विवेचन सारांश
भक्ति प्राप्त करने का सहज साधन मार्ग

ID: 3425
हिन्दी
रविवार, 13 अगस्त 2023
अध्याय 9: राजविद्याराजगुह्ययोग
3/3 (श्लोक 21-34)
विवेचक: गीता विशारद डॉ आशू जी गोयल


आज के सत्र का शुभारम्भ भगवान श्री कृष्ण की वन्दना के साथ हुआ। अपने इस जीवन को सार्थक करने और सफल करने के लिए, इस मानव जीवन का सदुपयोग करने के लिए हम सब अग्रसर हो गए हैं। पता नहीं अपने कोई इस जन्म के पुण्य हैं, पूर्व जन्मों के सुकृत हैं, पूर्वजों के सुकृत हैं या इस जन्म में किसी महापुरुष की कृपा दृष्टि हम पर पड़ गई है कि इस कारण से ऐसा भाग्योदय हुआ है और हम सब गीता पढ़ने लग गए।

गीता को हमने नहीं चुना, गीता ने हम को चुना है। इस सत्र में हम नौवें अध्याय के श्लोकों का चिन्तन कर रहे हैं। यह अध्याय बड़ा महत्त्वपूर्ण अध्याय है, राजविद्याराजगुह्ययोग।

राजगुह्य- most secretmost secret, secret

सबसे पवित्र है, उसके बाद भी सबसे गोपनीय है ऐसा उत्तम ज्ञान भगवान ने दिया है।

त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्ट्‍वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्‌ ॥9.20॥

 भगवान कह रहे हैं कि तीनों वेदों में जो विधान करने वाले सकाम कर्म हैं, उससे स्वर्ग की  प्राप्ति हो जाती है। निश्चय ही स्वर्ग में जाकर, जो उत्तम भोग हैं, वो भोगने को मिलते हैं। बीसवें और इक्कीसवें श्लोक में भगवान सकाम भक्ति की बात कर रहे हैं। बाईसवें से छब्बीसवें श्लोक में एक अलग ही बात कर रहे हैं फिर सत्ताइसवें श्लोक से विषयान्तर हो गया। भगवान सीधा कहते हैं कि सकाम भक्ति से स्वर्ग की प्राप्ति होगी।
भगवान आगे कहते है -

9.21

ते तं(म्) भुक्त्वा स्वर्गलोकं(व्ँ) विशालं(ङ्),
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं(व्ँ) विशन्ति।
एवं(न्)  त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना,
गतागतं(ङ्) कामकामा लभन्ते॥9.21॥

वे उस विशाल स्वर्गलोक के (भोगों को) भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदों में कहे हुए सकाम धर्म का आश्रय लिये हुए भोगों की कामना करने वाले मनुष्य आवागमन को प्राप्त होते हैं।

विवेचन:-जब हम किसी पाॅंच तारा होटल में जाते हैं वहाॅं हमारा क्रेडिट कार्ड स्वाइप किया जाता है और जब तक हमारे क्रेडिट कार्ड की लिमिट होती है तब तक हमें बढ़िया से बढ़िया सुविधा देते हैं हम बिल्कुल राजा की तरह महसूस करते हैं, जो माँगते हैं, जब माँगते हैं वह मिल जाता है। लेकिन जिस दिन हमारे क्रेडिट कार्ड का बैलेंस पूरा हो गया, तुरन्त रिसेप्शन से फोन आता है आप या तो पैसा जमा करा दें या कमरा तुरन्त खाली करें। हम कहते हैं कि दस दिन से कितनी खातिरदारी कर रहे हैं जो मैं माँगता हूॅं, वही आप देते हैं। आज ऐसी कठोर बातें करते हो। कितनी भी विनती करें, कुछ घण्टे और रहने का प्रयास करें, तब भी वह सम्भव नहीं होता। हम सोचते है कि दस दिन तक मेरी सेवा में लगे रहने वाले इस होटल के लोग मुझे अतिरिक्त दो घण्टे भी रहने नहीं दे रहे। यानी क्रेडिट कार्ड का बैलेंस खत्म होने पर दो घण्टे भी होटल का मालिक होटल में रुकने नहीं देता। यही होता है जब हम स्वर्ग में जाते हैं, हमारे पुण्य का पूरा लेखा-जोखा लिया जाता है, जो वहाँ पर मिलने वाली सुविधाओं को निर्धारित करता है। जब यह पुण्य का खाता खाली हो जाता है तो बिना टेलीफोन किए ही, हमें वहाॅं से भगा दिया जाता है। हम वापस मृत्युलोक में आ जाते हैं। इस प्रकार पुण्य कमाया, स्वर्ग गए, पुण्य समाप्त हुआ, मृत्युलोक आ गए।

भगवान यहाॅं पर यह बात इसलिए कह रहे हैं क्योंकि अर्जुन ने छठे अध्याय के अड़तीसवें श्लोक में भगवान से पूछा था- हे भगवान! जो मनुष्य आपकी थोड़ी बहुत भक्ति करते हैं, उन भक्ति करने वालों की स्थिति क्या है क्योंकि यह आपको तो प्राप्त नहीं हो पाते इनका क्या होता है, ऐसा तो नहीं होता कि इधर के रहे न उधर के रहे, कुछ ज्यादा ही मामला गड़बड़ हो जाए। भगवान ने अर्जुन को दो उत्तर दिए।

अर्जुन ने अड़तीसवें श्लोक में पूछा:-

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ।।


अर्जुन पूछते हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं हो जाता इधर के रहे न उधर के रहें।

न दुनिया मिली न विशाले ए सनम।
न इधर के रहे उधर के रहे।।

भगवान ने उत्तर दिया कि नहीं अर्जुन ऐसी बात नहीं है।

श्रीभगवानुवाच:

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥ 

अर्जुन तुम चिन्ता न करो जो भक्त मेरे मार्ग पर चलता है उसकी यहाॅं, न वहाॅं, कहीं दुर्गति नहीं होती वह हमेशा सुरक्षित रहता है।

भगवान ने दो बातें बताई-

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।6.41।।

योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को अर्थात् स्वर्गादि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों के घर में जन्म लेता है। यही बात भगवान ने यहाॅं पर कह दी। भगवान कह रहे हैं जो सकाम कर्म करते हैं वह दीर्घकाल तक स्वर्ग में जाते हैं, उत्तम भोगो को भोगते हैं, फिर मृत्यु लोक में वापस आ जाते हैं।

इक्कीसवें श्लोक में वही बात कही, जो छठे अध्याय के इकतालीसवें श्लोक में कही। दुनिया के सभी सम्प्रदायों में, अपने हिन्दू सम्प्रदाय और सनातन सम्प्रदाय की बात तो अलग ही है, लेकिन और जितने भी सम्प्रदाय हैं, उन सब में स्वर्ग को माना है लेकिन मोक्ष सिर्फ हिन्दू सनातन धर्म ने ही माना है। बाकी सब सम्प्रदायों में स्वर्ग और नरक यही तक ही मानते हैं लेकिन मोक्ष सिर्फ सनातन धर्म में ही माना गया है।

भगवान कहते हैं जिन भोगों की कामना से हम भक्ति करते हैं उन भोगों की कामना से हम स्वर्ग में पहुॅंच जाते हैं। खूब बढ़िया कर्म किए, दान किया, यज्ञ किया, बहुत लोगों पर उपकार किया, गीता पढ़ी, पूजा की, लोगों की मदद की, सत्य का पालन किया, अच्छे धर्म का पालन किया, कभी किसी को तङ्ग नहीं किया, किसी को धोखा नहीं दिया, किसी को हमारी वजह से तकलीफ नहीं हुई, अच्छे-अच्छे कर्म किए तो मनुष्य दीर्घकाल तक स्वर्ग को प्राप्त करता है। दीर्घकाल तक पदार्थों को ऐसे भोगता है, जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। स्वर्ग में न्याय युक्त धर्म से भोगों को भोग रहा होता है। उसको कोई गलत काम नहीं करना पड़ता। सब विदेह ढङ्ग से भोगों को भोगता है।

भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! स्वर्ग में कितने भी दीर्घकाल तक भोगों को मनुष्य भोगता है लेकिन अन्त में मृत्यु लोक में आना ही पड़ता है फिर से इसी चक्र में पड़ना पड़ता है। जब मृत्यु लोक में वापस आता है तब फिर से असन्तुष्ट हो जाता है, जैसे पहले था।

सन्तुष्टता, जो मनुष्य को चाहिए, जो शान्ति मनुष्य चाहता है, वह स्वर्ग में भोगों को भोगने से नहीं मिलती। यह बात ठीक है जो भी आप सकाम कर्म करेंगे, उसका फल अवश्य ही मिलेगा, इसमें कोई झूठी बात नहीं है लेकिन यह बहुत ऊॅंची बात नहीं है।

भगवान अर्जुन से दूसरी गति की बात कहते हैं। भगवान ने गीता के अन्तिम श्लोक में बात पूरी कर दी है। भगवान कहते है:- 

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ৷৷18.65৷৷

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ৷৷18.66৷৷

भगवान कहते हैं कि जो पूरे मन से मेरे में मन लगाकर मेरी भक्ति करता है वह फिर मुझको प्राप्त कर लेता है। मुझको ही अपना सब कुछ मान लेता है, फिर उसको मैं सम्भालता हूॅं। वह मुझको प्राप्त कर लेता है और उसको जन्म-मरण के चक्र में नहीं फसॅंना पड़ता।

श्रीमद्भगवद्गीता का आरम्भ दूसरे अध्याय के ग्यारहवें श्लोक से माना जाता है और अर्थ दृष्टि से गीता का समापन श्लोक अट्ठारहवें अध्याय का पैंसठवाॅं और छियासठवाॅं माना जाता है।

9.22

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां(य्ँ), ये जनाः(फ्) पर्युपासते।
तेषां(न्) नित्याभियुक्तानां(य्ँ), योगक्षेमं(व्ँ) वहाम्यहम्॥9.22॥

जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए (मेरी) भली भांति उपासना करते हैं, (मुझ में) निरन्तर लगे हुए उन भक्तों का योगक्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा) मैं वहन करता हूँ।

विवेचन:- भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! कुछ लोग तो वह होते हैं जो सकाम कर्म करते हैं और स्वर्ग लोक को प्राप्त करते हैं। दुसरे कुछ बिल्कुल ही अलग होते है। अनन्या_अन्य न हो। एक ही इष्ट हो। इष्ट के बारे में लोगों की धारणा भिन्न- भिन्न है। हम सब शिव जी के पास जाते है महिलायें सावन में शिव जी के सोमवार के व्रत करती हैं। शिवजी की पूजा वर के लिए, धन के लिए निरोगी काया के लिए, शान्ति के लिए करती हैं। पूजा करके हम शिवजी को पाना चाहते हैं या जो हम वर माँग रहे हैं, वह पाना चाहते हैं।

संस्कृत में दो शब्द हैं एक इष्ट, दूसरा अनिष्ट। 
इष्ट जो हमें चाहिए, अनिष्ट जो हमें नहीं चाहिए। शादी के कार्डों में लिखा होता है कि इष्ट मित्रों के साथ आप जरूर पधारें यानी जो आपके परम मित्र हैं, जो आपके नजदीक हैं उनके साथ शादी में जरूर पधारें। भागवत के कार्ड में लिखा होता है कि इष्ट मित्रों के साथ पधार कर पुण्य का लाभ लें। कई बार कहते हैं कि बड़ा अनिष्ट हो गया यानी जो चाहिए था, वह नहीं हुआ जो नहीं चाहिए था, वह हो गया। जो मुझे इष्ट था वह मुझे मिलेगा यानी जो मुझे चाहिए था वह मुझे मिल गया। हम ईश्वर के पास जाकर कुछ माँगते हैं लेकिन भगवान नहीं माँगते हैं पर इष्ट भगवान नहीं होते। इष्ट, वह हो जाते हैं जो हम भगवान से माँगते हैं। जब हम धन, पुत्र और सम्पत्ति उपासना करके भगवान से माँगते हैं, धन, सम्पत्ति और पुत्र हमारे इष्ट होते हैं भगवान नहीं होते।

पर जब मैं शिव जी के पास जा कर यह कहता हूॅं कि भगवान मुझे आपकी भक्ति मिले, नारायण मुझे आपकी भक्ति मिले, हे राम! जी मुझे आपकी भक्ति मिले, हे कृष्ण! मैं आपका भक्त बन जाऊॅं। मैं कोई पदार्थ नहीं माँगता। मैं उनको उनसे माँगता हूॅं, मेरे इष्ट वह नहीं है जो मैं उनसे माँगता हूॅं। अनन्य->  न अन्य। मुझे कुछ और नहीं चाहिए मुझे भगवान ही चाहिए। मुझ आप से आप चाहिए, तब जाकर उपासना का निर्माण होता है। जब उपासना में ईश्वर से ईश्वर को माँगते हैं, ईश्वर की भक्ति माँगते है तो वह अनन्य उपासना बन जाती है।

एक बार एक शिष्य गुरु के पास गया, उसके भक्ति भाव को देखकर गुरु ने कहा तेरा भाव तो बहुत अच्छा है। कुछ दिनों बाद फिर शिष्य से मिलने पर गुरु ने भाव के बारे में कुछ नहीं कहा, तब शिष्य बोला गुरुजी आप तो कह रहे थे मेरा भाव अच्छा है। क्या अब वह अच्छा नहीं है, तब गुरु बोले - जैसी प्रीति आरम्भ में थी वैसी अन्त तक बनी रहे तभी तो तू बैकुण्ठ को जा सकता है।

जैसी भक्ति आरम्भ में हो वैसे ही अन्त तक बनी रहे फिर क्या चाहिए पर ऐसा नहीं होता। जैसा मन आज लगता है वैसा ही आखिर तक नहीं लगता। जैसे गीता में इतना मन लग रहा है कि न तो टीवी चलाने को मन करता है न मोबाइल चलाने को मन करता है सिर्फ गीता में ही मन लगता है, पर ध्यान रखना पड़ता है कि मन भटके नहीं क्योंकि मन का पता ही नहीं चलता वो इतना भटक जाता है कि फिर से वापस संसार में पहुॅंच जाता है। लोग कहेंगे कि पहले तो गीता में बहुत मन लगता था लेकिन बिटिया के साथ कोई समस्या हो गई उसके बाद तो मन लगना ही बन्द हो गया। व्यापार में कोई उतार -चढ़ाव आ गए इसलिए गीता से मन हट गया। कोई न कोई ऐसी परिस्थिति - स्थिति आ जाती है कि हम फिर से माया के दलदल में फॅंस जाते हैं।

जिसका भाव नित्य हो गया अब टलता नहीं, अब घटने वाला नहीं है। भागवत में आता है भक्ति  का लक्षण क्या है? प्रति क्षण वर्धनम।प्रतिक्षण  बढ़ती रहे, वह भक्ति है। उसमें दिन पर दिन वृद्धि होती रहे। जो बढ़ नहीं रही सिर्फ टिकी हुई है, वो घट रही है।
 
भगवान कहते हैं जो मुझको प्राप्त करता है उनका योगक्षेम मैं वहन करता हूॅं। योग का अर्थ होता है जो हमें चाहिए। जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जिन पदार्थों की जरूरत होती है ये योग है और जो हमें प्राप्त है वह जाने न पाए वह क्षेम है।

अप्राप्त की प्राप्ति योग है और जो प्राप्त है वह चला ना जाए वह क्षेम है।

भगवान कहते हैं कि जो अनन्य भाव से मुझे प्राप्त करता है उसके योग क्षेम का वहन करता हूॅं। नरसी भगत का भगवान ने योग क्षेम वहन किया था। जो भगवान के काम में अपना जीवन लगाता है उसे  भगवान सम्भालतें है, ये भगवान का वचन है। कई बार हमें डर लगता है कि अगर हम भगवान के काम में अपना जीवन लगा देंगे तो हमारा काम कैसे चलेगा पर भगवान ने वचन दिया है कि मैं तुम्हें सम्भाल लूॅंगा। मन में में शङ्का आती है कि भगवान सच में योग क्षेम का वहन करेंगे। 
 
 एक सुन्दर भजन :- 

तेरा रामजी करेंगे बेड़ा पार, उदासी मन काहे को करे।







 द्रौपदी ने भगवान को जब चीरहरण के समय बुलाया उसके बाद भगवान से द्रौपदी बहुत लड़ी। भगवान आप बहुत देर से आए अगर मेरा पल्लू छूट जाता तो? इतनी देर में चिल्लाती रही और आपने इतनी देर लगा दी। भगवान बोले - मैं तो तुरन्त ही आया। द्रौपदी बोली कि आप झूठ बोल रहे हो, मैं इतना चिल्लाई उसके बाद भी इतनी देर में आए भगवान ने कहा- नहीं, जिस समय तू मेरे ऊपर आश्रित हो गई उसी समय मैं आ गया। मैं तुझे याद दिलाता हूॅं कि जब दु:शासन ने तेरा चीर खींचना शुरू किया था तब तुमने मुझे याद नहीं किया था, युधिष्ठिर को याद किया था। उसके बाद बाकी पतियों की ओर देखा था और पुकारा था, फिर भीष्म की ओर देखा और अन्य गुरुजनों को देखा, बाकी सभापतियों को देखा कि मुझे बचाओ, देखो! दु:शासन मेरा चीर हरण कर रहा है। मैं तो प्रतीक्षा कर रहा था कि मुझे कब बुलाओगी। मैं तो बाहर ही खड़ा था इसके बाद भी नहीं बुलाया।तू सोचने लगी कि मैं तो क्षत्राणी हूॅं। तूने कसके अपना पल्लू पकड़ लिया। सारे शरीर की ताकत लगाकर तूने सोचा कि मैं अपने आपको बचा लूॅं। दु:शासन भी क्षत्रिय था, बलवान भी था। आखिर में तुझे लगा कि मेरी शक्ति से नहीं बचेगा तब तुमने अपना पल्लू छोड़ा और मुझ गोविन्द को बुलाया। वैसे ही मैंने आकर तेरा पल्लू पकड़ लिया। मैं जब तक नहीं पकड़ता जब तक तुम पकड़े रहते हो। मैं जब तक डोरी नहीं पकड़ता जब तक डोरी तुम्हारे हाथ में रहती है।

हम डोरी अपने हाथ में ही पकड़े रहते हैं, छोड़ते नहीं हैं। भगवान कहते हैं जब तू डोरी छोड़ेगा तभी तो मैं पकड़ूॅंगा ।

तुलसीदास जी ने यह भी कहा है-

बिगड़ी जनम अनेक कि सुधरे अबहीं आज।
होहिं राम को नाम जपि तुलसी तजि कुसमाज।।

शिष्य ने पूछा कि सच में गुरुजी ऐसा हो जाता है क्या? गुरु जी कहते हैं- सच में हो जाता है। तुम शास्त्रों में सन्देह करते हो, यह शास्त्रों में लिखा है। भगवान ने वचन तो दिया है लेकिन हमें नहीं पता कि मैं कितना बड़ा पापी हूॅं, मैंने पूर्व जन्म में कितना पाप किया। गुरुजी बोले कि तुझे पाप इस जन्म के याद होंगे। शिष्य बोला कि हाॅं, मैंने इस जन्म में बहुत पाप किए हैं। गुरुजी बोले- इस जन्म के पाप की बात करता है। भगवान तो अनेकों जन्मों के पाप को काट देता है। गुरु जी कहते हैं तू आज ठीक कर ले, भगवान तुझे अपने आप सम्भाल लेंगे। योग क्षेम वहाम्यहम् का अर्थ यह नहीं है कि हम जो चाहेंगे वह हमें मिल जाएगा। अगर हम बड़ी बिल्डिंग चाहेंगे तो वह मिल जाएगी या अच्छे पति चाहेंगे तो वह मिल जाएगा। जो आवश्यकता है वह मिलेगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि मेरी हर इच्छा पूरी होगी। इसका अर्थ है जो मेरी आवश्यकता है वह पूरी होगी। श्रेयस मिलेगा,  प्रेयस नहीं मिलेगा।

9.23

येऽप्यन्यदेवता भक्ता, यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेऽपि मामेव कौन्तेय, यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।9.23।।

हे कुन्तीनन्दन! जो भी भक्त (मनुष्य) श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओं का पूजन करते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, (पर करते है) अविधिपूर्वक अर्थात् देवताओं को मुझसे अलग मानते हैं।

विवेचन: हमारी धारणा में भगवान और देवताओं में अधिक अन्तर नहीं पता चलता। हमें लगता है कि जिसकी भी हम पूजा करते हैं, वह भगवान है। इन्द्र भगवान, अग्नि भगवान, सूर्य भगवान। भगवान कहते हैं - नहीं, फर्क है। सकाम भक्ति से दूसरे देवताओं को पूजते हो, शक्ति सब देवताओं को मुझे से ही मिलती है लेकिन देवता एक योनि है।

जैसे मनुष्य लोक में पैदा होते हैं तो मनुष्य कहलाते हैं और स्वर्ग लोक में जो पैदा होते हैं वह सब देवता कहलाते हैं। सारे देवताओं को वरदान देने का अधिकार नहीं होता। मनुष्य लोक में पैदा होकर हर मनुष्य प्रधानमन्त्री या मन्त्री नहीं बन सकता। स्वर्ग लोक में देवताओं की भी आयु होती है बस फर्क इतना है कि मनुष्य की आयु से ज्यादा होती है। देवताओं की आयु करोड़ों वर्ष की होती है, उनको भी शरीर छोड़ना पड़ता है। अन्त में देवता भी नष्ट होते हैं इसीलिए देवता कितने भी बड़े हों, उनको हम आहुति दें, यज्ञ करें, प्रसन्न करें और वे हमें वरदान दें। हमारी लौकिक इच्छाओं को पूरी करें और हमारे सारे सकाम कार्यों को पूरा करें। भगवान कहते हैं कि यह उनका काम है और यह सारा कार्य वे मेरी शक्ति के द्वारा ही करते हैं इसीलिए आप उन्हें पूजते हैं तो मुझे ही पूजते हैं, उसमें कोई अन्तर नहीं है।

लेकिन जो व्यक्ति देवताओं को ही सब कुछ समझ कर इनका पूजन करता है इसको एक बार उदाहरण से समझ सकते हैं।

मेरी पहचान अपने इलाके के एक पुलिस वाले से है, जितनी उसकी पावर है उसके अनुसार वह मेरी मदद हर चीज में करता रहता है लेकिन अगर हम मुख्यमंत्री को जानते हैं तो मुख्यमंत्री कहेगा कि पहले थानेदार से बात करो क्योंकि काम थानेदार करेगा तो हमे मुख्यमंत्री को जानने के बाद भी थानेदार को फोन करना ही पड़ेगा। केवल देवताओं की पूजा करना अज्ञान और अवधि पूर्वक भक्ति है। कर्म भी साथ-साथ करना आवश्यक है। एक दूसरा व्यक्ति जिसका थानेदार से अच्छी जान पहचान हो गई है वह कहता है कि थानेदार ही सब कुछ है। उसके यहाॅं काम भी आए तो वह कहता है कि मुझे क्या करना है मुझे तो थानेदार से ही काम है। इसे अवधि पूर्वक कहते हैं। थानेदार को शक्ति मुख्यमंत्री से ही प्राप्त होती है संवैधानिक व्यवस्था से प्राप्त हो रही है

थानेदार सर्वशक्तिमान नहीं है, शक्ति को प्राप्त करने वाला एक अङ्ग है। ऐसे ही देवता सर्वशक्तिमान नहीं है। भगवान की शक्ति से नियुक्त हमारी पूजा को स्वीकार करके उपासना का फल देने के लिए यहाॅं पर नियुक्त है। एक प्रतिनिधि है। जो देवताओं को ही सब कुछ समझ लेते हैं, भगवान कहते हैं कि उनको पूजना अज्ञान पूर्वक है। देवता अलग बात है, भगवान अलग बात है। शिव की पूजा, विष्णु की पूजा आप किसी भी रूप में करते हैं। आपको पता है कि शिवजी कैसे पैदा हुए? विष्णु जी कहाॅं पैदा हुए? वे कभी भी पैदा नहीं हुए, न कभी समाप्त होते हैं। प्रलय काल के समय में भी उनकी अवस्था ऐसे ही रहती है। देवताओं का अपना एक समय है ब्रह्मा जी का सौ वर्ष है। उनके सौ वर्ष हमारे अरबों वर्ष से भी ज्यादा है लेकिन एक काल में ब्रह्मा जी भी शान्त हो जाते हैं।

ब्रह्म लोक भी शान्त हो जाता है उनका स्वरूप भी शान्त हो जाता है। भगवान कहते हैं- देवताओं का पूजन करना आवश्यक बात है लेकिन उनको सब कुछ मान लेना अज्ञानता है।

9.24

अहं(म्) हि सर्वयज्ञानां(म्), भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति, तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।।9.24।।

क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ; परन्तु वे मुझे तत्त्व से नहीं जानते, इसी से उनका पतन होता है।

विवेचन:-हे अर्जुन! जो देवताओं को पूजते हैं उन्हें  पूजने से स्वर्ग लोक की प्राप्ति होगी पर बाद में वह मनुष्य लोक में ही आ जाएगा।

9.25

यान्ति देवव्रता देवान्, पितॄन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या, यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।9.25।।

(सकाम भाव से) देवताओं का पूजन करने वाले (शरीर छोड़ने पर) देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों का पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। (परन्तु) मेरा पूजन करने वाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।

विवेचन:- आदि शङ्कराचार्य भगवान ने पञ्चदेव पूजन का प्रावधान बताया है। एक गृहस्थ को पञ्च देव की पूजा नित्य करनी चाहिए। आदि शङ्कराचार्य कहते हैं कि गृहस्थ को सूर्य देव की पूजा करनी चाहिए। सूर्य देव को रोज अर्घ्य देने से सूर्य देव की पूजा हो जाती है। उनका विग्रह नहीं भी हो तो कोई बात नहीं, उनका अर्घ्य देने से ही उनके पूजा को जाती है। विष्णु के किसी भी स्वरूप की पूजा होनी चाहिए। राम की, कृष्ण की या विष्णु की पूजा कर सकते हैं। किसी भी विष्णु के स्वरूप की पूजा करनी चाहिए। किसी भी देवी के स्वरूप की पूजा करनी चाहिए और एक गणेश जी की पूजा होनी चाहिए। यह पञ्च देवताओं की पूजा अनिवार्य होती है। इनमें से कोई एक इष्ट होना चाहिए। चाहे शिवजी का हो, चाहे विष्णु जी का हो, गणेश जी का हो या देवी का हो। कोई कहता है कि मैं गणेश को ही परम्परा मानकर इष्ट के रूप में पूजना चाहता हूॅं। ऐसा कर सकते हैं।
 
ये बात भगवान ने चतुर्थ अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में कह दी थी-:

ये यथा मां (म्) प्रपद्यन्ते, तां(म्) स्तथैव भजाम्यहम् ।
 मम वर्त्मानुवर्तन्ते, मनुष्याः (फ्) पार्थ सर्वशः ॥ 11 ॥

 सारी पूजा भाव से करने से होती है। हे गणेश भगवान! मैं आपकी पूजा कर रहा हूॅं मेरी शादी हो जाए, मेरे पास पैसे बहुत हो जाएँ, मेरे बच्चे हो जाएँ, मेरा घर बढ़िया हो जाए, गणेश जी भगवान के रूप में नहीं, देवता के रूप में ही सारी इच्छा पूरी करेंगे। लेकिन अगर इस गणेश को आप निष्काम भक्ति से मानेंगे तो आपको उनकी उपासना करने से परम गति प्राप्त हो जाएगी। सारी बातें यही है कि मैं जिसकी भी उपासना कर रहा हूॅं उसको मैं देवता मानकर उपासना कर रहा हूॅं या उस को परम ब्रह्म मान कर रहा हूॅं।

पूजा शिव जी की, विष्णु जी की, देवी की, राम की, कृष्ण की जिसकी भी करते हैं, अगर देवता मानकर करते है तो परम ब्रह्म भी देवता ही बन जायेंगे। उनके आगे सांसारिक कामनाएँ पूरी करने की इच्छा रखेंगे तो वह आपकी सांसारिक इच्छाओं को देवता बनकर पूरी कर देंगे। सबसे बड़ी बात है कि आप पूजा किस भाव से कर रहे हैं, सकामता है या भक्ति भावना है। मैं सकाम भक्ति करूॅंगा तो उसका सकाम फल मिलेगा। मैं निष्काम भक्ति भाव से पूजा करूॅंगा, मुझे मोक्ष प्राप्त होगा। भगवान कहते हैं कि देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और जो पितरों को ही सब कुछ मानकर पूजा करते हैं तो भगवान कहते हैं कि इसमें कोई हानि नहीं है और आप पितृ लोक में पहुॅंच जाएंगे। वह भी बहुत सुन्दर लोक है। देवताओं का छ: महीने का एक दिन होता है और पितरों का तीस दिन का एक दिन होता है। पितर भी आशीर्वाद देंगे लेकिन कुछ समय बाद वहाॅं से भी नीचे ही आना पड़ेगा।

कुछ मनुष्य भूतों की पूजा करते हैं। भगवान कहते हैं जो ऐसी भूतों की पूजा करते हों, भूत ही बनते हैं। देवताओं को पूजने वाले देवता, पितरों को पूजने वाले पितर, भूतों को पूजने वाले भूत और उस परम परमेश्वर को पूजने वाले उस परमेश्वर को प्राप्त करते हैं। भगवान कहते हैं जिस भाव से जो पूजा करेगा उसी भाव को प्राप्त करेगा। भगवान कहते हैं कि पञ्च देव की पूजा गृहस्थ को रोज करनी चाहिए क्योंकि सांसारिक आवश्यकताएं भी हैं। कई मनुष्य बहुत ड्रामा करते हैं। कहते हैं कि हमें तो कुछ चाहिए ही नहीं, मैं तो भगवान से कुछ माँगता ही नहीं। ऊपर से बोलते हैं और अन्दर से सब कुछ चाहते हैं।

जब भाईयों का बॅंटवारा होता है तो ऊपर ऊपरी मन से कहते हैं कि मुझे कुछ नहीं चाहिए पर बच्चों के साथ में अन्याय नहीं देख सकता। अपनी इच्छा को बड़ी लच्छेदार बातों में बताते हैं। ये भोग इच्छा, स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा बड़ी सूक्ष्म होती है कई बार हमें पता नहीं चलता, हम अपने को भ्रम में डाल कर रखते हैं कि हमारी कोई इच्छा नहीं है लेकिन यह इतनी सूक्ष्म होती है कि पता नहीं चलता। यश की इच्छा, भोगों की इच्छा, स्वर्ग की इच्छा मनुष्य के मन से जाती नहीं है। अगर किसी महापुरुष का सङ्ग हो जाए तो ही यह इच्छा जाती है, अपने प्रयास से बहुत समय लगता है।

भगवान कहते हैं कि दो बातों का ध्यान रखो एक अनन्यता का और नित्यक्ता का। तब जाकर मुझ तक पहुँचोगे।

9.26

पत्रं(म्) पुष्पं(म्) फलं(न्) तोयं(य्ँ), यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं(म्) भक्त्युपहृतम्, अश्नामि प्रयतात्मनः॥9.26॥

जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य एवं अनायास प्राप्त वस्तु) को प्रेमपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस (मुझमें) तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेमपूर्वक दिये हुए उपहार (भेंट) को मैं खा लेता हूँ अर्थात् स्वीकार कर लेता हूँ।

विवेचन:- कई लोग पूछते हैं कि गीता में क्या लिखा है। भगवान की सगुण रूप में पूजा करनी चाहिए कि निर्गुण रूप में पूजा करनी चाहिए। भगवान कहते है कि मैं सगुण रूप में प्रकट होकर खाता हूॅं। द्रौपदी के अक्षय पात्र में चिपके तुलसी पत्र को भगवान ने स्वीकार किया। गजेन्द्र ने अन्तिम समय में भगवान को पुष्प अर्पण किया था और भगवान ने बड़े प्यार से उसे स्वीकार किया था। शबरी के झूठे बेर अर्थात भक्ति भाव से दिए गए फल भी भगवान ने सम्मान से स्वीकारे। इसी प्रकार भावपूर्ण होकर भगवान को मात्र जल भी अर्पण किया। प्रेम, भक्ति, श्रद्धा इन तीन की आवश्यकता होती है।

पन्द्रहवीं शताब्दी में राजस्थान में धौला कुॅंआ नाम की एक जगह में रहने वाला धन्ना जाट बहुत भोला था। भाइयों के बीच सम्पत्ति का बॅंटवारा होने पर, इसके भोलेपन को देखते हुए, एक गाय, एक छोटा सा घर और माॅं इसके हिस्से में आई। भोला धन्ना उसमें भी खुश था। मन्दिर के पुजारी की नजर अच्छा दूध देने वाली धन्ना की गाय पर थी। ठाकुर जी को दूध चढ़ाने के नाम पर उन्होंने किसी तरह धन्ना से रोज दो-तीन लोटे दूध अपने लिए पाने की व्यवस्था बना ली। एक बार पुजारी जी को कहीं बाहर जाना था, उन्होंने धन्ना के यहाँ पहुॅंचकर दूध न भेजने का सन्देश दिया। धन्ना आश्चर्यचकित हो गया, पुजारी जी बाहर जा रहे हैं तो क्या भगवान को दूध नहीं मिलेगा, यह सोच कर वह व्याकुल हो गया। बोला, पुजारी जी मैं ही दूध चढ़ा आऊॅंगा। पुजारी जी घबरा गए, बोले नहीं-नहीं, तुम ठहरे जाट, तुम मन्दिर में कैसे जा सकते हो... बहुत समय तक बातचीत होने के बाद पुजारी जी बोले ठीक है, मैं ही भगवान को तुम्हारे पास छोड़ जाता हूँ। लेकिन उनकी सेवा करना बहुत कठिन काम है, तुम्हें उनकी बहुत देखरेख करनी होगी, नहा धोकर बिना खाए पिए उन्हें भोग चढ़ाना होगा। कर पाओगे, यह सब कुछ? भगवान मेरे घर आएंगे इस आनन्द मे लीन धन्ना बोला, हाॅं-हाॅं जरूर करूॅंगा। पुजारी जी चल पड़े, रास्ते में एक पत्थर को उठाया उसे धोकर, चन्दन का टीका लगाकर, अच्छे कपड़े में लपेट कर धन्ना के यहाॅं ले गए। धन्ना आश्चर्यचकित, इतने छोटे से भगवान कितना दूध पीते होंगे? पोल खुलने के भय से पुजारी जी ने झट उसे ठाकुर जी के प्रति कोई भी आशङ्का व्यक्त करने से मना किया और उनके लौटने तक ठाकुर जी का ख्याल रखने को कहा। धन्ना बड़ा खुश। पूरे भक्ति भाव से ठाकुर जी की सेवा में लग गया। सुबह - सुबह उठकर धन्ना बिना कुछ खाए पिए, नहा धोकर ठाकुर जी की सेवा करने लगा। माॅं से कहकर अच्छा खाना बनवाया, ठाकुर जी को भोग लगाया और बैठ कर इन्तजार करने लगा कि वे कब भोग लगाएँ। ठाकुर जी कहाॅं खाने वाले थे।

धन्ना को लगा मुझसे ही कोई चूक हुई है, इसलिए ठाकुर जी खा नहीं रहे। याद कर- कर के पुजारी जी की बताई सारी बातें करता रहा। ठाकुर जी ने खाना नहीं खाया। धन्ना परेशान, शाम को फिर नहा धोकर भोग की दूसरी थाली माॅं से बनवा कर ठाकुर जी के सामने बैठ गया। ठाकुर जी कहाॅं खाने वाले थे। लेकिन भाव विभोर अबोध धन्ना भी अपनी जिद पर अड़ गया। सुबह से शाम तक भूखा बैठा धन्ना वैसे ही सो गया। दूसरे दिन फिर यही क्रम चला, ठाकुर जी ने भोग नहीं लगाया। धन्ना बहुत परेशान। तीसरे दिन धन्ना बहुत ही व्याकुल हो गया। उसे लगा मैं जाट हूॅं, इसलिए ठाकुर जी मेरे हाथ का भोजन नहीं खा रहे हैं। जब ठाकुर जी के लिए मैं इतना अप्रिय हूॅं तो इस शरीर का क्या फायदा? यह सोचते हुए थके हारे अत्यन्त व्यथित अवस्था वाले धन्ना ने, ठाकुर जी के पैरों तले अपना सिर दे मारा। रक्त बहने लगा पर ठाकुर जी ने भोग नहीं लगाया। फिर सिर दे मारा.... फिर सिर दे मारा.... इस तरह दो-तीन बार करने पर अचानक ठाकुर जी प्रकट हुए। अपने कोमल हाथों से धन्ना के सिर का रक्त पोंछते हुए बोले, मैं तो तुम्हारी परीक्षा ले रहा था, तुम्हारी इस भावविभोर भक्ति से में प्रसन्न हूॅं। कहते हैं उसके बाद कई दिन तक ठाकुर जी धन्ना के घर रहे। पुजारी जी लौटे तो यह घटना सुनकर अत्यन्त लज्जित हुए। सोचने लगे मैं तो इतने दिन तक भगवान को पत्थर समझता रहा लेकिन इस धन्ना ने पत्थर में भगवान को देख लिया।

उस गाॅंव में धन्ना सेठ के नाम से मन्दिर और गुरुद्वारा भी बना। भगवान कहते हैं कि मैं खाता हूॅं और खिलाने वाला हो कोई, भगवान जी के आगे भोग रखते हैं और उठाकर ले आते हैं। अगर भगवान का मन भी हो तो उससे पहले ही उठाकर हम ले आते हैं। प्रेम से, प्रीति से, श्रद्धा से अगर भगवान को भोजन कराओ तो भगवान अवश्य कहते हैं भक्त का अर्पण किया हुआ पदार्थ भगवान स्वीकार करते हैं।

भगवान को जब भी भोग लगाइए। बड़े प्रेम से लगाइए। थोड़ी देर वहाॅं खड़े रहिए, भगवान उसको सूक्ष्म भाव से ही स्वीकार करेंगे।

9.27

यत्करोषि यदश्नासि, यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय, तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।9.27।।

हे कुन्तीपुत्र ! (तू) जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है (और) जो कुछ तप करता है, वह (सब) मेरे अर्पण कर दे।

विवेचन:-हे अर्जुन! तुम जो भी कर्म करते हो, वह तुम मुझको अर्पण कर दो।

9.28

शुभाशुभफलैरेवं(म्), मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा, विमुक्तो मामुपैष्यसि।।9.28।।

इस प्रकार (मेरे अर्पण करने से) कर्म बन्धन से और शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मों के फलों से (तू) मुक्त हो जायगा। ऐसे अपने सहित सब कुछ मेरे अर्पण करने वाला (और) सबसे सर्वथा मुक्त हुआ (तू) मुझे प्राप्त हो जायगा।

विवेचन:-भगवान ने गेरुआ वस्त्र पहनकर घर छोड़कर जाने वाले को संन्यासी नहीं माना। भगवान संन्यासी उसको मानते हैं जिनका भोगों में आसक्ति वृत्ति का आदि हो गया। वो जो भी कर्म करता है, सब भगवान को अर्पित करके करता है।

जब सारे कर्म मुझको अर्पण कर देगा, तब संन्यास योग से युक्त होगा। ऐसे संन्यास योग से जो युक्त होगा, मैं उसको शुभ और अशुभ दोनों फल रूपी कर्म बन्धन से मुक्त कर देता हूॅं। उनसे मुक्त होकर वह मुझको प्राप्त हो जाता है।

9.29

समोऽहं(म्) सर्वभूतेषु, न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां(म्) भक्त्या, मयि ते तेषु चाप्यहम्।।29।।

मैं सम्पूर्ण प्राणियों में समान हूँ। (उन प्राणियों में) न तो कोई मेरा द्वेषी है (और) न कोई प्रिय है। परन्तु जो प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मुझ में हैं और मैं भी उनमें हूँ।

विवेचन:-कोई कितना भी बुरा हो, कितना भी ग़लत काम कर ले, कितना भी पापी हो, भगवान उसकी भी रोटी का इन्तज़ाम करते हैं। उसकी भी व्यवस्था करते हैं। उनको न कोई प्रिय है न कोई अप्रिय, वह सबको समान भाव से मानते हैं। सूरज सबको बराबर रोशनी देता है। ऐसा नहीं होता है कि पापी को कम देता है और पुण्य करने वाले को ज्यादा। सूर्य सबको एक समान  रोशनी देता है

लेकिन भगवान एक शर्त रखते हैं कि जो मुझे प्रेम से भजते हैं वो मुझ में और मैं उनमें प्रत्यक्ष  प्रगट हो जाता हूॅं। मीरा बाई में भगवान के दर्शन सब ने किए। तुलसीदास में भगवान के दर्शन हुए। ज्ञानी सन्तों में भगवान के दर्शन कर सकते हैं। जो अपना जीवन भगवान को अर्पित करता है, भगवान कहते हैं कि मैं उनमें प्रकट हो जाता हूॅं, इसलिए हमारे देश में सन्तों की इतनी महिमा है। महापुरुषों और सन्तों को भगवान के समान पूजनीय और वन्दना करने के समान मानते है। हम भगवान को प्रकट रूप से नहीं देख सकते लेकिन सन्तों में भगवान को प्रकट रूप से देख सकते हैं।

9.30

अपि चेत्सुदुराचारो, भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः(स्), सम्यग्व्यवसितो हि सः।।9.30।।

अगर (कोई) दुराचारी से दुराचारी भी अनन्य भक्त होकर मेरा भजन करता है (तो) उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।

विवेचन:-भगवान कहते हैं, हे अर्जुन! पापियों में भी महा पाप अगर मुझे भजने लगे तो वह भी साधु के समान हो जाता है। भगवान उसे साधु मानते हैं। पहले क्या पाप किया था भगवान उसका ध्यान नहीं रखते लेकिन आज सारे पाप छोड़ दिए, इस बात का ध्यान रखते हैं। जो पापी सारे पापों को छोड़कर अनन्य भाव से मेरी भक्ति करने लगा, मैं उसे साधु मानता हूॅं।

9.31

क्षिप्रं(म्) भवति धर्मात्मा, शश्वच्छान्तिं(न्) निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि, न मे भक्तः(फ्) प्रणश्यति।।9.31।।

(वह) तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है (और) निरन्तर रहने वाली शान्ति को प्राप्त हो जाता है। हे कुन्तीनन्दन ! मेरे भक्त का पतन नहीं होता (ऐसी तुम) प्रतिज्ञा करो।

विवेचन:-जो भगवान की भक्ति करता है, वह कभी व्याकुल नहीं होता क्योंकि भगवान ने उसका दायित्व लिया है। अगर किसी व्यक्ति से कोई गलती भी हो जाए या कोई गड़बड़ हो जाए तो भगवान उसको क्षमा कर देते हैं क्योंकि भगवान ने उसका दायित्व लिया है और दायित्व भगवान उसी का लेते हैं जो भगवान की भक्ति करता है।

9.32

मां(म्) हि पार्थ व्यपाश्रित्य, येऽपि स्युः(फ्) पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रा:(स्), तेऽपि यान्ति परां(ङ्) गतिम्।।9.32।।

हे पृथानन्दन ! जो भी पाप योनि वाले हों (तथा जो भी) स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र (हों), वे भी सर्वथा मेरे शरण होकर निःसन्देह परमगति को प्राप्त हो जाते हैं।

विवेचन:- भगवान ने इस श्लोक में बहुत सारी प्राचीन मान्यता समाप्त की है। भगवान कहते हैं- हे अर्जुन! पुरातन काल से कुछ घनिष्ट मान्यता थी और आज भी कुछ लोग रूढ़िवादी होते हैं जिन्होंने ऐसी मान्यता बना रखी है कि ब्राह्मणों और राज ऋषियों को ही भक्ति का अधिकार है। स्त्री, चाण्डाल, वैश्य और शूद्र को भक्ति का अधिकार नहीं है लेकिन ऐसी बात नहीं है, भगवान ने इस बात को स्पष्ट रूप से साबित कर दिया है कि यह सब गलत बात है।

