विवेचन सारांश
कर्मयोगी के गुण

ID: 3427
हिन्दी
शनिवार, 12 अगस्त 2023
अध्याय 5: कर्मसंन्यासयोग
1/2 (श्लोक 1-13)
विवेचक: गीता विशारद श्री श्रीनिवास जी वर्णेकर


सुमधुर प्रार्थना के बाद दीप-प्रज्वलन, गुरु मन्त्र एवं माँ भारती व गुरु चरणों में नमन से आज का विवेचन सत्र प्रारम्भ हुआ। अर्जुन श्रीभगवान से 'शिष्यस्तेहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्' कह कर जब शरण में आए तब एक शिष्य को उपदेश देकर उनकी सारी शङ्काओं का निरसन करना भगवान अपना कर्त्तव्य मानते हैं। अर्जुन भी श्रीभगवान रूपी सद्गुरु से अपने सारे प्रश्नों को, अपनी सारी शङ्काओं को पूछना अपना कर्त्तव्य मानते है। इस प्रकार दोनों के बीच का यह संवाद आगे बढ़ता है।

चौथे अध्याय के अन्त में भगवान ने कहा-

योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।।

'संन्यास' अर्थात् त्याग जबकि 'योग' शब्द का अर्थ है- जोड़ना। एक में जोड़ना है, एक में त्याग है। कर्म का संन्यास और कर्म का योग - एक ओर कर्म का संन्यास या कर्म का त्याग और दूसरी ओर कर्म का योग। यह दो विरोधी बातें एक साथ कैसे हो रही हैं। अर्जुन के मन में इच्छा है कि ध्यान के मार्ग से संन्यास लेकर जो जीवन में प्राप्त करना है, वह मैं प्राप्त कर लूँ। वे युद्ध नहीं चाहते इसलिये बार-बार संन्यास शब्द की ओर आकर्षित होते हैं।

अट्ठारहवें अध्याय के प्रारम्भ में भी अर्जुन ने श्रीभगवान से इसी प्रकार का प्रश्न पूछा है-

संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन।।

5.1

अर्जुन उवाच  सन्न्यासं(ङ्) कर्मणां(ङ्) कृष्ण, पुनर्योगं(ञ्) च शंससि। यच्छ्रेय एतयोरेकं(न्), तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥5.1॥

अर्जुन बोले - हे कृष्ण ! (आप) कर्मों का स्वरूप से त्याग करने की और फिर कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं। (अतः) इन दोनों साधनों में जो एक निश्चित रूप से कल्याण कारक हो ,उसको मेरे लिये कहिये।

विवेचन: अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि एक तरफ कर्मों के संन्यास की बात करते हो और दूसरी ओर योग की भी प्रशंसा करते हो। अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा कि कर्मयोग और कर्म संन्यास में से हमारे लिए क्या कल्याणकारी है? वह मुझे बताइए। 

5.2

श्रीभगवानुवाच सन्न्यासः(ख्) कर्मयोगश्च, निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्, कर्मयोगो विशिष्यते॥5.2॥

श्रीभगवान् बोले - संन्यास (सांख्ययोग) और कर्मयोग दोनों ही कल्याण करने वाले हैं। परन्तु उन दोनों में (भी) कर्मसंन्यास- (सांख्ययोग) से कर्मयोग श्रेष्ठ है।

विवेचन: भगवान कहते हैं संन्यास और कर्मयोग दोनों ही नि:श्रेयस हैं। नि:श्रेयस का अर्थ है - परमकल्याण। भगवान बड़ी स्पष्टता से कहते हैं, लेकिन मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार उसका अर्थ अपने लिए वैसा ही निकालता है। भगवान अर्जुन से कहते हैं कि कर्म सन्यास से कर्मयोग विशेष है, श्रेष्ठ है। दोनों से परम कल्याण होता है लेकिन कर्मयोग विशेष श्रेष्ठ है। जीवन में मनुष्य को प्राप्त करने के लिए दो बातें होती है- अभ्युदय व नि:श्रेयस।

अभ्युदय का अर्थ भौतिक उन्नति, प्रगति करना सुख समृद्धि की प्राप्ति करना है लेकिन जो उसमें अटके रहते हैं वे गलत हैं। अभ्युदय प्राप्त करके नि:श्रेयस अर्थात् परमकल्याण भी प्राप्त करना। अभ्युदय प्राप्त होने के पश्चात यदि मनुष्य में विवेक और वैराग्य दोनों है तो वह अपना कल्याण कर सकता है और यह कर्मयोग से प्राप्त हो सकता है। कर्मयोग के माध्यम से मनुष्य अपने जीवन का कल्याण व अपनी भौतिक उन्नति भी कर सकता है। अन्ततोगत्वा सभी को नि:श्रेयस ही प्राप्त करना है लेकिन इस ईह-लोक में रहते समय अभ्युदय और नि:श्रेयस कर्मयोग से प्राप्त होता है।

