विवेचन सारांश
आत्म संयम का सोपान

ID: 3016
Hindi - हिन्दी
रविवार, 04 जून 2023
अध्याय 6: आत्मसंयमयोग
3/4 (श्लोक 20-31)
विवेचक: गीता विदूषी सौ वंदना जी वर्णेकर


परम्परागत प्रार्थना, दीप प्रज्वलन, देशभक्ति गीत और गुरु वन्दना के साथ आज के सत्र का आरम्भ हुआ।

छठवाँ अध्याय आत्मसंयम योग कहलाता है। गुरुदेव कहते हैं कि इस अध्याय से कुछ न कुछ जाने बिना या ग्रहण किए बिना भगवद्गीता को समझ पाना सम्भव ही नहीं है। आत्मसंयम योगियों का परम लक्ष्य है। श्रीमद्भगवद्गीता शाश्वत ज्ञान का भण्डार है। इसमें योग के चार प्रकार बताए गए हैं : ज्ञान योग, भक्तियोग, कर्म योग और राज योग।

ज्ञान योग : आत्म स्वरूप की अनुभूति।

कर्म योग : अपने आपको यंत्र मानकर भगवान को यंत्री मानना। कर्म प्रारम्भ करने से पहले यह भावना होती है कि कर्म भगवान के लिए किया जा रहा है, किन्तु अन्त में भगवान ने कर्म करवाया है इसकी अनुभूति होती है।

भक्तियोग : ज्ञानोत्तर भक्ति, भगवान को समग्रता से मानते हुए निष्काम प्रेम का अखण्ड प्रवाह उन्हीं की ओर बहता है।

राज योग: इस अध्याय में राज योग का ही चिन्तन हो रहा है। यह अन्तरङ्ग योग है जिसमें धारणा, ध्यान और समाधि सम्मिलित है। हठ योग, यम, नियम, प्राणायाम, प्रत्याहार और आसन ये सब बहिरङ्ग योग हैं जो हर कोई कर सकता हैl परन्तु जीवन को संयमित करने के लिए धारणा, ध्यान और समाधि अर्थात् राजयोग आवश्यक है।

शिकागो के अपने प्रसिद्ध भाषण में स्वामी विवेकानन्द जी ने बहुत ही सुन्दर विवेचन करते हुए कहा कि जीवन को संयमित किए बिना उस आत्म स्वरूप की ओर एकाग्र नहीं हो सकते, यही परमात्म तत्त्व की प्राप्ति का लक्ष्य है।

जीवन को नियन्त्रित करते हुए आगे बढ़ना, ध्येय प्राप्ति के लिए आवश्यक है। परीक्षा में सफल होने के लिए विद्यार्थी को अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए। आजकल तो सोशल मीडिया की बाढ़ सी आ गई है जिसमें विद्यार्थी आसानी से बह जाता है, जो समय का अपव्यय है। अपने मन पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है जिससे समय का सदुपयोग हो।

ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो दर्शाते हैं कि एकाग्रचित्त्त होकर ही लक्ष्य प्राप्त हो सकता है। संगीत साम्राज्ञी लता मंगेशकर जी ने अपने आपको संगीत के लिए समर्पित किया थाl अपने गले को सुरीला बनाए रखने के लिए उन्होंने न कभी कोई ठण्डी वस्तु खाई और न ही कभी पान खाया। इन सबका परिणाम था उनकी मधुर आवाज।

इसी अध्याय के सोलहवें, सत्रहवें और अट्ठारहवें श्लोक में भगवान अर्जुन को बताते हैं कि राज योग उन लोगों के लिए नहीं है जिनकी इंद्रियाँ अनियन्त्रित हैं। किसी भी तरह की अधिकता या कमी जीवन के लक्ष्य तक नहीं पहुँचाते। हमें तार उतने ही खींचने चाहिए जिससे संगीत मधुर हो।

Don't work restlessly and don't rest worklessly.

