विवेचन सारांश
स्थितप्रज्ञ के लक्षण
विवेचन सत्र का शुभारम्भ भगवान श्रीकृष्ण की वन्दना, दीप प्रज्वलन और गुरु वन्दना के साथ हुआ। भगवान की अतिशय मङ्गल कृपा बरस रही है कि हमारे जीवन को सार्थक करने के लिए हम श्रीमद्भगवद्गीता का पठन पाठन कर रहे हैं। ये पूर्व जन्म की कृपा, पूर्वजों की कृपा और सन्तों ऋषियों की कृपा से ही हम इसका रसास्वादन कर पा रहे हैं। गीता पढ़ना, पाठ करना, जानना, इसके अर्थ को आत्मसात करने का प्रयास करना, उसको जीवन में उतार कर जीवन को यशस्वी बनाना और उत्तम बनाना इससे बढ़िया बात और क्या हो सकती है। आज हम दूसरे अध्याय का चिन्तन कर रहे हैं और इसमें भगवान ने अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर एक अलग ही विधा से देने का आरम्भ किया है। कई बार लगता है कि अर्जुन के मन में युद्ध नहीं करने का सङ्कल्प उठा था किन्तु भगवान को ब्रह्म ज्ञान देने का विचार कैसे आया। केवल साधारण सी बात थी कि अर्जुन युद्ध के त्याग की बात कर रहा था जिसके निराकरण मात्र के लिए भगवान को उपाय बताने चाहिए थे किन्तु यहाँ भगवान जो बात कर रहे हैं वह एकदम अप्रासङ्गिक लग रही है। यदि सामान्य दृष्टि से भी विचार करें तो ये लग रहा है कि भगवान कैसा उत्तर दे रहे हैं, अर्जुन क्या पूछ रहे हैं। अर्जुन के प्रश्न और भगवान के उत्तर में कोई मिलान ही नहीं है। भगवान को भलीभाँति पता है कि अर्जुन के जो प्रश्न हैं उसके पीछे उनकी धर्म जिज्ञासा, आध्यात्मिक जिज्ञासा है और अर्जुन के अन्दर आध्यात्मिक ज्ञान पिपासा जग रही है। सारी बात होती रही और भगवान अपनी बात कहते रहे।
इस अध्याय के 54 वें श्लोक में अर्जुन ने एक अलग ही प्रश्न पूछा दिया। हम लोग होते तो कहते हिन्दी में नहीं समझ में आ रहा है तो अङ्ग्रेजी में बतलाने को कहते लेकिन अर्जुन ने ऐसा नहीं किया। अर्जुन ने कहा: स्थितप्रज्ञ पुरुष कैसी भाषा बोलता है, कैसे चलता है, कैसे बैठता है, और इसका अभिप्राय है कि अर्जुन के मन में वैसा ही बनने की चेष्टा जागृत हो रही है। जिसमें जिसकी रुचि होगी वैसा ही प्रश्न वह पूछेगा। यदि मुझे राइफल चलाने में दिलचस्पी नहीं है तो मैं राइफल चलाने के बारे में क्यों प्रश्न करूँगा। भगवान ने 55वें श्लोक में अद्भुत उत्तर दिया है:
अर्थात् जो अपने आप में अपने आप से ही सन्तुष्ट है।
2.56
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः(स्), सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः(स्), स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥2.56॥
विवेचन: यह जीवनोपयोगी अद्भुत श्लोक है। भगवान कहते हैं, हे अर्जुन! दु:खों की प्राप्ति होने पर जिसका मन उद्वेलित नहीं होता, दुःखों की प्राप्ति पर सरल है और निस्पृह है, जिसके भय, क्रोध और राग नष्ट हो गए हैं, ऐसा व्यक्ति स्थिर बुद्धि होना कहा जाता है।
