विवेचन सारांश
कर्त्तव्य कर्म निरन्तरता का महत्व
गीत, मधुराष्टकम, स्वागत गीत, प्रार्थना, दीप प्रज्वलन एवं गुरु वन्दना के साथ आज का विवेचन सत्र प्रारम्भ हुआ ।
अर्जुन को प्रसन्न करने के लिए, उसे सही मार्ग पर चलाने के लिए एवं हम सबके लिए गीता सुनाई गई है। अर्जुन को निमित्त बनाकर भगवान ने हम सबको ही सही मार्ग दिखाया है। गीता केवल अर्जुन के लिए नहीं है, यह हम सब के लिए है। जो भी उसको समझने का प्रयास करेगा, उसे जीवन में उतारने का प्रयास करेगा उसके लिए भगवद्गीता सर्वश्रेष्ठ है। अर्जुन हमारे प्रतिनिधि हैं, ऐसा भी हम कह सकते हैं। हमारे प्रतिनिधि के रूप में अर्जुन भगवान से प्रश्न पूछते जाते हैं और उन प्रश्नों के उत्तर के रूप में भगवान ने समग्र ज्ञान हमें दिया है। यह गागर में सागर भरने जैसा है। छोटी सी गीता में ही हमें भगवान ने जीवन का सार दिया है। भगवान ने दूसरे अध्याय में ज्ञान और कर्म योग के विषय बताते हुए दोनों का ही महत्व बताया है। ज्ञान का महत्व सुनकर अर्जुन के मन में प्रश्न जागृत हुआ कि यह तो मैं भी जानता हूँ और मैं इसी ज्ञान मार्ग पर चलना चाहता हूँ, फिर मेरे लिए घोर कर्म का यह मार्ग क्यों। यदि ज्ञान श्रेष्ठ है तो फिर मुझे आप ऐसा घोर कर्म करने के लिए क्यों कह रहे हैं। भगवान ने उत्तर दिया कि यह दोनों मार्ग मेरे ही बताए हुए हैं, पर जिसकी जो योग्यता है उसके अनुसार उसे मार्ग का अनुसरण करना है। दोनों मार्ग एक ही स्थान पर पहुँचाते हैं, दोनों ही मार्ग से परम सिद्धि की प्राप्ति कर सकते हैं ।परंतु कर्म किए बिना मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता और कर्म का महत्व बताते हुए भगवान ने बताया कि कोई भी व्यक्ति बिना कर्म किए एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकता। तो फिर जो हमारा कर्तव्य है वह कर्म हम क्यों ना करें। शारीरिक गतिविधियों के लिए कर्म करना जरूरी है। भोजन करना, श्वास लेना, यह सब कर्म ही हैं।
जब प्रजापति ब्रह्मा ने सारे संसार का निर्माण किया तो हर जीव के साथ एक यज्ञ का भी निर्माण किया। सृष्टि के कार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए सभी को कर्म करना ही है। इसमें देवता भी आते हैं जैसे वरुण देव वायु चलाते हैं ,अग्नि देव अग्नि जलाते हैं। हिमालय भी देवता है, गंगा माता भी देवी हैं। हम वृक्षारोपण करेंगे तो वर्षा होगी, वृक्ष काटेंगे तो वर्षा नहीं होगी। इस तरह सब के किए हुए कर्तव्यों से हमें ईष्ट भोग प्राप्त हो जाते हैं। वह जब हमें प्राप्त होते हैं, तो वह सहयोग से ही हैं और वह सब के लिए हैं। जहाँ से जो प्राप्त हुआ है वहाँ हमें वापस देना ही है।
अर्जुन को प्रसन्न करने के लिए, उसे सही मार्ग पर चलाने के लिए एवं हम सबके लिए गीता सुनाई गई है। अर्जुन को निमित्त बनाकर भगवान ने हम सबको ही सही मार्ग दिखाया है। गीता केवल अर्जुन के लिए नहीं है, यह हम सब के लिए है। जो भी उसको समझने का प्रयास करेगा, उसे जीवन में उतारने का प्रयास करेगा उसके लिए भगवद्गीता सर्वश्रेष्ठ है। अर्जुन हमारे प्रतिनिधि हैं, ऐसा भी हम कह सकते हैं। हमारे प्रतिनिधि के रूप में अर्जुन भगवान से प्रश्न पूछते जाते हैं और उन प्रश्नों के उत्तर के रूप में भगवान ने समग्र ज्ञान हमें दिया है। यह गागर में सागर भरने जैसा है। छोटी सी गीता में ही हमें भगवान ने जीवन का सार दिया है। भगवान ने दूसरे अध्याय में ज्ञान और कर्म योग के विषय बताते हुए दोनों का ही महत्व बताया है। ज्ञान का महत्व सुनकर अर्जुन के मन में प्रश्न जागृत हुआ कि यह तो मैं भी जानता हूँ और मैं इसी ज्ञान मार्ग पर चलना चाहता हूँ, फिर मेरे लिए घोर कर्म का यह मार्ग क्यों। यदि ज्ञान श्रेष्ठ है तो फिर मुझे आप ऐसा घोर कर्म करने के लिए क्यों कह रहे हैं। भगवान ने उत्तर दिया कि यह दोनों मार्ग मेरे ही बताए हुए हैं, पर जिसकी जो योग्यता है उसके अनुसार उसे मार्ग का अनुसरण करना है। दोनों मार्ग एक ही स्थान पर पहुँचाते हैं, दोनों ही मार्ग से परम सिद्धि की प्राप्ति कर सकते हैं ।परंतु कर्म किए बिना मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता और कर्म का महत्व बताते हुए भगवान ने बताया कि कोई भी व्यक्ति बिना कर्म किए एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकता। तो फिर जो हमारा कर्तव्य है वह कर्म हम क्यों ना करें। शारीरिक गतिविधियों के लिए कर्म करना जरूरी है। भोजन करना, श्वास लेना, यह सब कर्म ही हैं।
