोधित होकर उन्हें मारने के लिए बड़ा पत्थर उठा लिया। तभी इन्द्रदेव वहाँ प्रकट हुए और गड़रिए का हाथ पकड़ कर उसे रोक दिया। इन्द्रदेव बोले ये तुम क्या कर रहे हो? यह बहुत बड़े योगी महात्मा हैं। इन्द्रदेव को देखकर गड़रिया थरथर काँपने लगा। उसके मुँह से शब्द नहीं निकल रहे थे। महावीर स्वामी ने दोनों की ओर निरपेक्षित भाव से देखा और गड़रिए को वहाँ से जाने के लिए कहा। गड़रिया तुरन्त वहाँ से भाग गया। इन्द्र देव ने महावीर स्वामी से कहा आप अकेले वन में तपस्या करते हैं। मैं आपके लिए कोई देव दूत रक्षा के लिए भेज देता हूँ। इस पर महावीर स्वामी ने कोई उत्तर न देते हुए इन्द्र देव को भी जाने के लिए कहा। इस प्रकार उनके मन में न इन्द्र देव के लिए कोई राग था और ना ही गड़रिए के लिए कोई द्वेष। जिसकी ऐसी अवस्था नित्य ही रहती है। महावीर स्वामी को लोगों से बात करने के लिए ध्यान से बाहर आना पड़ता था। वो सदैव ध्यान की अवस्था में रहते थे।
जिस प्रकार पुराने जेवर पर मैल चढ़ जाता है और उसे सुनार के पास ले जाने पर वह मैल को जला कर शुद्ध सोने का वजन बताता है। शुद्ध सोने को ही अन्य सोने के साथ मिलाकर नए आभूषण बनाए जा सकते हैं। ठीक उसी प्रकार योगी के जब सम्पूर्ण विकार नष्ट हो जाते हैं तो वह परमात्मा से एकाकार होने की पात्रता अर्जित कर लेता है।
ब्रह्मभूतः(फ्) प्रसन्नात्मा, न शोचति न काङ्क्षति।
समः(स्) सर्वेषु भूतेषु, मद्भक्तिं(म्) लभते पराम्॥18.54॥
भक्त्या मामभिजानाति, यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां (न्) तत्त्वतो ज्ञात्वा, विशते तदनन्तरम्॥18.55॥
सर्वकर्माण्यपि सदा, कुर्वाणो मद् व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति, शाश्वतं (म्) पदमव्ययम्॥18.56॥
नए और प्रौढ़ योगी में अन्तर यही होता है कि नया योगी सोचता है मुझे ये अच्छा लगता है जबकि प्रौढ़ योगी सोचता है कि मैं जो कर रहा हूँ क्या यह भगवान को अच्छा लगेगा। एक सन्त से किसी ने पूछा कि भगवान को प्राप्त करने का सही मार्ग क्या है? सन्त ने बहुत ही सुन्दर उत्तर दिया कि जिस कार्य से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं, वही भगवान की प्राप्ति का सही साधन है।
चेतसा सर्वकर्माणि, मयि सन्न्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य, मच्चित्तः(स्) सततं(म्) भव॥18.57॥
एक बार चार मित्रों ने निश्चय किया कि वे जुहू चौपाटी पर मिलेंगे। कई वर्षों से वह मिले नहीं थे। न्यूयॉर्क वाला मित्र हवाई जहाज से पहुँचा। चेन्नई वाला मेट्रो ट्रेन से पहुँचा। पूना वाला मित्र अपनी गाड़ी चला कर पहुँचा और मुम्बई वाला मित्र ऑटो से जुहू तक पहुँचा। वहाँ पहुँचने तक वह अलग-अलग साधन से आए किन्तु जुहू बीच पर जाने के लिए जो रास्ता पैदल तय करना था वह एक ही था। ठीक इसी प्रकार भगवत् प्राप्ति के लिए ज्ञानयोग, कर्मयोग अथवा भक्ति योग किसी भी मार्ग से आए अन्त में तीनों का मार्ग एक ही हो जाता है। इस पर अर्जुन ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी तो भगवान ने थोड़े कड़े शब्दों में आगे के श्लोकों में कहा।
