विवेचन सारांश
दैवी और आसुरी गुण के लक्षण
भगवान की अत्यन्त कृपा है जो हमने श्रीमद्भगवद्गीता का अध्ययन करना आरम्भ कर दिया है। सन्तों ने सदियों से बार-बार एक घोषणा की है कि भगवद्गीता के समान मनुष्य के जीवन में उसके लिए अन्य कोई उपयोगी ग्रन्थ नहीं है। भगवान की कृपा से हम स्तर दो में पहुँच गये। पहला स्तर तो प्ले ग्रुप के सामान था। अब हम स्कूल में आ गए। स्तर एक में संस्कृत व्याकरण में अनुसार, विसर्ग, आघात इत्यादि के बारे में जाना। बारहवें अध्याय में भक्त के लक्ष्ण और पन्द्रहवें अध्याय में पुरुषोतम योग के बारे में जाना।
पन्द्रहवें अध्याय में भगवान ने अपने पुरुषोत्तम स्वरूप का वर्णन किया। ज्ञानेश्वर महाराज ने पन्द्रहवें अध्याय को गीता जी की पूर्ण आहुति बताया। उन्होंने सोलहवें तथा सत्रहवें अध्याय को परिशिष्ट (अपेंडिक्स) तथा अट्ठारहवें अध्याय को सङ्क्षेप (समरी) माना है। सातवें और नवें अध्याय में भगवान ने कुछ चर्चा की परन्तु अर्जुन ने वहाँ भगवान से कुछ प्रश्न कर लिए, तो वह चर्चा वहाँ अधूरी रह गई और भगवान जितना विस्तार करना चाहते थे उस विषय का उतना विस्तार नहीं कर पाए। नवें अध्याय में भगवान ने आसुरी और दैवी गुणों की चर्चा की परन्तु वहाँ विस्तार से न कह पाने के कारण भगवान ने दैवी और आसुरी गुण क्या होते हैं, यह बताने के लिए अपनी ओर से सोलहवें अध्याय का विषय प्रारम्भ किया।
यह हमारा इस जन्म का या पूर्व जन्म का पुण्य है या पितरों के पुण्य आशीर्वाद के कारण या किसी सन्त महात्मा के आशीर्वाद के कारण गीता पठन-पाठन और भगवद् कार्य में लग गए, क्योंकि गीता जी को पढ़ने का सौभाग्य कोई चुन नहीं सकता। गीता जी को पढ़ने के लिए हम भगवान द्वारा चुने जाते हैं। भगवान ने अट्ठारहवें अध्याय में स्पष्ट कहा है -
तमेव शरणं(ङ्) गच्छ, सर्वभावेन भारत
तत्प्रसादात्परां(म्) शान्तिं(म्), स्थानं(म्) प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥18.62॥
श्रीभगवान कहते हैं कि तू सब प्रकार से भगवान की शरण में जा। इस प्रकार से तू शान्ति को प्राप्त करता हुआ उस शाश्वत परमात्मा को प्राप्त कर लेगा।
आदि गुरु शङ्कराचार्य ने नौंवी शताब्दी में सारे शास्त्रों का संशोधन किया और घूम-घूम कर सारे बौद्ध मठों को सनातन विहार बनाया। उन्होंने अपने भाष्य भज गोविन्दम् में कहा है-
भगवद् गीता किञ्चिदधीता,
गङ्गा जललव कणिकापीता।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा,
क्रियते तस्य यमेन न चर्चा॥२०॥
अगर हमने गीता जी थोड़ी भी अपने जीवन में धारण कर ली तो फिर हम भगवान के हो जाते हैं। यमराज का हम पर शासन नहीं रहता। वेद को भगवान का प्रश्वास कहा गया हैं। भगवान विष्णु के शयन के समय उनके नासिका द्वाराप्रश्वास से निकलने वाली ध्वनि से वेद की ऋचा प्रगट हुई। वही हम सबके लिए सबसे बडा़ ज्ञान है, क्योकि गीता जी स्वयं भगवान के मुख़ारविन्द से प्रगट हुई वाणी है। गीता जी के सम्बन्ध में अनेक महापुरुषों ने वर्णन किये हैं, इसके सामान कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं हैं।
मनुष्य जीवन के उद्धार के लिए पाँच 'ग' बताए गए हैं-
1) गऊ
2) गङ्गा
3) गायत्री
4) गीता
5) गोविन्द
सभी उपनिषदों का सार गीता, गाय के तुल्य बताई गई है। भगवान ने दसवें अध्याय के इकत्तीसवें श्लोक में कहा है कि नदियों में मैं गङ्गा हूँ। साथ ही दसवें अध्याय के ही तैतीसवें श्लोक में कहा है कि, गायत्री छन्दसामहम् अर्थात् मैं गायत्री नामक छन्द हूँ।
भगवान कहते हैं, हे अर्जुन।
य इमं परमं गुह्यं मद् भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय़ः।।68।।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।69।
अर्थात् मेरे इस परम गुह्य ज्ञान को जो अपने जीवन में धारण करता है, वह मुझे बहुत प्रिय है और वह मुझ को प्राप्त होता है, इसमें कोई संशय की बात नहीं है। जो इसका प्रचार और प्रसार करेगा वह भी मुझको ही प्राप्त होगा। भगवान इसके भी आगे कहते हैं। यह भगवान के श्री मुख से कहीं हुई बात है कि उस से बढ़कर मेरा कोई अन्य प्रिय होगा भी नहीं।
सोलहवें अध्याय का नाम है दैवासुरसम्पद्विभागयोग। यहाँ भगवान यह बताते हैं कि कौन से गुण धारण करने पर आप दैवीय कहलाओगे और कौन से गुण धारण करने पर आप आसुरी कहलाओगे और ऐसा भी नहीं है कि आप सदैव दैवी अथवा सदैव आसुरी भाव में स्थित रहते हों। आप जिस क्षण जिस लक्षण को धारण करते हैं आप वैसे ही हो जाते हैं। हम सब सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के मिश्रण से बने हैं। इन तीनों गुणों की मात्रा की भिन्नता से हमारे स्वभाव, हमारी पसन्द-नापसन्द, हमारे व्यवहार, रूप और आकार में अन्तर आता है।