जब प्रजापति ब्रह्मा ने सारे संसार का निर्माण किया तो हर जीव के साथ एक यज्ञ का भी निर्माण किया। सृष्टि के कार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए सभी को कर्म करना ही है। इसमें देवता भी आते हैं जैसे वरुण देव वायु चलाते हैं ,अग्नि देव अग्नि जलाते हैं। हिमालय भी देवता है, गंगा माता भी देवी हैं। हम वृक्षारोपण करेंगे तो वर्षा होगी, वृक्ष काटेंगे तो वर्षा नहीं होगी। इस तरह सब के किए हुए कर्तव्यों से हमें ईष्ट भोग प्राप्त हो जाते हैं। वह जब हमें प्राप्त होते हैं, तो वह सहयोग से ही हैं और वह सब के लिए हैं। जहाँ से जो प्राप्त हुआ है वहाँ हमें वापस देना ही है।
3.13
यज्ञशिष्टाशिनः(स्) सन्तो, मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं(म्) पापा, ये पचन्त्यात्मकारणात्॥3.13॥
यज्ञशेष- (योग-) का अनुभव करने वाले श्रेष्ठ मनुष्य सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं। परन्तु जो केवल अपने लिये ही पकाते अर्थात् सब कर्म करते हैं, वे पापीलोग तो पाप का ही भक्षण करते हैं।
विवेचन: श्रीभगवान कहते हैं जब बालक छोटा होता है तो माँ-बाप उसकी सेवा करते हैं, परन्तु जब वह वयस्क हो जाए तो बालक को उनकी देखभाल करनी है। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह चोर है, वह आत्म केन्द्रित है, सेल्फ सेंटर्ड है जो सिर्फ अपने बारे में सोचता है वह निश्चय ही पाप का भागीदार है।
अन्नाद्भवन्ति भूतानि, पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो, यज्ञः(ख्) कर्मसमुद्भवः॥3.14॥
सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है। वर्षा यज्ञ से होती है। यज्ञ कर्मों से सम्पन्न होता है।
विवेचन: हम रोज अन्न भक्षण करते हैं, हमारा शरीर अन्न कोष है। सारे प्राणी अन्न से निर्मित होते हैं और अन्न का निर्माण वर्षा से होता है। वर्षा होने पर धरती माता से अन्न उपजता है। वर्षा यज्ञ करने से होती है। सूर्य के ताप से समुद्र का जल वाष्पित होता है, वायु उसको बहाकर ले जाता है। जिससे मेघ बनते हैं और फिर वर्षा होती है। और उससे भिन्न-भिन्न वनस्पति और अन्न उपजते हैं। इस तरह हर एक जब अपना कर्म करता है तब यह संभव होता है।
कर्म ब्रह्मोद्भवं(व्ँ) विद्धि, ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं(म्) ब्रह्म, नित्यं(य्ँ) यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥3.15॥
कर्मों को (तू) वेद से उत्पन्न जान (और) वेद को अक्षरब्रह्म से प्रकट हुआ (जान)। इसलिये (वह) सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ (कर्तव्य कर्म) में नित्य स्थित है।
विवेचन: श्री भगवान कहते हैं कि हर एक के कर्म क्या हैं, यह वेदों में बताए गए हैं। जिस तरह से हर एक संस्था का, देश का एक संविधान होता है, कॉन्स्टिट्यूशन होता है, उसी तरह से यह वेद हमारे लिए वैश्विक कॉन्स्टिट्यूशन हैं। वेदों के अनुसार, उनकी आज्ञा से सारे कार्य चलते हैं। हमारे शरीर के भीतर भी कितने कार्य चल रहे हैं और हमें पता ही नहीं है। ह्रदय पंपिंग कर रहा है जिससे सारे शरीर में रक्त प्रवाह हो रहा है। श्वास चल रहा है,अन्न पच जाता है।
वेदों और उपनिषदों को अपौरुषेय कहा गया है, वेद और उपनिषद किसी एक व्यक्ति ने नहीं लिखें, परमपिता परमात्मा के निश्वास से वेद की रचना हमारे ऋषि-मुनियों ने की है। यह परम अक्षर है, जिसका कभी क्षर नहीं होता। परम ब्रह्म के द्वारा निर्मित है। यह परमात्मा तो सर्वत्र है, प्रश्न यह उठता है कि वे कहाँ नहीं है। भगवान तो हर यज्ञ में प्रतिस्थापित हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए अच्छे से अपना कर्तव्य कर्म करना होगा तभी आनन्द मिलेगा और वही सच्चिदानन्द है।