मच्चित्तः(स्) सर्वदुर्गाणि, मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्, न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥18.58॥
यदहङ्कारमाश्रित्य, न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते, प्रकृतिस्त्वां (न्) नियोक्ष्यति॥18.59॥
स्वभावजेन कौन्तेय, निबद्धः(स्) स्वेन कर्मणा।
कर्तुं(न्) नेच्छसियन्मोहात्, करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥18.60॥
यदि तू जङ्गल में जाकर तपस्या करेगा और वहाँ एक शेर गाय को खाने आ जाएगा। तेरे पास धनुष बाण नहीं भी होंगे तो भी तू पास रखी लकड़ी से उस शेर को मार देगा क्योंकि यह तेरा स्वभाव है। तू अपने स्वभाव को नहीं बदल सकता है। मोह बन्धन के कारण तू युद्ध से मना कर रहा है किन्तु तुझे अपने स्वभाव के कारण युद्ध करना ही पड़ेगा।
ईश्वरः(स्) सर्वभूतानां(म्), हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि, यन्त्रारूढानि मायया॥18.61॥
गोस्वामी तुलसीदास जी ने सुन्दर चौपाई लिखी है-
उमा दारु जोषित की नाईं।
सबहि नचावत रामगोसाईं॥
अर्थात् ईश्वर सबको कठपुतली की तरह नचाते हैं। भगवान कहते हैं कि कर्म करते समय तो वह तुम्हारे अधिकार में होते हैं किन्तु उसके फल तुम्हारे अधिकार से बाहर हैं।
“गुणकर्म विभागशः”
तुम्हें अपने कर्मों के विधान के अनुसार ही योनि प्राप्त होगी।
तमेव शरणं(ङ्) गच्छ, सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां(म्) शान्तिं(म्), स्थानं(म्) प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥18.62॥
इति ते ज्ञानमाख्यातं(ङ्), गुह्याद्गुह्यतरं(म्) मया।
विमृश्यैतदशेषेण, यथेच्छसि तथा कुरु॥18.63॥
https://drive.google.com/file/d/1Ww7Zo678C_epVeH66naMp_EsjYMrO2jg/view?usp=drivesdk
भगवान मेरी नैया उस पार लगा देना।
अर्जुन के चेहरे से भगवान भाँप गए कि अर्जुन ऐसा नहीं चाहते हैं कि मैं उसे उसके हाल पर छोड़ दूँ। ऐसा जानकर भगवान ने अति कृपालु होकर आगे के श्लोक कहे।
सर्वगुह्यतमं(म्) भूयः(श्), शृणु मे परमं(म्) वचः।
इष्टोऽसि मे दृढमिति, ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥18.64॥
मन्मना भव मद्भक्तो, मद्याजी मां(न्) नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं(न्) ते, प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥18.65॥
सर्वधर्मान्परित्यज्य, मामेकं(म्) शरणं(म्) व्रज।
अहं(न्) त्वा सर्वपापेभ्यो, मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥18.66॥
यहाँ एक प्रश्न उठता है कि भगवान किस धर्म का त्याग करने को कह रहे हैं? भगवान ने सदैव धर्म की रक्षा की बात कही है। किन्तु जब साधक, योगी या भक्त चरम अवस्था में पहुँच जाते हैं तो उन्हें अपने समस्त कर्त्तव्य कर्म, धर्म आदि का भी त्याग करना पड़ता है तभी वो परम पद की प्राप्ति कर सकते हैं।
