विवेचन सारांश
एकाग्र मन एवं बुद्धि द्वारा ईश्वर की प्राप्ति
गुरु वन्दना एवं दीप प्रज्वलन के साथ भक्तियोग नामक इस पवित्र अध्याय का प्रारम्भ हुआ। सगुण भक्ति या निर्गुण निराकार मार्ग एक ही है। सगुण साकार की उपासना, ईश्वर प्राप्ति के साथ संसार सागर से मुक्ति दिलाती है एवं भक्ति का आरम्भ होता है। अतः शिखर केवल एक ही है, भगवान में ही मन और बुद्धि लगाओ एवं मन और बुद्धि को अर्पण कर दो तो तुम विजयी हो ही जाओगे। भगवद्गीता का उद्देश्य ऊपर पहुँचना ही है। जो भी ऊपर पहुँचने अर्थात् यश, नाम एवं असीम आनन्द की प्राप्ति हेतु मन और बुद्धि दोनों को ईश्वर में अर्पण करेगा वह स्वतः ही ऊपर पहुँचेगा।
भगवद्गीता अर्जुन को विजयी एवं पराक्रमी बनाने के लिए दिया गया शास्त्र है। अर्जुन यशस्वी बनें एवं उनका गाण्डीव उनको पुनः मिले, यही भगवद्गीता सिखाती है। अतः मन और बुद्धि एकाग्र करने के लिए रात को एक मिनट के लिए शान्त बैठ जाएँ और मन और बुद्धि को एक ही दिशा में ले जाएँ। अब श्री कृष्ण शरणम् मम: का जप करते हुए सोते हुए साँस आगे पीछे करें। जब साँस अन्दर और बाहर होगी तो ऑक्सीजन भी अन्दर बाहर जाएगी। आपकी प्राण शक्ति बढ़ेगी। सुबह भी मन को एकाग्र कर प्राणायाम के द्वारा भगवान के सामने अर्पित करें एवं आपको आनन्द की प्राप्ति होगी। भगवान के सामने दो मिनट बैठो तो भाव से बैठो पूरा मन एकाग्र करके बैठो और बुद्धि भी झुके। यदि एक गृहणी, व्यवसायी या विद्यालय में पढ़ने वाला बच्चा एकाग्र होकर कार्य करेगा तो अपने उद्देश्य को अवश्य प्राप्त कर लेगा।
यही इस अध्याय का उद्देश्य है। जो भी करें मन व भक्ति से करें। पङ्खा घूमता है तो बहुत सारी पङ्खुड़ियाँ दिखती हैं किन्तु जब वह रुकता है तो तीन ही होती हैं। इस तरह हमें लगता है कि हमारे मन में बहुत सारे विचार हैं किन्तु एक समय में मन में केवल एक ही विचार रह सकता है। एक विचार जाता है तभी दूसरा विचार आ सकता है। मन को एकाग्र करें।
भगवद्गीता अर्जुन को विजयी एवं पराक्रमी बनाने के लिए दिया गया शास्त्र है। अर्जुन यशस्वी बनें एवं उनका गाण्डीव उनको पुनः मिले, यही भगवद्गीता सिखाती है। अतः मन और बुद्धि एकाग्र करने के लिए रात को एक मिनट के लिए शान्त बैठ जाएँ और मन और बुद्धि को एक ही दिशा में ले जाएँ। अब श्री कृष्ण शरणम् मम: का जप करते हुए सोते हुए साँस आगे पीछे करें। जब साँस अन्दर और बाहर होगी तो ऑक्सीजन भी अन्दर बाहर जाएगी। आपकी प्राण शक्ति बढ़ेगी। सुबह भी मन को एकाग्र कर प्राणायाम के द्वारा भगवान के सामने अर्पित करें एवं आपको आनन्द की प्राप्ति होगी। भगवान के सामने दो मिनट बैठो तो भाव से बैठो पूरा मन एकाग्र करके बैठो और बुद्धि भी झुके। यदि एक गृहणी, व्यवसायी या विद्यालय में पढ़ने वाला बच्चा एकाग्र होकर कार्य करेगा तो अपने उद्देश्य को अवश्य प्राप्त कर लेगा।
यही इस अध्याय का उद्देश्य है। जो भी करें मन व भक्ति से करें। पङ्खा घूमता है तो बहुत सारी पङ्खुड़ियाँ दिखती हैं किन्तु जब वह रुकता है तो तीन ही होती हैं। इस तरह हमें लगता है कि हमारे मन में बहुत सारे विचार हैं किन्तु एक समय में मन में केवल एक ही विचार रह सकता है। एक विचार जाता है तभी दूसरा विचार आ सकता है। मन को एकाग्र करें।
12.11
अथैतदप्यशक्तोऽसि, कर्तुं(म्) मद्योगमाश्रितः|
सर्वकर्मफलत्यागं(न्), ततः(ख्) कुरु यतात्मवान्||11||
अगर मेरे योग (समता) के आश्रित हुआ (तू) इस (पूर्व श्लोक में कहे गये साधन) को भी करने में (अपने को) असमर्थ (पाता) है, तो मन इन्द्रियों को वश में करके सम्पूर्ण कर्मों के फल की इच्छा का त्याग कर।
विवेचन:- श्रीभगवान कहते हैं कि यदि तू अभ्यास करने में असमर्थ है तो जो भी काम कर रहा है तो उसे मन में मुझे रखकर कर। यदि तू मन मुझको समर्पित करेगा तो तुझे अपने आप सिद्धियाँ प्राप्त होने लगेंगी। शिक्षक यदि विद्यार्थी को ईश्वर तुल्य समझ कर पढ़ाएँ, व्यापारी ग्राहक में ईश्वर देखें एवं गृहणी खाना बनाते समय भगवान को अर्पित करने के लिए खाना बनाएँ। अपने भावों की दिशा बदल दें और फल को समर्पित कर दें, तब ही सब मुझे प्राप्त कर सकते हैं।
नेपाल के एक व्यक्ति ने एक बार कहा कि उसके बेटे ने हार्वर्ड में एडमिशन लेने के लिए दो बार परीक्षा दी किन्तु वह पास नहीं हो पाया इसलिए निराश हो गया है। उसे समझाया गया कि तुम फल की अपेक्षा छोड़ दो। ज्ञान प्राप्ति के लिए पढ़ाई करो, बिना तनाव के परीक्षा दो। उसने दस दिन तक मेहनत की और जब परिणाम आया तो ज्ञात हुआ कि उन्होंने परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है। जब हम फल की अपेक्षा को त्याग देते हैं तो परिणाम बढ़ जाता है और हम विजय को प्राप्त करते हैं। हम जीतेंगे या हारेंगे, इस फल की अपेक्षा को त्याग कर यदि हम कार्य करें, जो भी कार्य करें, पूर्ण मन से करें, चाहे वह व्यवसाय हो, घर हो अथवा कुछ और, किसी भी फल की इच्छा न रखें एवं वर्तमान में जीएँ। "न भूतो न भविष्यति" न भूत का सोच न भविष्य का और प्रत्येक कार्य को भगवान को समर्पित करते चलें तो हमारा जीवन भी सुन्दर होगा और ऐसा भक्त भगवान को अत्यन्त प्रिय है।