वेदों और उपनिषदों को अपौरुषेय कहा गया है, वेद और उपनिषद किसी एक व्यक्ति ने नहीं लिखें, परमपिता परमात्मा के निश्वास से वेद की रचना हमारे ऋषि-मुनियों ने की है। यह परम अक्षर है, जिसका कभी क्षर नहीं होता। परम ब्रह्म के द्वारा निर्मित है। यह परमात्मा तो सर्वत्र है, प्रश्न यह उठता है कि वे कहाँ नहीं है। भगवान तो हर यज्ञ में प्रतिस्थापित हैं। इन्हें प्राप्त करने के लिए अच्छे से अपना कर्तव्य कर्म करना होगा तभी आनन्द मिलेगा और वही सच्चिदानन्द है।
एवं(म्) प्रवर्तितं(ञ्) चक्रं(न्), नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो, मोघं(म्) पार्थ स जीवति॥3.16॥
हे पार्थ! जो मनुष्य इस लोक में इस प्रकार (परम्परा से) प्रचलित सृष्टि-चक्र के अनुसार नहीं चलता, वह इन्द्रियों के द्वारा भोगों में रमण करने वाला अघायु (पापमय जीवन बिताने वाला) मनुष्य (संसार में) व्यर्थ ही जीता है।
विवेचन: कुछ लोग अपने कर्त्तव्यों का पालन ठीक से नहीं करते, भगवान कहते हैं वह पापी हैं। वह सिर्फ अपनी इंद्रियों के सुख में रमने वाला है, ऐसा व्यक्ति egocentric है। वह अघायु है। Schopenhaur नाम के एक पाश्चात्य तत्वदर्शी थे, वह कहते थे कि मनुष्य का जन्म तो केवल खाओ, पियो और मौज करो इसलिए ही है। जैसे महर्षि चार्वाक ने भी लिखा है-
ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्
यावेत जीवेत सुखम जीवेत ।
अर्थात जब तक जियो सुख से जियो, ऋण करके भी घी पियो।
जब तक एन्जॉय कर सकते हो करो और जब कुछ एंजॉय करने को ना रहे तो सुसाइड कर लो। परंतु जब Schopenhaur ने भगवद्गीता और उपनिषद पढ़े तो उनके विचारों में परिवर्तन हो गया। उन्होंने कहा अब तक मैं जो कह रहा था वह सब गलत है। Geeta and upnishad are solace of my life &my death. वे अपने तकिए के नीचे गीता पुस्तक रख कर सोते थे। उनके जीवन में पूर्ण परिवर्तन हो गया।
इसलिए मुझे मनुष्य देह क्यों प्राप्त हुई है इस पर विचार करो और अपने कर्त्तव्य का पालन करो।
संसार में चार प्रकार के लोग होते हैं, पहले जिनको कुछ करने की आवश्यकता नहीं है, बहुत सारा धन उन्हें प्राप्त हो गया है और जिनके पास सब कुछ है। दूसरे जिनके पास कुछ नहीं है, वह मेहनत करते हैं, तब रोटी पाते हैं। कुछ लोग हैं जिन्हें कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है फिर भी वह करते हैं।
ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्
यावेत जीवेत सुखम जीवेत ।
अर्थात जब तक जियो सुख से जियो, ऋण करके भी घी पियो।
जब तक एन्जॉय कर सकते हो करो और जब कुछ एंजॉय करने को ना रहे तो सुसाइड कर लो। परंतु जब Schopenhaur ने भगवद्गीता और उपनिषद पढ़े तो उनके विचारों में परिवर्तन हो गया। उन्होंने कहा अब तक मैं जो कह रहा था वह सब गलत है। Geeta and upnishad are solace of my life &my death. वे अपने तकिए के नीचे गीता पुस्तक रख कर सोते थे। उनके जीवन में पूर्ण परिवर्तन हो गया।
इसलिए मुझे मनुष्य देह क्यों प्राप्त हुई है इस पर विचार करो और अपने कर्त्तव्य का पालन करो।
संसार में चार प्रकार के लोग होते हैं, पहले जिनको कुछ करने की आवश्यकता नहीं है, बहुत सारा धन उन्हें प्राप्त हो गया है और जिनके पास सब कुछ है। दूसरे जिनके पास कुछ नहीं है, वह मेहनत करते हैं, तब रोटी पाते हैं। कुछ लोग हैं जिन्हें कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है फिर भी वह करते हैं।
यस्त्वात्मरतिरेव स्याद्, आत्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्ट:(स्), तस्य कार्यं(न्) न विद्यते॥3.17॥
परन्तु जो मनुष्य अपने आप में ही रमण करने वाला और अपने आप में ही तृप्त तथा अपने-आप में ही संतुष्ट है, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है।
विवेचन: श्रीभगवान कहते हैं कि कुछ लोग ऐसे हैं जो कर्म बंधन से मुक्त हो गए हैं, उन्हें कुछ नहीं चाहिए, वह आत्मतृप्त है, जो चाहिए था सब प्राप्त हो गया है उनके लिए कोई कार्य नहीं बचा है। उन्हेंआत्म बोध हो गया है।