ठाकुर राम कृष्ण परमहँस काली माँ के अनन्य भक्त थे। अन्तिम अवस्था में काली माँ ने स्वयं प्रकट होकर उन्हें तलवार देकर कहा कि मेरे टुकड़े कर दो। परमहँस जी बोले माँ मैंने जीवन भर आपकी भक्ति की है यह मुझसे नहीं होगा। माँ काली अपने उस मूर्त रूप का भी त्याग करवाना चाहती थीं। यह अत्यन्त गूढ़ बात है और भगवान में एकाकार होने से ठीक पूर्व की बात है। जब अन्य किसी साधन की आवश्यकता नहीं रहती है। जिस प्रकार चार मित्रों को मिलने के लिए अपने हवाई जहाज, ट्रैन, कार और ऑटो को छोड़ना ही पड़ेगा ठीक उसी प्रकार अन्तिम गन्तव्य तक पहुँचने पर लक्ष्य प्राप्ति के लिए अपने-अपने साधनों को छोड़ना ही पड़ेगा तभी तुम मुझे प्राप्त कर पाओगे और मैं तुम्हें भवसागर से पार करा दूँगा।
इदं(न्) ते नातपस्काय, नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं(न्), न च मां(म्) योऽभ्यसूयति॥18.67॥
यहाँ भगवान प्रसन्न मन से उस गीता ज्ञान की धन्यता कहते हैं जो उन्होंने अर्जुन को कहा।
भगवान कहते हैं, हे अर्जुन! धन्य है यह गीता जिसने तेरे अन्दर के मोह को नष्ट कर दिया। तब अर्जुन ने कहा, ऐसी बात है तो यह ज्ञान सबको सुना दीजिए।
भगवान कहते हैं इन चार लोगों को यह ज्ञान नहीं सुनाया जा सकता और न ही सुनाना चाहिए-
1) जो तप रहित है।
2) जो भक्ति रहित है।
3) जो मुझमें दोष देखता है और
4) जिसकी सुनने की इच्छा नहीं है।
ऐसे चार लोगों को गीताजी कभी नहीं सुनाना चाहिये। मैं भी यह दोबारा नहीं सुनाना चाहता और चाहूँ तो भी दोबारा नहीं सुना सकता।
अर्जुन को लगा फिर तो यह ज्ञान यहीं रह जायेगा, परन्तु भगवान ने कहा कि मैं यह कार्य अपने भक्तों पर छोड़ता हूँ। वे मेरे इस सन्देश को आगे प्रसारित करेंगे।
अर्जुन ने पूछा कि, क्या भक्तों को गीता का प्रसार करने की आज्ञा है? तो भगवान कहते हैं-
य इमं(म्) परमं(ङ्) गुह्यं(म्), मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं(म्) मयि परां(ङ्) कृत्वा, मामेवैष्यत्यसंशयः॥18.68॥
अर्जुन ने कहा, इन दो बातों से ही आपकी प्राप्ति हो जायेगी? तो भगवान कहते हैं, 'निःसन्देह होगी'। यही नहीं उन्हें इसके साथ ही दो चीजें और भी प्राप्त होगी।
यह सुनकर अर्जुन अत्यन्त विस्मित होकर पूछते हैं कि आपकी प्राप्ति होने के बाद अब और क्या शेष बचेगा? तो भगवान कहते हैं सुनो-
न च तस्मान्मनुष्येषु, कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्माद्, अन्यः(फ्) प्रियतरो भुवि॥18.69॥
साथ ही, 'प्रियतरो भुवि' अर्थात उससे बढ़कर मेरा कोई प्रिय होगा भी नहीं।
अर्जुन ने पूछा; प्रियता किससे? किससे ज्यादा प्रिय होगा आपको? आपके भक्तों से? तब भगवान कहते हैं, नहीं अर्जुन! पूरी पृथ्वी पर जितने भी कर्मयोगी, ध्यानयोगी, तपयोगी, ज्ञानयोगी हैं, जितने भी साधक हैं, किसी भी पन्थ को, विचारधारा को, सम्प्रदाय को और साधना पद्धति को मानने वाले हों, जो गीता का प्रचार करेगा वह इन सबसे बढ़कर होगा। मुझे उससे प्रिय भविष्य में भी कोई नहीं होगा।
