विवेचन सारांश
इन्द्रियों पर नियन्त्रण के साथ आत्मतत्व की पहचान

ID: 3852
हिन्दी
शनिवार, 21 अक्टूबर 2023
अध्याय 3: कर्मयोग
5/5 (श्लोक 36-43)
विवेचक: गीता विदूषी सौ वंदना जी वर्णेकर


पारम्परिक दीप प्रज्वलन, गुरु वन्दना और प्रार्थना के साथ आज के सत्र का आरम्भ किया गया। युद्ध के परिणामों से डरे हुए अर्जुन श्रीकृष्ण से कई प्रश्न पूछते हैं। यह अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण अध्याय है।

हर जीव परमात्मा का अंश है। सभी योनियों में मात्र मनुष्य योनि ही योग योनि है, अन्य सभी योनियाँ भोग योनियाँ हैं। मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जो जगत् और जगदीश्वर से जुड़ सकता है। हमारा जीवन कर्म यात्रा है जिसके लिए हम इस कर्मभूमि में आए हैं। यह कर्म यात्रा सहज और आनन्दमय कैसे हो? फल से दृष्टि हटाकर भगवान द्वारा विहित कर्म करते हुए उसका परिणाम भगवान को सौंप कर जीवन सहज बनाया जा सकता है। कोई भी कर्म परिपूर्ण नहीं होता, कभी-कभी मनोवाञ्छित फल नहीं मिलता तो कभी-कभी दूसरों का विहित कर्म अपने कर्म से अच्छा लगता है। इस परस्पर स्पर्धा के कारण कर्म यात्रा कठिन और अवसाद ग्रस्त हो जाती है।

अर्जुन की मनोदशा भी अवसादित थी, वे युद्ध नहीं करना चाहते थे इसलिये श्रीकृष्ण कर्मयोग के माध्यम से कर्म की ओर देखने का दूसरा अत्यन्त सुन्दर दृष्टिकोण बताते हैं। परमात्मा के लिए कर्म करने की भावना से जब कर्त्तव्य कर्म होते हैं तो मनुष्य उनके परिणामों से मुक्त हो सकते हैं और नित्य कर्म के साथ उस परमात्मा का अनुसन्धान प्राप्त होगा।

कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूँ अब तेरे काज।

पालन करने को आज्ञा तव मैं नियुक्त होता हूँ आज।।

युद्ध के भीषण कर्म को भगवान क्षत्रिय धर्म कहते हैं। भगवद्गीता में धर्म का अर्थ हमारे निहित कर्मों से है। धर्म, जीवन के लिए आवश्यक शक्तियाँ है। 

ब्राह्मण धर्म  : ज्ञान शक्ति
क्षत्रिय धर्म :  बाहु शक्ति
वैश्य : वित्त शक्ति
शूद्र :  श्रम शक्ति

जीवन में चारों शक्तियाँ चाहिए। ज्ञान प्राप्त करने के लिए बाहुशक्ति अर्थात्  दैहिक शक्ति, वित्त शक्ति और श्रम शक्ति आवश्यक है, बिना स्वास्थ्य, धन और श्रम के ज्ञान प्राप्त करना कठिन है।
 
हम उस देह से सम्बन्ध बना लेते हैं जो छूटने वाला है और उस नित्य सम्बन्ध को भूल जाते हैं जो परमात्मा से सदा बना रहता है। ज्ञानेश्वर महाराज भगवद्गीता को सप्तशती कहते हैं जिसमें सात सौ श्लोक हैं, जो हमें मोहरूपी महिषासुर से मुक्ति दिलाने में सहायक है, जैसे कि माँ दुर्गा ने महिषासुर का वध किया था। भगवद्गीता हमें अपने जीवन को देखने का नया दृष्टिकोण देती है जिससे हमारा उन्नयन हो सके।

सन्त ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-

तरी बाह्य आणि अन्तरा, आपुलिया सर्व व्यापार
मज व्यापका ते वीरा, विषयोपरी

बाह्य स्तर पर पाॅंच कर्मेन्द्रियों से कर्म हो रहे हैं अन्तरङ्ग में ज्ञानेंद्रियाँ काम करती हैं। मन और बुद्धि स्तर पर भी कर्म करते हुए मनुष्य जीवन जीता है।

जो अनन्त, असीम अव्यक्त है, परन्तु बाह्य रूप से एक मूर्ति रूप में उसे विषय बनाकर उसके लिए हमें कर्म करना है। जब एक माँ अपने बच्चे का लालन-पालन यह सोचकर करती है कि यह सब भगवान के लिए कर रही है, तो वह अपेक्षाओं से, परिणामों से मुक्त होगी। इस प्रकार, परमात्मा के साथ नया खाता खुलता है और सृष्टि के मोह का खाता धीरे-धीरे बन्द होता चला जाता है। 

