विवेचन सारांश
मन तथा बुद्धि का समन्वय
विवेचन सत्र का शुभारम्भ दीप प्रज्वलन तथा गुरु वन्दना के साथ हुआ। आज सर्वप्रथम आदि योगी भगवान महेश्वर, कृष्ण योगेश्वर, जगद्गुरु शङ्कराचार्य तथा गुरुदेव गोविन्द देव जी महाराज को नमन किया गया तथा इस सत्र का शुभारम्भ किया गया। इस अध्याय को भक्ति योग बताया गया है।
यह कल-कल छल-छल बहती क्या कहती गङ्गा धारा।
युग-युग से बहता आता यह पुण्य प्रवाह हमारा।।
इस भगवद्गीता ज्ञान को गुरु परम्परा का प्रसाद बताया गया है। हमारे मन में यह विचार उठता है कि हम यह संस्कृत में ही क्यों पढ़ें? अन्य भाषाओं में क्यों नहीं। लेकिन अन्य भाषाओं में टीका तो लिखी है पर भगवान के श्री मुख से जिन शब्दों का उच्चारण हुआ है वह तो मन्त्र बन गए, इस प्रकार हम सिर्फ गीता का अध्ययन नहीं करते हैं। हम मन्त्राध्ययन भी कर रहे हैं। इसलिए भगवद्गीता के श्लोक शुद्ध संस्कृत में अध्ययन करना अपने आप में एक मन्त्र उपासना भी है। गीता परिवार शुद्ध संस्कृत भाषा में भगवद्गीता को पढ़ना सिखाता है और एक बार पढ़ना सीख गए तो फिर जानना भी सिखाता है। गीता पढ़ना और जानना ही सब कुछ नहीं है। उनको आचरण में भी लाना चाहिए। हम उनको अपने आचरण में लाने के लिए छोटे-छोटे प्रयास कर सकते हैं।
गीता परिवार में जानबूझकर बारहवें अध्याय से अध्ययन शुरू किया जाता है क्योंकि भगवान ने भी कहा है कि सबसे सहज मार्ग जो है, वह भक्तियोग है। बाकी सब मार्ग थोड़े कठिन हैं। हम प्रकृति से जो इस देह रूप में आए हैं, वह प्रकट रूप है- इस रूप में हम अपने आपको आसानी से जान सकते हैं। उसी प्रकार भगवान को भी हम सगुण साकार रूप में देखें, प्रकट रूप में देखें तो, उनकी उपासना करना सरल हो जाता है। जब भगवान हमें भक्तियोग के बारे में समझाने लगे तो भगवान ने कहा यहाँ दो बातों का समन्वय करना होगा, जब तक यह दो बातें जुड़ नहीं जायेंगी, तब तक आप योग मार्ग पर आगे बढ़ ही नहीं पाएँगे। इनमें से एक है मानना और दूसरी बात है जानना। मन से जिन बातों को मान लिया जाता है, वह मानना कहलाता है पर जानना बुद्धि में घटित होता है पर जब तक मानना और जानना बुद्धि में घटित नहीं होता तब तक हम इस मार्ग पर आगे नहीं बढ़ सकते। भगवान इस अध्याय में कहते हैं कि मेरे अन्दर अपने मन को लगा दो, अपनी बुद्धि का मेरे अन्दर निवेश कर दो, Invest yourself in me.
हम भगवान को मानते तो हैं पर जानते नहीं। भगवान के मन्दिर के आगे से निकलने पर भी हम सब सर्वप्रथम हाथ जोड़ते हैं और यह कहते हैं कि- भगवान क्षमा करना, मैं बहुत जल्दी में हूँ, इसलिए अन्दर नहीं आ सकता।इसलिए बाहर से ही प्रणाम कर रहा हूँ। यह प्रणाम डर से है कि तेरी मन्दिर के पास से तो गया, पर तेरे पास नहीं आया। भगवान डरने की वस्तु नहीं, भगवान तो प्रेम करने वाले हैं। भगवान के पास एक मिनट भी जाएँ तो फुर्सत से जाएँ। अपना काम लेकर न जाये। ऐसा न करें कि भगवान की पूजा भी करते जायें और मोबाइल से बात भी करते जायें। भगवान के पास जब भी जाएँ, सब कार्यों से मुक्त होकर जायें और भगवान में ब्रह्मचित्त हो जाएँ, भगवान के सानिध्य का अनुभव करें। मन और बुद्धि दोनों का समावेश वहॉं होना चाहिए। ऐसा न हो कि बुद्धि कहीं और हो और मन वहॉं लगा रहे, तो वहॉं कुछ घटने वाला नहीं। अगर कुछ घटना होनी है, तो मन और बुद्धि दोनों का समन्वय होना आवश्यक है। दोनों का साथ-साथ समर्पण होना जरूरी है क्योंकि बुद्धि हजारों सवाल पूछती है।
एक बहुत बड़े सन्त थे, उनका नाम था - शरणानन्द जी महाराज, वे प्रज्ञा चक्षु थे। जन्मान्ध थे, आँखें नहीं थी। अलौकिक दृष्टि नहीं थी, पर पारलौकिक दृष्टि थी। पारलौकिक दृष्टि से उन्होंने बहुत कुछ जान लिया था। एक बार स्वामी जी महाराज घूमने को निकले, घूमते हुए एक वृक्ष के नीचे बैठ गए उनके शिष्य भी बैठ गए। उन्होंने वहॉं एक पत्थर उठाया और बहुत देर तक उसे हाथों पर घूमाते रहे और उसके बाद जब जाने का समय आया तो उन्होंने उस पत्थर से कहा, कल फिर मिलने आऊँगा तुमसे, प्रतीक्षा करना। यह घटना सभी शिष्यों ने देखी पर एक बुद्धिवादी शिष्य ने सोचा कि इन्हें दिखता तो है नहीं। क्या कल ये इसी पेड़ के नीचे आ पाएँगे? कल ध्यान से देखता हूँ और यह सोचकर दूसरे दिन वह सबसे आगे की पंक्ति में खड़ा हो गया कि चलिए महाराज चलते हैं- घूमने के लिए, तो महाराज ने कहा, चलो। महाराज चलते-चलते उसी पेड़ के नीचे आए और उन्होंने वही पत्थर उठाया और उस पत्थर से कहा, मैंने कल कहा था न कि मैं आऊॅगा, लो मैं आ गया। बुद्धिवादी शिष्य ने सोचा कि जरूर महाराज कदमों को गिन कर चले होंगे और बायें तरफ मुड़ना है और उसके बाद तीन कदम पर यह पत्थर रखा है। यह सोचकर उन्होंने उस पत्थर को उठाया। वह शिष्य यह सोच रहा था, तभी महाराज ने उस पत्थर से कहा--अब जाने का समय हो गया है। कल फिर दोबारा से मिलने आऊँगा, प्रतीक्षा करना। उस बुद्धिवादी शिष्य के मन में विचार आया कि महाराज की परीक्षा लेकर देखनी चाहिए। वह शिष्य सब के जाने के बाद अन्त में आया। उसने वह पत्थर उठाया और कुछ दूरी पर जो वह पत्थर बाई तरफ पड़ा था तो उसे दायें ओर उठाकर फेंक दिया। उस पत्थर की अच्छी तरह पहचान कर ली। दूसरे दिन जब शरणानन्द जी महाराज उस पेड़ के नीचे आए तो, वह कुछ देर वहॉं रुके फिर कुछ कदम आगे चलकर दायें ओर मुड़े और उस पत्थर को उठाकर कहा कि अरे तू यहॉं कैसे आ गया। क्या तेरे भी पैर निकल आए। यह देखकर वह बुद्धिवादी शिष्य बहुत विस्मित हुआ और महाराज के चरणों में नतमस्तक होकर क्षमा प्रार्थना करने लगा।
उस बुद्धिवादी शिष्य ने पूछा कि महाराज आपको कैसे पता चला कि यह पत्थर यहॉं है। शरणानन्द जी महाराज ने कहा कि सम्पूर्ण जगत में चेतना व्याप्त है। इस पत्थर में भी चेतना है। जब इस पत्थर को मैंने सहलाया तो इसकी चेतना जागृत हो गई। फिर यह पत्थर मुझे पुकारने लगा और जब इस पत्थर ने मुझे पुकारा तो मैं वहॉं चला आया। यह सुनकर वह शिष्य महाराज के चरणों में दण्डवत करने लगा, कहा कि महाराज मुझे क्षमा कर दें। मैंने आप पर सन्देह किया।
