विवेचन सारांश
श्रीकृष्ण का विराट रूप और अर्जुन की मनोदशा

ID: 3472
Hindi - हिन्दी
शनिवार, 19 अगस्त 2023
अध्याय 11: विश्वरूपदर्शनयोग
2/4 (श्लोक 11-23)
विवेचक: गीता विदूषी सौ वंदना जी वर्णेकर


पारम्परिक प्रार्थना, दीप प्रज्वलन और गुरु वन्दना के साथ आज का सत्र प्रारम्भ हुआ। भगवद्गीता शाश्वत ज्ञान की धारा है जो निरन्तर बहती रहती है। इसका शुद्ध उच्चारण हम सीख पा रहे हैं, यह हमारा अहोभाग्य है। वैसे तो गीता जी के सभी अध्याय अपने आप में अद्भुत और रसपूर्ण हैं, ग्यारहवें अध्याय की बात कुछ विशिष्ट है।

ज्ञानेश्वरी में इस बात का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया गया है-

येथ शान्ताचिया घरा, अद्भुत आला आहे पाहुणेरा।

अर्थात् यह अद्भुत रस का सङ्गम है, जिसमें शाश्वत ज्ञान गुप्त रूप से बह रहा है। जिस प्रकार गङ्गा, यमुना और सरस्वती के त्रिवेणी सङ्गम में सरस्वती गुप्त गामिनी है, वैसे ही दूसरे अध्याय से श्रीकृष्ण के उपदेश शुरू होते हैं और ग्यारहवें अध्याय तक आते-आते ये उपदेश गुप्त रूप धारण कर लेते हैं। भगवान उपदेश तो दे रहे हैं परन्तु सामान्य भाषा में। नौवें अध्याय में भगवान ने अपने आपको सर्वव्यापी बताते हुए कहा-

समोऽहं सर्वभूतेषु, न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ।। ९·२९ ।।

इस संसार के कण-कण में भगवान बसते हैं, जो भक्ति से उन्हें याद करते हैं, भगवान उन्हें अवश्य दिखते हैं, उन्हें देखने की क्षमता हममें होनी चाहिए। युद्ध के मैदान में शोकाकुल अर्जुन सबमें भगवान को नहीं देख पा रहे थे, वे कौरवों में बस विकार ही देख रहे थे। इसीलिए दसवें अध्याय के सत्रहवें श्लोक में अर्जुन पूछते हैं-

केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।।

अर्थात् किस विधि से आपको देख पाना सम्भव हो सकेगा?  

 तब भगवान अपनी बयासी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वे तो इस चराचर सृष्टि के कण-कण में व्याप्त हैं, देखने वाले में वह क्षमता होनी चाहिए। चिन्तन करने के लिए मङ्गलमय दर्शन आवश्यक हैं। जिससे भक्त का मन भगवान से एकाकार हो जाए। अपनी विभूतियों का वर्णन करने के बाद अन्त में भगवान कहते हैं-

अथवा बहुनैतेन, किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नं, एकांशेन स्थितो जगत्। । १०.४२। ।

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उनके एक अंश में समाए हैं। पृथ्वी से सूर्य की दूरी १,८६००० मील है। हमारी पृथ्वी सौर मण्डल के नौ ग्रहों में तीसरा ग्रह है और ऐसे अनेक सौर मण्डल इस ब्रह्माण्ड में हैं, ऐसा विराट स्वरूप है भगवान का। 

ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-

म्हणौनि साधकां तूं माउली, पिके सारस्वत तुझ्या पाउली।    
या कारणे तुझी साउली , खण्डीन मी कदा।।

श्रीकृष्ण अर्जुन के गुरु थे। उन दोनों में एक अद्भुत सम्बन्ध था। जिसे ज्ञानेश्वरी में अत्यन्त सुन्दरता से प्रस्तुत किया गया है।

हा कोपे न निवान्तु साहे, रुसे तो बुझावित जाए।
नवल पिसे लागले आहे, पार्थाचे देवा।। 

अर्जुन के प्रेम में मानों भगवान बह गए हैं। इसीलिए, अर्जुन द्वारा विराट रूप दिखाने का हठ किये जाने पर भगवान उन्हें दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं और विश्व रूप दिखाते हैं। 