संतन के सङ्ग लाग रे - कबीर दास का सुन्दर भजन यहाँ गाया गया-
सन्तन के सङ्ग लाग रे, तेरी अच्छी बनेगी,
अच्छी बनेगी, तेरी बिगड़ी बनेगी, तेरी बहु बडभाग रे, तेरी अच्छी बनेगी
सन्तन के सङ्ग, पुण्य कमाई, राम चरण अनुराग रे, तेरी अच्छी बनेगी,
सन्तन के सङ्ग लाग रे, तेरी अच्छी बनेगी, || १ ||
ध्रुव जी की बन गई, प्रह्लाद जी की बन गई,
गुरू सुमिरन में लाग रे, तेरी अच्छी बनेगी, ||२||
कागा से तोहे हंस करेंगे, मिट जाए उर के दाग रे, तेरी अच्छी बनेगी,
सन्तन के सङ् लाग रे, तेरी अच्छी बनेगी, || ३ ||
मोह निशा में बहुत दिन रोये, मोह निशा में बहुत दिन सोये,
जाग सके तो बन्दे जग रे, तेरी अच्छी बनेगी || ४ ||
सुत बिन नारी तीन आशाएँ, त्याग सके तो त्याग रे तेरी अच्छी बनेगी,
सन्तन के सङ्ग लाग रे, तेरी अच्छी बनेगी, || ५ ||
कहत कबीर राम सुमिरन में, कहत कबीर राम भजन में,
पाग सको तो अब पाग, तेरी अच्छी बनेगी || ६ ||
सन्तन के सङ्ग लाग रे, तेरी अच्छी बनेगी,
राम चरण अनुराग रे, तेरी अच्छी बनेगी |
कबीर दास जी के भजन में हमने देखा कि सबसे ज्यादा जीवन में प्रभावी बात है, वह सत्सङ्ग है। चालीस मिनट भगवद् गीता की क्लास करते हैं यह चालीस मिनट जो अच्छे लोगो का सङ् प्राप्त होता हैं इसका बड़ा महत्त्व है। जो हमारे टीचर हैं, वह सतो गुण से भरे हुए हैं। जो हमारे साथी हैं, वह सतो गुण से भरे हुए हैं। इनके सङ्ग का प्रभाव हमारे चिन्तन को बदल देता हैं, इसलिय कितना भी प्रयास कर क्लास को नहीं छोड़िएगा। विवेचन को अवश्य सुनियेगा। अपने आप जीवन में सात्त्विकता बढ़ती हैं यह हम अनुभव करतें हैं।
वह मार्ग की नहीं गन्तव्य की बात करते हैं। भगवान ने बारहवें अध्याय में भक्त की सूची दी है तो दूसरे में स्थितप्रज्ञ की सूची दी। तेरहवें में ज्ञानी की सूची दी है तो चौदहवें में गुणातीत की। सोलहवें में दैवी तथा आसुरी गुणों की सूची दी है। पहले तीन श्लोक में भगवान ने छब्बीस दैवी गुण बताए हैं। भगवान ने यहाँ यह बताया कि अगर तुम अपने आप को भगवान का मानते हो, भगवान से डरने वाला मानते हो, भगवान का भक्त मानते हो, तो निम्न सूचियों में अपने आप को पहचानो कि तुममें इनमें से कौन-कौन से गुण हैं। भगवान यह नहीं पूछते कि तुम क्या करते हो? भगवान यह पूछते हैं कि तुम्हारे अन्दर क्या घटा? यह एक व्य्यावहारिक ग्रन्थ है। जितना हम गीता को पढ़ेंगे और जितना हमारा जीवन सन्मार्ग की ओर बढे़गा यह छब्बीस गुण छब्बीस पुष्पों की तरह हमारे जीवन में खिलने लगेगें। छब्बीस पुष्प प्रकट हो रहे हों तभी हमारा यह साधना का मार्ग सही है। हम जो कुछ भी कर रहें हैं वह सही है और अगर प्रकट नहीं हो रहे हैं तो फिर हमारा साधना का मार्ग सही नहीं है।
16.1
श्रीभगवानुवाच
अभयं(म्) सत्त्वसंशुद्धिः(र्), ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं(न्) दमश्च यज्ञश्च, स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।16.1।।
अभय: साधारण रूप से देखने पर अभय शारीरिक गुण लगता है, इसमें दैवीयता प्रतीत नहीं होती। साधारणतः लोग अभय को निडरता समझ लेते हैं। माफिया किसी से नहीं डरते तो क्या वे दैवीय गुण से सम्पन्न हैं? पहला लक्षण भगवान बहुत ही अद्भुत बताते हैं-
हितोपदेश का एक श्लोक है---
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
भगवान ने आहार, निद्रा, भय और मैथुन सभी को दिया है। पशु को भी दिया है, मनुष्य को भी दिया है किन्तु मनुष्य इसका उपयोग विवेक के साथ करता है और पशु में विवेक नहीं होता है। मनुष्य को पता होता है कि इसका प्रयोग कब करना चाहिए, कब नहीं करना चाहिए? मनुष्य इसका सदुपयोग भी कर सकता है, दुरुपयोग भी कर सकता है। भय हमें गलत मार्ग पर जाने से रोकता भी है। धर्म पालन से जीवन में अभयता आती है। जिसका जीवन जितना धर्मशील होगा, वह उतना ही निर्भय होगा।
अर्थात आहार, निद्रा, भय और मैथुन- भगवान ने मनुष्यों और पशुओं को ये चारों एक से दिए हैं। मनुष्य के पास धर्म है, जो पशुओं में नहीं है। धर्म से मनुष्य इन चारों का सदुपयोग कर सकता है। इसका अर्थ है कि भय का सदुपयोग और दुरुपयोग यह दोनों गतियाँ ऋषियों ने बताई हैं अर्थात दो तरह के भय हो गए। एक सात्त्विक भय, जो अपेक्षित है और दूसरा वह जो अनपेक्षित है। एक अभय होता है निर्भयता, और दूसरा अभय होता है निरङ्कुशता। माफिया निरङ्कुश होता है, परन्तु सैनिक निर्भय होता है। सैनिक अनुशासित होता है, वह नियमों और आदेशों से बँधा हुआ होता है। उसे पता होता है कि पूरा तन्त्र मेरे पीछे है अतः वह निर्भय होकर सीमा पर जाकर खड़ा हो जाता है। माफिया दिशाहीन होता है, वह कमजोर को डराता है।