आज कल पालकियां निकलती है जो आलन्दी से होते हुए पण्ढरपुर तक जाती हैं। लोग झूमते नाचते हरि सङ्कीर्तन करते हुए इन पालकिओं के पीछे जाते हैं और एकादशी के दिन पण्ढरपुर पहुँचकर भगवान विट्ठल के चरणों में दण्डवत् प्रणाम करते हैं। जब विठोबा का साक्षात दर्शन करते हैं, उनके चरणों में गिर कर उनके अन्दर जो युगों-युगों से व्याप्त भावनाएँ हैं, उनको प्रदर्शित करते हैं तो वहाँ के विट्ठल भगवान में कितनी चेतना जागृत हुई होगी यह अनुभव करने वाली बात है। यह चेतना ही तो सभी भक्तों को खींचती है। लोग अपने सभी कामों को छोड़कर वहाँ जाने के लिए आतुर रहते हैं।
पन्द्रह दिनों तक नाचते गाते हरि सङ्कीर्तन करते चलते रहते हैं कि मैं भगवान का दर्शन करूँगा और वहाँ पहुँचते ही बिठोवा की मूर्ति को देखते ही अथवा उनके दर्शन करते ही उनकी आँखें भर जाती हैं। वे सोचते हैं कि मैं धन्य हो जाऊँगा जब यह सिर विठोबा के चरणों को स्पर्श करेगा। जब तक मन और बुद्धि का समन्वय नहीं होता है, तब तक इस प्रकार की घटना घटती नहीं हैं। यहाँ भगवान यह समझाते हैं कि तू मेरे में मन और बुद्धि दोनों लगा तो, मैं तेरा उद्धार करूँगा।
भगवान में चित्त लगाना इतना आसान नहीं है। इसके लिए थोड़ा अभ्यास करना पड़ता है। भगवान कहते हैं तू मुझे प्राप्त कर लेगा। इसमें मुझे कोई संशय नहीं है, पर इसके लिए नित्य चेष्टा होनी चाहिए -- नित्य युक्ता उपासते। उपासना का अर्थ होता है-आकर बगल में बैठना। उप् यानि बगल और आसना यानि आसन पर बैठेगा। मेरे पास बैठेगा तो तेरी मन और बुद्धि दोनों मुझ में लगी रहेगी। इसका अभ्यास करते रहना चाहिए और अगर यह अभ्यास करना इतना कठिन है तो फिर एक कर्म कर, जो भी कर्म करे, वह मुझे समर्पित करते हुए कर, यह सोचते हुए कर कि तू हर कर्म मेरे लिए ही कर रहा है।
तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि।
तुझ में यह सारा संसार।।
इसी भावना से अंतरभर।
मिलूँ सभी से तुझे निहार।
सर्वत्र भगवान को महसूस करना चाहिए। अगर यह भी नहीं हो पा रहा है तो अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों और मन को अपने वश में करके कर्म फल का त्याग कर दें। निरपेक्ष बन जा, जब यह अनपेक्षिता, निरपेक्षता, निष्कामता की भावना तुझ में आएगी तो तू मुझे प्राप्त हो जाएगा। ऐसा भगवान इस अध्याय में बताते हैं। भगवान मन को शान्त करने की विधि बता रहे हैं। कर्म फल का त्याग करके ही मन को शान्त किया जा सकता है। जब तक मन में आकांक्षा रहेगी तब तक मन शान्त नहीं हो सकता। कुछ विद्यार्थी मात्र अच्छे अङ्कों के लिए पढ़ते हैं और जबकि कुछ समझ कर पढ़ते हैं। फल तो मिलता ही है पर फल की अपेक्षा का त्याग करना पड़ता है तब उससे अच्छे फल की प्राप्ति होती है। हम बच्चों के साथ इस भावना से रहते हैं कि बच्चे हमारी सेवा करेंगे। अगर यह भावना हमारे अन्दर से समाप्त हो जाए और बच्चे थोड़ी भी सेवा कर दें तो हमारा मन अति प्रसन्न हो जाता है। बहू के थोड़ी भी की गई सेवा यदि आप प्रसन्न होकर स्वीकार कर लेते हैं तो उसे भी प्रसन्नता की प्राप्ति होती है। निरपेक्षता का भाव मन में आना चाहिए। हम भगवान के पास जाकर भी कहते हैं। मेरा यह काम कर दो - मैं आपको नारियल चढ़ा दूँगा। भगवान के आगे जाकर सिर्फ नतमस्तक हो जाने से ही भगवान हमें स्वीकार कर लेते हैं और अच्छे से अच्छे फल की प्राप्ति करवाते हैं। भगवान कहते हैं कि तू सिर्फ अपना समर्पण मुझे कर दे तो मैं तुझे प्राप्त हो जाऊँगा। सारी सिद्धियाँ तुझे प्राप्त हो जाएँगी।
भगवान का धन्यवाद देते रहना चाहिए कि भगवान आज फिर तुमने जगा दिया, नहीं तो सोया का सोया ही रह सकता था। भगवान आज फिर साँस चल रही है। मेरे भगवान किस मुँह से धन्यवाद करूँ, कितना कुछ दिया है। ये इन्द्रियाँ दी है, यह जिह्वा दी, किस तरह तेरा धन्यवाद करूँ। यह धन्यवाद के भाव आँखों से छलकने चाहिए। भगवान कहते हैं जब तेरे नि:स्वार्थ भाव से आँखें छलक जाए, तो मैं तुझे प्राप्त हो जाऊँगा। भगवान कहते हैं कि मन और इन्द्रियों को वश में कर ले तो यह घटना घटित हो जाएगी। तेरा मन शान्त हो जाएगा और शान्त मन ही साधना के योग्य होता है। शान्त मन में ही भगवान वास करते हैं जिनका मन अशान्त होता है, कूड़ा करकट है, राग है, द्वेष है, कामना है। भगवान वहॉं वास नहीं करते हैं।
शान्त हृदय में ही भगवान का वास होता है। मन की शान्ति ही भगवान का आसन होती है। वहीं पर भगवान प्रतिष्ठित हो सकते हैं।
यह कल-कल छल-छल बहती क्या कहती गङ्गा धारा।
युग-युग से बहता आता यह पुण्य प्रवाह हमारा।।
इस भगवद्गीता ज्ञान को गुरु परम्परा का प्रसाद बताया गया है। हमारे मन में यह विचार उठता है कि हम यह संस्कृत में ही क्यों पढ़ें? अन्य भाषाओं में क्यों नहीं। लेकिन अन्य भाषाओं में टीका तो लिखी है पर भगवान के श्री मुख से जिन शब्दों का उच्चारण हुआ है वह तो मन्त्र बन गए, इस प्रकार हम सिर्फ गीता का अध्ययन नहीं करते हैं। हम मन्त्राध्ययन भी कर रहे हैं। इसलिए भगवद्गीता के श्लोक शुद्ध संस्कृत में अध्ययन करना अपने आप में एक मन्त्र उपासना भी है। गीता परिवार शुद्ध संस्कृत भाषा में भगवद्गीता को पढ़ना सिखाता है और एक बार पढ़ना सीख गए तो फिर जानना भी सिखाता है। गीता पढ़ना और जानना ही सब कुछ नहीं है। उनको आचरण में भी लाना चाहिए। हम उनको अपने आचरण में लाने के लिए छोटे-छोटे प्रयास कर सकते हैं।
गीता परिवार में जानबूझकर बारहवें अध्याय से अध्ययन शुरू किया जाता है क्योंकि भगवान ने भी कहा है कि सबसे सहज मार्ग जो है, वह भक्तियोग है। बाकी सब मार्ग थोड़े कठिन हैं। हम प्रकृति से जो इस देह रूप में आए हैं, वह प्रकट रूप है- इस रूप में हम अपने आपको आसानी से जान सकते हैं। उसी प्रकार भगवान को भी हम सगुण साकार रूप में देखें, प्रकट रूप में देखें तो, उनकी उपासना करना सरल हो जाता है। जब भगवान हमें भक्तियोग के बारे में समझाने लगे तो भगवान ने कहा यहाँ दो बातों का समन्वय करना होगा, जब तक यह दो बातें जुड़ नहीं जायेंगी, तब तक आप योग मार्ग पर आगे बढ़ ही नहीं पाएँगे। इनमें से एक है मानना और दूसरी बात है जानना। मन से जिन बातों को मान लिया जाता है, वह मानना कहलाता है पर जानना बुद्धि में घटित होता है पर जब तक मानना और जानना बुद्धि में घटित नहीं होता तब तक हम इस मार्ग पर आगे नहीं बढ़ सकते। भगवान इस अध्याय में कहते हैं कि मेरे अन्दर अपने मन को लगा दो, अपनी बुद्धि का मेरे अन्दर निवेश कर दो, Invest yourself in me.