ये बात हमने पहले ही सुनी है किन्तु ये बात सुनने पर कितनी जंचती है, मन में प्रश्न उठता है ये कैसे हो सकता है, सुख दुःख आए और मन कैसे न उद्विग्न हो? मन में कई बार ऐसी भी बात आती है हमने तमाम महापुरुषों को देखा है। सीता जी का रावण अपहरण करके ले गया, राम जी विलाप कर रहे हैं। इसी प्रकार जब अभिमन्यु का वध होता है भगवान कृष्ण के आँखो में आँसू आ गए तो इन लोगों की सम स्थिति कहाँ दिखी। क्या जब गर्मी लगेगी तो इसका आभास नहीं होगा, ठण्ड लगेगी तो ठिठुरन नहीं होगी, ऐसा लोगों के मन प्रश्न उठ सकता है। इनके मन पर, शरीर पर प्रभाव तो दिख रहा है। यदि प्रभाव दिख रहा है तो इस श्लोक का तात्पर्य क्या है। आज थोड़ा सा इस श्लोक को समझने का प्रयास करेंगे और ये, भगवान अद्बभुत बात बता रहे हैं। ऐसा नहीं है कि कोई सन्त है और उसके दाँत में दर्द उठ रहा है तो उसे कोई तकलीफ़ नहीं होगी या उसको चोट लग गई तो कोई पीड़ा नहीं होगी। खा रहा है तो सुखकर नहीं लगेगा, कड़वा नहीं लगेगा, शरीर में अस्वस्थता नहीं होगी? बात ये है कि घटना घटित होने पर उसका प्रभाव तीव्रता (Intensity) कितनी है, उसकी समयावधि (longevity) कितनी है। हम लोग इस मनुष्य शरीर में हैं और इस शरीर में होने वाली बाह्य क्रियाओं से बँधे हुए हैं; यदि सुई चुभेगी तो अनुभव तो होगा ही कि सुई चुभ रही है लेकिन उसकी वेदना की प्रतिक्रिया (Reaction) किसकी कितनी होगी और कितनी देर तक उसकी स्मृति रहेगी? कोई छोटे से दुःख को कितना बड़ा बतलाता है। कहा जाता है छोटी छोटी बातों का तिल का ताड़ बना रहे हो।आशय इस बात का यही है कि मानो किसी का जवान पुत्र चल बसा और जब उसे यह सूचना मिलेगी तो उसका हृदय धक से बैठ जाए लेकिन कितनी शीघ्र वह सामान्य स्थिति में होकर सँभल जाता है। सरदार वल्लभ भाई पटेल का नाम आप सभी ने अवश्य सुना होगा, उनके साथ एक विस्मयकारी घटना हुई। पटेल जी लन्दन से पढ़े हुए बैरिस्टर थे। वे एक बार कोर्ट में केस लड़ रहे थे और केस में बहस करते करते उनके एक सहायक ने कोई समाचार देना चाहा, पटेल जी ने कहा तुम कैसा अशिष्ट व्यवहार कर रहे हो, बाद में आना अभी मैं कोई भी बात नहीं करूँगा। सहायक दुबारा भी आ गया और बार बार मना करने पर वह आ जाता। अन्त में उसने एक पर्ची लिखकर पटेल जी को दी, जिसे उन्होंने पढ़कर अपनी जेब में रख लिया और केस की सुनवाई में भाग लेने लग गए। इधर जज साहब को कौतूहल हुआ कि बात क्या है और वल्लभ भाई पटेल जी से पूछ ही लिया कि क्या कोई इस केस सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण बात है जो बार बार आपका सहायक प्रवेश कर रहा था। पटेल जी के आँखों में आँसू आ गए और बताया कि पर्ची में मेरी पत्नी के स्वर्गवास का समाचार है। जज ने कहा - इसके बावजूद भी आप आधे घण्टे से शान्ति से केस की पैरवी कर रहे हैं। पूरा कोर्ट सुनकर स्तब्ध रह गया। ये बुद्धि कितनी स्थिर हो सकती है इसका ये साक्षात् प्रमाण है। उन्होंने कहा वह घटना घट चुकी यदि मैं पैरवी न करता तो मेरे मुवक्किल का नुकसान हो जाता। ये स्थिर बुद्धि का वर्णन गीता में जीवन के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण है। सोचिए हम लोगों के साथ ऐसा हुआ होता तो क्या होता? सबसे महत्त्वपूर्ण बात है उसका समय। एक सिलिंडर चोरी हो जाता है तो लोग वर्षों वर्ष बताते रहते हैं। सिलिंडर चोरी की घटना की पाँच सौ लोग तक जान जाते है अर्थात्् बहुत दिनों तक ये घटना बताते रहते हैं।
हरिवंश राय बच्चन की एक सुन्दर कविता है:
जो बीत गई सो बात गई। जीवन में एक सितारा था।
माना वह असीम प्यारा था। वह डूब गया तो डूब गया ।।
अम्बर के आनन को देखो। कितने इसके तारे टूटे।
कितने इसके प्यारे छूटे। जो छूट गए फिर कहाँ मिले ।।
