विवेचन सारांश
गागर में सागर

ID: 2809
हिन्दी
रविवार, 07 मई 2023
अध्याय 18: मोक्षसंन्यासयोग
6/6 (श्लोक 36-78)
विवेचक: गीता विशारद डॉ आशू जी गोयल


गीता परिवार की पारम्परिक प्रार्थना एवं दीप प्रज्वलन के आलोक में आज के विवेचन सत्र का प्रारम्भ किया गया। भगवान की अत्यन्त महती कृपा के फ़लस्वरूप हम श्रीमद्भगवद्गीता के अन्त तक आ गये हैं। हमने अट्ठारह अध्याय का उच्चारण एवं अर्थ विवेचन दोनों सीख लिया है - आत्मसात कर लिया है। जीवन में प्राणी मात्र ने एक बार भी अगर श्रीमद्भगवद्गीता के सभी अट्ठारहों अध्याय का चिन्तन - मनन कर लिया तो यह जीवन की एक विशिष्ट उपलब्धि है। भगवान ने इस अध्याय में गागर में सागर भर दिया है। अनेक भाष्य जैसे शांकर भाष्य, रामानुजम भाष्य एवं स्वामीजी रामसुखदासजी महाराज की साधक संजीवनी सभी में इस पर अत्यन्त विस्तार से प्रकाश डाला गया है। 

अभी तक के श्लोकों में हमने देखा कि सात्विक, राजसी एवं तामसी धारणाएँ कैसी होती हैं अब आगे श्रीभगवान तीन प्रकार के सुखों का वर्णन करते हैं। 

18.36

सुखं(न्) त्विदानीं(न्) त्रिविधं(म्), शृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र, दुःखान्तं(ञ्) च निगच्छति॥18.36॥

हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! अब तीन प्रकार के सुख को भी (तुम) मुझसे सुनो। जिसमें अभ्यास से रमण होता है और (जिससे) दुःखों का अन्त हो जाता है, ऐसा वह परमात्म-विषयक बुद्धि की प्रसन्नता से पैदा होने वाला जो सुख (सांसारिक आसक्ति के कारण) आरम्भ में विष की तरह (और) परिणाम में अमृत की तरह होता है, वह (सुख) सात्त्विक कहा गया है। (18.36-18.37)

18.36 writeup

18.37

यत्तदग्रे विषमिव, परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं(म्) सात्त्विकं(म्) प्रोक्तम्, आत्मबुद्धिप्रसादजम्॥18.37॥

विवेचन- तीन प्रकार की धारणाओं के पश्चात अब श्रीभगवान तीन प्रकार के सुखों की व्याख्या प्रारम्भ कर रहे हैं। वैसे तो सुख सात प्रकार के प्रतिपादित किये गये हैं। एक सुन्दर कविता के माध्यम से इसका विस्तृत उदाहरण प्रस्तुत किया गया। 

पहला सुख निरोगी काया।  
दूसरा सुख घर में माया। 
तीजा सुख कुलवन्ती नारी। 
चौथा सुख पुत्र आज्ञाकारी। 
पञ्चम सुख स्वदेश में बासा। 
छठवाँ सुख राज हो पास। 
सातवाँ सुख सन्तोषी जीवन।।

स्वस्थ्य शरीर, घर में समृद्धि, कुलवन्ती जीवन सङ्गिनी, आज्ञाकारी पुत्र, स्वदेश में निवास, घर और समाज में अपना वर्चस्व और संतोषी जीवन ये सात सुख बताये गये हैं। आज कल विदेश में प्रवास का प्रचलन है पर जो वहाँ रह रहे हैं संतुष्ट नहीं है एवं कुछेक को छोड़ कर सभी वापस आना चाहते हैं। 

संतोषी जीवन निःसन्देह इन सब में सर्वोपरि है। 

गोधन, गज-धन, बाजि-धन, और रतन धन-खान।
जब आवे संतोष-धन, सब धन धूरि समान!!

पर श्रीमद्भगवद्गीता की सुखों की व्याख्या सर्वथा पृथक है। 

गीता के अनुसार प्रथम सुख है सात्विक सुख। यह प्रारम्भ में अथवा दूसरों की दृष्टि से देखने में विष समान लगता है पर यथार्थ में यह अमृत समान होता है। सात्विक सुख में कठोर से कठोर तप में भी आनन्द की अनुभूति होती है। उदाहरण स्वरूप एक व्यक्ति एकादशी के उपवास करता है। एक माह में दो और वर्ष में चौबीस उपवास हो गये। जो व्यक्ति एक भी उपवास करने में अक्षम है वह आश्चर्य करता है कि कोई व्यक्ति इतने उपवास कैसे कर सकता है पर जो व्रती है उसे तो आभास ही नहीं होता कि उसने उपवास कर रखा है अथवा कुछ खाया नहीं। लोग प्रसन्नता पूर्वक नवरात्र में नवाह्न पारायण के पश्चात भोजन ग्रहण करते हैं, गोवर्द्धन की परिक्रमा करते हैं। दण्डवत परिक्रमा करते हैं - उनके घुटने छिल जाते हैं पर वे आत्मिक आनन्द से विभोर रहते हैं। 

सात्विक सुखों का आरम्भ पुण्य दृष्टि से होता है। यह आत्म सन्तुष्टि की स्थिति है। सात्विक कार्य करने से पुण्य की प्राप्ति तो अवश्य ही होती है पर इससे भी अधिक यह आनन्द प्रदान करती है। ऋषिकेश में एक धार्मिक सज्जन ने एक गूढ़ रहस्य की बात अनायास ही कह दी। 

HOW SATISFIED - HOW HAPPY I AM FEELING INSIDE.

18.38

विषयेन्द्रियसंयोगाद्, यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव, तत्सुखं (म्) राजसं (म्) स्मृतम्॥18.38॥

जो सुख इन्द्रियों और विषयों के संयोग से (होता है), वह आरम्भ में अमृत की तरह (और) परिणाम में विष की तरह प्रतीत होता है, वह (सुख) राजस कहा गया है।

विवेचन- सभी सुखों का प्रादुर्भाव विषयों एवं इन्द्रियों के संयोग से होता है। ये सुख प्रारम्भ में तो अमृत तुल्य लगते हैं पर अन्त में इनका परिणाम विष तुल्य ही होता है। एक और आश्चर्य जनक बात यह है कि सुखों से अधिक सुखों को प्राप्त करने की इच्छा और परिकल्पना सुख की प्राप्ति से अधिक सुख प्रदान करती हैं। एक कविता के दो लाइनें -

क्यूँ कल्पना ख़ुशी की ख़ुशी से ज्यादा ख़ुशी देती है। 
क्यों सामने की ख़ुशी मुट्ठी से रेत की तरह निकल जाती है। 

राजसी सुख की परिभाषा बताते हुए श्रीभगवान कहते हैं - सभी भौतिक सुख जैसे जीवन साथी का चयन, नये घर की परिकल्पना, नये - नये उपकरणों जैसे मोबाइल फोन आदि की आकांक्षा सभी तात्कालिक सुख का अनुभव कराते हैं वे अमृत सामान भी प्रतीत होते हैं पर अन्ततोगत्वा वे विष समान ही होते हैं। एक भजन के माध्यम से इसे स्पष्ट किया -

उलझ मत दिल बहारों में बहारों का भरोसा क्या। ....

भजन की लिंक -
https://drive.google.com/file/d/1UOZo6_YfEfe9Qlxm94qFinblNRKU4r5X/view?usp=drivesdk

प्राणी इन सुखों के माया जाल में फँस जाता है उसे भान रहता है कि वह गलत निर्णय ले रहा है पर उसकी लोलुपता उसके मार्ग में बाधक हो जाती है।  एक मधुमेह के रोगी को ज्ञात है कि उसे मिठाई से दूर रहना चाहिये उसके लिये मिष्टान्न विष तुल्य है पर वह उन्हें ही अमृत तुल्य मानने की भूल करता है। यह राजसी सुख के लक्षण हैं। 

प्राणी कर्ज ले कर, किस्तों पर आराम के - मनोरञ्जन के उपकरण क्रय कर के उनमें सुख का अनुभव करता है। प्रारम्भ में तो ये सुख अमृततुल्य लगते हैं पर जब किस्तें भरनी पड़ती हैं तो वे विष सामान लगती हैं।

18.39

यदग्रे चानुबन्धे च, सुखं(म्) मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं(न्), तत्तामसमुदाहृतम्॥18.39॥

निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होने वाला जो सुख आरम्भ में और परिणाम में अपने को मोहित करने वाला है, वह (सुख) तामस कहा गया है।

विवेचन- तमोगुणी सुख में न तो प्रारम्भ में सुख है न अन्त में। यह तो आदि से अन्त तक विष समान ही है। ऐसा मनुष्य अहङ्कार के कारण, मूढ़ता के कारण, मूर्खता के कारण विद्वेष, झगड़ों, विवाद में भी आनन्द की अनुभूति करता है। बिना किसी कारण भी हर किसी से लड़ लेता है - झगड़ा कर लेता है। 

