विवेचन सारांश
अर्जुन का श्री भगवान के शिष्य रूप में शरणागत होना

ID: 2852
Hindi - हिन्दी
रविवार, 14 मई 2023
अध्याय 2: सांख्ययोग
1/5 (श्लोक 1-10)
विवेचक: गीता विशारद डॉ आशू जी गोयल


प्रार्थना, दीप प्रज्वलन, श्री कृष्ण जी की स्तुति, तथा भगवान के सुन्दर विग्रह के दर्शन के साथ आज का विवेचन सत्र प्रारम्भ हुआ। भगवान की अतिकृपा से हम लोगों का ऐसा भाग्य जागृत हुआ जो हम लोग गीता जी सीखने में लग गए। पता नहीं हमारे कोई इस जन्म के कर्म है, पूर्व जन्मों के कुछ कर्म हैं, हमारे पूर्वजों के कुछ सद्गुण हैं या फिर इसी जन्म में किसी सन्त महापुरुष की कृपा दृष्टि हम पर पड़ गई है, जिसके कारण हम पर ऐसी कृपा हुई कि हम लोग गीता जी के सानिध्य में, गीता जी को अपने जीवन में लाने के लिए लग गए हैं। आज हम लोग अध्याय दो का विवेचन सुनने जा रहे हैं। यह अध्याय बहुत महत्वपूर्ण है। इस अध्याय का नाम सांख्य योग है। हमारी भारतीय परम्परा में छह शास्त्रों का विधान है। भारतीय धर्म में दो मूल बातें हैं। दर्शन और साधन पद्धति। दर्शन भी छह हैं। यह छह दर्शनशास्त्र हमारी सनातन संस्कृति के मूल हैं। पहला न्याय शास्त्र है जिसके प्रणेता महर्षि गौतम हैं। दूसरा शास्त्र वैशेषिक है उस के प्रणेता महर्षि कणाद हैं। तीसरा योग शास्त्र जिसके प्रतिपादक महर्षि पतंजलि। चौथे शास्त्र के प्रतिपादक हैं महर्षि कपिल। पाँचवें शास्त्र मीमांसा जिसके प्रतिपादक महर्षि जैमिनी और अन्तिम शास्त्र उत्तर मीमांसा के प्रतिपादक महर्षि  बादरायण हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में जितनी भी सही,गलत धारणाएँ प्रचलित हैं, जो भी do's and don'ts हैं, सारे कॉन्सेप्ट्स इन्हीं छह शास्त्रों से प्राप्त होते हैं। रामायण, महाभारत, पुराण, गीता ये सभी सांख्य शास्त्र से माने जाते हैं। यह छह शास्त्र हमारे मानसिक विचारों को चलाने में हमारी सहायता करते हैं।

धर्म का दूसरा मूल साधन पद्धति है। साधन पद्धतियाँ मूल रूप से चार प्रकार की है- ज्ञान, कर्म,योग और भक्ति। गीता के सभी अध्याय योग हैं, जैसे अर्जुनविषादयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग, कर्मसंन्यासयोग, मोक्षसंन्यासयोग, भक्तियोग आदि। महर्षि पतंजलि द्वारा रचित अष्टांग योग, योग का एक भाग है। भगवान ने गीता में जिस योग की बात की है उसका अष्टांग योग से अर्थ बिल्कुल अलग है, गीता में भगवान कहते हैं समता ही पूर्ण योग है। Balancing is the best thing. छठे अध्याय के छियालीसवें में श्लोक में भगवान अर्जुन से कहते हैं- तस्मात् योगी भवार्जुन। यहां हमें यह समझना चाहिए कि भगवान अर्जुन से एक पैर पर खड़े होने को योगी होने को नहीं कह रहे हैं। सभी साधन पद्धतियाँ समत्व की ओर जाने को कहती हैं। पहला साधन ज्ञान मार्ग कहता है- एको ब्रह्म द्वितीयोनास्ति। दूसरा मार्ग भक्ति मार्ग है जो कहता है- मैं भगवान का, सब कुछ भगवान का। तीसरा मार्ग कर्म मार्ग है - यह शरीर संसार का है तथा संसार की सेवा करने के लिए है। चौथा मार्ग ध्यान मार्ग है। महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग से भगवत् प्राप्ति बतलाई है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। अंतिम स्थिति समाधि को कहा गया है। समाधि की संधि विच्छेद करें - (सम+धी) अर्थात बुद्धि की समता। जहाँ बुद्धि निर्विकल्प हो जाए,जहाँ कोई संकल्प विकल्प ना उठे। State of blank. दो का समापन होकर एक हो जाए इसी को योग कहते हैं। किसी भी माध्यम से भगवान से जुड़ जाऊँ उसे ही योग कहते हैं।

जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी हैं मैं नाहीं।
प्रेम गली अति सांकरी,  जामें दो ना समाही।।

भगवान के असंख्य अवतार हैं, एकमात्र श्री कृष्ण अवतार को योगेश्वर कहा गया है, योगेश्वर अर्थात सभी योगों के ईश्वर क्योंकि वह हमेशा समता में रहे। कुछ भी घटित हुआ कृष्ण भगवान कभी भी अधीर होते नहीं दिखाई दिए। महाभारत का युद्ध शुरू होने को था और अर्जुन उनसे कहता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो भी भगवान के चेहरे पर कोई अधीरता नहीं दिखाई देती है वह मुस्कुरा रहे हैं।

सांख्ययोग के प्रतिपादक  महर्षि कपिल मुनि हैं। भागवत के अनुसार भगवान के चौबीस अवतारों में से पाँचवें अवतार कपिल मुनि माने गए हैं। आरम्भ में जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की, सप्त ऋषियों को रचा। सभी ऋषियों ने ब्रह्मा जी से कहा कि हम तपस्या करेंगे हमें गृहस्थ जीवन में नहीं जाना है। ब्रह्मा जी ने कर्दम ऋषि को आदेश दिया कि मेरी आज्ञा से तुम्हें एक पुत्र होने तक ग्रहस्थ जीवन में ही रहना है। मनु और शतरूपा को एक कन्या हुई जिसका नाम था देवहूति। वह कन्या बहुत ही सुन्दर और चरित्रवान थी। वह कन्या युवा हुई तो ब्रह्मा जी ने मनु और शतरूपा को आज्ञा दी कि अपनी पुत्री का विवाह कर्दम ऋषि से करें। कर्दम ऋषि को भी ब्रह्मा जी ने आज्ञा दी कि वह देवहूति से विवाह करें। कर्दम ऋषि ने देवहूति की परीक्षा लेने की अनुमति माँगी। ब्रह्मा जी ने उन्हें अनुमति दे दी। ऋषि ने वहाँ तीन आसन रखे। जब मनु और शतरूपा देवहूति के साथ वहाँ आए तो कर्दम ऋषि ने उन्हें आसन ग्रहण करने को कहा, मनु और शतरूपा आसन पर बैठ गए। देवहूति ने देखा कि कर्दम ऋषि बिना आसन के पेड़ के नीचे बैठे हुए हैं, तो उसने सोचा कि मैं आसन पर कैसे बैठ सकती हूं, यदि मैं आसन पर बैठती हूं तो उनकी अवहेलना होगी किंतु उन्होंने कहा है कि आसन ग्रहण करो यदि आसन पर नहीं बैठूंगी तो भी उनकी आज्ञा की अवहेलना होगी। इस प्रकार विचार करके देवहूति ने अपना एक हाथ उस आसन पर रखा तथा स्वयं भूमि पर बैठ गई। कर्दम ऋषि देवहूति के शीलाचार से बहुत प्रसन्न हो गए। देवहूति ऋषि की परीक्षा में सफल हुई। कर्दम ऋषि ने उनसे कहा कि मैं विवाह करने को तैयार हूं किंतु मेरी शर्त है कि मैं एक पुत्र होने तक ही गृहस्थाश्रम में रहूंगा। ऐसी शर्त सुनकर मनु और शतरूपा ने देवहूति की तरफ देखा, उसने कहा कि जब ब्रह्मा जी की आज्ञा है तो मैं जैसी इनकी शर्त है उसी तरह से विवाह करने को तैयार हूँ। मनु और शतरूपा देवहूति का पाणिग्रहण करवा कर वापस लौट गए। अगले दिन से कर्दम ऋषि अपने रोज की दिनचर्या में वैसे ही लग गए जैसे वह पहले रहते थे, रोज सुबह उठना, धर्म ग्रन्थों को पढ़ना, शास्त्रों को पढ़ना और सो जाना। इस प्रकार कई वर्ष बीत गए। देवहूति उनकी सारी व्यवस्था करती और वह अपने इसी आचरण में लगे रहते। इस सब में इतना समय बीत गया कि देवहूति के कुछ बाल भी सफेद हो गए। एक दिन लिखते समय दिए में तेल समाप्त होने के कारण ऋषि ने और तेल डालने को कहा जब देवहूति ने  दीए में तेल