संन्यास के मार्ग से नि:श्रेयस की प्राप्ति होती है लेकिन जिनको अभ्युदय की आवश्यकता नहीं होती वे संन्यास मार्ग का अवलम्बन लेते हैं। कर्मयोग सरल है। संन्यास से नि:श्रेयस प्राप्त होता ही है। कर्मयोग का आचरण कोई भी व्यक्ति कर सकता है लेकिन हर कोई संन्यास के मार्ग से नि:श्रेयस प्राप्त नहीं कर सकता।

ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं- जैसे सागर को पार करने के लिए नौका की आवश्यकता होती है वैसे ही संसार रूपी सागर को पार करने के लिए कर्मयोग की आवश्यकता होती है। वैसे ही नौका रूप यह कर्मयोग है। कोई अगर अच्छा तैराक है और वह कहे कि मैं स्वयं ही पार चला जाऊँगा तो उसके लिए सम्भव है परन्तु प्रत्येक व्यक्ति के लिए तैराकी से पार जाना सम्भव नहीं है।

5.3

ज्ञेयः(स्) स नित्यसन्न्यासी, यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो, सुखं(म्) बन्धात्प्रमुच्यते॥5.3॥

हे महाबाहो ! जो मनुष्य न (किसी से) द्वेष करता है (और) न (किसी की) आकांक्षा करता है; वह (कर्मयोगी) सदा संन्यासी समझने योग्य है; क्योंकि द्वन्द्वों से रहित (मनुष्य) सुखपूर्वक संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है।

विवेचन : संन्यास केवल बहिरङ्ग की अवस्था नहीं है बल्कि अन्तरङ्ग की अवस्था है। भगवान कहते हैं कि जो व्यक्ति किसी से द्वेष नहीं करता व द्वेष की भावना ही उसके मन में नहीं आती वह सच्चा संन्यासी होता है। वह किसी को अपना और पराया मानता ही नहीं है, दूसरा मानता ही नहीं है। यह दूसरा है, यह पराया है ऐसा भाव ही नहीं तो उसके प्रति द्वेष का भाव आने का कारण ही नहीं होता है।

अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् | उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् |

हमारे ऋषि-मुनियों की हमें बहुत अच्छी सीख है कि समस्त विश्व हमारा परिवार है। आजकल इस वाक्य को हम बहुत ज्यादा G20 के माध्यम से सुन रहे हैं। जो किसी से भी द्वेष नहीं रखता ऐसे भक्त के लक्षण श्रीभगवान ने बारहवें में अध्याय में भी कहे हैं-

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥

न केवल मनुष्य के लिए बल्कि समस्त प्राणियों के प्रति जिसके मन में द्वेष का भाव नहीं होता वह परम संन्यासी है। द्वेष का भाव है और संन्यासी है या ज्ञानी है ऐसा कहना ही गलत है। द्वेष का भाव है और भगवान का भक्त है यह कहना ही गलत है। 'न द्वेष्टि न काङ्क्षति' संन्यासी के मन में कभी यह भाव नहीं आता कि मुझे यह चाहिए। किसी भी चीज की कामना के बिना एक ही लक्ष्य पर मन को केन्द्रित कर लेने वाला व्यक्ति ही संन्यासी है। अपने लिए कुछ प्राप्त करने की इच्छा ही जब समाप्त हो जाती है, केवल परमात्मा से मिलने की इच्छा से संन्यास होता है। स्वयं के लिए कुछ सुख-दुःख की अपेक्षा नहीं रखता ऐसा व्यक्ति नित्य संन्यासी है।

नित्य संन्यासी का अर्थ है परमात्मा का ही ध्येय करने वाला। वस्त्र क्या धारण किए यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। वह व्यक्ति अतरङ्ग से संन्यासी है जिसके मन में हमेशा परमात्मा रहते हैं। वह निर्द्वन्द्व है। उसके मन में कोई द्वन्द्व नहीं होता। ऐसे व्यक्ति को सुख-दुःख का या सर्दी-गर्मी का कोई असर नहीं होता। ऐसा व्यक्ति बन्धनों से मुक्त हो जाता है। भगवान अर्जुन से कहते हैं कि यह कर्मयोग और संन्यास बाहर से दिखने के लिए अलग-अलग लगते हों लेकिन दोनों की अन्तरङ्ग अवस्था एक ही है। सुख में वह रमता नहीं और दु:ख से भयभीत नहीं होता। ऐसा व्यक्ति निर्द्वंद्व हो जाता है।

ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-

आणि मी माझें ऐसी आठवण । विसरलें जयाचें अंतःकरण ।

निरन्तर जिसके अन्तःकरण में 'मैं और मेरा' इसकी याद भी नहीं रहती वह नित्य संन्यासी है। 

5.4

साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः(फ्), प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः(स्) सम्यग्, उभयोर्विन्दते फलम्॥5.4॥

नासमझ लोग सांख्ययोग और कर्मयोग को अलग-अलग (फल वाले) कहते हैं, न कि पण्डितजन; (क्योंकि) (इन दोनों में से) एक साधन में भी अच्छी तरह से (स्थित) मनुष्य दोनों के फलरूप (परमात्मा को) प्राप्त कर लेता है।

विवेचन: साङ्ख्य और योग यह पृथक-पृथक बात नहीं है। बालक यानी अज्ञानी इसको अलग-अलग समझता है। साङ्ख्य और योग दोनों एक ही हैं। दोनों का आचरण करने से एक ही फल प्राप्त होता है। कर्मयोग का ही अच्छे से आचरण करते हैं तो दोनों का फल प्राप्त हो जाता है। दोनों से ही फल- नि:श्रेयस की प्राप्ति यानि परमकल्याण की प्राप्ति होती है। दोनों ही मार्ग से परम कल्याण की प्राप्ति होती है।

देखना यह चाहिए कि व्यक्ति की अपनी योग्यता क्या है? क्या वह कर्मयोग से या कर्म के संन्यास से परम कल्याण की अवस्था को पहुँच सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता के पठन की गलत धारणा लोगों में रही है। लोग कहते थे कि बच्चों को गीता मत सिखाओ। बच्चों को भगवद्गीता मत पढ़ाओ, इसको पढ़ने से बच्चों को संन्यास लेने की इच्छा हो जाती है। गीता परिवार का प्रचार होने से अब यह कम हो गया है। भगवद्गीता के प्रवक्ता भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों भी बहिरङ्ग से संन्यासी नहीं दिखते हैं। अर्जुन भी संन्यासी नहीं दिखते, न ही श्रीकृष्ण ऐसे दिखाई देते हैं। दोनों ने ही अपने राज्य को प्राप्त किया और अपना कर्त्तव्य अच्छे से निभाया। राज्य भी प्राप्त कर लिया और परम कल्याण भी प्राप्त कर लिया। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यही बात समझाते हैं कि साङ्ख्ययोग व कर्मयोग दोनों से निश्चय ही नि:श्रेयस अर्थात् परमकल्याण की अवस्था तक पहुँचा जा सकता है।

5.5

यत्साङ्ख्यैः(फ्) प्राप्यते स्थानं(न्), तद्योगैरपि गम्यते।
एकं(म्) साङ्ख्यं(ञ्) च योगं(ञ्) च, यः(फ्) पश्यति स पश्यति॥5.5॥

सांख्ययोगियों के द्वारा जो तत्त्व प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों के द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। (अतः) जो मनुष्य सांख्ययोग और कर्मयोग को (फलरूप में) एक देखता है, वही (ठीक) देखता है।

विवेचन : साङ्ख्य और योग दोनों एक ही फल की प्राप्ति के लिए कार्यरत हैं। मुझे अगर किसी गन्तव्य तक पहुँचना है तो मुझे यह देखना होगा कि मैं उस तक कैसे पहुँच सकता हूँ। अगर नागपुर से किसी व्यक्ति को दिल्ली तक जाना है तो उसके लिये कई साधन हो सकते हैं परन्तु साधन उसे तय करना है। साधन का प्रयोग व्यक्ति की योग्यता पर भी निर्भर है। उसे मार्ग भी निश्चित करना होता है।

किसी एक समय में, किसी एक मार्ग से ही जाया जा सकता है। निश्चित गन्तव्य तक पहुँचने के लिए दो मार्ग नहीं अपनाये जा सकते। साङ्ख्य और योग दोनों का एक ही परिणाम है, जो ऐसा मानते हैं वे यथार्थ को देख रहे हैं। वे परम सत्य को समझते हैं। जैसे एक दीपक के दो प्रकाश नहीं हो सकते ऐसे ही साङ्ख्य और योग पृथक नहीं हो सकते। दोनों का फल भी पृथक नहीं हो सकता। जो योगी को प्राप्त होता है वही ज्ञानी को भी प्राप्त होता है इसलिए वह एक ही है।

5.6

सन्न्यासस्तु महाबाहो, दुःखमाप्तुमयोगतः।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म, नचिरेणाधिगच्छति॥5.6॥

परन्तु हे महाबाहो ! कर्मयोग के बिना संन्यास सिद्ध होना कठिन है। मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।