हम भगवान को मानते तो हैं पर जानते नहीं। भगवान के मन्दिर के आगे से निकलने पर भी हम सब सर्वप्रथम हाथ जोड़ते हैं और यह कहते हैं कि- भगवान क्षमा करना, मैं बहुत जल्दी में हूँ, इसलिए अन्दर नहीं आ सकता।इसलिए बाहर से ही प्रणाम कर रहा हूँ। यह प्रणाम डर से है कि तेरी मन्दिर के पास से तो गया, पर तेरे पास नहीं आया। भगवान डरने की वस्तु नहीं, भगवान तो प्रेम करने वाले हैं। भगवान के पास एक मिनट भी जाएँ तो फुर्सत से जाएँ। अपना काम लेकर न जाये। ऐसा न करें कि भगवान की पूजा भी करते जायें और मोबाइल से बात भी करते जायें। भगवान के पास जब भी जाएँ, सब कार्यों से मुक्त होकर जायें और भगवान में ब्रह्मचित्त हो जाएँ, भगवान के सानिध्य का अनुभव करें। मन और बुद्धि दोनों का समावेश वहॉं होना चाहिए। ऐसा न हो कि बुद्धि कहीं और हो और मन वहॉं लगा रहे, तो वहॉं कुछ घटने वाला नहीं। अगर कुछ घटना होनी है, तो मन और बुद्धि दोनों का समन्वय होना आवश्यक है। दोनों का साथ-साथ समर्पण होना जरूरी है क्योंकि बुद्धि हजारों सवाल पूछती है।
एक बहुत बड़े सन्त थे, उनका नाम था - शरणानन्द जी महाराज, वे प्रज्ञा चक्षु थे। जन्मान्ध थे, आँखें नहीं थी। अलौकिक दृष्टि नहीं थी, पर पारलौकिक दृष्टि थी। पारलौकिक दृष्टि से उन्होंने बहुत कुछ जान लिया था। एक बार स्वामी जी महाराज घूमने को निकले, घूमते हुए एक वृक्ष के नीचे बैठ गए उनके शिष्य भी बैठ गए। उन्होंने वहॉं एक पत्थर उठाया और बहुत देर तक उसे हाथों पर घूमाते रहे और उसके बाद जब जाने का समय आया तो उन्होंने उस पत्थर से कहा, कल फिर मिलने आऊँगा तुमसे, प्रतीक्षा करना। यह घटना सभी शिष्यों ने देखी पर एक बुद्धिवादी शिष्य ने सोचा कि इन्हें दिखता तो है नहीं। क्या कल ये इसी पेड़ के नीचे आ पाएँगे? कल ध्यान से देखता हूँ और यह सोचकर दूसरे दिन वह सबसे आगे की पंक्ति में खड़ा हो गया कि चलिए महाराज चलते हैं- घूमने के लिए, तो महाराज ने कहा, चलो। महाराज चलते-चलते उसी पेड़ के नीचे आए और उन्होंने वही पत्थर उठाया और उस पत्थर से कहा, मैंने कल कहा था न कि मैं आऊॅगा, लो मैं आ गया। बुद्धिवादी शिष्य ने सोचा कि जरूर महाराज कदमों को गिन कर चले होंगे और बायें तरफ मुड़ना है और उसके बाद तीन कदम पर यह पत्थर रखा है। यह सोचकर उन्होंने उस पत्थर को उठाया। वह शिष्य यह सोच रहा था, तभी महाराज ने उस पत्थर से कहा--अब जाने का समय हो गया है। कल फिर दोबारा से मिलने आऊँगा, प्रतीक्षा करना। उस बुद्धिवादी शिष्य के मन में विचार आया कि महाराज की परीक्षा लेकर देखनी चाहिए। वह शिष्य सब के जाने के बाद अन्त में आया। उसने वह पत्थर उठाया और कुछ दूरी पर जो वह पत्थर बाई तरफ पड़ा था तो उसे दायें ओर उठाकर फेंक दिया। उस पत्थर की अच्छी तरह पहचान कर ली। दूसरे दिन जब शरणानन्द जी महाराज उस पेड़ के नीचे आए तो, वह कुछ देर वहॉं रुके फिर कुछ कदम आगे चलकर दायें ओर मुड़े और उस पत्थर को उठाकर कहा कि अरे तू यहॉं कैसे आ गया। क्या तेरे भी पैर निकल आए। यह देखकर वह बुद्धिवादी शिष्य बहुत विस्मित हुआ और महाराज के चरणों में नतमस्तक होकर क्षमा प्रार्थना करने लगा।
उस बुद्धिवादी शिष्य ने पूछा कि महाराज आपको कैसे पता चला कि यह पत्थर यहॉं है। शरणानन्द जी महाराज ने कहा कि सम्पूर्ण जगत में चेतना व्याप्त है। इस पत्थर में भी चेतना है। जब इस पत्थर को मैंने सहलाया तो इसकी चेतना जागृत हो गई। फिर यह पत्थर मुझे पुकारने लगा और जब इस पत्थर ने मुझे पुकारा तो मैं वहॉं चला आया। यह सुनकर वह शिष्य महाराज के चरणों में दण्डवत करने लगा, कहा कि महाराज मुझे क्षमा कर दें। मैंने आप पर सन्देह किया।
आज कल पालकियां निकलती है जो आलन्दी से होते हुए पण्ढरपुर तक जाती हैं। लोग झूमते नाचते हरि सङ्कीर्तन करते हुए इन पालकिओं के पीछे जाते हैं और एकादशी के दिन पण्ढरपुर पहुँचकर भगवान विट्ठल के चरणों में दण्डवत् प्रणाम करते हैं। जब विठोबा का साक्षात दर्शन करते हैं, उनके चरणों में गिर कर उनके अन्दर जो युगों-युगों से व्याप्त भावनाएँ हैं, उनको प्रदर्शित करते हैं तो वहाँ के विट्ठल भगवान में कितनी चेतना जागृत हुई होगी यह अनुभव करने वाली बात है। यह चेतना ही तो सभी भक्तों को खींचती है। लोग अपने सभी कामों को छोड़कर वहाँ जाने के लिए आतुर रहते हैं।
पन्द्रह दिनों तक नाचते गाते हरि सङ्कीर्तन करते चलते रहते हैं कि मैं भगवान का दर्शन करूँगा और वहाँ पहुँचते ही बिठोवा की मूर्ति को देखते ही अथवा उनके दर्शन करते ही उनकी आँखें भर जाती हैं। वे सोचते हैं कि मैं धन्य हो जाऊँगा जब यह सिर विठोबा के चरणों को स्पर्श करेगा। जब तक मन और बुद्धि का समन्वय नहीं होता है, तब तक इस प्रकार की घटना घटती नहीं हैं। यहाँ भगवान यह समझाते हैं कि तू मेरे में मन और बुद्धि दोनों लगा तो, मैं तेरा उद्धार करूँगा।
भगवान में चित्त लगाना इतना आसान नहीं है। इसके लिए थोड़ा अभ्यास करना पड़ता है। भगवान कहते हैं तू मुझे प्राप्त कर लेगा। इसमें मुझे कोई संशय नहीं है, पर इसके लिए नित्य चेष्टा होनी चाहिए -- नित्य युक्ता उपासते। उपासना का अर्थ होता है-आकर बगल में बैठना। उप् यानि बगल और आसना यानि आसन पर बैठेगा। मेरे पास बैठेगा तो तेरी मन और बुद्धि दोनों मुझ में लगी रहेगी। इसका अभ्यास करते रहना चाहिए और अगर यह अभ्यास करना इतना कठिन है तो फिर एक कर्म कर, जो भी कर्म करे, वह मुझे समर्पित करते हुए कर, यह सोचते हुए कर कि तू हर कर्म मेरे लिए ही कर रहा है।
तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि।
तुझ में यह सारा संसार।।
इसी भावना से अंतरभर।
मिलूँ सभी से तुझे निहार।