हर व्यक्ति मञ्च पर आने के लिए तत्पर है। अपना नाम प्रसिद्ध होते देखना चाहता है, अपने आपको दूसरों से बेहतर बनाना चाहता है, जब ऐसी अपेक्षा हम दूसरों से करते हैं तो अपेक्षा भङ्ग हो सकती है। दूसरों का व्यवहार हमारे वश में नहीं होता। कई बार तो हमारा अपना व्यवहार हमारे वश में नहीं होता, भगवद्गीता हमें हमारे व्यवहार पर अंकुश लगाना सिखाती है। भगवान श्रीकृष्ण ज्ञान की धारा बहाकर अर्जुन के माध्यम से हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना चाहते हैं, अर्जुन हम सब के प्रतिनिधि हैं। सौ प्रतिशत क्षमता से अपना कर्त्तव्य करते हुए साक्षी भाव से जीवन यापन करना चाहिए। हमारी क्षमताओं की, देह की और इन्द्रियों की एक सीमा होती है। उसी सीमा में रहकर अपना कर्त्तव्य करते रहना है। अपेक्षाओं से मुक्त होकर कर्म यात्रा आनन्ददायक होगी। दूसरों को देखकर न जीने का पाठ यह अध्याय हमें सिखाता है। 

श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।। 3-35।।

यह श्लोक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और इसकी पुनरावृत्ति अट्ठारहवें अध्याय में हुई है। 
 
परधर्म स्वधर्म से ज्यादा अच्छा लगता है, परन्तु अपना विगुण लगने वाला स्वधर्म अच्छे लगने वाले परधर्म से श्रेष्ठ है, अतः अपने धर्म का अनुसरण करने में आई मृत्यु भी परधर्म की मृत्यु से श्रेष्ठ है। दूसरों को देखकर जीना बन्द करो, अपने आपको पहचानो। दोष होते हुए भी जो स्वधर्म में निरत होता है वह अन्त में परमानन्द  प्राप्त करता है। भगवान ने हमें विशेष कार्य के लिए भेजा है, इसलिये दूसरों की ओर न देखकर अपने विहित कर्म करने से तृप्ति, शान्ति मिलती है। 

 गुरु गोविन्ददेव गिरि जी कहते हैं, अपने-अपने काम में रमने की कला विकसित करनी चाहिए। अपना काम हमें अच्छा लगना चाहिए, दौड़ भाग नहीं करना चाहिए, इससे मन को शान्ति नहीं मिलती। तीर्थयात्रा करना अच्छा है, पुण्य मिलता है, परन्तु सदा तीर्थयात्रा तो नहीं कर सकते, हमारा शरीर क्षीण होता जाता है, क्षमता कम होती जाती है।

किसी घर में एक बीमार व्यक्ति हैं जिसका ऑपरेशन होना है, परिवार के अन्य सदस्यों ने उसी समय तीर्थयात्रा पर चलने की तैयारियाँ कर ली हैं, लेकिन क्या बीमार को ऐसी अवस्था में छोड़कर जाने से सबका मन तीर्थक्षेत्र में शान्त रह पाएगा? 

जिन मात पिता की सेवा की, उन तीरथ स्नान कियो न कियो।
 जिनके हृदय श्री राम बसे, तिन और का नाम लियो न लियो।।

माता-पिता की सेवा ही तीर्थ है और जब इसे परमात्मा के लिए किया जाता है तो उनसे अनुसन्धान हो सकता है। अपने कर्त्तव्य पथ पर डटे रहने का सन्देश यह अध्याय हमें देता है।

ज्ञानेश्वर महाराज स्वधर्म की महत्ता पर जोर देकर कहते हैं-

येरी जिया पराविया, रम्भे हुनि बरविया,
तिया काय कराविया,बाळकें तेणे
अगा पाण्याहून बावे, तूपइ गुण किर आहे,
पर, मीना काय होय असणे देख।

एक बालक का पालन-पोषण उसकी माँ ही कर सकती है, चाहे वह कुरुप ही क्यों न हो। अप्सराओं जैसी सुन्दर स्त्री का बालक के लिए कोई उपयोग नहीं है। वैसे ही घी पानी से ज्यादा श्रेष्ठ है परन्तु वह मछली के किसी काम का नहीं।

ज्ञानेश्वर महाराज ने स्वधर्म की महत्ता बताते हुए अनेक उदाहरण दिए हैं

सांग लोकांचे सुन्दर वाडे, पाहुनी मनासी आवडे,
तरी स्वत: चे गवति झोपड़े मोडावे कैसे?

किसी का विशाल महल सुन्दर हो सकता है, लेकिन उसके लिए हम अपनी घासफूस की झोपड़ी तो नहीं तोड़ सकते। दूसरों को देखकर असन्तुष्ट हो जाते हैं। अपनी उपलब्धियों, सफलताओं का हम सोशल मीडिया पर प्रदर्शन करते रहते हैं, लेकिन कब तक? 