विवेचन: भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे! अर्जुन, यह जो संन्यास है कर्मों का आचरण किए बिना प्राप्त नहीं होता। कई-कई जन्मो तक किए हुए कर्मयोग के आचरण के बाद ही संन्यासयोग प्राप्त होता है। संन्यास का अर्थ है त्याग। अच्छे से किया हुआ कर्मयोग और फिर उसको अर्पण कर दिया और 'मैंने किया' ऐसे कर्त्तृत्व भाव का भी त्याग कर देने से संन्यास का भाव उत्पन्न होता है। कर्म के फल का त्याग करके उस कर्म का स्मरण भी न रखना।

हम अपने मन, शरीर और इन्द्रियों द्वारा अलग-अलग प्रकार के कर्म करते हैं। वह कर्म करने के पश्चात निश्चित रूप से यह मानता है कि 'यह इन्द्रियों के कर्म हैं मेरे नहीं हैं' यह भाव मन में रखकर उनके द्वारा किया गया यह कर्म का त्याग यह बिना कर्मयोग के आचरण के इतना आसान नहीं है। कर्मयोग के बिना संन्यास का मार्ग दु:ख देने वाला है। उसके विचार से मनुष्य दु:खी ही रहेगा। जो मनन करने वाला योग युक्त है, जो कर्मयोग से युक्त है, जिसका जन्म ही योग से परिपूर्ण है, जीवन ही कर्मयोग में है, जिसका जीवन ही यज्ञमय है।

तीसरे व चौथे अध्याय में भी हमने जाना है कि अपने कर्त्तव्य कर्मों को किस प्रकार से यज्ञ के भाव से किया जा सकता है, जिसका यह जीवन ही योग हो गया, कर्मयोग से परिपूर्ण हो गया है, जिसका जीवन यज्ञमय हो गया ऐसा व्यक्ति; ऐसा मुनि परम ब्रह्मा को तुरन्त ही प्राप्त कर लेता है। जो अपने ध्येय का मनन भी करता रहता है; वह योग से परमब्रह्म को बिना किसी देरी के प्राप्त कर लेता है। परमब्रह्म को प्राप्त करना ही परम ध्येय है जो उसको कर्मयोग से तुरन्त ही प्राप्त कर लेता है।

कर्मयोग के बिना संन्यास लेने के सारे मार्ग प्रशस्त हो जाते हैं। संन्यास की दीक्षा देने वाले सद्गुरु किसी को भी संन्यास की दीक्षा ऐसे नहीं देते। पहले उसकी परीक्षा लेते हैं कि वह कर्मयोग का कितनी योग्यता से पालन करता है। क्या उसकी कोई आकाङ्क्षाएँ हैं? क्या उसके मन में किसी व्यक्ति के प्रति द्वेष है? अगर उसकी कोई आकाङ्क्षाएँ नहीं है और किसी के लिए भी कोई द्वेष नहीं है तो वह कर्मयोग का योग्यता से पालन कर रहा है। ऐसे व्यक्ति को संन्यास की दीक्षा के योग्य माना जाता है। मेरे कॉलेज के एक मित्र साइकिल पर ही एक दिन संन्यास लेने के लिए बिना किसी से कुछ कहे घर से चले गए। एक पत्र छोड़ गए जिसमें लिखा था कि मैं जा रहा हूँ आप चिन्ता मत कीजिए। मैं आनन्द से रहूँगा। नागपुर से रायपुर साइकिल से ही पहुँच गए। वहाँ साधु संन्यासी से मिले। उन्होंने उनका स्वागत किया और पूछा कि बेटा कहाँ से आए हो। सारे वृत्तान्त को जानकर उन्होंने उसको भोजन कराया और कहा कि तुम एक छात्र हो। पहले अपनी शिक्षा पूरी करो और फिर ब्रह्मचारी के रूप में कुछ वर्ष बिताने के पश्चात जब निश्चित हो जाएगा कि मन में किसी के भी प्रति द्वेष नहीं है, तब आना। फिर परीक्षा ली जाएगी कि अब आपको स्वयं के लिए कुछ सुख की अपेक्षा या आकाङ्क्षा नहीं है। तब संन्यास दिया जाएगा। ऐसा कहकर उनको समझा-बुझाकर वापस भेज दिया। अत: जो कर्मयोग का आचरण नहीं करते वे संन्यास के योग्य नहीं होते। कर्मयोग के बिना लिया हुआ संन्यास दुःखदाई होता है।

ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं- जो कर्मयोग का आचरण नहीं करते वे संन्यास मार्ग का आचरण नहीं कर सकते।

5.7

योगयुक्तो विशुद्धात्मा, विजितात्मा जितेन्द्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा, कुर्वन्नपि न लिप्यते॥5.7॥