पश्य मे पार्थ रूपाणि, शतशोऽथ सहस्रश:।। ११·५।।
भगवान का दिव्य रूप देखने के लिए दिव्य चक्षुओं की आवश्यकता होती है।

 उनके दिव्य रूप का दर्शन मात्र तीन व्यक्तियों को लभित हुआ:-
1) यशोदा मैया को  जब वे श्रीकृष्ण से मुँह खोलकर मिट्टी दिखाने को कहती हैं। तब कुछ क्षणों के लिए भगवान अपना मुँह खोल कर ब्रह्माण्ड दिखाते हैं। अधिक समय तक मुँह खुला रखते तो मैया जान जातीं कि कान्हा  परमेश्वर हैं और वे उनकी पूजा करने लगतीं, श्रीकृष्ण चाहते थे कि वे उनकी मैया ही बनी रहें, भक्त नहीं। 

2) वेदव्यास जी की कृपा से सञ्जय को।

3) श्रीकृष्ण की कृपा से अर्जुन को। 

इस प्रकार अनेक मुख, अनेक नयन, दिव्य आभूषणों से आयुधों से युक्त अपना विराट स्वरूप भगवान ने अर्जुन को दिखाना प्रारम्भ किया। 

इस अध्याय के माध्यम से भगवान सन्देश देते हैं कि अपने मन से भय को दूर करना चाहिए और अमङ्गल से घृणा नहीं करना चाहिए। 

11.11

दिव्यमाल्याम्बरधरं(न्), दिव्यगन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं(न्) देवम्, अनन्तं(म्) विश्वतोमुखम्॥11.11॥

जिनके गले में दिव्य मालाएँ हैं, जो अलौकिक वस्त्र पहने हुए हैं, जिनके ललाट तथा शरीर पर दिव्य चन्दन, कुंकुम आदि लगा हुआ है, ऐसे सम्पूर्ण आश्चर्यमय, अनन्त रूपोंवाले (तथा) सब तरफ मुखोंवाले देव (अपने दिव्य स्वरूप) को (भगवानने दिखाया)।

विवेचन:- अनेक मुख, अनेक नयन और अनेक आयुधों वाले इस रूप ने दिव्य माला धारण की है, दिव्य पीताम्बर पहने हुए सम्पूर्ण शरीर में दिव्य गन्ध लेपित है। इस रूप में सभी आश्चर्य भी दिख रहे हैं। यह रूप सर्वव्यापी है। इस सृष्टि की बात करें तो इस समय जगत् में कितनी ही घटनाएँ घटित हो रही होंगी, कहीं युद्ध हो रहा होगा तो कहीं खुशियाँ मनाई जा रही होंगी और इन सबका नियन्ता वह परमात्मा है। हमारी पृथ्वी तीन सौ पैंसठ दिनों में सूर्य की परिक्रमा करती है। अभी हाल ही में NASA ने एक और सौर मण्डल की खोज की है जिसमें हमारी पृथ्वी जैसी ही एक पृथ्वी है जो दो दिनों में अपने सूर्य की परिक्रमा करती है। कितनी ही आकाश गङ्गाएँ इस ब्रह्माण्ड में होंगी और कितने ही ब्रह्माण्ड भी होंगे, जिन सबमें भगवान व्याप्त हैं। 
ऐसे दिव्य रूप का प्रकाश अर्जुन के साथ-साथ सञ्जय भी देख रहे थे। 

11.12

दिवि सूर्यसहस्रस्य, भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः(स्) सदृशी सा स्याद्, भासस्तस्य महात्मनः॥11.12॥

(अगर) आकाश में एक साथ हजारों सूर्योंका उदय हो जाय, (तो भी) उन सबका प्रकाश (मिलकर) उस महात्मा (विराट् रूप परमात्मा) के प्रकाशके समान शायद ही हो अर्थात् नहीं हो सकता।

विवेचन:- इस दिव्य रूप में इतना तेज है कि यदि आकाश में एक साथ हजारों सूर्य उदित हो जाएँ तो भी उनका प्रकाश इस दिव्य प्रकाश पुञ्ज के सामने तुच्छ होगा। यह अतुलनीय है। 

