विवेचन सारांश
प्रकृति के गुण और जीव के चैतन्य स्वरूप का वर्णन
विवेचन सत्र का शुभारम्भ भगवान श्रीकृष्ण की वन्दना, दीप प्रज्वलन और गुरु वन्दना के साथ हुआ। इस अध्याय में भगवान ने ज्ञान की बातें करना आरम्भ कीं, भगवान अर्जुन के माध्यम से ज्ञान का दीपक जलाना चाहते हैं। आइए चलते हैं उस महत्त्वपूर्ण अध्याय के चिन्तन की ओर, विवेचन की ओर जो गुरुदेव के मुखारविन्द से प्रवाहित हुआ। हमने नवम अध्याय में चिन्तन का प्रयास किया और तीर्थ प्राशन। नवम अध्याय के अन्तिम श्लोक क्रमाँक-34 में भगवान कहते हैं:
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी माँ नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।
किस प्रकार से उस परमात्मा के साथ एकाकार होना है, यह सन्देश इस अन्तिम श्लोक के माध्यम से दिया। हम एक महत्त्वपूर्ण अध्याय जिसका नाम गुणत्रयविभागयोग है, का चिन्तन करने के लिए प्रस्तुत हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है, मानो स्वयं के अन्दर झाँकने का अध्याय है। जीव, जगत, जगदीश्वर इन तीनों का परस्पर सम्बन्ध क्या है और क्यों जीव परमात्मा का अंश होते हुए भी अपने को देह मानता है, गुणों से भयभीत है। यह सारा ज्ञान भगवान ने अर्जुन के माध्यम से हम सब के लोगों के लिए खोल दिया है और यह एक अविकल संवाद है श्रीमद्भगवद्गीता और जब प्रत्यक्ष समराङ्गण मेंअर्जुन हतोत्साहित हो गए तब भगवान के मुखारविंद से ये प्रवाहित हुआ। जब प्रियत्व की सीमा नहीं होती तब ज्ञान स्पर्श करता है। अर्जुन जीवात्मा का प्रतिनिधि है। अर्जुन जीवात्मा है और भगवान परमात्मा। जीवात्मा और परमात्मा इन दोनों का अटूट सम्बन्ध है। दोनों के मित्रता के सम्बन्ध हैं। यह जिसने जान लिया वह धीरे-धीरे अपने जीवन को परमात्मा की ओर अग्रसर करने को बाध्य हो जाता है और इसीलिए भगवान ने दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ के लक्षण कहे। भगवान ने बारहवें अध्याय में ज्ञानी के लक्षण एवम् सोलहवें अध्याय में दैवी सम्पद युक्त मनुष्य के लक्षण भगवान के श्री मुख से प्रवाहित हुए। भगवान ने इस अध्याय में गुणातीत के लक्षण का वर्णन किया है।
इन सब लक्षणों में कुछ साधर्म्य भी है, वह भी हम देखने का प्रयास करेंगे लेकिन इस महत्त्वपूर्ण अध्याय में प्रवेश करने के पूर्व जिस प्रकार से हम लोग ज्ञानेश्वर महाराज का जो चिन्तन है, ज्ञानेश्वर महाराज की जो ज्ञानेश्वरी है उसमें उन्होंने जो भाव दर्शन श्रीमद्भगवद्गीता का कराया है और गीता के ऊपर 9000 ओवियों की ज्ञान गङ्गा जो उनके मुखारविंद से प्रवाहित हुई है वह भी मात्र 16 वर्ष की आयु में ऐसा जो चिन्तन प्रस्तुत किया जबकि सम्पूर्ण समाज ने उन पर अत्याचार किया लेकिन जैसे कहा जाता है, मानव समाज का विष का प्याला अपने होठों से लगा लिया। विष का प्राशन करके जो पहली धारा उन के मुखारविंद से प्रवाहित हुई है वह है ज्ञानेश्वरी और यह अमृतमय है। विष को अमृत में कैसे बदलना यह हमें ज्ञानेश्वरी से प्राप्त होता है और इसीलिए ज्ञानेश्वरी के प्रारम्भ में ही ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं और अपने गुरु जी के चरणो में नतमस्तक हो जाते हैं। जब गुरु के चरणों में साधक का प्रवेश होता है तो उन चरण कमलों के साथ साथ सरस्वती का भी मेरे जीवन में प्रवेश हुआ और ज्ञान की लालसा बढ़ी और इसीलिए मैं गुरु के चरणों को छोड़ना नहीं चाहता और मैं आपके चरणों का आश्रय लेकर ही यह भगवद्गीता का भाष्य करना चाहता हूँ। कृपा कीजिएगा और मेरी बुद्धि के सारे सिद्धान्त भर दीजिएगा ताकि मैं इस श्रीमद्भगवद्गीता का निरूपण कर सकूँ।
साधका तू माऊली
पिके सारस्वत तुझा पाऊली
या करणे तुझी सांवली
आता कृपा भांडवल सोडी
भरी मति माझी पोतडी
परि ज्ञान पद्य जोड़ी
पोरा माता I
वे प्रारम्भ करते हुए कहते हैं इसीलिए सतगुरु के चरण कमलों का आश्रय लिए बिना ज्ञान अवतरित नहीं होता। अर्जुन ने भी भगवान के चरणों का आश्रय लिया और समर्पण किया अध्याय -2 श्लोक क्रमाँक -7 के आलोक में दर्शनीय है:
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता: |
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चित्तं ब्आत्माि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि माँ त्वां प्रपन्नम् ||
अर्जुन ने कहा कि मैं शरणागत हूँ। मुझे उपदेश दीजिए और मैं आपका शिष्य हूँ इसीलिए गुरु का आश्रय लेते हुए प्रवेश करते हैं।
इस महत्त्वपूर्ण अध्याय में भगवान ने स्वयं इसे कहना प्रारम्भ किया है और इस अध्याय का नाम है गुणत्रयविभाग। गुण शब्द का अर्थ भी हम समझेंगे, गुण यानि गुणधर्म (Properties, qualities )। जिस प्रकार जल का गुणधर्म है शीतलता, सूर्य का प्रकाश है, चंद्रमा का चाँदनी है, अग्नि का तेजस्विता है अर्थात उसके साथ चिपकी हुई है, जुड़ी हुई है, उससे भिन्न नहीं हो सकती। ये हो गया गुण धर्म इस परिप्रेक्ष्य में और दूसरा अर्थ है रस्सी जो बाँधती है और यह प्रकृति के 3 गुणों की रस्सी जीव को प्रकृति के साथ बाँधती है और इसीलिए इस जीव को अपने मूल स्वरूप, चेतन स्वरूप का विस्मरण हो जाता है। वह स्वयं को देह मानता है और यहीं से समस्याओं का प्रारम्भ होता है। देह है विनाशी और चैतन्य तत्त्व है अविनाशी तो देह और देही, जड़ और चेतन इन दोनों के मिलाप से सृष्टि का कार्य चलता है किन्तु दोनों के भिन्न स्वभाव है और यह भिन्न स्वभाव एकत्रित होकर कार्य करते हैं। इसीलिए मनुष्य भी कभी जानना चाहता है, किन्तु प्रयास करने पर भी जान नहीं पाता। कुछ करना चाहता है, करने से उसके जीवन का उन्नयन होगा किन्तु वह कर नहीं पाता। इस बन्धन को जाने बिना हम मुक्त नहीं होंगे और इसलिए भगवान ने स्वयं इस अध्याय का प्रारम्भ किया और अर्जुन ने प्रश्न नहीं पूछा।
14.1
श्रीभगवानुवाच