भगवान ने हम सबको यह कितना सुनहरा अवसर दिया है। भगवान ने स्वयं जिस बात की सुनिश्चित घोषणा कर दी है परन्तु फिर भी हम अगर गीताजी के प्रचार में नहीं लगे तो यह हमारा दुर्भाग्य है। हमारा इसे सुनना भी व्यर्थ ही है।
अध्येष्यते च य इमं (न्), धर्म्यं (म्) संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहम्, इष्टः (स्) स्यामिति मे मतिः॥18.70॥
भगवान कहते हैं, तुम्हें चाहे कुछ समझ नहीं आता हो परन्तु नियमपूर्वक और श्रद्धा से मेरा भाव रखकर, भक्ति भाव से जो इस गीता का पाठ भी करेगा, वह ज्ञानयज्ञ के द्वारा मेरी पूजा करेगा। मैं इस सिद्धान्त को प्रतिपादित करता हूँ।
आगे भगवान कहते हैं, केवल यह ही नहीं होगा-
श्रद्धावाननसूयश्च, शृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः(श्)शुभाँल्लोकान्, प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्॥18.71॥
यह हमारा सौभाग्य है कि हम सब भी इस श्रेणी में आते हैं।
अब अर्जुन पूछते हैं कि गीताजी को केवल सुनने वालों के द्वारा भी आप ज्ञानयज्ञ से पूजित हो जाओगे? भगवान कहते हैं, हाँ! जिसको जो चाहिये उसे वह मिलेगा। जिसे मुक्ति चाहिए उसे मुक्ति मिलेगी, जिसे स्वर्ग चाहिये उसे स्वर्ग मिलेगा, जिसे मेरा परमधाम चाहिए उसे वह भी मिलेगा, जिसे जो लोक चाहिए वह मिलेगा चाहे वह विष्णु लोक हो अथवा गोलोक। मैं उसे सब कुछ दूँगा पर वह मनुष्य दोष दृष्टिरहित होना चाहिए।
अब भगवान ने अर्जुन से अन्तिम प्रश्न किया? भगवान कहते हैं, अर्जुन तुम्हारे हाव-भाव से मुझे यह तो स्पष्ट हो गया है कि तुम्हारा मोह नष्ट हो गया है, तुम विषाद की अवस्था से बाहर आ गये हो और एकदम शान्त हो गये हो, परन्तु मैं यह तुम्हारे मुख से सुनना चाहता हूँ जिससे बाद में जो गीता पढ़े उनके मन में तुम्हारे बारे में कोई संशय न हो।
कच्चिदेतच्छुतं(म्) पार्थ, त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः(फ्), प्रनष्टस्ते धनञ्जय॥18.72॥
अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः(स्) स्मृतिर्लब्धा, त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः(ख्), करिष्ये वचनं(न्) तव॥18.73॥
अर्जुन ने कहा, मुझे स्मृति आ गयी है कि मैं क्या हूँ। अज्ञान का अन्धकार नष्ट हो गया है और वास्तविकता से मेरा साक्षात्कार हो गया है। प्रमाण, विषण्ण, विकल्प, निद्रा और स्मृति, अज्ञान की इन पाँच स्थितियों से मैं बाहर आ गया हूँ।
मानस में भगवान ने शबरी को कहा है-
मम दर्शन फल परम अनूपा।
जीव पाये निज सहज सरूपा।।
मेरे दर्शन का फल है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। अर्जुन भी अपने सहज स्वरूप में आ गये थे।
यहाँ भगवान ने कहा, 'इति', और अपनी बात समाप्त की। इसके बाद चौहत्तरवें श्लोक से लेकर अट्ठहत्तरवें श्लोक तक सञ्जय ने अपनी बात कही है। उन्होंने इन पाॅंच श्लोकों में जो भी कहा वह अद्भुत है। वे कितने महान हैं, महापुरुष हैं, वो इन पाॅंच श्लोकों से ज्ञात होता है।