पर बोलो टूटे तारों पर। कब अम्बर शोक मनाता है।
जो बीत गई सो बात गई ।।
हम लोग छोटे छोटे दुःखों पर इतना दु:ख मनाते हैं जैसे मेरे साथ ये सब नहीं होना चाहिए था। गोस्वामी तुलसीदास जी अयोध्या काण्ड में सर्व प्रथम भगवान राम की वन्दना करते हैं:
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमङ्गलप्रदा।।
मैं रोज भगवान राम की वन्दना करता हूँ और कहते हैं कि राज्याभिषेक के समय अथवा वनवास के समय भी भगवान राम के मुख व मानस पर समान भाव था कोई भी अन्तर नहीं था। वनवास के समय मन की मुदिता वैसी ही थी।
सबके जीवन में अच्छी परिस्थितियाँ और बुरी परिस्थितियाँ आने वाली हैं। ऐसा ही हम सबका जीवन है। अनुकूल मिले तो नृत्य करना प्रारम्भ किया और प्रतिकूल मिलने पर शोक मनाना प्रारम्भ किया। मेरे ही साथ ऐसा क्यों होता है? ये अत्यन्त खराब स्वभाव है।जीवन को उत्तम जीवन और सुखमय जीवन जीना है तो सुख दुःख अवश्यम्भावी हैं। मन को समता में रखने का प्रयास करो। मैं कितनी शीघ्रता से छुटकारा पा लूँगा। उत्साह और विषाद दोनो के अनुभव अन्दर नहीं रहने देना है। घटना की खबर आने पर पहले जैसा था वैसी ही स्थिति में आना है। किसी घटना को हुए पाँच वर्ष तक हो गए हैं फिर भी उसी से अब भी चिपके हुए हैं। सन्त महात्मा को वैसा ही अनुभव होगा किन्तु वे उन घटनाओं से चिपकते नहीं हैं। जो योगी है वह उसका चिन्तन नहीं करता, जो भोगी है वह बार बार चिन्तन करता रहता है, दुःख की बात को कितना कम समय तक मन में रखना है वह जानता है। मेरा किसी ने अपमान कर दिया, उस अपमान के घाव से कितना मैं गिरता रहता हूँ। मैं उस घाव से वर्षों डूबा रह सकता हूँ और चाहूँ तो क्षण मात्र में उसे मिटा भी सकता हूँ। ये मेरे हाथ में है, अपमान का घाव उसके हाथ में है किन्तु इससे छुटकारा पाना मेरे ही हाथ में है। दु:खी होंगे तो अपमान होगा और दु:खी नहीं होंगे तो कौन अपमान करेगा। मुझे कितनी शीघ्र इससे बाहर आना है, यही विचार करना है।
शास्त्रों में तीन तरह से उदाहरण आते हैं:
1. पत्थर की लकीर: जो स्पष्ट दिखती है काफी समय तक रह सकती है पच्चास वर्ष तक टिक सकती है।
2. दीवार की लकीर: किसी ने पेंसिल से बना दिया जो कुछ दिन बाद समाप्त हो जायेगा।
3. पानी की लकीर: लिखना है तो कुछ पल ही रहेगा। इसी तरह हवा में खींची गई लकीर तो तुरन्त ही समाप्त हो जायेगी।
ये मेरे ऊपर है पत्थर की तरह रहना चाहते हैं या दीवार की तरह या पानी की लकीर की तरह योगी जैसा। भगवान श्लोक संख्या 38 में कहते है:
सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
अर्थात्् सभी द्वन्द्वों में एक समान बने रहने की बात कही है। जिसका राग, भय, क्रोध समाप्त हो गया है। वर्तमान या भविष्य के भोग पर सङ्कट आ रहा है तो क्रोध आता है और जहाँ जहाँ मेरे राग हैं वहाँ क्रोध आता है। यूक्रेन युद्ध में किसी को क्रोध आता है क्या? हमारा बच्चा वहाँ पढ़ने गया है तो रूस पर क्रोध आता है क्योंकि मेरा बच्चा वहाँ पर है। राग का अर्थ है आसक्ति, चिपकाव।
भगवान अगले श्लोक में विस्तार से कह रहे है।
यः(स्) सर्वत्रानभिस्नेह:(स्), तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि, तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥2.57॥