परं(म्) भूयः(फ्) प्रवक्ष्यामि, ज्ञानानां(ञ्) ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनयः(स्) सर्वे, परां(म्) सिद्धिमितो गताः॥14.1॥
विवेचन: भगवान कहते हैं अर्जुन सभी ज्ञान जो हम कह सकते हैं सभी ज्ञान के विभागों में अत्यन्त उत्तम ऐसा ज्ञान मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ और वे कहते हैं, मैं फिर से बताना चाहता हूँ। सम्यक रूप से बताना चाहता हूँ। क्यों बताना चाहते हूँ बार-बार, जब तक पूरी तरह इसका ठहराव, निर्माण न हो जाए। मै चाहता हूँ ये ज्ञान तुम्हारे अन्दर संक्रमित होता जाए, तुम्हारे जीवन में घुलता जाए, जीवन में अवतरित होता जाए। इसीलिए तुम्हें मैं बार-बार बताऊँगा। जब तक तुम इसके साथ पूरी तरह घुल मिल नहीं जाते और उत्तम ज्ञान बताना चाहता हूँ।
एक होता है अपनी उपजीविका का और दूसरा होता है जीवन का I
सामान्य ज्ञान, एक उपजीविका ज्ञान जैसे भौतिक विज्ञान, रसायन, विज्ञान जीव विज्ञान, विधि विज्ञान, प्रबन्ध विज्ञान आदि सीखते हैं।
इस सृष्टि में आए हैं ज्ञान के रूप में प्राप्त करते हैं उसे कहते हैं अपरा विद्या I किन्तु भगवान कहते हैं मैं तुम्हें जीवन का ज्ञान सिखाना चाहता हूँ जिसे कहते हैं परा विद्या। ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं कि इसीलिए पहले ही भगवान ने सातवें अध्याय के श्लोक संख्या दो में कहा है कि:
ज्ञानं तेऽहं विज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषत्: |
यज्ज्यत्व नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते
इसमें स्वयं के द्वारा स्वयं को जानने की बात भगवान करते हैं जिसे जानने पर और कोई जानना अवशेष नहीं रहता।
मेरा और कोई स्वरूप है जो मेरे अन्दर ऊर्जा निर्माण करते हुए जो मुझसे सारा कार्य करवा रहा है। यह मेरे स्वरूप की ओर जाने का ज्ञान है। भगवद्गीता को ज्ञान शब्द अत्यन्त प्रिय है आत्मज्ञान और दूसरा है उपजीविका का ज्ञान। ज्ञानेश्वर महाराज उसे कहते हैं विज्ञान। ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं उसे भी सीखना है केवल ज्ञान के पीछे नहीं लगना। भगवद्गीता एक ऐसा अद्भुत ग्रन्थ है जो हमें दोनों ओर से परिपूर्ण करना चाहता है। अभ्युदय, साक्षात, परिपूर्ण, निःश्रेयस।
धर्म के दो अङ्ग हैं। एक अभ्युदय यानि मनुष्य की भौतिक प्रगति, भौतिक उन्नयन होनी चाहिए और इसीलिए भगवद्गीता इसकी आग्रही है, नहीं तो भगवान अर्जुन से कहते तुम छोड़ दो रणभूमि और चले जाओ ज्ञान की आराधना के लिए हिमालय की कन्दरा में या गङ्गा मैया के किनारे में। भगवान अर्जुन को युद्धभूमि छोड़ने नहीं देते। यही पर रह कर वह ज्ञान प्राप्त करना है क्योंकि भौतिक प्रगति महत्त्वपूर्ण है और दूसरा
आत्मिक शान्ति, निःश्रेयस, परम कल्याण भी महत्त्वपूर्ण है इसलिए भगवान दोनों ओर से परिपूर्ण करना चाहते हैं। ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं I
येथे काय करायचे विज्ञान।
जे केवळ प्रपञ्च ज्ञान।।
ऐसे म्हणेल तुझे मन
आधी ते आकळावे।।
प्रपञ्च का जो ज्ञान है उसे विज्ञान कहते हैं। तुम्हें लगेगा कि चलो मैं ज्ञान ही प्राप्त कर लूँ तो नहीं बल्कि पहले उपजीविका का ज्ञान विज्ञान के रूप में प्राप्त करना होगा और तुम्हें इस प्रकार अपने जीवन का अभ्युदय करना होगा, पुरुषार्थ करना होगा उसके साथ साथ आत्मिक ज्ञान, नैतिकता के दायरे में रहकर अभ्युदय प्राप्त कर निःश्रेयस की ओर बढ़ना होगा, शान्ति की ओर, कल्याण की ओर। ज्ञानेश्वर महाराज ने इसलिए कह दिया कि भगवान कहते हैं वह ज्ञान तुम्हें मैं बार-बार बताता हूँ। जब तक ठहराव नहीं होगा तब तक बताता हूँ। तुम्हारे मन में यह आएगा कि क्यों बता रहे हैं भगवान तो जिसे जानने के बाद सारे मुनि परम सिद्धि को प्राप्त कर लिए। भगवान यहाँ पर मुनि शब्द का प्रयोग करते हैं। भगवान कहते हैं मननशील जो है, उन्हें मुनि कहते हैं, जो जीवन में उतारने का प्रयास करता है। इसलिए गुरुदेव कहते हैं कि केवल भगवद्गीता कण्ठस्थ करने से हमारे जीवन में कुछ न कुछ उन्नयन तो होता ही है, किन्तु केवल कण्ठस्थ करना, व्याख्यान देने के लिए कहीं न कहीं पढ़ते हैं। कण-कण बटोरते हैं या गुरु के मुखारविंद से प्रवाहित ज्ञान हो, फिर साझा करते हैं किन्तु इसे जीवन में उतारने से ही यह ज्ञान हमारे अन्दर संक्रमित होगा और इसीलिए मुनि शब्द का प्रयोग किया अर्थात जो मननशील है, वह परम सिद्धि प्राप्त करता है। देखिए सिद्धियां आती है और नष्ट हो जाती है। जिस प्रकार भागवत में भी कहा है कि भगवान की भक्ति करने से सिद्धियाँ प्राप्त होती है। अणिमा, महिमा, लघिमा गरिमा आदि आज यह जिस प्रकार से मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर उलझ जाता है और यह सिद्धियाँ आती हैं तो चली भी जाती हैं। जिसे हम कह सकते हैं मनुष्य का विनाश कर देते हैं वह है प्रसिद्धि लेकिन यह मिलती है तो कभी-कभी छिन भी जाती है और मनुष्य जब सिद्धियों में अटकता है तो परमात्मा से दूर हो जाता है। इसलिए भगवान कहते हैं परम सिद्धि को प्राप्त करना, जो कभी नष्ट नहीं होती। परम सिद्धि है परमात्मा के साथ एकाकारिता और यह ज्ञान ढक गया है अर्जुन! परिच्छिन्न हो गया है। जो अज्ञान के बादल हैं वे छँट जाने चाहिए।