परम सन्त श्री राम सुख दास जी कहते हैं- बेपरवाह हो जाओ, लापरवाह नहीं। दोनों बात एक जैसी लगती हैं। लेकिन नहीं, एक साधु की रोटी की चिंता न करना बेपरवाही हैं और एक गृहस्थ बैठकर ताश खेल रहा है शाम को घर में रोटी कैसे आएगी इसकी चिंता न करना ये लापरवाही हैं। साधु को उसके लिए इनाम मिलेगा, लेकिन गृहस्थ को उसके परिणाम स्वरूप दण्ड मिलेगा। इसे समझने के लिए दो अन्य शब्दों का चिन्तन करते हैं - लापरवाह और बेपरवाह। अध्यात्म में बेपरवाह होने के लिए कहा गया है, लापरवाह होने के लिए नहीं। लापरवाह नकारात्मक है, जबकि बेपरवाह सकारात्मक है। मुझे शाम का खाना मिलेगा अथवा नहीं, इसके लिए एक साधु बेपरवाह होता है।
इसके विपरीत मेरे पत्नी-बच्चे घर में भूखे बैठे हैं और मैं ताश खेल रहा हूँ, यह लापरवाही है। दोनों में सूक्ष्म अन्तर है इसलिए शास्त्रकारों ने निर्भयता के लिए अभय शब्द का तथा लापरवाह के स्थान पर बेपरवाह शब्द का प्रयोग किया है। लापरवाह अज्ञानी है, परन्तु बेपरवाह परम ज्ञानी है। निर्भय ज्ञानी है और निरङ्कुश अज्ञानी है। निरङ्कुश आसुरी स्वभाव के होते हैं, वे दूसरों को कष्ट देते हैं। वे माता-पिता, समाज, नियम, शास्त्र, पुलिस, कानून आदि किसी की परवाह नहीं करते परन्तु एक छोटा बालक अपनी माँ की गोद में बेपरवाह होता है, उसे गिरने का डर नहीं होता, उसे माँ पर विश्वास होता है, वह माँ पर आश्रित होता है। साधक को जब अपने परमात्मा और गुरु पर ऐसा आश्रय हो जाता है, तो उसके जीवन में भी ऐसी निर्भयता आ जाती है।
हमारे साथ श्रीरघुनाथ फिर किस बात से डरना|
चरण में रख दिया जब माथ, फिर किस बात से डरना||
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥
जिसके जीवन में भगवदाश्रय जितना बढ़ता जायेगा, उतनी ही उसकी अभयता बढ़ती जाएगी। अभयता आए बिना बाकी सद्गुणों की रक्षा नहीं हो सकती। तप, सत्य आदि सभी गुण तथा नियम, उपवास आदि भी भय के कारण छूट जाते हैं इसलिए भगवान ने अभय को अन्य पच्चीस गुणों का इञ्जन बना दिया है। भगवान और गुरु का आश्रय न करने के कारण जीवन में अनिष्ट की आशङ्का बनी रहती है और सब कुछ पास होते हुए भी जीवन से भय दूर नहीं होता। भगवदाश्रय लेने से जीवन में अभय और सत्त्वगुण बढ़ते हैं।
रावण के मन में डर हैं क्योकि उसने गलत कार्य किया। माता जानकी का छल से अपहरण किया। लेकिन भगवान राम जी अभय हैं।
जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै॥5॥
सत्त्वसंशुद्धि: प्रसिद्ध उक्ति है मन चङ्गा तो कठौती में गङ्गा। जितने भी पूजा पाठ नहीं करने वाले होते हैं, वे इसे अवश्य कहते हैं, परन्तु वे भूल जाते हैं कि पहली आवश्यकता मन चङ्गा करने की है। बहुत लोग कहते हैं कि पूजा तो करते हैं, माला तो जपते हैं, लेकिन मन नहीं लगता। मन लगाने के लिए मन के अन्दर के मैल को साफ करना होगा। हम कपड़े को साफ नहीं करते, कपड़े के ऊपर लगे मैल को साफ करते हैं। अन्तःकरण तो निर्मल ही होता है, वह विशुद्ध आत्मतत्त्व का भाग है, भगवान भी स्वयं हमारे हृदय में निवास करते हैं, परन्तु बीच में मैल की परत होने के कारण भगवान हमें दिखते नहीं, मिलते नहीं। मैले दर्पण में प्रतिबिम्ब नहीं दिखता, परन्तु उसे कपड़े से साफ कर दें तो प्रतिबिम्ब स्पष्ट हो जाता है। ऐसे ही भगवान के दर्शन करने हों तो भीतर से विकारों, पापों, वासनाओं का मैल हटाना होगा। जब तक यह मैल दूर नहीं होता, तब तक करोड़ों जन्मों में प्रयत्न करने पर भी परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो पाती। मन में झूठ, कपट, ईर्ष्या, द्वेष, कामना, वासना भरे हों, तो परमात्मा नहीं मिलते। अपवित्र मन में परमात्मा नहीं आते। मन निर्मल होने पर ही भगवान उसमें विराजते हैं। दैवी गुण के लिए अपने मन का कपट हटाना तथा अपने व्यवहार से झूठ, द्वेष, अज्ञानता और नकारात्मकता को दूर करना आवश्यक है। कई बार कुछ लोग कह देते हैं कि मैं तो ऐसा ही हूँ, जिसको जैसा मानना है मान लो। यह गर्व की बात नहीं है, यह पछताने की बात है। ऐसे तो पुनरपि जननम् पुनरपि मरणम् सदियों तक चलता रहेगा। अपने भीतर जो दोष हैं, उनका निराकरण तो करना ही होगा।
ज्ञानयोग व्यवस्थिति: कभी-कभी हम लोगों का बहुत अच्छा ध्यान लगता है, विवेचन सुनने, गीता रामायण आदि पढ़ने में खूब मन लगता है, परन्तु यह स्थिति निरन्तर नहीं रहती और जब तक निरन्तरता नहीं आती, बात अधूरी रहती है। निरन्तरता और स्थायित्व आने पर यह दैवीय गुण बन जाता है।