सर्वत्र भगवान को महसूस करना चाहिए। अगर यह भी नहीं हो पा रहा है तो अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों और मन को अपने वश में करके कर्म फल का त्याग कर दें। निरपेक्ष बन जा, जब यह अनपेक्षिता, निरपेक्षता, निष्कामता की भावना तुझ में आएगी तो तू मुझे प्राप्त हो जाएगा। ऐसा भगवान इस अध्याय में बताते हैं। भगवान मन को शान्त करने की विधि बता रहे हैं। कर्म फल का त्याग करके ही मन को शान्त किया जा सकता है। जब तक मन में आकांक्षा रहेगी तब तक मन शान्त नहीं हो सकता। कुछ विद्यार्थी मात्र अच्छे अङ्कों के लिए पढ़ते हैं और जबकि कुछ समझ कर पढ़ते हैं। फल तो मिलता ही है पर फल की अपेक्षा का त्याग करना पड़ता है तब उससे अच्छे फल की प्राप्ति होती है। हम बच्चों के साथ इस भावना से रहते हैं कि बच्चे हमारी सेवा करेंगे। अगर यह भावना हमारे अन्दर से समाप्त हो जाए और बच्चे थोड़ी भी सेवा कर दें तो हमारा मन अति प्रसन्न हो जाता है। बहू के थोड़ी भी की गई सेवा यदि आप प्रसन्न होकर स्वीकार कर लेते हैं तो उसे भी प्रसन्नता की प्राप्ति होती है। निरपेक्षता का भाव मन में आना चाहिए। हम भगवान के पास जाकर भी कहते हैं। मेरा यह काम कर दो - मैं आपको नारियल चढ़ा दूँगा। भगवान के आगे जाकर सिर्फ नतमस्तक हो जाने से ही भगवान हमें स्वीकार कर लेते हैं और अच्छे से अच्छे फल की प्राप्ति करवाते हैं। भगवान कहते हैं कि तू सिर्फ अपना समर्पण मुझे कर दे तो मैं तुझे प्राप्त हो जाऊँगा। सारी सिद्धियाँ तुझे प्राप्त हो जाएँगी।
भगवान का धन्यवाद देते रहना चाहिए कि भगवान आज फिर तुमने जगा दिया, नहीं तो सोया का सोया ही रह सकता था। भगवान आज फिर साँस चल रही है। मेरे भगवान किस मुँह से धन्यवाद करूँ, कितना कुछ दिया है। ये इन्द्रियाँ दी है, यह जिह्वा दी, किस तरह तेरा धन्यवाद करूँ। यह धन्यवाद के भाव आँखों से छलकने चाहिए। भगवान कहते हैं जब तेरे नि:स्वार्थ भाव से आँखें छलक जाए, तो मैं तुझे प्राप्त हो जाऊँगा। भगवान कहते हैं कि मन और इन्द्रियों को वश में कर ले तो यह घटना घटित हो जाएगी। तेरा मन शान्त हो जाएगा और शान्त मन ही साधना के योग्य होता है। शान्त मन में ही भगवान वास करते हैं जिनका मन अशान्त होता है, कूड़ा करकट है, राग है, द्वेष है, कामना है। भगवान वहॉं वास नहीं करते हैं।
शान्त हृदय में ही भगवान का वास होता है। मन की शान्ति ही भगवान का आसन होती है। वहीं पर भगवान प्रतिष्ठित हो सकते हैं।
12.12
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्, ज्ञानाद्ध्यानं(व्ँ) विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्याग:(स्),त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥12.12॥
अभ्यास से शास्त्रज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है (और) ध्यान से (भी) सब कर्मों के फल की इच्छा का त्याग (श्रेष्ठ है)। क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति प्राप्त हो जाती है।
विवेचन:-त्याग से ही शान्ति प्राप्त होती है, त्याग किस बात का। बिना मर्म जाने किए अभ्यास करने से, ज्ञान श्रेष्ठ है और ज्ञान से परमात्मा स्वरुप का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी कर्म फल का त्याग श्रेष्ठ है क्योंकि इसी त्याग से आप परम शान्ति को प्राप्त हो जाते हैं। ध्यान तो भगवान की ओर जाने का एक सुगम मार्ग है। जब आप शान्त हो जाते हैं तो भगवान आपकी तरफ दौड़ना आरम्भ कर देते हैं, यह बहुत बड़ा अन्तर है। जब हम ध्यान करते हैं तो हम भगवान की और दौड़ते हैं और जब हम सब परम शान्ति को प्राप्त होते हैं तो भगवान उस आसन पर बैठने के लिए खुद दौड़ते हुए आते हैं।
एक होता है भक्त और दूसरा होता है- विभक्त। हम भगवान के सामने जाते जरूर हैं पर भगवान से एकरूपता स्थापित नहीं कर पाते हैं। भगवान से अलग रहते हैं, विभक्त होकर रहते हैं। जिस क्षण आप विभक्ति को छोड़ते हैं, भक्ति को प्राप्त होते हैं, अलग-अलग नहीं रह पाते हैं, एक हो जाते हैं। यह जो एकरूपता है, वह शान्ति से ही आ सकती है और शान्ति कर्मफल के त्याग द्वारा ही प्राप्त हो सकती है।
चार बातें बताई गई हैं अभ्यास, ज्ञान, ध्यान और कर्म फल का त्याग।
इन सीढ़ियों से ऊपर की ओर जाना है। पहले गीता का अभ्यास करें। उस अभ्यास का अनुभव करें। उसी अनुभव को ज्ञान कहते हैं। अभ्यास तो बाहर रहता है, पर जब घटना घटेगी तो ज्ञान में परिवर्तित हो जाती है क्योंकि अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है और ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है। जब ध्यान में बैठते हैं तो परम शान्ति का अनुभव होता है कि आ जाओ भगवान मेरे मन मन्दिर में। लेकिन ध्यान से भी कर्म फल का त्याग श्रेष्ठ है। त्याग से ही वह शान्ति प्राप्त होती है, अनन्त शान्ति। यह अद्भुत घटना घटती है, जब हम आगे की ओर बढ़ते हैं। इस अद्भुत घटना के घटने के बाद एक भक्त के जीवन में क्या परिवर्तन आता है? वह विभक्त से भक्त की ओर बढ़ता है। भक्त और भगवान के एकाकार हो जाने से जो अद्भुत घटना घटती है, उसके लक्षण बाहर भी तो दिखाई देते हैं। भगवान आगे बताते हैं कि वह भक्त फिर बाहर से कैसा दिखाई देता है?
एक होता है भक्त और दूसरा होता है- विभक्त। हम भगवान के सामने जाते जरूर हैं पर भगवान से एकरूपता स्थापित नहीं कर पाते हैं। भगवान से अलग रहते हैं, विभक्त होकर रहते हैं। जिस क्षण आप विभक्ति को छोड़ते हैं, भक्ति को प्राप्त होते हैं, अलग-अलग नहीं रह पाते हैं, एक हो जाते हैं। यह जो एकरूपता है, वह शान्ति से ही आ सकती है और शान्ति कर्मफल के त्याग द्वारा ही प्राप्त हो सकती है।
चार बातें बताई गई हैं अभ्यास, ज्ञान, ध्यान और कर्म फल का त्याग।
इन सीढ़ियों से ऊपर की ओर जाना है। पहले गीता का अभ्यास करें। उस अभ्यास का अनुभव करें। उसी अनुभव को ज्ञान कहते हैं। अभ्यास तो बाहर रहता है, पर जब घटना घटेगी तो ज्ञान में परिवर्तित हो जाती है क्योंकि अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है और ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है। जब ध्यान में बैठते हैं तो परम शान्ति का अनुभव होता है कि आ जाओ भगवान मेरे मन मन्दिर में। लेकिन ध्यान से भी कर्म फल का त्याग श्रेष्ठ है। त्याग से ही वह शान्ति प्राप्त होती है, अनन्त शान्ति। यह अद्भुत घटना घटती है, जब हम आगे की ओर बढ़ते हैं। इस अद्भुत घटना के घटने के बाद एक भक्त के जीवन में क्या परिवर्तन आता है? वह विभक्त से भक्त की ओर बढ़ता है। भक्त और भगवान के एकाकार हो जाने से जो अद्भुत घटना घटती है, उसके लक्षण बाहर भी तो दिखाई देते हैं। भगवान आगे बताते हैं कि वह भक्त फिर बाहर से कैसा दिखाई देता है?