इसलिए तुम्हें मै इस ज्ञान को बताना चाहता हूँ। सन्त ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं कि उनके शब्दों का हम आश्रय लेते हैं, ज्ञान तो हमारे अन्दर ही है। अन्तःकरण में ही ये ज्ञान है। जीवात्मा को जानना चाहिए कि वह किसका अंश है और ये पराया क्यों हो जाता है? अज्ञान से ढक क्यों जाता है क्योंकि यह जो सारी सृष्टि है हमें उसके साथ बाँधती है और हम उस में उलझ जाते हैं और सृष्टि के बंधनों में फँस जाते हैं। हमें उस सृष्टि में रस आने लगता है और सृष्टि के गुणों के बन्धन में आ जाते हैं। ठाकुर रामकृष्ण देव जी ने जगदम्बा की आराधना की और जगदम्बा माता ने उनके लिए वेदान्त का ज्ञान प्रदत्त करने के लिए तोतापुरी महाराज को भेज दिया। उन्होंने वेदान्त की शिक्षा ग्रहण की। अनेक सिद्धियाँ उन्हें प्राप्त हुई किन्तु एक भी सिद्धि का उपयोग उन्होंने अपने जीवन में नहीं किया। यहाँ तक कि जब उन्हें गले का कैंसर हो गया था तो स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा कि ठाकुर आप को जो सिद्धि प्राप्त है गले में मन से एकाग्र कीजिएगा तो यह रोग चला जाएगा। उन्होंने कहा, पगले मेरा मन जगदम्बा में एकाकार है। जगदम्बा में एकाग्र है। मैं वहाँ से निकाल कर इस देह में उसे लगाऊँ। मैं चैतन्य में स्थित, यह देह तो कभी न कभी जाने वाला है। भगवान कहते हैं यह ज्ञान होने के बाद क्या होगा अर्जुन इसे भी सुन लो।
इदं(ञ्) ज्ञानमुपाश्रित्य, मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते, प्रलये न व्यथन्ति च॥14.2॥
विवेचन: इस ज्ञान का आश्रय लेते हुए जीवन जीने वाले, इससे लिपटकर रहने वालों का यह जो ज्ञान है जिनके जीवन में पूरी तरह घुल मिल गया, इस ज्ञान के साथ समरस रहने वाले जो ज्ञान को पचा लिए, ऐसे लोग मेरे साथ साधर्म्य को प्राप्त कर लेते हैं। भगवान के रूप से साधर्म्य, भगवान के आभूषण से साधर्म्य, भगवान के आभूषण भी अलग-अलग हैं जैसे गदा, पद्म, पीतांबर आदि, राम जी के रूप में धनुष धारण करते हैं, श्रीकृष्ण के रूप में होते हैं तो सुदर्शन चक्र और बाँसुरी धारण करते हैं, शिव के रूप में होते हैं तो त्रिशूल धारण करते हैं तो कौन सा साधर्म्य भगवान का है? भगवान कहते हैं सत्, चित्त, आनन्द मेरा स्वरूप है। भगवान कहते हैं, वह स्वरूप को जो प्राप्त कर लेता है, हे अर्जुन! वह इस ज्ञान से अपने जीवन में उन्नयन करता है, इस ज्ञान के साथ लिपटकर रहता है, इस ज्ञान के रस में स्वयं को डुबो देता है वह मेरा साधक मेरे सत चित्त आनन्द स्वरूप में, भगवान के मूल स्वरूप को जो प्राप्त कर लेता है। बाकी तो भगवान का अलग-अलग स्वरूप है हमारी उपासनाओं के लिए किन्तु सत अर्थात अनन्त जीवन जो कभी भी समाप्त नहीं होता, हम सभी उसी के लिए लालायित हैं, अनन्त जीवन के लिए और चित्त अर्थात अखण्ड ज्ञान, असीम ज्ञान और आनन्द यानि असीम सुख जो सुख कभी खण्डित नहीं होता, जो बहिरङ्ग के विषयों से प्रभावित नहीं होता यह अन्तरङ्ग का स्वाधीन सुख, असीम सुख। यह तीन भगवान के लक्षण रूप है सत, चित्त और आनन्द वह सच्चिदानन्द के स्वरूप को प्राप्त करता है। अब भगवान के साधर्म्य में इसका यह अर्थ नहीं कि कोई मुनि है, कोई महात्मा है, कोई आत्मज्ञान प्राप्त व्यक्ति है तो वह परमात्मा के साथ एकाकारिता प्राप्त करते हुए देह में रहते हुए ही अपने स्वरूप को जान लेते हैं। इसकी अनुभूति भी करता है। इसका अर्थ है कि भगवान साधर्म्य प्राप्त होता है क्योंकि वह भगवान का स्वरूप जानकर उसमें डूबे रहते है जिस प्रकार से गङ्गा की धारा प्रवाहित होती है, उसमें एक लोटा जल यदि हमने ले लिया तो उस लोटे के जल में भी वही गुण धर्म है जो गङ्गा जी की प्रवाह के जल में किन्तु लोटे का जल गङ्गा जी पूरा का पूरा नहीं हो गया।
जिस प्रकार अविचल बहने वाली जलधारा है, सागर से मिलने वाली जलधारा है, उसी प्रकार परमात्मा अनन्त है। परमात्मा अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। उसका साधर्म्य यानि उनके गुणों को अपने में अवतरित होना सृष्टि का निर्माण नहीं कर सकता। यह बात हम लोग समझें। वह भगवान के साथ एकाकारिता कर सकता है और वह प्राप्त होने के बाद क्या होता है, भगवान कहते हैं कि अब वह जीव सृष्टि की उत्पत्ति के साथ उत्पन्न नहीं होता और विलय के समय में भी वह व्यथित नहीं होता। हम लोग व्यथित होते हैं किन्तु वह पीड़ा से व्यथित नहीं होता, पीड़ा उसके जीवन से चली गई। सबसे अधिक पीड़ा मृत्यु की होती है क्योंकि हमें लगता है कि देह छोड़कर जाना पड़ेगा, किन्तु उसके समझ में आ जाता है कि वह चेतन स्वरूप है और इसीलिए वह व्यथित नहीं होता और सृष्टि स्थिति और लय तीनों के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। यहाँ भगवान ने कह दिया कि वह सत, चित्त, आनन्द स्वरूप मूल में सत, चित्त, आनन्द स्वरूप ही है किन्तु अज्ञान के कारण वह इस मूल स्वरूप को भूल गया और अब इस अज्ञान के बादल छँट जाते हैं। इस प्रकार से एक कथा आती है। एक साहूकार था और उस साहूकार के बेटे निकम्मे निकल गए। उसने अपने धन को जमीन में एक जगह छुपा कर रख दिया और अपने एक विश्वासी मित्र को बता दिय कि जो अगली पीढ़ी मेरी होगी और उसमें से जो अच्छा तुम्हारे पास आएगा उन्हें यह धन का स्थान बता देना। उस साहूकार कि कुछ पोते विदेश पढ़ने चले गए। वह जब वापस आने के बाद देखा कि उनकी जो पिछली पीढ़ी थी, उसने सारा धन गवाँ दिया तो रोने लग गए। ऐसे समय में साहूकार का मित्र आ गया और कहा बेटा रोना नहीं मैं तुम्हें धन का वह स्थान बताता हूँ, जहाँ तुम्हारे दादा जी ने धन संग्रहित कर रख दिया और वहाँ जाकर वह स्थान बता दिया। उस स्थान से धन निकालने के बाद पोते बहुत खुश हो गए और उन्होंने कहा कि आपने तो मुझे मालामाल कर दिया तो साहूकार के मित्र ने कहा, हमने मालामाल नहीं किया, हमने तो ऊपर का आवरण केवल हटाया है। धन तो आप ही का है उसी प्रकार जो हमारे अन्दर सच्चिदानन्द स्वरूप है इस पर से जो पर्दा है, अज्ञान का आवरण है, अज्ञान का बादल है वह भगवान हटाना चाहते हैं वह गुरु की कृपा से ही प्राप्त होगा।
मम योनिर्महद्ब्रह्म, तस्मिन्गर्भं(न्) दधाम्यहम्।
सम्भवः(स्) सर्वभूतानां(न्), ततो भवति भारत॥14.3॥