ज्ञानेश्वर महाराज जी का एक और उदाहरण-

आहे असो भार्या आपुलिया, कुरूप जरी असली,
तरी उपभोगयास चांगली तीच जैसी
इतरांस जे विहित आणि आपणांस अनुचित,
अर्जुना, तुज सांगतो हित करु नये ते।

अपनी पत्नी कुरूप ही क्यों न हो, हमें उसी के साथ जीवन व्यतीत करना है क्योंकि यह परमात्मा का निर्णय है। परधर्म हमारे लिए सदैव अनुचित ही होगा।

अपने आपको पहचानकर अपने कर्मों में रमे रहना है। ईश्वरार्पण बुद्धि से काम करने से ईश्वर से अनुसन्धान होगा। दूसरों का हितकारी कार्य यदि हमें अनुचित लगे तो उसे नहीं करना चाहिए।

मयि सर्वाणि कर्माणि, सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा, युद्धस्व विगतज्वर: ।। 3•30।।

यदि हम कर्त्तव्य फल से डर रहे हैं तो उसे भगवान को सौंप देना चाहिए।

अब अर्जुन पुनः प्रश्न पूछते हैं। वे नरोत्तम तो हैं पर मनुष्य ही हैं, अभी भी उनके मन में कई शङ्काएँ हैं। 

3.36

अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं(म्), पापं(ञ्) चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय, बलादिव नियोजितः॥3.36॥

अर्जुन बोले - हे वार्ष्णेय ! फिर यह मनुष्य न चाहता हुआ भी जबर्दस्ती लगाये हुए की तरह किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है?

विवेचन : कृष्ण वृष्णिवंशी हैं अतः अर्जुन उन्हें वार्ष्णेय कहकर सम्बोधित करते हैं। अर्जुन जानना चाहते थे कि यदि परमात्मा सभी जीवों में हैं तो ये पाप क्यों हो रहे हैं? न चाहते हुए भी मनुष्य ऐसे काम क्यों करता है? 

गुरु गोविन्ददेव गिरि जी महाराज के पचहत्तरवें जन्मदिन पर नागपुर में गीता परिवार के सदस्यों ने पचहत्तर पाठशालाओं में ग्यारह हजार बालकों को भगवद्गीता के बारहवें और पन्द्रहवें अध्याय कण्ठस्थ करवाने का संकल्प किया। वहाँ एक छोटे से विद्यार्थी ने पूछा कि कई लोग चाकलेट खाने के बाद उसका रैपर यहाँ- वहाँ क्यों फेंकते हैं यह जानते हुए भी कि उनमें परमात्मा होते हैं? क्या परमात्मा उन्हें नहीं बताते कि रैपर की सही जगह कहाँ है? इसका बड़ा ही सुन्दर उत्तर दिया गया कि जैसे बिजली अलग अलग उपकरणों में अलग अलग क्रिया करती है, बल्ब में उजाला, एअर कंडीशनर में ठण्डक और गीज़र में गर्मी, ऐसे ही परमात्मा भी सभी में हैं, परन्तु उनका उपयोग जो जैसा करेगा उन्हें वैसा ही परिणाम मिलेगा।

दुर्योधन, दु:शासन, शकुनि और कर्ण महाभारत की चाण्डाल चौकड़ी कहलाते हैं। कौरवों और पाण्डवों के गुरु एक ही थे गुरु द्रोणाचार्य।सभी को एक समान शिक्षा दी गई थी, परन्तु दुर्योधन अहङ्कारवश कहता है -

जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः।

केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।।


इस श्लोक में दुर्योधन का स्वभाव और अहङ्कार स्पष्ट दिखाई पड़ता है। धर्म को जानते हुए भी उस पर न चलना दुर्योधन की प्रवृत्ति है और अधर्म के मार्ग को वह छोड़ नहीं सकता। फिर भी उसके हृदय में एक ऐसा तत्व है जो उससे काम करवाता है। हम सब के मन में भी कहीं न कहीं दुर्योधन रहता है। सुबह जल्दी उठकर व्यायाम करना, पढ़ना, व्यसनों में न पड़ना ये सब एक विद्यार्थी का धर्म है, फिर भी कई विद्यार्थी गलत संगत में पड़ कर अधर्म के कामों में फँस जाते हैं। अत्याचार, बलात्कार, हिंसा, उग्रवाद अधर्म है फिर भी करते हैं।

महाकवि तुलसीदास जी ईश्वर को अपने हृदय में बसाकर काम, क्रोध जैसे शत्रुओं का विनाश करना चाहते हैं-

इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन रंजनं ।

मम हृदय-कंज-निवास कुरु, कामादि खलदल-गंजनं।।

अगले श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को उत्तर देते हैं। 

3.37

श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष, रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा, विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥3.37॥

श्रीभगवान् बोले – रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम अर्थात् कामना (ही पाप का कारण है)। यह (काम ही) क्रोध (में परिणत होता) है। (यह) बहुत खाने वाला (और) महापापी है। इस विषय में (तू) इसको (ही) वैरी जान।

विवेचन : प्रकृति त्रिगुणात्मिका है-सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, और मनुष्य की सारी क्रियाएं इन्हीं पर आधारित हैं। चौदहवें और सत्रहवें अध्यायों में इन गुणों का वर्णन विस्तार से किया गया है। 