इस श्लोक की एक विशेषता है: सोलह जुलाई सन् उन्नीस सौ पैंतालीस को पहला परमाणु बम विस्फोट हुआ। परमाणु बम के आविष्कारक सर ओपनहाइमर ने विस्फोट के बाद जो प्रकाश और ऊर्जा निकलती देखी , उनके मुँह से यही श्लोक निकला। उन्होंने भगवद्गीता पढ़ी थी। 

11.13

तत्रैकस्थं(ञ्) जगत्कृत्स्नं(म्), प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य, शरीरे पाण्डवस्तदा॥11.13॥

उस समय अर्जुनने देवोंके देव भगवान्के उस शरीर में एक जगह स्थित अनेक प्रकारके विभागोंमें विभक्त सम्पूर्ण जगत् को देखा।

विवेचन:- सञ्जय धृतराष्ट्र से विराट रूप का वर्णन करते हैं। अर्जुन ने देखा कि यह जगत अनेक टुकड़ों में बँट गया है, मानो एक विशाल विश्व में अनेक विश्व हों जो उस महायोगेश्वर के शरीर में समाए हुए हैं। अब तक किसी को भी भगवान का ऐसा रूप देखने का भाग्य नहीं मिला था। अर्जुन और सञ्जय अपने गुरु क्रमशः श्रीकृष्ण और महर्षि वेदव्यास जी की कृपा से देख रहे थे। गुरु कृपा से ही एक मूर्ति में भी हमें भगवान दिख जाते हैं। इसके लिए सम्पूर्ण समर्पण और शरणागति चाहिए। 

शिष्यस्तेऽहं, शाधि मां त्वां प्रपन्नं।।२·७।। 

दूसरे अध्याय के सातवें श्लोक में अर्जुन सम्पूर्ण रूप से भगवान की शरण में जाते हैं, वे श्रीकृष्ण से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें अपना शिष्य बना लें और इसके बाद ही शाश्वत ज्ञान की वह धारा बह निकली जो भगवद्गीता है। युद्ध श्रेत्र में भी अर्जुन श्री कृष्ण की शरण में ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे, ऐसे ही संसार की आपाधापी में भी जो गुरु की शरण जाता है, उसे दिव्य ज्ञान अवश्य प्राप्त होता है। 

अर्जुन की पात्रता सन्त ज्ञानेश्वर महाराज ने वर्णित की है- 

अहो अर्जुनाचिये पान्ति,परिसणया जे योग्य होती,
तिहिं कृपा करूनी सन्ती ,अवधान द्यावें।

शिष्य की तीन  कसौटियाँ:-
1) संशनात् शिष्य:- शिष्य वह है जो निरन्तर ज्ञान ग्रहण करने को तत्पर हो।

2) शासनात् शिष्य:-  शिष्य वह भी है जो गुरु की आज्ञा मानता हो।

3) वह जो सम्पूर्ण रूप से गुरु को समर्पित हो।

अर्जुन में ये तीनों गुण थे और वे भगवान की कृपा के पात्र बने, उन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई। 

दृष्टि या चक्षु के तीन प्रकार हैं- 
1) चर्म चक्षु  हमारी आँखें, जिनसे हमें सामान्य दृष्टि मिलती है।

2) ज्ञान चक्षु या विवेक चक्षु  संसार में परिवर्तन होते हैं, यह हम चर्म चक्षु से देख सकते हैं, परिवर्तन की सूक्ष्मता के लिए ज्ञान चक्षु चाहिए जिनसे हम अनदेखा भी देख सकते हैं। भौतिक परिस्थितियों को समझने का प्रयास करते हैं ।

3) दिव्य चक्षु  परिवर्तनशील संसार उस विराट का एक अंश मात्र है, जैसे कि एक महासागर में पानी की बून्दें होती हैं ।

ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं कि-

महोदधि माझी बुडबुडे  सि नान्हें  रिसती। 

यह दिव्य रूप ऋषि मुनि और देवता भी नहीं देख पाए। 
इस रूप को देखकर अर्जुन आश्चर्यचकित हुए और उनके हाथ अपने आप प्रणाम करते हुए जुड़ गए। 

11.14

ततः(स्) स विस्मयाविष्टो, हृष्टरोमा धनञ्जयः।
प्रणम्य शिरसा देवं(ङ्), कृताञ्जलिरभाषत॥11.14॥