एक सुन्दर उदाहरण से इस प्रकार के प्राणियों की मनःस्थिति की व्याख्या की गई। 

एक गाँव में एक महात्मा पधारे एक ग्रामीण महिला रोज महाराज हेतु स्वादिष्ट भोजन बना के ले जाती महात्मा आनन्द पूर्वक उसे ग्रहण करते पर वही भोजन उस स्त्री के पति को स्वादिष्ट नहीं लगता था एवं इस बात से वह अपनी पत्नी से दुर्व्यवहार करता था। स्त्री ने अपनी दुविधा महात्मा को बताई, महात्मा जी ने कहा कि जा आज से तेरा पति तेरे भोजन की प्रशंसा करेगा। दूसरे दिन स्त्री पुनः दुःखी अवस्था में आई। महात्मा जी ने पूछा अब क्या हुआ। स्त्री ने कहा मेरा बनाया हुआ भोजन मेरे पति को इतना स्वादिष्ट लगा कि वह अधिक खा गया उसको अजीर्ण हो गया और अब उसका भी दोषारोपण वह मुझ पर ही कर रहा है। 

तामसिक सुख निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होता है। ऐसे लोग केवल दिवा स्वप्न देखते हैं। उनको लगता है एक न एक दिन स्वयं उनके अच्छे दिन आ जायेंगे। 

18.40

न तदस्ति पृथिव्यां(म्) वा, दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं(म्) प्रकृतिजैर्मुक्तं(म्), यदेभिः(स्) स्यात्त्रिभिर्गुणै:॥18.40॥

पृथ्वी में या स्वर्ग में अथवा देवताओं में तथा इनके सिवाय और कहीं भी वह (ऐसी कोई) वस्तु नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो।

विवेचन- श्रीभगवान ने एक आश्चर्यजनक सिद्धान्त की व्याख्या यहाँ की। प्रकृति में कोई भी ऐसी वस्तु अथवा पदार्थ नहीं है जिनमें ये तीनों गुण विद्यमान न हों। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना ही सत्व, रज एवं तम गुणों के सम्मिश्रण से हुई है। योग वशिष्ठ के अनुसार एक मात्र वे उत्तम योगी जो तुर्यगा स्थिति को प्राप्त हो गये हैं उनमें केवल सत्व गुण विद्यमान रहते हैं रज एवं तम गुणों का क्षय हो जाता है।

18.41

ब्राह्मणक्षत्रियविशां(म्), शूद्राणां(ञ्) च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि, स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥18.41॥

हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न हुए तीनों गुणों के द्वारा विभक्त किये गये हैं।

विवेचन- श्रीमद्भगवद्गीता वर्णाश्रम धर्म के सिद्धान्तों की व्याख्या पृथक तरीके से करती है। चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण अवश्य हैं पर ये प्राणी के पूर्व जन्म कृत कर्म पर आधारित हैं। ये वर्ण पर्वतों एवं पक्षियों के भी होते हैं। पर प्राणी अपने सुकर्मों से अपने वर्ण का परिवर्तन भी कर सकता है। इसका ज्वलन्त उदाहरण है राजर्षि विश्वामित्र ने क्षत्रिय कुल में राजा कौशिक के नाम से जन्म लिया पर अपने पुरुषार्थ से ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर ऋषि विश्वमित्र बने और अपने तप के बल पर राजर्षि और ब्रह्मर्षि हो गये। इसी प्रकार कर्ण सूत पुत्र था पर दुर्योधन ने उसके साथ अपनी मित्रता का परिचय देते हुए उसे अङ्ग देश का राज्य प्रदान कर उसे क्षत्रिय बना दिया। 

महाभारत में एक और कथा का विवरण आता है-महाराज शान्तनु के दरबार में एक वणिक आया वह अश्वों का व्यवसायी था। उसने महाराज के समक्ष यह दावा किया कि उसके घोड़े अतुलनीय हैं - असाधारण हैं उसके अश्व अगर कमल के फूलों के सरोवर को पार करते हैं तो कमल के फूलों की कलियों को कोई हानि नहीं होती, उसके घोड़े जब दौड़ते हैं तो उनके चलने की टाप सुनाई नहीं देती। यहाँ तक तो ठीक था अब उसने कह दिया कि उसके अश्वों को नाथा नहीं जा सकता। महाराज शान्तनु के पुत्र देवब्रत जिन्हें हम भीष्म पितामह के नाम से जानते हैं यह बात सुन कर क्रोधित हो गये और वणिक से कहा कि अगर वे उसके घोड़े को नाथ नहीं सके तो वे उस वणिक को क्षत्रित्व प्रदान करेंगे। कथा में बताया गया कि देवब्रत ने उन अश्वों को नाथा पर वे अश्व यथार्थ में अत्यन्त उच्च कोटि के थे अतः उस वणिक को एक राज्य का राजा बना कर क्षत्रिय बना दिया गया।  

18.42

शमो दमस्तपः(श्) शौचं(ङ्), क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानंविज्ञानमास्तिक्यं(म्), ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥18.42॥

मन का निग्रह करना, इन्द्रियों को वश में करना; धर्मपालन के लिये कष्ट सहना; बाहर-भीतर से शुद्ध रहना; दूसरों के अपराध को क्षमा करना; शरीर, मन आदि में सरलता रखना; वेद, शास्त्र आदि का ज्ञान होना; यज्ञविधि को अनुभव में लाना; और परमात्मा, वेद आदि में आस्तिक भाव रखना - (ये सबके सब ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।

विवेचन- श्रीभगवान ने ब्राह्मण के लक्षणों का भी विस्तार से वर्णन किया केवल जन्म के आधार पर ब्राह्मण होना यथेष्ठ अथवा पर्याप्त नहीं है। श्रीमद्भगवद्गीता ब्राह्मणत्व के नौ लक्ष्ण भी अनिवार्य बताती है। ये लक्षण हैं। 

शम : मन से सदैव संयम 
दम : इन्द्रियों का दमन 
तप : धर्म पालन हेतु कष्ट सहने की प्रवृत्ति। सुख सुविधा को प्राथमिकता न देने की प्रवृत्ति। 
शौचः  अन्तर - बाह्य शुचिता। अन्दर एवं बाहर की पवित्रता। 
क्षान्ति  : दूसरे  के अपराधों को क्षमा करने की वृत्ति 
आर्जवम् : सरल स्वभाव, कपट रहित षड़यन्त्र विहीन आचरण - पूर्व प्रधान मन्त्री श्री लाल बहादुर शास्त्री इसके उत्कृष्टतम ज्वलन्त उदाहरण हैं। उनके चरित्र की विशेषता थी आर्जव। 
आस्तिक : धर्म और यज्ञादि में अटूट आस्था 
ज्ञान : ज्ञानी
विज्ञान : विज्ञान बुद्धि 

इस प्रकार के नौ लक्षण जिस ब्राह्मण ने अपने आचरण में धारण कर रखे हैं वही ब्राह्मण कहलाने योग्य है। मात्र जन्म से ब्राह्मण होना पर्याप्त नहीं है। 

ऐसा भी अनुभव किया गया है कि ब्राह्मण को संस्कृत के श्लोक सहजता से कण्ठस्थ हो जाते हैं पर इसका यह अर्थ नहीं है कि अन्यों को इसमें कठिनाई होती है। सभी कण्ठस्थीकरण करने की क्षमता रखते हैं। 

18.43

शौर्यं(न्) तेजो धृतिर्दाक्ष्यं(म्), युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च, क्षात्रं(ङ्) कर्म स्वभावजम्॥18.43॥

शूरवीरता, तेज, धैर्य, प्रजा के संचालन आदि की विशेष चतुरता, युद्ध में कभी पीठ न दिखाना, दान करना और शासन करने का भाव - (ये सबके सब) क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म है

विवेचन- श्रीभगवान क्षत्रिय के मूल गुणों का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि शूरवीरता, तेज, धैर्य, प्रजा का सञ्चालन, युद्ध में पीठ न दिखाना, दान वीर होना और धर्मानुकूल शासन क्षत्रिय के स्वभाव में ही विराजमान रहते हैं। जितना कष्ट एक क्षत्रिय सहन कर सकता है अन्य वर्ण के मनुष्य नहीं कर सकते। 

कर्ण क्षत्रिय था पर सूत पुत्र था अतः गुरु द्रोणाचार्य ने उसे शिक्षा देने से मना कर दिया। परशुराम क्षत्रियों को शिक्षा नहीं देते थे। कर्ण ने परशुराम से झूठ कह दिया कि वह ब्राह्मण है एवं उनके आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने लगा। एक बार की बात है गुरु परशुराम शिष्य कर्ण की जङ्घा पर सर रख कर सो गये। अचानक एक बिच्छू कहीं से आ गया और उसने कर्ण के पाँव पर डंक मार दिया। कर्ण भीषण वेदना से ग्रसित हो गया पर उसने धैर्य का परिचय दे कर अपनी जङ्घा को स्थिर रखा ताकि गुरुदेव की निद्रा में विघ्न न घटे। पर बिच्छू के दंश से निकला रक्त उसकी जङ्घा से होता हुआ उसकी गोद में सोये हुए गुरुदेव के कान को छूने लगा। गुरुदेव रक्त के स्पर्श से उठ बैठे एवं उन्होंने सब कुछ अपनी आँखों से देखा। कर्ण यह सोच रहा था कि गुरुदेव प्रसन्न होंगे पर उसके विपरीत गुरुदेव परशुराम अत्यन्त क्रोधित हो उठे। उन्होंने कर्ण से कहा कि एक ब्राह्मण इतना कष्ट सहन नहीं कर सकता तुमने अवश्य मुझ से विद्या ग्रहण करने हेतु मिथ्या का सहारा लिया है। कर्ण को स्वीकार करना पड़ा कि वह क्षत्रिय है। परशुराम ने क्रोध में उसे श्राप दिया कि उसने उनसे जो भी विद्या ग्रहण की है वह उसे जब नितान्त आवश्यकता होगी उसे विस्मृत हो जायेगी। 