विवेचन: हे अर्जुन! जो मनुष्य शुभ अशुभ स्थिति में न प्रसन्न होता है न ही द्वेष करता है, जो सर्वत्र स्नेह रहित है उसी की बुद्धि स्थिर कही जाती है। भगवान के कुण्डल, मुकुट, हार आदि बहुत प्रकार के श्रृँगार मिलते हैं। पूछो कि बाली कैसे लगेगी तो कहेगा थोड़ा स्नेह ले जाओ, दुकानदार थोड़ा मोम निकाल कर दे देता है क्योंकि इससे चिपक जाएगा। इस प्रकार जहाँ स्नेह होगा वहाँ चिपकाव होगा, जुड़ाव होगा। ये स्नेह चिपका देता है। जो पुरुष सर्वत्र स्नेह रहित हो जाता है वह शुभ अशुभ में समान रहता है। जितना ही वस्तु, व्यक्ति और परिस्थिति तीनों से स्नेह कम हो जाएगा वह शुभ अशुभ से मुक्त हो जाता है। जरा सा अभिनन्दन हो जाए तो तुरन्त व्हाट्सएप स्टेटस पर लगा देते हैं और न हो तो मुकेश के गीत और शेरों शायरी करने लग जाते है।
जाने कहाँ गए वे दिन. . . . . . . . . . . . . . ।
बहुत सुन्दर उपमा भगवान ने दी है।
यदा संहरते चायं(ङ्), कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्य:(स्), तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥2.58॥
विवेचन: भगवान कछुवे का उदाहरण देते हैं। जैसे कछुआ सब ओर से अपने अङ्गों को समेट लेता है वैसे ही मनुष्य सभी इन्द्रियों को विषयों से हटा लेता है। उस समय बुद्धि स्थिर समझनी चाहिए। कछुआ इतना कोमल है कि जरा सी भी ठोकर लग जाए तो मर सकता है। उस कोमल शरीर को इतना कठोर आवरण भगवान ने बनाया है कि कोई भी हाथी, ह्वेल आदि विशालकाय जानवर भी उसका नुकसान नहीं कर सकते किन्तु चील पक्षी इसे पकड़ कर ऊपर सौ दो सौ फीट की ऊँचाई से नीचे किसी नुकीले स्थान पर छोड़ता है तथा ऊपरी कवच टूट जाता है और चील उसे खा लेता है।
कछुओं की ये विशेषता है कि जिस समय आवश्यकता नहीं है वह अपने अङ्गों को समेट लेता है। गीता प्रेस के संस्थापक श्री जयदयाल गोएनका जी, अपने इन्द्रियों को कैसे कछुए की तरह समेट कर रखना है, जीवन्त उदाहरण थे। यदि कोई काम नहीं है तो आँख उठाकर इधर उधर देखते नहीं थे। उनको पता ही नहीं रहता था की अगल-बगल क्या हो रहा है। इसी प्रकार प्रज्ञाचक्षु स्वामी शरणानन्द जी महाराज का कहना था कि जहाँ मन है वहाँ दृष्टि देनी पड़ती है और जहाँ दृष्टि है वहाँ मन लगाना पड़ता है। गाँधीजी ने अस्वाद का व्रत लिया था यानि कोई खाद्य पदार्थ अच्छी लगी तो दुबारा नहीं लेते थे। गाँधीजी केवल चार पदार्थ ही खाते थे और जय दयाल गोएनका जी केवल तीन पदार्थ ही खाते थे।
अयोध्या काण्ड में वर्णन आता है कि जब भरत जी अपनी चतुरङ्गिनी सेना माताओं और गुरुजी के साथ ऋषि भारद्वाज जी के आश्रम में पधारे तो उन्हें सन्देह हुआ कि इतनी बड़ी सेना के खान - पान आदि का प्रबन्धन कैसे होगा। वहाँ पर भारद्वाज ऋषि ने अपने ऋद्धि सिद्धि के बल पर सभी का कुशल प्रबन्धन किया।
मानस में अयोध्या काण्ड में एक सुन्दर दोहा आता है:
संपति चकई भरतु चक मुनि आयस खेलवार।
तेहि निसि आश्रम पिञ्जराँ राखे भा भिनुसार॥