जिसकी इन्द्रियाँ अपने वश में हैं, जिसका अन्तःकरण निर्मल है, जिसका शरीर अपने वश में है (और) सम्पूर्ण प्राणियों की आत्मा ही जिसकी आत्मा है, (ऐसा) कर्मयोगी (कर्म) करते हुए भी लिप्त नहीं होता।

विवेचन: श्रीभगवान कहते हैं कि जिस व्यक्ति के मन में किसी के लिए द्वेष न रहे, चित्त में किसी भी तरह की अशुद्धियाँ न रहे वह व्यक्ति ही संन्यास के योग्य माना जाता है कर्मयोग के मार्ग से ही संन्यास का मार्ग खुलता है। जिस व्यक्ति ने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया है, जो विजितेन्द्रिय है उस व्यक्ति के द्वारा ही संन्यास को प्राप्त किया जा सकता है। विजितात्मा यानी जिसने अपने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है, अपने मन पर जिसने विजय प्राप्त कर ली है; वह विशुद्धात्मा है।

जिसका चरित्र, मन, बुद्धि व अन्तरङ्ग शुद्ध है, ऐसा विशुद्धात्मा, विजितात्मा, जितेन्द्रिय व्यक्ति कैसा होगा? उसके मन पर कोई प्रभाव नहीं रहा है। जो व्यक्ति इस भाव से परे चला गया है- 'वह दूसरा है, यह पराया है, 'यह मेरा है' ऐसा भाव जिसमें नहीं है। सभी के अन्तरङ्ग में जो आत्मतत्त्व है वही आत्मतत्त्व मुझमें है और इसलिए वह और मैं अलग नहीं हूँ। मुझमें तथा दूसरों में कोई अन्तर नहीं है। सभी में वही परमात्मा है। जो यह बात जानता है कि प्राणी मात्र में जो आत्मतत्त्व है; जो परमात्मा सब में बसे हुए हैं; वही परमात्मा मुझ में भी है; वह संन्यासी है। ऐसा व्यक्ति अपने सारे कार्य करते हुए भी उन कर्मों से लिप्त नहीं होता। ऐसा व्यक्ति इन कर्मों से चिपकता नहीं है। इतना ही नहीं ऐसे व्यक्ति को यदि दु:ख भोगना पड़ता है तो वह उससे भी चिपकता नहीं है। लोकमान्य तिलक को जेल में डाल दिया था। छह-छह वर्ष के लिए दो बार वे जेल में रहे। जेल में रहना सुखकर नहीं होता लेकिन जेल के उस दुःख से वे लिप्त नहीं हुए। वहाँ रहकर उन्होंने 'गीता-रहस्य' नामक ग्रन्थ लिखा।

5.8

नैव किञ्चित्करोमीति, युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्, नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्॥5.8॥

तत्त्व को जानने वाला सांख्ययोगी (मैं स्वयं) कुछ भी नहीं करता हूँ' - ऐसा माने (अत:) देखता हुआ, सुनता हुआ, छूता हुआ, सूँघता हुआ, खाता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ,

5.8 writeup

5.9

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्, नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु, वर्तन्त इति धारयन्॥5.9॥

बोलता हुआ, (मल-मूत्र का) त्याग करता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आँखें खोलता हुआ (और) मूँदता हुआ भी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में बरत रही हैं' - ऐसा समझे।

विवेचन: श्रीभगवान कहते हैं, 'मैं कुछ नहीं कर रहा' इस तत्त्व को जानने वाला जो परमात्मा के साथ एकरूप हो गया है; ऐसा व्यक्ति उस तत्त्व (तत्त्व शब्द का अर्थ है- तत्- वह, त्व - उसका भाव, उसका पन) को समझने वाला है। जैसे बालक में बालपन है। बालक होने का तत्त्व है; माता में मातृत्व है जो केवल बालक ही समझ सकता है या केवल माता ही समझ सकती है। इसी प्रकार से परमात्मा के अन्दर के तत्त्व को वही समझ सकता है जो परमात्मा में लीन हो चुका है, जो परमात्मा के तत्त्व को समझ चुका है जो परमतत्त्व को प्राप्त कर चुका है।

योग से युक्त परमात्मा के साथ परिपूर्ण रूप से एकरूप हो गया उसे क्या विचार करना चाहिए? इस अवस्था तक पहुॅंचे हुए व्यक्ति का विचार कैसा होता है। मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ। जैसे श्वास भरते समय उसकी धारणा क्या होती है, उसका विश्वास क्या होता है? भगवान बताते हैं कि ऐसा व्यक्ति जो देखना, सुनना, सोना, विसर्ग करना, कुछ भी देते समय या कुछ लेते समय, बात करते समय कुछ भी मैं नहीं कर रहा ऐसे भाव से लिप्त रहते हैं वे व्यक्ति योग को प्राप्त कर चुके हैं। 'तत् सत्' इन नाम से परमात्मा के भाव व तत्त्व को जानने वाला ही ज्ञानी है। जो भाव सहित परमात्मा को जानता है; परमात्मा के साथ जो एक रूप हो चुका है; वही तत्त्व-विद् है।