समझने वाली बात यह है कि वर्णाश्रम धर्म के अनुसार ही सभी प्राणियों के आचरण का निर्माण होता है। 

18.44

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं(म्), वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं(ङ्) कर्म, शूद्रस्यापि स्वभावजम्॥18.44॥

खेती करना, गायों की रक्षा करना और व्यापार करना - (ये सबके सब) वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं (तथा) चारों वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है।

विवेचन- कृषि कार्य, गौ पालन एवं व्यवसाय वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं। ऐसा अनुभव हम सभी नित्य जीवन में करते हैं कि गणना, हिसाब - किताब, नोट गिनना इत्यादि कार्य जितनी कर्मठता एवं शीघ्रता से एक वैश्य कर सकता है अन्य नहीं। ये सभी वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं। 

उसी प्रकार परिचर्या शूद्र का स्वाभाविक कर्म है। शूद्र की जैसी सेवा वृति अन्य में नहीं हो सकती।

पहले एक शब्द का प्रचलन था नौकरी अर्थात एक व्यक्ति कार्य करता था नौ व्यक्तियों का संसार चलता था। इस शब्द में परिवर्तन हुआ और शब्द बना चाकरी अर्थात चार व्यक्तियों का भरण पोषण आगे चल कर शब्द हो गया तनख्वाह अर्थात एक तन अर्थात स्वयं का भरण पोषण और अब शब्द है वेतन अर्थात जो बे-तन जो एक व्यक्ति का भी भरण पोषण न कर सके। 

18.45

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः(स्), संसिद्धिं(म्) लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः(स्) सिद्धिं(म्), यथा विन्दति तच्छृणु॥18.45॥

अपने-अपने कर्म में प्रीतिपूर्वक लगा हुआ मनुष्य सम्यक् सिद्धि (परमात्मा)को प्राप्त कर लेता है। अपने कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार सिद्धि को प्राप्त होता है? उस प्रकार को (तू मुझसे) सुन।

18.45 writeup

18.46

यतः(फ्) प्रवृत्तिर्भूतानां(म्), येन सर्वमिदं(न्) ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य, सिद्धिं(म्) विन्दति मानवः॥18.46॥

जिस परमात्मा से सम्पूर्ण प्राणियों की प्रवृत्ति (उत्पत्ति) होती है (और) जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

18.46 writeup

18.47

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः(फ्), परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं(ङ्) कर्म, कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥18.47॥

अच्छी तरह अनुष्ठान किये हुए परधर्म से गुणरहित (भी) अपना धर्म श्रेष्ठ है। (कारण कि) स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ (मनुष्य) पाप को प्राप्त नहीं होता।

18.47 writeup

18.48

सहजं(ङ्) कर्म कौन्तेय, सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण, धूमेनाग्निरिवावृताः॥18.48॥

हे कुन्तीनन्दन ! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म का त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि सम्पूर्ण कर्म धुएँ से अग्नि की तरह (किसी न किसी) दोष से युक्त हैं।

विवेचन- श्रीभगवान कहते हैं कि हे कुन्ति पुत्र! दोषयुक्त दिखने पर भी अपने सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए। अपने स्वाभाविक कर्म में दोष दिखाई पड़ने पर भी उनका त्याग नहीं करना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार धुँए से अग्नि आवृत्त होती है ठीक उसी प्रकार सभी कर्म किसी न किसी दोष से आवृत्त हैं। चार बातों में भगवान आग्रह करते हैं कि जिसका जो स्वाभाविक कर्म है यदि वह उसे करता है तो उसे कोई दोष नहीं लगेगा और उसे भगवत् प्राप्ति भी हो जाएगी साथ ही वह उस कर्म को सबसे अच्छे प्रकार से कर सकता है। भगवत् प्राप्ति के लिए चार बातें भगवान बताते हैं-

1)सत्यनिष्ठा से वर्णाश्रम का पालन करे।
2) अपना कार्य पूजा समझ कर करे तो वह भगवान का कार्य हो जाता है।
3) अपने कर्म को ही श्रेष्ठ माने और यदि उसमें कोई पाप या दोष भी दिखाई तो भी उससे विरत न हो।
4) जैसे धुँए से अग्नि व्याप्त है उसी प्रकार प्रत्येक कर्म दोष युक्त है किन्तु वह त्याज्य नहीं है।

महाभारत में चार कथाएँ आती हैं-

1) तुलाधार वैश्य की कथा
2) पिंगला वैश्या की कथा
3) धर्मा कसाई की कथा
4) जाजानि की कथा

वैश्य ने अपना व्यापार करते हुए, पिंगला वैश्या ने अपना कार्य करते हुए और धर्मा कसाई ने जीवन भर माँस काटते हुए माँस का व्यापार करते हुए भगवत प्राप्ति की। भगवान कहते हैं कि अपने वर्णाश्रम का कार्य कितना भी घृणित दिखता हो उसको करके भी मनुष्य भगवत प्राप्ति कर सकता है।

एक बार व्हाट्सएप पर बड़ा ही सुन्दर वीडियो आया था जिसमें एक छोटा बच्चा समुद्र तट पर ज्वार के समय तट पर आई हुई जेली मछलियों को मरने से बचाने के लिए अपने नन्हे हाथों से लगातार तीन - चार घण्टे तक समुद्र में वापस फेंकता रहा। दूर खड़े एक व्यक्ति ने उसके पास आकर पूछा कि यह तुम क्या कर रहे हो? यह इतना बड़ा सागर तट है कितनी ही मछलियाँ हर पल आकर मर रही हैं। तुम्हारे इस कार्य से क्या लाभ हो जाएगा? तब उस नन्हें बालक ने एक मछली उठाकर कहा कि इसको फर्क पड़ता है। मैं सम्पूर्ण जगत को नहीं बदल सकता। सब कुछ ठीक नहीं कर सकता किन्तु मेरे अधिकार क्षेत्र में जो कुछ है और जो कुछ मैं कर सकता हूँ उसके लिए मैं प्रयासरत हूँ। अतः जितनी मछलियाँ मैं बचा पाऊँ बचा रहा हूँ।

ठीक उसी प्रकार हमें भी अपना कर्म करते रहना चाहिए। बिना यह सोचे कि हमारे कर्म से संसार बदल जाएगा किन्तु कुछ अच्छे बदलाव तो हो पाएंगे। अंग्रेजी में कहा जाता है- Charity begins at home, अर्थात परोपकार अपने घर से ही प्रारम्भ करना चाहिए। हम अपने घर आए हुए अखबार बेचने वाले, कोरियर वाले को पानी पिलाकर सेवा कर देनी चाहिए। घर में काम करने वाली बाई का ध्यान रखना अनजान लोगों को कम्बल - मिठाइयाँ बाँटने से अधिक श्रेयस्कर है।

लोगों ने काम और धर्म को अलग-अलग समझ लिया है। जब हमारा कर्म ही इतना अच्छा हो जाता है तो वही धर्म बन जाता है। गीता जी हमें वर्णाश्रम का आग्रह नहीं करती है किंतु गीता जी का उद्देश्य मानव कल्याण है। हम अपनी सूक्ष्म बुध्दि के द्वारा वाद विवाद में पड़ जाते हैं किन्तु गीताजी तो संवाद हैं। अतः अपने स्वाभाविक कर्म को ही पूजा मानकर करना चाहिए उसी से भगवत् प्राप्ति हो जाएगी।

18.49

असक्तबुद्धिः(स्) सर्वत्र, जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं(म्) परमां(म्), सन्न्यासेनाधिगच्छति॥18.49॥

जिसकी बुद्धि सब जगह आसक्तिरहित है, जिसने शरीर को वश में कर रखा है, जो स्पृहारहित है (वह मनुष्य) सांख्ययोग के द्वारा सर्वश्रेष्ठ नैष्कर्म्य-सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।

18.49 writeup

18.50

सिद्धिं(म्) प्राप्तो यथा ब्रह्म, तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय, निष्ठा ज्ञानस्य या परा॥18.50॥

हे कौन्तेय ! सिद्धि (अन्तःकरण की शुद्धि) को प्राप्त हुआ साधक ब्रह्म को, जो कि ज्ञान की परा निष्ठा है, जिस प्रकार से प्राप्त होता है, उस प्रकार को (तुम) मुझसे संक्षेप में ही समझो।

विवेचन:- श्रीभगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! जो सर्वत्र आसक्ति रहित बुद्धि है, स्पृहा रहित है, जो साँख्ययोग के द्वारा नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त होता है तथा जो ज्ञानयोग के माध्यम से परमसिद्धि को प्राप्त होता है इस प्रकार के मनुष्य के सम्बन्ध में तुम मुझसे सुनो।

भगवान यहाँ एक नई बात कर रहे हैं- नैष्कर्म्य सिद्धि की। चौथे और पाँचवें अध्याय में भी नैष्कर्म्य कर्म की बात की गई है और अगर हम इसका साधारण अर्थ देखें तो कर्म न करना होता है। किन्तु यह सही नहीं है। तीन बातें होती हैं- निष्कर्मता, निष्कामता और निर्लिप्तता। इसी प्रकार कर्म को भी- कर्म, अकर्म और विकर्म तीन प्रकार का बताया गया है। अकर्म अर्थात् कामना रहित कर्म। यह कामना रहित कर्म ही नैष्कर्म्य कर्म है। नैष्कर्म्य कर्म से ही नैष्कर्म्य सिद्धि प्राप्त होती है। आगे श्रीभगवान बताते हैं कि किस प्रकार ज्ञान योग से भगवत् प्राप्ति होती है।