अद्वेष्टा सर्वभूतानां(म्), मैत्रः(ख्) करुण एव च|
निर्ममो निरहङ्कारः(स्), समदुःखसुखः क्षमी||13||
सब प्राणियों में द्वेषभाव से रहित और मित्र भाव वाला (तथा) दयालु भी (और) ममता रहित, अहंकार रहित, सुख दुःख की प्राप्ति में सम, क्षमाशील, निरन्तर सन्तुष्ट, योगी, शरीर को वश में किये हुए, दृढ़ निश्चयवाला, मुझ में अर्पित मन बुद्धि वाला जो मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है। (12.13-12.14)
विवेचन:-समस्त प्राणियों के लिए कोई भी द्वेष की भावना नहीं रह जाती है। सभी के लिए मैत्री तथा करुणा का भाव मन में रहता है।
शत्रुता मन में जगे, तब मैत्री मङ्गल स्मरण हो।।
धर्म का विस्मरण हो, तब कृष्ण का अवतरण हो।।
जब-जब शत्रुता की भावना आये मङ्गल मैत्री का स्मरण हो जाय तब ईश्वर का अवतरण होता है। मेरे मन से अहङ्कार की भावना निकल जाए, 'मम' यानि मैंने किया। यह भाव पूरी तरह से मिट जाए,
निर्ममो निरहङ्कार: हो जाए। मैंने Vivechan Summary - Geeta Vivechans - LearnGeeta किया, यह भाव तो गलत है जब तक उसकी इच्छा नहीं होती, तब तक कोई भी कार्य नहीं हो सकता। हम तो केवल एक माध्यम बनाए गए हैं इस कार्य को करने के लिए। भगवान की इच्छा बिना कोई भी घटना नहीं घट सकती। हम कितना भी प्रयास कर लें। भगवान कहते हैं कि जो भक्त मुझसे जुड़ जाता है उसमें अहङ्कार की भावना आ ही नहीं सकती।
भगवान अर्जुन को ग्यारहवें अध्याय में बताते हैं कि तू कौन सा युद्ध कर रहा है। न तू मारने वाला है न तू मार सकता है। यह जो मरे हैं इनको तो मैंने पहले ही मार दिया है। अर्जुन तू केवल युद्ध कर और इनको जीत ले, यह जीत तुम्हारे नाम करने के लिए मैंने पहले ही उनको मार डाला है। तुम्हें निमित्त बना रहा हूँ यह तुम्हारा भाग्य है। तुम्हें इतिहास में अमर कर रहा हूँ यह तुम्हारा भाग्य है। भगवान ने हमें इस काम का निमित्त बनाया। हमारे मन में यह भावना होनी चाहिए, इसलिए यह मैंने किया। यहाँ अहङ्कार नहीं होना चाहिए। सुख और दु:ख में समान रहना चाहिए। सुख का अन्तिम परिणाम दु:ख होता है। हम अपने घर में एसी लगा कर अच्छे गद्दी पर बैठे रहते हैं, लेकिन उसका परिणाम होता है- अच्छी नींद। अगर हमें अच्छी नींद न आए तो यह सुख किस काम का?
एक बच्चा बहुत ज्यादा क्रिकेट खेलता है। उसे उससे सुख की अनुभूति होती है। बहुत ज्यादा खेलने से उसके परीक्षा में अङ्क कम आए तो उसे दुःख की प्राप्ति हुई क्योंकि सुख का अन्तिम छोर दु:ख है। कम मात्रा में क्रिकेट खेलता तो उसे आरोग्य की प्राप्ति होती, लेकिन उसने ज्यादा सुख अनुभव करने की कोशिश की, जिसका अन्तिम परिणाम दु:ख मिला। तो फिर सुख क्या है? और दु:ख क्या? दोनों एक ही धागे के दो छोर होते हैं। तभी भगवान कहते हैं, तेरा मन एक समान बना रहे। सर्दी क्या? गर्मी क्या? क्योंकि सुख और दुःख दोनों नश्वर होते हैं। जिस तरह सुख नश्वर है, उसी तरह दुःख भी नश्वर होता है। जब हमारे माता पिता का निधन होता है तो उस समय हमारे दु:ख का आवेग बहुत ज्यादा होता है। बारह दिनों तक आते-आते कुछ कम हो जाता है। फिर एक महीने तक आते-आते कुछ और कम हो जाता है। साल भर होते-होते हम अपने काम में व्यस्त हो जाते हैं और चार-पाँच सालों बाद तो हमें सिर्फ श्राद्ध के दिन ही माता-पिता याद आते हैं। इस तरह दुःख भी नश्वर होता है। आता है तो चला जाता है। सुख अस्थिर होता है, उसी तरह दु:ख भी अस्थिर होता है। लक्ष्मी जिस तरह आती है और चली जाती है, उसी तरह दुःख भी आता है तो चला जाता है। जब दोनों ही चले जाने वाले हैं। स्थिर नहीं रहने वाले हैं तो फिर समान ही रहना चाहिए। मन को चञ्चल करने से क्या लाभ?
भगवान कहते हैं, जब भक्त मुझसे जुड़ जाता है तो वह दु:ख और सुख में समान हो जाता है।
शत्रुता मन में जगे, तब मैत्री मङ्गल स्मरण हो।।
धर्म का विस्मरण हो, तब कृष्ण का अवतरण हो।।
जब-जब शत्रुता की भावना आये मङ्गल मैत्री का स्मरण हो जाय तब ईश्वर का अवतरण होता है। मेरे मन से अहङ्कार की भावना निकल जाए, 'मम' यानि मैंने किया। यह भाव पूरी तरह से मिट जाए,
निर्ममो निरहङ्कार: हो जाए। मैंने Vivechan Summary - Geeta Vivechans - LearnGeeta किया, यह भाव तो गलत है जब तक उसकी इच्छा नहीं होती, तब तक कोई भी कार्य नहीं हो सकता। हम तो केवल एक माध्यम बनाए गए हैं इस कार्य को करने के लिए। भगवान की इच्छा बिना कोई भी घटना नहीं घट सकती। हम कितना भी प्रयास कर लें। भगवान कहते हैं कि जो भक्त मुझसे जुड़ जाता है उसमें अहङ्कार की भावना आ ही नहीं सकती।
भगवान अर्जुन को ग्यारहवें अध्याय में बताते हैं कि तू कौन सा युद्ध कर रहा है। न तू मारने वाला है न तू मार सकता है। यह जो मरे हैं इनको तो मैंने पहले ही मार दिया है। अर्जुन तू केवल युद्ध कर और इनको जीत ले, यह जीत तुम्हारे नाम करने के लिए मैंने पहले ही उनको मार डाला है। तुम्हें निमित्त बना रहा हूँ यह तुम्हारा भाग्य है। तुम्हें इतिहास में अमर कर रहा हूँ यह तुम्हारा भाग्य है। भगवान ने हमें इस काम का निमित्त बनाया। हमारे मन में यह भावना होनी चाहिए, इसलिए यह मैंने किया। यहाँ अहङ्कार नहीं होना चाहिए। सुख और दु:ख में समान रहना चाहिए। सुख का अन्तिम परिणाम दु:ख होता है। हम अपने घर में एसी लगा कर अच्छे गद्दी पर बैठे रहते हैं, लेकिन उसका परिणाम होता है- अच्छी नींद। अगर हमें अच्छी नींद न आए तो यह सुख किस काम का?
एक बच्चा बहुत ज्यादा क्रिकेट खेलता है। उसे उससे सुख की अनुभूति होती है। बहुत ज्यादा खेलने से उसके परीक्षा में अङ्क कम आए तो उसे दुःख की प्राप्ति हुई क्योंकि सुख का अन्तिम छोर दु:ख है। कम मात्रा में क्रिकेट खेलता तो उसे आरोग्य की प्राप्ति होती, लेकिन उसने ज्यादा सुख अनुभव करने की कोशिश की, जिसका अन्तिम परिणाम दु:ख मिला। तो फिर सुख क्या है? और दु:ख क्या? दोनों एक ही धागे के दो छोर होते हैं। तभी भगवान कहते हैं, तेरा मन एक समान बना रहे। सर्दी क्या? गर्मी क्या? क्योंकि सुख और दुःख दोनों नश्वर होते हैं। जिस तरह सुख नश्वर है, उसी तरह दुःख भी नश्वर होता है। जब हमारे माता पिता का निधन होता है तो उस समय हमारे दु:ख का आवेग बहुत ज्यादा होता है। बारह दिनों तक आते-आते कुछ कम हो जाता है। फिर एक महीने तक आते-आते कुछ और कम हो जाता है। साल भर होते-होते हम अपने काम में व्यस्त हो जाते हैं और चार-पाँच सालों बाद तो हमें सिर्फ श्राद्ध के दिन ही माता-पिता याद आते हैं। इस तरह दुःख भी नश्वर होता है। आता है तो चला जाता है। सुख अस्थिर होता है, उसी तरह दु:ख भी अस्थिर होता है। लक्ष्मी जिस तरह आती है और चली जाती है, उसी तरह दुःख भी आता है तो चला जाता है। जब दोनों ही चले जाने वाले हैं। स्थिर नहीं रहने वाले हैं तो फिर समान ही रहना चाहिए। मन को चञ्चल करने से क्या लाभ?