भगवान् के विश्वरूप को देखकर वे अर्जुन बहुत चकित हुए (और) आश्चर्य के कारण उनका शरीर रोमांचित हो गया। (वे) हाथ जोड़कर विश्वरूप देव को मस्तकसे प्रणाम करके बोले।

विवेचन:- उनका शरीर रोमांचित हो उठा। वे हाथ जोड़कर मानों अपने आप से उस रूप का वर्णन कर रहे थे, साथ ही अपने सारथी श्रीकृष्ण को भी सुना रहे थे। अर्जुन में अष्ट सात्विक भाव जागृत हुए और उनकी भाषा ही बदल गई। यहाँ से वेदव्यास जी त्रिष्टुप छ्न्द का प्रयोग करते हैं। 

11.15

अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे,
सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान्।
ब्रह्माणमीशं(ङ्) कमलासनस्थम्,
ऋषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्॥11.15॥

अर्जुन बोले - हे देव! (मैं) आपके शरीर में सम्पूर्ण देवताओं को तथा प्राणियोंके विशेष-विशेष समुदायोंको और कमलासनपर बैठे हुए ब्रह्माजीको, शङ्करजीको, सम्पूर्ण ऋषियोंको और दिव्य सर्पोंको देख रहा हूँ।

विवेचन:- अब अर्जुन व्याकुल वाणी से उस विराट रूप का वर्णन करने लगे। उन्हें भगवान की देह में तीनों लोक, स्वर्ग, पृथ्वी (मृत्यु लोक) और पाताल लोक समाए हुए दिखाई देते हैं। विभिन्न प्रकार के प्राणियों के समुदाय भी दिखते हैं। वे त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश को उस एक रूप में ही देखते हैं। सर्प लोक के दिव्य सर्प वासुकी और तक्षक भी विराट रूप में समा गए थे। कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान सर्वव्यापी हैं। 

अर्जुन की आँखों से अश्रुओं की अनवरत धारा बह निकली है। वे भगवान से पूछ रहे हैं कि क्या यही रूप भगवान उन्हें दिखाना चाहते थे? परमात्मा ने अर्जुन की इच्छा पूर्ण की। 

भगवान ने द्वैत रखते हुए भी अद्वैत दर्शन कराए। अर्जुन भी उस विराट रूप का ही एक अंश थे, परन्तु उन्हें उससे अलग रखकर उसे देखने की क्षमता अर्जुन को दी। यही भाव श्री ज्ञानेश्वर महाराज ने बहुत ही सुन्दरता से कहे हैं-

तैसाची तया सुखानुभवा पाठीं,
केला द्वैताचा सांभाळु दिठी
मग उसासनी किरीटि वास पाहिली।


11.16

अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं(म्),
पश्यामि त्वां(म्) सर्वतोऽनन्तरूपम्।
नान्तं(न्) न मध्यं(न्) न पुनस्तवादिं(म्),
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप॥11.16॥

हे विश्वरूप! हे विश्वेश्वर! आपको (मैं) अनेक हाथों, पेटों, मुखों और नेत्रों वाला (तथा) सब ओरसे अनन्त रूपोंवाला देख रहा हूँ। (मैं) आपके न आदिको, न मध्यको और न अन्तको ही देख रहा हूँ।

विवेचन:- अर्जुन को उस विश्वरूप में अनेक मुख, नेत्र और चन्द्र दिख रहे थे। ऐसा लगता था मानो इस सृष्टि में जितने जीव हैं उतने मुख और उतने ही हाथ वहाँ दिख रहे थे। ऐसा एक भी कण इस ब्रह्माण्ड में नहीं है जो विश्व रूप में समाया नहीं हो।
ज्ञानेश्वर महाराज ज्ञानेश्वरी में कहते हैं -

तुजवीण एकादियाकड़े, परमाणुहीएतला कोडे। 
अवकाशु पहातसे परी न सांपडे, ऐसे व्यापले तुवा।।

ज्ञानेश्वर महाराज ने सात सौ पच्चीस साल पहले परमाणु का वर्णन किया था। 

व्यापक वह है जो अपने आप में सब कुछ समा लेता है और व्याप्त वह है जो व्यापक में समा जाता है। सृष्टि व्याप्त है और भगवान व्यापक, इसीलिए उन्हें विश्वेश्वर कहा जाता है। 

