विवेचन सारांश
अविनाशी जीवात्मा का सत्य

ID: 3021
हिन्दी
शनिवार, 03 जून 2023
अध्याय 2: सांख्ययोग
3/6 (श्लोक 25-30)
विवेचक: गीता विशारद डॉ. संजय जी मालपाणी


विवेचन सत्र का शुभारम्भ प्रार्थना, दीप प्रज्वलन और गुरु वन्दना के साथ हुआ। अर्जुन जब शिष्य रूप में अपने आप को स्वाधीन करके भगवान के चरणों में समर्पित हो गए तो उस समय भगवान की वाणी गीता बन कर अमृत वर्षा करने लगी। ऐसे समर्पण के बाद ही हृदय के कपाट खुलते हैं। यदि मन में कोई विचार स्थिर है तो दूसरा विचार नहीं आ सकता। मन की एक विशेषता होती है कि उसमें एक समय में एक ही चीज़ रह सकती है। जब अर्जुन के मन में उद्विग्नता थी, शोक था तब उनके मन में किसी भी सद्विचार के आने की सम्भावना नहीं थी। लेकिन जिस समय अर्जुन भगवान के चरणों में शिष्य रूप में हो गए और बोले -

शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।

मैं आपका शिष्य बन गया हूँ, अपने आप को स्वाधीन कर रहा हूँ। स्वाधीन बनने का अर्थ होता है अपने आप को शून्य करना। मैं कुछ भी नहीं हूँ जो कुछ भी है वह आप है। बिना अपने आप को शून्य किए समर्पण सम्भव नहीं है। समर्पण से शून्य और शून्य से सद्विचार मन में प्रवेश करता है। ध्यान की यही विधा है, धारणा के माध्यम से मन शून्यत्व को प्राप्त होता है और जब मन शून्य हो जाता है तो भगवान की प्रतिष्ठा के लिए आसान हो जाता है।

जब तक हम अपने आप को शून्य नही करते, समर्पित नही करते तब तक सद्विचार हमारे मन में आ ही नही सकता। भगवान आत्मा के अविनाशी स्वरूप का वर्णन करते हैं। जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही जीर्ण शरीर को देही अर्थात आत्मा त्यागकर नए शरीर में प्रवेश करती है। जब हम धूप में चलते है तो छाया भी हमारे साथ चलती है,अगर कोई छाया पर तलवार से वार करे या बन्दूक से गोली चला दे, छाया पर कोई असर नहीं होता, वह टूटती नहीं है। उसी प्रकार जब ये आत्मा शरीर से बाहर निकलती है तो टूटती नहीं है, पूरी बाहर निकलती है। इसे कोई शस्त्र भेद नहीं सकता।

जैसे किसी घड़े में पानी भरा हुआ है और उसमे हमें सूरज का प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा है। जब वह घड़ा टूट जाता है तो सूरज का प्रतिबिम्ब हमे नहीं दिखाई देता। इससे ये सिद्ध नही होता है कि सूरज नहीं है सूरज तो अपने स्थान पर विराजमान है, वह अचल है, बस उस घट में उसका प्रतिबिम्ब नही दिखाई दे रहा है, क्योंकि वह टूट गया है। उसी प्रकार ये आत्मा भी अविनाशी है उस देह में नही है पर वह है। खाली मटके के अम्दर और बाहर दोनों जगह आकाश होता है। जब यह मटका टूट जाता है तो अन्दर का आकाश बाहर के आकाश से मिल जाता है। इसी प्रकार देह के जीर्ण होने पर देही नए शरीर को धारण करता है , अतः चिन्ता की कोई बात नही है। हम लोगो के यहाँ जब किसी की परिपक्व अवस्था में मृत्यू होती है, जिसके सारे काम पूरे हो गए जिसका जीवन कृतार्थ हो गया, पूर्ण हो गया, उसकी अन्तिम यात्रा में लोग ताल, मृदंग बजाते हुए मृत्यु का उत्सव मनाते हुए उसे लेकर जाते हैं।

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते |
 पूर्णस्य  पूर्णमादाय  पूर्णमेवावशिष्यते ||


आत्मा अविनाशी है।

शस्त्र इस आत्मा को छिन्न भिन्न नहीं कर सकते।
अग्नि इस आत्मा को जला नही सकती।
जल इसको गला नहीं  सकता।
हवा से इसे सुखाया नही जा सकता।