डाला तो दिए कि लो में ऋषि को एक कृषकाय और वृद्ध महिला दिखाई दी। ऋषि ने पूछा कि तुम कौन हो? देवहूति ने उन्हें कहा कि मैं मनु और शतरूपा की बेटी हूँ और आपकी पत्नी हूँ, ब्रह्मा जी की आज्ञा से हमारा विवाह हुआ था। ऋषि ने कहा कि तुम इतने समय से यहाँ पर हो तुमने मुझसे कभी कोई बात क्यों नहीं की? देवहूति ने कहा आपके पास समय ही कहाँ है? आप अपनी दिनचर्या में हमेशा तल्लीन रहते हैं। ऋषि बहुत आश्चर्यचकित तथा प्रसन्न भी हुए। उन्होंने कहा कि मैं तुम्हारी तपस्या से और जो तुमने मेरी सेवा की है उससे बहुत प्रसन्न हूँ। ऋषि ने देवहूति से वरदान माँगने को कहा। ऋषि ने उसे बोला कि जाओ सरोवर में स्नान करके आओ। आश्रम के निकट जो सरोवर था देवहूति वहाँ स्नान करके आई, जैसे ही स्नान करके बाहर निकली तो जिस प्रकार पहले  नवयुवा थी वैसी ही हो गई। अपने शरीर को वापस पहले जैसा पाकर वह बहुत प्रसन्न हो गई उसने आकर ऋषि को प्रणाम किया। ऋषि ने फिर पूछा बताओ तुम्हें क्या चाहिए? देवहूति सोचने लगी कि क्या माँगू, उसके मन की इच्छा जानकर ऋषि ने जैसे कि इशारा किया वहाँ स्वर्ण का एक महल दास दासियों के साथ प्रकट हो गया। देवहूति ने कहा मैं इसका क्या करूँगी आप तो इसमें चलकर रहेंगे नहीं मुझे तो आपके साथ समय व्यतीत करना है। आप मुझे पत्नी रूप में स्वीकार करें ऐसी मेरी इच्छा है। कर्दम ऋषि ने कहा मुझे स्वीकार है। ऋषि ने जहाँ संकेत  किया वहाँ सुन्दर महल, विमान सब आ गए। भागवत में हमें इस अध्याय की टेक्नोलॉजी का वर्णन मिलता है। ऋषि ने विमान से देवहूति को नौ साल में नौ ग्रहों की यात्रा करवाई। इस यात्रा में कर्दम ऋषि तथा देवहूति को नौ कन्याएं हुई। कला, अरुन्धति, अनुसूया, श्रद्धा, गति, क्रिया, ख्याति, शान्ति, तथा हविर्भू। नौ वर्ष के बाद जब कर्दम ऋषि वापस उस स्थान पर आए तो उन्होंने देवहूति से कहा कि अब तुम अपनी कन्याओं के साथ आराम से इस महल में निवास करो तो देवहूति ने उन्हें पुत्र की बात याद दिलाई। ऋषि ने कहा समय आने पर स्वयं भगवान नारायण तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। जब पुत्र का जन्म हुआ तो ऋषि ने कहा अब अब शर्त पूरी हो गई अब मुझे जाना होगा। देवहूति ने उनसे कहा कि कुछ समय तो अपने पुत्र का सुख ले लीजिए तो ऋषि ने कहा कि मुझे पुत्र का कोई सुख नहीं चाहिए। देवहूति रोने लगी और कहने लगी मुझे भी साथ लेकर जाइए आप अपना उद्धार कर लेंगे मेरा उद्धार किस प्रकार होगा। कर्दम ऋषि ने कहा यह जो पुत्र जन्मा है वह स्वयं नारायण हैं। यह संसार में एक नए योग को देने के लिए आए हैं। जब यह पुत्र बड़ा होगा तो यह स्वयं तुम्हें उपदेश देगा जिससे तुम्हारा उद्धार होगा। कपिल ऋषि जब बारह वर्ष के हो गए तो उन्होंने देवहूति को सांख्ययोग का उपदेश दिया। यह संसार में सांख्य दर्शन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। हमारे सारे पुराण, सारे ग्रंथ - रामायण, महाभारत, गीता यह सभी सांख्यदर्शन पर ही आधारित हैं। जिस स्थान पर कपिल ऋषि ने देवहूति को उपदेश दिया था उस स्थान को कपिलवस्तु के नाम से जाना जाता है।