इस रूप का न आरम्भ है न अन्त और न ही मध्य। जब आरम्भ और अन्त ही न हो तो मध्य कैसे होगा? यह रूप इतना विशाल है कि यह कहाँ शुरू होता है और कहाँ समाप्त यह बताना कठिन है ।

"तूं उभा ना बैठा, दिघडु ना खुजटा,
तुज तळीं वरी वैकुंठा, तूंचि आहासी ॥ २७७ ॥"
परि या तुझिया रूपा आतु 
जी उणीव एक असे देखतुं
जे आदि
मध्य अंतु तिन्ही नाही।

11.17

किरीटिनं(ङ्) गदिनं(ञ्) चक्रिणं(ञ्) च,
तेजोराशिं(म्) सर्वतो दीप्तिमन्तम्।
पश्यामि त्वां(न्) दुर्निरीक्ष्यं(म्) समन्ताद्-
दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥11.17॥

(मैं) आपको किरीट (मुकुट), गदा, चक्र (तथा शंख और पद्म) धारण किये हुए हुए देख रहा हूँ। (आपको) तेज की राशि, सब ओर प्रकाशवाले, देदीप्यमान अग्नि तथा सूर्य के समान कान्तिवाले, नेत्रोंके द्वारा कठिनतासे देखे जानेयोग्य और सब तरफसे अप्रमेय स्वरूप (देख रहा हूँ)।

विवेचन:- अर्जुन को विश्व रूप में विष्णु का शङ्ख, चक्र और गदाधारी रूप भी दिखता है जो एक भव्य मुकुट पहने हुए है। वह अग्नि, सूर्य और तेज का एक ऐसा पुञ्ज है जो अप्रमेय है अर्थात् जिसको सिद्ध नहीं किया जा सकता। रेखा गणित में प्रमेय होते हैं जिन्हें सिद्ध किया जा सकता है। इस तेजोमय रूप को सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत किया ही नहीं जा सकता। जिसमें सम्पूर्ण विश्व समाया है उसे कैसे देखा जा सकता है? उसे सिद्धान्तों की भाषा में नहीं ढाला जा सकता। जिसमें अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड हैं, उस तेज की ओर दूर से देखना भी कठिन है। 

नोहे तोची हा शिरी मुकुट लईलासि श्री हरि, 
परि आताचे तेज आणि थोरी, नवल की बहु हे।    

अब अर्जुन भाव विभोर हो कर स्तुति करने लगे। 



11.18

त्वमक्षरं(म्) परमं(म्) वेदितव्यं(न्),
त्वमस्य विश्वस्य परं(न्) निधानम्।
त्वमव्ययः(श्) शाश्वतधर्मगोप्ता,
सनातनस्त्वं(म्) पुरुषो मतो मे॥11.18॥

आप (ही) जाननेयोग्य परम अक्षर (अक्षरब्रह्म) हैं, आप (ही) इस सम्पूर्ण विश्वके परम आश्रय हैं, आप (ही) सनातनधर्म के रक्षक हैं (और) आप (ही) अविनाशी सनातन पुरुष हैं - (ऐसा) मैं मानता हूँ।

विवेचन:- आठवाँ अध्याय अक्षर ब्रह्म योग कहलाता है।

अक्षरं ब्रह्म परमम्।

अर्जुन भगवान की स्तुति में उन्हें अक्षर कहते हैं ।
परमात्मा अविनाशी हैं, अक्षर हैं। इस संसार में आ कर हर जीव की कृतार्थता यही होगी कि वे उस परब्रह्म स्वरूप को जानें, उसे पहचाने क्योंकि वह सृष्टिकर्ता है। 

जीव, जगत् और जगदीश्वर: जीव जो देह में बसता है। जगत् जीवन का आधार है, जीवित रहने के लिए आवश्यक हवा, पानी, भोजन आदि। हम जीव और जगत् में इतना व्यस्त हो जाते हैं कि हम उन जगदीश्वर को ही भूल जाते हैं, जो सृष्टिकर्ता हैं। 

किसी भी परीक्षा में  प्रश्नपत्र में एक प्रश्न अनिवार्य होता है। कई बार अन्य प्रश्न सुलझाने में व्यक्ति अनिवार्य प्रश्न ही भूल जाते हैं, समय समाप्त हो जाता है। सृष्टिकर्ता को जानना वही अनिवार्य प्रश्न है जो नितान्त आवश्यक है, हम जीवन की उलझनों में खो कर वही छोड़ देते हैं, हमारा समय समाप्त हो जाता है और भगवान को जानें बिना ही इस संसार से विदा ले लेते हैं। यह सही नहीं है। 

परमेश्वर परम् निधान हैं अर्थात् वे हमारा आश्रय स्थान हैं और जीवनोपयोगी साधनों का भण्डार भी। 

पृथ्वी पर हम रहते हैं या यों कहें कि पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति ने हमें धारण किया है। यहाँ हमें जीवित रहने के लिए हवा, पानी, भोजन आदि उपलब्ध हैं। 

पृथ्वी, सूर्य के चारों ओर घूमती है, सूर्य के गुरुत्वाकर्षण के कारण और सूर्य को समस्त सौर मण्डल के साथ जिसने धारण किया वही परमात्मा हैं जो नियामक हैं। उनके इशारों पर ही यह सृष्टि चक्र चलता रहता है। 
सोचने की आवश्यकता है।

क्या धरा हमने बनाई, या बुना हमने गगन,
क्या हमारी ही वजह से बह रहा सुरभित पवन।
या अगन के हम हैं स्वामी, या नियन्ता जलधार के,
या जगत् के सूत्रधार, नियामक संसार के।।

यह सब कुछ तो हम नहीं कर सकते, तो उस शक्ति को पहचानना अत्यन्त आवश्यक है, जिसके कारण हमारा अस्तित्व है। वह शक्ति अव्यय है, अविनाशी है और सनातन है, जिसका निर्माण कोई नहीं कर सकता। भगवद्गीता के परिप्रेक्ष्य में सनातन का अर्थ है जो धर्म की, कर्त्तव्य की रक्षा करता है।

11.19

अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यम्,
अनन्तबाहुं(म्) शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां(न्) दीप्तहुताशवक्त्रं(म्),
स्वतेजसा विश्वमिदं(न्) तपन्तम्॥11.19॥

आपको (मैं) आदि, मध्य और अन्त से रहित, अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओंवाले, चन्द्र और सूर्य रूप नेत्रोंवाले, प्रज्वलित अग्नि रूप मुखोंवाले (और) अपने तेजसे संसारको तपाते करते हुए देख रहा हूँ।

विवेचन : किसी भी व्यक्ति या वस्तु का वर्णन करते हुए कभी-कभी शब्दों का चयन करना कठिन हो जाता है और एक ही बात की पुनरावृत्ति होती है। अर्जुन के साथ भी यही है रहा था। वे पुनः भगवान को आदि, मध्य और अन्त से रहित अनन्त भुजाओं वाले और प्रभावशाली कहते हैं। सूर्य और चन्द्र भगवान के नेत्र हैं। इस स्वरूप को चर्म चक्षु से नहीं देखा जा सकता, इसके लिए भाव चक्षु चाहिए। ऋषियों को इन्हीं चक्षुओं द्वारा इस संसार में भगवत् दर्शन होते हैं। 
अर्जुन को यह संसार भगवान के तेज से तपता हुआ दिखता है। 

11.20

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं(म्) हि,
व्याप्तं(न्) त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः।
दृष्ट्वाद्भुतं(म्) रूपमुग्रं(न्) तवेदं(म्),
लोकत्रयं(म्) प्रव्यथितं(म्) महात्मन्॥11.20॥

हे महात्मन्! यह स्वर्ग और पृथ्वीके बीचका अन्तराल और सम्पूर्ण दिशाएँ एक आपसे ही परिपूर्ण हैं। आपके इस अद्भुत (और) उग्ररूपको देखकर तीनों लोक व्यथित (व्याकुल) हो रहे हैं।

विवेचन:- स्वर्ग और पृथ्वी में अन्तराल भी परमात्मा का बनाया हुआ है, जिसमें वे व्याप्त हैं। दसों दिशाओं की परिपूर्णता परब्रह्म से है। भगवान का यह भयङ्कर रूप देखकर तीनों लोकों में जीव भयभीत हो गए हैं। स्वयं अर्जुन भी डरे हुए हैं। हम अपनी भावनाओं का प्रतिबिम्ब सृष्टि में देखते हैं, यह मनुष्य स्वभाव है। जब हम प्रसन्न होते हैं तो सब ओर प्रसन्नता दिखती है, दु:खी होने पर दुःख और वैसे ही भयभीत होने पर भय ही दिखता है। 