नैव तस्य कृतेनार्थो, नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु, कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥3.18॥
उस (कर्मयोग से सिद्ध हुए महापुरुष) का इस संसार में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन (रहता है और) न कर्म न करने से ही (कोई प्रयोजन रहता है) तथा सम्पूर्ण प्राणियों में (किसी भी प्राणी के साथ) इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता।
विवेचन: भगवान कहते हैं कुछ लोग ऐसे हैं जिनके लिए कर्म करने का कोई प्रयोजन नहीं है, आवश्यकता भी नहीं है। उन्हें कर्म करने की कोई जरूरत भी नहीं है, वह स्वार्थ से परे हैं। उनके सभी बेटे बेटियों के विवाह हो गए हैं, कोई कार्य शेष नहीं है पर फिर भी वे अपने मित्रों के बेटे-बेटियों के विवाह हो सके, इसके लिए प्रयत्न करते हैं। ऐसे लोग सर्वश्रेष्ठ हैं। वे स्वयं के लिए नहीं परन्तु दूसरों के हित के लिए कार्य करते हैं। वसुधैव कुटुंबकम को मानते है, पूरा संसार ही उनका कुटुम्ब है यही सोचकर वे सब के हित के लिए कार्य करते हैं।
तस्मादसक्तः(स्) सततं(ङ्), कार्यं(ङ्) कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म, परमाप्नोति पूरुषः॥3.19॥
इसलिये (तू) निरन्तर आसक्ति रहित (होकर) कर्तव्य कर्म का भली भाँति आचरण कर; क्योंकि आसक्ति रहित (होकर) कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
विवेचन: इसलिए निरन्तर रूप से अपने कार्यकाल के समय में कार्य ठीक से करते रहना चाहिए, करने योग्य कार्य को उचित तरीके से करना ही श्रेष्ठ है। किसी कर्म से आपको क्या मिलेगा यह सोचना छोड़ दें। आप रास्ते में जा रहे हैं और कोई पुरुष किसी महिला को विपदा दे रहा है, तो यह सोचना कि इसकी सहायता करके मुझे क्या मिलेगा, यह सोच सही नहीं है वरन मेरा कर्तव्य है उसकी रक्षा करना और यही मुझे करना है। ऐसा करके ही कोई परम ध्येय को प्राप्त कर सकता है। छात्र का कर्त्तव्य है पढ़ना, व्यायाम करना और माता-पिता की उनके काम में सहायता करना।
एक बालक है वह अपना गृहकार्य अपने आप करता है। दूसरे को उसकी माँ कहती है तू कार्य कर ले मैं तुझे आइसक्रीम दूँगी और तीसरा बालक है जो कहता है पहले मुझे आइसक्रीम दिलाओ फिर मैं गृह कार्य करूँगा, तो तीनों में श्रेष्ठ कौन है। पहला ही श्रेष्ठ है क्योंकि वह निष्काम भाव से कार्य कर रहा है। दूसरा आसक्त होकर काम कर रहा है वह इसलिए दूसरे स्थान पर रहा। पहला उसे अपना कर्त्तव्य समझ रहा है इसलिए वह श्रेष्ठ है।
एक बालक है वह अपना गृहकार्य अपने आप करता है। दूसरे को उसकी माँ कहती है तू कार्य कर ले मैं तुझे आइसक्रीम दूँगी और तीसरा बालक है जो कहता है पहले मुझे आइसक्रीम दिलाओ फिर मैं गृह कार्य करूँगा, तो तीनों में श्रेष्ठ कौन है। पहला ही श्रेष्ठ है क्योंकि वह निष्काम भाव से कार्य कर रहा है। दूसरा आसक्त होकर काम कर रहा है वह इसलिए दूसरे स्थान पर रहा। पहला उसे अपना कर्त्तव्य समझ रहा है इसलिए वह श्रेष्ठ है।
कर्मणैव हि संसिद्धिम्, आस्थिता जनकादयः।
लोकसङ्ग्रहमेवापि, सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि॥3.20॥
राजा जनक जैसे अनेक महापुरुष भी कर्म (कर्मयोग) के द्वारा ही परमसिद्धि को प्राप्त हुए थे। (इसलिये) लोक संग्रह को देखते हुए भी (तू) (निष्काम भाव से) कर्म करने ही के योग्य है अर्थात् अवश्य करना चाहिये।
विवेचन : इस प्रकार अपने कर्म करके ही राजा जनक ने परम सिद्धि को प्राप्त कर लिया था। वे राजा थे, एक गृहस्थ थे, लोगों के हित का ध्यान रखते थे और साथ ही अपना राज्य भी सम्भालते थे। इसी प्रकार लोगों के हित को ध्यान में रखते हुए तुम्हें युद्ध का कर्म करना ही होगा। अर्जुन ने पहले अध्याय में ही कह दिया कि मुझे राज्य नहीं चाहिए। परन्तु भगवान कहते हैं कि लोक कल्याण के लिए यह आवश्यक है।
सन्त ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं -
मार्गीं अंधासरिसा, पुढे देखणाही चाले जैसा। अज्ञाना प्रकटावा धर्मु तैसा, आचरोनि ॥ १५६ ॥