18.51

बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो, धृत्यात्मानं(न्) नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा, रागद्वेषौ व्युदस्य च॥18.51॥

(जो) विशुद्ध (सात्त्विकी) बुद्धि से युक्त, वैराग्य के आश्रित, एकान्त का सेवन करने वाला (और) नियमित भोजन करने वाला (साधक) धैर्यपूर्वक इन्द्रियों का नियमन करके, शरीर, वाणी, मन को वश में करके, शब्दादि विषयों का त्याग करके और राग-द्वेष को छोड़कर निरन्तर ध्यानयोग के परायण हो जाता है, (वह) अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह से रहित होकर (एवं) ममता रहित तथा शान्त होकर ब्रह्मप्राप्ति का पात्र हो जाता है। (18.51-18.53)

18.51 writeup

18.52

विविक्तसेवी लघ्वाशी, यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं(म्), वैराग्यं(म्) समुपाश्रितः॥18.52॥

18.52 writeup

18.53

अहङ्कारं(म्) बलं(न्) दर्पं(ङ्), कामं(ङ्) क्रोधं(म्) परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः(श्) शान्तो, ब्रह्मभूयाय कल्पते॥18.53॥

विवेचन:- श्रीभगवान कहते हैं कि विशुद्ध बुद्धि से युक्त, वैराग्य के आश्रित, एकान्त में रहने वाला, नियमित सात्त्विक भोजन करने वाला, अपनी समस्त इन्द्रियों पर नियन्त्रण करने वाला, शरीर, वाणी, मन को वश में करके, शब्दादि विषयों का त्याग करके तथा अहङ्कार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह से रहित होकर जो निरन्तर ध्यान योग में अवस्थित रहता है, वह मनुष्य सच्चिदानन्द भगवान में स्थिर रूप से स्थापित होने का पात्र हो जाता है।

इन श्लोकों में तीन मुख्य शब्द आए हैं- आसक्त बुद्धि, स्पृहा रहित, जितात्मा। पूर्व के श्लोकों में भूत, पदार्थ और प्राणी को समझाया गया है। भगवान ने तीन मुख्य स्थितियाँ बताई हैं-

1) भूतकाल में जो घटित हुआ उससे हम सङ्ग रहें।
2) वर्तमान में उसकी स्मृति न रहे।
3) इंद्रियों पर पूर्ण नियन्त्र्ण हो जाए।

प्रथम लक्षण बुद्धि आसक्ति रहित हो जाए। बुद्धि किसी भी विषय में आसक्त न हो।

दूसरा लक्षण स्पृहा रहित। यह अत्यन्त दुष्कर है। जिस प्रकार पूजा घर में कपूर का उपयोग करते हैं। कभी-कभी कपूर को चाँदी की डिबिया में रखा जाता है। यदि तीन - चार चाँदी की डिबियाँ हैं और उनमें से किसी एक में कपूर रखा गया है और फिर वह कपूर उसमें से निकाल कर उपयोग कर लिया गया और डिबिया खाली रखी गई है तो भी कई महीनों तक उसे खोलने पर कपूर की गन्ध आती रहती है।

एक उदाहरण और है- जिस प्रकार बचपन में रूहअफजा की बोतल खाली हो जाने पर उसमें धोकर पानी भर लेते थे फिर भी तीन - चार महीने तक सैकड़ों बार उसमें पानी भरे जाने पर भी उसके पानी में रूह अफजा की खुशबू आती ही रहती थी। यह भी इस प्रकार है अर्थात् चिपक जाना। कोई स्वाद हमने बीस वर्ष की आयु में लिया या कोई घटना बीस वर्ष की आयु में घटित हुई और हमको अच्छी लगी तो वह हमारे मन मस्तिष्क में आज भी चिपकी हुई है। उसे दूर करना स्पृहा रहित होना है।

तीसरा लक्षण जितात्मा का अर्थ है अपनी मन और बुद्धि पर पूर्ण नियन्त्रण होना। इन तीनों में महारथ होने पर नैष्कर्म्य सिद्धि प्राप्त होती है।

जिसके आगे आठों सिद्धियाँ प्रकट हो जाएं- अणिमा , महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, इशित्व और वशित्व। इन आठों सिद्धियों से श्रेष्ठ नैष्कर्म्य सिद्धि है। यह सहज ही प्राप्त नहीं होती है। यह विचार कर प्रयास पूर्वक कार्य करने से ही प्राप्त होती है।

यह फल साधन तें नहिं होई।
तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई।।

यह सन्त महात्माओं के आशीर्वाद से प्राप्त होती है। विशुद्ध बुद्धि वाला मनुष्य पाँच बातों का ध्यान रखता है कि जो मैं कर्म कर रहा हूँ, क्या वह धर्म युक्त है, शास्त्र युक्त है, मेरे लिए और दूसरों के लिए श्रेयस्कर है? क्या मुझे उसकी आवश्यकता है? क्या मेरे द्वारा किया गया कर्म मुझे अपने लक्ष्य की ओर ले जा रहा है अथवा नहीं लक्ष्य अर्थात भगवत् प्राप्ति। इस प्रकार जो मनुष्य नित्य प्रति यह विचार कर अपने कर्म करता है वह नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त करता है।

लघ्वाशी का सामान्य अर्थ अल्पाहारी होता है किन्तु शास्त्रों में इसका अर्थ दिया गया है कि अपने जीवनोपयोगी सभी वस्तुओं को सूक्ष्म से सूक्ष्मतर करना। सेठ जी तीन वस्तुएँ खाते थे और तीन ही पहनते थे। पाँचों विषयों का भोग करते हुए भी किसी में भी आसक्ति नहीं रखता है। एकान्त जीवी (अन्जुमन में खिलवत, खिलवत में अन्जुमन), जिसकी इच्छा शक्ति दृढ़ है, जो सोच लिया वो करता है।

पार्वती जी के प्रसङ्ग में हमने देखा कि सप्तर्षि आ गए मनाने। फिर भी पार्वती जी ने कहा कि चाहे करोड़ों जन्म लग जाएँ शिवजी मिलेंगे तो ही ब्याह करुँगी अन्यथा कुँवारी ही रहूँगी। जिसका मन, वचन और कर्म पर पूर्ण नियन्त्रण होता है।

महावीर स्वामी का एक सुन्दर उदाहरण है। महावीर स्वामी सहज तपस्या करते थे। आँखें भी खुली रहती थीं। एक बार जङ्गल मे एक पेड़ के नीचे खड़े होकर वह भगवान का ध्यान कर रहे थे। एक गड़रिया वहाँ से गुजरा। उसने महावीर स्वामी से कहा आप मेरी गायों का ध्यान रखिएगा मैं दूसरी ओर देख कर आता हूँ किन्तु महावीर स्वामी ने उसे कोई उत्तर नहीं दिया। तब गड़रिए ने और ऊँची आवाज में कहा तब भी स्वामी जी ने कोई उत्तर नहीं दिया। गड़रिए ने क्रोधित होकर पास में पड़ी एक सींखची महावीर स्वामी के कान में घुसा दी जिससे उनके कान से रक्त बहने लगा तब भी वह ध्यान अवस्था से बाहर नहीं आए। इस पर गड़रिए ने क्रोधित होकर उन्हें मारने के लिए बड़ा पत्थर उठा लिया। तभी इन्द्रदेव वहाँ प्रकट हुए और गड़रिए का हाथ पकड़ कर उसे रोक दिया। इन्द्रदेव बोले ये तुम क्या कर रहे हो? यह बहुत बड़े योगी महात्मा हैं। इन्द्रदेव को देखकर गड़रिया थरथर काँपने लगा। उसके मुँह से  शब्द नहीं निकल रहे थे। महावीर स्वामी ने दोनों की ओर निरपेक्षित भाव से देखा और गड़रिए को वहाँ से जाने के लिए कहा। गड़रिया तुरन्त वहाँ से भाग गया। इन्द्र देव ने महावीर स्वामी से कहा आप अकेले वन में तपस्या करते हैं। मैं आपके लिए कोई देव दूत रक्षा के लिए भेज देता हूँ। इस पर महावीर स्वामी  ने कोई उत्तर न देते हुए इन्द्र देव को भी जाने के लिए कहा। इस प्रकार उनके मन में न इन्द्र देव के लिए कोई राग था और ना ही गड़रिए के लिए कोई द्वेष। जिसकी ऐसी अवस्था नित्य ही रहती है। महावीर स्वामी को लोगों से बात करने के लिए ध्यान से बाहर आना पड़ता था। वो सदैव ध्यान की अवस्था में रहते थे।

जिस प्रकार पुराने जेवर पर मैल चढ़ जाता है और उसे सुनार के पास ले जाने पर वह मैल को जला कर शुद्ध सोने का वजन बताता है। शुद्ध सोने को ही अन्य सोने के साथ मिलाकर नए आभूषण बनाए जा सकते हैं। ठीक उसी प्रकार योगी के जब सम्पूर्ण विकार नष्ट हो जाते हैं तो वह परमात्मा से एकाकार होने की पात्रता अर्जित कर लेता है।

18.54

ब्रह्मभूतः(फ्) प्रसन्नात्मा, न शोचति न काङ्क्षति।
समः(स्) सर्वेषु भूतेषु, मद्भक्तिं(म्) लभते पराम्॥18.54॥

