विवेचन सारांश
यज्ञ, तप और दान के प्रकार

ID: 3018
हिन्दी
रविवार, 04 जून 2023
अध्याय 17: श्रद्धात्रयविभागयोग
2/2 (श्लोक 11-28)
विवेचक: गीता विशारद डॉ. संजय जी मालपाणी


ईश वन्दना, सुन्दर दीप प्रज्वलन तथा गुरु चरणों के वन्दन के साथ स‌त्रहवें अध्याय के उत्तरार्द्ध सत्र का आरम्भ हुआ। इस अध्याय के पूर्वार्द्ध में हमने समझा कि भोजन किस प्रकार का होना चाहिए, साथ ही हमने सात्विक, राजसिक और तामसिक भोजन के बारे में जाना। आज श्रीभगवान के द्वारा हम यज्ञ, दान और तप के विषय में जानकारी प्राप्त करेंगे।


17.11

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो, विधिदृष्टो य इज्यते|
यष्टव्यमेवेति मनः(स्), समाधाय स सात्त्विकः||17.11||

यज्ञ करना ही कर्तव्य है - इस तरह मन को समाधान (संतुष्ट) करके फलेच्छा रहित मनुष्यों द्वारा जो शास्त्रविधि से नियत यज्ञ किया जाता है, वह सात्त्विक है।

विवेचन: यज्ञ का अर्थ है अर्पण करते जाना।

सात्विक यज्ञ का तात्पर्य क्या है - सात्विक यज्ञ उसे कहा जाता है जहाँ मनुष्य को फल की कोई इच्छा ना हो और जो यज्ञ शास्त्रों में दी गई विधि के अनुसार किया जाए। जिस यज्ञ को करके मन को सन्तुष्टि मिले और यज्ञ करना ही मेरा कर्त्तव्य है जब ऐसी भावना आ जाए उसे सात्विक यज्ञ कहते हैं। 

हमें अपने आप को अत्यन्त सौभाग्यशाली समझना चाहिए कि हमें परमात्मा ने एक सुदृढ़ शरीर दिया है। भगवान का धन्यवाद करने के लिए भी हवन किया जाता है। बिना किसी अपेक्षा के, कर्त्तव्य की भावना के साथ, परमात्मा ने हमें जो दिया है, उसमें से कुछ हम उन्हें अर्पण कर सकें, इस भावना के साथ अग्नि के माध्यम से जो हवन किया जाता है वह देव ऋण चुकाने के लिए किया जाता है। 

हमारे माता-पिता का हमारे ऊपर बहुत बड़ा ऋण है। हमारी माता हमारे लिए रात भर जाग-जाग कर हमारा लालन पोषण करती है, हमारे पिता हमारे लिए सभी आवश्यक सामग्री जुटाते हैं। हमारा कर्त्तव्य है कि हम उनकी सेवा करें, अगली पीढ़ी को अच्छे संस्कार दें, इस प्रकार हम मातृ - पितृ ऋण से मुक्त होते हैं। हमें गुरु सेवा, धर्म सेवा करनी चाहिए। अपनी गुरु परम्परा को आगे चलाते रहना चाहिए। इस प्रकार हमारे ऊपर जो गुरु का ऋण है, उस से मुक्ति मिलती है। जिस प्रकार हम गीता सीखते हैं तो हमारा कर्त्तव्य है कि हम भी अन्य लोगों को सिखाएँ, अपनी सेवा दें। जिसने हमें सिखाया है उसका हम पर ऋण है और हमारा कर्त्तव्य है कि हम भी लोगों को सिखा कर अपना ऋण चुकाएँ। 

हमारे ऊपर समाज का भी ऋण होता है। हमारा कर्त्तव्य बनता है कि हम भी समाज के लिए कुछ करें, जैसे धर्मशाला बनवाना या धर्मशाला बन रही है तो उसमें अपना योगदान देना। कई सामाजिक कार्य किए जा सकते हैं जैसे विद्यालय बनवाना, प्याऊ लगवाना। 