विवेचन:श्रीभगवान अर्जुन को सम्बोधित करते हुए भारत कहते हैं। भा माने आभा, प्रकाश, ज्ञान। हमारे देश का नाम भारत दुष्यन्त और शकुन्तला के पुत्र भरत के नाम से पड़ा है और रत का अर्थ है रमण करने वाला ऐसा वह देश जहाँ पर ऋषि-मुनियों ने अपनी प्रज्ञा से बहुत सारी तरङ्गे जो परमात्मा से प्राप्त किया; वेदों में, उपनिषदों में एवं बाकी सभी ग्रन्थों में, किस प्रकार उन्होंने वह ज्ञान हमारे लिए प्रस्फुटित कर दिया और इसीलिए भगवान कहते हैं कि तुममें अभी उस ज्ञान की इच्छा बह रही है इसलिए तुम्हें मैं यह ज्ञान बताना चाहता हूँ, जो ज्ञान तुम्हारे जीवन में आने के बाद, उसका मनन करने के बाद तुम महात्मा का साधर्म्य प्राप्त कर लोगे। तुम्हारे अज्ञान के बादल हट जायेंगे। 13वें अध्याय में हम देखेंगे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, जड़ और चेतन के सहयोग से सारा कार्य चलता है। हमारे दो रूप हैं, एक स्थूल है जो हमें दिखता है और एक सूक्ष्म जो अन्दर है, चेतन के रूप में। जैसे पंखा है, उसका वाह्य रूप है ढाँचा किन्तु उसके अन्दर यदि विद्युत प्रभावित नहीं होती तो फैन नहीं संचालित होगा। हवा नहीं फेंकेगा और दूसरा यदि विद्युत वहाँ तक आ गई किन्तु पंखा नहीं है तो भी कार्य नहीं होगा क्योंकि दोनों के मिलाप से कार्य चलता है। उसी प्रकार जड़ और चेतन के मिलाप से इस सम्पूर्ण सृष्टि का कार्य चलता है जिसे स्वयं का भी ज्ञान नहीं अन्य का भी नहीं तो चैतन्य का कैसे होगा लेकिन जिसे स्वयं का ज्ञान है, चेतन का भी ज्ञान है। भगवान कहते हैं सृष्टि का सञ्चालन करने वाली सन्देह्ति महद्ब्रह्म यह सृष्टि प्रकृति पुरुष के सहयोग से संचालित होती है जो कुछ सांख्य दर्शन द्वारा प्रतिपादित है। यह महद्ब्रह्म मेरी प्रकृति है। यह संयोग किसने किया, मैंने किया। जैसे एक माँ गर्भ धारण करती है और एक बालक को जन्म देती है उसी का आधार लेते हुए भगवान कहते हैं कि इस सृष्टि की प्रक्रिया उसी प्रकार चलती है किन्तु उस प्रकृति रूपी योनि में गर्भ मैं प्रदान करता हूँ और उसी के कारण समस्त भूतों की उत्पत्ति होती है। उसी प्रकार प्रकृति रूपी योनि में भगवान कहते हैं चैतन्य रूप गर्भ को स्थापित करता है।
सर्वयोनिषु कौन्तेय, मूर्तयः(स्) सम्भवन्ति याः।
तासां(म्) ब्रह्म महद्योनि:(र्), अहं(म्) बीजप्रदः(फ्) पिता॥14.4॥
विवेचन:भगवान कहते हैं कि जैसे तुम्हारा जन्म माता के गर्भ से हुआ ठीक वैसे इस सृष्टि का भी जन्म होता है और वैसे होती है, अनेक प्रकार की 84 लाख योनियों, पेड़-पौधे जीव, जानवर, पक्षी आदि की ।आजकल कितने लोग अपना जीवन बर्ड वाचिंग (Bird watching) में लगा देते हैं? इस प्रकार से प्रकृति हमें उलझाती है। सृष्टि शरीर धारी प्राणी का निर्माण करती हैं, ये जितने सारे प्राणी हैं, उनका निर्माण करती है। इन्हें धारण करने वाली मेरी यह प्रकृति मूल प्रकृति है और उसमें बीज गर्भाधान करने वाला मैं पिता हूँ। यह जो प्रकृति जिससे भूत मात्राओं, समुदाय की निर्मिति होती है भूत यानि " भवति इति भूतः। जिसकी उत्पत्ति होती है जो मत पञ्चमहाभूतों से बना होता है, पृथ्वी, तेज, जल, वायु और आकाश। जो प्रकृति के बन्धन में चला जाता है। प्रकृति जड़ है जो तीन गुणों वाली है। गुण का अर्थ है गुण धर्म और दूसरा अर्थ है रस्सी जो बन्धन कारक है।
सत्त्वं(म्) रजस्तम इति, गुणाः(फ्) प्रकृतिसम्भवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो, देहे देहिनमव्ययम्॥14.5॥
विवेचन: हे महाबाहो अर्जुन! भगवान भी ऐसे मनोवैज्ञानिक हैं कि वे अपने हतोत्साहित शिष्य के अन्दर ऊर्जा प्रदान करने के लिए उसे उसके गुण धर्म की याद दिलाते हैं।
प्रकृति के तीन गुण है सत, रज और तम। ये प्रकृति से उत्पन्न हुए तीन गुण हैं जो जीवात्मा अविनाशी है, कभी नष्ट नहीं होता, अव्यय है उसे देह के साथ बाँधते हैं और बड़ी विशेष बात है कि ये मानसिक बन्धन है। इन गुणों के लक्षण हैं:
1. सत्वगुण का लक्षण है ज्ञान, प्रकाश, शान्ति। सत्वगुण के कारण ज्ञान की प्राप्ति होती है, जानने की इच्छा होती है। प्रकृति के हर कण में यह तीन गुण हैं इसीलिए वह सामान्य प्राणी भी होगा उसे भी ज्ञान होता है। देह का ज्ञान होता है, कोई आक्रमण करता है, उसे कोई मारना चाहता है, कैसे उससे छुड़ाना है, उसका ज्ञान होता है।
2. रजोगुण: इसका लक्षण क्रियाशीलता और चञ्चलता। हमें क्रिया करने की इच्छा रजोगुण के कारण होती है और अशान्ति होती है।
3. तमोगुण यानि क्रिया का रुकना, जड़त्व, अज्ञान तमोगुण का लक्षण है।
इसलिए सत्व के बिना ज्ञान नहीं, रज के बिना क्रिया नहीं और तम के बिना क्रिया रुकेगी नहीं। क्रिया चलनी चाहिए, क्रिया सही दिशा में चलनी चाहिए और इसे रुकनी भी चाहिए तभी जीवन चलता है। ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं कि ज्ञान जब उदित होता है तो बाकी सारा जो ज्ञान है, लुप्त हो जाता है।
जैसे परम ज्ञान होता उदित
अन्य ज्ञाने होती लुप्त।
म्हणुन सर्व ज्ञानात हेची एक उत्तम।।
उत्तम ज्ञान भगवान बता रहे हैं। सत, रज, तम कौन से बंधन से बन्धित है जब तक बन्धन का पता नहीं होगा हमें छूटने की इच्छा भी नहीं होगी। जिस प्रकार एक लोहे का गोला होता है भट्टी में, स्टील प्लांट में। वह अग्नि के कारण लाल हो जाता है और वह जो लालिमा आती है वह अग्नि के कारण आती है और उस अग्नि अग्नि को लोहे का आकार प्राप्त होता है और निराकार अग्नि को लोहे का आकार प्राप्त हुआ और जो लोहा जड़ है उसे अग्नि की लालिमा प्राप्त हुई। इसी प्रकार उस चैतन्य को इस देह का आकार प्राप्त हो गया और चेतन का प्रकाश ऊर्जा इस देह को प्राप्त हो गया लेकिन यह जो जीव है, इस चेतन ने उसे शरीर को अपना स्वरूप मान लिया किन्तु इसका मूल स्वरूप चैतन्य, अविनाशी है, व्यापक है। व्यापकता को व्याप्य रूप प्राप्त हो गया। जो अनन्त है वह देह के साथ शान्त हो गया, जो असीम है, वह ससीम हो गया जो व्यापक है वह संकुचित्त हो गया। देह के साथ रहते हुए संकुचिता का प्रभाव प्राप्त करता है। संकुचिता उसका स्वभाव नहीं है इसलिए वह छटपटाता है उसका मूल स्वरूप प्राप्त करने के लिए।