मान लो मुझे रास्ता पार करने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु किसी अन्ध व्यक्ति को रास्ता पार करना है तो उसकी सहायता करने के लिए मुझे उसको अपने साथ लेकर रास्ता पार करना ही होगा। इसलिए अन्य लोगों के हित के लिए तुम्हें युद्ध का कर्म करना ही चाहिए।
सन्त ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं -
मार्गीं अंधासरिसा, पुढे देखणाही चाले जैसा। अज्ञाना प्रकटावा धर्मु तैसा, आचरोनि ॥ १५६ ॥
मान लो मुझे रास्ता पार करने की आवश्यकता नहीं है, परन्तु किसी अन्ध व्यक्ति को रास्ता पार करना है तो उसकी सहायता करने के लिए मुझे उसको अपने साथ लेकर रास्ता पार करना ही होगा। इसलिए अन्य लोगों के हित के लिए तुम्हें युद्ध का कर्म करना ही चाहिए।
यद्यदाचरति श्रेष्ठ:(स्), तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं(ङ्) कुरुते, लोकस्तदनुवर्तते॥3.21॥
श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, दूसरे मनुष्य उसी के अनुसार आचरण करते हैं।
विवेचन: घर के बुजुर्ग जैसा आचरण करते हैं वैसा ही परिवार के अन्य लोग करते हैं। लोकमान्य तिलक के जीवन से हमें प्रेरणा मिलती है। श्रेष्ठ लोग जैसा करते हैं वह प्रमाण बन जाता है। माता-पिता को देखकर ही बालक का आचरण होता है। मान लो घर में पिताजी के लिए फोन आया और बच्चे ने फोन उठाया, पिता इशारे से उससे कहते हैं "मना कर दो"। अब बालक फोन पर कहता है पिताजी घर पर नहीं है। परन्तु बालक सोचता है यही धर्म है। जब पिता ऐसा करते हैं तो मुझे भी ऐसा ही करना चाहिए और वह ऐसा ही करता है। माँ बच्चे को मोबाइल से खेलने के लिए मना करती है परन्तु वह खुद सारा दिन मोबाइल लिए रहती है, तब बालक नहीं मानेगा। उदाहरण श्रेष्ठ होना चाहिए।
इसीलिए सन्तों को भी सही आचरण करना होता है। इसीलिए हे अर्जुन, तुम्हें यह कार्य करना ही पड़ेगा। भगवान ने जो बोला है वह स्वयं भी किया है इसीलिए आज पाँच हजार वर्ष बाद भी गीता प्रासंगिक है।
इसीलिए सन्तों को भी सही आचरण करना होता है। इसीलिए हे अर्जुन, तुम्हें यह कार्य करना ही पड़ेगा। भगवान ने जो बोला है वह स्वयं भी किया है इसीलिए आज पाँच हजार वर्ष बाद भी गीता प्रासंगिक है।
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं(न्), त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं(व्ँ), वर्त एव च कर्मणि॥3.22॥
हे पार्थ! मुझे तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और न (कोई) प्राप्त करने योग्य (वस्तु) अप्राप्त है, (फिर भी मैं) कर्तव्य कर्म में ही लगा रहता हूँ।
विवेचन: भगवान कहते हैं हेअर्जुन, मेरे लिए तो कोई भी कार्य करने की आवश्यकता नहीं है, फिर भी मैं कार्य करता हूँ।
भगवान गो-पालन करते हैं, यज्ञ में झूठे पत्तल उठाते हैं, यहाँ तक कि अर्जुन का रथ चला रहे हैं जबकि इस सब से उन्हें कुछ प्राप्त नहीं करना है। यहाँ चौथे अध्याय का आठवाँ श्लोक प्रसांगिक है।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।
धर्म की स्थापना के लिए ही भगवान सब कार्य कर रहे हैं। महाभारत के युद्ध में भगवान घोड़ों की देखभाल करते हैं। उन्हें भोजन कराते हैं, नहलाते हैं, उनका हरारा करते हैं। युद्ध में यदि कोई घोड़ा जख्मी हो जाता है, तो वह उसके शरीर से तीर भी निकालते हैं और उसके जख्मों की देखभाल भी करते हैं।
भगवान गो-पालन करते हैं, यज्ञ में झूठे पत्तल उठाते हैं, यहाँ तक कि अर्जुन का रथ चला रहे हैं जबकि इस सब से उन्हें कुछ प्राप्त नहीं करना है। यहाँ चौथे अध्याय का आठवाँ श्लोक प्रसांगिक है।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।
धर्म की स्थापना के लिए ही भगवान सब कार्य कर रहे हैं। महाभारत के युद्ध में भगवान घोड़ों की देखभाल करते हैं। उन्हें भोजन कराते हैं, नहलाते हैं, उनका हरारा करते हैं। युद्ध में यदि कोई घोड़ा जख्मी हो जाता है, तो वह उसके शरीर से तीर भी निकालते हैं और उसके जख्मों की देखभाल भी करते हैं।
यदि ह्यहं(न्) न वर्तेयं(ञ्), जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते, मनुष्याः(फ्) पार्थ सर्वशः॥3.23॥