सत्व गुण ज्ञानात्मक है
रजोगुण क्रियाशीलता है, और
तमोगुण क्रियाशून्यता है, जड़ता है।

क्रिया चलनी भी चाहिए, रुकनी भी चाहिए, लेकिन सही दिशा में चले यह सत्व गुण निर्धारित करता है अपने ज्ञान के प्रकाश से। तमोगुण से मनुष्य ग़लत रास्ते पर चल पड़ता है। रजोगुण क्रियाशील तो है परन्तु उससे कामनाएँ बढ़ती हैं जो कभी पूरी नहीं होती। उपभोग लेने से इच्छाएँ बढ़ती हैं कामना का परम् मित्र है क्रोध, जब इच्छाएँ पूरी नहीं होती तो गुस्सा आता है। इच्छाएँ काम और क्रोध का आहार है जो कभी भी ख़त्म नहीं होती। जब क्रोध बढ़ता है तो ग़लत काम होते हैं, पाप बढ़ता है। इसलिए ये हमारे शत्रु हैं।

ययाति देवयानी की कहानी से इस बात को समझा जा सकता है। ययाति कुरूवंश के महान राजा थे। ययाति के दूसरा विवाह करने पर उनके श्वसुर शुक्राचार्य जी ने उन्हें श्राप दिया कि उन्हें वृद्धत्व प्राप्त होगा और वे भौतिक सुखों का उपभोग नहीं कर पाएँगे। ययाति क्षमायाचना करते हैं तो शुक्राचार्य जी ने उन्हें इस का उपाय बताया कि यदि कोई ययाति से उनका वृद्धत्व ले ले तो वे पुनः युवा हो सकते हैं। ययाति के पुत्र कुरू उनसे वृद्धत्व ले लेते हैं। इस तरह कुरू वृद्ध और कमज़ोर हो जाते हैं।

गुण मानों रस्सी हैं जो मनुष्य को बाँधते हैं।
 कवि ने कहा है-

चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।

जिनको कछु नहि चाहिए, वे साहन के साह।।

नई बहू के आते ही कई बार सास उससे अपनी तुलना करने लगती है कि बहू के पास नई तरह के गहने हैं उन्हें भी वैसे ही बनवाने चाहिए, यदि यह मोह बढ़ता गया तो सास बहू के रिश्ते में बहुत ज़ल्दी दरार पड़ सकती है। आजकल शादियों में जो फोटो शूट होते हैं, कुछ समय पहले नहीं होते थे, तो जिन्हें ऐसे फोटो शूट करवाने का अवसर नहीं मिला वे यही कहते हुए सुने जो सकते हैं कि उनके ज़माने में ये सब नहीं था। वे अपना जीवन जी चुके हैं लेकिन सन्तुष्ट नहीं हैं। वे फिर से नई शुरुआत करना चाहते हैं ताकि नये जमाने के परिवर्तनों का उपभोग कर सकें, इसे second innings  कहा जाता है, परन्तु, शास्त्रों में यह वानप्रस्थाश्रम कहलाता है जिसमें कि भगवद्स्मरण, भजन कीर्तन करना, वेदों को पढ़ना, साधुओं से सत्संग करना,और पूजा-पाठ करना जिससे मन की शान्ति मिले।

मनुष्य भौतिक सुखों में फँसकर जान ही नहीं पाता कि कब जीवन का अन्त आ गया है। कामनाओं को पूरा करने में मनुष्य की शक्ति क्षीण होने लगती है, परन्तु तृष्णा कम नहीं होती। पाचन तंत्र कमजोर होने लगा है लेकिन खाने की इच्छा बढ़ती जाती है, आँखों से दिखना कम होता है लेकिन सिनेमा अवश्य देखना है। काम और क्रोध को पहचानकर स्वयं को और सृष्टि को पहचानना भगवद्गीता हमें सिखाती है।

विश्व विजेता सिकन्दर भारत नहीं जीत पाया। वह जब भारत में था, एक पहुँचे हुए सन्त से मिलना चाहता था इसलिये अपने सिपाहियों को भेजकर साधू को बुलवाता है। मगर साधू सिकन्दर को ही अपने पास आने को कहता है। जब सिकन्दर वहाँ जाता है तो वहाँ साधु एक चट्टान पर धूप सेंकते मिलते हैं, तो सिकन्दर ने पूछा कि इतने बड़े सम्राट के सामने आप सो रहे हैं?  साधु कहता है कि वह सिकन्दर को नहीं जानता और उससे हटने को कहता है ताकि वह धूप सेंक सके। मृत्यु शय्या पर सिकन्दर कहता है कि उसे दफनाते समय दोनों हाथों को समाधि के बाहर रखा जाए ताकि लोगों को पता चले कि संसार को जीतने वाला आज खाली हाथ जा रहा था।

रजोगुण से यश मिलता है परन्तु कभी नैतिकता समाप्त हो जाती है। रामायण में रावण रजोगुण का प्रतीक है, कुम्भकर्ण तमोगुण का और विभीषण सत्वगुण का प्रतीक है। रजोगुण के रहते रावण ने अपने सौतेले भाई कुबेर से युद्ध कर सोने की लंका जीती थी।

किसी ने क्या खूब कहा है

Desire is that state of mind, which is always empty. 