सञ्जय उवाच
इत्यहं(म्) वासुदेवस्य, पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषम्, अद्भुतं(म्) रोमहर्षणम्॥18.74॥
सञ्जय जन्म से शूद्र हैं, कर्म से क्षत्रिय हैं और ज्ञान से ब्राह्मण हैं। भगवान वेदव्यास ने इनको ब्राह्मण होने का आशीर्वाद दिया था। धृतराष्ट्र ने इनको बुद्धिमान देखकर अपना मित्र और मन्त्री बनाया।
दसवें दिन जब भीष्म पितामह शर शैय्या पर आ गये तब सञ्जय वापस आये और उन्होंने गीता का वचन कहा। अगर सञ्जय ने यह वचन नहीं कहा होता तो हमें यह ज्ञान उपलब्ध होना कठिन था।
जैसे शबरी को भगवान के दर्शन होते ही गुरु कृपा का अनुभव हुआ वैसे ही सञ्जय को भी उन क्षणों में अपने गुरु की कृपा का अनुभव हुआ। अगर भगवान वेदव्यास ने उन्हें दिव्य दृष्टि प्रदान नहीं की होती तो कैसे वे भगवान के वचन सुनते और कैसे उनके विश्वरूप के दर्शन कर पाते। भगवान ने जो कुछ अर्जुन को सुनाया, अपना जो रूप दिखाया, वह सञ्जय ने भी गुरु कृपा से साक्षात अनुभव कर लिया।
श्रेष्ठ व्यक्ति की यही पहचान है कि जिसकी कृपा से वह कुछ प्राप्त करता है, उसका बखान अवश्य करता है। जिसने उस पर उपकार किया उसका वह सदैव उपकृत रहता है, कभी उसे भूलता नहीं है।
यही बात सञ्जय यहाँ कहते हैं-
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवान्, एतद् गुह्यमहं(म्) परम्।
योगं(म्) योगेश्वरात्कृष्णात्, साक्षात्कथयतः(स्) स्वयम्॥75॥
अब सञ्जय अपनी धन्यता का अनुभव करते हुए कहते हैं।
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य, संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयोः(फ्) पुण्यं(म्), हृष्यामि च मुहुर्मुहुः॥18.76॥
मैं जितनी भी बार यह याद करता हूँ, मेरे अन्दर से रोमाञ्च की लहरें उठने लगती हैं। मैं शब्दों में बखान नहीं कर सकता कि मैं कितना प्रसन्न हूँ, मैं क्या अनुभव कर रहा हूँ।
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य, रूपमत्यद्भुतं(म्) हरेः।
विस्मयो मे महान् राजन्, हृष्यामि च पुनः(फ्) पुनः॥18.77॥
सञ्जय आज उस कृपा का अनुभव कर रहे हैं जो संसार में दुर्लभतम है। किसी शिष्य पर किसी भी गुरु ने आज तक ऐसी कृपा नहीं की होगी। भगवान वेदव्यास ने सञ्जय को वो सौभाग्य दे दिया जिससे सञ्जय ने वो दर्शन कर लिये जो देवताओं को भी दुर्लभ हैं।
अब इन सारी बातों को याद करके सञ्जय धृतराष्ट्र को चेतावनी देते हैं और उन्हें सावधान करते हुए कहते हैं, कि हे धृतराष्ट्र! तुम पापी और मूर्ख हो जो अभी भी अपने पुत्रों के जीतने की कामना करते हो।
यत्र योगेश्वरः(ख्) कृष्णो, यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूति:(र्), ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥18.78॥
सञ्जय विचार करते हैं कि हे धृतराष्ट्र! तुम कितने मूर्ख हो, तुमने यह सोचा भी कैसे कि तुम्हारे पुत्र विजय प्राप्त कर सकते हैं। जहाँ स्वयं योगेश्वर भगवान कृष्ण खड़े हैं और जहाँ गाण्डीव धारण किये हुए अर्जुन हैं वहीं पर श्री है, वहीं विजय, विभूतियाँ और अचल नीति है।