दान: दान का एक प्रकार है धन का दान। दान देते समय जब तक हम "मैं दे रहा हूँ, मैं बड़ा हूँ, मैं दे सकता हूँ - ऐसा भाव रखते हैं, तब तक उस दान में निम्नता है। परन्तु शास्त्रकार कहते हैं कि कर्त्तव्य भाव से दिया गया दान श्रेष्ठ है। भगवान ने दो श्रेणियाँ बनाई हैं - एक लेने वालों की और दूसरी देने वालों की। किसी-किसी को भगवान ने देने वालों में उत्पन्न तो कर दिया, परन्तु जीवन भर उनकी आकाङ्क्षा लेने की ही बनी रहती है। किसी को कुछ देना भी पड़ जाए, तो वे मन मारकर देते हैं। भगवान ने आपको देने की सामर्थ्य दी है तो उसका सदुपयोग करें। केवल धन देना ही दान नहीं है, बल्कि समय, ज्ञान आदि देना भी दान ही है। दान देने की प्रवृत्ति बननी चाहिए। इसी प्रकार गीता परिवार से हमने कुछ लिया तो हम सेवा के रूप में वापस लौटाएँ - ऐसी अपनी भावना बननी चाहिए। यहाँ धन तो खर्च नहीं होता परन्तु अपनी ऊर्जा, अपना समय, अपनी प्रतिभा लगती है। आप स्वच्छता का भी दान कर सकते हैं। जैसा प्रधानमन्त्री मोदी जी ने स्वच्छ भारत अभियान चलाया। आप प्रसन्नता का दान दे सकते हैं। आप यह निश्चय कर लें कि जिससे भी मिलेंगे मुस्कुराकर मिलेंगे। भगवान श्रीकृष्ण की यही विशेषता है कि वह सदा मुस्कुराते हुए मिलते हैं, 'प्रहसन्निव भारत'। अर्जुन रो रहा है और भगवान फिर भी प्रसन्नचित हैं। भगवान के मुस्कुराने से ही अर्जुन सम्भल पाये।
आपने एलोपैथी, होम्योपैथी और नेचुरोपैथी सुनी होगी, परन्तु इनसे भी बड़ी होती है सिम्पैथी अर्थात् सहानुभूति। कोई कष्ट में हो, दु:खी हो तो उसके पास बैठकर उसे दिलासा देने के लिए कहे हुए दो शब्द भी उसके लिए बहुत बड़ी दवा बन जाते हैं। अपने परिवार में, अपने पड़ोस में, अपने कर्मचारियों को तथा अज्ञात लोगों को भी कुछ-न-कुछ देने की हमारी प्रवृत्ति बननी चाहिए।
एक बहुत सुन्दर गीत हैं:
देश हमें देता है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें।
सूरज हमें रोशनी देता, हवा नया जीवन देती है,
भूख मिटाने को हम सब की, धरती पर होती खेती है।
औरों का भी हित हो जिसमें, हम ऐसा कुछ करना सीखें,
देश हमें देता है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें।।
जो अनपढ़ हैं उन्हें पढ़ाएं, जो चुप हैं उनको वाणी दें,
पिछड़ गए जो उन्हें बढ़ाएं, प्यासी धरती को पानी दें।
हम मेहनत के दीप जलाकर, नया उजाला करना सीखें,
देश हमें देता है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें।।
हमारा कुछ न कुछ देने का भाव बना रहे। हम कृपण बनकर न जिएँ, राजा बनकर जिएँ। उसके लिए पैसा नहीं चाहिए, नीयत चाहिए। भगवान की दी हुई शक्ति और सामर्थ्य का उदार बनकर अपनी ओर से सदुपयोग करते हुए लोगों की सेवा करने का अपना सङ्कल्प होना चाहिए। वह भी कर्त्तव्यभाव से, बदले में कुछ चाह न रखते हुए हो, तभी वह दान कहलाएगा।
प्रज्ञाचक्षु स्वामी शरणानन्द जी महाराज कहा करते थे कि "सबके काम आ जाओ और बदले में कुछ मत चाहो।" उत्तम जीवन जीना है तो यह सोच रखनी होगी कि मैं सबके काम आऊँगा और उसके बदले में कुछ नहीं चाहूँगा। वही सर्वश्रेष्ठ और सुखी जीवन होगा। स्वामी शरणानन्द जी यह भी कहा करते थे कि "संसार योग्यता की नहीं, उपयोगिता की कद्र करता है।" आपके पास कितनी ही बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ हों, बहुत सारा धन हो, परन्तु यदि आप किसी के काम नहीं आते तो वे सब व्यर्थ हैं।
दम: दम यानि इन्द्रियों का संयम अर्थात मैं क्या देखूँ, क्या सुनूँ , क्या खाऊँ, क्या बोलूँ, क्या सूँघूँ, क्या स्पर्श करूँ? कभी-कभी जिनका इन्द्रियों पर बिल्कुल नियन्त्रण नहीं होता, ऐसे लोगों के लिए सीधा बैठना भी कठिन हो जाता है। सबसे चञ्चल इन्द्रिय है नेत्र। स्वामी शरणानन्द जी ने कहा है- "जिसको दृष्टि दोगे, उसे मन देना पड़ेगा, इसलिए अपनी दृष्टि सम्भालकर रखो।" व्यर्थ की चेष्टाओं का अभाव हो। अपना समय व्यर्थ न गवाएँ।
यज्ञ: चौथे अध्याय में भगवान ने बारह प्रकार के यज्ञ बताए, और दसवें अध्याय में कहा 'यज्ञानां जपयज्ञोस्मि' अर्थात् यज्ञों में जपयज्ञ मैं हूँ। समष्टि भाव से सबके कल्याण के लिए उत्तम कर्म करना, अपने कर्त्तव्य करना, अग्निहोत्र आदि कर्म करना, नित्य पूजन-अर्चन करना, अपनी कुल-परम्परा का पालन करना- यह सारा यज्ञ है। कथा में सबके कल्याण की बात होती है, इसलिए कहते हैं श्रीमद्भागवत कथा ज्ञान यज्ञ है।