वह मनजीत है। उसको क्या विचार करना चाहिए? ऐसी अवस्था तक पहुँचे हुए व्यक्ति का विचार कैसा होता है? मैं कुछ नहीं कर रहा फिर कौन कर रहा है? इतने सारे कार्य हो रहे हैं। वह कहता है कि देखते समय सुनते समय स्पर्श करते समय, सूँघते समय, खाते समय, जाते समय, स्वप्न देखते समय, सोते समय, श्वास लेते समय, बात करते समय, यहाँ तक की आँखों की पलकें झपकते वक्त भी वह व्यक्ति कहता है कि मैं कुछ नहीं कर रहा। इन सब भावों से इन्द्रियों को वश में कर चुका है। उसका मानना है कि आँखें देख रही है, कान सुन रहे हैं, नाक सूँघ रही है, इसमें मैं कुछ नहीं कर रहा अतः व्यक्ति योग को युक्त हो चुका है।

मनोबुद्ध्यहंकार चित्तानि नाहं।
न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः।
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।।

मैं मन नहीं हूँ, बुद्धि नहीं हूँ, मैं अहङ्कार नहीं हूंँ, मैं नेत्र नहीं हूँ, कान नहीं हूँ, नाक नहीं हूँ, जिह्वा नहीं हूँ। मैं तो चिदानन्द शिव का स्वरूप हूँ। जो सच्चा ज्ञानी और योगी होता है वह इस अवस्था तक पहुँच जाता है कि मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ। मेरी उपस्थिति के कारण यह हो रहा है, मैं नहीं कर रहा हूँ।

 ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं जो आत्म और अनात्म की व्यवस्था को जान जाता है वह राजहँस है। जो व्यक्ति प्रकृति और चैतन्य इस भाव को समझ जाता है और यह समझ लेता है कि प्रकृति की तरफ से ही जो कुछ भी हो रहा है वह प्रकृति ही करवा रही है, ऐसी अवस्था को जो व्यक्ति प्राप्त कर लेता है वह परमब्रह्म की अवस्था को पा लेता है।

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि जहाज पानी में तैरता है, पानी में डूबता नहीं है। जब तक जहाज में कोई छेद न हो पानी अन्दर नहीं आता। तब तक जहाज डूबता नहीं है। हम संसार में डूबते क्यों हैं? यह सारा संसार हमारे भीतर घुस जाता है; हमारे अन्दर में जाकर बैठ जाता है। हम संसार को अन्दर पकड़ कर रखते हैं तो डूबेंगे नहीं तो क्या होगा।

भगवान कहते हैं कि जो कर्म में लिप्त नहीं होता और जो अपने ऐसे सब कर्मों को भगवान को अर्पित कर देता है, ऐसे भाव से जो अपने कर्म करता है उसको ऐसे कर्म का पुण्य या पाप नहीं लगता। ज्ञानेश्वर महाराज जी कहते हैं कि पुण्य भी पाप ही हो जाता है यदि वह आसक्ति उत्पन्न करे।

5.10

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि, सङ्गं(न्) त्यक्त्वा करोति यः꠰
लिप्यते न स पापेन, पद्मपत्रमिवाम्भसा॥5.10꠱

जो (भक्तियोगी) सम्पूर्ण कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके (और) आसक्ति का त्याग करके (कर्म) करता है, वह जल से कमल के पत्ते की तरह पाप से लिप्त नहीं होता।

विवेचन: श्रीभगवान बार-बार यह बताते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता की यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शिक्षा है। भगवद्गीता केवल इस आचरण को अपनाने से जीवन में आ जाएगी। हम जो कर्म करें वह परब्रह्म परमात्मा को अर्पण करें:

कर प्रणाम तेरे चरणो में लगता हूँ अब तेरे काज।
पालन करने को आज्ञा तव नियुक्त होता हूँ आज।।

यह भाव मन में रखते हुए ऐसी प्रार्थना करते हुए दिन का आरम्भ करें। फिर समस्त कर्मों को श्रीकृष्णार्पणमस्तु, श्रीरामार्पणमस्तु, दुर्गामातार्पणमस्तु, गुरुर्पणमस्तु कहते हुए जो भी हम परमात्मा का रूप मानते हैं उनका नाम लेते हुए उनको अर्पण कर देना। ऐसा करने से कर्म में आसक्ति नहीं होगी।