श्राप शरीर को लगता है, आत्मा को नहीं। कोई औषधि भी इसे गीला नहीं कर सकती। राग मालकौंस के गाने से बारिश होने लगती थी, मोर नाचने लगते थे। पर तानसेन भी आत्मा को गीला नहीं कर सकते थे। बारिश के पानी से पत्थर तो गीला हो सकता है पर आत्मा नहीं।अगस्त्य ऋषि ने सम्पूर्ण समुद्र को सुखा दिया था, पर आत्मा को सुखाने का सामर्थ्य उनमें भी नहीं था। आत्मा नित्य : ये नित्य है, निरन्तर रहने वाला है।

सर्वगतः ये कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा। ये कालातीत है। 
अचल : स्थिर स्वभाव वाला है।

सूरज कभी नहीं डूबता है, वह अचल है, नित्य है। उसके अस्त होने पर कोई नही रोता है। उसी प्रकार शरीर नश्वर है उसका क्या शोक करना। पृथ्वी घूम रही है पर सूरज स्थिर है।

2.25

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयम्, अविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं(व्ँ) विदित्वैनं(न्), नानुशोचितुमर्हसि॥2.25॥

यह देही प्रत्यक्ष नहीं दीखता, यह चिन्तन का विषय नहीं है (और) यह निर्विकार कहा जाता है। अतः इस देही को ऐसा जानकर शोक नहीं करना चाहिये।

विवेचनः आत्मा को नेत्रों से नहीं देखा जा सकता, ये अव्यक्त है। इसके रूप, आकार के बारे मेंं चिन्तन नहीं किया जा सकता, ये निर्विकार है। ये जानने के बाद शोक नहींं करना चाहिए। आत्मा प्रकृति जन्य नहीं है ये शरीर प्रकृति जन्य है, पञ्च महाभूतों से निर्मित। मन, बुद्धि अहङ्कार प्रकृति से प्राप्त हुए। जो प्रकृति से प्राप्त हुआ वह नष्ट हो जायेगा, पर आत्मा जो ईश्वर से प्राप्त हुई है वह पुरुष अर्थात भगवान का अंश है, अतः वह अविनाशी है, अमर है। अ का अर्थ नहीं होता है। जिन शब्दों के पहले अ शब्द जोड़ा जाता है उन्हे निषेध युक्त शब्द कहते हैं। कुछ शब्द स्पष्ट रूप से बताते है कि ऐसा है, या ऐसा नहीं है जैसे नित्य, सर्वगत, भानु और सनातन ये विधिमुख शब्द हैं।आत्मा का प्रयोगशाला में परीक्षण नहीं किया जा सकता क्योंकि उसे हाथ से पकड़ा नहीं जा सकता, अतः कल्पना से आत्मा का रूप तैयार किया गया।

2.26

अथ चैनं(न्) नित्यजातं(न्), नित्यं(व्ँ) वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं(म्) महाबाहो, नैवं(म्) शोचितुमर्हसि॥2.26॥

हे महाबाहो ! अगर (तुम) इस देही को नित्य पैदा होनेवाला अथवा नित्य मरने वाला भी मानो, तो भी तुम्हें इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिये।

विवेचनः यदि देही को नित्य पैदा होने वाला या मरने वाला भी मानो तो भी तुम्हे शोक नहींं करना चाहिए। जन्म और मरण के कारण देह भी अनित्य है तो इसका शोक क्या करना। समत्व की भावना, विचार गीता का मूल विचार है। भगवान कहते है योग का ही अर्थ समत्व है ऐसा कहा है - सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।  समत्व ही योग है।

हर स्थिति में सम रहना चाहिए। सुख दुःख बाहर होते हैं, आत्मा के स्तर पर नहीं होते क्योंकि आत्मा निर्विकार है। विचार मन करता है वह प्रकृति जन्य है, पर आत्मा पुरुष जन्य है। प्रकृति जन्य मन अस्थिर हो सकता है पर उसे समझाना होगा कि सुख दुःख बाहर घटित हो रहे है, ये आत्मा के स्तर पर कभी भी नहीं घटित हो सकते। यदि घर के बाहर बहुत तेज धूप है तो कुछ लोग गर्मी को सहन नहीं कर पाने के कारण विचलित हो जाते हैं और हाय हाय करने लगते, पर ऐसा करने से ठण्डक नहीं मिलती है।इसी प्रकार अत्यधिक ठण्ड में भी विचलित होने, व्यर्थ में चिन्ता करने से, परेशान होने से क्या फ़ायदा?