(वह) ब्रह्मरूप बना हुआ प्रसन्न मन वाला साधक न तो (किसी के लिये) शोक करता है (और) न किसी की इच्छा करता है। (ऐसा) सम्पूर्ण प्राणियों में समभाव वाला साधक मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है।

विवेचन- श्रीभगवान कहते हैं कि जो एक चित्त होकर ब्रह्म में लीन रहता है, न किसी के लिए शोक करता है और न किसी से कोई आकाङ्क्षा रखता है। सदैव सम भाव से रहता है उसका योग क्षेम जाग्रत हो जाता है। न उसे योग के लिए शोक करना पड़ता है और न ही क्षेम की उसको आकाङ्क्षा रहती है। ऐसा आकाङ्क्षा रहित योगी सदैव प्रसन्न रहता है। जिस प्रकार जहाँ प्रकाश होता है वहाँ अन्धकार का सर्वथा अभाव रहता है। इस प्रकार का मनुष्य मेरी पराभक्ति को प्राप्त कर लेता है।

18.55

भक्त्या मामभिजानाति, यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां (न्) तत्त्वतो ज्ञात्वा, विशते तदनन्तरम्॥18.55॥

(उस) पराभक्ति से मुझे, (मैं) जितना हूँ और जो हूँ (इसको) तत्त्व से जान लेता है फिर मुझे तत्त्व से जानकर तत्काल मुझमें प्रविष्ट हो जाता है।

विवेचन:- श्रीभगवान कहते हैं कि पराभक्ति से वह मुझे जैसा मैं हूँ वैसा का वैसा ही तत्त्वतः जान लेता है और तत्काल मुझमें प्रविष्ट हो जाता है। साँख्य योग से कर्म योग, कर्म योग से भक्ति योग जाग्रत हो जाता है और फिर भक्ति योग से साँख्य कर्म योग जाग्रत हो जाता है। मार्ग कोई भी हो वह मुझे प्राप्त कर लेता है।

18.56

सर्वकर्माण्यपि सदा, कुर्वाणो मद् व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति, शाश्वतं (म्) पदमव्ययम्॥18.56॥

मेरा आश्रय लेने वाला भक्त सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी कृपा से शाश्वत अविनाशी पद को प्राप्त हो जाता है।

विवेचन:- श्रीभगवान कहते हैं कि मेरे परायण हुआ कर्म योगी मुझे प्राप्त होता है। हे अर्जुन! यह अपने आप नहीं मिलता है। यह उसी को प्राप्त होता है जिस पर मेरी कृपा होती है। कर्म फलों के दग्ध होने पर भगवत् कृपा होती है। जब हम मन्दिर जाते हैं तो प्रसाद लेकर आते हैं या भगवान की दी हुई प्रसन्नता। प्रसाद मिठाई नहीं होता है, यह प्रसन्नता है जो भगवान ने हमें दी है।

नए और प्रौढ़ योगी में अन्तर यही होता है कि नया योगी सोचता है मुझे ये अच्छा लगता है जबकि प्रौढ़ योगी सोचता है कि मैं जो कर रहा हूँ क्या यह भगवान को अच्छा लगेगा। एक सन्त से किसी ने पूछा कि भगवान को प्राप्त करने का सही मार्ग क्या है? सन्त ने बहुत ही सुन्दर उत्तर दिया कि जिस कार्य से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं, वही भगवान की प्राप्ति का सही साधन है।

18.57

चेतसा सर्वकर्माणि, मयि सन्न्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य, मच्चित्तः(स्) सततं(म्) भव॥18.57॥

चित्त से सम्पूर्ण कर्म मुझमें अर्पण करके, मेरे परायण होकर (तथा) समता का आश्रय लेकर निरन्तर मुझमें चित्त वाला हो जा।

विवेचन:- श्रीभगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! तू सभी कर्मों को मन से मुझे अर्पित कर बुद्धियोग से अवलम्बित होकर मेरे परायण होकर मुझमे स्थित हो जा। यहाँ भगवान ने ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग तीनों को मिला कर एक कर दिया है।

एक बार चार मित्रों ने निश्चय किया कि वे जुहू चौपाटी पर मिलेंगे। कई वर्षों से वह मिले नहीं थे। न्यूयॉर्क वाला मित्र हवाई जहाज से पहुँचा। चेन्नई वाला मेट्रो ट्रेन से पहुँचा। पूना वाला मित्र अपनी गाड़ी चला कर पहुँचा और मुम्बई वाला मित्र ऑटो से जुहू तक पहुँचा। वहाँ पहुँचने तक वह अलग-अलग साधन से आए किन्तु जुहू बीच पर जाने के लिए जो रास्ता पैदल तय करना था वह एक ही था। ठीक इसी प्रकार भगवत् प्राप्ति के लिए ज्ञानयोग, कर्मयोग अथवा भक्ति योग किसी भी मार्ग से आए अन्त में तीनों का मार्ग एक ही हो जाता है। इस पर अर्जुन ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी तो भगवान ने थोड़े कड़े शब्दों में आगे के श्लोकों में कहा।

18.58

मच्चित्तः(स्) सर्वदुर्गाणि, मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्, न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥18.58॥

मुझमें चित्तवाला होकर (तू) मेरी कृपा से सम्पूर्ण विघ्नों को तर जायगा और यदि तू अहंकार के कारण (मेरी बात) नहीं सुनेगा (तो) तेरा पतन हो जायगा।

18.58 writeup

18.59

यदहङ्कारमाश्रित्य, न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते, प्रकृतिस्त्वां (न्) नियोक्ष्यति॥18.59॥

अहंकार का आश्रय लेकर (तू) जो ऐसा मान रहा (है) कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तेरा यह निश्चय मिथ्या (झूठा) है; (क्योंकि) (तेरी) क्षात्र-प्रकृति तुझे युद्ध में लगा देगी।

18.59 writeup

18.60

स्वभावजेन कौन्तेय, निबद्धः(स्) स्वेन कर्मणा।
कर्तुं(न्) नेच्छसियन्मोहात्, करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥18.60॥

हे कुन्तीनन्दन ! अपने स्वभाव-जन्य कर्म से बँधा हुआ (तू) मोह के कारण जिस युद्ध को नहीं करना चाहता, उसको (तू) (क्षात्र-प्रकृति के) परवश होकर करेगा।

विवेचन:- श्रीभगवान ने कहा हे अर्जुन! मुझ में चित्त लगाकर तू सहज ही भवसागर को पार कर जाएगा किन्तु यदि तू अहङ्कार के वशीभूत होकर मेरी बात नहीं सुनेगा तो तेरा पतन हो जाएगा। तू अहङ्कार का आश्रय लेकर जो यह निर्णय कर रहा है कि तू युद्ध नहीं करेगा, यह सब मिथ्या है। तू तेरी प्रकृति के वशीभूत होकर युद्ध में लग जाएगा।

यदि तू जङ्गल में जाकर तपस्या करेगा और वहाँ एक शेर गाय को खाने आ जाएगा। तेरे पास धनुष बाण नहीं भी होंगे तो भी तू पास रखी लकड़ी से उस शेर को मार देगा क्योंकि यह तेरा स्वभाव है। तू अपने स्वभाव को नहीं बदल सकता है। मोह बन्धन के कारण तू युद्ध से मना कर रहा है किन्तु तुझे अपने स्वभाव के कारण युद्ध करना ही पड़ेगा।

18.61

ईश्वरः(स्) सर्वभूतानां(म्), हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि, यन्त्रारूढानि मायया॥18.61॥

हे अर्जुन ! ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में रहता है (और) अपनी माया से शरीररूपी यन्त्र पर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को (उनके स्वभाव के अनुसार) भ्रमण कराता रहता है।

विवेचन:- श्रीभगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! मैं सभी प्राणियों के ह्रदय में निवास करता हुआ उनको उनके कर्म फल के अनुसार स्वभाव प्रदान करता हुआ यन्त्र के समान चलायमान करता हूँ।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने सुन्दर चौपाई लिखी है-

उमा दारु जोषित की नाईं।
सबहि नचावत रामगोसाईं॥

अर्थात् ईश्वर सबको कठपुतली की तरह नचाते हैं। भगवान कहते हैं कि कर्म करते समय तो वह तुम्हारे अधिकार में होते हैं किन्तु उसके फल तुम्हारे अधिकार से बाहर हैं।

“गुणकर्म विभागशः”

तुम्हें अपने कर्मों के विधान के अनुसार ही योनि प्राप्त होगी।

18.62

तमेव शरणं(ङ्) गच्छ, सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां(म्) शान्तिं(म्), स्थानं(म्) प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥18.62॥

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! (तू) सर्वभाव से उस ईश्वर की ही शरण में चला जा। उसकी कृपा से (तू) परमशान्ति (संसार से सर्वथा उपरति) को और अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जायगा।

विवेचन:- श्रीभगवान कहते हैं कि हे भारत! तू सब प्रकार से भगवान की शरण में जा। इस प्रकार से तू शान्ति को प्राप्त करता हुआ उस शाश्वत परमात्मा को प्राप्त कर लेगा।

18.63

इति ते ज्ञानमाख्यातं(ङ्), गुह्याद्गुह्यतरं(म्) मया।
विमृश्यैतदशेषेण, यथेच्छसि तथा कुरु॥18.63॥

यह गुह्य से भी गुह्यतर (शरणागति रूप) ज्ञान मैंने तुझे कह दिया। (अब तू) इस पर अच्छी तरह से विचार करके जैसा चाहता है, वैसा कर।