इस प्रकार जो कर्म करता है ऐसा व्यक्ति उन कर्मों से लिप्त नहीं होता। उसे उन कर्मों से उत्पन्न पुण्य अथवा पाप नहीं लगते। पुण्य भी बन्धनकारक हैं और पाप भी बन्धनकारक हैं। पुण्य का उपभोग यानी सुख और पाप का उपभोग यानी दु:ख; सुख या दु:ख दोनो भोगने के लिये शरीर की आवश्यकता रहेगी, जो मोक्ष में बाधक है। जो कर्म को परमात्मा को अर्पण करते हुए समस्त कर्म करते हैं, वे कमल-पत्र जिस प्रकार जल में होते हुए भी जल से चिपकता नहीं वैसे ही वह कर्मयोगी संसार में रहते हुए संसार से अलग रहते हैं।

5.11

कायेन मनसा बुद्ध्या, केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः(ख्) कर्म कुर्वन्ति, सङ्गं(न्) त्यक्त्वात्मशुद्धये॥5.11॥

कर्मयोगी आसक्ति का त्याग करके केवल (ममतारहित) इन्द्रियाँ-शरीर-मन-बुद्धि के द्वारा केवल अन्तःकरण की शुद्धि के लिये ही कर्म करते हैं।

विवेचन: योगी कर्म करते रहते हैं। इन्द्रियों के द्वारा कर्म करते है परन्तु कर्म में लिप्त नहीं होते। वे पूरा मन लगाकर काम करते हैं लेकिन उस कर्म से चिपकते नहीं। यह कार्य वेे चित्त की शुद्धि के लिए करते हैं। उनका मन की शुद्धि व चित्त की शुद्धि का एक ही लक्ष्य है- अन्तःकरण की शुद्धि। आत्मस्वरूप को देखने के लिए मन का शुद्धिकरण जरूरी है। पानी में अपने स्वरूप को देखना हो तो पानी शुद्ध चाहिए इसी प्रकार आत्मस्वरूप को जानने के लिए अन्तः करण का शुद्ध होना जरूरी है।

5.12

युक्तः(ख्) कर्मफलं(न्) त्यक्त्वा, शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्꠰ अयुक्तः(ख्) कामकारेण, फले सक्तो निबध्यते॥5.12॥

कर्मयोगी कर्म फल का त्याग करके नैष्ठिकी शान्ति को प्राप्त होता है। (परन्तु) सकाम मनुष्य कामना के कारण फल में आसक्त होकर बँध जाता है।

विवेचन: दो प्रकार के लोगों की बात भगवान करते हैं- युक्त व अयुक्त। जो कर्म से प्राप्त होने वाले फल की चिन्ता छोड़ देता है तो उसे शान्ति की प्राप्ति होती है। मनुष्य को शान्ति चाहिए और यह शान्ति कहाँ है? शान्ति वहाँ है, जहाँ आसक्ति नहीं है। शान्ति मनुष्य के भीतर ही है। कितने भी सुख प्राप्त हो जाए पर शान्ति प्राप्त नहीं होती ऐसा क्यों होता है? क्योंकि व्यक्ति कर्म के फल में आसक्त रहता है। कर्म किया और भगवान को अर्पित कर दिया और उसके फल की कोई चिन्ता नहीं रही तो मन शान्त रहेगा। इस तरह से परमात्मा की प्राप्ति (नैष्ठिकीम्) हो जाती है। दिन भर के कार्य करते हुए 'मैं परमात्मा के लिए कर रहा हूँ' ऐसा सोचकर कार्य करने वाला दिनभर परमात्मा के साथ जुड़ा रहता है। जहाँ हमारा मन रहता है हमारा अन्तरङ्ग वहाँ जुड़ा रहता है। अगर वह परमात्मा का ध्यान करता है तो हम परमात्मा से जुड़े रहते हैं और उसे शान्ति की प्राप्ति होती है।

'अयुक्त' व्यक्ति वह है जो कर्मयोग का आचरण नहीं करता और अपने हर कर्म से जुड़ा रहता है। उसका ध्यान हमेशा इस बात में रहता है कि मेरी यह कामना पूरी हो जाए या मुझे यह मिल जाए। आसक्ति से कर्म में जुड़ा हुआ व्यक्ति अयुक्त है। फल की आसक्ति के कारण वह दौड़-दौड़ कर कार्य करता है। वह कर्म के फल में इतना आसक्त रहता है और इसलिए कर्म के पीछे दौड़ते हुए इस संसार में ही रहता है। वह कर्म और कर्म के फल के बन्धन में रहता है। उसको शान्ति प्राप्त नहीं होती। कितने भी भौतिक सुख प्राप्त कर ले लेकिन उसके मन में अशान्ति ही रहती है।

5.13

सर्वकर्माणि मनसा, सन्न्यस्यास्ते सुखं(म्) वशी।
नवद्वारे पुरे देही, नैव कुर्वन्न कारयन्॥5.13॥