इच्छाओं की दौड़ कहाँ समाप्त हो? इनके कारण हमारा ज्ञान ढक जाता है।

3.38

धूमेनाव्रियते वह्नि:(र्), यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भ:(स्), तथा तेनेदमावृतम्॥3.38॥

जैसे धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढका जाता है (तथा) जैसे जेर से गर्भ ढका रहता है, ऐसे ही उस कामना के द्वारा यह (ज्ञान अर्थात् विवेक) ढका हुआ है।

विवेचन :  संत ज्ञानेश्वर जी ने बहुत ही सुन्दरता से इस श्लोक को समझाया है

हे जळाविण बुडवितात,कां आगिविण जाळतात,
न बोलता ग्रासतात,पाण्याचत सहज,
हे शस्त्राविण मारतांत, दोरावाचुन बान्धतात,
ज्ञानाच ही जिंकतात लावुनी पैजे।।

काम और क्रोध 
बिना पानी के डुबाते हैं, बिना आग के जलाते हैं, शस्त्रों के बिना मारते हैं, बिना धागे के बाँधते हैं और शर्त लगाकर ज्ञान को भी जीत लेते हैं। यानी काम और क्रोध मनुष्य की विचारशक्ति पर पूरी तरह हावी हो जाते हैं। जैसे धूएँ, अग्नि या धूल से आईना ढक जाता है और माँ के गर्भ में शिशु ढका हुआ होता है वैसे ही काम और क्रोध हमारे ज्ञान को ढक लेते हैं। काम ज्ञान का शत्रु है। परम पूज्य श्री गोविन्ददेव गिरि जी महाराज ने कहा है कि काम का प्रवेश राम को बाहर निकाल देता है। राम का अर्थ है विश्राम या आराम, अर्थात् अंतर्सुख, जब हम कामनाओं के पीछे भागेंगे तो आराम कहाँ से मिलेगा? 

संत ज्ञानेश्वर जी भी कहते हैं

हृदयां मध्ये रामु असता, सर्व सुखांसी आरामु,
कां भ्रान्ति कामु विषयांवरी।।

3.39

आवृतं(ञ्) ज्ञानमेतेन, ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय, दुष्पूरेणानलेन च॥3.39॥

हे कुन्तीनन्दन ! इस अग्नि के (समान) (कभी) तृप्त न होने वाले और विवेकियों के कामना रूप नित्य वैरी के द्वारा (मनुष्य) का विवेक ढका हुआ है।

विवेचन : भगवान इस अध्याय का बहुत ही सुन्दरता से समापन कर रहे हैं। व्यावहारिक स्तर पर जीवन का उन्नयन करना है, अपने अन्दर के विकार शिथिल करने हैं तो यह उपदेश बहुत महत्वपूर्ण है। अग्नि में घी डालने से वह और धधक उठती है कामनाओं से विवेक बुद्धि ढक जाती है, मनुष्य की विचार शक्ति कमजोर पड़ जाती है, गुनाह बढ़ते हैं, इसलिये कामना ज्ञानी की नित्य शत्रु है। एक युवक पहली बार कुसंगति में पड़कर सिगरेट या शराब पीना शुरू करता है तो उसकी अन्तरात्मा उससे कहती है कि यह ग़लत है, परन्तु वह नहीं सुनता, फिर धीरे-धीरे यह आवाज कमजोर होकर बन्द हो जाती है और युवक बुरी आदतों का शिकार हो जाता है। किसी ने कहा है

There is a voice inside of you, that speaks all day long,
I know this is right for me and this is wrong.
No teacher, preacher, parents or friends or,
even a wise man can decide what is right and wrong for me,
Just listen to the voice inside 

अपने मन की बात सुनो, क्योंकि हमारा मन जानता है कि हमारे लिए क्या ग़लत है और क्या सही। कई बार माता-पिता, गुरू या मित्र भी नहीं बता सकते।

ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते।। 2•62।।

दूसरे अध्याय के इस श्लोक में काम और क्रोध के गहरे सम्बन्ध की चर्चा की गई है।  मनुष्य भौतिक सुखों और साधनों के मोह में पड़कर कामनाओं के पीछे भागने लगता है और जब इच्छाएँ पूरी नहीं होती तो ऐसी स्थिति में क्रोध उत्पन्न होता है। स्वामी विवेकानन्द जी जब अमेरिका जा रहे थे, वे जहाज में बैठे पढ़ रहे थे। वहीं कुछ गोरे नवयुवक उनके गेरूए वस्त्र देख उनका मजाक उड़ाने लगते हैं। स्वामी जी फिर भी शान्त ही बने रहे। उन युवकों को नहीं मालूम था कि स्वामी जी अंग्रेजी भाषा में फर्राटेदार भाषण करते हैं, वे दिन भर उनका मजाक उड़ाते रहे और स्वामी जी चुप रहे। परन्तु,जब उन युवकों ने भारत माता को अपमानित करना शुरू किया तो विवेकानन्द जी अपने गुस्से पर काबू नहीं रख पाए और एक युवक का कालर पकड़ कर कहा कि अब भारत माता का अपमान किया गया तो वे उन्हें उठाकर समुद्र में फेंक देंगे। यह अपनी मातृभूमि के लिए उमड़ा हुआ क्रोध था। अन्याय के विरुद्ध क्रोधित होना गलत नहीं है। 