भगवान कहते हैं, जब भक्त मुझसे जुड़ जाता है तो वह दु:ख और सुख में समान हो जाता है।
सन्तुष्टः(स्) सततं(य्ँ) योगी, यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धि:(र्), यो मद्भक्तः(स्) स मे प्रियः॥12.14॥
विवेचन:-भगवान कहते हैं जो प्रत्येक अवस्था में सन्तुष्ट रहना सीख जाता है, वही योगी बन जाता है। सहज स्वीकार की भावना आ जाती है। जीवन में चाहे कितने भी दुःख हो उसे सहर्ष स्वीकार करता है।
भगवान हमें सशक्त बनाने के लिए कई बार कुछ ऐसी घटनायें भी घटा देते हैं कि हम भगवान को ही दोष देने लगते हैं कि मेरे साथ यह घटना क्यों घटी है। जब हम उस घटना से निखर कर बाहर आते हैं तब हमारा रूप कुछ और ही होता है। यह भगवान की विशेष अनुकम्पा रहती है, कभी-कभी दो भाइयों के बीच बँटवारा हो जाता है। घटना तो दर्दनाक है पर दोनों ही भाई अपने पराक्रम पर जोर शोर से बल देते हैं और दोनों भाई निखर कर आते हैं। भगवान कहते कि हमारी बुद्धि निश्चयात्मक होनी चाहिए। हमारा विश्वास दृढ़ होना चाहिए। भगवान कहते हैं कि जो भक्त दृढ़ निश्चय के साथ मुझमें मन तथा बुद्धि को स्थिर करता है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।
भगवान हमें सशक्त बनाने के लिए कई बार कुछ ऐसी घटनायें भी घटा देते हैं कि हम भगवान को ही दोष देने लगते हैं कि मेरे साथ यह घटना क्यों घटी है। जब हम उस घटना से निखर कर बाहर आते हैं तब हमारा रूप कुछ और ही होता है। यह भगवान की विशेष अनुकम्पा रहती है, कभी-कभी दो भाइयों के बीच बँटवारा हो जाता है। घटना तो दर्दनाक है पर दोनों ही भाई अपने पराक्रम पर जोर शोर से बल देते हैं और दोनों भाई निखर कर आते हैं। भगवान कहते कि हमारी बुद्धि निश्चयात्मक होनी चाहिए। हमारा विश्वास दृढ़ होना चाहिए। भगवान कहते हैं कि जो भक्त दृढ़ निश्चय के साथ मुझमें मन तथा बुद्धि को स्थिर करता है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।
यस्मान्नोद्विजते लोको, लोकान्नोद्विजते च यः|
हर्षामर्षभयोद्वेगै:(र्), मुक्तो यः(स्) स च मे प्रियः||15||
जिससे कोई भी प्राणी उद्विग्न (क्षुब्ध) नहीं होता और जो स्वयं भी किसी प्राणी से उद्विग्न नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (ईर्ष्या), भय और उद्वेग (हलचल) से रहित है, वह मुझे प्रिय है।
विवेचन:-भगवान कहते हैं जो किसी को कष्ट नहीं पहुँचाता, किसी के द्वारा अपने मन को विचलित नहीं करता, जो हर्ष, अमर्ष यानी क्षणिक आनन्द और क्षणिक दु:ख से भय तथा उद्वेग में समभाव रहता है, ऐसा भक्त मुझे बहुत प्रिय है। कभी हम दूसरों के सुख को देखकर भी विचलित हो जाते हैं कि उसे व्यापार में अधिक मुनाफा हो रहा है और मुझे नहीं। कभी-कभी हम दूसरे के दु:ख को देखकर भी आनन्दित हो जाते हैं। जो इस तरह के भाव नहीं रखता है, सब में सम रहता है, वह भक्त मुझे प्रिय है।
उद्वेग यानी रिएक्टिव नेस। कभी-कभी हम दूसरों के भाव पर अपनी अनुभूति को व्यक्त करते हैं। सामने वाला जोर से बोलता है, तो हम उस से ऊँची आवाज से बात करते हैं। हम कोई टीवी का रिमोट तो है ही नहीं, जिसे दबाकर कोई भी हमारी अनुभूति और अनुभव को बदल दे। सामने वाले के कुछ कहते ही हमारी मन: स्थिति बदल जाती है तो क्या हम उसके आश्रित हैं? जो संयमित हो जाता है, जिसके मन की लगाम उसके हाथों में होती है। वह लगाम को खींचकर अन्दर बैठे परमात्मा के हाथों में उस लगाम को देता है। भगवान से हमें यह प्रार्थना करनी चाहिए कि जब भी किसी प्रकार का विकार मेरे मन में आए तो मुझे सँभालना। मैंने अपने मन की लगाम तेरे हाथ में दे रखी है। तू मेरे अन्दर बैठा है, इसमें मुझे रत्ती मात्र भी संशय नहीं है। उन भक्तों के चेहरे पर अलग चमक दिखने लगती है।
उद्वेग यानी रिएक्टिव नेस। कभी-कभी हम दूसरों के भाव पर अपनी अनुभूति को व्यक्त करते हैं। सामने वाला जोर से बोलता है, तो हम उस से ऊँची आवाज से बात करते हैं। हम कोई टीवी का रिमोट तो है ही नहीं, जिसे दबाकर कोई भी हमारी अनुभूति और अनुभव को बदल दे। सामने वाले के कुछ कहते ही हमारी मन: स्थिति बदल जाती है तो क्या हम उसके आश्रित हैं? जो संयमित हो जाता है, जिसके मन की लगाम उसके हाथों में होती है। वह लगाम को खींचकर अन्दर बैठे परमात्मा के हाथों में उस लगाम को देता है। भगवान से हमें यह प्रार्थना करनी चाहिए कि जब भी किसी प्रकार का विकार मेरे मन में आए तो मुझे सँभालना। मैंने अपने मन की लगाम तेरे हाथ में दे रखी है। तू मेरे अन्दर बैठा है, इसमें मुझे रत्ती मात्र भी संशय नहीं है। उन भक्तों के चेहरे पर अलग चमक दिखने लगती है।
अनपेक्षः(श्) शुचिर्दक्ष, उदासीनो गतव्यथः|
सर्वारम्भपरित्यागी, यो मद्भक्तः(स्) स मे प्रियः||16||
जो अपेक्षा (आवश्यकता) से रहित, (बाहर-भीतर से) पवित्र, चतुर, उदासीन, व्यथा से रहित (औरः सभी आरम्भों का अर्थात् नये-नये कर्मों के आरम्भ का सर्वथा त्यागी है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है।
विवेचन:-वह अनपेक्ष हो जाता है, किसी से अपेक्षा नहीं करता है। सारे दु:खों की जड़ तो अपेक्षा ही है कि यह आदमी मेरे लिए यह करेगा। वह आदमी मेरे लिए वह करेगा। यदि हम अनपेक्षित हो जाते हैं तो अन्दर से आनन्दित हो जाते हैं। अपने आप को आनन्दित रखने के लिए दूसरों पर अपेक्षित रहने की क्या आवश्यकता है। क्या हम अपने आप को आनन्दित नहीं रख सकते? हम जब आनन्दित रहने का अभ्यास करते रहेंगे तो अभाव में भी आनन्दित रहेंगे और अन्तिम समय में भी आनन्दित रहेंगे। अन्तिम समय का वह एक-एक क्षण कीमती होता है।
मन में हरि सुमिरन करते चलें जिससे हमारा मन आनन्दित रहे। हम हरि के धाम चलें। अगर हम दुःख की अनुभूति करेंगे तो मरते वक्त का भाव बहुत गहरा हो जाएगा कि हम सभी कुछ छोड़कर जा रहे हैं। हमें समभाव रहना होगा।
हमें अन्दर से शुचिता लानी होगी। शुचिता का अर्थ केवल बाहरी स्वच्छता नहीं होता। आन्तरिक स्वच्छता भी शुचिता कहलाती है। षड् रिपुओं से हमारा मन निरन्तर मलिन होता रहता है - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर इन छहों पर जब हम विजय प्राप्त कर लेते हैं तो हम शुचिर्दक्ष हो जाते हैं।
उदासीन यानी तटस्थ रहना, उदास नहीं। उदास तो कभी जीवन में होना ही नहीं चाहिए। आनन्दित रहना चाहिए। अपने आप को बाहर से देखना, तटस्थ होकर देखना।