यदि आप मोटरसाइकिल से कही जा रहे हैं रास्ते में किसी से टक्कर हो गई तो क्रोध में आकर जिससे टक्कर हुई उसने आपको अपशब्द कह दिए प्रतिक्रिया स्वरूप आपने भी अपशब्द कह दिए, तो नुकसान किसका होगा? नुकसान आपका होगा क्योंकि क्रोध के भाव में जब आप आगे बढ़ेगें तो दुर्घटना होने की सम्भावना ज्यादा होगी। तप्त मन जब शुष्क हो हम लोगो को हमेशा समत्व के भाव में रहने का प्रयास करना चाहिए।

यदि कभी नहीं सम्भल पाए तो लगाम प्रभु के हाथों में सौंप देना चाहिए। प्रकृति से प्राप्त शरीर विकृति में होना ही है। शरीर है तो पीड़ा भी होगी, रोग आने पर रोना और आरोग्य होने पर हँसना नहीं चाहिए। मृत्यु के समय जब ये आत्मा शरीर रूपी पिंजरा तोड़कर बाहर निकलेगी तो उस समय होने वाले दर्द पर ध्यान न देकर पूरा ध्यान प्रभु के चरणों में देना चाहिए।जब ऐसा होगा तो मोक्ष का द्वार अपने आप खुल जायेगा। मृत्यु जब नर्तन करे मृत्यु जब आएगी तो उस समय आनन्दित होना चाहिए कि अब वस्त्र बदलने का समय आ गया है। उस समय यदि हमारा ईश्वर के चरणों में पूरा ध्यान हो तो कष्ट से मुक्ति मिल जाएगी। जन्म और मरण तो आना ही है देह अनित्य है फिर देह का शोक क्यों करना। बीज को जब धरती में बोया जाता है तो वह अपनी कठोरता को त्यागकर अंकुर के रूप में प्रस्फुटित होता है, और ये अंकूर भी अपने आप को त्यागकर वृक्ष मेंं परिवर्तित होता है। आयु समाप्त होने पर सूख जाता है। हमारे अंदर भी पुरानी कोशिकाएँ मर रही है और नयी कोशिकाएँ जन्म ले रही हैं। पर हम इसका शोक नहीं मनाते। रोज़ सुबह हम एक नए शरीर के साथ उठते हैं। एक दिन ऐसा भी आएगा कि हमारी आँखे सदा सदा के लिए बन्द हो जाएगी और किसी नए शरीर में आँखें खुलेगी। फिर इस बात का शोक कैसा?


2.27

जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु:(र्), ध्रुवं(ञ्) जन्म मृतस्य च।तस्मादपरिहार्येऽर्थे, न त्वं(म्) शोचितुमर्हसि॥2.27॥

कारण कि पैदा हुए की जरूर मृत्यु होगी और मरे हुए का जरूर जन्म होगा। अतः (इस जन्म-मरण रूप परिवर्तन के प्रवाह का) निवारण नहीं हो सकता।(अतः) इस विषय में तुम्हें शोक नहीं करना iचाहिये।

विवेचनः जिसका जन्म हुआ है उसका मरना निश्चित है,और जो मर गया उसका पुनः जन्म होना भी निश्चित है। जन्म मृत्यु का ये प्रवाह निरन्तर चलने वाला है तो फिर इसका शोक क्यों करना? जो घटना अवश्य घटने वाली है उसकी तो हमें तैयारी करनी चाहिए। जीवन की ABCD में


B for birth hai
D for death hai

बीच में C है यानी choice हमारी है, कि हमे रोते रोते मरना है या हँसते हँसते। इसकी हमें युवावस्था से ही आदत डालनी होगी। गीता को जवानी में समझने की आवश्यकता है। अर्जुन जवान है, युद्ध की भूमि में है। हमारे अन्दर भी युद्ध चल रहा है अतः गीता जवानों के लिए है ,बुढ़ापे का मन्त्र नही है। हमेशा इस संसार से जाने के लिए तैयार रहना चाहिए। जब हम रेलगाड़ी से यात्रा करते हैं, तो रेलगाड़ी के आने पर बहुत खुश होते हैं। पर क्या गन्तव्य पर पहुँचने पर दु:खी होते हैं? वैसे ही देही के अपने धाम,अपने गन्तव्य पर पहुँचने पर हमे खुश होना चाहिए। मेरे मित्र राजू की बुआ जी उसे बहुत छेड़ती थी, किसी की भी शादी में वह घोड़ी के सामने उससे कहती की अब अगला नम्बर तुम्हारा ही है। राजू को बहुत बुरा लगता पर वह कुछ कह नहीं पाता था। एक दिन उसके दादा जी की मृत्यु हो गई। बुआ जी भी बहुत रो रही थी। राजू ने बुआ जी से कहा कि बुआ जी घर में अब आप सबसे बड़ी है अगला नम्बर अब आप का ही है। बुआ जी रोते रोते रुक गई और बहुत क्रोधित हो गईं। मृत्यु के नाम से हमारी सारी नकारात्मकता प्रकट हो जाती है।