क्योंकि हे पार्थ ! अगर मैं किसी समय सावधान होकर कर्तव्य-कर्म न करूँ (तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि) मनुष्य सब प्रकार से मेरे (ही) मार्ग का अनुसरण करते हैं।
विवेचन: भगवान कहते हैं कि यह सब मैं करता हूँ इसीलिए मुझे कहने का अधिकार है। यदि मैं सावधानी से यह कार्य ना करूँ तो जो सब मेरा आचरण करते हैं वह भी सही कार्य नहीं करेंगे। इस सन्दर्भ में एक प्रसंग आता है, एक सन्त हुए हैं एकनाथ महाराज। एक बार उनके पास एक स्त्री अपने बच्चे को लेकर आई और कहने लगी महाराज यह गुड़ बहुत अधिक खाता है। यहाँ तक कि इसकी नाक से खून बहने लगता है ,फोड़े फुँसी हो जाते हैं किन्तु यह नहीं मानता। एकनाथ महाराज ने कहा आप मुझसे मिलने के लिए आठ दिन बाद आना।
आठ दिन बाद जब वह स्त्री अपने बच्चे को लेकर आयी तो महाराज ने उस बालक से कहा, बेटा आज से तुम गुड़ खाना छोड़ दो। अब स्त्री को बड़ा आश्चर्य हुआ। थोड़े दिन बाद वह पुनः आई और बोली महाराज मेरे बच्चे ने गुड़ खाना छोड़ दिया है परन्तु इस बात को कहने के लिए आपने आठ दिन का समय क्यों माँगा। महाराज ने कघहा मैं स्वयं बहुत गुड़ खाता था, फिर मैंने खुद गुड़ खाना छोड़ा। जब तक मैं खुद गुड़ खा रहा हूँ, मैं तुम्हारे बालक को गुड़ छोड़ने के लिए नहीं कह सकता। जब मैंने पहले स्वयं गुड़ खाना छोड़ दिया तब मेरे कहने से तुम्हारे बालक ने भी उसे छोड़ दिया क्योंकि उसके ऊपर मेरी बात का प्रभाव पड़ा।
आठ दिन बाद जब वह स्त्री अपने बच्चे को लेकर आयी तो महाराज ने उस बालक से कहा, बेटा आज से तुम गुड़ खाना छोड़ दो। अब स्त्री को बड़ा आश्चर्य हुआ। थोड़े दिन बाद वह पुनः आई और बोली महाराज मेरे बच्चे ने गुड़ खाना छोड़ दिया है परन्तु इस बात को कहने के लिए आपने आठ दिन का समय क्यों माँगा। महाराज ने कघहा मैं स्वयं बहुत गुड़ खाता था, फिर मैंने खुद गुड़ खाना छोड़ा। जब तक मैं खुद गुड़ खा रहा हूँ, मैं तुम्हारे बालक को गुड़ छोड़ने के लिए नहीं कह सकता। जब मैंने पहले स्वयं गुड़ खाना छोड़ दिया तब मेरे कहने से तुम्हारे बालक ने भी उसे छोड़ दिया क्योंकि उसके ऊपर मेरी बात का प्रभाव पड़ा।
उत्सीदेयुरिमे लोका, न कुर्यां(ङ्) कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्याम्, उपहन्यामिमाः(फ्) प्रजाः॥3.24॥
यदि मैं कर्म न करूँ, (तो) ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और (मैं) वर्णसंकरता को करने वाला होऊँ (तथा) इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ।
विवेचन: भगवान कहते हैं यदि मैं कर्म ना करूँ तो यह सारा संसार नष्ट हो जाएगा। धरती को सूर्य धारण करता है और अपने गुरुत्वाकर्षण के कारण धरती ब्रह्माण्ड में स्थापित रहती है। सब तारे अपनी जगह पर रहते हैं। सबको धारण करने वाले स्वयं भगवान हैं।यदि वह अपना कर्म करना बंद कर दें और धरती का गुरुत्वाकर्षण समाप्त हो जाएगा तो फिर तो सूर्य चन्द्र भी अपनी जगह पर नहीं रहेगें। भगवान श्रीराम व श्रीकृष्ण के रूप में भी वह अपने कर्त्तव्य का ही पालन करते हैं। यदि हम इसी तरह अच्छे करते कर्म करते हुए कर्त्तव्य करेंगे तो परम सिद्धि की प्राप्ति भी कर सकते हैं। कर्म करना है, परन्तु कर्त्तव्य करते हुए कर्म करना है। इन्हीं शब्दों के साथ विवेचन सत्र का समापन हुआ।
इसके पश्चात् प्रश्नोत्तर हुए।
प्रश्नकर्ता : श्री श्याम प्रसाद भैय्या
प्रश्न : यज्ञ का क्या अर्थ है, सामान्य रूप में यज्ञ का अर्थ हवन व आहुति है परन्तु यहाँ यज्ञ का क्या तात्पर्य है?
उत्तर: यज्ञ व आरती से हम सामान्य तौर पर देवताओं को प्रसन्न करने की चेष्टा करते हैं इसी प्रकार यदि हम अपना कर्त्तव्य ठीक से पालन करें तो वह भी यज्ञ ही है। उससे संसार का लाभ होगा यदि पेड़ लगाए तो वातावरण अच्छा होगा। Performing your duty in correct manner is yagna. धर्म का अर्थ religion नहीं है धर्म का अर्थ है अपने कर्तव्य का पालन करना, जिस कार्य से आध्यात्मिक उन्नति हो वही धर्म है सृष्टि के निर्माण के साथ ही यज्ञ का निर्माण होता है। धर्म की अनेक परिभाषाएँ हैं। जिनमे से एक है By following which we get prosperity and aadhyatmik unnati.That is Dharm.