भक्त प्रह्लाद की कहानी सभी जानते हैं। उनके पिता हिरण्यकश्यप जब खम्भा तोड़ते हैं तो भगवान विष्णु नृसिंह अवतार में प्रकट हुए जिन्हें देखकर हिरण्यकश्यप डर जाते हैं।  परन्तु, प्रह्लाद विचलित नहीं होते क्योंकि वे उनमें विष्णु को ही देखते हैं। 

भावनाएँ यदि सुन्दर हों तो सब कुछ सुन्दर ही दिखेगा। 

11.21

अमी हि त्वां(म्) सुरसङ्घा विशन्ति,
केचिद्भीताः(फ्) प्राञ्जलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घा:(स्),
स्तुवन्ति त्वां(म्) स्तुतिभिः(फ्) पुष्कलाभिः॥11.21॥

वे ही देवताओं के समुदाय आपमें प्रविष्ट हो रहे हैं। (उनमेंसे) कई तो भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए (आपके नामों और गुणोंका) कीर्तन कर रहे हैं। महर्षियों और सिद्धोंके समुदाय 'कल्याण हो! मंगल हो!' ऐसा कहकर उत्तम-उत्तम स्तोत्रोंके द्वारा आपकी स्तुति कर रहे हैं

विवेचन:- अपने पूर्व कर्मों से मुक्ति पाने के लिए योद्धा रूप में देवताओं का समूह उस विराट रूप में प्रवेश कर एकाकार हो रहा है। कई लोग भयभीत हैं और प्रवेश की क्षमता नहीं रखते, वे दूर खड़े होकर भी हाथ जोड़े हुए भगवान की स्तुति कर रहे हैं। ऋषि और मुनिगण सबके कल्याण की कामना करते हुए स्त्रोतों के माध्यम से गुणगान कर रहे हैं। 
भगवान का यह विराट स्वरूप धीरे-धीरे भयावह होता जा रहा है।

भगवान अर्जुन को डराना नहीं चाहते, अपितु, अपना रौद्र और वीभत्स रूप दिखाकर वे यह बताना चाहते हैं कि सृष्टि का आदि और अन्त उन्हीं से है, वे सृष्टिकर्ता हैं, उनकी इच्छा के बिना न जन्म होता है, न ही मृत्यु। वे अर्जुन को अपने कर्त्तव्य मार्ग पर लाना चाहते हैं। 

11.22

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या-
विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा,
वीक्षन्ते त्वां (म्) विस्मिताश्चैव सर्वे॥11.22॥

जो ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, आठ वसु, बारह साध्यगण, दस विश्वेदेव और दो अश्विनीकुमार, उनचास मरुद्गण और गरम गरम भोजन करनेवाले (सात पितृगण) तथा गन्धर्व, यक्ष, असुर और सिद्धोंके समुदाय हैं, (वे) सभी चकित होकर आपको देख रहे हैं।

11.22 writeup

11.23

रूपं (म्) महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं(म्),
महाबाहो बहुबाहूरुपादम्।
बहूदरं(म्) बहुदंष्ट्राकरालं(न्),
दृष्ट्वा लोकाः(फ्) प्रव्यथितास्तथाहम्॥11.23॥

हे महाबाहो! आपके बहुत मुखों और नेत्रोंवाले, बहुत भुजाओं, जंघाओं और चरणोंवाले, बहुत उदरोंवाले (और) बहुत विकराल दाढ़ोंवाले महान् रूपको देखकर सब प्राणी व्यथित हो रहे हैं तथा मैं भी (व्यथित हो रहा हूँ)।

विवेचन:-  ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य अर्थात् सूर्य, आठ वसु, दो अश्विनी कुमार, ऐसे तैंतीस कोटि देवता गण, बारह पितृगण, गन्धर्व, यक्ष आदि भगवान का यह वीभत्स और रौद्र रूप देखकर सृष्टि में सभी चराचर जीव भयभीत होकर आश्चर्य से उन्हें देख रहे हैं। अर्जुन भी डर गए थे और सोच रहे थे कि उन्होंने भगवान से यह रूप दिखाने का हठ ही क्यों किया? सभी व्याकुल हो रहे हैं। कुछ लोग व्यथित होकर भगवान का तेज न सह पाने के कारण उनसे दूर ही भाग रहे हैं। 