जन्म मृत्यु एक माया है,आत्मा तो अचल है जैसे सूर्य अचल है।

2.28

अव्यक्तादीनि भूतानि, व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव, तत्र का परिदेवना॥2.28॥

हे भारत ! सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे (और) मरने के बाद अप्रकट हो जायँगे, केवल बीच में ही प्रकट दीखते हैं। (अतः) इसमें शोक करने की बात ही क्या है?

विवेचनः हे भारत, सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मृत्यु के बाद भी अप्रकट हो जायेंगे। बीच में थोड़ी देर वह प्रकट दिखते है। सूर्य का आना जाना, बादलों का आना जाना उनसे हम आसक्ति नहीं करते उसी प्रकार जन्म मृत्यु का आनन्द लेना चाहिए दु:खी नही होना चाहिए। एक महिला अपने पुराने आभूषण को सुनार के पास लेकर जाती है सुनार उसे भट्टी में डालकर पिघलाता है पर वह महिला दु:खी नही होती क्योंकि उसे पता है कि इससे नया आभूषण बनेगा वह खुश होती है। सोना तो उतना ही रहेगा बस उसका आकार बदल जायेगा। उसी प्रकार जब आत्मा वही रहने वाली है बस उसका शरीर बदलेगा तो इसमें रोने की क्या बात है ?

2.29

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम्,
आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः(श्) शृणोति,
श्रुत्वाप्येनं(व्ँ) वेद न चैव कश्चित्॥2.29॥

कोई इस शरीरी को आश्चर्य की तरह देखता (अनुभव करता) है और वैसे ही दूसरा (कोई) (इसका) आश्चर्य की तरह वर्णन करता है तथा अन्य (कोई) इसको आश्चर्य की तरह सुनता है और इसको सुनकर भी कोई नहीं जानता।अर्थात यह दुर्विज्ञेय है।

विवेचनः  कोई इस शरीर को आश्चर्य की तरह देखता है और आश्चर्यपूर्वक उसका वर्णन भी करता है। कोई आश्चर्य की तरह सुनता भी है पर सुनकर भी कोई नहीं जानता अर्थात ये शरीर दुर्भिग्न है। जिस चीज को देखा, सुना, स्पर्श से, गन्ध से, चख कर जानना ये सब सम्भव नहीं ऐसी वह आत्मा है। केवल आश्चर्य किया जा सकता है,आश्चर्य से वर्णन किया जा सकता है, आश्चर्य को सुना जा सकता है पर समझा नही जा सकता,क्योंकि यह अनुभव का विषय है। योग के मार्ग से हमे अपने अन्दर देखना होगा। भगवद्गीता योग का मार्ग सिखाती है। इसलिए भगवद्गीता योग शास्त्र कहलाती है।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु 

यम, नियम, आसन, प्राणायाम,प्रत्याहार, धारणा, ध्यान से हम अपने अन्दर देख पाएँगे। हमारे नौ दरवाज़े जो ईश्वर ने हमें दिए है वह सब खुल जाते हैं। दरवाज़े अन्दर और बाहर दोनों तरफ खुलते हैं। हमारी दो आँखें, दो कान, नासिका के पुट, मुख, जन्नेद्रिय और गुदा द्वार। आँखें बन्द होते ही ये द्वार अन्दर की ओर मुड़ जाते है। मन के संयमन से हम अपने अंदर की आवाज सुन सकते हैं।

भगवान ने कहा था-

बाहर की सारी आवाज़ों को सुनना बन्द करके ही हम अन्दर की आवाज सुन सकते है। कोऽहम, कोऽहम, मैं कौन हूंँ। अन्तर की ओर दृष्टि करने से समाधान निकलता है  सोऽहम, सोऽहम, सोऽहम  परमात्मा का अंश मैं ही हूंँ।

आत्मा उस परमात्मा का छोटा सा अंश है।

2.30

देही नित्यमवध्योऽयं(न्), देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि, न त्वं(म्) शोचितुमर्हसि॥2.30॥

हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! सबके देह में यह देही नित्य ही अवध्य है। इसलिये सम्पूर्ण प्राणियों के लिये अर्थात् किसी भी प्राणी के लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।