प्रकृति हमें कुछ न कुछ देती है। हमें फल प्राप्त हो रहे हैं। हवा बहती है तो हम साँस ले सकते हैं, नदियाँ बहती हैं तो हम पानी पी सकते हैं। इनके प्रति भी हमारा कुछ कर्त्तव्य है। हम जब इस जीवन से जाएँगे उसके लिए एक वृक्ष हमारे लिए अपनी आहुति देगा अतः हमारा भी कर्त्तव्य है कि हम अपने जीवन काल में वृक्षारोपण करें। हर छोटे से छोटा जीव हमारे लिए उपयोगी है, हमारे लिए कुछ ना कुछ कार्य करता है। जैसे मधुमक्खी एक फूल से पराग लेकर दूसरे फूल पर पहुँचाती है उससे बीज बनते हैं। एक छोटी सी चींटी जब जमीन में अपना घर बनाती है तो उससे हर पेड़ पौधे को ऑक्सीजन मिलती है। इस प्रकार हमारा भी इन सब जीवों के प्रति कुछ कर्त्तव्य बनता है। इसलिए हमारे धर्म में कहा गया है कि चीटियों के लिए थोड़ा सा आटा डाल दो, गाय के लिए रोटी निकालो, कुत्ते के लिए रोटी निकालो। इस सब को करने से भूत ऋण से मुक्ति मिलती है।

केवल हवन करना ही यज्ञ नहीं है यज्ञ कई प्रकार के हो सकते हैं। गीताजी के चौथे अध्याय में कहा है

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः।।4.28।।

द्रव्य द्वारा भी यज्ञ हो सकता है, योग द्वारा भी यज्ञ हो सकता है, तप द्वारा भी यज्ञ हो सकता है, स्वाध्याय भी यज्ञ का रूप है। जैसे हम किसी को कुछ समझाने के लिए पहले स्वयं उसको पढ़ने का प्रयास करते हैं वह भी एक यज्ञ रूप है। श्रीभगवान् कहते हैं हमारी इन्द्रियों का भी हवन होता है। जब जब हम गलत रास्ते पर चल पड़ें तो इन्द्रियों का संयम की अग्नि में हवन होना चाहिए। ये सभी सात्विक यज्ञ हैं।

17.12

अभिसन्धाय तु फलं(न्), दम्भार्थमपि चैव यत्|
इज्यते भरतश्रेष्ठ, तं(म्) यज्ञं(म्) विद्धि राजसम्||17.12||

परन्तु हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन ! जो यज्ञ फल की इच्छा को लेकर अथवा दम्भ (दिखावटीपन) के लिये भी (किया जाता है), उस यज्ञ को (तुम) राजस समझो।

विवेचन: श्रीभगवान कहते हैं कि भरत श्रेष्ठ अर्जुन जो यज्ञ फल की इच्छा को लेकर किए जाते हैं या जो दिखावे के लिए किए जाते हैं उन यज्ञ को राजस यज्ञ समझना चाहिए।  

जैसे राजा दशरथ द्वारा पुत्र की इच्छा से यज्ञ किया गया था जिसे पुत्र कामेष्टि यज्ञ भी कहते हैं। 

पाण्डवों द्वारा राज्य की कामना से किया गया राजसूय यज्ञ, राजस यज्ञ था। इस यज्ञ के साथ एक नेवले की कहानी जुड़ी है - वह नेवला जिसका आधा शरीर सुनहरा था वह अपना पूरा शरीर सुनहरा करने के प्रयास में उस यज्ञ में आया था। यज्ञ के पश्चात् भगवान श्रीकृष्ण जूठी पत्तल उठा रहे थे, वह नेवला वहाँ जाकर बैठ गया। किसी ने पूछा कि तुम यह क्या कर रहे हो? नेवले ने कहा यह सात्विक यज्ञ नहीं है यह तो राजसिक है। उस सात्विक यज्ञ में मेरा आधा शरीर सोने का हो गया था बहुत प्रयास कर रहा हूँ लेकिन वैसा यज्ञ कहीं नहीं देखा। उससे पूछा गया कि ऐसा कौन सा यज्ञ था कि तुम्हारा आधा शरीर सोने का हो गया। नेवले ने कहा कि मैं खेत में रहता था बड़ा अकाल पड़ा हुआ था। एक किसान के घर में खाने को रोटी तक नहीं थी बड़ी कठिनाई से एक रोटी बनी, वह खाने पर बैठा ही था कि एक याचक आ गया, कहने लगा मैं पाँच दिन का भूखा हूँ मुझे कुछ भोजन दे दो। उस किसान ने अपनी रोटी में से आधी रोटी उसे दे दी, आधी रोटी खाने के बाद याचक कहने लगा मुझे बहुत भूख लगी है। मुझे और रोटी चाहिए तो किसान ने बची हुई आधी रोटी भी उस याचक को दे दी। भोजन पूरा करने के बाद उस याचक ने अपने हाथ धोए। जिस स्थान पर वह पानी गिरा वहाँ जमीन थोड़ी ठण्डी हो गई थी। रात को मैं वहाँ जाकर लेट गया, जिस तरफ उस याचक के हाथों का धुला हुआ पानी लगा वह तरफ सुनहरी हो गई। उस यज्ञ में कोई अपेक्षा नहीं थी वह सात्विक यज्ञ था। तब से मैं प्रयास कर रहा हूँ किन्तु वैसा यज्ञ कहीं नहीं देखा। 