इस प्रकार एक उदाहरण देते हुए बिनोवा भावे जी ने कहा कि जिस प्रकार एक गैस का गुब्बारा आकाश में उड़ने जाए उसे एक भारी भार से बाँधना पड़ता है ठीक उसी प्रकार उस चेतन को इस देह का भार प्राप्त हो गया। अब भगवान कहते हैं। इन तीन गुणों का लक्ष्य देखना पड़ेगा, क्योंकि हम लोगों को बन्धन क्यों हैं, क्योंकि तीन गुण हमें दिए इस सृष्टि में रहने के लिए जिस प्रकार से हम एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं, हम कार या कोई गाड़ी का उपयोग करते हैं। अब उस गाड़ी की स्टेयरिंग होती है, उसमें पेट्रोल होता है और ब्रेक भी होता है। स्टेयरिंग से गाड़ी सही दिशा में चलती है। पेट्रोल के कारण चलने की क्रिया होती है और गाड़ी रोकनी भी चाहिए इसलिए ब्रेक का भी प्रावधान होता है। उसी प्रकार सत्वगुण स्टेयरिंग का काम करता है, रजोगुण पेट्रोल का काम करता है और तमोगुण ब्रेक लगाने का काम करता है । रात को कोई क्रिया नहीं चाहिए, कोई ज्ञान नहीं चाहिए। हमें केवल विश्राम चाहिए। उस समय मनुष्य तमोगुण के अधीन मनुष्य चला जाता है।
तत्र सत्त्वं(न्) निर्मलत्वात्, प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति, ज्ञानसङ्गेन चानघ॥14.6॥
विवेचन: हे निष्पाप अर्जुन! तुमने कोई पाप नहीं किया है इसलिए भगवान उसे परमावधि तक ले जाना चाहते हैं। ज्ञान की गहराई तक ले जाना चाहते हैं। उसके मन में कोई किल्विष नहीं है। भगवान के वाणी में उसका पूर्ण विश्वास है। भगवान की शरणागति में वह पूर्ण रूप से समर्पित है। इसलिए भगवान कहते हैं हे निष्पाप अर्जुन! तुममें सत्व गुण ज्यादा है। जिसमें सतोगुण होगा उसमें विकार कम होंगे। काम क्रोध, लोभ मोह मद मत्सर गुण नहीं होंगे ऐसा नहीं है बल्कि बहुत शिथिल होंगे। तुम में ज्ञान की लालसा है, शान्ति है किस प्रकार तुम ज्ञान की प्राप्ति के लिए स्वर्ग में गए? किस प्रकार दिव्यास्त्र प्राप्त किए। किस प्रकार से तुम्हारी नवविवाहिता पत्नी जो तुम जीत कर लाए मत्स्य की आँख भेद करके, उसे भी अपनी माँ के वचन के कारण अपने भाइयों को बाँट दिए। इसलिए यह सत्व गुण अत्यन्त निर्मल है। निर्मल का अर्थ होता है जिसमें काम क्रोध आदि की तीव्रता कम है। कचरा नहीं है, मल रहित है। अभी हम सब गुण के अधीन हैं। हम ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं। हम भगवद्गीता को पढ़ रहे हैं। यह विकारों को कैसे कम करती है? लोग मुझे बताते हैं, मेरी भी अनुभूति है। भगवान कहते हैं यह प्रकाश देने वाला है, विकारों से रहित है, रोग रहित करने वाला है। संसार के माया से छोड़ने वाला है किन्तु अर्जुन यह भी बन्धन में डालता है। सुख और ज्ञान से वह बाँधता है। मनुष्य को देखिए जैसे अभी विवेचन सुन रहे हैं और मैं भी गुरुदेव का प्रवचन सुनती हूँ तो मन उसी में रमता है ऐसा लगता है मन उसी उसमें डूब जाए। अभी कथा चल रही है महाभारत की ऋषिकेश में और हमारे घर में कोई मेहमान आ गए और उनकी की आवभगत करनी पड़ी तो हमें किस प्रकार की भावना का निर्माण होता है कि हम उस क्रिया में जाना नहीं चाहते। यही ज्ञान का सुख है, हम उसी में रहना चाहते हैं। वह जो सुख मिलता है।
सात्विक शान्ति जो मिलती है, उसी में रमने का मन करता है। जैसे माँ कहती है पढ़ाई करते-करते पुत्र को कि चलो अपना बिस्तर ठीक करो, ये - ये काम करो, किचन में मदद करो। वह वहाँ नहीं जाना चाहता है कहता है पढ़ रहा हूँ, माँ। भगवान कहते हैं, यह भी बाँधता है। भगवान कहते हैं कि हम सुख पूर्वक जीवन जीना चाहते हैं। जैसे कहते हैं हमने सुख के एक दायरे (Comfort zone) का निर्माण कर लिया है।हम उस दायरे से बाहर आना नहीं चाहते। भगवान रामकृष्ण देव ने कहा कि ये तीनों श्रृंखलाएं हैं, तीनों बांधने वाली रस्सियां है। लेकिन श्रृंखला चाहे सोने की हो, चाहे चाँदी की हो और चाहे लोहे की, ये सभी बाँधती है। सत्व गुण सोने की श्रृंखला है, रजोगुण चाँदी की और तमोगुण लोहे की। लेकिन तीनों श्रृंखलाएं हमें बाँधती है। ज्ञान भी हमे बन्धित करता है।ज्ञान के कारण कभी-कभी अहङ्कार बनता है। ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं ज्ञान के कारण मनुष्य बन्धन में पड़ता है और अहङ्कार पैदा करता है। यह ज्ञान का यदि गहराई तक नहीं जाता तो छलकता है। गुरुदेव कहते हैं कि जैसे प्रपात के नीचे गिलास भरा नहीं जाता, इसी प्रकार ज्ञान जब छलकने लगता है तो अहङ्कार में परिवर्तित हो जाता है। दूसरे के अन्दर वह शान्ति, आनन्द और गहराई नहीं प्रदान करेगा।
रजो रागात्मकं(म्) विद्धि, तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय, कर्मसङ्गेन देहिनम्॥14.7॥
विवेचन: भगवान कहते हैं रजोगुण का लक्षण रागात्मक है। मराठी में हम राग के लिए क्रोध प्रयोग करते हैं, यहाँ पर राग का अर्थ आसक्ति ( Attachment) है। रजोगुण आसक्ति का निर्माण करता है और राग आसक्ति का स्वरूप है। यह कहाँ से उत्पन्न होता है। तृष्णा के साथ इसकी उत्पत्ति होती है और कैसे बाँधता है। कर्म के साथ बाँधता है। एक मनुष्य कर्म करता है, उसका फल चाहता है और इसीलिए आङ्काक्षा जगती है। मनुष्य फल के पीछे दौड़ता है और काम करने की प्रेरणा भी देता है और एक फल प्राप्ति होने के बाद दूसरे फल के लिए दौड़ता है। इसके लिए तीन क्रम है।
जानाति इच्छते यतति