नेपाल के एक व्यक्ति ने एक बार कहा कि उसके बेटे ने हार्वर्ड में एडमिशन लेने के लिए दो बार परीक्षा दी किन्तु वह पास नहीं हो पाया इसलिए निराश हो गया है। उसे समझाया गया कि तुम फल की अपेक्षा छोड़ दो। ज्ञान प्राप्ति के लिए पढ़ाई करो, बिना तनाव के परीक्षा दो। उसने दस दिन तक मेहनत की और जब परिणाम आया तो ज्ञात हुआ कि उन्होंने परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है। जब हम फल की अपेक्षा को त्याग देते हैं तो परिणाम बढ़ जाता है और हम विजय को प्राप्त करते हैं। हम जीतेंगे या हारेंगे, इस फल की अपेक्षा को त्याग कर यदि हम कार्य करें, जो भी कार्य करें, पूर्ण मन से करें, चाहे वह व्यवसाय हो, घर हो अथवा कुछ और, किसी भी फल की इच्छा न रखें एवं वर्तमान में जीएँ। "न भूतो न भविष्यति" न भूत का सोच न भविष्य का और प्रत्येक कार्य को भगवान को समर्पित करते चलें तो हमारा जीवन भी सुन्दर होगा और ऐसा भक्त भगवान को अत्यन्त प्रिय है।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्, ज्ञानाद्ध्यानं(व्ँ) विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्याग:(स्),त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥12.12॥
अभ्यास से शास्त्रज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है (और) ध्यान से (भी) सब कर्मों के फल की इच्छा का त्याग (श्रेष्ठ है)। क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति प्राप्त हो जाती है।
विवेचन:- अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से कर्म फल की इच्छा का त्याग श्रेष्ठ है। जब हम कर्म फल का त्याग कर देते हैं तो हमें गहरी शान्ति प्राप्त हो जाती है। अशान्ति का मूल कारण अपेक्षा है। अपेक्षा ही दु:ख की जड़ है। यदि हम अपेक्षा को त्याग देंगे तो अत्यन्त आनन्द प्राप्त करेंगे। भगवान के कार्य करने के लिए अपने आप को निमित्त मात्र समझें। हम यह न सोचें कि यह कार्य मैं कर रहा हूँ। मैं को निकाल दें तो हमें भगवान मिलेंगे और भक्ति का जो स्रोत हमारे अन्दर प्रवाहित होगा उसको हम शब्दों में नहीं बता सकते। अतः अपेक्षा छोड़ें।
सास अपनी बहू से अपेक्षा रखती है इसलिए दु:खी रहती है। यदि वह अपेक्षा छोड़ दे तो उसके बाद बहू कोई कार्य करेगी तो वह खुश होगी। हम अपने बच्चों को बड़ा करें तो यह न सोचें कि वह बुढ़ापे में हमारा सहारा बनेंगे। तब हमें दु:ख नहीं होगा। कर्म फल का त्याग कर दें वह भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है। वृक्ष की शाखा पर फल लगते हैं किन्तु वह कभी नहीं सोचते कि यह मैं ले लूँ। पहाड़ों के ऊपर वर्षा होती है किन्तु वह भी बह जाती है। रेगिस्तान में खेती होती है। कभी-कभी हम स्वप्न में मन्त्री बन जाते हैं। जीवन को भी एक सपना समझकर उसके हर पल को जीएँ एवं फल की चिन्ता न करें तो यह जीवन सुन्दर बन जाएगा। बेटी पराई होती है, तब भी हम उसका पालन-पोषण ऐसे ही करते हैं जैसे कि वह मेरी अपनी है। हमें उस फल की अपेक्षा नहीं होती है अतः जो फल को त्याग कर कार्य करता है, वह भक्त मुझे प्रिय है आकाङ्क्षा का त्याग करना एवं फल की इच्छा न रखना ही सही भक्त के लक्षण है।
सास अपनी बहू से अपेक्षा रखती है इसलिए दु:खी रहती है। यदि वह अपेक्षा छोड़ दे तो उसके बाद बहू कोई कार्य करेगी तो वह खुश होगी। हम अपने बच्चों को बड़ा करें तो यह न सोचें कि वह बुढ़ापे में हमारा सहारा बनेंगे। तब हमें दु:ख नहीं होगा। कर्म फल का त्याग कर दें वह भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है। वृक्ष की शाखा पर फल लगते हैं किन्तु वह कभी नहीं सोचते कि यह मैं ले लूँ। पहाड़ों के ऊपर वर्षा होती है किन्तु वह भी बह जाती है। रेगिस्तान में खेती होती है। कभी-कभी हम स्वप्न में मन्त्री बन जाते हैं। जीवन को भी एक सपना समझकर उसके हर पल को जीएँ एवं फल की चिन्ता न करें तो यह जीवन सुन्दर बन जाएगा। बेटी पराई होती है, तब भी हम उसका पालन-पोषण ऐसे ही करते हैं जैसे कि वह मेरी अपनी है। हमें उस फल की अपेक्षा नहीं होती है अतः जो फल को त्याग कर कार्य करता है, वह भक्त मुझे प्रिय है आकाङ्क्षा का त्याग करना एवं फल की इच्छा न रखना ही सही भक्त के लक्षण है।
अद्वेष्टा सर्वभूतानां(म्), मैत्रः(ख्) करुण एव च|
निर्ममो निरहङ्कारः(स्), समदुःखसुखः क्षमी||13||
सब प्राणियों में द्वेषभाव से रहित और मित्र भाव वाला (तथा) दयालु भी (और) ममता रहित, अहंकार रहित, सुख दुःख की प्राप्ति में सम, क्षमाशील, निरन्तर सन्तुष्ट, योगी, शरीर को वश में किये हुए, दृढ़ निश्चयवाला, मुझ में अर्पित मन बुद्धि वाला जो मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है। (12.13-12.14)