उद्दालक ऋषि ने विश्वजीत यज्ञ किया था उन्होंने सारी गाय दान में दे दी थी, उनके पुत्र नचिकेता ने पूछा यह गाय तो बूढ़ी हो गई हैं, दूध भी नहीं देती इन्हें दान देने से क्या फायदा? ऋषि बोले इस यज्ञ का नियम है कि अपने पास कुछ नहीं रखना होता इसलिए मैंने ये गाय दान में दे दी। नचिकेता बोला मैं आपका पुत्र आपके पास हूँ तो आपको मुझे भी दान में दे देना चाहिए। उद्दालक ऋषि को बहुत गुस्सा आया उन्होंने कहा जा मैंने तुझे यम को दान दे दिया। नचिकेता तीन दिन तक यम के द्वार पर खड़ा रहा क्योंकि यम दूतों ने उसे अन्दर नहीं जाने दिया। तीन दिन बाद यमराज वहाँ पहुँचे। यमराज ने पूछा यह बालक कौन है? द्वारपालों ने कहा तीन दिन से यह भूखा प्यासा यहीं बैठा है, आपसे मिलना चाहता है। कहता है कि इसके पिता ने इसे आप को दान में दे दिया है। यमराज हँसने लगे और नचिकेता को अपने गले से लगा लिया। कहने लगे- तुम तीन दिन तक मेरे लिए भूखे प्यासे रहे हो, तीन वरदान माँगो। नचिकेता ने पहला वरदान माँगा कि मेंरे पिता का क्रोध शान्त हो जाए, उनको कोई पाप ना चढ़े। दूसरे वरदान में नचिकेता ने अग्नि विद्या सीखना चाहा यमराज ने उससे अग्नि विद्या सिखाई तथा यह वरदान दिया कि अब से कोई भी मृत्यु लोक से अग्नि के बिना यमलोक नहीं आ पाएगा। हमारे हिन्दू परम्परा में ऐसा माना जाता है कि कोई भी जब मर जाता है तो घर से ही एक मिट्टी के बर्तन में अग्नि शव के साथ लेकर जाते हैं और उसी अग्नि से शव का दाह संस्कार किया जाता है। उस अग्नि को नचिकेता अग्नि कहा जाता है। तीसरे वरदान में नचिकेता ने यमराज से मृत्यु का ज्ञान माँगा। यमराज कहने लगे यह ज्ञान किसी को नहीं दिया जा सकता तुम और कुछ माँग सकते हो। नचिकेता ने कहा मुझे और कुछ नहीं चाहिए, यदि आप नहीं देना चाहते तो कोई बात नहीं। यमराज बोले तुम्हें तीसरा वर तो माँगना ही पड़ेगा नचिकेता ने कहा मुझे कुछ नहीं चाहिए। यमराज को नचिकेता को मृत्यु का ज्ञान देना ही पड़ा उद्दालक ऋषि ने जो यज्ञ किया था वह राजसिक यज्ञ था किंतु नचिकेता ने यमराज के द्वार पर भूखे प्यासे तीन दिन रहकर जो यज्ञ किया सात्विक था और नचिकेता उसे करके अमर हो गया।

17.13

विधिहीनमसृष्टान्नं(म्), मन्त्रहीनमदक्षिणम्|
श्रद्धाविरहितं(म्) यज्ञं(न्), तामसं(म्) परिचक्षते||17.13||

शास्त्र विधि से हीन, अन्न-दान से रहित, बिना मन्त्रों के, बिना दक्षिणा के (और) बिना श्रद्धा के किये जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं।

विवेचन: शास्त्र विधि से हीन, अन्नदान से रहित, मन्त्रों के बिना, दक्षिणा के बिना, श्रद्धा के बिना किए जाने वाले यज्ञ को तामस यज्ञ कहते हैं। 

श्रद्धा के बिना यज्ञ करने का कोई तात्पर्य नहीं है। जो लोग यह कहते हैं कि यह चावल की बर्बादी है, यह घी की बर्बादी है, अग्नि में घी क्यों डालना है। यह यज्ञ का अपमान है। शास्त्रों में जो कहा गया है उस पर श्रद्धा रखकर उसका पालन करना चाहिए। 

जैसे हम माँ पर श्रद्धा रखते हैं कि उन्होंने कह दिया यह तुम्हारे पिता हैं तो हमने मान लिया। हम उनसे प्रश्न नहीं पूछते अथवा उन्हें सिद्ध करने के लिए नहीं कहते। इसी प्रकार सन्त मातृ रूप होते हैं। उन्होंने जो कह दिया उस पर श्रद्धा रखकर उन नियमों का पालन करना चाहिए। 

इस प्रकार भगवान ने हमें तीन तरह के यज्ञ के प्रकार बताए। आगे के श्लोकों में श्रीभगवान हमें तप के बारे में बता रहे हैं।

17.14

देवद्विजगुरुप्राज्ञ, पूजनं(म्) शौचमार्जवम्|
ब्रह्मचर्यमहिंसा च, शारीरं(न्) तप उच्यते||17.14||

देवता, ब्राह्मण, गुरुजन और जीवन्मुक्त महापुरुष का यथायोग्य पूजन करना, शुद्धि रखना, सरलता, ब्रह्मचर्य का पालन करना और हिंसा न करना - (यह) शरीर-सम्बन्धी तप कहा जाता है।

विवेचन: ऐसे गुरुओं की सेवा जिन्होंने भगवान को जान लिया है, ज्ञानी जनों की सेवा, उनका पूजन, सरलता, ब्रह्मचर्य का पालन करना शरीर का तप कहलाता है। 

हमारे जीवन में कुछ नियम आवश्यक होने चाहिए जैसे भोजन का एक नियमित समय होना चाहिए। हमारे पञ्च इन्द्रियों के ब्रह्मचर्य के पालन होते हैं। जो नहीं देखना चाहिए वह नहीं देखूँगा, जो नहीं सुनना चाहिए वह नहीं सुनूँगा, जिसका स्वाद नहीं  लेना चाहिए वह नहीं लूँगा, जहाँ स्पर्श नहीं करना चाहिए वहाँ नहीं करूँगा, जो गन्ध नहीं लेनी चाहिए वह सुगन्ध नहीं लूँगा। 

मेंरे मन, क्रम, वचन से हिंसा नहीं होनी चाहिए, इसे ही शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है।

17.15

अनुद्वेगकरं(म्) वाक्यं(म्), सत्यं(म्) प्रियहितं(ञ्) च यत्|
स्वाध्यायाभ्यसनं(ञ्) चैव, वाङ्मयं(न्) तप उच्यते||17.15||

जो किसी को भी उद्विग्न न करने वाला, सत्य और प्रिय तथा हितकारक भाषण है (वह) तथा स्वाध्याय और अभ्यास (नाम जप आदि) भी - यह वाणी-सम्बन्धी तप कहा जाता है।

विवेचन: किसी को भी मेरे शब्दों के कारण कभी कोई ठेस ना पहुँचे। ऐसी वाणी और शब्दों का प्रयोग करना चाहिए जो सत्य है, सबको प्रिय है और सब के लिए हित कारक है। परमार्थिक उन्नति में सहायक ग्रन्थों को पढ़ना गीता के श्लोकों का अभ्यास करना, गीता के संस्कृत के क्लिष्ट मुश्किल श्लोक मेरी वाणी अच्छे से पढ़ सके, ऐसा अभ्यास करना। इस प्रकार के तप को वाणी-सम्बन्धी तप कहते हैं  ऐसी वाणी जो सत्य है और सब के हित में भी है, ऐसा करना थोड़ा कठिन होता है लेकिन हमें इसका प्रयास करना चाहिए।

एक ज्योतिषी ने राजा के पास जाकर राजा से कहा कि मैं आपका हाथ देखना चाहता हूँ मेरी भविष्यवाणी आज तक कभी गलत नहीं हुई। उसने हाथ देख कर कहा कि आपका भविष्य तो बहुत अन्धकारमय है, आपकी पत्नी आपके सामने मर जाएगी, आपके बच्चे आपके सामने मरेंगे, आपके पोता-पोती भी आपके सामने मर जाएँगे। राजा ने उस ज्योतिषी को वहाँ से भगा दिया। कुछ समय बाद एक और ज्योतिषी आया। राजा को उत्सुकता तो थी उसने अपना हाथ दिखाया। हाथ वही था, भविष्य भी वही था, लेकिन बताने का तरीका बहुत अलग। उसने कहा राजा आप बहुत दीर्घायू हैं। आप अपने परिवार में सबसे अधिक आयू तक जीवित रहेंगे। उस ज्योतिषी का बहुत सम्मान हुआ, उसे पुरस्कार दिए गए। उसने बात तो वही बताई लेकिन प्रिय करके बताई, मीठी करके बताई। हमें ध्यान देना चाहिए कि हमें बात कैसे कहनी है, हमारे बोलने का तरीका कैसा है। यह हमारी वाणी का तप कहलाता है।

17.16

मनः(फ्) प्रसादः(स्) सौम्यत्वं(म्), मौनमात्मविनिग्रहः|
भावसंशुद्धिरित्येतत्, तपो मानसमुच्यते||17.16||

मन की प्रसन्नता, सौम्य भाव, मननशीलता, मन का निग्रह (और) भावों की भली भाँति शुद्धि - इस तरह यह मन-सम्बन्धी तप कहा जाता है।

विवेचन: हमारे सारे दुःखों का उपचार मन की प्रसन्नता है। प्रसन्नता के महत्त्व को गीताजी के दूसरे अध्याय में बताया है - 

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।2.65।।

भगवान कहते हैं कि बुद्धि को स्थिर रखने के लिए मन को प्रसन्न रखना बहुत आवश्यक है। मन को प्रसन्न रखने का प्रशिक्षण ही मन का तप है।

हमारे मन में मौन की भावना आ जाए। मुनि एक बहुत ही सुन्दर शब्द है जो मौन हो गया हो वह मुनि हो गया। जो शब्द अब तक बाहर आ रहे थे वह अन्दर रुक गए, अन्दर का चिन्तन आरम्भ हो गया, आत्म संवाद आरम्भ हो गया। जो धारा बाहर बह रही थी वह राधा हो गई। मन बिल्कुल एकाग्र हो जाए, जिस भाव में अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग हो, दूसरों का हित हो। जिसके भाव में पवित्रता हो, इस प्रकार तप में मन की मुख्यता होती है, वह मन सम्बन्धी तप कहलाता है।

जब मन में भाव हो और उनमें शब्द जुड़ जाए तब वे भाव प्रार्थना बन जाते हैं।

तप्त मन जब शुष्क हो, हरि नाम का स्मरण हो।
भाव जब निष्पर्ण हो तब, भक्ति का अङ्कुरण हो॥

शत्रुता मन में घिरे जब, मैत्री मङ्गल स्मरण हो। 
धर्म का विस्मरण हो तब, कृष्ण का अवतरण हो॥

क्रोध की ज्वाला जले जब, सजगता से तरण हो।
मोह का आवरण हो तब, पार्थ सा जागरण हो॥

अभय से अन्तर जगे जो, भयाक्रांत मन संकीर्ण हो।
अज्ञान का जब तम घनेरा, ज्ञान रवि अवतीर्ण हो॥

जब कामना का ज्वर उठे, और लोभ का अभिसरण हो,
संयमन का ले सहारा, शुद्ध अन्तःकरण हो॥

मृत्यु जब नर्तन करे, अमृत सुधा का वरण हो।
दम्भ दानव घेर ले जब, दिव्य दैवी शरण हो॥

अभिमान का विष दंश हो तब, हृदय में श्री चरण हो।
मन करे सुमिरन सदा, और दर्प का संहरण हो॥

असत् की अवधारणा पर, सत्य का अवतरण हो।
तमस् के वातावरण में, ज्योति रश्मि किरण हो॥

हमारे मन के भाव जब पवित्रता से भर जाते हैं तो उसे मन का तप कहते हैं। 

मन को पवित्र भाव में स्थिर रखना सबसे कठिन कार्य है लेकिन जब मन स्थिर हो जाता है तो शब्द भी प्रार्थना बन जाते हैं।

17.17

श्रद्धया परया तप्तं(न्), तपस्तत्त्रिविधं(न्) नरैः|
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः(स्), सात्त्विकं(म्) परिचक्षते||17.17||

परम श्रद्धा से युक्त फलेच्छा रहित मनुष्यों के द्वारा (जो) तीन प्रकार (शरीर, वाणी और मन) - का तप किया जाता है, उसको सात्त्विक कहते हैं।

विवेचन: श्रीभगवान तीन प्रकार के तप का वर्णन करते हैं।

परम श्रद्धा से युक्त, फल की इच्छा से रहित, जो शरीर वाणी और मन के द्वारा जो तप किया जाता है उसे सात्विक तप कहते हैं।

एक बूढ़ी महिला ने बहुत तप किया। भगवान जानते थे कि उसका मन स्थिर नहीं है, उसके मन में उसके साथ वाली महिला के लिए बहुत उद्वेग है। भगवान प्रकट हुए बोले कि माँगो जो माँगना है, लेकिन तुम जो भी माँगोगी तुम्हारे साथ वाली महिला को उसका दुगुना मिलेगा। उस बूढ़ी महिला के लिए भगवान के प्रकट होने का सारा आनन्द खत्म हो गया। वह सोच में पड़ गई कि तप तो मैंने किया और फल दुगुना उसे मिलेगा। उसने भगवान से कहा भगवान ऐसा कर दीजिए, मेरी एक आँख फोड़ दीजिए। इस प्रकार का भाव कभी नहीं होना चाहिए। भाव यह होना चाहिए कि किस प्रकार हम साथ वाले की मदद कर पाएँ यदि उसको कोई कष्ट है तो हम उसके काम आ जाए। अपने आप को तपाना चाहिए थोड़ा ज्यादा काम कर लो लेकिन मन में प्रसन्नता होनी चाहिए।

गीता परिवार में हम सभी सात्विक तप कर रहे हैं सभी दूसरे को सिखा कर खुश होते हैं। किसी को कोई अपेक्षा नहीं है किसी को कोई प्रमाणपत्र नहीं चाहिए। दूसरे को सिखाने पर प्रसन्नता होती है।

17.18

सत्कारमानपूजार्थं(न्), तपो दम्भेन चैव यत्|
क्रियते तदिह प्रोक्तं(म्), राजसं(ञ्) चलमध्रुवम्||17.18||

जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिये तथा दिखाने के भाव से किया जाता है, वह इस लोक में अनिश्चित (और) नाशवान फल देने वाला (तप) राजस कहा गया है।

विवेचन: जो तप सत्कार, मान, पूजा के लिए दिखावे की भाव से किया जाता है वह बहुत ही क्षणिक फल वाला होता है उसे राजस तप कहा गया है।

17.19

मूढग्राहेणात्मनो यत्, पीडया क्रियते तपः|
परस्योत्सादनार्थं(म्) वा, तत्तामसमुदाहृतम्||17.19||

जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से अपने को पीड़ा देकर अथवा दूसरों को कष्ट देने के लिये किया जाता है, वह (तप) तामस कहा गया है।

विवेचन: जो तप मूर्खतापूर्वक हठ के द्वारा, शरीर, मन को कष्ट देकर किया जाता है या दूसरों को कष्ट देने के लिए किया जाता है वह तामसिक तप कहलाता है।

17.20

दातव्यमिति यद्दानं(न्), दीयतेऽनुपकारिणे|
देशे काले च पात्रे च, तद्दानं(म्) सात्त्विकं(म्) स्मृतम्||17.20||

दान देना कर्तव्य है - ऐसे भाव से जो दान देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर अनुपकारी को अर्थात् निष्काम भाव से दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है।

विवेचन: श्रीभगवान् राजसिक, सात्विक और तामसिक दान के लक्षण बताते हैं। 

दान देना मेरा कर्त्तव्य है, जो दान इस भावना से दिया जाता है, जिसमें किसी भी प्रकार की अपेक्षा नहीं होती है, जो देश हित में दिया जाता है, जो दान काल सुसङ्गत होता है, वह सात्विक दान होता है।

जैसे संक्रान्ति के दिन महिलाओं को हल्दी कुमकुम लगाकर कुछ ऐसी वस्तुएँ दी जाती हैं जो उनके काम आएँ। ऐसा देना शुभ माना जाता है। 

जैसे कोई रक्तदान करता है तो उसकी उसमें कोई अपेक्षा नहीं होती है, उसे नहीं पता वह रक्त किसे मिलेगा। 

अच्छे कार्य के लिए दिया गया समय भी सात्विक दान है। हम सब गीता के प्रचार में जो समय दे रहे हैं यह सात्विक दान है।

17.21

यत्तु प्रत्युपकारार्थं(म्), फलमुद्दिश्य वा पुनः|
दीयते च परिक्लिष्टं(न्), तद्दानं(म्) राजसं(म्) स्मृतम्||17.21||

किन्तु जो (दान) क्लेशपूर्वक और प्रत्युपकार के लिये अथवा फल-प्राप्ति का उद्देश्य बनाकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा जाता है।

विवेचन: जो दान कष्ट के साथ, क्लेश पूर्वक, फल प्राप्ति के उद्देश्य से दिया जाता है वह राजस दान है।

Gift with expectation of return gift

यह सोच कर देना कि मैं दे रहा हूँ और फिर बदले में मुझे क्या मिलेगा यह राजस दान कहलाता है।

यदि कोई गाय की सेवा दूध पाने के लिए, बछड़ा पाने के लिए करता है तो वह भी राजस दान है।