भगवद्गीता का आरम्भ 'धर्' से होता है और ''म' से पूर्ण होता है। दोनों को मिलाकर धर्म बनता है। भगवद्गीता धर्ममय है।
अगर अर्जुन गाय न बनते तो भगवान ग्वाले न बनते। भगवान ने अर्जुन को बछड़ा बनाकर गीता रूपी इस दुग्ध का पान करवाया और उन्हें निमित्त बनाकर गीता रूपी यह दुग्ध अमृत हमें प्रदान कर दिया। हम धन्य हो गये। हम उन सन्तों महापुरुषों और आचार्यों के कृतज्ञ हैं जिन्होंने गीता ज्ञान को हमारे लिये इतना सुलभ कर दिया। हम कृतज्ञ हैं सेठजी जयदयाल गोयन्दका जैसे महापुरुषों और गीता प्रेस जैसी संस्था के, स्वामी जी जैसे महापुरुषों के जिन्होंने इस गीता ज्ञान के प्रति हमारी रुचि को जागृत किया और हमें इस पथ पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित किया इसलिये हम गीता परिवार के इस लर्न गीता कार्यक्रम से जुड़ पाये। उन महापुरुषों के जिन्होंने अनेकों कष्ट उठाकर इस महान ग्रन्थ को सुरक्षित रखा और हजारों वर्षों की परम्परा के रूप में हम तक पहुँचाया।
अन्तिम प्रणाम भगवान वेदव्यासजी को, जिन्होंने इस गीता ज्ञान को अट्ठारह अध्यायों में बाँटा, अट्ठारह नाम दिये और हर अध्याय के अन्त में पुष्पिका दी और पुष्पिका में ऐसा सूत्र दे दिया कि हमारा कोई दोष रह जाये तो भी हमारी बात पूर्ण हो जाये।
गीता शास्त्र इहलोक और परलोक दोनों का उद्धार करने वाला है। इस लोक में भी विजय दिलाता है और आगे के सभी जन्मों को भी सफल कर देता है। हम सब एक ही कामना में प्रवृत्त हों कि भगवान की कृपा से हमारी यह गीता भक्ति सदैव के लिये निष्ठ हो जाये और हमारा यह शेष जीवन और आने वाले सभी जीवन गीतामय होकर हमें भगवान तक पहुँचा दे। भगवान ने हमें जो जिम्मेदारी दी है उससे हम कभी छूटें नहीं और इस ज्ञान में प्रवृत्त होकर हमेशा भगवान के इस गीता शास्त्र में लगे रहें। समझ नहीं भी आये तो भी, 'पढ़ते रहें- पढ़ाते रहें, सुनते रहें और सुनाते रहें'। जो सेवा बन पड़े वह भी करते रहें।
किसी काल में तो भगवान हमें मिल ही जायेंगे, क्योंकि उन्होंने स्वयं ही कहा है-
मामेवैष्यसि युक्तैवमात्मानं मत्परायणः।
इसमें तो कोई संशय है ही नहीं। हम चाहे कितने ही पापी अथवा कुपात्र हों परन्तु भगवान ने हमारे उद्धार की प्रतिज्ञा ली है तो वे तो हमारा उद्धार करेंगे ही। हम सब यही सङ्कल्प करें कि गीताजी को कभी नहीं छोड़ेंगे और भगवान हमारी भावन ऐसी बनायें कि हम सभी गीता के मार्ग पर निष्ठ होकर उनकी प्रसन्नता के लिये अपना जीवन जीयें।
हरि शरणम्, हरि शरणम्, हरि शरणम्।
ऊँ श्रीकृष्णार्पणमस्तु।
हरि नाम सङ्कीर्तन के साथ विवेचन सत्र समाप्त हुआ और प्रश्न उत्तर सत्र आरम्भ हुआ।
प्रश्नकर्ताः शिवानी दीदी
प्रश्नः महिलाएँ अनेक कार्य एकसाथ कर सकती हैं जिसे हम कहते हैं (Multi tasking) उनके दिमाग में अनेक विचार चलते रहते हैं। वही स्थिति साधना के समय होती है और मन स्थिर नहीं रहता, तो क्या करें?