यहाँ भोग विलास की सामग्री चकवी और भरत जी की उपमा चकवे से दी गई है दोनों को बन्द करके रखा है। चकवी और चकवा रात में सङ्गम भी करते हैं किन्तु भरत जी को मन में भी किसी भोग का स्पर्श नहीं हुआ। हम लोग भी वृन्दावन, ऋषिकेश सत्सङ्ग के लिए जाते हैं और वहाँ रहकर ढूँढते हैं कि कोई एसी वाला कमरा मिल जाए जो सभी सुविधाओं से युक्त हो और इस प्रकार भोगों की ही चिन्ता रहती है। ट्रस्टी लोग उत्तम प्रबन्ध कर देते है। ये ट्रस्टी सब भारद्वाज ऋषि जैसे हैं किन्तु स्वयं को भरत जैसा होना है। निःस्पृह भाव वाला। कोई हमारी व्यवस्था कर भी दे तो मै उसका स्पर्श नहीं करूँगा। साधना में भोगों की वृत्ति नहीं होनी चाहिए, ये विचार करना चाहिए । अपने इन्द्रियों को समेटना है, क्या देखना, क्या सुनना, क्या बोलना, क्या खाना उन सभी पर नियन्त्रण हो जाए किन्तु हम लोग बाद में पछताते हैं, पहले ही सावधानी रखनी चाहिए।
विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं(म्) रसोऽप्यस्य, परं(न्) दृष्ट्वा निवर्तते ॥2.59॥
विवेचन: भगवान कहते हैं विषयों के त्याग करने से बात नहीं बनेगी। मैंने आम छोड़ दिया है किन्तु आम देखते ही मुख में पानी आ जाता है। विषयों के आसक्ति का त्याग आवश्यक है। चाय पीना लोग छोड़ देंगे किन्तु बताते फिरेंगे कि मैंने चाय पीना छोड़ दिया है। जेल में रहने वाला ब्रह्मचारी होता है क्या? वह ब्रहाचारी नहीं है, उसको उपलब्ध नहीं है इसलिए अपने को ब्रह्मचारी बताता है। ये द्विमार्गी मामला है। एक से हटाओ और दूसरे में लगाओ अर्थात्् भगवान की तरफ उन्मुखता हो।
भगवान अध्याय 6. 35 में कहते है कि:
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।
अर्थात ये मन अभ्यास और वैराग्य से वश में आता है। चार मित्र एक पाँचवे मित्र के यहाँ वैवाहिक कार्यक्रम में गए। उसने अखबार में एक लड्डू खाने के लिए दे दिया और चला गया। सभी बिना खाए बाहर निकल आए। एक ने कहा मैं कोई भिखारी हूँ कि इस तरह लड्डू खाता, दूसरे ने कहा कम से कम दो लड्डू तो दे देता, तीसरे ने कहा सुबह ही इच्छा नहीं थी इसलिए नहीं खाया और अन्त में चौथे ने कहा कि जब इन तीनो ने नहीं खाया तो मै कैसे खा लेता, भूख तो थी। प्रश्न उठता है कि क्या इन लोगों में लड्डू के प्रति आसक्ति थी? विषय के प्रति आसक्ति है, विषय मात्र को छोड़ दिया किन्तु बात नहीं बनेगी जब तक त्याग की आसक्ति पाले हुए हैं। अच्छे से अच्छे साधक असफल हो जाते हैं।
यततो ह्यपि कौन्तेय, पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि, हरन्ति प्रसभं(म्) मनः॥2.60॥
तानि सर्वाणि संयम्य, युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि, तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥2.61॥
ध्यायतो विषयान्पुंस:(स्), सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्सञ्जायते कामः(ख्), कामात्क्रोधोऽभिजायते॥2.62॥
एक पति - पत्नी आपस में झगड़ते रहते थे। रविवार का दिन था पति के अवकाश के कारण घर पर ही होने से दोनों सुबह से ही झगड़ रहे थे और दो बजे दिन तक इसी में लगे रहे। उनके एक पड़ोसी मित्र से रहा न गया वे उनके घर पहुँच गए और देखा दोनों का मुख क्रोध से लाल हो गया था और पूछा कि किस बात से आप लोग झगड़ रहे हो, दोनो एक दूसरे को देखने लगे और कहने लगे पहले इसने शुरू किया तो दूसरे ने कहा पहले इन्होंने शुरु किया किन्तु झगड़े का कारण कोई नहीं बता पाया। क्रोध का मामला ऐसे ही होता है। बात कहाँ थी कहाँ पहुँच जाती है, विश्वास नहीं होता। एक पानी के गिलास को खींच कर मारने से चोट ज्यादा लगेगी बनिस्पत स्वाभाविक रूप से गिलास गिरने से। इसी प्रकार क्रोध का वेग नुकसानदेय है।