क्रोध और मोह से किस प्रकार जीवन का पतन हो सकता है विश्वामित्र, मेनका की कहानी से समझा जा सकता है। विश्वामित्र एक राजा थे। वे महर्षि वशिष्ठ की कामधेनु गाय पाना चाहते थे, वे जब कामधेनु को लेकर जाने लगे तो गौमाता के पूँछ हिलाते ही कई सैनिक निकले जिन्होंने विश्वामित्र को हरा दिया। तब वे ब्रह्मर्षि बनने के लिए कठिन तपस्या में लीन हो गए। उनकी तपस्या से घबराकर देवराज इन्द्र मेनका को भेजकर विश्वामित्र की तपस्या भङ्ग करवाते हैं। विश्वामित्र और मेनका विवाह करते हैं और शकुन्तला का जन्म होता है। इसके बाद विश्वामित्र फ़िर तपस्या में रत हो जाते हैं तब इन्द्र उर्वशी को भेजते हैं जो दूर से ही मुनि की सेवा करती थी क्योंकि वह उनके गुस्से से डरती थी। उर्वशी रोज विश्वामित्र के लिए पूजा की तैयारी कर देती थी ऋषि को इस तैयारी की आदत हो गई थी, परन्तु एक दिन ऋषि पूजा की सामग्री यथाप्रकार न पाकर क्रोधित हो गए जिससे उनकी तपस्या भङ्ग हो गई। काम और क्रोध रहते कहाँ हैं?

3.40

इन्द्रियाणि मनो बुद्धि:(र्), अस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष, ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥3.40॥

इन्द्रियाँ, मन (और) बुद्धि इस कामना के वास स्थान कहे गये हैं। यह कामना इन (इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि) के द्वारा ज्ञान को ढककर देहाभिमानी मनुष्य को मोहित करती है।

विवेचन : काम और क्रोध हमारे मन में ही रहते हैं। हमारी इन्द्रियाँ मन का उपकरण हैं।  हम चश्मा पहनते हैं , लेकिन चश्मा नहीं देखता, हमारी आँखें देखती हैं। इन्द्रियों द्वारा जो ग्रहण किया जाता है वह मन में अंकित हो जाता है। निन्दा या स्तुति दोनों ही मन पर प्रभाव डालते हैं। हमारा मन बेचैन हो उठता है, बुद्धि भी सिद्धान्तों में उलझकर उसमें भी काम आ जाता है जिससे ज्ञान आवृत्त हो जाता है और हम हमारे आत्मतत्व देही को ही भूल जाते हैं। शरीर,  इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, जीवन के इन चार स्तरों के अलावा आत्मतत्व भी एक स्तर है, उस तक कैसे पहुँचे? भगवद्गीता की अपनी एक विशेषता है। पहले सिद्धान्त बताती है फिर उन्हें जीवन में उतारने का मार्ग भी प्रशस्त करती है। पहले विषय का ज्ञान (तत्व) और फिर विज्ञान ( उपयोगिता)। इसलिये अर्जुन को क्या करना है? 

3.41

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ, नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं(म्) प्रजहि ह्येनं(ञ्), ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥3.41॥

इसलिये हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! तू सबसे पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल।

विवेचन : श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ, पहले अपनी इन्द्रियों को नियमित करो। तुम्हारा अपनी इन्द्रियों पर अंकुश है इसीलिए तुम रात रात भर जाग कर धनुर्विद्या का अभ्यास करते थे। परन्तु कभी कभी मन फिसल जाता है। इन्द्रियों पर नियन्त्रण लगाकर फिर सिद्धान्त के रूप में जो सीखा (ज्ञान) और उसकी अनुभूति ( विज्ञान)  की सहायता से बलपूर्वक पापवृत्ति बढ़ाने वाले काम और क्रोध को दूर करो। इन्द्रियों के नियमन पर भगवान का आग्रह था। 

एक विद्यार्थी को जीवन में उन्नति के लिए पढ़ना आवश्यक है, परन्तु वह दूरदर्शन, मीडिया और आलस्य में फँसकर अपना कर्तव्य भूल जाता है। इसीलिए इन्द्रियों पर काबू पाना कठिन तो है लेकिन आवश्यक है। अन्तरात्मा का युद्ध इन्द्रियों के साथ है। जैसे युद्ध पूर्व शत्रुओं के बल को आँकना पड़ता है, वैसे ही भगवान यहाँ काम और क्रोध रूपी शत्रु का बल अर्जुन को बता रहे हैं। ये दोनों तो ज्ञानियों की बुद्धि को भी आवृत्त कर देते हैं।