ज्ञानेश्वरी में भी अर्जुन की इस मनोदशा का वर्णन किया -

तुझेनी आंगिक तेजे
जाळुनी सर्व कर्माची बीजे
मिळत तुज आतु सहजे
सद्भावेसी

परी नवल बापा हे महामारी
इया नाम विश्वरूप जरी
हे भ्यासुरपणे हारी
भयासी आणी
आगे अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा कि इतने भयावह रूप वाले वे कौन हैं? अर्जुन तो इस रूप को नहीं जानते। तब भगवान उन्हें अपना सौम्य चतुर्भुज रूप दिखाते हैं और कहते हैं कि इस सृष्टि के नियन्ता और नियामक वे ही हैं, इसलिए हे अर्जुन!
 निमित्त मात्रं भव सव्यसाचिन्,

अर्थात् निमित्त बनकर अपना कर्तव्य पूरा करो। युद्ध तो होना ही है। 

प्रकृति जब शक्ति में परिवर्तन लाना चाहती है तब हमें मात्र आहुति देनी है। 
भगवान की बांसुरी बनने के लिए भी हमें अपने आपको अन्दर से खोखला बनाना पड़ेगा, कष्ट सहने होंगे तभी मधुर ध्वनि निकलेगी। विश्वरुप दर्शन करने वालों के लक्षण जानने के लिए ,अगले सत्र के लिए उत्सुकता जगाकर यह सत्र प्रार्थना के साथ समाप्त हुआ। इसके पश्चात प्रश्नोत्तर हुए।

प्रश्नोत्तर:-

प्रश्नकर्ता: माधवी दीदी

प्रश्न: आठ वसु क्या हैं?

उत्तर:  वसु अर्थात तेजों के समूह। सृष्टि के सञ्चालन के लिए अलग-अलग विभागों की आवश्यकता होती है, तो मरुत, वसु, अश्विनी कुमार इनका अपना-अपना काम होता है। कभी इन से भी अपनी शक्ति का गलत प्रयोग हो जाता है। जू नामक एक वसु के कहने पर सभी ने मिलकर वशिष्ठ जी की कामधेनु गाय माता कपिला चुरा ली, जिसके फलस्वरूप उन्हें श्राप दिया गया। जू भीष्म पितामह हुए और अन्य सात गङ्गा मैया के पुत्र बने जो उन्हीं में बहा दिए गए ।

प्रश्नकर्ता: वरुण मेहता भैया

प्रश्न: श्रीकृष्ण का भयानक रूप देखकर अर्जुन को अच्छा नहीं लगा होगा क्या?

उत्तर:  अर्जुन ने विराट रूप दिखाने का हठ किया था तो उन्हें लगा कि वे तो कान्हा का बांसुरी वाला प्यारा रूप ही देखेंगे और शुरू में वे प्रसन्न हुए कि भगवान ने उनकी बात मान ली है। परन्तु जैसे-जैसे रूप वीभत्स होने लगा, अर्जुन भयभीत होने लगे। यहाँ भगवान यह सन्देश देते हैं कि जिसका जैसा रूप है वैसे ही स्वीकार करना चाहिए। सृष्टि सुन्दर भी होती है और भयावह भी (महामारी, बीमारी, मृत्यु या भूकम्प बाढ़)।
अमङ्गल से घृणा नहीं करना चाहिए। 

प्रश्नकर्ता: नमिता यादव दीदी

प्रश्न:  आज के वातावरण में युद्ध करना चाहिए या नहीं? यह निर्णय कैसे लें?
उत्तर: भग्वद्गीता हमारा विवेक जगाती है। भगवान कृष्ण ने भी कई युद्ध किए लेकिन दो युद्धों में पीठ दिखाकर भागे भी और रणछोड़ कहलाए। कहने का तात्पर्य यह है कि हमें तय करना है कि लड़ें या नहीं क्योंकि यह हमारा जीवन है। कोई और हमारे लिए निर्णय कैसे ले सकता है? अन्याय के लिए लड़ें, मगर प्राण हानि से बचें।