आङ्काक्षा जगी कोई चीज मुझे प्राप्त करनी है। हमारे पास एक कार है दूसरी दिखी नए मॉडल की, नई क्षमता वाली कार फिर वह मुझे चाहिए। फिर इच्छा जगेगी और फिर उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना पड़ेगा। यह विज्ञापन जो होते हैं इसे दिखा कर मुझे दौड़ाते हैं। एक चीज है, हम दूसरी प्राप्त करना चाहते हैं और पहली जो हम प्राप्त करते हैं, कामना के कारण वह प्राप्त होते ही उसका महत्त्व कम हो जाता है और नवीन प्राप्त करने की कामना उठती है। अब कोरोना के कारण रजोगुण कम हो गया था। उसके कारण तमोगुण बढ़ा अज्ञान भी बढ़ा कुछ लोग में डिप्रेशन भी बढ़ा किन्तु कुछ लोगों ने इसका उपयोग ज्ञान की प्राप्ति के लिए भी किया। इस प्रकार से यह रजोगुण मनुष्य को अन्त तक दौड़ता है इसलिए कर्म के साथ आसक्ति, कर्मफल के साथ आसक्ति और कृतित्व का अहङ्कार ये तीन रजोगुण के साइड इफेक्ट है। इसलिए गुरुदेव कहते हैं न कर्म से चिपकना, न फल से चिपकना और कृतित्व के अहङ्कार से मुक्त होना। कृतित्व, भोक्तृत्व और कर्मासन्देह्ति तीनों से मुक्त होना, यही भगवत गीता का हमारे लिए पाथेय है इसलिए हमारी दृष्टि भगवान उसकी ओर करते हैं, लेकिन कर्म से चिपकना नहीं, फल तो प्राप्त होना ही है क्योंकि कर्म एक्शन है तो फल उसका रिएक्शन। हम जैसा चाहते हैं वैसा फल तो नहीं, किन्तु फल तो मिलेगा ही यहाँ एक्शन के बराबर और अपॉजिट रिएक्शन नहीं होता किन्तु फल तो मिलता ही है। इन तीनों के प्रभाव से मुक्त होना लक्ष्य होना चाहिए। भगवान कहते हैं रजोगुण की विशेषता है जिसमें रज शब्द का अर्थ होता है रञ्जन। यह रञ्जन चाहता है, मनोरञ्जन। अब विवेचन में भी मनोरञ्जन करना पड़ता है क्योंकि कुछ-कुछ जो रजोगुण वाले लोग होते हैं, उन्हें लगता है क्या बता रहे हैं? इसमें रञ्जन तो होता ही नहीं और फिर ज्ञान बताने लगेंगे। रूक्षता से बताने लगेंगे और यह रजोगुण वाला कहेगा चलो उठो, वह दूसरे कार्य में लग जाएगा। यहाँ पर विवेचन सुनने के लिए आपको वह बैठने नहीं देगा। चञ्चलता निर्माण करेगा। उठो काम पर लग जाओ ऐसी वृत्ति निर्माण कर देगा। यह रजोगुण का प्रभाव है। अब तीसरा तमोगुण भगवान अगले श्लोक में कहते हैं।
तमस्त्वज्ञानजं(म्) विद्धि, मोहनं(म्) सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभि:(स्), तन्निबध्नाति भारत॥14.8॥
विवेचन: हे भारत! तुम तो ज्ञान में रमने वाले हो और ज्ञान की प्राप्ति मुझसे कर रहे हो किन्तु तुम भी तमोगुण के आवरण में हो जो देहाभिमानी व्यक्ति को मोह में बन्धित करता है। अपने स्वजनों के मोह में भीष्म, आचार्य द्रोण आदि। हर जीव का सारथी परमात्मा बन सकते है यदि वह चाहता है, लेकिन मनुष्य इस सारथी से दूर रहते हुए अपने परिजनों के मोह में अपने को फँसा लेता है। जिस प्रकार अर्जुन फँस गया है उसके परिजन दूर है लेकिन वह उनके लिए शोकाकुल हो गया है जो दूर कुटुम्बी हैं, परिजन हैं, गुरु हैं, पितामह आदि है उनके के लिए। भगवान कहते हैं ये सब अज्ञान से उत्पन्न होता है। मनुष्य ने अपने को देह मान लिया है यहीं उसका अज्ञान है और प्रमाद निर्माण करता है। प्रमाद का अर्थ होता है असावधानता और गलती करना, भूल करना क्योंकि सावधानी का अभाव है, इसके साथ साथ आलस्य, निद्रा उत्पन्न कर इस देह को बाँधता है। वैसे हम बँधे हैं। सतोगुण का क्या प्रभाव है? रजोगुण का क्या प्रभाव है? तमोगुण का क्या प्रभाव है? हमारे सामने बन्धन कौन सा है? मनुष्य को बन्धन पता चलने पर उस बन्धन से मुक्त होने की इच्छा होगी और मार्ग भी प्रशस्त होगा। जिस प्रकार से चल चित्र, मोबाइल, व्हाट्सएप आदि देखते रहना आदि भी तमोगुण के ही लक्षण हैं, उसी में उलझ जाना और यहाँ तक व्हाट्सएप समूहों में कभी कभी झगड़े भी होते है। इतने प्रतिक्रिया देते रहना ये भी तमोगुण के ही लक्षण हैं। इसीलिए भगवान कहते है इसका कैसा बन्धन है इसे भी जान लो। ज्ञान का आवरण और विक्षेप क्या है। आवरण यानि ज्ञान को जो ढकता है, मनुष्य समझ नही पाता और विक्षेप यानि गलत समझना।
सत्त्वं(म्) सुखे सञ्जयति, रजः(ख्) कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः(फ्), प्रमादे सञ्जयत्युत॥14.9॥
विवेचन: भगवान कहते हैं हे भारत! ये सत्वगुण सुख से बाँधता है, रजोगुण कर्म से बाँधता है, वह वर्कोहलिक (Workaholic) हो जाता है। कर्म में ही लगे रहो, जो कर्म में लगा है फल की प्राप्ति के लिए वह गीता जी सीखना नहीं चाहेगा, वह उसके लिए कर्म बन्धन का निर्माण करता है और दूसरा जो ज्ञान को ढके हुए तमोगुण है वह प्रमाद से बाँधता है। कोई अच्छा कार्य करते है जैसे किसी का सहयोग करना, समाज सेवा, गीता जी को पढ़ाना आदि सभी सत्वगुण के कारण होते हैं और इसीलिए अच्छा कार्य आरम्भ होता है किन्तु रजोगुण के कारण फल की आङ्काक्षा उत्पन्न होती है, कम से कम कोई ध्यान दे, कोई मेरा नाम ले, कहीं मेरी प्रसिद्धि हो जाए, कही न कही समाचार पत्र में मेरा नाम आ जाए। ये सब रजोगुण के कारण है। फिर तमोगुण के कारण किसी के लिए बुरा भला कहना, कटु वचन, व्यङ्ग् बोल देना आदि घटित होता है। ये तीनो जीवन जीने के लिए मानो गाड़ी के समान हैं लेकिन इन्हें अपना स्वरूप समझ लेना, ये गलती है।
रजस्तमश्चाभिभूय, सत्त्वं(म्) भवति भारत।
रजः(स्) सत्त्वं(न्) तमश्चैव, तमः(स्) सत्त्वं(म्) रजस्तथा॥14.10॥
विवेचन: भगवान कहते है ये सभी तीनों गुण एक साथ कार्य करते हैं। ये सृष्टि के डीएनए में है। प्रत्येक परमाणु में ये तीनों गुण होते हैं। वैज्ञानिक रदर फोर्ड ने बता दिया था कि एक परमाणु में न्यूक्लियस होता है जिसमे प्रोटान और न्यूट्रॉन होते हैं तथा न्यूक्लियस के चारो ओर कक्ष में इलेक्ट्रॉन परिभ्रमण करते रहते हैं। प्रोटान सत्वगुण का प्रतीक है, इलेक्ट्रॉन रजोगुण का प्रतीक है तथा न्यूट्रॉन तमोगुण का प्रतीक है। रजोगुण यानि इलेक्ट्रॉन कर्मशीलता है। ये तीनों हर कण में हैं और सृष्टि के डीएनए में एक साथ कार्य करते हैं किन्तु एक दूसरे पर हावी हो जाते हैं । मनुष्य के अन्दर परमात्मा का वास है जैसा भगवान ने 15वे अध्याय के श्लोक संख्या 7 में बतलाया है:
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।
मेरा अंश होते हुए भी वह परमात्मा का साधर्म्य क्यों नहीं प्राप्त करता क्योंकि वह तीनों गुणों के मिश्रण में है और हर जीव का मिश्रण भी अलग-अलग है। जिसमे सत्व गुण प्रधान है उसमे रजोगुण और तमोगुण कम है, वह सतोगुणी कहलाता है क्योंकि उसमे सतोगुण 70% है। दूसरे रजोगुण प्रधान है जिसमे रजोगुण 70% है किन्तु तमोगुणी व्यक्ति में रजोगुण और सत्व गुण की अपेक्षा तमोगुण 70% है । तीनो गुण एक साथ कार्य करते है किन्तु एक दूसरे पर भारी पड़ते हैं। हे भारत! रजो और तमोगुण को दबाकर सतोगुण बढ़ता है। सुबह उठकर मनुष्य में सतोगुण की प्रधानता होती है और वातावरण में भी सतोगुण अधिक होता है। इसीलिए हम बच्चों को कहते है प्रातः पढ़ाई करो। फिर क्रियाशीलता, चाञ्चल्य के कारण रजोगुण आ जाता है। दोपहर में हम लोग कर्म में लिप्त होते हैं, ज्ञान की आराधना नहीं बढ़ती और सायं तमोगुण के कारण नींद के अधीन हो जाते हैं। आज कल तो सारा सृष्टि का चक्र बिगड़ने लगा है। रोज रात में यहाँ बैठकर अमरीका का कार्य करते हैं और इस प्रकार प्रकृति की जो संरचना है वह बिगड़ रही है। भगवान कहते हैं तमो और सत्व को दबाकर रजोगुण बढ़ता है और इसी प्रकार रज और सत्व को दबाकर तमोगुण बढ़ता है। एक दूसरे को दबाकर फिर ये बढ़ते हैं। अभी रजोगुण बढ़ेगा तो चञ्चलता बढ़ेगी और मन करेगा कि ये कार्य बन्द कर और कहीं अपनें कार्य में लग जाएँ। हम ज्ञान की आराधना करते हैं, प्रवचन सुनते है और फिर नींद आने लगती है, तमोगुण हावी हो जाता है, सतोगुण कम हो जाता है। इसीलिए तीनों गुणों के अतीत होकर अपने स्वरूप को पहचानना ही लक्ष्य होता है। ज्ञानी लोग जीवन निर्वाह के लिए कर्म करते है गुणों के द्वारा समझकर किन्तु इन गुणों को अपना स्वरूप नहीं मानते। वे गुणों के अधीन नहीं होते और गुणों से बन्धित नहीं होते। जिस प्रकार गुरुदेव अविरत, अखण्डित कार्यरत रहते हैं, ज्ञान की धारा उनके मुखारविंद से अविरत बहती रहती है और वह चाहे राम मंदिर निर्माण कार्य हो, वेदाध्ययन हो, कृष्ण मंदिर निर्माण हो, भगवद भक्ति, भागवत प्रचार आदि सारा कार्य अविरत करते है किन्तु उनमें बँधते नहीं। फिर वे अमरीका, कनाडा भ्रमण से आते हैं तो जेटलैग उन्हें प्रभावित नहीं करता, तुरन्त वे प्रवचन देने के लिए तैयार हो जाते है। सामान्य मनुष्य जेट लैग में चला जाता है। वे गुणों से अतीत होकर कार्य में लग जाते हैं। जिस प्रकार भगवान आदि शंकराचार्य ने निर्वाण शतकम में बहुत सुन्दर श्लोक की रचना की है:
मनोबुद्ध्यहंकार चित्त्तानि नाहं
न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ।। 1 ।।
न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायुः,
न वा सप्तधातुः न वा पञ्चकोशः ।
न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायु,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ।। 2 ।।
न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ,
न मे वै मदो नैव मात्सर्यभावः ।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ।। 3 ।।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं,
न मन्त्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञाः ।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ।। 4 ।।
न मे मृत्युशङ्का न मे जातिभेदः,
पिता नैव मे नैव माता न जन्मः ।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ।। 5 ।।
अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो,
विभुत्वाच सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् ।
न चासङ्गतं नैव मुक्तिर्न मेयः,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ।। 6 ।।
मै वह शिव स्वरूप हूँ, सत चित्त आनन्द स्वरूप हूँ । मै वह अविकारी परमात्मा स्वरूप हूँ । सत्व गुण का उदय हो रहा है, ये कैसे समझना है जिसका वर्णन भगवान अगले श्लोक में करते हैं।
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्, प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं(म्) यदा तदा विद्याद्, विवृद्धं(म्) सत्त्वमित्युत॥14.11॥
विवेचन: भगवान कहते हैं देह के नव द्वार हैं दो आँखे, दो कर्ण, दो नासिका छिद्र, मुख, उपास्थ एवम् गुदा द्वार। इनमें प्रकाश उत्पन्न होता है, ज्ञान की सन्देहति उत्पन्न होती है। ये उत्पन्न होते हैं तो सत्व गुण की वृद्धि होना समझें। गुलाबराव महाराज कहते हैं-
सत्व गुण की वृद्धि ही धर्म है।
सत्व गुण का बढ़ना और इसी में रजो और तमोगुण को भी लगाना, यह प्रक्रिया ही धर्म कहलाती है। ज्ञानेश्वर महाराज बहुत सुन्दर बात कहते हैं।
जब ज्ञान की लालसा बढ़ती है तो ज्ञान की ग्रहणशीलता और क्षमता भी धीरे-धीरे बढ़ती है। हम पहले गीताजी पढ़ते हैं, समझ में नहीं आती है किन्तु धीरे-धीरे ठहराव होने लगता हैI यह ज्ञान की धारणा स्नेहति बढ़ाती हैI ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं कि कान जो नहीं सुनना चाहिए वह सुनता ही नहीं फिर वह उसके लिए बन्दर के समान कान ढकना, आँखें बन्द करना, मुख को ढकना नहीं पड़ता। वे कहते हैं जो नहीं देखना चाहिए मन वह नहीं देखना चाहता, जो बोलना नहीं चाहिए, जिह्वा पर वह एक शब्द आते ही नहीं, ऐसा ही स्वभाव सत्वगुण की वृद्धि से होने लगता है।
ऐकू नये ते कानची वगळी ।
पाहू नये ते दृष्टीच टाळी।
बोलू नये ते जीव्ह ची वगळी स्वभावतः।।
रजोगुण की विधि से क्या होता है ज्ञानेश्वर महाराज की उक्ति अगले श्लोक के विवेचन से स्पष्ट होगा।
लोभः(फ्) प्रवृत्तिरारम्भः(ख्), कर्मणामशमः(स्) स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते, विवृद्धे भरतर्षभ॥14.12॥
विवेचन: हे भरतर्षभ! फिर रजोगुण के बढ़ने के कारण लोभ बढ़ता है और कर्म स्वार्थ बुद्धि से करने की प्रेरणा बढ़ती है और अशान्ति का निर्माण करता है। कर्म में लगा रहता है, विषय भोगों की लालसा बढ़ाता है।
किसी ने कहा है:
Desire is that state of mind that is always empty.
रजोगुण वाला मेडल आदि प्राप्त करने में रत रहता है। फिर भी यह तमोगुण से उत्तम है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा कि हमारा देश ज्ञान की आराधना करने वाला देश सतोगुण का नाम लेते लेते तमोगुण में डूब गया, जड़त्व आ गया। यदि ज्ञान प्राप्ति की क्षमता नहीं तो मनुष्य को क्रियाशील होना चाहिए, वह अच्छा है उससे। इसलिए कि उससे मेडल प्राप्त होते हैं, रिकॉर्ड प्राप्त होते हैं लेकिन साइड इफेक्ट क्या होते हैं? लोभ और लोभ एक मानस विकार है यह क्या करता है जो स्वयं के पास प्राप्त है फिर भी मन की सीमा नहीं होती, दूसरे का भी हड़पना चाहता है। दुर्योधन इसका प्रमाण है। उसके पास हस्तिनापुर होते हुए भी पाण्डवों के सुन्दर इन्द्रप्रस्थ जो पहले खाण्डव वन था, जिसे उन्होने अपने पुरुषार्थ से निर्माण किया, दुर्योधन वह भी हड़पना चाहता था वह भी षड्यन्त्र से जुआ खेलकर। मोह से अपनी स्वयं की वस्तुओं से आसक्ति होती है फिर पद, प्रतिष्ठा, अपने परिजनों के लिए किन्तु लोभ में दूसरों के हड़पने की प्रवृत्ति होती है। कार्य में लिप्त, अशान्त जो कभी न समाप्त होने वाली तृष्णा। यह सब रजोगुण के बढ़ने के लक्षण है। रामदास स्वामी कहते मेरा होना चाहिए दूसरे को न प्राप्त होना चाहिए यह प्रवृत्ति दुर्योधन का प्रतीक है।
माझे ते असावे।
इतरांचे ते नसावे।
हे म्हणतो जो स्वाभावे तो रजगुण।।
कौरव और पाण्डव एक ही पाठशाला में एक ही गुरु के सानिध्य में पढ़े किन्तु कौरवों की तृष्णा बढ़ती गई। कुछ तो कारण रहे हैं जो मेरे लिए इसे करने को बाध्य करता है। तीनों गुणों के तीन लक्षण हैं,
1. कि मैं धर्म जानता हूँ, किन्तु मेरी वहाँ प्रवृत्ति नहीं।
2. मैं अधर्म भी जानता हूँ किन्तु मेरी वहाँ से निवृत्ति नहीं होती।
3. मैं अधर्म करने के लिए बाध्य हो जाता हूँ। कुछ तो तत्त्व मेरे अन्दर है जो मुझे बाध्य करता है।
रजोगुण के कारण अपराधगिरी भी बढ़ती है।
राही मासूम रजा के शेर है:
पत्ता भी हिलता है उसकी रजा से I
इच्छा निर्माण गुणों के कारण होता है और इच्छा जीव के अन्दर तृष्णा पैदा करता है।
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च, प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते, विवृद्धे कुरुनन्दन॥14.13॥
विवेचन: हे कुरुनन्दन! जब तमोगुण बढ़ता है, ज्ञान का प्रकाश नहीं बल्कि अज्ञानता बढ़ती है, विवेक बुद्धि का लोप हो जाता है। प्रमाद यानि असावधानता का निर्माण होता है, ग़लतियाँ होने लगती है, मोह बढ़ता है। जिस प्रकार हे अर्जुन! तुम में मोह बढ़ा है तुम तमोगुण के अधीन हो गए हो जिसमे कार्य करने की इच्छा नहीं होती, जड़त्व आता है। निद्रा आना, मोबाइल में मन लगता है, यह सारे लक्षण उत्पन्न होते हैं और जीव जिसमे यह तीन गुण हैं, रजोगुण का प्रतीक है रावण जो वीर था और यश को प्राप्त कर सकता था किन्तु सीता माता का अपहरण किया अर्थात दूसरे के वस्तुओं का हड़पना। फिर विभीषण सत्वगुण का प्रतीक है और कुम्भकरण तमोगुण का प्रतीक है। भगवान कहते हैं जीव भगवान का अंश है किन्तु उसमें संग प्रकृति का कर लिया और इसलिए गुणों के बन्धन में आ गया। यह गुणों के मानसिक बन्धन में फँस गया।
ठाकुर रामकृष्ण देव जी समझाते हैं और कहते हैं कि गुणों के प्रभाव से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है। कहते हैं गुरु की कृपा से जीव मुक्त हो जाता है। यह अज्ञान है अपने मूल स्वरूप का विस्मरण जो गुरु के कृपा से दूर हो जाता है। इन्हीं शब्दों के साथ आज का यह सुन्दर विवेचन सत्र समाप्त होता है।
प्रश्नोत्तर सत्र
प्रश्नकर्ता : गोविन्द भैय्या
प्रश्न: सत्व गुणों को बढ़ाने के लिए क्या करना चाहिए?
उत्तर: इसके लिए ज्ञान की प्राप्ति करना, अभ्यास करना, योगासन करना, प्रणायाम करना । ये सभी साधन महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग यानि यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवम् समाधि अन्तर्गत बताए गए हैं। छोटा सा नियम लें तो वह मनुष्य को तारता है जैसे तुलसी को जल देना। मै रजोगुण से ग्रसित थी। मेरी सासू माँ तुलसी की पूजा करने के लिए कहा और इसका प्रभाव पड़ा। सत्व गुण बढ़ाने के लिए नियम लेना और उसका पालन करना और वह नियम किसी को बताना भी नहीं और ये समझना कि भगवान के लिए कर रहे हैं। सत्व गुण उपासना बढ़ाता है, शास्त्रों के अध्ययन से बढ़ता है, महापुरुषों की जीवनी पढ़ने आदि से बढ़ता है।
प्रश्नकर्ता: मीता दीदी।
प्रश्न: चातुर्मास में भगवान सोने चले जाते है क्या इस अवधि में भगवान को भोग लगाना उचित्त है?
उत्तर: इसका मतलब भगवान की उपासना के लिए ज्यादा समय देना है। अब अपना मार्ग स्वयं को प्रशस्त करना होगा। भगवान अब सो गए, अपने मार्ग के कल्याण करना है। भोग चढ़ाना धन्यवाद की भावना से करना है। हम हमारी भावनाओं के कारण अर्पण करते है। अर्पण कर ग्रहण करना हमारी संस्कृति सिखाती है और ये भावना रखना कि ये सब आपके कारण ही प्राप्त हो रहा है। धन्यवाद करना कि भगवान आपने क्षमता दी, क्रियाशीलता दी जिसके कारण मुझे प्राप्ति हुई। भोग लगाने के बाद शान्ति प्राप्त होती है। ये सारी बातें श्रद्धा की हैं। ये हमारे आन्तरिक विकास का द्योतक है।
प्रश्नकर्ता: कीर्ति दीदी
प्रश्न: जप कैसे करना चाहिए? माला से कौन सा मन्त्र बोलना चाहिए?
उत्तर: कोई भी मन्त्र ले सकते हैं किन्तु गुरु के मुख से जो मन्त्र प्राप्त होता है वह ज्यादा प्रभावी होता है। माला से, उंगली से या फिर मानसिक जप भी कर सकते हैं। शरीर शुद्धि की कोई शर्त नहीं होती है जप करने के लिए।