विवेचन:- जो द्वेष एवं घृणा से मुक्त होता है। जिसके अन्तर्मन में द्वेष एवं घृणा का भाव नहीं होता है, जो शरणागत होता है वह भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है। यदि छिपकली हमारे घर के अन्दर आए और हम डर गए, हमारे अन्दर द्वेष आ गया तब फिर कोई औचित्य नहीं है। सबके लिए प्रेम एवं मैत्री का भाव रखने वाला और सुख-दु:ख में समान रहने वाला भक्त मुझे प्रिय है ।
सुख और दु:ख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सुख का अन्तिम छोर ही दु:ख है। यदि हम वातानुकूलित स्थान में बैठे हैं तो हमें अच्छा लग रहा है, किन्तु थोड़ी देर में बिजली चली जाती है एवं हमें गर्मी लगने लगती है, पसीना आता है, दोनों ही में सम रहना ही उत्तम भक्ति के लक्षण हैं
। यदि किसी का देहान्त हो जाता है तो दु:ख होना अनिवार्य है, किन्तु धीरे-धीरे वह कम हो जाता है। इसी तरह यदि कोई बच्चा क्रिकेट खेलता है तो उसके पढ़ाई में अङ्क कम आएँगे। इसका एक दूसरा उदाहरण है- एक प्राध्यापक हैं, उनको छठा वेतन आयोग मिला तो उन्होंने खुशी-खुशी में कार खरीदी और अपने ग्यारह साल के बच्चे को ही कार चलाने को दे दी। बच्चे की कार से दुर्घटना हो गई एवं उन प्राध्यापक के हाथ और पैर फ्रेक्चर हो गए। सुख तो आया था किन्तु अति उत्साह होने के कारण वह दु:ख में परिवर्तित हो गया। अतः सुख व दु:ख दोनों में सामान रहें। हम क्षमाशील बनें। यदि कोई भूल कर भी रहा है तो उससे भी प्रेम करें। मन और बुद्धि दोनों को जो अर्पण कर दे, वही भक्त मुझे प्रिय हैं।
सुख और दु:ख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सुख का अन्तिम छोर ही दु:ख है। यदि हम वातानुकूलित स्थान में बैठे हैं तो हमें अच्छा लग रहा है, किन्तु थोड़ी देर में बिजली चली जाती है एवं हमें गर्मी लगने लगती है, पसीना आता है, दोनों ही में सम रहना ही उत्तम भक्ति के लक्षण हैं
। यदि किसी का देहान्त हो जाता है तो दु:ख होना अनिवार्य है, किन्तु धीरे-धीरे वह कम हो जाता है। इसी तरह यदि कोई बच्चा क्रिकेट खेलता है तो उसके पढ़ाई में अङ्क कम आएँगे। इसका एक दूसरा उदाहरण है- एक प्राध्यापक हैं, उनको छठा वेतन आयोग मिला तो उन्होंने खुशी-खुशी में कार खरीदी और अपने ग्यारह साल के बच्चे को ही कार चलाने को दे दी। बच्चे की कार से दुर्घटना हो गई एवं उन प्राध्यापक के हाथ और पैर फ्रेक्चर हो गए। सुख तो आया था किन्तु अति उत्साह होने के कारण वह दु:ख में परिवर्तित हो गया। अतः सुख व दु:ख दोनों में सामान रहें। हम क्षमाशील बनें। यदि कोई भूल कर भी रहा है तो उससे भी प्रेम करें। मन और बुद्धि दोनों को जो अर्पण कर दे, वही भक्त मुझे प्रिय हैं।
सन्तुष्टः(स्) सततं(य्ँ) योगी, यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धि:(र्), यो मद्भक्तः(स्) स मे प्रियः॥12.14॥
विवेचन:- एक उत्तम भक्त सन्तुष्ट होता है एवं योगी की तरह व्यवहार करता है। वह क्षमाशील होता है। यदि कोई चिढ़ा रहा है तो उसे फर्क नहीं पड़ता। जो नेता होते हैं उनके बारे में कुछ भी बोला जाता है, किन्तु वह अपने कार्य में समर्पित रहते हैं। उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि कौन क्या बोल रहा है, क्योंकि यदि हम इसमें दिमाग लगाएँगे तो अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाएँगे। अतः किसी पर ध्यान न देते हुए जो आगे बढ़ता है वही उत्तम भक्त है।
किसी बच्चे को कोई मोटा बोलकर चिढ़ाये तो वह चिढ़ता था, किन्तु उसे जब समझाया गया। अब उसे कोई भी मोटा बोलता है तो वह कहता है कि मैं खाता पीता हूँ इसलिए मोटा हूँ। चिढ़ता नहीं है। अतः हमें किसी और को अपना रिमोट कण्ट्रोल नहीं देना चाहिए। यदि वह चिढ़ा रहा है तो हमें नहीं चिढ़ना चाहिए, दर्द निश्चित रूप से नहीं होना चाहिए। जो मुझे मन और बुद्धि को अर्पित कर देता है एवं मेरी शरण में रहता है, वह भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।
किसी बच्चे को कोई मोटा बोलकर चिढ़ाये तो वह चिढ़ता था, किन्तु उसे जब समझाया गया। अब उसे कोई भी मोटा बोलता है तो वह कहता है कि मैं खाता पीता हूँ इसलिए मोटा हूँ। चिढ़ता नहीं है। अतः हमें किसी और को अपना रिमोट कण्ट्रोल नहीं देना चाहिए। यदि वह चिढ़ा रहा है तो हमें नहीं चिढ़ना चाहिए, दर्द निश्चित रूप से नहीं होना चाहिए। जो मुझे मन और बुद्धि को अर्पित कर देता है एवं मेरी शरण में रहता है, वह भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।
यस्मान्नोद्विजते लोको, लोकान्नोद्विजते च यः|
हर्षामर्षभयोद्वेगै:(र्), मुक्तो यः(स्) स च मे प्रियः||15||
जिससे कोई भी प्राणी उद्विग्न (क्षुब्ध) नहीं होता और जो स्वयं भी किसी प्राणी से उद्विग्न नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (ईर्ष्या), भय और उद्वेग (हलचल) से रहित है, वह मुझे प्रिय है।
विवेचन:- जिसके कारण किसी भी प्राणी को पीड़ा नहीं पहुँच रही है, जो शब्दों से दूसरे के मन को घायल नहीं करते, जिनकी किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं है, जिसे किसी से घृणा नहीं आती वह भक्त मुझे सबसे ज्यादा प्रिय है।
यदि हम किसी से घृणा करते हैं या गुस्सा करते हैं तो हमारे अन्दर ही शुगर एवं बीपी बढ़ता है। दूसरों ने तुम्हारे साथ गलत किया उसके कारण हमें कभी भी अपनी भावनाओं को विचलित नहीं करना चाहिए।
"जीवन की एबीसीडी में ए एक लाइफ, बी बर्थ मतलब जीवन एवं डी डेथ मतलब मृत्यु हमारे हाथ में नहीं है किन्तु सी मतलब चॉइस या निर्णय यह हमारे हाथ में है"।
अतः हमें निर्णय लेना है कि हमें शत्रुता करनी है या क्षमा कर अपने मन को शान्त करना है। हमारा मन विचलित न हो हर्ष एवं दुःख आदि में हम विचलित न हो। कई बार प्रतिक्रिया होती है, अर्थात् बिना सोचे समझे कुछ भी कर देना और कई बार रिस्पांस होता है मतलब धीरे से सोच कर, समझ कर शान्ति से इस बात को कहना। अतः हम हमेशा प्रसन्न चेहरा रखें एवं क्षमा करें। जब हम दिया जलाते हैं तो शत्रु बुद्धि विनाशाय कहते हैं। शत्रु की बुद्धि का विनाश हो न कि शत्रु का। अतः सभी प्राणीयों से प्रेम करते हुए सबको क्षमा करें।
एक बार एक पति एक एयर होस्टेस का मुस्कुराता चेहरा देखकर अपनी पत्नी को बोलते हैं कि, देखो वह कितना सुन्दर चेहरा है। वह हमेशा हँसती रहती है। वह तो कृत्रिम मुस्कान थी लेकिन पति-पत्नी में झगड़ा हो जाता है। अतः इस तरह की स्थितियों से बचें। इससे ऊपर उठकर भगवद् भक्ति को प्राप्त करने का प्रयास करें।
यदि हम किसी से घृणा करते हैं या गुस्सा करते हैं तो हमारे अन्दर ही शुगर एवं बीपी बढ़ता है। दूसरों ने तुम्हारे साथ गलत किया उसके कारण हमें कभी भी अपनी भावनाओं को विचलित नहीं करना चाहिए।
"जीवन की एबीसीडी में ए एक लाइफ, बी बर्थ मतलब जीवन एवं डी डेथ मतलब मृत्यु हमारे हाथ में नहीं है किन्तु सी मतलब चॉइस या निर्णय यह हमारे हाथ में है"।
अतः हमें निर्णय लेना है कि हमें शत्रुता करनी है या क्षमा कर अपने मन को शान्त करना है। हमारा मन विचलित न हो हर्ष एवं दुःख आदि में हम विचलित न हो। कई बार प्रतिक्रिया होती है, अर्थात् बिना सोचे समझे कुछ भी कर देना और कई बार रिस्पांस होता है मतलब धीरे से सोच कर, समझ कर शान्ति से इस बात को कहना। अतः हम हमेशा प्रसन्न चेहरा रखें एवं क्षमा करें। जब हम दिया जलाते हैं तो शत्रु बुद्धि विनाशाय कहते हैं। शत्रु की बुद्धि का विनाश हो न कि शत्रु का। अतः सभी प्राणीयों से प्रेम करते हुए सबको क्षमा करें।
एक बार एक पति एक एयर होस्टेस का मुस्कुराता चेहरा देखकर अपनी पत्नी को बोलते हैं कि, देखो वह कितना सुन्दर चेहरा है। वह हमेशा हँसती रहती है। वह तो कृत्रिम मुस्कान थी लेकिन पति-पत्नी में झगड़ा हो जाता है। अतः इस तरह की स्थितियों से बचें। इससे ऊपर उठकर भगवद् भक्ति को प्राप्त करने का प्रयास करें।
अनपेक्षः(श्) शुचिर्दक्ष, उदासीनो गतव्यथः|
सर्वारम्भपरित्यागी, यो मद्भक्तः(स्) स मे प्रियः||16||
जो अपेक्षा (आवश्यकता) से रहित, (बाहर-भीतर से) पवित्र, चतुर, उदासीन, व्यथा से रहित (औरः सभी आरम्भों का अर्थात् नये-नये कर्मों के आरम्भ का सर्वथा त्यागी है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है।
विवेचन:- जो अपेक्षा नहीं करता, जो फल का त्याग कर देता है, जिसके अन्तर्मन में निर्मलता होती है, जो हमेशा अपने मन और विचारों के प्रति सावधान रहता है, जिसका शत्रु के साथ भी सम व्यवहार होता है, जो शत्रुता के काँटे को दिल में लेकर आगे नहीं बढ़ता, भगवान को पाना ही जिसका उद्देश्य होता है, जिसमें कोई छल-कपट या दिखावा प्रवेश नहीं कर सकता।
जिस तरह जब हम गङ्गा जी में नहाने जाते हैं तो पहले पानी देखकर ठण्ड से कँपकँपाते हैं, किन्तु हम जब उसमें गोता लगा देते हैं तब हमें अच्छा लगने लगता है। अतः न ठण्ड ने अन्दर प्रवेश किया न गर्मी ने विचार ही बदले। अतः सुख-दु:ख में जो आसक्ति रहित रहता है, वह भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है। जो उदासीन है, दु:खों से मुक्त है।
कोरोना के समय एक गीता सेवी के पति की मृत्यु हुई, किन्तु शाम को उन्होंने गीता का पाठ सिखाया। जब उनसे पूछा गया कि आपको दु:ख नहीं हुआ तो उन्होंने कहा मुझे दु:ख तो बहुत था, किन्तु मैंने यह सोचा कि अगर गीता का पाठ चलेगा तो इससे शुभ कुछ नहीं हो सकता। मैंने अपने दु:ख को छुपा कर बहुत ही अच्छे मन से गीता का पाठ किया। अतः यह समझ आना ही सच्चे भक्त के लक्षण हुए। ईश्वर ने सिर्फ हमें निमित्त बनाया है। अतः जो सुख और दु:ख से परे हो गया है, वह भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।
जिस तरह जब हम गङ्गा जी में नहाने जाते हैं तो पहले पानी देखकर ठण्ड से कँपकँपाते हैं, किन्तु हम जब उसमें गोता लगा देते हैं तब हमें अच्छा लगने लगता है। अतः न ठण्ड ने अन्दर प्रवेश किया न गर्मी ने विचार ही बदले। अतः सुख-दु:ख में जो आसक्ति रहित रहता है, वह भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है। जो उदासीन है, दु:खों से मुक्त है।
कोरोना के समय एक गीता सेवी के पति की मृत्यु हुई, किन्तु शाम को उन्होंने गीता का पाठ सिखाया। जब उनसे पूछा गया कि आपको दु:ख नहीं हुआ तो उन्होंने कहा मुझे दु:ख तो बहुत था, किन्तु मैंने यह सोचा कि अगर गीता का पाठ चलेगा तो इससे शुभ कुछ नहीं हो सकता। मैंने अपने दु:ख को छुपा कर बहुत ही अच्छे मन से गीता का पाठ किया। अतः यह समझ आना ही सच्चे भक्त के लक्षण हुए। ईश्वर ने सिर्फ हमें निमित्त बनाया है। अतः जो सुख और दु:ख से परे हो गया है, वह भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि, न शोचति न काङ्क्षति|
शुभाशुभपरित्यागी, भक्तिमान्यः(स्) स मे प्रियः||17||
जो न (कभी) हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है (और) जो शुभ-अशुभ कर्मों से ऊँचा उठा हुआ (राग-द्वेष रहित) है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।
विवेचन:- जो आकाङ्क्षा से परे है, जो हर्ष से परे है, सुख-दु:ख से अनासक्त रहने वाला, न शोक करने वाला, न आकाङ्क्षा करने वाला, शुभ-अशुभ दोनों का को त्याग करने वाला है, वह सच्चा भक्त है। शत्रु के साथ भी जो अच्छा व्यवहार करे, वह भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय है। अर्जुन ने कृष्ण जी को विराट रूप में देखा। उनके मुख से अग्नि प्रज्वलित हो रही थी। जिसमें बहुत सारे जीव जन्तु और राक्षस भस्म हो रहे थे।
समः(श्) शत्रौ च मित्रे च, तथा मानापमानयोः|
शीतोष्णसुखदुःखेषु, समः(स्) सङ्गविवर्जितः||18||
(जो) शत्रु और मित्र में तथा मान-अपमान में सम है (और) शीत-उष्ण (शरीर की अनुकूलता-प्रतिकूलता) तथा सुख-दुःख (मन बुद्धि की अनुकूलता-प्रतिकूलता) में सम है एवं आसक्ति रहित है (और) जो निन्दा स्तुति को समान समझने वाला, मननशील, जिस किसी प्रकार से भी (शरीर का निर्वाह होने न होने में) संतुष्ट, रहने के स्थान तथा शरीर में ममता आसक्ति से रहित (और) स्थिर बुद्धिवाला है, (वह) भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है। (12.18-12.19)
विवेचन:- जो शत्रु एवं मित्र, मान एवं अपमान, सुख-दु:ख सब में समान है, जिसको निन्दा और स्तुति से कोई फर्क नहीं पड़ता, शत्रु के साथ और मित्र के साथ समान व्यवहार करता है, जो क्षमा करता है। इस छोटी सी जिन्दगी में वह बदला लेने का भाव हृदय में लेकर नहीं जीता है, यदि उसके हृदय में काँटा चुभा भी है तो वह अपने आप को विचलित नहीं करता अथवा उससे बात करके क्षमा कर देता है और उसे छोड़कर आगे बढ़ जाता है। जो सुख-दु:ख में आसक्ति से परे है, वही भक्त मुझे प्रिय है। कर्ता मैं नहीं हूँ, करने वाला कोई और है। अतः इस तरह की सोच रखने वाला और स्थिर बुद्धि वाला भक्त मुझे प्रिय है।
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी, सन्तुष्टो येन केनचित्|
अनिकेतः(स्) स्थिरमति:(र्), भक्तिमान्मे प्रियो नरः||19||
विवेचन:- जो भक्त निन्दा एवं स्तुति में समान है, जो अन्दर से कभी विचलित नहीं होता, जो एकदम सन्तुलन में है, ऐसा भक्त मुझे प्रिय है। जिस तरह आकाश में काले बदल आते हैं, कभी सफेद बादल आते हैं, कभी पानी से भरे बादल होते हैं, कभी खाली बादल होते हैं, किन्तु फिर भी आकाश को कोई फर्क नहीं पड़ता। इस तरह जिसका मन पूरी तरह ईश्वर में केन्द्रित है।
जब हम उपवास करते हैं तो हमारा ध्यान पूरा भगवान में हो न कि खाने पर। इस तरह मन को एकाग्र करके बुद्धि को भगवान में समर्पित करना ही सच्चे भक्त के लक्षण हैं। एक बार बुद्ध भगवान के ऊपर किसी ने थूक दिया, उन्होंने उससे पूछा और कुछ कहना है? जिस व्यक्ति ने थूका था उसको बहुत ज्यादा पछतावा हुआ और उसने दूसरे दिन जाकर बुद्ध जी को फूलों की माला पहनाई एवं उनके पैर छुए, तब भी बुद्ध भगवान ने पूछा; क्या तुम्हें कुछ कहना है? उसने कहा नहीं! उनके शिष्यों को आश्चर्य हुआ कि उसने आपके ऊपर थूका और फिर दूसरे दिन उसने आपको माला पहनाई। दोनों परिस्थितियों में आपको न गुस्सा आया और न ही हर्ष हुआ, ऐसा क्यों? तब उन्होंने कहा कि यह दोनों बाहर हुआ था। मैं अन्दर नहीं ले गया, अतः जो चिन्ता अन्दर नहीं जाती, उसका कोई औचित्य नहीं है। भक्ति मार्ग भी यही सिखाता है।
जब हम उपवास करते हैं तो हमारा ध्यान पूरा भगवान में हो न कि खाने पर। इस तरह मन को एकाग्र करके बुद्धि को भगवान में समर्पित करना ही सच्चे भक्त के लक्षण हैं। एक बार बुद्ध भगवान के ऊपर किसी ने थूक दिया, उन्होंने उससे पूछा और कुछ कहना है? जिस व्यक्ति ने थूका था उसको बहुत ज्यादा पछतावा हुआ और उसने दूसरे दिन जाकर बुद्ध जी को फूलों की माला पहनाई एवं उनके पैर छुए, तब भी बुद्ध भगवान ने पूछा; क्या तुम्हें कुछ कहना है? उसने कहा नहीं! उनके शिष्यों को आश्चर्य हुआ कि उसने आपके ऊपर थूका और फिर दूसरे दिन उसने आपको माला पहनाई। दोनों परिस्थितियों में आपको न गुस्सा आया और न ही हर्ष हुआ, ऐसा क्यों? तब उन्होंने कहा कि यह दोनों बाहर हुआ था। मैं अन्दर नहीं ले गया, अतः जो चिन्ता अन्दर नहीं जाती, उसका कोई औचित्य नहीं है। भक्ति मार्ग भी यही सिखाता है।
ये तु धर्म्यामृतमिदं(य्ँ), यथोक्तं(म्) पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा, भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥12.20॥
परन्तु जो (मुझ में) श्रद्धा रखने वाले (और) मेरे परायण हुए भक्त इस धर्ममय अमृत का जैसा कहा कहा है, (वैसा ही) भली भांति सेवन करते हैं, वे मुझे अत्यन्त प्रिय हैं।
विवेचन:- वह भक्त मुझे सबसे ज्यादा प्रिय है जो धर्म का अमृत, जैसा मैंने दिया है, जैसा मैंने बोला है, वैसा ही ग्रहण करता है, वैसा ही आचरण करता है। ऐसे श्रद्धावन भक्त मुझे मिल जाते हैं और भक्त को मैं मिल जाता हूँ। एक मिनट का अभ्यास "श्री कृष्ण शरणम् मम्" अवश्य करें। मस्तिष्क से लेकर पूरे शरीर तक समर्पण का भाव एवं मन, बुद्धि व विचार में एकाग्रता ही सच्चे भक्त का लक्षण है। भगवद्गीता एक महामन्त्र है। युवावस्था या बुढ़ापे का साधन नहीं, अपितु युवावस्था का पराक्रम है। यह शास्त्र है विजयी होने का, यह शास्त्र है स्वयं भगवान के द्वारा दिया गया भक्तों के उद्धार का। वह अनमोल है। इन्हीं शब्दों के साथ भगवद्गीता का बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।
प्रश्नोत्तर सत्र:-
प्रश्नकर्ता :- निकिता दीदी
प्रश्न :- छोटों को बड़ों का और बड़ों को छोटों का आदर करना चाहिए। यदि कोई बड़ा किसी छोटे का आदर नहीं करता है तो उस स्थिति में हमें क्या करना चाहिए?
उत्तर :- यह पूर्ण रूप से आपकी चॉइस या पसन्द का विषय है। आपको क्षमाशील बनना चाहिए। क्षमाशीलता एक दैवी गुण सम्पदा है। किसी के मान सम्मान देने पर आपकी प्रसन्नता निर्भर करती है तो यह बात ठीक नहीं है।
प्रश्नकर्ता :- विशाल भैया
प्रश्न :- मन और बुद्धि दोनों एक हैं या अलग-अलग हैं?
उत्तर :- मन और बुद्धि दोनों अलग-अलग हैं। मन में विवेक नहीं होता जबकि बुद्धि में विवेक और स्मृतियाँ होती हैं। मन सकारात्मक भी होता है और नकारात्मक भी। हमें मन को सकारात्मकता की ओर बढ़ाना चाहिए। मन के ऊपर सदैव बुद्धि हावी रहनी चाहिए क्योंकि बुद्धि के पास विवेक होता है, जो हमें सही और गलत में अन्तर करना सिखाती है। मन को गलत समझना भी ठीक नहीं है क्योंकि मन अत्यधिक बलशाली होता है। यदि मन में कुछ ठान लो तो वह आप अवश्य कर पाते हो, किन्तु उस पर विवेक बुद्धि का अङ्कुश होना आवश्यक है।
प्रश्नकर्ता :- विष्णु दीदी
प्रश्न :- ग्यारहवें श्लोक की प्रथम पंक्ति का अर्थ पुनः समझा दीजिए।
उत्तर :- पूर्व में, दसवें श्लोक में बताए अनुसार भी यदि करने में असमर्थ हों तो क्या करना चाहिए, यह बताया गया है।
प्रश्नकर्ता :- उमेश भैया
प्रश्न :- कर्म करके फल की इच्छा का त्याग करने को कहा गया है किन्तु फल की इच्छा किए बिना हम प्रोत्साहित (मोटिवेटेड) कैसे रहेंगे, कि हमें यह कार्य करना ही है?
उत्तर :- श्रीभगवान ने अर्जुन को युद्ध का त्याग करने से रोका था। भगवान कह रहे हैं भागो नहीं जागो। आपको अपना कर्म तो करना ही है, फल भी आपको अवश्य प्राप्त होगा किन्तु आपको जो इच्छित फल की अभिलाषा है, वह आपको छोड़नी है। आपको अपने कर्म पर ध्यान लगाकर कार्य करना है, किन्तु उससे प्राप्त होने वाले फल से न तो अधिक हर्षित होना है और न ही दु:खी होना है। विद्यार्थियों को अच्छे अङ्क प्राप्त नहीं होते हैं अथवा व्यवसायियों को व्यवसाय में घाटा होता है अथवा अच्छी फसल नहीं होती है तो किसान आत्महत्या कर लेते हैं। यह मार्ग सही नहीं है। अर्जुन भी प्राण त्यागने को तैयार हो गए थे किन्तु भगवान ने उन्हें रोका, न प्राण त्यागने हैं, न पलायन करना है। तुम्हें फलाकाङ्क्षा को छोड़ते हुए अपना कर्म करना है, यही भगवान ने अर्जुन को कहा था। यही भगवान हमसे चाहते हैं। हम सभी फलाकाङ्क्षा को छोड़कर अपना कर्म पूर्ण मनोयोग से करें और जो भी फल प्राप्त हो उसे सहर्ष स्वीकार करें। कर्म चिन्ता में डालता है और कर्मयोग आपको मस्त कर देता है। कर्म आपकी वृद्धि करता है और कर्मयोग आपकी समृद्धि करता है।
प्रश्नकर्ता :- स्नेहा दीदी
प्रश्न :- भगवद्गीता और भागवत पुराण में क्या अन्तर है?
उत्तर :- जो भगवान के मुख से अर्जुन को कही गई वह गीता श्रीमद्भगवद्गीता है। भागवत पुराण एक बड़ा ग्रन्थ है, उसमें महाभारत भी है और भगवद्गीता भी है। उसमें विष्णु भगवान के सभी अवतारों और उनकी लीलाओं का वर्णन है। उसे हम श्रीमद्भग्वद्गीता कहते हैं।
प्रश्नकर्ता :- स्नेहा दीदी
प्रश्न :- बीसवें श्लोक एवं पुष्पिका का अर्थ बताइए।
उत्तर :- भगवान ने जो अट्ठारह श्लोकों में धर्म का अमृत दिया है, उसका ठीक से बताए अनुसार जो प्राशन करता है तो ऐसे मेरे परायण भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय लगते हैं।
इसके बाद पुष्पिका में लिखा है-
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे, श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः॥
तत्सदिति, अर्थात् यह अध्याय यहाँ समाप्त होता है। श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु, अर्थात् ये जो श्रीमद्भगवद्गीता है यह उपनिषदों का सार है, ब्रह्मविद्यायां(य्ँ), अर्थात् ब्रह्मविद्या भी है, योगशास्त्रे अर्थात् योगशास्त्र भी है, श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्थात् श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद भी है। भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः अर्थात् भक्तियोग नाम का बारहवाँ अध्याय यहाँ सम्पूर्ण हुआ।
प्रश्नकर्ता :- देवेन्द्र भैया
प्रश्न :- श्रीमद्भगवद्गीता का क्या अर्थ है?
उत्तर :- भगवद् का अर्थ भगवान। जैसे हम श्रीमान कहते हैं वैसे ही भगवान को श्रीमद् कहते हैं। श्री अर्थात् शुभलक्ष्मी से युक्त विष्णु जी के अवतार भगवान श्रीकृष्ण के मुख से निकला ये गीत है, इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता कहते हैं। गीता और भी हैं। जैसे अष्टावक्र गीता आदि।
प्रश्नकर्ता :- दिलीप भैया
प्रश्न :- श्रीकृष्णम् शरणम् मम् का अभ्यास किस प्रकार करना है?
उत्तर :- सर्वप्रथम सीधे बैठ जाइए क्योंकि हमारे सारे चक्र सीध में होते हैं व हमारे फेफड़े भी खुल जाते हैं। उसके बाद बड़ी ही शान्ति से आँखें बन्द कर लें। तत्पश्चात भृकुटि के मध्य में ध्यान धारण करें। उसके बाद आप मन में श्रीकृष्ण शरणम् मम् अथवा श्री राम जय राम, जय जय राम या कोई भी भगवान को आप मन में लाएँ और धीरे - धीरे श्वास अन्दर लीजिए और फिर श्वास को घर्षण के साथ छोड़िए। पाँच की गिनती के साथ अन्दर और पाँच की गिनती के साथ बाहर। ऐसा आप दस बार कीजिए। इससे विचारों की गति धीमी हो जाती है। मन को शान्ति मिलती है और आपके काम भी अच्छे होने लगेंगे। नींद भी अच्छी आती है।
हमें सभी कुछ चरणबद्ध रूप से बताया गया है-
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि ये अष्टाङ्ग हैं। जो इस क्रिया में महत्त्वपूर्ण है।
प्रश्नकर्ता :- विकास भैया
प्रश्न :- यदि मैं किसी कार्य में फेल हो जाता हूँ, तब भी आगे की सोचता हूँ कि कैसे करूँगा? तो मुझे फेल होने पर क्या करना है?
उत्तर :- सफलता और असफलता जीवन के पहलू हैं। यह तो आने ही हैं, किन्तु हमें उसे छोड़कर किस तरह आगे बढ़ना है, यह आवश्यक है।
असफलता एक चुनौती है उसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई देखो और सुधार करो,
जब तक न सफल हो नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्षों का मैदान छोड़ मत भागो तुम,
कुछ किए बिना जय-जयकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
भगवद्गीता हिम्मत देने वाला ग्रन्थ है। अर्जुन की हिम्मत टूट चुकी थी इसलिए भगवान ने उन्हें गीता जी का उपदेश दिया। कर्म और कर्मयोगी में अन्तर है। कर्म व्यक्तिगत होता है व कर्मयोगी समष्टिगत होता है।
कर्म फल की इच्छा न कर, मनुष्य जैसे कर्म करेगा वैसे फल देंगे भगवान। यही गीता का ज्ञान, यही गीता का ज्ञान।
अतः यदि हमने आम बोया है तो हम आम ही काटेंगे किन्तु कब काटेंगे उसकी चिन्ता न करना एवं सन्तुष्ट रहना यही गीता का ज्ञान है।
प्रश्नोत्तर सत्र:-
प्रश्नकर्ता :- निकिता दीदी
प्रश्न :- छोटों को बड़ों का और बड़ों को छोटों का आदर करना चाहिए। यदि कोई बड़ा किसी छोटे का आदर नहीं करता है तो उस स्थिति में हमें क्या करना चाहिए?
उत्तर :- यह पूर्ण रूप से आपकी चॉइस या पसन्द का विषय है। आपको क्षमाशील बनना चाहिए। क्षमाशीलता एक दैवी गुण सम्पदा है। किसी के मान सम्मान देने पर आपकी प्रसन्नता निर्भर करती है तो यह बात ठीक नहीं है।
प्रश्नकर्ता :- विशाल भैया
प्रश्न :- मन और बुद्धि दोनों एक हैं या अलग-अलग हैं?
उत्तर :- मन और बुद्धि दोनों अलग-अलग हैं। मन में विवेक नहीं होता जबकि बुद्धि में विवेक और स्मृतियाँ होती हैं। मन सकारात्मक भी होता है और नकारात्मक भी। हमें मन को सकारात्मकता की ओर बढ़ाना चाहिए। मन के ऊपर सदैव बुद्धि हावी रहनी चाहिए क्योंकि बुद्धि के पास विवेक होता है, जो हमें सही और गलत में अन्तर करना सिखाती है। मन को गलत समझना भी ठीक नहीं है क्योंकि मन अत्यधिक बलशाली होता है। यदि मन में कुछ ठान लो तो वह आप अवश्य कर पाते हो, किन्तु उस पर विवेक बुद्धि का अङ्कुश होना आवश्यक है।
प्रश्नकर्ता :- विष्णु दीदी
प्रश्न :- ग्यारहवें श्लोक की प्रथम पंक्ति का अर्थ पुनः समझा दीजिए।
उत्तर :- पूर्व में, दसवें श्लोक में बताए अनुसार भी यदि करने में असमर्थ हों तो क्या करना चाहिए, यह बताया गया है।
प्रश्नकर्ता :- उमेश भैया
प्रश्न :- कर्म करके फल की इच्छा का त्याग करने को कहा गया है किन्तु फल की इच्छा किए बिना हम प्रोत्साहित (मोटिवेटेड) कैसे रहेंगे, कि हमें यह कार्य करना ही है?
उत्तर :- श्रीभगवान ने अर्जुन को युद्ध का त्याग करने से रोका था। भगवान कह रहे हैं भागो नहीं जागो। आपको अपना कर्म तो करना ही है, फल भी आपको अवश्य प्राप्त होगा किन्तु आपको जो इच्छित फल की अभिलाषा है, वह आपको छोड़नी है। आपको अपने कर्म पर ध्यान लगाकर कार्य करना है, किन्तु उससे प्राप्त होने वाले फल से न तो अधिक हर्षित होना है और न ही दु:खी होना है। विद्यार्थियों को अच्छे अङ्क प्राप्त नहीं होते हैं अथवा व्यवसायियों को व्यवसाय में घाटा होता है अथवा अच्छी फसल नहीं होती है तो किसान आत्महत्या कर लेते हैं। यह मार्ग सही नहीं है। अर्जुन भी प्राण त्यागने को तैयार हो गए थे किन्तु भगवान ने उन्हें रोका, न प्राण त्यागने हैं, न पलायन करना है। तुम्हें फलाकाङ्क्षा को छोड़ते हुए अपना कर्म करना है, यही भगवान ने अर्जुन को कहा था। यही भगवान हमसे चाहते हैं। हम सभी फलाकाङ्क्षा को छोड़कर अपना कर्म पूर्ण मनोयोग से करें और जो भी फल प्राप्त हो उसे सहर्ष स्वीकार करें। कर्म चिन्ता में डालता है और कर्मयोग आपको मस्त कर देता है। कर्म आपकी वृद्धि करता है और कर्मयोग आपकी समृद्धि करता है।
प्रश्नकर्ता :- स्नेहा दीदी
प्रश्न :- भगवद्गीता और भागवत पुराण में क्या अन्तर है?
उत्तर :- जो भगवान के मुख से अर्जुन को कही गई वह गीता श्रीमद्भगवद्गीता है। भागवत पुराण एक बड़ा ग्रन्थ है, उसमें महाभारत भी है और भगवद्गीता भी है। उसमें विष्णु भगवान के सभी अवतारों और उनकी लीलाओं का वर्णन है। उसे हम श्रीमद्भग्वद्गीता कहते हैं।
प्रश्नकर्ता :- स्नेहा दीदी
प्रश्न :- बीसवें श्लोक एवं पुष्पिका का अर्थ बताइए।
उत्तर :- भगवान ने जो अट्ठारह श्लोकों में धर्म का अमृत दिया है, उसका ठीक से बताए अनुसार जो प्राशन करता है तो ऐसे मेरे परायण भक्त मुझे अत्यन्त प्रिय लगते हैं।
इसके बाद पुष्पिका में लिखा है-
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे, श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः॥
तत्सदिति, अर्थात् यह अध्याय यहाँ समाप्त होता है। श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु, अर्थात् ये जो श्रीमद्भगवद्गीता है यह उपनिषदों का सार है, ब्रह्मविद्यायां(य्ँ), अर्थात् ब्रह्मविद्या भी है, योगशास्त्रे अर्थात् योगशास्त्र भी है, श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अर्थात् श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद भी है। भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः अर्थात् भक्तियोग नाम का बारहवाँ अध्याय यहाँ सम्पूर्ण हुआ।
प्रश्नकर्ता :- देवेन्द्र भैया
प्रश्न :- श्रीमद्भगवद्गीता का क्या अर्थ है?
उत्तर :- भगवद् का अर्थ भगवान। जैसे हम श्रीमान कहते हैं वैसे ही भगवान को श्रीमद् कहते हैं। श्री अर्थात् शुभलक्ष्मी से युक्त विष्णु जी के अवतार भगवान श्रीकृष्ण के मुख से निकला ये गीत है, इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता कहते हैं। गीता और भी हैं। जैसे अष्टावक्र गीता आदि।
प्रश्नकर्ता :- दिलीप भैया
प्रश्न :- श्रीकृष्णम् शरणम् मम् का अभ्यास किस प्रकार करना है?
उत्तर :- सर्वप्रथम सीधे बैठ जाइए क्योंकि हमारे सारे चक्र सीध में होते हैं व हमारे फेफड़े भी खुल जाते हैं। उसके बाद बड़ी ही शान्ति से आँखें बन्द कर लें। तत्पश्चात भृकुटि के मध्य में ध्यान धारण करें। उसके बाद आप मन में श्रीकृष्ण शरणम् मम् अथवा श्री राम जय राम, जय जय राम या कोई भी भगवान को आप मन में लाएँ और धीरे - धीरे श्वास अन्दर लीजिए और फिर श्वास को घर्षण के साथ छोड़िए। पाँच की गिनती के साथ अन्दर और पाँच की गिनती के साथ बाहर। ऐसा आप दस बार कीजिए। इससे विचारों की गति धीमी हो जाती है। मन को शान्ति मिलती है और आपके काम भी अच्छे होने लगेंगे। नींद भी अच्छी आती है।
हमें सभी कुछ चरणबद्ध रूप से बताया गया है-
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि ये अष्टाङ्ग हैं। जो इस क्रिया में महत्त्वपूर्ण है।
प्रश्नकर्ता :- विकास भैया
प्रश्न :- यदि मैं किसी कार्य में फेल हो जाता हूँ, तब भी आगे की सोचता हूँ कि कैसे करूँगा? तो मुझे फेल होने पर क्या करना है?
उत्तर :- सफलता और असफलता जीवन के पहलू हैं। यह तो आने ही हैं, किन्तु हमें उसे छोड़कर किस तरह आगे बढ़ना है, यह आवश्यक है।
असफलता एक चुनौती है उसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई देखो और सुधार करो,
जब तक न सफल हो नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्षों का मैदान छोड़ मत भागो तुम,
कुछ किए बिना जय-जयकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
भगवद्गीता हिम्मत देने वाला ग्रन्थ है। अर्जुन की हिम्मत टूट चुकी थी इसलिए भगवान ने उन्हें गीता जी का उपदेश दिया। कर्म और कर्मयोगी में अन्तर है। कर्म व्यक्तिगत होता है व कर्मयोगी समष्टिगत होता है।
कर्म फल की इच्छा न कर, मनुष्य जैसे कर्म करेगा वैसे फल देंगे भगवान। यही गीता का ज्ञान, यही गीता का ज्ञान।
अतः यदि हमने आम बोया है तो हम आम ही काटेंगे किन्तु कब काटेंगे उसकी चिन्ता न करना एवं सन्तुष्ट रहना यही गीता का ज्ञान है।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः॥
इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘भक्तियोग’ नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।