प्रेक्षा-- मैं बाहर से कैसा लग रहा हूँ। मेरी साँसों की प्रेक्षा कैसी है? बाहर कैसी है? बाहर से देखें, अन्दर से नहीं। अपने शरीर की संवेदना को अनुभव करना। कहाँ खुजली हो रही है, कहाँ दर्द हो रहा है, तटस्थ रहें, विचारों के बीच न घिरे।
विचारों की प्रेक्षा में-- कैसे विचार आ रहे हैं? कैसे विचार जा रहे हैं? वह मुझे बता रहे हैं या नहीं। इस बात की प्रेक्षा करनी चाहिए, वह भी तटस्थ होकर। यह श्रृंखला धीरे-धीरे कम हो जाती है, फिर आप तटस्थ हो जाते हैं। बाहर से अपने आपको देखने लग जाते हैं। किसी भी प्रकार का दु:ख आपके जीवन को व्यथित नहीं कर पाता है यानि गतव्यथ:।
सर्वारम्भापरित्यागी - मैंने यह काम शुरू किया यह भावना चली जाती है।जो इन अहङ्कारों से मुक्त हो जाता है, वह भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।
मन में हरि सुमिरन करते चलें जिससे हमारा मन आनन्दित रहे। हम हरि के धाम चलें। अगर हम दुःख की अनुभूति करेंगे तो मरते वक्त का भाव बहुत गहरा हो जाएगा कि हम सभी कुछ छोड़कर जा रहे हैं। हमें समभाव रहना होगा।
हमें अन्दर से शुचिता लानी होगी। शुचिता का अर्थ केवल बाहरी स्वच्छता नहीं होता। आन्तरिक स्वच्छता भी शुचिता कहलाती है। षड् रिपुओं से हमारा मन निरन्तर मलिन होता रहता है - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर इन छहों पर जब हम विजय प्राप्त कर लेते हैं तो हम शुचिर्दक्ष हो जाते हैं।
उदासीन यानी तटस्थ रहना, उदास नहीं। उदास तो कभी जीवन में होना ही नहीं चाहिए। आनन्दित रहना चाहिए। अपने आप को बाहर से देखना, तटस्थ होकर देखना।
प्रेक्षा-- मैं बाहर से कैसा लग रहा हूँ। मेरी साँसों की प्रेक्षा कैसी है? बाहर कैसी है? बाहर से देखें, अन्दर से नहीं। अपने शरीर की संवेदना को अनुभव करना। कहाँ खुजली हो रही है, कहाँ दर्द हो रहा है, तटस्थ रहें, विचारों के बीच न घिरे।
विचारों की प्रेक्षा में-- कैसे विचार आ रहे हैं? कैसे विचार जा रहे हैं? वह मुझे बता रहे हैं या नहीं। इस बात की प्रेक्षा करनी चाहिए, वह भी तटस्थ होकर। यह श्रृंखला धीरे-धीरे कम हो जाती है, फिर आप तटस्थ हो जाते हैं। बाहर से अपने आपको देखने लग जाते हैं। किसी भी प्रकार का दु:ख आपके जीवन को व्यथित नहीं कर पाता है यानि गतव्यथ:।
सर्वारम्भापरित्यागी - मैंने यह काम शुरू किया यह भावना चली जाती है।जो इन अहङ्कारों से मुक्त हो जाता है, वह भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि, न शोचति न काङ्क्षति|
शुभाशुभपरित्यागी, भक्तिमान्यः(स्) स मे प्रियः||17||
जो न (कभी) हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है (और) जो शुभ-अशुभ कर्मों से ऊँचा उठा हुआ (राग-द्वेष रहित) है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।
विवेचन:-जो हर्ष से परे हो जाता है, द्वेष से मुक्त हो जाता है जो शोच से बाहर निकल जाता है और जो किसी प्रकार की इच्छा नहीं करता है। जो शुभ और अशुभ दोनों प्रकार की वस्तुओं का परित्याग कर देता है, ऐसा भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है। किसी चीज को पाने की अपेक्षा रखना, शुभ और अशुभ काम का परित्याग करना।
शुभ काम तो होता है, कई बार अशुभ काम भी हो जाता है। जैसे खाना बनाते समय भी सूक्ष्म जीवाणुओं की हत्या हो जाती है। हाथों पर मच्छर बैठता है। हम उसे मार देते हैं लेकिन जो शुभ और अशुभ की भावना का भी परित्याग कर देता है, ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।
छत्रपति शिवाजी महाराज तो अर्जुन के अनुज रहे हैं। अर्जुन ने गीता सुनी थी, उन्होंनें उसे जीवन में उतारा। छत्रपति शिवाजी महाराज का चलना उठना, बैठना, उनकी चाल- ढाल देखकर ही लगता था कि वे एक श्रीमन्तयोगी हैं। वे थे तो राजा, पर एक योगी की तरह चलते थे। यही तो विशिष्ट बात है।
शुभ काम तो होता है, कई बार अशुभ काम भी हो जाता है। जैसे खाना बनाते समय भी सूक्ष्म जीवाणुओं की हत्या हो जाती है। हाथों पर मच्छर बैठता है। हम उसे मार देते हैं लेकिन जो शुभ और अशुभ की भावना का भी परित्याग कर देता है, ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।
छत्रपति शिवाजी महाराज तो अर्जुन के अनुज रहे हैं। अर्जुन ने गीता सुनी थी, उन्होंनें उसे जीवन में उतारा। छत्रपति शिवाजी महाराज का चलना उठना, बैठना, उनकी चाल- ढाल देखकर ही लगता था कि वे एक श्रीमन्तयोगी हैं। वे थे तो राजा, पर एक योगी की तरह चलते थे। यही तो विशिष्ट बात है।
समः(श्) शत्रौ च मित्रे च, तथा मानापमानयोः|
शीतोष्णसुखदुःखेषु, समः(स्) सङ्गविवर्जितः||18||
(जो) शत्रु और मित्र में तथा मान-अपमान में सम है (और) शीत-उष्ण (शरीर की अनुकूलता-प्रतिकूलता) तथा सुख-दुःख (मन बुद्धि की अनुकूलता-प्रतिकूलता) में सम है एवं आसक्ति रहित है (और) जो निन्दा स्तुति को समान समझने वाला, मननशील, जिस किसी प्रकार से भी (शरीर का निर्वाह होने न होने में) संतुष्ट, रहने के स्थान तथा शरीर में ममता आसक्ति से रहित (और) स्थिर बुद्धिवाला है, (वह) भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है। (12.18-12.19)
विवेचन:-शत्रु और मित्र को भी समान मानता है। शत्रुता उसके मन में रहती ही नहीं है। कुरुक्षेत्र में भगवान ने अर्जुन से कहा था कि इन सब को निर्भय होकर मार, अगर तेरे मन में भय रहेगा तो तुम मुझे प्राप्त नहीं हो सकोगे। वैर से मारोगे तो जीवन भर काँटा मन में चुभता रहेगा कि मैंने इसे वैर से मारा।
जब कोई न्यायधीश किसी को सजा देता है तो क्या वह वैर के भाव से सजा देता है। नहीं, और न ही उनके मन में यह विचार आता है कि मैंने इसे गलत सजा दे दी। अपराधी और आतङ्की को इस भाव से सजा देते हैं कि वह समाज को ओर गन्दा न करें। वह और हत्यायें न करें। इसी प्रकार भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि उस दुर्योधन और दु:शासन को मारे क्योंकि वे आतङ्की और अन्यायी थे, पर वैर भाव से रहित होकर मार, द्रौपदी के चीरहरण का दण्ड एक क्षत्रिय को देना ही चाहिए, इस भाव से इन्हें मार। शीत और उष्ण में, सुख और दु:ख में, यश और अपयश में जो समभाव रहता है ऐसा पुरुष मुझे अत्यन्त प्रिय है।
सङ्ग यानि आसक्ति, आसक्ति के भाव का भी जो विसर्जन कर दे वह मुझे अत्यन्त प्रिय है। हे अर्जुन तू समता को प्राप्त कर।