स्वाध्याय: सामान्यतः स्वाध्याय का अर्थ हम कुछ अच्छा पढ़ना - ऐसा ले लेते हैं। स्वाध्याय का जो मौलिक अर्थ शास्त्रकारों दिया है, वह है स्वयं का अध्ययन करना, स्वयं का चिन्तन करना, मैं कौन हूँ?- इस खोज में लगना। शरीर प्रतिक्षण बदलता रहता है। यदि हम शरीर होते तो स्वयं के बचपन की तस्वीर को तुरन्त पहचान लेते। आधुनिक विज्ञान के अनुसार शरीर की सभी कोशिकाएँ साढे तीन साल में बदल जाती हैं। हर क्षण यह शरीर मर रहा है। शरीर के सो जाने के बाद यह किसको पता रहता है कि मैं सो रहा हूँ? आज मुझे अच्छी नींद आई या नहीं- यह किसे पता होता है? वह शरीर से अलग है और उसी को खोजने की, अन्वेषण करने की आध्यात्मिक यात्रा का नाम स्वाध्याय है।
तप: यहाँ शरीर को सुखाने वाले तप की बात नहीं की गई, यहाँ तो एक साधारण गृहस्थ को अपने स्वधर्म के पालन के लिए सहर्ष जो कष्ट सहना पड़े, उसे तप कहा गया है। तीन चार दिन पहले करवा चौथ का व्रत आया। बहुत सी माता बहने इस व्रत को करती है वह यह प्रसन्तापूर्वक कर रही है या नहीं। प्रसन्नता का अभाव हो जाए, तो वहाँ तप समाप्त हो जाता है, परन्तु अपने नियम के, अपने स्वधर्म के पालन में प्रसन्नता बनी रहे तो तप सफल हो जाता है।
आर्जव (सरलता): मैं जैसा हूँ, वैसा ही दिखूँ।
शबरी माता की कथा सुनते हैं
शबरी भील जाति की एक कन्या थी। शबर जाति की थी इसलिए शबरी कहलाई और भील जाति की थी इसलिए भीलनी भी कहलाई। मूल रूप में इनका नाम श्रमणा है। वह कबीले के सरदार की पुत्री थी। वह बहुत ही मृदुभाषी और कोमल स्वभाव की सात्त्विक कन्या थी। उसे बचपन में भेड़ के मेमने के प्रति अत्यधिक लगाव हो गया। जब वह बारह साल की हो गई तो उसका विवाह निश्चित हो गया। विवाह के दो दिन पहले जब वह सो कर उठी तो उसे उसका मेमना नहीं मिला। उसने सबसे पूछा परन्तु कोई उत्तर न मिलने पर वह उसको ढूँढने जङ्गल में गई। जब वह नहीं मिला तो एक पेड़ के नीचे बैठकर रोने लगी। तभी उसकी एक सहेली वहाँ आई और उसने बताया कि तुम्हारा विवाह है न इसलिए हर घर से एक मेमने को लाकर एक बाड़े में बन्द कर दिया गया है ताकि बारातियों के खाने की व्यवस्था की जा सके। यह बात सुनकर वह स्तब्ध हो गई, काँप उठी। वह सोचने लगी कि मेरे मेमने को काटकर खिला देंगे। मेरे ब्याह में मेरा मेमना तो मरेगा ही बाकी और मेमनों को भी काट कर खिला देंगे। वह सोचने लगी कि मैं उसको कैसे रोक सकती हूँ? उसने सोचा कि मेरी बात तो कोई मानेगा नहीं, इसलिए उसने निश्चय किया कि मेरे कारण ही इतने निरीह पशुओं की हत्या हो जाए, यह मैं नहीं होने दूँगी। उसने विचार किया कि यदि मैं अभी यहाँ से भाग जाऊँ और किसी को मिलूँ ही नहीं तो फिर विवाह ही नहीं होगा। फिर किसी भी मेमने की जान नहीं जाएगी। वह वहाँ से भाग गई। तीन दिन तक भागते-भागते भूखी प्यासी शिथिल होकर एक जङ्गल में पहुँचकर गिर पड़ी। निकट ही मतङ्ग मुनि का आश्रम था। कुछ शिष्य वहाँ उनसे शिक्षा ग्रहण करते थे। महर्षि अपने शिष्यों के साथ वहाँ से जा रहे थे। उन्होंने बालिका को पड़े देखा। वे विचार करने लगे कि इस घने जङ्गल में यह अबोध बालिका कहाँ से आई? उन्होंने उस पर जल के छींटे दिए। उसे जल पिलाया तब वह होश में आई। श्रमणा मुनि को देखकर चकित हो गई, उसने पहले कभी किसी ऋषि को नहीं देखा था। मुनि का प्रेम देखकर वह भाव विह्वल हो कर रोने लगी। मुनि ने उससे पूछा कि तुम कौन हो, यहाँ कैसे आई? उसने गुरुदेव को बताया कि कैसे एक मेमने की जान बचाने के लिए वह भाग कर आ गई। मुनि बहुत द्रवित हुए और उनको अपने आश्रम में ही रख लिया। गुरुभक्ति की भावना उसमें आ गई।
कुछ समय पश्चात ऋषि-कुमारों को उसके आश्रम में रहने पर आपत्ति होने लगी कि यह और कितने दिन यहाँ रहेगी। उन्होंने सोचा कि गुरुदेव से इस बारे में बात करनी चाहिए। जब श्रमणा ने यह सुना तो उसने सोचा कि वे गुरुदेव से बात करेंगे तो गुरुदेव सङ्कोच में पड़ जाएँगे। इससे अच्छा है कि उसे वहाँ से चले जाना चाहिए। वह बिना किसी को बताए वहाँ से निकल गई और घने जङ्गल में जाकर रहने लगी। वहाँ रहते हुए भी उसे कई वर्ष बीत गए। भीलनी थी, इसलिए स्वाभाविक रूप से जङ्गल में कन्दमूल खाकर निर्वाह करने लग गई। उसके मन में प्रगाढ़ गुरु भक्ति थी, इसलिए वह वहीं जङ्गल में रहने लग गई। उसने सोचा कि गुरु जी जिस मार्ग से जाते हैं, क्यों न उसकी सफाई कर दूँ और वह उस मार्ग की साफ सफाई करने लगी। उसने यह भी सोचा कि ऋषि कुमारों को लकड़ियाँ लाने दूर जाना पड़ता है इसलिए जङ्गल से दूर-दूर से लकड़ियों को लाकर आश्रम के आसपास बिखरा देती थी। सबको आश्चर्य होने लगा। मुनि ने पूछा, शिष्यों क्या तुम रास्ते की सफाई करते हो? तब उन्होंने कहा- नहीं महाराज। मुनि ने सोचा कि अब रात में छिपकर देखना चाहिए कि कौन यहाँ काम करके जाता है। रात के अन्धेरे में एक आकृति काम करती दिखाई पड़ी, पास जाकर मुनि ने देखा तो उन्होंने आवाज दी, अरे