ज्ञानेश्वर महाराज जी भी कहते हैं कि मन को नियन्त्रित करने के लिए कई बार कोई उपाय या युक्ति का प्रयोग करना पड़ता है 

ऐसी युक्ति ची येणी हाथे, इन्द्रियां वोपी जे भाते,
ते सन्तोषे सी वाढते, मन चि करी।

जिस विषय का मोह छोड़ नहीं सकते, उस पर थोड़ी देर के लिए छूट देना चाहिए, क्योंकि बलपूर्वक नियन्त्रण से मोह और बढ़ जाता है। जैसे, आजकल विश्व कप क्रिकेट चरम सीमा पर है। विद्यार्थी दूरदर्शन पर उसे अवश्य देखना चाहते हैं, अब ऐसे समय, उन्हें बलपूर्वक पढ़ने को कहा गया तो वे एकाग्रता से नहीं पढ़ पाते। इसलिए एक निश्चित समय सीमा निर्धारित कर उन्हें खेल देखने दिया जाए तो वे प्रसन्न चित्त होकर अपने कर्तव्य कर्म करेंगे।

भगवद्गीता संवाद जागरण है। संवादों के माध्यम से श्रीकृष्ण अपनी बात अर्जुन को समझाते हैं। माता-पिता अपनी बेटी को छोटे कपड़े पहनने की अनुमति नहीं देते तो वह अपनी सहेली के घर जाकर वैसे ही कपड़े पहनकर अपने मित्रों के साथ पार्टी में शामिल होती है। तब, माता-पिता के मना करने का क्या मतलब है? मन को वश में करना है पर जबरदस्ती से नहीं। 

3.42

इन्द्रियाणि पराण्याहु:(र्), इन्द्रियेभ्यः(फ्) परं(म्) मनः।
मनसस्तु परा बुद्धि:(र्), यो बुद्धेः(फ्) परतस्तु सः॥3.42॥

इन्द्रियों को (स्थूल शरीर से) पर (श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक तथा सूक्ष्म) कहते हैं। इन्द्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है (औऱ) जो बुद्धि से भी पर है, वह (आत्मा) है।

विवेचन : इन्द्रियाँ सूक्ष्म हैं जो कि हमारे स्थूल शरीर से श्रेष्ठ हैं। सूक्ष्म ही व्यापक भी होता है। इन्द्रियों से मन, मन से बुद्धि सूक्ष्म और श्रेष्ठ हैं। परन्तु, आत्मतत्व इन सबके भी परे है। बर्फ का टुकड़ा, पानी और भाप तीनों एक ही पदार्थ के विभिन्न प्रकार हैं। बर्फ का टुकड़ा पानी से कम जगह लेता है, पानी बर्फ से व्यापक है और भाप पानी से भी सूक्ष्म और व्यापक है।

आत्मतत्व बुद्धि से श्रेष्ठ है, व्यापक है इसलिए उसे जानना आवश्यक है। काम की दौड़ बुद्धि तक है, लेकिन जब मिल जाएँगे तो काम पर अंकुश लग जाएगा। 

3.43

एवं(म्) बुद्धेः(फ्) परं(म्) बुद्ध्वा, संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं(म्) महाबाहो, कामरूपं(न्) दुरासदम्॥3.43॥

इस तरह बुद्धि से पर (आत्मा) को जानकर अपने द्वारा अपने आपको को वश में करके हे महाबाहो ! (तू इस) कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल।

विवेचन : आत्मतत्व भगवान का ही रूप है। नित्य अनुसन्धान से उसे जान सकते हैं और अपने मन को नियन्त्रित कर काम रूपी शत्रु पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। कामनाओं का प्रभाव नहीं होगा तो परम् शान्ति मिलेगी।

श्रीराम की पहचान संयम से होती है और यदि रामराज्य स्थापित करना है तो काम का राज्य शिथिल करना होगा ताकि जीव एक दूसरे से न लड़ें और सब तरफ प्रेम और शान्ति बनी रहे। सम्पूर्ण भगवद्गीता में महर्षि वेदव्यास जी ने अर्जुन के लिए सुन्दर सम्बोधनों का प्रयोग किया है। इस श्लोक में वे अर्जुन को महाबाहो कहते हैं। अर्जुन ने काम और मोह पर विजय प्राप्त की है। वे अपनी माँ के कहने पर अपनी नवविवाहिता पत्नी द्रौपदी को अपने भाइयों से साझा करने से नहीं हिचकिचाते। देवराज इन्द्र से  दिव्यास्त्र  पाने जब वे स्वर्ग लोक गए तो ऊर्वशी ने उन्हें अपने मोहपाश में बाँधना चाहा, परन्तु अर्जुन उन्हें माता कहकर सम्बोधित करते हैं। महान धनुर्धर और शूर योद्धा तो वे थे ही।