संस्कृत और हिंदी के बहुत से ऐसे शब्द है जिस के लिए इंग्लिश में कोई शब्द नहीं है। जैसे श्राद्ध, पिण्डदान यह संस्कृत शब्द हैं तो इसको आप संस्कृत में ही समझ सकते हैं। जब हर जीव जन्म लेता है तो उसका कर्त्तव्य भी जन्म लेता है जिसको उसको पालन करना होता है।
प्रश्नकर्ता : श्री देवराम चौहान भैय्या
प्रश्न: आप कहते हैं कि गीता पढ़ें, पढ़ाए जीवन में लाएँ। हमें पहले गीता पढ़ना चाहिए या पहले विवेचन सुनना चाहिए? और दूसरा प्रश्न है कि जो हम कर्म कर रहे हैं वह कर्त्तव्य कर्म है कि नहीं यह कैसे पता चलेगा ?
उत्तर: गीता पढ़ना और विवेचन सुनना दोनों ही करते रहना चाहिए, एकदम से तो पढ़ना भी नहीं आने वाला। पिछले सत्रह अट्ठारह वर्ष से मैं गीता का अर्थ ढूँढने का प्रयास कर रहा हूँ पर बड़े-बड़े महात्मा भी अथक प्रयास के बाद यह नहीं कह सकते कि उन्हें गीता का पूर्ण अर्थ समझ में आ गया। क्योंकि हर बार जब हम गीता पढ़ते हैं तो उससे हमें नया अर्थ प्राप्त होता है। गीता पढ़ना और पढ़ाना दोनों वास्तव में एक ही काम है। गीता पढ़ाने का भी यही अर्थ है कि पढ़ाने के निमित्त से मेरी पढ़ाई अच्छी हो जाती है। इसलिए गीता पढ़ाना स्वयं का अभ्यास करने के लिए है और जीवन में लाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। Performing our duty जैसा पहले भी बताया है हमें अपना कर्त्तव्य करना है।
आपका दूसरा प्रश्न है कि कर्त्तव्य कर्म, हम जो कर्म कर रहे हैं वह हमारा कर्त्तव्य है कि नहीं, हम स्वयं कोई प्रश्न पूछेंगे कि क्या यह कर्म करना उचित है, क्या यह करना मेरा धर्म है। आप अपनी अन्तरात्मा से पूछिए आपको अपने आप उत्तर मिल जाएगा कि यह कार्य करना चाहिए कि नहीं। भगवान ने सोलहवें अध्याय के अन्त में कहा है कार्य और कर्त्तव्य में अन्तर समझने के लिए हमारे शास्त्र ही आधार हैं अर्थात हमारे वेद। यही प्रश्न अर्जुन पूछते हैं और भगवान ने सत्रहवें अध्याय में इसका बहुत सुन्दर उत्तर दिया है।
आप अपना कर्त्तव्य करने के प्रारम्भ में ओम का उच्चारण करें, भगवान का स्मरण करें कि हे भगवान आपके बताए हुए कर्त्तव्य केअनुसार ही मैं कर्म करने जा रहा हूँ। कर्म करने के बाद यदि उसे हम परमात्मा को ही अर्पण करते हैं तो वह अपने आप ही सत्कर्म हो जाते हैं।
प्रश्न: (प्रश्नकर्ता ने पुनः प्रश्न किया) मुझे आज पहली बार विवेचन में नींद नहीं आई तो इसका क्या कारण है?
उत्तर: पूज्य स्वामी जी कहते हैं सत्संग या विवेचन में यदि नींद भी आ जाती है तो आधी निद्रा में भी बैठना चाहिए क्योंकि यहाँ जो हम सुन लेते हैं उसका भी अच्छा परिणाम होता है। ना समझते हुए भी कोई गीता को पढ़ता है, उसका परायण करता है तो भी उसे लाभ ही होता है। यह गीता मंत्रमय है इसका उच्चारण करने से ही व्यक्ति दोषमुक्त हो जाते हैं।
प्रश्न: गीता के श्लोकों को याद कैसे करें ?
उत्तर: गीता की कक्षा चालीस मिनट की होती है उसे आप साठ मिनट समझे जो भी दो या तीन श्लोक पढ़ाए जाते हैं बाद के बीस मिनट में उन्हें बार-बार पढें। यदि एक श्लोक को बीस बार पढ़ेंगे तो वह कंठस्थ हो जाएगा, इसी तरह अगले दिन पुनः याद करें और अगले दिन के श्लोक याद करें प्रयास और अभ्यास से यह सम्भव हो जाएगा।
इसके बाद प्रार्थना के साथ इस सत्र का समापन हुआ।
इसके पश्चात् प्रश्नोत्तर हुए।
प्रश्नकर्ता : श्री श्याम प्रसाद भैय्या
प्रश्न : यज्ञ का क्या अर्थ है, सामान्य रूप में यज्ञ का अर्थ हवन व आहुति है परन्तु यहाँ यज्ञ का क्या तात्पर्य है?
उत्तर: यज्ञ व आरती से हम सामान्य तौर पर देवताओं को प्रसन्न करने की चेष्टा करते हैं इसी प्रकार यदि हम अपना कर्त्तव्य ठीक से पालन करें तो वह भी यज्ञ ही है। उससे संसार का लाभ होगा यदि पेड़ लगाए तो वातावरण अच्छा होगा। Performing your duty in correct manner is yagna. धर्म का अर्थ religion नहीं है धर्म का अर्थ है अपने कर्तव्य का पालन करना, जिस कार्य से आध्यात्मिक उन्नति हो वही धर्म है सृष्टि के निर्माण के साथ ही यज्ञ का निर्माण होता है। धर्म की अनेक परिभाषाएँ हैं। जिनमे से एक है By following which we get prosperity and aadhyatmik unnati.That is Dharm.
संस्कृत और हिंदी के बहुत से ऐसे शब्द है जिस के लिए इंग्लिश में कोई शब्द नहीं है। जैसे श्राद्ध, पिण्डदान यह संस्कृत शब्द हैं तो इसको आप संस्कृत में ही समझ सकते हैं। जब हर जीव जन्म लेता है तो उसका कर्त्तव्य भी जन्म लेता है जिसको उसको पालन करना होता है।
प्रश्नकर्ता : श्री देवराम चौहान भैय्या
प्रश्न: आप कहते हैं कि गीता पढ़ें, पढ़ाए जीवन में लाएँ। हमें पहले गीता पढ़ना चाहिए या पहले विवेचन सुनना चाहिए? और दूसरा प्रश्न है कि जो हम कर्म कर रहे हैं वह कर्त्तव्य कर्म है कि नहीं यह कैसे पता चलेगा ?
उत्तर: गीता पढ़ना और विवेचन सुनना दोनों ही करते रहना चाहिए, एकदम से तो पढ़ना भी नहीं आने वाला। पिछले सत्रह अट्ठारह वर्ष से मैं गीता का अर्थ ढूँढने का प्रयास कर रहा हूँ पर बड़े-बड़े महात्मा भी अथक प्रयास के बाद यह नहीं कह सकते कि उन्हें गीता का पूर्ण अर्थ समझ में आ गया। क्योंकि हर बार जब हम गीता पढ़ते हैं तो उससे हमें नया अर्थ प्राप्त होता है। गीता पढ़ना और पढ़ाना दोनों वास्तव में एक ही काम है। गीता पढ़ाने का भी यही अर्थ है कि पढ़ाने के निमित्त से मेरी पढ़ाई अच्छी हो जाती है। इसलिए गीता पढ़ाना स्वयं का अभ्यास करने के लिए है और जीवन में लाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। Performing our duty जैसा पहले भी बताया है हमें अपना कर्त्तव्य करना है।
आपका दूसरा प्रश्न है कि कर्त्तव्य कर्म, हम जो कर्म कर रहे हैं वह हमारा कर्त्तव्य है कि नहीं, हम स्वयं कोई प्रश्न पूछेंगे कि क्या यह कर्म करना उचित है, क्या यह करना मेरा धर्म है। आप अपनी अन्तरात्मा से पूछिए आपको अपने आप उत्तर मिल जाएगा कि यह कार्य करना चाहिए कि नहीं। भगवान ने सोलहवें अध्याय के अन्त में कहा है कार्य और कर्त्तव्य में अन्तर समझने के लिए हमारे शास्त्र ही आधार हैं अर्थात हमारे वेद। यही प्रश्न अर्जुन पूछते हैं और भगवान ने सत्रहवें अध्याय में इसका बहुत सुन्दर उत्तर दिया है।
आप अपना कर्त्तव्य करने के प्रारम्भ में ओम का उच्चारण करें, भगवान का स्मरण करें कि हे भगवान आपके बताए हुए कर्त्तव्य केअनुसार ही मैं कर्म करने जा रहा हूँ। कर्म करने के बाद यदि उसे हम परमात्मा को ही अर्पण करते हैं तो वह अपने आप ही सत्कर्म हो जाते हैं।
प्रश्न: (प्रश्नकर्ता ने पुनः प्रश्न किया) मुझे आज पहली बार विवेचन में नींद नहीं आई तो इसका क्या कारण है?
उत्तर: पूज्य स्वामी जी कहते हैं सत्संग या विवेचन में यदि नींद भी आ जाती है तो आधी निद्रा में भी बैठना चाहिए क्योंकि यहाँ जो हम सुन लेते हैं उसका भी अच्छा परिणाम होता है। ना समझते हुए भी कोई गीता को पढ़ता है, उसका परायण करता है तो भी उसे लाभ ही होता है। यह गीता मंत्रमय है इसका उच्चारण करने से ही व्यक्ति दोषमुक्त हो जाते हैं।
प्रश्न: गीता के श्लोकों को याद कैसे करें ?
उत्तर: गीता की कक्षा चालीस मिनट की होती है उसे आप साठ मिनट समझे जो भी दो या तीन श्लोक पढ़ाए जाते हैं बाद के बीस मिनट में उन्हें बार-बार पढें। यदि एक श्लोक को बीस बार पढ़ेंगे तो वह कंठस्थ हो जाएगा, इसी तरह अगले दिन पुनः याद करें और अगले दिन के श्लोक याद करें प्रयास और अभ्यास से यह सम्भव हो जाएगा।
इसके बाद प्रार्थना के साथ इस सत्र का समापन हुआ।