क्रोधाद्भवति सम्मोह:(स्), सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥2.63॥
रागद्वेषवियुक्तैस्तु, विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा, प्रसादमधिगच्छति॥2.64॥
MONEY IS GOOD SERVANT BUT A BAD MASTER
अर्थात् धन को ही सब कुछ मान लिया तो हमने सब कुछ नष्ट कर लिया। भगवान कहते है ऐसा करोगे तो प्रसन्नता को प्राप्त करोगे। भगवान पर चढाकर जो प्राप्त होता है उसे प्रसाद कहते है। गोस्वामी तुलसी दास जी प्रसाद के बारे में कहते हैं:
प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा॥
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं॥
भण्डारे में जो कुछ मिलता है उसे कितने चाव से खाते हैं। ठाकुर जी को वस्त्र पहनाएँ और फिर स्वयं पहनने पर कितनी प्रसन्नता प्राप्त होती है। अपने घर में भोजन का भोग चढ़ाने कर प्रसाद मानकर ग्रहण करने पर कोई दोष नहीं दिखाई देता। इसी प्रकार जो कुछ भी मिला; पत्नी, बेटा, पति, भाई ,पुत्री आदि सबको ईश्वर की देन और प्रसाद मानकर जीवन यापन करना चाहिए। भरत ने भगवान राम के खड़ाऊँ को प्रसाद स्वरूप स्वीकार कर चौदह वर्ष तक पूजन करते है और अपने भ्राता राम जी के प्रतिनिधित्व को उसमें आत्मसात कर जीवन यापन करते हैं।
प्रसादे सर्वदुःखानां(म्), हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु, बुद्धिः(फ्) पर्यवतिष्ठते॥2.65॥
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य, न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः(श्) शान्ति:(र्), अशान्तस्य कुतः(स्) सुखम्॥2.66॥
तीन तरह की जीवन शैली होती है:
1. निकृष्ट: कमाई कम, खर्च ज्यादा, जीवन हमेशा अशान्त रहेगा और वह कभी सुखी नहीं रह सकता और कभी शान्ति को नहीं प्राप्त होगा।
2. मध्यम: खूब कमाई और खूब खर्चा, सुख ज्यादा शान्ति कम। 5-5 लाख के थिएटर लगे हैं किन्तु कोई देखने वाला नहीं।
3. उत्तम: कम कमाई और कम खर्चा,शान्ति जन्य जीवन है।
हम लोग निकृष्ट जीवन की तरफ उन्मुख हैं। मकान बढ़िया बनाने में सब कुछ लगा देते हैं फिर अशान्त रहते है।
इन्द्रियाणां(म्) हि चरतां(य्ँ), यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां(व्ँ), वायुर्नावमिवाम्भसि॥2.67॥
तस्माद्यस्य महाबाहो, निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्य:(स्), तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥2.68॥
या निशा सर्वभूतानां(न्), तस्यां(ञ्) जागर्ति संयमी।
यस्यां(ञ्) जाग्रति भूतानि, सा निशा पश्यतो मुनेः॥2.69॥
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं(म्),समुद्रमापः(फ्) प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं(म्) प्रविशन्ति सर्वे,
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥2.70॥
विहाय कामान्यः(स्) सर्वान्, पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहङ्कारः(स्), स शान्तिमधिगच्छति॥2.71॥
एषा ब्राह्मी स्थितिः(फ्) पार्थ, नैनां(म्) प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि, ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥2.72॥
इस प्रकार सांख्य योग का विवेचन यहीं सम्पन्न होता है।
प्रश्नोत्तर
प्रश्न कर्ता: सुरेंद्र शर्मा भैया
प्रश्न: 40 वें श्लोक में वर्णित कर्म योग का जीविका निर्वाह में कैसे करते हैं?
उत्तर: कर्म योग आजीविका में एक है, जो कुछ भी हम अन्य कार्य करते हैं जैसे उठना, बैठना, जागना, चलना, सोना ,साँस लेना आदि में हम कर्म फल की आसक्ति से बन्धते हैं,जब कामना करते हैं। भगवान कहते हैं - हे अर्जुन! कर्म के कर्तापन और भोक्तापन का त्याग कर दो तो बन्धन नहीं होगा। जिस भी भूमिका में ईश्वर ने नियुक्त किया है उसमे कर्तव्य बुद्धि से कर्म करो। उदाहरण के लिए विचार करें कि बैंक के कैशियर के पास नकदी दस लाख आए, दो करोड़ आए अथवा शून्य भी आए तो उसके ऊपर कोई अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि उसे कर्मफल से जोड़ा नहीं। कर्तापन और भोक्तापन के भाव से मुक्त होकर कर्म करना ही कर्म योग है। इस प्रकार कर्मफल अनुकूल होगा तो सुख से उछलेगा नहीं और प्रतिकूलता की दशा में दुःख का भी अनुभव नहीं करेगा। ऐसे अनेक उदाहरण है जिन्होंने अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुए भगवान की प्राप्ति की है। आपने पूछा आरम्भ का नाश क्या है? इसका मतलब मेरा कोई कर्म नहीं बन रहा है और हम कर्म फल से मुक्त हो गए, फल मिलने पर मैं उससे बन्धता नहीं। तीसरा प्रश्न आपने अपूर्ण कर्म का तात्पर्य क्या है पूछा है। इसका मतलब है कि हमारा कर्तापन और भोक्तापन का भाव पूर्ण रूपेण नही गया। सूर्य के प्रकाश से फसल पक गई किन्तु सूर्य का कोई कर्ता भाव नहीं है, उसे कोई पुण्य नहीं मिलता और फसल यदि जल भी गई तो कोई पाप भी नहीं मिलता। सूर्य का एक निःस्पृह भाव है।
प्रश्न कर्ता- हनुमान प्रसाद भैय्या
प्रश्न - 71 वें श्लोक में आपने बताया साधक अच्छे भाव से स्त्री से स्पर्श करता है तो अच्छा कार्य किया? 70 वें श्लोक का भी अर्थ समझाइए।
उत्तर: बुद्ध ने कहाँ उसको दोषी माना। जो भावना हीन है उसको शान्ति कैसे मिलेगी। शान्ति से सुख तो मिल जाएगा किन्तु सुख से शान्ति नहीं मिलेगी। 70 वें श्लोक का अर्थ है कि जैसे नदी सागर में समा जाती है तो भी सागर शान्त ही बना रहता है ठीक उसी प्रकार भोगों के होते हुए भी स्थितप्रज्ञ पुरुष को कोई अन्तर नहीं पड़ता।
प्रश्न कर्ता - सुषमा दीदी
प्रश्न- क्रोध आने पर बाद में अनुभव होता है कि गलत हो गया। इस पर नियन्त्रण कैसे करें।
उत्तर - क्रोध का ईंधन विषयों का ध्यान, उसकी कामना है। जब तक इनका निराकरण नहीं करेंगे तब तक क्रोध नहीं समाप्त होगा। ईंधन में माचिस लगायेगें तो आग तो लगेगी ही। विषयों की कामना माचिस और आग है। ये साधना और संयम से आएगा।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे साङ्ख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