विवेचन:- श्रीभगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! इस प्रकार मैंने गूढ़ से भी गूढ़तम ज्ञान तुझे बता दिया है अब तुम्हारी जो इच्छा हो वो तुम करो। इस बात को सुनकर अर्जुन को लगा कि कहीं भगवान उसे छोड़कर नहीं चले जाएँ। इस समय अर्जुन के मनोभावों को एक भजन के माध्यम से समझते हैं- भजन लिंक -

https://drive.google.com/file/d/1Ww7Zo678C_epVeH66naMp_EsjYMrO2jg/view?usp=drivesdk

भगवान मेरी नैया उस पार लगा देना।

अर्जुन के चेहरे से भगवान भाँप गए कि अर्जुन ऐसा नहीं चाहते हैं कि मैं उसे उसके हाल पर छोड़ दूँ। ऐसा जानकर भगवान ने अति कृपालु होकर आगे के श्लोक कहे।

18.64

सर्वगुह्यतमं(म्) भूयः(श्), शृणु मे परमं(म्) वचः।
इष्टोऽसि मे दृढमिति, ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥18.64॥

सबसे अत्यन्त गोपनीय सर्वेत्कृष्ट वचन (तू) फिर मुझसे सुन। तू मेरा अत्यन्त प्रिय है, इसलिये यह (विशेष) हित की बात (मैं) तुझे कहूँगा।

18.64 writeup

18.65

मन्मना भव मद्भक्तो, मद्याजी मां(न्) नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं(न्) ते, प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥18.65॥

(तू) मेरा भक्त हो जा, मुझमें मनवाला (हो जा), मेरा पूजन करने वाला (हो जा और) मुझे नमस्कार कर। (ऐसा करने से तू) मुझे ही प्राप्त हो जायगा - (यह मैं) तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; (क्योंकि तू) मेरा अत्यन्त प्रिय है।

18.65 writeup

18.66

सर्वधर्मान्परित्यज्य, मामेकं(म्) शरणं(म्) व्रज।
अहं(न्) त्वा सर्वपापेभ्यो, मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥18.66॥

सम्पूर्ण धर्मों का आश्रय छोड़कर (तू) केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।

विवेचन:- श्रीभगवान कहते हैं कि अत्यन्त गोपनीय से भी गोपनीय मेरे वचन मैं तुम्हें सुना चुका हूँ किन्तु तुम मुझे अतिप्रिय हो इसलिए यह मैं तुम्हें फिर से सुनाता हूँ, पुनः सुनो। हे अर्जुन! तू मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला बन, मुझे नमस्कार कर। मेरे इन वचनों को तुम सत्य जानो और ऐसा करके तुम मुझे प्राप्त कर लोगे, यह मैं प्रतिज्ञा पूर्वक कहता हूँ। यह गारण्टी भगवान ने अर्जुन के माध्यम से हम सबको दे दी है। भगवान कहते हैं कि तू सर्व धर्मों का त्याग कर मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सभी पाप दोषों से मुक्त कर मोक्ष को प्रदान कर दूँगा।

यहाँ एक प्रश्न उठता है कि भगवान किस धर्म का त्याग करने को कह रहे हैं? भगवान ने सदैव धर्म की रक्षा की बात कही है। किन्तु जब साधक, योगी या भक्त चरम अवस्था में पहुँच जाते हैं तो उन्हें अपने समस्त कर्त्तव्य कर्म, धर्म आदि का भी त्याग करना पड़ता है तभी वो परम पद की प्राप्ति कर सकते हैं।

ठाकुर राम कृष्ण परमहँस काली माँ के अनन्य भक्त थे। अन्तिम अवस्था में काली माँ ने स्वयं प्रकट होकर उन्हें तलवार देकर कहा कि मेरे टुकड़े कर दो। परमहँस जी बोले माँ मैंने जीवन भर आपकी भक्ति की है यह मुझसे नहीं होगा। माँ काली अपने उस मूर्त रूप का भी त्याग करवाना चाहती थीं। यह अत्यन्त गूढ़ बात है और भगवान में एकाकार होने से ठीक पूर्व की बात है। जब अन्य किसी साधन की आवश्यकता नहीं रहती है। जिस प्रकार चार मित्रों को मिलने के लिए अपने हवाई जहाज, ट्रैन, कार और ऑटो को छोड़ना ही पड़ेगा ठीक उसी प्रकार अन्तिम गन्तव्य तक पहुँचने पर लक्ष्य प्राप्ति के लिए अपने-अपने साधनों को छोड़ना ही पड़ेगा तभी तुम मुझे प्राप्त कर पाओगे और मैं तुम्हें भवसागर से पार करा दूँगा।

18.67

इदं(न्) ते नातपस्काय, नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं(न्), न च मां(म्) योऽभ्यसूयति॥18.67॥

यह सर्वगुह्यतम वचन तुझे अतपस्वी को नहीं कहना चाहिए; अभक्त को कभी नहीं कहना चाहिए तथा जो सुनना नहीं चाहता (उसको) नहीं कहना चाहिए और जो मुझमें दोषदृष्टि करता है, उसको भी नहीं कहना चाहिए।

विवेचन- अब भगवान के स्वयं के मन में यह बात आई कि अपनी बात कहते-कहते मैंने अर्जुन को कितनी सुन्दर बात बोल दी। ऐसा पहले तो कभी भी नहीं हुआ था। आगे के तीन श्लोकों में भगवान अपनी कही हुई गीता की महिमा सुनाते हैं। उनके मुख से जो बात निकली वो पता नहीं अर्जुन के प्रेम के कारण निकली अथवा हम भक्तों के कल्याण के लिये निकली पर वो बात निकल गई।

यहाँ भगवान प्रसन्न मन से उस गीता ज्ञान की धन्यता कहते हैं जो उन्होंने अर्जुन को कहा।

भगवान कहते हैं, हे अर्जुन! धन्य है यह गीता जिसने तेरे अन्दर के मोह को नष्ट कर दिया। तब अर्जुन ने कहा, ऐसी बात है तो यह ज्ञान सबको सुना दीजिए।

भगवान कहते हैं इन चार लोगों को यह ज्ञान नहीं सुनाया जा सकता और न ही सुनाना चाहिए-

1) जो तप रहित है।
2) जो भक्ति रहित है।
3) जो मुझमें दोष देखता है और
4) जिसकी सुनने की इच्छा नहीं है।

ऐसे चार लोगों को गीताजी कभी नहीं सुनाना चाहिये। मैं भी यह दोबारा नहीं सुनाना चाहता और चाहूँ तो भी दोबारा नहीं सुना सकता।

अर्जुन को लगा फिर तो यह ज्ञान यहीं रह जायेगा, परन्तु भगवान ने कहा कि मैं यह कार्य अपने भक्तों पर छोड़ता हूँ। वे मेरे इस सन्देश को आगे प्रसारित करेंगे।

अर्जुन ने पूछा कि, क्या भक्तों को गीता का प्रसार करने की आज्ञा है? तो भगवान कहते हैं-

18.68

य इमं(म्) परमं(ङ्) गुह्यं(म्), मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं(म्) मयि परां(ङ्) कृत्वा, मामेवैष्यत्यसंशयः॥18.68॥

मुझमें पराभक्ति करके जो इस परम गोपनीय संवाद (गीताग्रन्थ) को मेरे भक्तों में कहेगा, (वह) मुझे ही प्राप्त होगा - इसमें कोई सन्देह नहीं है।

विवेचन- भगवान ने कहा, मुझमें प्रेम रखकर गीताजी का प्रचार करने वाले भक्तों को मेरी प्राप्ति होगी, यह निश्चित है।

अर्जुन ने कहा, इन दो बातों से ही आपकी प्राप्ति हो जायेगी? तो भगवान कहते हैं, 'निःसन्देह होगी'। यही नहीं उन्हें इसके साथ ही दो चीजें और भी प्राप्त होगी।

यह सुनकर अर्जुन अत्यन्त विस्मित होकर पूछते हैं कि आपकी प्राप्ति होने के बाद अब और क्या शेष बचेगा? तो भगवान कहते हैं सुनो-

18.69

न च तस्मान्मनुष्येषु, कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्माद्, अन्यः(फ्) प्रियतरो भुवि॥18.69॥

उसके समान मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है और इस भूमण्डल पर उसके समान मेरा दूसरा कोई प्रियतर होगा भी नहीं।

विवेचन- भगवान कहते हैं, अर्जुन! उसे मेरी प्राप्ति तो होगी ही साथ ही उसके समान मेरा प्रिय कार्य करनेवाला कोई दूसरा नहीं होगा।

साथ ही, 'प्रियतरो भुवि' अर्थात उससे बढ़कर मेरा कोई प्रिय होगा भी नहीं।

अर्जुन ने पूछा; प्रियता किससे? किससे ज्यादा प्रिय होगा आपको? आपके भक्तों से? तब भगवान कहते हैं, नहीं अर्जुन! पूरी पृथ्वी पर जितने भी कर्मयोगी, ध्यानयोगी, तपयोगी, ज्ञानयोगी हैं, जितने भी साधक हैं, किसी भी पन्थ को, विचारधारा को, सम्प्रदाय को और साधना पद्धति को मानने वाले हों, जो गीता का प्रचार करेगा वह इन सबसे बढ़कर होगा। मुझे उससे प्रिय भविष्य में भी कोई नहीं होगा।

भगवान ने हम सबको यह कितना सुनहरा अवसर दिया है। भगवान ने स्वयं जिस बात की सुनिश्चित घोषणा कर दी है परन्तु फिर भी हम अगर गीताजी के प्रचार में नहीं लगे तो यह हमारा दुर्भाग्य है। हमारा इसे सुनना भी व्यर्थ ही है।

18.70

अध्येष्यते च य इमं (न्), धर्म्यं (म्) संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहम्, इष्टः (स्) स्यामिति मे मतिः॥18.70॥

जो मनुष्य हम दोनों के इस धर्ममय संवाद का अध्ययन करेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा - ऐसा मेरा मत है।

विवेचन- भगवान ने गीताजी के पठन मात्र को ज्ञानयज्ञ के द्वारा अपना पूजन बताया है।

भगवान कहते हैं, तुम्हें चाहे कुछ समझ नहीं आता हो परन्तु नियमपूर्वक और श्रद्धा से मेरा भाव रखकर, भक्ति भाव से जो इस गीता का पाठ भी करेगा, वह ज्ञानयज्ञ के द्वारा मेरी पूजा करेगा। मैं इस सिद्धान्त को प्रतिपादित करता हूँ।
 
आगे भगवान कहते हैं, केवल यह ही नहीं होगा-

18.71

श्रद्धावाननसूयश्च, शृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः(श्)शुभाँल्लोकान्, प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्॥18.71॥

श्रद्धावान् और दोषदृष्टि से रहित जो मनुष्य इस (गीता-ग्रन्थ) को सुन भी लेगा, वह भी शरीर छूटने पर पुण्यकारियों के शुभ लोकों को प्राप्त हो जायगा।

विवेचन- भगवान कहते हैं, जो मनुष्य श्रद्धावान रहकर और दोषदृष्टि रहित होकर गीताजी का श्रवण भी करेगा, वह पापों से मुक्त हो जायेगा और श्रेष्ठ लोक को प्राप्त होगा।

यह हमारा सौभाग्य है कि हम सब भी इस श्रेणी में आते हैं।

अब अर्जुन पूछते हैं कि गीताजी को केवल सुनने वालों के द्वारा भी आप ज्ञानयज्ञ से पूजित हो जाओगे? भगवान कहते हैं, हाँ! जिसको जो चाहिये उसे वह मिलेगा। जिसे मुक्ति चाहिए उसे मुक्ति मिलेगी, जिसे स्वर्ग चाहिये उसे स्वर्ग मिलेगा, जिसे मेरा परमधाम चाहिए उसे वह भी मिलेगा, जिसे जो लोक चाहिए वह मिलेगा चाहे वह विष्णु लोक हो अथवा गोलोक। मैं उसे सब कुछ दूँगा पर वह मनुष्य दोष दृष्टिरहित होना चाहिए।

अब भगवान ने अर्जुन से अन्तिम प्रश्न किया? भगवान कहते हैं, अर्जुन तुम्हारे हाव-भाव से मुझे यह तो स्पष्ट हो गया है कि तुम्हारा मोह नष्ट हो गया है, तुम विषाद की अवस्था से बाहर आ गये हो और एकदम शान्त हो गये हो, परन्तु मैं यह तुम्हारे मुख से सुनना चाहता हूँ जिससे बाद में जो गीता पढ़े उनके मन में तुम्हारे बारे में कोई संशय न हो।

18.72

कच्चिदेतच्छुतं(म्) पार्थ, त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः(फ्), प्रनष्टस्ते धनञ्जय॥18.72॥

हे पृथानन्दन ! क्या तुमने एकाग्र-चित्त से इसको सुना? (और) हे धनञ्जय! क्या तुम्हारा अज्ञान से उत्पन्न मोह नष्ट हुआ ?

विवेचन- भगवान ने अर्जुन से पूछा, कि क्या इस गीता ज्ञान के श्रवण से तुम्हारा मोहरूपी अज्ञान नष्ट हो गया है?

18.73

अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः(स्) स्मृतिर्लब्धा, त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः(ख्), करिष्ये वचनं(न्) तव॥18.73॥

अर्जुन बोले - हे अच्युत ! आपकी कृपा से (मेरा) मोह नष्ट हो गया है (और) मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है। (मैं) सन्देह रहित होकर स्थित हूँ। (अब मैं) आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।

विवेचन- बहत्तरवाँ श्लोक भगवान‌ के मुख से निकला अन्तिम श्लोक है। तिहत्तरवें श्लोक में अर्जुन ने भगवान के प्रश्न का उत्तर दिया और इस श्लोक में भगवान और अर्जुन का वार्तालाप समाप्त होता है। इसके बाद पाँच श्लोक सञ्जय ने कहे।

अर्जुन ने कहा, मुझे स्मृति आ गयी है कि मैं क्या हूँ। अज्ञान का अन्धकार नष्ट हो गया है और वास्तविकता से मेरा साक्षात्कार हो गया है। प्रमाण, विषण्ण, विकल्प, निद्रा और स्मृति, अज्ञान की इन पाँच स्थितियों से मैं बाहर आ गया हूँ।

मानस में भगवान ने शबरी को कहा है-

मम दर्शन फल परम अनूपा।
जीव पाये निज सहज सरूपा।।

मेरे दर्शन का फल है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। अर्जुन भी अपने सहज स्वरूप में आ गये थे।

यहाँ भगवान ने कहा, 'इति', और अपनी बात समाप्त की। इसके बाद चौहत्तरवें श्लोक से लेकर अट्ठहत्तरवें श्लोक तक सञ्जय ने अपनी बात कही है। उन्होंने इन पाॅंच श्लोकों में जो भी कहा वह अद्भुत है। वे कितने महान हैं, महापुरुष हैं, वो इन पाॅंच श्लोकों से ज्ञात होता है।

18.74

सञ्जय उवाच
इत्यहं(म्) वासुदेवस्य, पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषम्, अद्भुतं(म्) रोमहर्षणम्॥18.74॥

सञ्जय बोले - इस प्रकार मैंने भगवान् वासुदेव और महात्मा पृथानन्दन अर्जुन का यह रोमाञ्चित करने वाला अद्भुत संवाद सुना।

विवेचन- यह एक विशिष्ट बात है कि यहाँ सञ्जय ने भगवान को तो केवल वासुदेव कहा है परन्तु अर्जुन को महात्मा पार्थ कहा है।

सञ्जय जन्म से शूद्र हैं, कर्म से क्षत्रिय हैं और ज्ञान से ब्राह्मण हैं। भगवान वेदव्यास ने इनको ब्राह्मण होने का आशीर्वाद दिया था। धृतराष्ट्र ने इनको बुद्धिमान देखकर अपना मित्र और मन्त्री बनाया।

दसवें दिन जब भीष्म पितामह शर शैय्या पर आ गये तब सञ्जय वापस आये और उन्होंने गीता का वचन कहा। अगर सञ्जय ने यह वचन नहीं कहा होता तो हमें यह ज्ञान उपलब्ध होना कठिन था।

जैसे शबरी को भगवान के दर्शन होते ही गुरु कृपा का अनुभव हुआ वैसे ही सञ्जय को भी उन क्षणों में अपने गुरु की कृपा का अनुभव हुआ। अगर भगवान वेदव्यास ने उन्हें दिव्य दृष्टि प्रदान नहीं की होती तो कैसे वे भगवान के वचन सुनते और कैसे उनके विश्वरूप के दर्शन कर पाते। भगवान ने जो कुछ अर्जुन को सुनाया, अपना जो रूप दिखाया, वह सञ्जय ने भी गुरु कृपा से साक्षात अनुभव कर लिया।

श्रेष्ठ व्यक्ति की यही पहचान है कि जिसकी कृपा से वह कुछ प्राप्त करता है, उसका बखान अवश्य करता है। जिसने उस पर उपकार किया उसका वह सदैव उपकृत रहता है, कभी उसे भूलता नहीं है।

यही बात सञ्जय यहाँ कहते हैं-

18.75

व्यासप्रसादाच्छ्रुतवान्, एतद् गुह्यमहं(म्) परम्।
योगं(म्) योगेश्वरात्कृष्णात्, साक्षात्कथयतः(स्) स्वयम्॥75॥

व्यासजी की कृपा से मैंने स्वयं इस परम गोपनीय योग (गीता-ग्रन्थ) को कहते हुए साक्षात् योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण से सुना है।

विवेचन- सञ्जय कहते हैं, मैं कदापि इस योग्य नहीं था परन्तु गुरु कृपा से मुझे योगेश्वर भगवान के दर्शन भी हो गये और उनके मुख से मैं इस परम गोपनीय ज्ञान को सुन भी पाया।

अब सञ्जय अपनी धन्यता का अनुभव करते हुए कहते हैं।

18.76

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य, संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयोः(फ्) पुण्यं(म्), हृष्यामि च मुहुर्मुहुः॥18.76॥

हे राजन् ! भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस पवित्र और अद्भुत संवाद को याद कर-करके (मैं) बार-बार हर्षित हो रहा हूँ।

विवेचन- सञ्जय कहते हैं कि है राजन! मैं बार-बार याद कर रहा हूँ कि भगवान ने कैसे अर्जुन को देखा, कैसे अपना विश्व रूप दिखाया, कैसे उन्हें कभी डाँटा और कभी समझाया, कैसे उन्हें दुलार किया।

मैं जितनी भी बार यह याद करता हूँ, मेरे अन्दर से रोमाञ्च की लहरें उठने लगती हैं। मैं शब्दों में बखान नहीं कर सकता कि मैं कितना प्रसन्न हूँ, मैं क्या अनुभव कर रहा हूँ।

18.77

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य, रूपमत्यद्भुतं(म्) हरेः।
विस्मयो मे महान् राजन्, हृष्यामि च पुनः(फ्) पुनः॥18.77॥

जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं (और) जहाँ गाण्डीव धनुषधारी अर्जुन हैं, वहाँ ही श्री, विजय, विभूति (और) अचल नीति है - (ऐसा) मेरा मत है।

विवेचन- है राजन! मैं बार-बार श्री हरि के उस विलक्षण रूप को याद करके हर्षित हो रहा हूँ और मुझे यह विस्मय भी होता है कि मैंने अपने गुरु की ऐसी क्या सेवा की है जो उन्होंने मुझ पर ऐसी कृपा पर दी जो किसी के भी लिये दुर्लभ है।

सञ्जय आज उस कृपा का अनुभव कर रहे हैं जो संसार में दुर्लभतम है। किसी शिष्य पर किसी भी गुरु ने आज तक ऐसी कृपा नहीं की होगी। भगवान वेदव्यास ने सञ्जय को वो सौभाग्य दे दिया जिससे सञ्जय ने वो दर्शन कर लिये जो देवताओं को भी दुर्लभ हैं।

अब इन सारी बातों को याद करके सञ्जय धृतराष्ट्र को चेतावनी देते हैं और उन्हें सावधान करते हुए कहते हैं, कि हे धृतराष्ट्र! तुम पापी और मूर्ख हो जो अभी भी अपने पुत्रों के जीतने की कामना करते हो।

18.78

यत्र योगेश्वरः(ख्) कृष्णो, यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूति:(र्), ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥18.78॥

विवेचन- परम पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि अन्तिम श्लोक का पाठ सदैव तीन बार करना चाहिए।

सञ्जय विचार करते हैं कि हे धृतराष्ट्र! तुम कितने मूर्ख हो, तुमने यह सोचा भी कैसे कि तुम्हारे पुत्र विजय प्राप्त कर सकते हैं। जहाँ स्वयं योगेश्वर भगवान कृष्ण खड़े हैं और जहाँ गाण्डीव धारण किये हुए अर्जुन हैं वहीं पर श्री है, वहीं विजय, विभूतियाँ और अचल नीति है।

भगवद्गीता का आरम्भ 'धर्' से होता है और ''म' से पूर्ण होता है। दोनों को मिलाकर धर्म बनता है। भगवद्गीता धर्ममय है।

अगर अर्जुन गाय न बनते तो भगवान ग्वाले न बनते। भगवान ने अर्जुन‌ को बछड़ा बनाकर गीता रूपी इस दुग्ध का पान करवाया और उन्हें निमित्त बनाकर गीता रूपी यह दुग्ध अमृत हमें प्रदान कर दिया। हम धन्य हो गये। हम उन सन्तों महापुरुषों और आचार्यों के कृतज्ञ हैं जिन्होंने गीता ज्ञान को हमारे लिये इतना सुलभ कर दिया। हम कृतज्ञ हैं सेठजी जयदयाल गोयन्दका जैसे महापुरुषों और गीता प्रेस जैसी संस्था के, स्वामी जी जैसे महापुरुषों के जिन्होंने इस गीता ज्ञान के प्रति हमारी रुचि को जागृत किया और हमें इस पथ पर अग्रसर‌ होने के लिए प्रेरित किया इसलिये हम गीता परिवार के इस लर्न गीता कार्यक्रम से जुड़ पाये। उन महापुरुषों के जिन्होंने अनेकों कष्ट उठाकर इस महान ग्रन्थ को सुरक्षित रखा और हजारों वर्षों की परम्परा के रूप में हम तक पहुँचाया।

अन्तिम प्रणाम भगवान वेदव्यासजी को, जिन्होंने इस गीता ज्ञान को अट्ठारह अध्यायों में बाँटा, अट्ठारह नाम दिये और हर अध्याय के अन्त में पुष्पिका दी और पुष्पिका में ऐसा सूत्र दे दिया कि हमारा कोई दोष रह जाये तो भी हमारी बात पूर्ण हो जाये।

गीता शास्त्र इहलोक और परलोक दोनों का उद्धार करने‌ वाला है। इस लोक में भी विजय दिलाता है और आगे के सभी जन्मों को भी सफल कर देता है। हम सब एक ही कामना में प्रवृत्त हों कि भगवान की कृपा से हमारी यह गीता भक्ति सदैव के लिये निष्ठ हो जाये और हमारा यह शेष जीवन और आने वाले सभी जीवन गीतामय होकर हमें भगवान तक पहुँचा दे। भगवान ने हमें जो जिम्मेदारी दी‌ है उससे हम कभी छूटें नहीं और इस ज्ञान में प्रवृत्त होकर हमेशा भगवान के इस गीता शास्त्र में लगे रहें। समझ नहीं भी आये तो भी, 'पढ़ते रहें- पढ़ाते रहें, सुनते रहें और सुनाते रहें'। जो सेवा बन पड़े वह भी करते रहें।

किसी काल में तो भगवान हमें मिल ही जायेंगे, क्योंकि उन्होंने स्वयं ही कहा है-

मामेवैष्यसि युक्तैवमात्मानं मत्परायणः।

इसमें तो कोई संशय है ही नहीं। हम चाहे कितने ही पापी अथवा कुपात्र हों परन्तु भगवान ने हमारे उद्धार की प्रतिज्ञा ली है तो वे तो हमारा उद्धार करेंगे ही। हम सब यही सङ्कल्प करें कि गीताजी को कभी नहीं छोड़ेंगे और भगवान हमारी भावन ऐसी बनायें कि हम सभी गीता के मार्ग पर निष्ठ होकर उनकी प्रसन्नता के लिये अपना जीवन जीयें।

हरि शरणम्, हरि शरणम्, हरि शरणम्।

ऊँ श्रीकृष्णार्पणमस्तु।

हरि नाम सङ्कीर्तन के साथ विवेचन सत्र समाप्त हुआ और प्रश्न उत्तर सत्र आरम्भ हुआ।

प्रश्नकर्ताः शिवानी दीदी

प्रश्नः  
महिलाएँ अनेक कार्य एकसाथ कर सकती हैं जिसे हम कहते हैं (Multi tasking) उनके दिमाग में अनेक विचार चलते रहते हैं। वही स्थिति साधना के समय होती है और मन स्थिर नहीं रहता, तो क्या करें?

उत्तरः मन का स्वभाव ही ऐसा है। सबका मन भटकता है परन्तु भगवान ने कहा है कि अभ्यास और वैराग्य से इस पर नियन्त्रण सम्भव है। अपने प्रिय साधन में ध्यान लगाने पर मन कम भटकता है।

प्रश्नः जब दशरथ जी का देहान्त हुआ तो‌ वे भगवान राम को ही याद कर रहे थे। वैसे ही अजामिल के तो पुत्र का नाम‌ ही नारायण था तो उन्हें क्या मिला?

उत्तरः दशरथ जी भगवान को पुत्र रूप में याद कर रहे थे तो उन्हें वे उसी रूप में प्राप्त हुए और अजामिल को भी नारायण का धाम स्वर्ग मिला मोक्ष नहीं।

प्रश्नकर्ताः सुषमा दीदी

प्रश्नः आपके माध्यम से स्वामी जी तक यह निवेदन पहुँचे और वे आशीर्वाद दें कि हमारी बुद्धि ऐसी हो जाये जो सदैव गीताजी में लगी रहे?

उत्तरः वह निवेदन‌ तो हो‌ जायेगा पर यह मेरा निवेदन है कि गीता में अट्ठारह अध्याय हैं, कुरुक्षेत्र का युद्ध भी अट्ठारह दिन तक चला तो हम भी अट्ठारह बार ही इसका पठन करें। इतनी सरलता से हमें यह अवसर मिल रहा है तो यह नित्य स्वाध्याय जारी रहे और सेवा‌ भी करें।

प्रश्नकर्ताः मधु दीदी

प्रश्नः भगवान कर्मफल का त्याग करने को कहते हैं परन्तु मानवीय स्वभाव के कारण यह सम्भव नहीं हो पाता?

उत्तरः यह करना आवश्यक‌ है क्योंकि जब तक ऐसा नहीं करेंगे हम जन्म-मरण के बन्धन से नहीं छूटेंगे और 'पुनरपि जन्मं पुनरपि मरणं' का यह क्रम चलता ही रहेगा।

प्रश्नकर्ताः माधुरी दीदी

प्रश्नः सूतक में किया गया हनुमान चालीसा का पाठ भी क्या भगवान को अर्पण कर सकते हैं?

उत्तरः किसी भी निमित्त से किया गया पाठ राम प्रतिष्ठा एप पर अर्पण कर सकते हैं। सूतक समाप्त होने के बाद कर दें।

प्रश्नकर्ताः जेठा खुराना भैया

प्रश्नः सर्वधर्मान् परित्याज्य का क्या अर्थ है?

उत्तरः जैसे मन्दिर तक जाने का साधन कोई भी हो‌ वहाँ पहुँचकर उसे मन्दिर के बाहर ही छोड़ना पड़ता है वैसे ही भगवान तक पहुँचने के अनेक‌ योग हैं पर अन्त में उनका भी त्याग कर भगवान को ही सब कुछ मानकर सब कुछ सौंपना होगा तो हमारा योगक्षेम वे स्वयं ही सम्भाल लेंगे।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(म्) योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे मोक्षसन्न्यासयोगो नाम अष्टादशोऽध्यायः ॥

इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘मोक्षसन्यासयोग’ नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।