जब कोई न्यायधीश किसी को सजा देता है तो क्या वह वैर के भाव से सजा देता है। नहीं, और न ही उनके मन में यह विचार आता है कि मैंने इसे गलत सजा दे दी। अपराधी और आतङ्की को इस भाव से सजा देते हैं कि वह समाज को ओर गन्दा न करें। वह और हत्यायें न करें। इसी प्रकार भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि उस दुर्योधन और दु:शासन को मारे क्योंकि वे आतङ्की और अन्यायी थे, पर वैर भाव से रहित होकर मार, द्रौपदी के चीरहरण का दण्ड एक क्षत्रिय को देना ही चाहिए, इस भाव से इन्हें मार। शीत और उष्ण में, सुख और दु:ख में, यश और अपयश में जो समभाव रहता है ऐसा पुरुष मुझे अत्यन्त प्रिय है।
सङ्ग यानि आसक्ति, आसक्ति के भाव का भी जो विसर्जन कर दे वह मुझे अत्यन्त प्रिय है। हे अर्जुन तू समता को प्राप्त कर।
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी, सन्तुष्टो येन केनचित्|
अनिकेतः(स्) स्थिरमति:(र्), भक्तिमान्मे प्रियो नरः||19||
विवेचन:-कोई भी निन्दा करें या तुम्हारी स्तुति करें, दोनों ही भाव में सम रहना है। हे अर्जुन! तू समता को प्राप्त हो जा। कैसी भी परिस्थिति आ जाए, तू सन्तुष्ट बना रह। अनिकेत यानी जिसको घर के प्रति भी आसक्ति न हो। लोग भगवा धारण करने के बाद भी भिक्षा माँगने घर की ओर जाते हैं, जो भगवा धारण कर ले, फिर वह घर के प्रति आसक्ति न रखे। उसे अनिकेत कहते हैं। भगवान शङ्कर को अनिकेत कहा जाता है, उनका कोई घर नहीं है। जिसकी मति स्थिर रहे कभी विचलित न हो, ऐसे भक्त मुझे बहुत प्रिय है। वे वास्तव में योगी हैं।
ये तु धर्म्यामृतमिदं(य्ँ), यथोक्तं(म्) पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा, भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥12.20॥
परन्तु जो (मुझ में) श्रद्धा रखने वाले (और) मेरे परायण हुए भक्त इस धर्ममय अमृत का जैसा कहा कहा है, (वैसा ही) भली भांति सेवन करते हैं, वे मुझे अत्यन्त प्रिय हैं।
विवेचन:-भगवान कहते हैं कि यह धर्म का अमृत जो मैंने बताया है जो इसको यथारूप अमृत पान करता है वह श्रद्धा से मतपरायण हो जाता है यानी पूर्ण रूप से मुझ में संलग्न हो जाता है। ऐसा भक्त मुझे अत्यधिक प्रिय है।
एक बार भगवान बुद्ध पर किसी व्यक्ति ने थूक दिया। भगवान बुद्ध ने पूछा, क्या चाहते हो? सभी उसे घृणा की नजर से देखने लगे। वह व्यक्ति बहुत शर्मसार हुआ और रात भर सो नहीं पाया। जब हम गलत कर्म करते हैं, तो हमारे मन में पश्चाताप की भावना रहती है। सुबह उठकर उसने एक पुष्पहार खरीदा और भगवान के बुद्ध के गले में अर्पित किया और भगवान के चरणों में नतमस्तक होकर क्षमा माँगने लगा। भगवान बुद्ध ने फिर पूछा और क्या चाहते हो? जो व्यक्ति मान-अपमान, सुख- दुख, हानि- लाभ सभी में समान रहे। वह मुझे अत्यधिक प्रिय है। यह कहते हुए भगवान ने भक्ति योग अध्याय को विराम दिया।
प्रश्नोत्तरी:--
प्रश्नकर्ता:- कृष्ण लाल बंसलजी
प्रश्न:-भक्तों के लक्षण की इतनी बड़ी लिस्ट बताई है कि आज के समय में वह सम्भव न हो तो कुछ आवश्यक लक्षण बता दीजिए?
उत्तर- This is byproduct. This is not a product.आपके मन में भक्ति का उदय जैसे ही होता है यह अपने आप घटेगा। आपको अलग से पैदा करने की जरूरत नहीं पड़ती। आप केवल पूर्ण श्रद्धा के साथ समर्पण किजिए, समता, अद्वेष्टा यह सब अपने आप आ जाएँगे। भक्ति सेनापति की तरह है। पीछे-पीछे सारी सेना स्वत: चली आएगी। सर्वप्रथम भक्त बनना जरूरी है। जब भगवान के साथ जुड़ाव हो जाएगा, तो वे सभी लक्षण अपने आप प्रस्फुटित हो जायेंगे।
प्रश्नकर्ता:-बी के राघवेंद्र जी
प्रश्न:-हम भगवद्गीता को इतना सम्मान देते हैं, पर प्राय: घरों में यह पढ़ी नहीं जाती। सिर्फ पोथी के रूप में लपेट रख दी जाती है। फिर यह ज्ञान लुप्त क्यों हो रहा था?
उत्तर:-यह सब एक षड्यन्त्र के तहत हुआ कि यह सिर्फ बुढ़ापे के लिए है और इसे बाँध कर रख दो। यह युवावस्था में पढ़ने का ग्रन्थ नहीं है। इसे एक पोथी बनाकर रख दिया कि इस पर फूल बरसाओ और हाथ जोड़ो, फिर चल पड़ो। यह पराक्रम का ग्रन्थ है, विजय का ग्रन्थ है, समत्व का ग्रन्थ है। यह सबसे उत्तम मनोवैज्ञानिक ग्रन्थ है। यह सबसे सुन्दर प्रबन्ध व्यस्थापन का ग्रन्थ है। जगत का ज्ञान जिस ग्रन्थ में निहित है वह है भगवद्गीता।
।।ऊँ कृष्णार्पणमस्तु।।
एक बार भगवान बुद्ध पर किसी व्यक्ति ने थूक दिया। भगवान बुद्ध ने पूछा, क्या चाहते हो? सभी उसे घृणा की नजर से देखने लगे। वह व्यक्ति बहुत शर्मसार हुआ और रात भर सो नहीं पाया। जब हम गलत कर्म करते हैं, तो हमारे मन में पश्चाताप की भावना रहती है। सुबह उठकर उसने एक पुष्पहार खरीदा और भगवान के बुद्ध के गले में अर्पित किया और भगवान के चरणों में नतमस्तक होकर क्षमा माँगने लगा। भगवान बुद्ध ने फिर पूछा और क्या चाहते हो? जो व्यक्ति मान-अपमान, सुख- दुख, हानि- लाभ सभी में समान रहे। वह मुझे अत्यधिक प्रिय है। यह कहते हुए भगवान ने भक्ति योग अध्याय को विराम दिया।
प्रश्नोत्तरी:--
प्रश्नकर्ता:- कृष्ण लाल बंसलजी
प्रश्न:-भक्तों के लक्षण की इतनी बड़ी लिस्ट बताई है कि आज के समय में वह सम्भव न हो तो कुछ आवश्यक लक्षण बता दीजिए?
उत्तर- This is byproduct. This is not a product.आपके मन में भक्ति का उदय जैसे ही होता है यह अपने आप घटेगा। आपको अलग से पैदा करने की जरूरत नहीं पड़ती। आप केवल पूर्ण श्रद्धा के साथ समर्पण किजिए, समता, अद्वेष्टा यह सब अपने आप आ जाएँगे। भक्ति सेनापति की तरह है। पीछे-पीछे सारी सेना स्वत: चली आएगी। सर्वप्रथम भक्त बनना जरूरी है। जब भगवान के साथ जुड़ाव हो जाएगा, तो वे सभी लक्षण अपने आप प्रस्फुटित हो जायेंगे।
प्रश्नकर्ता:-बी के राघवेंद्र जी
प्रश्न:-हम भगवद्गीता को इतना सम्मान देते हैं, पर प्राय: घरों में यह पढ़ी नहीं जाती। सिर्फ पोथी के रूप में लपेट रख दी जाती है। फिर यह ज्ञान लुप्त क्यों हो रहा था?
उत्तर:-यह सब एक षड्यन्त्र के तहत हुआ कि यह सिर्फ बुढ़ापे के लिए है और इसे बाँध कर रख दो। यह युवावस्था में पढ़ने का ग्रन्थ नहीं है। इसे एक पोथी बनाकर रख दिया कि इस पर फूल बरसाओ और हाथ जोड़ो, फिर चल पड़ो। यह पराक्रम का ग्रन्थ है, विजय का ग्रन्थ है, समत्व का ग्रन्थ है। यह सबसे उत्तम मनोवैज्ञानिक ग्रन्थ है। यह सबसे सुन्दर प्रबन्ध व्यस्थापन का ग्रन्थ है। जगत का ज्ञान जिस ग्रन्थ में निहित है वह है भगवद्गीता।
।।ऊँ कृष्णार्पणमस्तु।।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः॥
इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘भक्तियोग’ नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।