विवेचनः हे अर्जुन, सबकी देह में यही देही है इसलिए तुम्हे किसी भी प्राणी के लिए शोक नहींं करना चाहिए। देही नित्य है, सत्य है, अविनाशी है और देह अनित्य है, असत्य है, विनाशी है। शरीर का विनाश होना ही है। भगवान ने देह शरीर और देही आत्मा की विभिन्नता को स्पष्ट किया है। इसे अनुभव करने के लिए साधना के पथ पर चलना चाहिए। केवल पढ़ने, रटने का कोई महत्त्व नहींं होता है। तोता भी रट लेता है पर उससे क्या फायदा। जब तक ज्ञान को आत्मसात ना किया जाए, अपने जीवन में न उतारा जाए तब तक केवल कण्ठस्थ करने से कोई फायदा नहीं। इसको अपने जीवन में उतारना अत्यन्त आवश्यक है।
भोजन मेंं नमक कम या ज्यादा हो जाने पर नाराज़ नहीं होना चाहिए ।जो हमारे लिए खाना बना रहा है उसका आभार प्रकट करना चाहिए। भोजन शुरू करने के पहले भावपूर्वक ईश्वर का आवाहन करना चाहिए, उनका भोग लगाने से वह प्रसाद बन जाता है। ईश्वर हमारे भोजन के लिए नहीं बल्कि हमारे भाव के भूखे हैं। रोज़ भोजन के समय ईश्वर का आभार, किसान जिसने अनाज़ को उपजाया, जिसने भोजन को पकाया सबका आभार प्रकट करना चाहिए। थाली मेंं भोजन छोड़ना नहीं चाहिए। इस तरह इस सुन्दर विवेचन का समापन हुआ।

विचार-मंथन(प्रश्नोत्तर)


प्रश्नकर्ता: ऊषा चड्ढा दीदी

प्रश्न: मेरी पूजा पाठ बढ़ती जा रही है। ये बुरा तो नहींं है?

उत्तर; अपने कामों पर ध्यान ना देते हुए यदि आप अपना पूरा समय पूजा मेंं लगाती हैं, तो ये भगवान को भी मंजूर नहींं है। यदि आपने अपने कत्तर्व्य पूरे कर लिए है तो आप अवश्य करे। जिन लोगो के पास और भी उत्तरदायित्व हैं वह उनका निर्वाह करते हुए अपने हर काम को पूर्ण निष्ठा के साथ ईश्वर को समर्पित कर सकते हैं। हर एक के अन्दर ईश्वर का दर्शन को देखे।

प्रश्नकर्ताबजरंग भैया

प्रश्न: इस समय जब चचेरे भाइयों में ज़मीन के लिए झगड़ा होता है तो दुर्योधन ही जीतता हैं।आपका क्या कहना है?

उत्तर: जीतना और हारना को समत्व के साथ लीजिए।  लाभ में अलाभ में, जय मेंं पराजय में, वह बाहर का दुर्योधन है, आपके अंदर का दुर्योधन हारे, ये ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। आपके अन्दर का अर्जुन जीते, ये महत्त्वपूर्ण है और आपके अन्दर का अर्जुन तब जीतता है जब आप बाहर के दुर्योधन के हारने और जीतने की चिन्ता छोड़ देते हैं। अपने अन्दर ध्यान केन्द्रित करते हैं। एक ज़मीन के टुकड़े का हार जाना और जीवन को हार जाने मेंं बहुत अन्तर है। ज़मीन के टुकड़े के हारने से कोई फर्क नहींं पड़़ता क्योंकि वह साथ मेंं नहीं जाना है, पर यदि अन्दर से हार जाए तो गड़बड़ है।अन्दर बैठे हुए कृष्ण की हमेशा विजय होनी चाहिए।

प्रश्नकर्ता: प्रमिला देशमुख ताई

प्रश्न: मैं हर समय काम करते करते श्लोक याद करती हूं। क्या ये गलत तो नहींं है?

उत्तर: ये बहुत अच्छा है। बिल्कुल सही हो रहा है। गीता जी सोने जैसी बहुत पवित्र है, वह किसी भी बात से अपवित्र नहींं होती है।

प्रश्नकर्ता: हनुमान प्रसाद भैया

प्रश्न; मुझे श्लोक याद नहीं होते।कैसे याद करूँ बताएँ?

उत्तर: कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।

कण्ठस्थ करने का प्रयास करना भगवान की सेवा है। कण्ठस्थ नहीं होने पर कोई चिन्ता की बात नहीं। जीवन के हर पल का आनन्द लें। कभी रोए नहीं, भागे नहीं, सोए नहीं, जागते रहें।