श्रमने! श्रमणा स्तब्ध रह गई। सामने गुरुदेव को देखकर रोने लगी। मतङ्ग मुनि ने पूछा कि तुम बिना बताए कहाँ चली गई थी? तब उसने कुछ नहीं कहा। गुरुजी ने अपने योग बल से सारी बात जान ली और उसे फिर से अपने आश्रम में ले गए। कुछ समय पश्चात शिष्य भी अपनी पढ़ाई समाप्त करके चले गए थे। गुरुदेव की अवस्था हो गई थी। वहाँ कई दिन, कई वर्षों तक रहने के बाद एक दिन गुरुदेव ने कहा कि पुत्री मैं चाहता हूँ कि जीवन की अन्तिम अवस्था में हिमालय जाकर अपने प्राणों का त्याग करूँ इसलिए मैं वहाँ जा रहा हूँ। तुम यहाँ आश्रम में रहो। मेरा वरदान है कि यहाँ मेरी तपस्या के प्रताप से कोई भी जङ्गली पशु आश्रम के अन्दर नहीं आएगा और तुम्हें किसी भी प्रकार का भय नहीं रहेगा। यहाँ किसी प्रकार के भोज्य पदार्थों की भी कमी नहीं रहेगी। मुनि ने कहा, पुत्री तुमने मेरी बहुत सेवा की है। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि एक दिन भगवान श्रीराम तुम्हारे आश्रम में आएँगे। वह स्तब्ध रह गई थी कि गुरुदेव ने यह क्या कह दिया? वह कुछ कहती उससे पहले ही गुरुदेव वहाँ से चले गए। वह यह सोचकर कि गुरुदेव ने यह तो बताया नहीं कि भगवान किस दिशा से आएँगे, आएँगे तो कहाँ बैठेंगे, मैं उन्हें क्या खिलाऊँगी, क्या पिलाऊँगी, प्रतिदिन जङ्गल से कन्दमूल लाती, प्रतिदिन स्वच्छ जल भरकर लाती, भगवान के लिए आसन बनाती और आश्रम के चारों तरफ की सफाई करती। उसके मन में यह भाव था कि गुरुदेव ने कहा है तो भगवान आएँगे तो अवश्य। हमारे मन में थोड़ी सी भी बात आ जाए तो हम सोचने लगते हैं कि गुरुदेव ने बहलाने के लिए कह दिया होगा और कितनी प्रतीक्षा करेंगे? अब तो आ जाना चाहिए। शबरी बहुत ही सहनशील थी।
सोलह वर्ष की शबरी प्रतीक्षा करते-करते छियासी वर्ष की वृद्धा हो गई। भगवान आएँगे इस पर उसे विश्वास था। जब भगवान राम सुतीक्ष्ण को दर्शन देकर वहाँ आए तो वह अत्यन्त प्रसन्न हो गई।
ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें आश्रम पगु धारा॥
सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥
भगवान को देखकर शबरी के मन में सबसे पहला भाव यह आया कि मेरे गुरुदेव के वचन सत्य हो गए कि भगवान मेरे आश्रम में पधारे हैं।
सरसिज लोचन बाहु बिसाला।
जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥
स्याम गौर सुन्दर दोउ भाई।
सबरी परी चरन लपटाई॥
शबरी भगवान के चरणों से लिपट गई। बूढ़ी थी, कूबड़ निकल आया था, परन्तु वह भगवान के चरण पकड़ कर लिपट गई।
प्रेम मगन मुख बचन न आवा।
पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥
सादर जल लै चरन पखारे।
पुनि सुन्दर आसन बैठारे॥
वह बोलना तो चाहती थी पर वह बोल नहीं पा रही थी। भगवान के चरणों में बार-बार लिपट रही थी। उसने जल से भगवान के चरण पखारे और भगवान व लक्ष्मण को वृक्ष की लताओं के बने सुन्दर आसन बैठने के लिए दिए।
कन्द मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारम्बार बखानि॥
शबरी चख-चख कर भगवान को बेर दे रही थी और भगवान उनके आगे हाथ पसारे थे कि शबरी कब बेर दे और कब मैं खाऊँ। लक्ष्मण जी को बहुत क्रोध आया पर भगवान तो प्रेमवश होकर शबरी के जूठे बेर खा रहे थे। लक्ष्मण ने सोचा कि मैं इतने वर्षों तक भगवान के लिए ढूँढ-ढूँढकर फल लाया, भगवान ने कभी प्रशंसा नहीं की और यहाँ तो भगवान शबरी के जूठे बेर भी बड़े प्रेम से खा रहे हैं और साथ ही बहुत प्रशंसा भी कर रहे हैं। भगवान ने यहीं नहीं बल्कि अनेक बार शबरी के बेरों की प्रशंसा की है। उत्तरकाण्ड में भी बात आती है कि जब भगवान का राज्याभिषेक होने वाला था तो भगवान के स्वागत में छप्पन भोग बनाए गए। तब वहाँ भी भगवान ने लक्ष्मण जी को कहा कि मुझे तो शबरी माता के बेर याद आ रहे हैं। छप्पन भोग में वह स्वाद नहीं है जो माता के बेर में था। इस तरह भगवान ने माता शबरी के बेरों की प्रशंसा की। भगवान ने लक्ष्मण जी को भी बेर दिए पर लक्ष्मण जी ने नहीं खाए। उन्होंने चुपचाप पीछे फेंक दिए।
पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी॥
शबरी के मन में प्रेम के भाव उमड़ रहे थे। वह भगवान को देखती जाती थी और उन्हें अपने जूठे बेर देती जाती थी।
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी।
अधम जाति मैं जड़मति भारी॥
अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी॥
शबरी कहती है कि मैं अधम जाति की मन्दबुद्धि नारी हूँ। मुझे कुछ नहीं आता है प्रभु! मैं तो सभी अधम नारियों में भी अधम हूँ। मैं आपकी स्तुति किस प्रकार करूँ, मुझे कुछ नहीं आता है।
जब शबरी ने भगवान से ऐसा तीन बार कहा तो भगवान ने कहा:
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई।
धन बल परिजन गुन चतुराई॥
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता।
मानउँ एक भगति कर नाता॥
भगवान बोले, मैं तो जाति-पाँति, कुल-धर्म, स्त्री-पुरुष, निर्धन-धनी आदि किसी को भी नहीं मानता, मैं तो केवल एक ही नाता मानता हूँ- भक्त और भगवान के बीच का नाता और किसी नाते को नहीं जानता। जो मेरा भक्त है, वह मेरा है।
यहाँ एक विशेष बात है, यह शास्त्रों का नियम भी है और भगवान कृष्ण ने भी अर्जुन को तब ज्ञान दिया, जब उन्होंने माँगा:
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥गीता 2.7॥
परन्तु शबरी ने भगवान से कुछ नहीं माँगा। शबरी का प्रसङ्ग ही अनूठा है। यहाँ भगवान उसे अपनी ओर से नवधा भक्ति का ज्ञान दे रहे हैं।
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं।
सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथी भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
सातवाँ सम मोहि मय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवाँ जथालाभ संतोषा।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥
नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
भगवान कहते हैं शबरी आज मैं तुम्हें नवधा भक्ति का उपदेश करूँगा, उसे सावधान होकर सुनो। नौ प्रकार की भक्ति होती है। पहली भक्ति है सन्तों का सङ्ग करना, सत्सङ्गति करना। दूसरी भक्ति है उत्तम महापुरुषों से मेरी कथाएँ सुनना। तीसरी भक्ति है अभिमानरहित हो कर गुरु के पदपङ्कजों की सेवा करना और चौथी भक्ति कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करना, मन्त्र का जाप करना। मुझ पर दृढ विश्वास करना यह पाँचवीं भक्ति है। छठी भक्ति इन्द्रियों का संयम, शील स्वभाव, बहुत से कार्यों से वैराग्य और बहुत से सन्त पुरुषों के धर्माचरण में लगे रहना। सातवीं भक्ति है जगत में सब जगह मुझे देखना और सन्तों को मुझसे भी बड़ा मानना। इसलिए हमारे यहाँ सन्तों और गुरुओं का इतना सम्मान है कि हम उनकी तस्वीर को भगवान के साथ मन्दिर में लगाते हैं। जितना मिल जाए, उसी में सन्तुष्ट रहना और सपने में भी दूसरों में दोष नहीं देखना- यह आठवीं भक्ति है। जथा लाभ सन्तोष और नवीं भक्ति है सब छल-कपटों से रहित होकर, हर परिस्थिति में भगवान का भरोसा रखकर सदा प्रसन्नचित्त रहना।
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई।
नारि पुरुष सचराचर कोई॥3॥
शबरी इन नौ में से जिसके पास एक भी भक्ति हो, चाहे वह नर हो या नारी, पशु-पक्षी हो या मनुष्य, चर हो अथवा अचर, मुझे अत्यन्त प्रिय है।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें।
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
भगवान ने कहा कि इस तरह के भक्त मुझे बहुत प्रिय हैं परन्तु तुममें एक नहीं, ये सारे के सारे गुण उपलब्ध हैं, इसलिए तुम मेरी अत्यन्त प्रिय भक्त हो।
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई।
तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥
मम दरसन फल परम अनूपा।
जीव पाव निज सहज सरूपा।
जनकसुता कइ सुधि भामिनी।
जानहि कहु करिबरगामिनी॥
भगवान कहते हैं कि करोड़ों जन्मों की तपस्या करने वाले जोगियो को भी जो गति दुर्लभ है वह गति आज मैं तुम्हें प्रदान कर रहा हूँ। भगवान ने शबरी को अपना उत्तम नाम दिया और वहीं पर योगाग्नि प्रकट करके शबरी ने अपने नश्वर कलेवर को समाप्त करके अपनी चेतना को भगवान में विलय कर दिया।
कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पंकज धरे।
तजि जोग पावक देह परि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे॥
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥
शबरी ने भगवान की कृपा से उस उत्तम गति को प्राप्त किया जिसे तप करने वाले योगी करोड़ों जन्मों में भी प्राप्त नहीं कर पाते। भगवान को बहुत चतुर, तार्किक और ज्ञानी लोग नहीं चाहिए, उन्हें श्रद्धावान भक्त चाहिए। शबरी में कोई अन्य विशेषता नहीं है बस उसमें अत्यन्त श्रद्धा है और उसकी गुरु भक्ति अतुल्य है। वर्षों बीत जाने पर भी उसके मन में गुरु के वचनों के प्रति विश्वास है की राम जी उसकी कुटिया में अवश्य आएँगे। अपना पूरा जीवन राम जी के चरणों में लगाकर अन्त में वह राम जी के चरणों में ही विलीन हो गई।
शबरी का स्मरण करते हुए आज का भाव चिन्तन यहीं सम्पन्न हुआ। इसके पश्चात् प्रश्नोत्तर हुए।
प्रश्नोत्तर:-
प्रश्नकर्ता:- योगेश गोयल
प्रश्न:- भगवान के क्या-क्या नाम हैं और देवताओं के क्या क्या-क्या नाम हैं?