इस योग में संख्या होने के कारण इसे सांख्य कहा गया है। मूल में पच्चीस की संख्या ली गई है। सांख्य दर्शन में इस पूरे ब्रह्माण्ड का और परमात्मा का संख्या दृष्टि से विचार किया गया है। एक मूल तत्त्व को सांख्य कहा गया है, यह मूल तत्त्व  की इच्छा एक से दो होने की हुई तो एक तत्त्व पुरुष और दूसरा तत्त्व प्रकृति के रूप में प्रकट हुआ। पुरुष को हम परमात्मा मान लें और प्रकृति को इस स्त्री स्वरूप माना गया है। इन दोनों के योग से पूरे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई। सबसे पहले तत्त्व महत् बुद्धि की उत्पत्ति हुई, महत् बुद्धि से समष्टि अहंकार की उत्पत्ति हुई, समष्टि अहंकार के तीन गुण बने - सत, रज, तम इस प्रकार कुल पच्चीस तत्त्व जो इस प्रकार हैं- पुरुष, प्रकृति, महत्, बुद्धि, समष्टि,अहंकार, मन, पांच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेंद्रियाँ, पाँच तन्मात्राएं, पञ्चमहाभूत। सांख्य योग को एक स्लाइड के माध्यम से चित्रित किया गया है।

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दूसरे अध्याय के आरंभ से पूर्व अर्जुन ने भगवान से रथ को दोनों सेनाओं के बीच खड़ा करने को कहा। यदि भगवान चाहते तो अर्जुन के रथ को दुर्योधन के सामने खड़ा कर सकते थे तो यह गीता कही ही नहीं जाती। भगवान ने मोह ग्रस्त अर्जुन को उत्तम वैद्य की तरह भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने खड़ा किया। जब अर्जुन युद्ध न करने के लिए भगवान को तर्क देने लगे तो भगवान मुस्कुरा रहे थे। 

2.1

सञ्जय उवाच
तं(न्) तथा कृपयाविष्टम्, अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं(व्ँ) वाक्यम्, उवाच मधुसूदनः॥2.1॥

संजय बोले - वैसी कायरता से व्याप्त हुए उन अर्जुन के प्रति, जो कि विषाद कर रहे हैं (और) आँसुओं के कारण जिनके नेत्रों की देखने की शक्ति अवरुद्ध हो रही है, भगवान् मधुसूदन यह (आगे कहे जाने वाले) वचन बोले।

विवेचन: संजय बोले इस प्रकार करुणा से व्याप्त, आंसू से पूर्ण व्याकुल नेत्रों वाले, शोक युक्त अर्जुन को भगवान मधुसुधन ने यह वचन बोले।

2.2

श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं(व्ँ), विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यम्, अकीर्तिकरमर्जुन॥2.2॥

श्रीभगवान् बोले - हे अर्जुन! इस विषम अवसर पर तुम्हें यह कायरता कहाँ से प्राप्त हुई, (जिसका कि) श्रेष्ठ पुरुष सेवन नहीं करते, (जो) स्वर्ग को देने वाली नहीं है और कीर्ति करने वाली भी नहीं है।

विवेचन: श्रीभगवान ने पाँच बातों से अर्जुन को फटकार लगाई। भगवान कहते हैं यह सब करना श्रेष्ठ पुरुषों का आचरण नहीं है इससे न तो तुम्हें यश मिलेगा, यह तो मुँह पर कालिख लगाने की बात है। तुम्हारे जैसे वीर पुरुष द्वारा कायरता की बात करना उचित नहीं है। तुम यह बात बहुत ही असमय कर रहे हो। हे अर्जुन तुम उत्तम पुरुषों के योग्य न करने वाले कार्य कर रहे हो। तुम श्रेष्ठ हो पर आचरण अश्रेष्ठ कर रहे हो, निम्न पुरुषों के जैसे कार्य कर रहे हो। भगवान कहते हैं तुम जो कर रहे हो, उससे ना तो कल्याण मिलेगा, ना उससे स्वर्ग मिलेगा ना ही उससे यश मिलेगा।

2.3

क्लैब्यं(म्) मा स्म गमः(फ्) पार्थ, नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं(म्) हृदयदौर्बल्यं(न्), त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥2.3॥

हे पृथानन्दन अर्जुन ! इस नपुंसकता को मत प्राप्त हो; (क्योंकि) तुम्हारे में यह उचित नहीं है। हे परन्तप ! हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता का त्याग करके (युद्ध के लिये) खड़े हो जाओ।

विवेचन: अब भगवान ने अर्जुन को और भी कठोर बातें कहीं। भगवान कहते हैं हे अर्जुन तुम नपुंसक हो। अर्जुन जिसने हर युद्ध जीता भगवान उससे ऐसे शब्द कह रहे हैं। अर्जुन जिसने सभी देवी देवताओं को परास्त किया है, अकेले पूरी कौरव सेना को परास्त किया है। भगवान कहते हैं अर्जुन तुम नपुंसक मत बनो। यह तुम्हारे लिए ठीक नहीं है। तुम परम तपस्वी हो, तुमने तपस्या करके महादेव को प्रसन्न किया है। हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को त्याग करके युद्ध के लिए खड़े हो जाओ।

2.4

अर्जुन उवाच
कथं(म्) भीष्ममहं(म्) सङ्ख्ये, द्रोणं(ञ्) च मधुसूदन।
इषुभिः(फ्) प्रति योत्स्यामि, पूजार्हावरिसूदन॥2.4॥

अर्जुन बोले - हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में भीष्म और द्रोण के साथ बाणों से युद्ध कैसे करूँ? (क्योंकि) हे अरिसूदन! (ये) दोनों ही पूजा के योग्य हैं।

विवेचन: अर्जुन को लगा कि भगवान उसकी बात को समझ नहीं पाए हैं तो वह दोबारा से अपनी बात उनके समक्ष रखता है और उन्हें दो सम्बोधन देता है। हे मधुसूदन आपने मधु दैत्य का संहार किया है। हे अरिसुदन मैं रणभूमि में भीष्म और द्रोण के साथ बाणों के द्वारा कैसे युद्ध करूँ यह दोनों ही पूजनीय हैं। अर्जुन अपने बचपन के उन पलों को याद कर रहे हैं जब वह खेलते हुए घर लौटते थे और भीष्म पितामह उन्हें देख लेते थे और कहते थे कि मेरे पास आओ, वह अपने श्वेत वस्त्रों का भी ध्यान नहीं देते थे। अर्जुन कहते थे पितामह मेरे वस्त्र मैले हैं आपके श्वेत वस्त्र खराब हो जाएँगे लेकिन उन्हें अपने श्रेष्ठ वस्त्रों का कोई ध्यान नहीं होता था वह अर्जुन को गले से लगा लेते थे। जिन गुरु ने मुझे अपने पुत्र से भी बढ़कर माना, अपने पुत्र से बढ़कर मुझे शिक्षा दी मैं उन्हें कैसे मार सकता हूं? गुरु द्रोण ने मेरे लिए एकलव्य का अंगूठा माँग लिया था। मेरे लिए इन्होंने कर्ण को विद्या देने से इनकार कर दिया। मेरे प्रेम में इन दोनों ने क्या-क्या किया है, इन दोनों पर मैं बाणों से कैसे वार कर सकता हूँ।

2.5

गुरूनहत्वा हि महानुभावान्,श्रेयो भोक्तुं(म्) भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव,
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्॥2.5॥

महानुभाव गुरुजनों को न मारकर इस लोक में (मैं) भिक्षा का अन्न खाना भी श्रेष्ठ (समझता हूँ); क्योंकि गुरुजनों को मारकर यहाँ रक्त से सने हुए (तथा) धन की कामना की मुख्यता वाले भोगों को ही तो भोगूँगा!

विवेचन: इन गुरुजनों को मारने की अपेक्षा मुझे इस लोक में भिक्षा का अन्न खाना श्रेष्ठ लगता है। गुरुजनों को मारकर में इस लोक में रक्त से भरे हुए धन को ही तो भोगूँगा। ऐसा नहीं है कि अर्जुन को भिक्षा माँग कर जीने का अर्थ पता नहीं है, लाक्षागृह की घटना के बाद एक वर्ष तक अर्जुन भिक्षा माँग कर ही जीवन व्यतीत कर रहे थे। 

2.6

न चैतद्विद्मः(ख्) कतरन्नो गरीयो,यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम:(स्),
तेऽवस्थिताः(फ्) प्रमुखे धार्तराष्ट्राः॥2.6॥

(हम) यह भी नहीं जानते (कि) हम लोगों के लिये (युद्ध करना और न करना, इन) दोनों में से कौन-सा अत्यन्त श्रेष्ठ है अथवा (हम उन्हें जीतेंगे) या (वे) हमें जीतेंगे। जिनको मारकर (हम) जीना भी नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्रके सम्बन्धी (हमारे) सामने खड़े हैं।

विवेचन: हम तो यह भी नहीं जानते की युद्ध करना और न करना इन दोनों में से कौनसा श्रेष्ठ है। अगर आपकी आज्ञा के अनुसार युद्ध किया भी जाए तो हम उनको जीतेंगे या वह हमको जीतेंगे इसका भी तो पता नहीं है। उनकी सेना में भी तो भीष्म पितामह, अश्वत्थामा आदि बड़े-बड़े धनुर्धर हैं। जिन को मारकर हम जीना भी नहीं चाहते वे सम्बन्धी हमारे सामने खड़े हैं।

2.7

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः(फ्),पृच्छामि त्वां(न्) धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः(स्) स्यान्निश्चितं(म्) ब्रूहि तन्मे,
शिष्यस्तेऽहं(म्) शाधि मां(न्) त्वां(म्) प्रपन्नम्॥2.7॥

कायरता रूप दोष से तिरस्कृत स्वभाव वाला (और) धर्म के विषय में मोहित अन्तःकरण वाला (मैं) आपसे पूछता हूँ (कि) जो निश्चित कल्याण करने वाली हो, वह (बात) मेरे लिये कहिये। मैं आपका शिष्य हूँ। आपके शरण हुए मुझे शिक्षा दीजिये।

विवेचन: इस श्लोक को गीता का आधारभूत कहा गया है। शास्त्रकारों ने कहा है कि यदि अर्जुन ने यह श्लोक न कहा होता तो संभवत: भगवान ने गीता न कही होती। गीता का यह श्लोक बहुत मङ्गलकारी है यदि किसी दुविधा में फँस जाएँ जहाँ आपको किसी बात का कोई उत्तर ना मिल रहा हो, इस श्लोक को जाप करने से आपको आपका उत्तर अवश्य मिल जाएगा। गीता का मौलिक आरम्भ इसी श्लोक को माना गया है। यहां अर्जुन ने भगवान को ऐसा कारण दिया है कि वह गीता का पाठ बताएँ। अर्जुन के भगवान श्री कृष्ण से कई प्रकार के सम्बन्ध हैं- योद्धा -सारथी का सम्बन्ध,  मित्रता का सम्बन्ध, जीजा-साले का सम्बन्ध लेकिन इन सभी सम्बन्धों को अर्जुन ने नकार कर भगवान से गुरु-शिष्य का सम्बन्ध बनाया। यहाँ अर्जुन ने भगवान को गुरु मानकर उनका शिष्य बनना स्वीकार किया। वह भगवान की शरण में जाकर शरणागत बन गए। अर्जुन कहते हैं कि मैं आपके द्वारा अपने लिए कायरता रूपी दोष को स्वीकार करते हुए यह मानता हूँ कि मेरे मन में कायरता आ गई है। मैं अपनी बुद्धि से इस विषय में कुछ निर्णय नहीं ले पा रहा हूँ। आप मेरे कल्याण की बात कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ। अर्जुन जिस समय युद्ध के लिए वहाँ खड़े थे वह कोई साधारण मनुष्य नहीं थे सर्वश्रेष्ठ विजेता, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर। जितने दिव्यास्त्र अर्जुन ने अपने जीवन में प्राप्त किए थे उतने किसी ने भी कभी प्राप्त नहीं किए। पूरे महाभारत ग्रन्थ में अर्जुन के बारे में कभी भी किसी अनाचार की बात, ऊँची आवाज में किसी बड़े से बात करने की कोई बात नहीं आती है। अर्जुन के समक्ष उर्वशी जैसी अप्सरा खड़ी थी उन्होनें बोला कि मैं तुम्हें श्राप दे दूंगी, अर्जुन ने कहा कि मुझे आप का श्राप मंजूर है लेकिन मैं आपको माता की दृष्टि से ही देख सकता हूँ। महाभारत का युद्ध हुआ तब अर्जुन की आयु उस समय लगभग तिरासी (83) साल की थी तथा भगवान श्री कृष्ण की सतासी (87) वर्ष  के लगभग थी।

2.8

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्,यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं(म्),
राज्यं(म्) सुराणामपि चाधिपत्यम्॥2.8॥

कारण कि पृथ्वी पर धन-धान्य समृद्ध (और) शत्रुरहित राज्य तथा (स्वर्ग में) देवताओं का आधिपत्य मिल जाय तो भी इन्द्रियों को सुखाने वाला मेरा जो शोक है, (वह) दूर हो जाय (ऐसा मैं) नहीं देखता हूँ।

विवेचन: अर्जुन आगे कहते हैं यदि मुझे धन-धान्य से संपन्न निष्कंटक राज्य मिल जाए, जिसमें किसी चीज की कमी ना हो, राज्य में मेरा कोई बैरी ना हो तो भी मेरा शोक दूर नहीं हो सकता। इस पृथ्वी के तुच्छ राज्य की तो बात ही क्या इन्द्र का दिव्य राज्य में मिल जाए तो भी मेरा शोक दूर नहीं हो सकता। महाभारत का युद्ध जीतने से अर्जुन को देवताओं का राज्य नहीं मिलना था लेकिन अर्जुन ने यह बात इसलिए कही है क्योंकि उसने इसका अनुभव किया हुआ था। जब अर्जुन इन्द्र के दरबार में पहुँचे तो देवताओं ने अर्जुन का स्वागत किया। इन्द्र के दरबार में जब अर्जुन पहुँचे तो सारे देवता उठकर खड़े हो गए, अर्जुन अपने लिए बैठने का आसन देखने लगे कि मैं कहाँ बैठूँ? इन्द्र ने अर्जुन से कहा तुम सीधे चले आओ। इन्द्र ने अर्जुन को अपने साथ अपने सिंहासन पर, इन्द्रासन पर बिठाया।

2.9

सञ्जय उवाच एवमुक्त्वा हृषीकेशं(ङ्), गुडाकेशः(फ्) परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दम्, उक्त्वा तूष्णीं(म्) बभूव ह॥2.9॥

संजय बोले - हे शत्रु तापन धृतराष्ट्र! ऐसा कहकर निद्रा को जीतने वाले अर्जुन अन्तर्यामी भगवान् गोविन्द से 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' ऐसा साफ-साफ कहकर चुप हो गये।

2.9 writeup

2.10

तमुवाच हृषीकेशः(फ्), प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये, विषीदन्तमिदं(व्ँ) वचः॥2.10॥

हे भरतवंशोद्भव धृतराष्ट्र! दोनों सेनाओं के मध्य भाग में विषाद करते हुए उस अर्जुन के प्रति हँसते हुए से भगवान् हृषीकेश यह (आगे कहे जाने वाले) वचन बोले।

विवेचन: सञ्जय बोले  हे शत्रुता को पालने वाले धृतराष्ट्र ऐसा कहकर निद्रा को जीतने वाले अर्जुन, अन्तर्यामी भगवान गोविन्द से साफ-साफ कह कर चुप हो गए कि मैं युद्ध नहीं करूँगा। हे भारतवंशी धृतराष्ट्र उन दोनों सेनाओं के मध्य  में विषाद करते हुए उन अर्जुन के प्रति भगवान ने हँसते हुए यह वचन बोले।

हरि शरणम् के सुन्दर जाप के साथ इस सारगर्भित विवेचन का समापन हुआ।

उसके बाद प्रश्नोत्तर लिए गए।

विचार मंथन(प्रश्नोत्तरी):-

प्रश्नकर्ता: प्रज्ञा जी 

प्रश्न  : कैकयी को गलत क्यों माना जाता है? 

उत्तर: कैकयी को गलत नहीं माना जाता जब भगवान श्रीराम अयोध्या वापस पहुँचे तो सभी माताओं में सबसे पहले कैकयी के ही पाँव छुए।

प्रश्नकर्ता: बालकृष्ण जी 

प्रश्न : सातवें श्लोक का अर्थ बताइए।

उत्तर: अर्जुन कहते हैं मेरा स्वभाव कायरता दोष वाला हो गया है। मेरी बुद्धि धर्म के विषय में मोहित हो गई है। मैं आपसे जो मेरे लिए निश्चित कल्याण वाली बात है वह पूछता हूँ। मैं आपका शिष्य हूँ मुझे अपनी शरण में लीजिए।