भगवान कहते हैं कि चाहे स्त्री हो, चाण्डाल हो, वैश्य हो या शूद्र हो उनको तो भक्ति का अधिकार है ही और अगर मनुष्य योनि के अलावा कोई पशु योनि में भी मेरी भक्ति करता है तो वह भी मुझको प्राप्त करता है। गजेन्द्र जैसा हाथी पशु योनि में होकर भी मेरी भक्ति करता है, वह भी मुझको ही प्राप्त करता है। हमारे समाज में ऐसी बातें बहुत फैलाई गईं कि स्त्री को तो भगवान की पूजा करने की जरूरत ही नहीं है। स्त्री सिर्फ पति की सेवा करे भगवान की पूजा उसी से हो जाती है। स्त्रियों को भगवत् प्राप्ति का अधिकार ही नहीं है लेकिन भगवान ने कहा है कि सबको परम गति प्राप्त करने का अधिकार है। भगवान कहते हैं कि जो मेरी भक्ति करेगा, मैं उसको परम गति प्रदान करूॅंगा।

9.33

किं(म्) पुनर्ब्राह्मणाः(फ्) पुण्या, भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं(म्) लोकम्, इमं(म्) प्राप्य भजस्व माम्।।9.33।।

(जो) पवित्र आचरण वाले ब्राह्मण और ऋषिस्वरूप क्षत्रिय भगवान् के भक्त हों, (वे परम गति को प्राप्त हो जायँ) इसमें तो कहना ही क्या है। (इसलिये) इस अनित्य (और) सुखरहित शरीर को प्राप्त करके (तू) मेरा भजन कर।

विवचन:-भगवान कहते हैं- हे अर्जुन! मनुष्य और प्राणी मात्र ही मेरी भक्ति करके मुझको प्राप्त नहीं करते। कोई भी, किसी भी योनि का हो, जो मेरी भक्ति को करेगा, वह मुझे प्राप्त करेगा। अत: तू सुख रहित, क्षणभङ्गुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा भजन कर।

9.34

मन्मना भव मद्भक्तो, मद्याजी मां(न्) नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवम्, आत्मानं(म्) मत्परायणः।।9.34।।

(तू) मेरा भक्त हो जा, मुझमें मन वाला हो जा, मेरा पूजन करने वाला हो जा (और) मुझे नमस्कार कर। इस प्रकार अपने-आपको (मेरे साथ) लगाकर, मेरे परायण हुआ (तू) मुझे ही प्राप्त होगा।

विवेचन:- यह श्लोक बहुत महत्त्वपूर्ण है। गीता में कुल अट्ठारह अध्याय हैं। नौवें अध्याय के चौंतीसवें श्लोक पर सम्पूर्ण गीता का यह ठीक मध्य है। इसी चौंतीसवें श्लोक को अठारहवें अध्याय के पैंसठवें श्लोक में फिर दोहराया गया है।

वेदव्यास जी ने
एक लाख श्लोकों में वासुदेव उवाच:, कृष्ण उवाच कहा है लेकिन गीता के इन अट्ठारह अध्यायों के सात सौ श्लोकों में वेद व्यासजी ने सिर्फ यही लिखा कि श्री भगवानुवाच क्योंकि इन श्लोकों में भगवान भगवद् स्वरूप में बोले और परम स्वरूप में बोले। भगवान कहते हैं कि जिनके इष्ट राम हैं वे राम के भक्त बनें, जिनके इष्ट कृष्ण हैं वे कृष्ण के भक्त बनें, जिनके इष्ट विष्णु हैं, वे नारायण  के भक्त बनें और जिनके इष्ट शिव जी हैं, वे शिव जी के भक्त बनें। भगवान कहते हैं, जो जिस स्वरूप में अपने इष्ट की पूजा करते हैं, मैं तुम्हें उसी रूप में, ब्रह्म स्वरूप में दर्शन दुॅंगा, उसी रूप में प्राप्त हो जाऊॅंगा।

गीता पढ़ते समय में यह कभी भावना नहीं लानी चाहिए कि हम गीता पढ़ते हैं तो सिर्फ कृष्ण की भक्ति करनी चाहिए। भगवान ने गीता में यह स्पष्ट कहा है कि जो जिस इष्ट की भक्ति करते हैं, मैं उसको उसी इष्ट के रूप में प्राप्त हो जाऊॅंगा पर जिस भाव से गीता में भक्ति करनी बताई है उसी भाव से अपने इष्ट की भक्ति करनी है, इष्ट को नहीं बदलना।

भगवान वचन दे रहे हैं कि जो पूरी तरह मुझ में समर्पित होता है, मैं उसके पाप और पुण्य का नाश  कर देता हूॅं। भगवान ने प्रतिज्ञा कर ली और प्रतिज्ञा करके इस अध्याय का समरूप किया।

यह अध्याय अत्यन्त गुह्य है, भक्ति के सही स्वरूप और भगवान द्वारा भक्त के योगक्षेम के सम्पूर्ण दायित्व के आश्वासन में ही इसकी सम्पूर्णता है। यह स्पष्ट करते हुए सङ्कीर्तन के साथ इस विवेचन सत्र की समाप्ति हुई।


प्रश्नोत्तर :-

प्रश्नकर्ता:- दीपा जी

प्रश्न:- आजीवन जैसे कर्म करेंगे वैसा ही फल मिलेगा लेकिन भगवान गीता में कह रहे हैं कि अगर मेरी भक्ति करोगे तो पाप- पुण्य को छोड़कर मुझको प्राप्त करोगे, इसका क्या अर्थ है?

उत्तर:-अगर मैंने यह प्रण कर लिया कि मैं अपना जीवन भगवान को समर्पित करूॅंगा और मैं आज के बाद कोई पाप नहीं करूॅंगा तो भगवान कहते हैं कि मैं उसके पाप और पुण्य का नाश कर देता हूॅं, पिछला अकाउंट मैं क्लियर कर देता हूॅं, चाहे किसी भी जन्म का हो। अब मैं कोई पाप नहीं करूॅंगा जो भी कर्म करूॅंगा भगवान को समर्पित करूॅंगा, जिसका ऐसा निश्चय हो गया उसको भगवान कहते हैं योगक्षेमं वहाम्यहम् । अर्थात भगवान कहते हैं कि मैं उसके पाप और पुण्य का नाश कर देता हूॅं ।


प्रश्नकर्ता:-किशन लाल जी

प्रश्न:-चौतीसवें और अट्ठारहवें श्लोक में क्या अन्तर है, दोनों का क्या एक ही भाव है?

उत्तर:-दोनों का भाव एक ही है। नौवें अध्याय के चौंतीसवें में श्लोक में जिस बात का भगवान ने सङ्केत किया है उसी बात को अठारहवें अध्याय के पैंसठवें और छयासठवें में श्लोक में पूरा किया है। नौवें अध्याय में कहते है कि मुझमें में मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर और अट्ठारहवें अध्याय के श्लोक में कहते है कि ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्याय:।।

इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘राजविद्याराजगुह्ययोग’ नामक नवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।