उत्तर:- नाम से कुछ नहीं होता। भगवान ने चतुर्थ अध्याय के ग्याहरवें श्लोक में कहा:-
ये यथा माम् प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
जो जिस भाव से जिस नाम से मेरी उपासना करता है मैं उसे उसी भाव से उसी रूप में उसी श्रद्धा से मिल जाता हूँ, बात नाम की नहीं। भगवान विष्णु की उपासना यदि हम किसी देवता रूप में करेंगे तो वे परब्रह्म होते हुए भी हमें देवता रूप में ही प्राप्त होंगे और गणेश जी की उपासना परब्रह्म रूप में करेंगे तो वे देवता होते हुए भी परब्रह्म रूप में हमें मिल जानेंगे। परब्रह्म कण-कण में हैं, वे हमें किसी देवता गुरु या भगवान रूप में आराधना करने से मिल जायेंगे। भाव के कारण पत्थर भी भगवान रूप में प्रकट होते हैं।
प्रश्नकर्ता:- शिवांगी दीदी
प्रश्न:- पुरुष और प्रकृति में जो उत्तम है वह पुरुषोत्तम है,हम पुरुष और प्रकृति को कैसे पारिभाषिक करेंगे?
उत्तर:- हमारा यह शरीर प्रकृति है और शरीर के भीतर रहने वाला चैतन्य है वह पुरुष है। प्रकृति में विकार आते हैं, वह निरन्तर परिवर्तित होता है, किन्तु पुरुष अथवा आत्मा न बढ़ता है न अस्वस्थ होता है, न मरता है।
प्रश्न:- बच्चों को शास्त्र का ज्ञान कैसे प्राप्त करायें?
उत्तर:- बच्चों के साथ नित्य भोजन करें, भोजन करते समय उन्हें गीता प्रेस की विभिन्न कहानी संग्रहों से (वीर बालक, वीर बालिकाएँ, महाभारत की कहानियों आदि) कहानियाँ सुनायें। इससे पूरे घर का वातावरण सात्त्विक हो जाता है।
प्रश्नकर्ता:- शीतल दीदी
प्रश्न:- किसी का बुरा न करने पर भी लोग हमारी निन्दा ही करते रहते हैं, तो इन परिस्थितियों में हमें क्या करना चाहिए?
उत्तर:- इसके लिये मैं लक्ष्मण जी एवम् निषाद राज का एक दृष्टान्त बताता हूँ। लक्ष्मण जी एवम् निषाद राज की परस्पर वार्ता में निषाद राज ने कहा कि माता कैकेयी अत्यन्त कठोर हैं, जिन्होंने आप जैसे आज्ञाकारी सदाचारी बालकों को वन में भेजा। लक्ष्मी ने उन्हें तुरन्त रोका एवम् कहा-
काहु न कोउ सुख दु:ख के दाता।
निज कृत कर्म भोग सब भ्राता।।
सभी अपने ही कर्मों का फल प्राप्त करते हैं, कोई किसी के कष्टों का उत्तरदायी नहीं होता। इसलिये हमें किसी के प्रति दुर्भावना नहीं करनी चाहिए, सभी भगवान के प्रिय हैं। लोग मुझे अपना शत्रु मानें किन्तु हम किसी को अपना शत्रु नहीं मानेंगे, यह भावना मन में होनी चाहिए। भगवान ने कहा-‘अद्रोह नातिमानिता’ मैं किसी से द्रोह करता ही नहीं, मेरा कोई शत्रु नहीं, मैं किसी की अमंगल कामना नहीं कर सकता। यह भावना आने पर ही सच्ची भक्ति का उदय होता है। मैं ग़लत नहीं करूँगा, यह मेरे हाथ में है किन्तु दूसरे भी वैसा ही करें, यह मेरे हाथ में नहीं है। दूसरे व्यक्ति का व्यवहार मैं नहीं बदल सकता वह अपने अनुसार ही चलेगा। यदि हम AC के रिमोट से TV चलाना चाहें तो नहीं चलेगा, उसी प्रकार दूसरे का रिमोट कंट्रोल हमारे पास नहीं है, हम दूसरों को नियन्त्रित नहीं कर सकते, यह जैसे जैसे समझ में आयेगा हमारे दु:ख कम होने लगेंगे।
प्रश्नकर्ता:- कीर्ति गुप्ता
प्रश्न:- मन के विकार कैसे जानेंगे?
उत्तर:- करोड़ों करोड़ जन्मों के संस्कार होते हैं, किसी जन्म में हम हिंसक पशु रहे, किसी जन्म में गाय जैसे सात्त्विक पशु- पक्षी और किसी जन्म में मनुष्य, किसी में वृक्ष आदि योनियों में उत्पन्न हुये। मनुष्य को सब विकारों को शमन करने की क्षमता दी है।
भगवान ने कहा-
बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रन्थनि दावा।।
देवता भी कहते हैं कि मनुष्य योनि में जन्म लेने से धीरे धीरे करोड़ों जन्मों के पाप धुल जाते हैं। पर निरन्तर प्रयास में लगे रहना होगा।प्रश्नकर्ता:- गिरिजा दीदी
प्रश्न:- हम सब के साथ अच्छा करते हैं, तो दूसरे हमारे साथ बुरा क्यों करते हैं? हम ऐसे में क्या करें?
उत्तर:- भगवान ने हमें दूसरों का व्यवहार बदलने का अधिकार हमारे हाथ में दिया ही नहीं है। हम अपने को दोष रहित निर्विकार रख सकते हैं, अत: हमें स्वयं को ही नियन्त्रित करना है।