जिसकी इन्द्रियाँ और मन वश में हैं, (ऐसा) देहधारी पुरुष नौ द्वारों वाले (शरीर रूपी) पुर में सम्पूर्ण कर्मों का (विवेक पूर्वक) मन से त्याग करके निःसन्देह न करता हुआ (और) न करवाता हुआ सुख पूर्वक (अपने स्वरूप में) स्थित रहता है।

विवेचन: भगवान को कर्म अर्पित करने के लिए कहीं भी जाने की जरूरत नहीं होती। हम अगर अपने मन से ही कर्म को अर्पित कर दें तो वह अर्पण परमात्मा तक चला जाता है। कर्म करना और कर्म का त्याग करना मन में ही होना चाहिए। इस प्रकार जो कर्म को अर्पण करता है वह अन्तरङ्ग को ही शुद्ध करता है और सुख में रहता है।

यह शरीर एक नगर की तरह है जिसके नवद्वार हैं; यानि नौ दरवाजे हैं। इन नव द्वार में- दो आँखें, दो कान, दो नासिका, मुँह, गुदा, उपस्थित हैं। इन नौ द्वारों से शरीर की इन्द्रियों का कार्य चलता रहता है। आँखों से दृश्य अन्दर ले लेते हैं, कानों से शब्दों को ग्रहण कर लेते हैं। मुँह से शब्दों को कह देते हैं। नासिका से श्वास अन्दर और बाहर छोड़ते हैं। नव द्वार के शरीर में रहते हुए वह न कुछ करता है, न करवाता है। कर्म को करके उसको अर्पण करते जाने में ही सुख की प्राप्ति होती है। 

सन्त कबीर कहते हैं-

जो कुछ किया तुम किया मैं कुछ किया नाहीं।
कहो कहीं यह मैं किया तो तुम्ह ही हो मुझ माहीं।

भगवान भी कहते हैं कि मैं भी नहीं करता। यह बात आगे के विवेचन में समझी जाएगी।

इसके पश्चात प्रश्नोत्तर सत्र आरम्भ हुआ। 

प्रश्नोत्तर
प्रश्नकर्त्ता : किशोर भैया

प्रश्न : कर्मयोग और कर्म संन्यास क्या है? नि:श्रेयस का क्या तात्पर्य है?

उत्तर: श्रेयस का तात्पर्य है कल्याण और नि: श्रेयस का तात्पर्य है - परमकल्याण। कर्म के मार्ग से परमात्मा के साथ एक हो जाना कर्मयोग है। कर्म संन्यास का तात्पर्य - कर्म करके परमात्मा को अर्पण कर देना कर्म-संन्यास, वह भी कर्त्तृत्वाभिमान के साथ।

प्रश्न कर्त्ता: सेवाराम भैया

प्रश्न : कर्म परमात्मा ही करवाता है और वही करता है तो हमें परमात्मा ने क्यों उत्पन्न किया?

उत्तर : भगवान कहते हैं कि मैं भी नहीं करवाता। इसका उत्तर आगे के विवेचन में और स्पष्ट होगा। 

प्रश्न : अच्छे कर्म करने में अड़चनें आती हैं।

उत्तर : हमें अच्छे कर्म अड़चनें आने पर भी करना चाहिये। यह भगवान की परीक्षा भी हो सकती है। भगवान हमारे धैर्य की परीक्षा लेते हैं। सभी के साथ ऐसी अड़चनें आती है।

प्रश्नकर्त्ता : श्रीकान्त भैया

प्रश्न : प्रकृति और ब्रह्म दोनों अलग-अलग हैं क्या?

त्तर : प्रकृति और पुरुष शब्दों का प्रयोग किया जाता है। परमात्मा सर्वत्र है, चैतन्य है। परमात्मा के मन में आदिसङ्कल्प आया 'एकोहंबहुस्याम'। फिर परमात्मा की चैतन्य ऊर्जा वस्तुमान में परिणत हो गई। साङ्ख्य प्रकृति और पुरुष इन दो तत्त्वों को  मानता है। भगवद्गीता योग दर्शन का ग्रन्थ है फिर भी साङ्ख्यदर्शन को भी स्वीकार किया गया है। परमात्मा परम पुरुष एक ही है। पुरुषोत्तमयोग नामक पन्द्रहवें अध्याय में यही बात कही गई है। क्षर और अक्षर दो तत्त्व हैं। भूत-मात्र क्षर हैं। वेदान्त कहता है कि उत्तम पुरुष अन्य ही है। वही परमात्मा है। जो सभी को धारण करता है। वह अव्यय है। इसलिये भगवान स्वयं को पुरुषोत्तम कहते हैं। इसी को श्रीभगवान तेरहवें अध्याय में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ कहते हैं।वहीँ