जीवन को किस प्रकार परिमित रखा जाए ताकि गन्तव्य, परमात्म तत्त्व की प्राप्ति तक पहुँचा जा सके। जीवन को साधने की सुन्दर कला भगवान हमें सिखाते हैं जिससे अपने स्वयं की पहचान हो सके।

दीपक की लौ बहती वायु में अत्यन्त चंचल होती है, लेकिन वायु रहित क्षेत्र में वही लौ शान्त, निष्कम्प हो जाती है। यही अवस्था चित्त की होती है, आकर्षणों के रहते वह एकाग्र नहीं हो सकताl श्रीमद्भगवद्गीता समरांगण में कही गई है जहाँ चित्त का विचलित होना निश्चित है और अर्जुन विचलित भी थे। अतः श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्म संयम का मार्ग बता रहे हैं।

सन्त तुकाराम जी ने युद्ध भूमि का वर्णन करते हुए कहा 

  रात्रंदिन हा युद्धाचा प्रसङ्ग, अन्तर्बाह्य जग आणी भय।

यह अध्याय आत्म संयम की ओर बढ़ने का प्रथम सोपान है।


6.20

यत्रोपरमते चित्तं(न्), निरुद्धं(म्) योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं(म्), पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥20॥

योग का सेवन करने से जिस अवस्था में निरुद्ध चित्त उपराम हो जाता है तथा जिस अवस्था में (स्वयं) अपने आप से अपने आपको देखता हुआ अपने आप में ही सन्तुष्ट हो जाता है।

विवेचन: योग का नित्य अभ्यास आवश्यक है। यह कभी भी, कहीं भी, एकांत में भी किया जा सकता है। यह चित्त को नियन्त्रित करने में सहायता करता है।

चित्त की पाँच अवस्थाएँ बताई गई हैं-

1. मूढ़

2. क्षिप्त

3. विक्षिप्त

4. एकाग्र 

5. निरुद्ध

इस अवस्था में चित्त उपराम होगा तथा आत्म स्वरूप की पहचान होगी। भौतिक देह से ही हमारी पहचान होती है, जैसे हमारा नाम, काम आदि। इस देह को चलाने वाला हमारा चैतन्यमय आत्मस्वरूप देही है। बिजली के अनेक उपकरण हैं - जैसे पंखा, रेडियो आदि। ये अपने आप नहींं चलते, इन्हें बिजली (ऊर्जा) की आवश्यकता होती है। जिनके मन में इस देही को जानने की छटपटाहट होती है वे योग का निरन्तर अभ्यास करते हैं जिससे उनका चित्त शान्त रहता है। शान्त चित्त से एकाग्रता बढ़ती है, आत्म तत्त्व से पहचान होती है और एक आनन्द की अनुभूति होती है।

बहुत सारे पत्ते और कीचड़ से भरे तालाब में यदि अंगूठी गिर जाती है तो वह नहीं दिखती जबकि स्विमिंग पूल में वह मिल जाती है क्योंकि स्विमिंग पूल का पानी स्वच्छ है।

श्रीभगवान अर्जुन को उस योगी के अन्तरङ्ग का दर्शन कराते हैं जिसे योगाभ्यास के द्वारा आत्मतत्त्व की पहचान हुई है और परम सुख की अनुभूति हुई है, ताकि अर्जुन को भी स्वयं को जानने की इच्छा हो और वे प्रेरित हों l इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है - जैसे वस्त्रों का व्यापारी अपना सामान बिकवाने के उद्देश्य से ग्राहक को एक बार वस्त्र देखने को कहता है l यदि वस्त्र पसंद आते हैं तो उन्हें पाने की लालसा बढ़ती है और इसके लिए प्रयत्न किया जाता है।

जब योगाभ्यास का परिणाम दिखता है तो साधारण व्यक्ति भी प्रेरित होते हैं।

अगले श्लोक में भगवान वैषयिक सुख और आत्यन्तिक सुख में अन्तर बताते हैं।

6.21

सुखमात्यन्तिकं(म्) यत्तद्, बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं(म्), स्थितश्चलति तत्त्वतः॥21॥

जो सुख आत्यन्तिक, अतीन्द्रिय (और) बुद्धिग्राह्य है, उस सुखका जिस अवस्था में अनुभव करता है और (जिस सुख में) स्थित हुआ यह ध्यानयोगी तत्त्व से फिर (कभी) विचलित नहीं होता।

विवेचन: सुख सभी चाहते हैं, परन्तु व्याख्या सबकी अलग-अलग होती हैl यह वैषयिक सुख है जो स्थाई नहीं होता, इसकी अनुभूति इन्द्रियों से होती हैl देश, काल, और स्थल के अनुसार इसकी व्याख्या बदलती रहती हैl सुख को इस प्रकार भी समझा जा सकता है :

सु - अच्छा, 
ख - इंद्रियाँ 

अर्थात् जो हमारी इंद्रियों को अच्छा लगे, अनुकूल लगे वह सुख है। अनुकूल वेदनियं सुखं। गर्मियों मेंं ए सी, कूलर सुखकर होते हैं और स्वेटर, रजाई दुःखकर। वहीं ठण्ड में स्वेटर और रजाई सुखकर लगते हैं। दूसरी ओर जो इंद्रियों के प्रतिकूल है वह दुःख है - प्रतिकूल वेदनियं दुःखं।

पहला पेड़ा बहुत अच्छा लगता है परन्तु जैसे-जैसे हम ज्यादा पेड़े खायेंगे हमें उसका स्वाद कम लगने लगेगाl इसीलिए वैषयिक सुख नित्य नहीं हैं, इनकी अनुभूति सामयिक है।

आत्यन्तिक सुख या बुद्धि का सुख इंद्रिय सुखों से बढ़़कर है, इसे आध्यात्मिक सुख भी कहा जा सकता है। इसके द्वारा सच्चिदानन्द परमात्मा की अनुभूति होती है जो अगोचर है, जिसे शुद्ध बुद्धि से ही ग्रहण किया जा सकता हैl विद्वानगण इसी सुख को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। योगी जब इसे पा लेते हैं तो वे उस अवस्था से विचलित नहीं होते, बाह्य रूप से वे कुछ भी करते दिखें।

 श्रीभगवान कहते हैं कि अर्जुन इस सुख से क्या होगा यह भी जान लो।

6.22

यं(म्) लब्ध्वा चापरं(म्) लाभं(म्), मन्यते नाधिकं(न्) ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन, गुरुणापि विचाल्यते॥22॥

जिस लाभ की प्राप्ति होने पर उससे अधिक कोई दूसरा (लाभ) (उसके) मानने में भी नहीं आता और जिसमें स्थित होने पर (वह) बड़े भारी दुःख से भी विचलित नहीं किया जा सकता।

विवेचन: आत्यन्तिक सुख से ऊपर इस जगत में और कोई सुख नहींं। व्यक्ति संयोग और वियोग इन दोनों अवस्थाओं से मुक्त हो जाता है। उसे अपने चित्त पर नियन्त्रण आ जाता है और अन्त में वह परमात्म तत्त्व से एकाकार हो जाता है।

संयोग सुख देता है जबकि वियोग दुःख। जब एक नेता को मन्त्री पद मिलता है तो वह खुशी से नाच उठता है परन्तु जब वही नेता भूतपूर्व हो जाता है तो दुःखी हो जाता है।

संयोग और वियोग साथ साथ चलते हैं, हम जो प्राप्त करते हैं वह सब छूट जाता है।

इन दोनों अवस्थाओं से जिसने अपने आपको मुक्त कर लिया ऊपर परमात्मतत्त्व से निरन्तर एकाकार हो गया है, उसकी एकाग्रता कभी भंग नहींं होती, दुःख में वह विचलित नहीं होता। उन पर दुःख का प्रभाव तो होता है, पर वह विचलित नहीं होता।

सन्त तुकाराम पर अचानक दुःखों का पहाड़ टूट पड़ता है, उनके पुत्र का देहांत हो जाता है और उनकी सारी संपत्ति लुट जाती है लेकिन वे विचलित नहीं होते और कहते हैं कि

बरे झाले देवा निघाले दिवाळे। बरी या दुष्काळे पीड़ा केली।।
अनुतापे तुझे राहिले चिन्तन। झाला हा वमन संवसार।।

दुःखों में भी परमात्मा का योग होता है (अर्जुनविषादयोग) जो हमें दुःख सहने की शक्ति देता है।

गुरुदेव के अनुसार योग sorrow proof है, उनके नित्य अभ्यास से दुःखों का प्रभाव नहीं होता, जैसे कि water proof जैकेट से हम भीगते नहीं हैं।

गुरुदेव ज्ञानेश्वरी और तुकाराम की अभङ्गवाणी को आधुनिक वेद कहते हैं।

अत्यन्त गरीबी में भी सन्त तुकाराम ने शिवाजी महाराज की भेंट को अस्वीकार किया था, क्योंकि स्वीकार करने पर देने वाले के प्रति आसक्ति बढ़़ती और न देने वाले से द्वेष होताl मन विचलित हो जाता और आत्म तत्त्व से अनुसन्धान नहीं हो पाता। सन्त महात्मा संसार पर निर्भर नहीं होते हैं।

लोकमान्य बाल गङ्गाधर तिलक भी भौतिक सुखों से परे थे l तिलक समाचार पत्र केसरी लिखते थे, उनके एकलौते बेटे की प्लेग से मृत्यु हो जाती है, परन्तु वे अवचलित होकर अपना लिखना नहीं छोड़ते हैं क्योंकि यह देशसेवा है। वे कहते हैं 

गावच्या होळीत आमची एक गोवरी  पेटली,
इथे माझ्या घराची गोरी गेली, तर काय, 

जब सारा गांव जल रहा है तो मेरा भी नुकसान हुआ तो क्या?

ज्ञानेश्वर महाराज ने भी अनेक दुःख सहे, उन्हें बहिष्कृत किया गया था और विष पीने को कहा गया थाl विषाक्त होंठों से ज्ञानेश्वरी रूपी अमृतधारा बह निकलीl वे कहते हैं-

परतोनि पाठिमोरें ठाके। आणि आपणियांते आपण देखे।
देखतखेवों वोळखे, म्हणे तत्त्व हें मी।। 6-366।।

अन्तर्मुख होकर हम जब अपने आपको देखते हैं तो आत्म तत्त्व से पहचान होती है।

तिये ओळखीचिसरिसें। सुखाचिया साम्राज्यीं बैसे।
मग आपणपां समरसें। विरोनि जाय।। 6-367।।

जयापरतें आणिक नाहीं। जयातें इन्द्रियें नेणती कहीं
तें आपणचि आपुलिया ठायीं। होऊनि ठाके।।6-368।।

इस पहचान के बाद जो सुख प्राप्त होता है वह सर्वोपरि है जिसे पाने पर फिर कभी सुखों के पीछे भागना नहीं पड़ेगा।

सुख और दुःख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, उन्हें साथ लेकर ही चलना पड़़ता हैl योग साधना हमें sorrow proof अवस्था में पहुँचाती है जिससे दुःख का स्पर्श मन को नहीं होताl ऐसी अवस्था का वर्णन करते हुए भगवान योग की तीसरी व्याख्या बताते हैं।

6.23

तं(म्) विद्याद् दुःखसंयोग, वियोगं(म्) योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो, योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥23॥

जिसमें दुःखों के संयोग का ही वियोग है, उसी को 'योग' नाम से जानना चाहिये। (वह योग जिस ध्यानयोग का लक्ष्य है,) उस ध्यानयोग का अभ्यास न उकताये हुए चित्त से निश्चयपूर्वक करना चाहिये।

विवेचन : दूसरे अध्याय में योग: चित्त्तवृत्ति निरोध: और योग: कर्मसु कौशलम् कहा गया है। इस श्लोक में योग की तीसरी व्याख्या भगवान देते हैं।

भगवान कहते हैं कि दुःख के संयोग का वियोग ही योग है। कहने का तात्पर्य यह है कि योग के अभ्यास से दुःख का प्रभाव मन को नहींं छूता, दुःख तो होता है परन्तु मन विचलित नहींं होता।

गीता इसी योग का स्वरूप है। परन्तु मात्र जानने से ही कुछ नहीं होता इसका निरन्तर अभ्यास बिना उकताए करना चाहिए। जब प्रगति तुरन्त नहीं मिलती तो हम उकता जाते हैं और अपने प्रयत्न छोड़ देते हैं क्योंकि हमारा मन अन्य आकर्षणों में फंस जाता है।

हनुमानजी और उनकी वानर सेना माँ सीता को ढूँढने निकलते है तो कुछ समय बाद वानर सेना उकता जाती है और थककर वापस चली जाती है, लेकिन हनुमानजी बिना थके सीता माता को ढूँढ लेते हैं l

ऐसे कई उदाहरण हैं जो हमें यही सिखाते हैं कि ध्येय की ओर निरन्तर बढ़़ने वाला गन्तव्य तक पहुँच ही जाता है।

6.24

सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्, त्यक्त्वा सर्वानशेषतः।
मनसैवेन्द्रियग्रामं(म्), विनियम्य समन्ततः॥24॥

संकल्प से उत्पन्न होने वाली सम्पूर्ण कामनाओं का सर्वथा त्याग करके (और) मन से ही इन्द्रिय-समूह को सभी ओर से हटाकर।

विवेचन : सङ्कल्प से प्रभावित कामनाओं का त्याग, इसके लिए सङ्कल्प क्या है यह समझना आवश्यक है। पहले तो यह सोचना होगा कि पहले सङ्कल्प आता है या कामना या इच्छा? कुछ प्राप्त करने की इच्छा जागती है तब उसे पाने का सङ्कल्प किया जाता है।

गुरुदेव गुलाबराव महाराज जी ने सङ्कल्प की अत्यन्त सुन्दर व्याख्या की है।

सङ्कल्प = सं = अच्छा, कल्प = कल्पना अर्थात् अच्छी या सुन्दर कल्पना

जब हमेंं कोई वस्तु अच्छी लगती है तो उसे पाने की इच्छा जागती है अर्थात् यहाँ सङ्कल्प पहले होता है फिर इच्छा।

हमारे पास एक अच्छी गाड़ी है, लेकिन पड़ोसी की नई गाड़ी हमें ज्यादा अच्छी लगती है और हम उसे पाना चाहते हैं।

नई-नई वस्तुएँ देखकर उन्हें प्राप्त करने की लालसा होना, हम अच्छे ओहदे पर हैं परन्तु और ऊँचा बढ़़ना चाहते हैं, इस तरह कामनाओं का कोई अन्त नहीं होता, जीवन चला जायेगा पर इच्छाएँ नहीं जाएँगी।

गांधीजी के तीन बन्दर थे। एक की आँखें बन्द हैं, अब आँखें तो बन्द हैं लेकिन हमारी दृष्टि तो काम कर रही है, हम बन्द आँखों से भी कल्पना कर सकते हैं। एक के कान बन्द हैं, हम बन्द कानों से भी बुरा या अच्छा सुन सकते हैं। एक का मुँह बन्द है परन्तु हमारे विचारों पर तो कोई रोक नहींं है। इस तरह हमें सङ्कल्पों से उभरी कामनाओं को त्यागना है, इंद्रियों पर नियन्त्रण रखना है।

6.25

शनैः(श्) शनैरुपरमेद्, बुद्ध्या धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं(म्) मनः(ख्) कृत्वा, न किञ्चिदपि चिन्तयेत्॥25॥

धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (संसार से) धीरे-धीरे उपराम हो जाय (और) मन (बुद्धि) को परमात्मस्वरूप में सम्यक् प्रकार से स्थापन करके (फिर) कुछ भी चिन्तन न करे।

विवेचन : ध्येय प्राप्ति के लिए मन को विचलित करने वाले साधनों से दूर रखना आवश्यक है।

आजकल सोशल मीडिया होने के कारण अनेक आकर्षण हैं जो विद्यार्थी को उनके ध्येय से विचलित करते हैं। कभी बाहर सैर पर निकलते हैं तो निसर्ग का आनन्द उठाना छोड़कर मोबाइल पर फोटो खींचकर अपलोड करने की होड़ लगी होती है।

इन आकर्षणों से धीरे-धीरे मुक्त हो सकते हैं। मन को मारकर इनसे मुक्त होना कठिन है अतः समय की सीमा में रहकर इनको दूर किया जा सकता हैl इसके लिए धैर्य का होना आवश्यक है।

ज्ञानेश्वर जी महाराज कहते हैं-

ऐसे युक्ति चे निहाते, इंद्रियां वापि जे भाते,
ते सन्तोषा ची वाढ़ते ते मनसे करी।

मन चञ्चल होता है, जो चाहिए तुरन्त मिलना चाहिए खासकर बच्चों का मन। आकर्षण इतने हैं कि हर क्षण नई वस्तु की चाह होती है, इनका मोह तात्कालिक होता है, शीघ्र ही इनसे मन ऊब जाता है l

मन को बुद्धि के अंकुश से काबू में लेते हुए आत्मतत्त्व में लगाना चाहिए l जैसे एक माँ का ध्यान सदा अपने बच्चे पर होता है और वह बच्चे के पीछे जाकर उसे घर ले आती है, वैसे ही हमें बिना ग्लानि के अपने मन को आकर्षणों से खींचकर आत्मतत्त्व में लगाने का प्रयास करते रहना चाहिए। 

6.26

यतो यतो निश्चरति, मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतद्, आत्मन्येव वशं(न्) नयेत् ॥26॥

(यह) अस्थिर (और) चंचल मन जहाँ-जहाँ विचरण करता है, वहाँ-वहाँ से हटाकर इसको (एक) परमात्मा में ही भली भाँति लगाये।

विवेचन : मन बहुत ही चंचल होता है। बैठे-बैठे ही वह सारे विश्व का भ्रमण कर आता है। चंचल मन को बार- बार नियंत्रित करते हुए आत्मतत्व से जोड़ना चाहिए। इसके लिए नियमों को जानना महत्वपूर्ण है। ध्यान का अभ्यास बहुत लोग करते हैं परंतु उसके लिए आवश्यक तैयारी जैसे ध्यान लगाने की जगह, वहाँ का वातावरण, स्वच्छता आदि महत्त्वपूर्ण है।

हमारा चित्त अंत:करण चतुष्ट्य है।

मन : संकल्प विकल्पात्मक होता है, विचार कर सकता है। कोई भी काम करना है या नहीं यह सोचता है।

बुद्धि : निर्णयात्मिका, मन के संकल्प विकल्प का चयन करती है, शुद्ध बुद्धि अच्छे संकल्प का चुनाव करती है और दूषित बुद्धि गलत विकल्प चुनेगी।

 जैसे मन सोचेगा कि सिगरेट पीनी है या नहीं, बुद्धि निर्णय लेगी। बुद्धि उस पर हुए संस्कारों से निर्णय लेती है।

चित्त : बुद्धि के निर्णय को चित्त प्रभावित करता है।

पुनर्जन्म के संस्कार चित्त पर होते हैं।

अहंकार : ममत्व की भावना

शुद्ध चित्त से निर्णय भी शुद्ध होंगे।

नियमबद्ध जीवन के महत्व को ज्ञानेश्वर जी ने बहुत ही सुंदर तरीके से समझाया है     

आतां नियमुचि हा एकला। जीवें करावा आपुला। 
जैसा कृतनिश्चयाचिया बोला। बाहेरा नोहे।।6-380।।

अर्थात् जब हम कोई नियम धारण करते हैं तो जहाँ तक संभव हो उसका पालन करना चाहिए। जैसे सुबह जल्दी उठकर व्यायाम करना, नहाकर ही खाना खाना, गरीब की सहायता करना, आदि। जब एक बार कुछ सोचते हैं तो उसका पालन भी करना चाहिए। इससे मन प्रशांत होगा।

6.27

प्रशान्तमनसं(म्) ह्येनं(म्), योगिनं(म्) सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं(म्), ब्रह्मभूतमकल्मषम्॥27॥

जिसके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिसका रजोगुण शान्त हो गया है (तथा) जिसका मन सर्वथा शान्त (निर्मल) हो गया है, (ऐसे) इस ब्रह्मरूप बने हुए योगी को निश्चित ही उत्तम (सात्त्विक) सुख प्राप्त होता है।

विवेचन : इस तरह नियमों का पालन करते हुए जिनका मन शान्त हो गया है, जो किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होता, ऐसे साधुओं का संग हमेशा करना चाहिए।

प्रत्येक गोले का एक केंद्र होता है जहाँ से परिधि तक रेखा खींची जाए तो सभी रेखाएँ समान ही होंगी। यह रेखा व्यास कहलाती है। श्रीमद्भगवद्गीता महर्षि वेद व्यास जी की लिखी ऐसी रेखा है जो हमें केंद्र की ओर ले जाती है। इसकी सहायता से हम जीवन के द्वन्द्वों से जीतकर समत्व प्राप्त करते हैं l द्वन्द्व् मुक्त होकर प्रशान्त सुख प्राप्त होता है जिसे पाने के लिए योगियों ने अपना जीवन दांव पर लगा दियाl यह स्वाधीन सुख है।

जो सुख रजोगुण के शान्त होने पर ही मिलेगा क्योंकि रजो गुण में कामना है जो हमसे निरन्तर काम करवाता है। फल की आशा में लिया सुख सांसारिक बंधनों से युक्त है। किसी का भला करने के लिए किया गया कर्म मन को शान्ति प्रदान करता है। फल की आशा मेंं मन अशान्त सांसारिक भोगों पर आधारित सुख पराधीन होता है।

ऐसे गुरुजन, गीताजी आदि के स्मरण से और उनकी शरण में जाने से व्यक्ति को परम सुख प्राप्त होता हैl ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-

तैसें स्मरतेनि आदरें, सबाह्य सात्विकें भरे। 
जंव काठिण्य विरे अहंभावाचे।।6-187।।

विषयांचा विसरु पडे, इंद्रियांची कस मस मोडे।
मनाची घडी घडे, हृदयामाजीं।।6-188।।

इस तरह प्रशान्त मन को परब्रह्म की प्राप्ति होती है। ब्रह्म सृष्टि का संचलन करने वाली वह शक्ति है जो हमें शक्ति देकर हमारा संचलन करती है। वह भगवान का नित्य स्वरूप है।

6.28

युञ्जन्नेवं(म्) सदात्मानं(म्), योगी विगतकल्मषः।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शम्, अत्यन्तं(म्) सुखमश्नुते॥28॥

इस प्रकार अपने आपको सदा (परमात्मा में) लगाता हुआ पाप रहित योगी सुखपूर्वक ब्रह्म प्राप्ति रूप अत्यन्त सुख का अनुभव कर लेता है

विवेचन : ब्रह्म तत्त्वों को प्राप्त करके जिसे परम सुख की अनुभूति हुई है उसका अति सुन्दर वर्णन यहाँ किया गया है l

ऐसे शुद्ध मन वाले योगी जिनके मन से सारे पाप धुल गए हैं, मन का कीचड़ चला गया है और मन शान्त हो गया है, उनका मन इस आत्म तत्त्व से सतत एकाकार होता है। उस परब्रह्म का सुन्दर स्पर्श उन्हें अन्दर से प्राप्त होता है। उस योगी की दृष्टि और दृष्टिकोण बदल जाता है। उसका व्यवहार अन्दर स्थित आत्मतत्त्व के साथ होने लगता है।

6.29

सर्वभूतस्थमात्मानं(म्), सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा, सर्वत्र समदर्शनः॥29॥

सब जगह अपने स्वरूप को देखने वाला और ध्यानयोग से युक्त अन्तःकरण वाला (सांख्ययोगी) अपने स्वरूप को सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित देखता है (और) सम्पूर्ण प्राणियों को अपने स्वरूप में (देखता है)।

विवेचन : योग युक्तात्मा, वह योगी जो परमात्मा के साथ निरन्तर अनुसन्धान रखता है। उसे सभी जगह, सभी चराचर सृष्टि में परमात्मा के ही दर्शन होते हैं। वह समदर्शी हो जाता है। उसे यह अनुभूति होती है कि सभी में वह परमात्म तत्त्व बसता है। यहाँ यह ध्यान रखना होगा कि सभी एक हो सकते हैं लेकिन उनसे व्यवहार एक ही नहीं हो सकता। हाथी, हाथी होता है और कुत्ता, कुत्ता। दोनों में एक ही तत्त्व है, यह जानकर हम हाथी को घर के भीतर नहींं ला सकते।

योग युक्तात्मा की समदर्शिता को सन्त एकनाथ जी के दृष्टांत से समझा जा सकता है। एकनाथ जी काशी से गङ्गाजल लेकर रामेश्वर जा रहे थे। मार्ग मेंं उन्हें एक गधा कड़ी धूप में प्यास से तरसता हुआ दिखाई देता है। वे अपनी कांवड़ का सारा गङ्गाजल उस गधे को पिला देते हैं। उनके समस्त साथी आश्चर्य से उनसे कहते हैं कि अब वे रामेश्वरम में क्या करेंगे? सारा जल तो गधा पी गया। एकनाथ जी कहते हैं कि उन्होंने तो रामेश्वर का अभिषेक ही किया था, गधा कहीं था ही नहीं। और यदि था भी तो प्यासे को पानी पिलाने से वही पुण्य उन्हें मिलेगा।

ऐसे अनेक उदाहरण हम देख सकते हैं।

सन्त नामदेव, मराठी के महान सन्त, जब रोटी बना रहे थे तो एक कुत्ता रोटी ले जाने लगता है, नामदेवजी उसे पुकार कर कहते हैं कि ठाकुर अभी इसमें घी नहीं चुपड़ा है तनिक ठहरें। वे कुत्ते में भी परमात्मा को देखते थे।

समदर्शी बनाने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि गुनहगार को भी दण्ड न दिया जाए। पृथ्वीराज चौहान की समदर्शिता का उत्तर मोहमद गौरी ने किस प्रकार दिया इसका इतिहास साक्षी है। गुनहगारों को सजा देने में ही उनका कल्याण है।

6.30

यो मां(म्) पश्यति सर्वत्र, सर्वं(ञ्) च मयि पश्यति।
तस्याहं(न्) न प्रणश्यामि, स च मे न प्रणश्यति॥30॥

जो (भक्त) सब में मुझे देखता है और मुझमें सबको देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।

विवेचन : जिस भक्त को सब जगह, प्रत्येक जड़-चेतन में ईश्वर दिखते हैं और ईश्वर में समस्त सृष्टि दिखती है, उनके लिए भगवान कभी भी अदृष्ट नहीं होते। उनकी अनुकम्पा सदैव ही अपने उन भक्तों पर बनी रहती है। 

यशोदा मैया को अपने मुँह में सारा ब्रह्मांड दिखाना, युद्ध भूमि में अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदान कर अपना विराट विश्वरूप दर्शाना, प्रभु की अपने भक्तों पर अनुकम्पा ही है।

भक्त को उसकी कृपा के योग्य होना आवश्यक है। एक दुकान पर बोर्ड था कि उनके ऐनक से हर कोई पढ़ सकेगा। यह सुन कर एक देहाती वहाँ से ऐनक खरीदता है और पूछता है कि वह पढ़ सकेगा? दुकानदार उसे एक पुस्तक देता है, लेकिन देहाती पढ़ ही नहीं पाता क्योंकि उसने पढ़ना सीखा ही नहीं था।

यदि हमारी भक्ति सच्ची है तो भगवान कभी भी हमारा साथ नहीं छोड़ेंगे।

6.31

सर्वभूतस्थितं(म्) यो मां(म्), भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि, स योगी मयि वर्तते॥31॥

(मुझमें) एकीभाव से स्थित हुआ जो भक्तियोगी सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित मेरा भजन करता है, वह सब कुछ बर्ताव करता हुआ भी मुझ में (ही) बर्ताव कर रहा है अर्थात् वह नित्य निरन्तर मुझमें ही स्थित है।

विवेचन : वह भक्त परमात्मा से एकाकार होकर सभी भूतमात्र में परमात्मा को देखकर उनकी सेवा करता है। उसकी पूजा अर्चना मात्र आडंबर नहीं होती।

स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं मैं उस परमात्मा का सेवक हूँ जिसे अज्ञानी लोग मनुष्य कहते हैं। मनुष्य मानकर सेवा करने से प्रतिफल की अपेक्षा होती है। 

ईश्वर को निष्काम कर्म चाहिए। ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-

माझें व्यापकपण आघवें। गवसलें तयाचेनि अनुभवें।
तरी न म्हणतां स्वभावें। व्यापकु जाहला।।6-402।।

परमात्मा अनन्त, असीम, व्यापक और अखण्ड है, और मनुष्य शांत, ससीम है। परमात्मा से एकाकार होना अर्थात् पूर्ण रूप से समर्पण भाव से सेवा करना।

म्हणौनि आपणपां विश्व देखिजे। आणि आपण विश्व होईजे।
ऐसें साम्यचि एक उपासिजे। पांडवा गा।।6-409।।

उस अनन्त रूप में एक हो जाना ही सर्वोपरि अनुभूति है। जो पूजा या ध्यान किसी का दिल दुःखाकर की जाए उसका कोई महत्त्व नहीं है। 

श्रीकृष्ण द्वारा योगी के सुन्दर वर्णन के बाद अर्जुन के मन में कई प्रश्न उठते हैं।

हरि नाम सङ्कीर्तन के साथ आज के सत्र का समापन हुआ। इसके पश्चात् प्रश्नोत्तर सत्र हुआ। 

प्रश्नोत्तर सत्र

प्रश्नकर्ताः वसन्त जी

प्रश्नः अन्त: करण चतुष्ट्य से आत्मसंयम तक के मार्ग में रजगुण ही शान्त क्यों है? केंद्र क्या है? उस तक मन को कैसे ले जाया जा सकता है?

उत्तर: गीता के अलग -अलग योग पुष्प की पंखुड़ियो के समान हैं। वे जब साथ में हों तो ही सुन्दरता बनी रहती है। राज योग भी एक पंखुड़ी है जिसमें परमात्म तत्त्व की प्राप्ति के लिए ध्यान, योग और धारणा का मार्ग बताया गया है। इसकी साधना के अलग-अलग मार्ग हो सकते हैं जिसे साधक अपने अनुरूप चुन सकते हैं। समत्व का भाव प्राप्त करना ही मन को केंद्र में लाना है। जो कुछ हम कर रहे हैं वह उस ईश्वर की दी हुई शक्ति के कारण है। इस भाव से अहम का त्याग करना ही समत्व है।

प्रश्नकर्ताः सुधाकरजी

प्रश्नः अन्त: करण चतुष्ट्य को कैसे नियन्त्रित किया जा सकता है? क्या ये अलग-अलग हैं?

उत्तरः मन, बुद्धि, चित्त्त और अहङ्कार ये अलग नहींं हैं। ऋषि -मुनियों ने सत्य के अन्वेषणों के अपने अनुभवों को ग्रन्थों के माध्यम से हमारे सामने रखा है। इन तत्त्वों को देखा नहींं जा सकता, समझकर ही अनुभव किया जा सकता है।


समापन प्रार्थना के साथ आज का सत्र सम्पन्न हुआ।