17.22

अदेशकाले यद्दानम्, अपात्रेभ्यश्च दीयते|
असत्कृतमवज्ञातं(न्), तत्तामसमुदाहृतम्||17.22||

जो दान बिना सत्कार के तथा अवज्ञापूर्वक अयोग्य देश और काल में कुपात्र को दिया जाता है, वह (दान) तामस कहा गया है।

विवेचन: जो दान बिना सत्कार के, मूर्खतापूर्वक, देशकाल का ध्यान रखे बिना, अपात्र को दिया जाता है उसे तामस दान कहा गया है। यदि किसी ने चोरी के धन से घोर जंगल में बहुत बड़ी धर्मशाला बना दी। यह तामसिक दान है। जो धर्मशाला किसी के काम की नहीं है, जंगल में आकर कौन वहाँ ठहरेगा। ऐसा दान तामसिक दान है।

17.23

ॐ तत्सदिति निर्देशो, ब्रह्मणस्त्रिविधः(स्) स्मृतः|
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च, यज्ञाश्च विहिताः(फ्) पुरा||17.23||

ऊँ, तत् और सत् - इन तीन प्रकार के नामों से (जिस) परमात्मा का निर्देश (संकेत) किया गया है, उसी परमात्मा से सृष्टि के आदि में वेदों तथा ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना हुई है।

विवेचन: ओम्, तत्, सत् इन तीनों ही शब्दों में ईश्वर का वास है। उसी परमात्मा से सृष्टि के आदि में वेदों तथा ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना हुई है।

17.24

तस्मादोमित्युदाहृत्य, यज्ञदानतपः(ख्) क्रियाः|
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः(स्), सततं(म्) ब्रह्मवादिनाम्||17.24||

इसलिये वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले पुरुषों की शास्त्रविधि से नियत यज्ञ, दान और तप रूप क्रियाएँ सदा 'ॐ’ इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके (ही) आरम्भ होती हैं।

विवेचन: इसलिए वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले पुरुषों की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तप प्रक्रियाएँ सदा ॐ  नाम से ही आरम्भ होती हैं इसलिए हमारे सभी मन्त्र ॐ नाम से ही प्रारम्भ होते हैं -

ॐ नमः शिवाय।

ॐ भू: भुव: स्वह तत्सवितुर्वरेण्यम्।

ॐ त्रयंबकम यजामहे सुगन्धिम पुष्टिवर्धनम।

भगवद्गीता का भी पाठ ॐ से ही आरम्भ करते हैं - ॐ श्री परमात्मने नमः

ॐ अनाहत शब्द है। यह शब्द ब्रह्म स्वरूप है। यह सृष्टि में हर जगह व्याप्त है।

सभी वर्ग क च ट त प वर्ग में अक्षरों का उच्चारण मुख के दो भागों के आहत होने से होता है, उदाहरणार्थ

कण्ठ और निचली जीभ से बोले जाने वाले वर्ण - कण्ठव्य  (कवर्ग)
तालु और जीभ के स्पर्श से बोले जाने वाले वर्ण - तालव्य  (चवर्ग) 
मूर्धा और जीभ के स्पर्श से बोले जाने वाले वर्ण - मूर्धन्य  (टवर्ग)
दाँत और जीभ के स्पर्श से बोले जाने वाले वर्ण - दन्त्य   (तवर्ग )
दोनों ओष्ठ के स्पर्श से बोले जाने वाले वर्ण - ओष्ठव्य (पवर्ग)

इन सभी वर्णों का उच्चारण आहत करने से ही होता है। किन्तु ओम् का उच्चारण बिना किसी दूसरे भाग के आहत होने से होता है,अत: इसे अनाहत कहते हैं। इसलिये यह ब्रह्म स्वरूप है।

17.25

तदित्यनभिसन्धाय, फलं(म्) यज्ञतपः(ख्) क्रियाः|
दानक्रियाश्च विविधाः(ख्), क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभि:||17.25||

तत्' नाम से कहे जाने वाले परमात्मा के लिये ही सब कुछ है - ऐसा मान कर मुक्ति चाहने वाले मनुष्यों द्वारा फल की इच्छा से रहित होकर अनेक प्रकार की यज्ञ और तप रूप क्रियाएँ तथा दान रूप क्रियाएँ की जाती हैं।

विवेचन: तत् - यह परमात्मा के लिए ही सब कुछ है मेरा कुछ नहीं है -

तेरा तुझको तर्पण, क्या लागे मेरा।

मुक्ति चाहने वाले मनुष्यों के द्वारा अनेक प्रकार के यज्ञ और तप रूपी क्रियाएँ बिना फल की इच्छा से की जाती हैं। उस समय तत् इति पदों का ही प्रयोग किया जाता है क्योंकि पुरुष जो क्रियाएँ करते हैं वह भगवान की आज्ञा पालन करने के लिए ही करते हैं। वह मानते हैं कि यह शरीर हमारा नहीं है यह सब कुछ भगवान का ही है।

17.26

सद्भावे साधुभावे च, सदित्येतत्प्रयुज्यते|
प्रशस्ते कर्मणि तथा, सच्छब्दः(फ्) पार्थ युज्यते||17.26||

हे पार्थ ! सत्- ऐसा यह परमात्मा का नाम सत्ता मात्र में और श्रेष्ठ भाव में प्रयोग किया जाता है तथा प्रशंसनीय कर्म के साथ 'सत्' शब्द जोड़ा जाता है।

विवेचन: हे पार्थ सत् यह परमात्मा का नाम है। तू ही सच है।

एक ओंकार सत् नाम।

यह परमात्मा का नाम श्रेष्ठ भाग में प्रयोग किया जाता है तथा प्रशंसनीय कर्म के साथ सत् शब्द जोड़ा जाता है।

यह नाम सभी के मन को शक्ति प्रदान करने वाला है इसलिए जब भी यज्ञ, तप, दान किया जाता है तो ओम् तत् सत् कहा जाता है।

17.27

यज्ञे तपसि दाने च, स्थितिः(स्) सदिति चोच्यते|
कर्म चैव तदर्थीयं(म्), सदित्येवाभिधीयते||17.27||

यज्ञ तथा तप और दान रूप क्रिया में (जो) स्थिति (निष्ठा) है, (वह) भी 'सत्' - ऐसे कही जाती है और उस परमात्मा के निमित्त किया जाने वाला कर्म भी 'सत्' - ऐसा ही कहा जाता है।

विवेचन: हमारे सारे कर्म इस प्रकार ओम् तत् सत् से भर जाएँ और हमारा मन श्रद्धा से युक्त हो जाए उसके पश्चात जो तप होगा, जो दान होगा और जो यज्ञ होगा वह सात्विक हो जाएगा। बिना श्रद्धा के किया गया यज्ञ, तप, दान निरर्थक है।

17.28

अश्रद्धया हुतं(न्) दत्तं(न्), तपस्तप्तं(ङ्) कृतं(ञ्) च यत्|
असदित्युच्यते पार्थ, न च तत्प्रेत्य नो इह||17.28||

हे पार्थ ! अश्रद्धा से किया हुआ हवन, दिया हुआ दान (और) तपा हुआ तप तथा (और भी) जो कुछ किया जाय, (वह सब) 'असत्' - ऐसा कहा जाता है। उसका (फल) न तो यहाँ होता है और न मरने के बाद ही होता है अर्थात् उसका कहीं भी सत् फल नहीं होता।

विवेचन: श्रीभगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप और जो भी किया जाए वह सब असत् कहा जाता है। उसका फल न तो यहाँ होता है और न ही मरने के बाद होता है।

ओम तत् सत् इन भगवान नामों के उच्चारण तथा प्रार्थना के बाद यह सत्र पूर्ण हुआ और प्रश्नोत्तर सत्र का आरम्भ हुआ।

प्रश्नोत्तर सत्र

प्रश्न कर्ता: गीता जी

प्रश्न: हमें कैसे पता लगेगा कि कौन हमारे दान के लिए सुपात्र है?

उत्तर: यदि हमें पता नहीं है कि वह सुपात्र है या नहीं और हम अन्जाने में दे रहे हैं तो हमें कोई पाप नहीं लगेगा किन्तु यदि हमें पता है कि यह संस्था दान देने के लायक नहीं है या यह व्यक्ति दान देने के लिए सही नहीं है तो वैसा दान तामसिक दान हो जाएगा।

प्रश्न कर्ता: दिलीप जी

प्रश्न : श्लोक चौदह में द्विज का क्या अर्थ है?

उत्तर: दो बार जन्म लेने वाले को द्विज कहते हैं। पक्षी भी द्विज कहे जाते हैं। ब्राह्मण का अर्थ द्विज होता है ब्राह्मण अर्थात जिसके मन में विद्या की जिज्ञासा हो। ब्राह्मण का दो बार जन्म होता है एक बार तो जब वह माँ की कोख से जन्म लेता है और दूसरा जब उसे ज्ञान प्राप्त होता है।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(म्) योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय:।।

इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘श्रद्धात्रयविभागयोग’ नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।