उत्तरः मन का स्वभाव ही ऐसा है। सबका मन भटकता है परन्तु भगवान ने कहा है कि अभ्यास और वैराग्य से इस पर नियन्त्रण सम्भव है। अपने प्रिय साधन में ध्यान लगाने पर मन कम भटकता है।
प्रश्नः जब दशरथ जी का देहान्त हुआ तो वे भगवान राम को ही याद कर रहे थे। वैसे ही अजामिल के तो पुत्र का नाम ही नारायण था तो उन्हें क्या मिला?
उत्तरः दशरथ जी भगवान को पुत्र रूप में याद कर रहे थे तो उन्हें वे उसी रूप में प्राप्त हुए और अजामिल को भी नारायण का धाम स्वर्ग मिला मोक्ष नहीं।
प्रश्नकर्ताः सुषमा दीदी
प्रश्नः आपके माध्यम से स्वामी जी तक यह निवेदन पहुँचे और वे आशीर्वाद दें कि हमारी बुद्धि ऐसी हो जाये जो सदैव गीताजी में लगी रहे?
उत्तरः वह निवेदन तो हो जायेगा पर यह मेरा निवेदन है कि गीता में अट्ठारह अध्याय हैं, कुरुक्षेत्र का युद्ध भी अट्ठारह दिन तक चला तो हम भी अट्ठारह बार ही इसका पठन करें। इतनी सरलता से हमें यह अवसर मिल रहा है तो यह नित्य स्वाध्याय जारी रहे और सेवा भी करें।
प्रश्नकर्ताः मधु दीदी
प्रश्नः भगवान कर्मफल का त्याग करने को कहते हैं परन्तु मानवीय स्वभाव के कारण यह सम्भव नहीं हो पाता?
उत्तरः यह करना आवश्यक है क्योंकि जब तक ऐसा नहीं करेंगे हम जन्म-मरण के बन्धन से नहीं छूटेंगे और 'पुनरपि जन्मं पुनरपि मरणं' का यह क्रम चलता ही रहेगा।
प्रश्नकर्ताः माधुरी दीदी
प्रश्नः सूतक में किया गया हनुमान चालीसा का पाठ भी क्या भगवान को अर्पण कर सकते हैं?
उत्तरः किसी भी निमित्त से किया गया पाठ राम प्रतिष्ठा एप पर अर्पण कर सकते हैं। सूतक समाप्त होने के बाद कर दें।
प्रश्नकर्ताः जेठा खुराना भैया
प्रश्नः सर्वधर्मान् परित्याज्य का क्या अर्थ है?
उत्तरः जैसे मन्दिर तक जाने का साधन कोई भी हो वहाँ पहुँचकर उसे मन्दिर के बाहर ही छोड़ना पड़ता है वैसे ही भगवान तक पहुँचने के अनेक योग हैं पर अन्त में उनका भी त्याग कर भगवान को ही सब कुछ मानकर सब कुछ सौंपना होगा तो हमारा योगक्षेम वे स्वयं ही सम्भाल लेंगे।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(म्) योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसन्न्यासयोगो नाम अष्टादशोऽध्यायः ॥