कर्तव्य पथ पर आने वाली बाधाओं को किस प्रकार देखना है और उनसे निपटने के उपाय श्रीकृष्ण इस अध्याय में  वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि सूक्ष्म को ( स्वयं को) जानो, फिर मन पर नियन्त्रण करते हुए इस काम रूपी शत्रु पर जय प्राप्त करो और जीवन की बागडोर श्रीकृष्ण को सौंप दो, इससे मन विचलित नहीं होगा। इन्द्रियों पर नियन्त्रण पाकर, मन को कर्तव्य कर्म में एकाग्र कर फल के मोह को त्याग सकते हैं। कर्तव्य कर्म के प्रति एक नया दृष्टिकोण भगवान यही बताते हैं। परिणाम को ईश्वर पर छोड़ जब कर्म होगा तो वह अवश्य ही दिव्य होगा क्योंकि उस पर भगवान की  कृपा की मोहर लगी है।

तृतीय अध्याय का विवेचन सत्र साधकों की जिज्ञासा का समाधान करते हुए प्रार्थना के साथ सम्पन्न हुआ।

विचार मंथन(प्रश्नोत्तर):-

प्रश्नकर्ता  श्री हेमन्त भैया
प्रश्न :
गीता जी का पहला अध्याय श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुए संवादों के लिए समर्पित है, फिर यहाँ सञ्जय और धृतराष्ट्र के बीच समानान्तर संवादों की क्या आवश्यकता थी?  सञ्जय कौन थे? 
उत्तरः सञ्जय धृतराष्ट्र के सारथी थे। महर्षि वेदव्यास जी महाभारत युद्ध के वर्णन का कार्य सम्पन्न किया। वे धृतराष्ट्र को दिव्य चक्षु देना चाहते थे, परन्तु, यह कहकर मना कर दिया की वे कभी अच्छी बातें ही नहीं देख सके तो युद्ध भी नहीं देखना चाहते, इसलिए सञ्जय को दिव्य चक्षु मिले और उन्होंने सम्पूर्ण महाभारत राजा को सुनाई। धृतराष्ट्र आँखों से ही नहीं, मन से भी अंधे थे, उन्होंने युद्ध का वृत्तान्त सुना तो लेकिन कुछ समझ पाना उनके लिए कठिन था।

प्रश्न: किसी की मृत्यु पर  गीता जी का कौन सा अध्याय पढ़ना चाहिए?
उत्तरः  सामान्य तौर पर पन्द्रहवां अध्याय "पुरुषोत्तम योग" पढ़ना चाहिए जिसमें भगवान के साथ योग का मार्ग बताया गया है। वैसे तो पूर्ण भगवद्गीता भी पढ़ी जा सकती है ताकि जीवात्मा का मार्ग प्रशस्त हो।

प्रश्न: तीसरे अध्याय के उन्नीसवें श्लोक पर प्रकाश डालें।
उत्तर ः 
तस्मादसक्तः सत्यं, कार्यों कर्मं समाचर।

असक्तो ह्याचरन्कर्म, परमाप्नोति पुरुष:

कर्म की आसक्ति छोड़कर विहित कर्म पूर्ण क्षमता और प्रेम से करने से परमतत्व की प्राप्ति होती है।

प्रश्नकर्ताः  श्रीमती गीता खरबन्दा दीदी
प्रश्नः
 पूरी निष्ठा के साथ किया जाने वाला कर्म योग कहलाता है। परन्तु कभी ऐसा नहीं हो पाता तो क्या हम गलत कर रहे हैं?
उत्तरः  कर्म perfectly ही किया जाए यह आवश्यक नहीं है, प्रयास निष्ठापूर्वक होने चाहिए। कोई भी काम बिना त्रुटि के नहीं होता, इसीलिए उसे भगवान को समर्पित कर देना चाहिए। सबकी क्षमता की एक सीमा होती है जिसके अनुसार पूरी लगन से काम करना चाहिए। धीरे धीरे सीमा बढ़ती जायेगी जिसे हम सीमोल्लंघन कह सकते हैं। विद्यार्थी कई बार परीक्षा की तैयारी अच्छे से नहीं कर पाते क्योंकि वे अपनी सीमा के बाहर नहीं जा सकते। 

प्रश्नकर्ता: श्रीमती सपना खण्डेलवाल दीदी
प्रश्न : हम सुनते हैं की बड़ों का आदर करना चाहिए। किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए क्योंकि अपेक्षा भङ्ग हो सकती है। हाल ही में एक घटना देखी जिसमें बच्चे अपने बीमार पिता को जो कि पलंग पर हिल भी नहीं सकते, एक नौकर के सहारे छोड़कर घूमने निकल जाते हैं। इस दौरान वह नौकर एक सड़क दुर्घटना में कोमा में चला जाता है। पिताजी की देखभाल करने वाला अब कोई नहीं था। क्या बच्चों को इस तरह जाना चाहिए था?
उत्तरः अकेले उस नौकर के सहारे छोड़ना ग़लत था, परिवार में अन्य किसी को भी बताकर जाना चाहिए था। अपेक्षा भङ्ग होना स्वाभाविक है और भगवान हमें सहने की शक्ति भी देते हैं। 


ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्याय:॥

इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘कर्मयोग’ नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ।