विवेचन सारांश
महाभारत की पृष्ठभूमि में श्रीमद्भगवद्गीता का अवलोकन
श्रीभगवान की स्तुति और दीप प्रज्वलन, सभी साधकों द्वारा गीता जी को सीखने के प्रयास की सराहना, माँ सरस्वती जी, भगवान वेदव्यास जी, ज्ञानेश्वर जी महाराज, सद्गुरु स्वामी गोविन्ददेव गिरि जी महाराज के चरणों में शत-शत वन्दन और सभी गीता प्रेमियों के अभिनन्दन के साथ इस अति सुन्दर सत्र का आरम्भ हुआ।
श्रीमद्भगवद्गीता एक अनुपम ग्रन्थ है। इसमें केवल सात सौ श्लोक हैं। वास्तविकता में प्रथम अध्याय में श्रीभगवान ने कोई भी उपदेश नहीं दिया है।
भगवान के केवल दो ही शब्द हैं -
उवाच पार्थ पश्येतान्समवेतान्कुरूनिति।
हे पार्थ! युद्ध के लिये जुटे हुए इन कौरवों को देख! इस अध्याय में भगवान ने कोई भी उपदेश नहीं दिया है लेकिन यह अध्याय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अध्याय है। यह श्रीभगवान की वाणी है। भगवान वेदव्यास जी ने महाभारत में वेदों का सार भरा है एवं श्रीमद्भगवद्गीता में सात सौ श्लोकों के माध्यम से सारे वेदों, उपनिषदों के सार को समाहित किया है।
इसमें केवल सात सौ श्लोक हैं। आकार में लघुत्तम लेकिन गहराई इतनी अधिक है कि कार्य में यह महत्तम है। ऐसी श्रीमद्भगवद्गीता केवल भगवान की कृपा से हमारे हाथ में है। जिस प्रकार एक लोटे में लिया गया गङ्गाजल भी पवित्र है, वैसे ही भगवद्गीता जैसा छोटा सा अंश भी हमारे जीवन में आनन्द लाने वाला है।
श्रीमद्भगवद्गीता एक अनुपम ग्रन्थ है। इसमें केवल सात सौ श्लोक हैं। वास्तविकता में प्रथम अध्याय में श्रीभगवान ने कोई भी उपदेश नहीं दिया है।
भगवान के केवल दो ही शब्द हैं -
उवाच पार्थ पश्येतान्समवेतान्कुरूनिति।
हे पार्थ! युद्ध के लिये जुटे हुए इन कौरवों को देख! इस अध्याय में भगवान ने कोई भी उपदेश नहीं दिया है लेकिन यह अध्याय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अध्याय है। यह श्रीभगवान की वाणी है। भगवान वेदव्यास जी ने महाभारत में वेदों का सार भरा है एवं श्रीमद्भगवद्गीता में सात सौ श्लोकों के माध्यम से सारे वेदों, उपनिषदों के सार को समाहित किया है।
इसमें केवल सात सौ श्लोक हैं। आकार में लघुत्तम लेकिन गहराई इतनी अधिक है कि कार्य में यह महत्तम है। ऐसी श्रीमद्भगवद्गीता केवल भगवान की कृपा से हमारे हाथ में है। जिस प्रकार एक लोटे में लिया गया गङ्गाजल भी पवित्र है, वैसे ही भगवद्गीता जैसा छोटा सा अंश भी हमारे जीवन में आनन्द लाने वाला है।
भगवान ने उपनिषद रूपी गौओं का दोहन करते हुए गीतामृत कहा था। गीता की अमृत धारा का अर्जुन ने पान किया था। अर्जुन को समझेंगे। अर्जुन वीरता और नम्रता का एक साथ संयोग करते हैं जो जीवन में निःश्रेयस और अभ्युदय का संयोग बनाते हैं। दोनों का प्रयास चाहिये। निःश्रेयस का अर्थ है अन्तिम कल्याण और अभ्युदय का अर्थ है भौतिक विकास, इनके लिए भगवद्गीता और अन्य सिद्धान्तों के रहस्य समान हैं।
ज्ञानेश्वर महाराज जी इसलिये कहते हैं:-
अहो अर्जुनाचिये पांती। जे परिसणया योग्य होती।
तिहिं कृपा करूनि संतीं। अवधान द्यावें।।
अर्जुन की भाँति जो श्रवण के लिए सक्षम हो जाता है, सम्पूर्ण एकाग्रता से। जरा सोचिए कि किस प्रकार समराङ्गण में, दोनों सेनाओं के बीच में, किस प्रकार से शङ्खनाद हुए होंगे, किस प्रकार नगाड़े, ढोल, नरसिंघे आदि के भयङ्कर शब्दों में भी श्रवण के लिए अपने कान, अपना ध्यान भगवान के उस उपदेश में एकाग्र करने वाले अर्जुन, कोलाहल में भी उस ज्ञान की धारा को ग्रहण करने वाले अर्जुन, उस ज्ञान के लालायित अर्जुन, वीरता और नम्रता की प्रतिमूर्ति अर्जुन, उनके समान जो भी इस भगवद्गीता की शरण में हैं, उनके सिद्धान्तों का दर्शन अपने जीवन में ग्रहण करते हैं, ऐसा करने से उनके जीवन में लाभ होगा।
इस पृष्ठभूमि में इस अध्याय को देखना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि, ऐसे अर्जुन, नरोत्तम अर्जुन, अवसादग्रस्त क्यों हुए? क्या बात हुई कि भगवान को प्रत्यक्ष समराङ्गण में यह ज्ञान की शाश्वत धारा अपने मुखारविन्द से प्रवाहित करनी पड़ी, इसलिये गीता जी का अध्ययन महाभारत की पृष्ठभूमि में करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
ज्ञानेश्वर महाराज जी इसलिये कहते हैं:-
अहो अर्जुनाचिये पांती। जे परिसणया योग्य होती।
तिहिं कृपा करूनि संतीं। अवधान द्यावें।।
अर्जुन की भाँति जो श्रवण के लिए सक्षम हो जाता है, सम्पूर्ण एकाग्रता से। जरा सोचिए कि किस प्रकार समराङ्गण में, दोनों सेनाओं के बीच में, किस प्रकार से शङ्खनाद हुए होंगे, किस प्रकार नगाड़े, ढोल, नरसिंघे आदि के भयङ्कर शब्दों में भी श्रवण के लिए अपने कान, अपना ध्यान भगवान के उस उपदेश में एकाग्र करने वाले अर्जुन, कोलाहल में भी उस ज्ञान की धारा को ग्रहण करने वाले अर्जुन, उस ज्ञान के लालायित अर्जुन, वीरता और नम्रता की प्रतिमूर्ति अर्जुन, उनके समान जो भी इस भगवद्गीता की शरण में हैं, उनके सिद्धान्तों का दर्शन अपने जीवन में ग्रहण करते हैं, ऐसा करने से उनके जीवन में लाभ होगा।
इस पृष्ठभूमि में इस अध्याय को देखना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि, ऐसे अर्जुन, नरोत्तम अर्जुन, अवसादग्रस्त क्यों हुए? क्या बात हुई कि भगवान को प्रत्यक्ष समराङ्गण में यह ज्ञान की शाश्वत धारा अपने मुखारविन्द से प्रवाहित करनी पड़ी, इसलिये गीता जी का अध्ययन महाभारत की पृष्ठभूमि में करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
1.1
धृतराष्ट्र उवाच:
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे, समवेता युयुत्सवः।
मामकाः(फ्) पाण्डवाश्चैव, किमकुर्वत सञ्जय।।1.1।।
धृतराष्ट्र बोले - हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?
विवेचन- बड़ी अद्भुत बात यह है कि श्रीमद्भगवद्गीता एक संवाद है जो नरोत्तम अर्जुन और नारायण का है और उसकी शुरुआत, धृतराष्ट्र उवाच से हो रही है। यह धृतराष्ट्र अधर्म का मूल है। धृतराष्ट्र क्या बोल रहे हैं? वह प्रश्न पूछ रहे हैं सञ्जय से कि, हे सञ्जय! इस धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में मेरे और महाराज पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया।
हम भगवद्गीता की पृष्ठभूमि को जानते हैं, लेकिन फिर से एक बार उसका स्मरण करेंगे। महाभारत में हमें पता चलता है कि किस प्रकार से कौरवों ने पाण्डवों के राज्य का हरण किया था। किस प्रकार महाराज पाण्डु वनवास चले गये। धृतराष्ट्र जन्मान्ध थे और ऐसे व्यक्ति सिंहासन पर नहीं बैठ सकते थे, ऐसा विदुर जी ने कहा था और इसी कारण महाराज पाण्डु को यह राज्य मिला था। उनके बाद दुर्योधन, दु:शासन और शकुनि मामा के षड्यन्त्र के कारण द्यूत प्रसङ्ग हुआ, द्रौपदी के चीर-हरण का प्रसङ्ग हुआ। पाण्डवों को बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास का पालन करने को कहा गया। जब पाण्डव वनवास व अज्ञातवास पूर्ण कर वापस आए तो दुर्योधन ने उन्हें राज्य वापस देने से मना कर दिया। भगवान पाण्डवों की ओर से शान्ति का प्रस्ताव लेकर गए। भगवान ने पाण्डवों के लिए केवल पाँच गाँव माँगे पर दुर्योधन ने एक सुई की नोंक जितनी भूमि भी देने से मना कर दिया।
इसके बाद युद्ध अटल हो गया। तब दोनों सेनाएँ युद्ध के लिए सामने आई। कुरुक्षेत्र के मैदान में एकत्र हो गईं। वेदव्यास जी धृतराष्ट्र के पास गए और उनसे कहा कि मैं दिव्य दृष्टि प्रदान कर देता हूँ, जिससे आप युद्ध देख सकते हैं। धृतराष्ट्र ने कहा था कि मैंने अपने जीवन में कुछ भी मङ्गल नहीं देखा, अब मैं यह अमङ्गल घटना नहीं देखना चाहता। तब उन्होंने सञ्जय को दिव्य दृष्टि प्रदान की, इसलिये धृतराष्ट्र सञ्जय से पूछ रहे हैं, मेरे और पाण्डु के पुत्र। अपने और पराए की भावना के कारण ही आज घर-घर में, राष्ट्रों में, महाभारत हो रहा है। एक बात यह भी है कि इसमें अपना बेटा अगर उपयुक्त नहीं है तो भी उसी बेटे को अपना उत्तराधिकारी माना जाता है, इसके लिए सभी नियमों का पुनर्निर्धारण होता है और इसी से सङ्घर्ष का निर्माण होता है।
ज्ञानेश्वर महाराज जी धृतराष्ट्र के जो मनोभाव हैं, उनका दर्शन कहते हैं:-
पुत्र स्नेह से मोहित, अन्धे धृतराष्ट्र पूछ रहे हैं। तुलना से महाभारत की शुरुआत होती है। युद्धजन्य परिस्थिति की शुरुआत होती है। यह सङ्घर्ष पाँच हजार वर्ष पूर्व हुआ था।
भगवद्गीता का एक विशेष भाग। इसका प्रारम्भ किस शब्द से होता है? श्लोक का प्रारम्भ होता है धर्म शब्द से। धर्म बहुत व्यापक शब्द है, जैसे हम राष्ट्र धर्म, पितृ धर्म, मातृ धर्म, समाज धर्म, पड़ोसी धर्म कहते हैं। इसका अर्थ पूजा की विधि से नहीं है, इस धर्म शब्द का अर्थ है अपना कर्त्तव्य। अनेक कर्त्तव्य हमें एक साथ दिग्दर्शित हैं। अनेक कर्त्तव्यों को एक साथ देखा गया कि कौन सा कर्त्तव्य महत्त्वपूर्ण है और कौन सा नहीं, इनका चयन करने के लिए विवेक दृष्टि भी गीता जी प्रदान करती है।
इस सम्बन्ध में एक बड़ी रोचक कथा है। महारानी अहिल्याबाई होलकर के जीवन का एक प्रसङ्ग है। भगवद्गीता पढ़ाने के लिए एक पण्डित जी उनके घर आये। प्रथम श्लोक सुनते ही उन्होंने कहा कि पण्डित जी भगवद्गीता का गूढ़ अर्थ मेरी समझ में आ गया। वे तो विदुषी थीं, पण्डित जी भी चमत्कृत हो गये थे! ये क्या कह रही हैं?
हम भगवद्गीता की पृष्ठभूमि को जानते हैं, लेकिन फिर से एक बार उसका स्मरण करेंगे। महाभारत में हमें पता चलता है कि किस प्रकार से कौरवों ने पाण्डवों के राज्य का हरण किया था। किस प्रकार महाराज पाण्डु वनवास चले गये। धृतराष्ट्र जन्मान्ध थे और ऐसे व्यक्ति सिंहासन पर नहीं बैठ सकते थे, ऐसा विदुर जी ने कहा था और इसी कारण महाराज पाण्डु को यह राज्य मिला था। उनके बाद दुर्योधन, दु:शासन और शकुनि मामा के षड्यन्त्र के कारण द्यूत प्रसङ्ग हुआ, द्रौपदी के चीर-हरण का प्रसङ्ग हुआ। पाण्डवों को बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास का पालन करने को कहा गया। जब पाण्डव वनवास व अज्ञातवास पूर्ण कर वापस आए तो दुर्योधन ने उन्हें राज्य वापस देने से मना कर दिया। भगवान पाण्डवों की ओर से शान्ति का प्रस्ताव लेकर गए। भगवान ने पाण्डवों के लिए केवल पाँच गाँव माँगे पर दुर्योधन ने एक सुई की नोंक जितनी भूमि भी देने से मना कर दिया।
इसके बाद युद्ध अटल हो गया। तब दोनों सेनाएँ युद्ध के लिए सामने आई। कुरुक्षेत्र के मैदान में एकत्र हो गईं। वेदव्यास जी धृतराष्ट्र के पास गए और उनसे कहा कि मैं दिव्य दृष्टि प्रदान कर देता हूँ, जिससे आप युद्ध देख सकते हैं। धृतराष्ट्र ने कहा था कि मैंने अपने जीवन में कुछ भी मङ्गल नहीं देखा, अब मैं यह अमङ्गल घटना नहीं देखना चाहता। तब उन्होंने सञ्जय को दिव्य दृष्टि प्रदान की, इसलिये धृतराष्ट्र सञ्जय से पूछ रहे हैं, मेरे और पाण्डु के पुत्र। अपने और पराए की भावना के कारण ही आज घर-घर में, राष्ट्रों में, महाभारत हो रहा है। एक बात यह भी है कि इसमें अपना बेटा अगर उपयुक्त नहीं है तो भी उसी बेटे को अपना उत्तराधिकारी माना जाता है, इसके लिए सभी नियमों का पुनर्निर्धारण होता है और इसी से सङ्घर्ष का निर्माण होता है।
ज्ञानेश्वर महाराज जी धृतराष्ट्र के जो मनोभाव हैं, उनका दर्शन कहते हैं:-
पुत्र स्नेह से मोहित, अन्धे धृतराष्ट्र पूछ रहे हैं। तुलना से महाभारत की शुरुआत होती है। युद्धजन्य परिस्थिति की शुरुआत होती है। यह सङ्घर्ष पाँच हजार वर्ष पूर्व हुआ था।
भगवद्गीता का एक विशेष भाग। इसका प्रारम्भ किस शब्द से होता है? श्लोक का प्रारम्भ होता है धर्म शब्द से। धर्म बहुत व्यापक शब्द है, जैसे हम राष्ट्र धर्म, पितृ धर्म, मातृ धर्म, समाज धर्म, पड़ोसी धर्म कहते हैं। इसका अर्थ पूजा की विधि से नहीं है, इस धर्म शब्द का अर्थ है अपना कर्त्तव्य। अनेक कर्त्तव्य हमें एक साथ दिग्दर्शित हैं। अनेक कर्त्तव्यों को एक साथ देखा गया कि कौन सा कर्त्तव्य महत्त्वपूर्ण है और कौन सा नहीं, इनका चयन करने के लिए विवेक दृष्टि भी गीता जी प्रदान करती है।
इस सम्बन्ध में एक बड़ी रोचक कथा है। महारानी अहिल्याबाई होलकर के जीवन का एक प्रसङ्ग है। भगवद्गीता पढ़ाने के लिए एक पण्डित जी उनके घर आये। प्रथम श्लोक सुनते ही उन्होंने कहा कि पण्डित जी भगवद्गीता का गूढ़ अर्थ मेरी समझ में आ गया। वे तो विदुषी थीं, पण्डित जी भी चमत्कृत हो गये थे! ये क्या कह रही हैं?
उन्होंने (महारानी) पहले चरण में धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे शब्दों का मूल्याङ्कन करते हुए कहा, "क्षेत्रे क्षेत्रे धर्मम् कुरु"- अर्थात अपने-अपने क्षेत्र में हमें अपना कर्त्तव्य कर्म, धर्म समझ कर करना चाहिए। हम सभी एक कर्मभूमि में आए हैं। एक डॉक्टर के चरित्र में ऑपरेशन थियेटर उसका कुरुक्षेत्र होगा, सेना का कुरुक्षेत्र राष्ट्र की सीमा होगी। किसी भी शिक्षक का विशेषाधिकार उसका स्कूल या कॉलेज होगा। एक गृहणी का कुरुक्षेत्र उसका व्यावसायिक क्षेत्र या उसका घर या रसोईघर है। इस प्रकार सभी का एक कर्म क्षेत्र है। उस कर्म क्षेत्र में धर्म कुरु - अपना-अपना धर्म पालन करो।
सञ्जय उवाच: दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं(व्ँ), व्यूढं(न्) दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य, राजा वचनमब्रवीत्॥1.2॥
संजय बोले - उस समय व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखकर राजा दुर्योधन ने द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा।
विवेचन- सञ्जय ने उत्तर दिया। वे कहते हैं कि व्यूह रचना में पाण्डवों के सैन्य दल को देखकर द्रोणाचार्य के निकट जाकर राजा दुर्योधन ने कहा। वास्तव में दुर्योधन राजा नहीं है, बल्कि यह सम्बोधन सञ्जय ने दिया है। जैसे बड़े लोगों के बेटों को राजा साहब कह देते हैं, परन्तु यह वैसे ही कह देते हैं। जब इस प्रकार से बच्चों को पाला जाता है तो इस कारण से उनमें कई विकार भी पैदा हो जाते हैं।
पश्यैतां(म्) पाण्डुपुत्राणाम्, आचार्य महतीं(ञ्) चमूम्। व्यूढां(न्) द्रुपदपुत्रेण, तव शिष्येण धीमता।।1.3।।
हे आचार्य! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न के द्वारा व्यूहकार खड़ी की हुई पाण्डवों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये।
विवेचन- दुर्योधन यहाँ पर एक ताना कस रहे हैं। इस अध्याय में दुर्योधन का मनोभाव भी हमने देखें। वे कहते हैं - हे द्रोणाचार्य! आपका अत्यन्त बुद्धिमान शिष्य जो आपके मित्र द्रुपद का पुत्र है धृष्टद्युम्न, उसकी व्यूह रचना देखें। महाराज पाण्डु के पुत्रों की इतनी बड़ी सेना देखें।
दुर्योधन के मन में छटपटाहट है। उन्हें पता है कि अर्जुन आचार्य द्रोण के परम प्रिय शिष्य हैं। अर्जुन में ऐसे गुण भी हैं - विशेष प्रकार की एकाग्रता, विशेष प्रकार की नम्रता, गुरु के चरणों में पूर्ण समर्पण की भावना है। सम्पूर्ण शिक्षण, सम्पूर्ण धनुर्विद्या सीखने के लिए ललक है। इस कारण अर्जुन आचार्य द्रोण के परम प्रिय शिष्य हैं। आचार्य द्रोण ने अर्जुन को सबसे अच्छा धनुर्धारी बनाया था।
दुर्योधन ताना क्यों दे रहें हैं? इसकी पृष्ठभूमि में आचार्य द्रोणाचार्य जी के जीवन का प्रसङ्ग है। राजा द्रुपद और आचार्य द्रोण मित्र थे, परम सखा थे। जब गुरुकुल में साथ में पढ़ते थे तब राजा द्रुपद ने द्रोणाचार्य को वचन दिया था कि आपको कभी भी कोई समस्या हो तो मेरे पास आ जाना। आचार्य द्रोण धनुर्विद्या में पारङ्गत थे पर निर्धन थे। उनकी पत्नी कृपी के पास अपने बेटे अश्वत्थामा के लिए दूध की व्यवस्था भी नहीं थी। वह अपने बेटे को आटे में पानी मिला कर दूध के नाम से पिलाती थी। एक दिन ऐसा हुआ कि अश्वत्थामा अपने किसी मित्र के घर गया और वहाँ उसे गाय का दूध पीने को मिला। घर आने पर जब माँ ने उसे पानी में आटा घोला हुआ पदार्थ दूध बता कर पीने के लिए दिया तो अश्वत्थामा ने मित्र के घर वास्तविक दूध पीने वाली घटना बताई।
आचार्य द्रोणाचार्य यह दृश्य देखकर तिलमिला गए और द्रुपद के पास गए, उनसे मित्र के नाते एक गाय या फिर कुछ धन की सहायता माँगी। राजा द्रुपद ने उन्हें अपनी सभा से बाहर निकाल दिया और उनका अपमान किया और कहा कि हमारी कोई मित्रता नहीं हो सकती। मैं राजा हूँ और आप निर्धन, हमारी मित्रता नहीं हो सकती। अपमान से तिलमिलाते हुए आचार्य द्रोण ने प्रतिज्ञा करते हुए कहा था वे अपने अपमान का बदला अवश्य लेंगे। आचार्य द्रोणाचार्य जी ने कौरवों और पाण्डवों को धनुर्विद्या की शिक्षा दी और शिष्यों से गुरु दक्षिणा में द्रुपद को बन्दी के रूप में सौंपने की माँग की। समस्त शिष्यों में कोई भी शिष्य यह गुरु दक्षिणा देने के लिए आगे नहीं आया। केवल अर्जुन सामने आए और उन्होंने द्रुपद को बन्धक बनाकर द्रोणाचार्य जी को सौंप दिया। तभी से अर्जुन द्रोणाचार्य जी के परम प्रिय शिष्य बन गए।
द्रुपद इस अपमान से तिलमिला गए। उन्होंने एक यज्ञ किया जिससे उन्हें धृष्टद्युम्न और द्रौपदी प्राप्त हुए। धृष्टद्युम्न यज्ञ से प्राप्त द्रुपद का पुत्र है। द्रुपद ने यज्ञ देवता से यह माँग की थी कि मुझे आचार्य द्रोण का वध करने वाला पुत्र दें। आश्चर्य की बात यह है कि आचार्य द्रोण को यह पता है कि धृष्टद्युम्न का जन्म उन्हें मारने के लिए, उनका वध करने के लिए हुआ था। राजा द्रुपद ने अपने पुत्र को आचार्य द्रोणाचार्य के पास धनुर्विद्या की शिक्षा दिलाई थी और द्रोणाचार्य ने इसके लिये मना भी नहीं किया, इसलिए दुर्योधन द्रोणाचार्य को एक ताने की तरह कह रहा है कि आपका बुद्धिमान शिष्य धृष्टद्युम्न पाण्डवों का सेनापति है।
दुर्योधन के मन में छटपटाहट है। उन्हें पता है कि अर्जुन आचार्य द्रोण के परम प्रिय शिष्य हैं। अर्जुन में ऐसे गुण भी हैं - विशेष प्रकार की एकाग्रता, विशेष प्रकार की नम्रता, गुरु के चरणों में पूर्ण समर्पण की भावना है। सम्पूर्ण शिक्षण, सम्पूर्ण धनुर्विद्या सीखने के लिए ललक है। इस कारण अर्जुन आचार्य द्रोण के परम प्रिय शिष्य हैं। आचार्य द्रोण ने अर्जुन को सबसे अच्छा धनुर्धारी बनाया था।
दुर्योधन ताना क्यों दे रहें हैं? इसकी पृष्ठभूमि में आचार्य द्रोणाचार्य जी के जीवन का प्रसङ्ग है। राजा द्रुपद और आचार्य द्रोण मित्र थे, परम सखा थे। जब गुरुकुल में साथ में पढ़ते थे तब राजा द्रुपद ने द्रोणाचार्य को वचन दिया था कि आपको कभी भी कोई समस्या हो तो मेरे पास आ जाना। आचार्य द्रोण धनुर्विद्या में पारङ्गत थे पर निर्धन थे। उनकी पत्नी कृपी के पास अपने बेटे अश्वत्थामा के लिए दूध की व्यवस्था भी नहीं थी। वह अपने बेटे को आटे में पानी मिला कर दूध के नाम से पिलाती थी। एक दिन ऐसा हुआ कि अश्वत्थामा अपने किसी मित्र के घर गया और वहाँ उसे गाय का दूध पीने को मिला। घर आने पर जब माँ ने उसे पानी में आटा घोला हुआ पदार्थ दूध बता कर पीने के लिए दिया तो अश्वत्थामा ने मित्र के घर वास्तविक दूध पीने वाली घटना बताई।
आचार्य द्रोणाचार्य यह दृश्य देखकर तिलमिला गए और द्रुपद के पास गए, उनसे मित्र के नाते एक गाय या फिर कुछ धन की सहायता माँगी। राजा द्रुपद ने उन्हें अपनी सभा से बाहर निकाल दिया और उनका अपमान किया और कहा कि हमारी कोई मित्रता नहीं हो सकती। मैं राजा हूँ और आप निर्धन, हमारी मित्रता नहीं हो सकती। अपमान से तिलमिलाते हुए आचार्य द्रोण ने प्रतिज्ञा करते हुए कहा था वे अपने अपमान का बदला अवश्य लेंगे। आचार्य द्रोणाचार्य जी ने कौरवों और पाण्डवों को धनुर्विद्या की शिक्षा दी और शिष्यों से गुरु दक्षिणा में द्रुपद को बन्दी के रूप में सौंपने की माँग की। समस्त शिष्यों में कोई भी शिष्य यह गुरु दक्षिणा देने के लिए आगे नहीं आया। केवल अर्जुन सामने आए और उन्होंने द्रुपद को बन्धक बनाकर द्रोणाचार्य जी को सौंप दिया। तभी से अर्जुन द्रोणाचार्य जी के परम प्रिय शिष्य बन गए।
द्रुपद इस अपमान से तिलमिला गए। उन्होंने एक यज्ञ किया जिससे उन्हें धृष्टद्युम्न और द्रौपदी प्राप्त हुए। धृष्टद्युम्न यज्ञ से प्राप्त द्रुपद का पुत्र है। द्रुपद ने यज्ञ देवता से यह माँग की थी कि मुझे आचार्य द्रोण का वध करने वाला पुत्र दें। आश्चर्य की बात यह है कि आचार्य द्रोण को यह पता है कि धृष्टद्युम्न का जन्म उन्हें मारने के लिए, उनका वध करने के लिए हुआ था। राजा द्रुपद ने अपने पुत्र को आचार्य द्रोणाचार्य के पास धनुर्विद्या की शिक्षा दिलाई थी और द्रोणाचार्य ने इसके लिये मना भी नहीं किया, इसलिए दुर्योधन द्रोणाचार्य को एक ताने की तरह कह रहा है कि आपका बुद्धिमान शिष्य धृष्टद्युम्न पाण्डवों का सेनापति है।
अत्र शूरा महेष्वासा, भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च, द्रुपदश्च महारथः।।1.4।।
यहाँ (पाण्डवों की सेना में) बड़े-बड़े शूरवीर हैं, (जिनके) बहुत बड़े-बड़े धनुष हैं तथा (जो) युद्ध में भीम और अर्जुन के समान हैं। (उनमें) युयुधान (सात्यकि), राजा विराट और महारथी द्रुपद (भी हैं)।
1.4 writeup
धृष्टकेतुश्चेकितानः(ख्), काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च, शैब्यश्च नरपुङ्गवः।।1.5।।
धृष्टकेतु और चेकितान तथा पराक्रमी काशिराज (भी हैं)। पुरुजित् और कुन्तिभोज – (ये दोनों भाई) तथा मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य (भी हैं)।
1.5 writeup
युधामन्युश्च विक्रान्त, उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च, सर्व एव महारथाः।।1.6।।
पराक्रमी युधामन्यु और पराक्रमी उत्तमौजा (भी हैं)। सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्र (भी हैं)। (ये) सब के सब महारथी हैं।
विवेचन - इन तीन श्लोकों में पाण्डवों के जो सात उपसेनापति थे, दुर्योधन उनका वर्णन आचार्य द्रोण से कर रहें हैं। बड़े-बड़े धनुष धारण किए हुए हैं, वे भीम और अर्जुन के समान वीर हैं। जिनसे हमें डर लगता है, वे हमारे मन में बैठ जाते हैं। जिनसे हम द्वेष करते हैं उनका चिन्तन अधिक होता है, किसी से द्वेष करना इसलिये बुरा होता है। उनका चिन्तन हमारे चित्त में प्रवेश करके हमारे चित्त को मैला कर देता है।
यहाँ पर युयुधान(सात्यकि) अर्जुन के शिष्य हैं, यादव हैं और अर्जुन के पास धनुर्विद्या सीखी है, वे भगवान के सखा हैं। राजा विराट जिनकी विराट नगरी में पाण्डवों ने अपना एक वर्ष का अज्ञातवास व्यतीत किया था और राजा द्रुपद, द्रौपदी के पिता हैं। धृष्टकेतु और चेकितान, धृष्टकेतु शिशुपाल का पुत्र है। शिशुपाल हम सबको पता चला है कि सौ भूलों को क्षमा करने के बाद भगवान ने सुदर्शन चक्र से राजसूय यज्ञ के समय उनका वध कर दिया था। भगवान ने कहा था कि सौ अपराधों को क्षमा करने के लिए मैं वचनबद्ध हूँ। शिशुपाल की माता को भगवान ने यह वचन दिया था, वे भगवान कृष्ण की बुआ हैं
शिशुपाल के पुत्र धृष्टकेतु पाण्डवों के पक्ष में हैं। चेकितान धृष्टकेतु के मित्र हैं। काशीराज भी उपस्थित हैं। पुरुजित् और कुन्तीभोज कुन्ती माता के भाई हैं। शैब्य राजा युधिष्ठिर के श्वसुर हैं और शिवि देश के राजा हैं। यहाँ पर अत्यन्त वीर नर श्रेष्ठ हैं। अत्यन्त पराक्रमी युधामन्यु भी हैं। उत्तमौजा और युधामन्यु ये दो अर्जुन के रथ के रक्षक हैं।
जो भी रणनीति बनाई गई उसमें एक नीति यह थी कि अर्जुन के रथ के साथ-साथ दोनों के रथ बने रहें ताकि कोई समस्या न हो। अगर अर्जुन आते हैं तो उनके साथ कोई सहायक होना चाहिए। सौभद्र याने सुभद्रा और अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु। अत्यन्त वीर महारानी द्रौपदी के पाँच पुत्र, प्रतिविन्ध्य, सुतसोम, श्रुतकर्मा, शतानीक और श्रुतसेन ये उनके नाम हैं। ये सातों पाण्डवों की सेना के उप सेनापति है,। एक-एक अक्षौहिणी सेना के एक-एक उप सेनापति थे। जो प्रमुख सेनापति थे वह धृष्टद्युम्न थे। ये सभी बहुत महारथी हैं। दस हजार सैनिकों के साथ युद्ध करने वाले को महारथी कहते हैं।
यहाँ पर युयुधान(सात्यकि) अर्जुन के शिष्य हैं, यादव हैं और अर्जुन के पास धनुर्विद्या सीखी है, वे भगवान के सखा हैं। राजा विराट जिनकी विराट नगरी में पाण्डवों ने अपना एक वर्ष का अज्ञातवास व्यतीत किया था और राजा द्रुपद, द्रौपदी के पिता हैं। धृष्टकेतु और चेकितान, धृष्टकेतु शिशुपाल का पुत्र है। शिशुपाल हम सबको पता चला है कि सौ भूलों को क्षमा करने के बाद भगवान ने सुदर्शन चक्र से राजसूय यज्ञ के समय उनका वध कर दिया था। भगवान ने कहा था कि सौ अपराधों को क्षमा करने के लिए मैं वचनबद्ध हूँ। शिशुपाल की माता को भगवान ने यह वचन दिया था, वे भगवान कृष्ण की बुआ हैं
शिशुपाल के पुत्र धृष्टकेतु पाण्डवों के पक्ष में हैं। चेकितान धृष्टकेतु के मित्र हैं। काशीराज भी उपस्थित हैं। पुरुजित् और कुन्तीभोज कुन्ती माता के भाई हैं। शैब्य राजा युधिष्ठिर के श्वसुर हैं और शिवि देश के राजा हैं। यहाँ पर अत्यन्त वीर नर श्रेष्ठ हैं। अत्यन्त पराक्रमी युधामन्यु भी हैं। उत्तमौजा और युधामन्यु ये दो अर्जुन के रथ के रक्षक हैं।
जो भी रणनीति बनाई गई उसमें एक नीति यह थी कि अर्जुन के रथ के साथ-साथ दोनों के रथ बने रहें ताकि कोई समस्या न हो। अगर अर्जुन आते हैं तो उनके साथ कोई सहायक होना चाहिए। सौभद्र याने सुभद्रा और अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु। अत्यन्त वीर महारानी द्रौपदी के पाँच पुत्र, प्रतिविन्ध्य, सुतसोम, श्रुतकर्मा, शतानीक और श्रुतसेन ये उनके नाम हैं। ये सातों पाण्डवों की सेना के उप सेनापति है,। एक-एक अक्षौहिणी सेना के एक-एक उप सेनापति थे। जो प्रमुख सेनापति थे वह धृष्टद्युम्न थे। ये सभी बहुत महारथी हैं। दस हजार सैनिकों के साथ युद्ध करने वाले को महारथी कहते हैं।
अस्माकं(न्) तु विशिष्टा ये, तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य, संज्ञार्थं(न्) तान्ब्रवीमि ते।।1.7।।
हे द्विजोत्तम! हमारे पक्ष में भी जो मुख्य (हैं), उन पर भी (आप) ध्यान दीजिये। आपकी जानकारी के लिये मेरी सेना के (जो) नायक हैं, उनको (मैं) कहता हूँ।
विवेचन- हे द्विजोत्तम, अर्थात हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! अपने पक्ष के जो विशिष्ट महत्त्वपूर्ण योद्धा हैं, उन्हें भी एक बार देख लीजिए। युद्ध आरम्भ होने वाला है, मेेरी सेना के जो नायक हैं अर्थात सेनापति हैं, मैं फिर से उनकी महती आपको बताता हूँ। कौरवों के पक्ष में कौन-कौन हैं यह वह बता रहे हैं।
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च, कृपश्च समितिञ्जयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च, सौमदत्तिस्तथैव च।।1.8।।
आप (द्रोणाचार्य) और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्राम विजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा।
विवेचन- भवान अर्थात आप, आप स्वयं कौरवों के पक्ष में हैं। वह कौरवों के सेवक थे और वहाँ मनोनीत किए गए थे। पितामह भीष्म, कर्ण(सूर्य पुत्र जो कुन्ती माता के ज्येष्ठ पुत्र थे) जिन्हें दुर्योधन ने अङ्ग देश का राजा बनाया था। सारे षड्यन्त्रों में कर्ण ही प्रमुख भूमिका निभाने वाले रहे। जिसे महाभारत में चाण्डाल चौकड़ी कहा जाता है उसमें दुर्योधन, दुुःशासन, शकुनी और कर्ण के नाम आते हैं। सारे षड्यन्त्रों में कर्ण भी थे। असङ्ग का सङ्ग करने के कारण, गलत लोगों का सङ्ग करने के कारण कर्ण पाण्डवों से ईर्ष्या करते थे, वे द्रोपदी के लिए वैश्या शब्द का प्रयोग करते हैं और उसके वस्त्र हरण का प्रस्ताव भी देते हैं।
युद्ध में विजयी होने वाले कृपाचार्य, यह पाण्डवों और कौरवों के गुरु भी हैं। द्रोणाचार्य के पधारने से पूर्व कौरवों और पाण्डवों ने कृपाचार्य से ही शिक्षा ली है। अश्वत्थामा जो द्रोणाचार्य के पुत्र हैं। विकर्ण, यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पात्र है। यह कौरवों में सज्जन है।
गुरुदेव कहते हैं, भीमसेन अपने जीवन काल में दो बार रोए हैं। एक बार कीचक वध के समय, जब कीचक ने द्रौपदी की कमर में लात मारी और दूसरी बार जब उन्होंने विकर्ण का वध किया। यह विकर्ण अकेले द्रौपदी को दाॅंव पर लगाए जाने का विरोध करते हैं और कहते हैं कि जब युधिष्ठिर स्वयं को हार चुके हैं तब वे द्रौपदी भाभी को दाॅंव पर नहीं लगा सकते और यह कहते हुए उन्होंने सभा का त्याग कर दिया था। ऐसे विकर्ण का वध करने पर भीमसेन को दु:ख है और वह रोए हैं। सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा। ये सब यहाँ पर हमारी ओर से लड़ने के लिए एकत्रित हैं। यह सारा वर्णन दुर्योधन अपनी सेना का करते हैं।
युद्ध में विजयी होने वाले कृपाचार्य, यह पाण्डवों और कौरवों के गुरु भी हैं। द्रोणाचार्य के पधारने से पूर्व कौरवों और पाण्डवों ने कृपाचार्य से ही शिक्षा ली है। अश्वत्थामा जो द्रोणाचार्य के पुत्र हैं। विकर्ण, यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पात्र है। यह कौरवों में सज्जन है।
गुरुदेव कहते हैं, भीमसेन अपने जीवन काल में दो बार रोए हैं। एक बार कीचक वध के समय, जब कीचक ने द्रौपदी की कमर में लात मारी और दूसरी बार जब उन्होंने विकर्ण का वध किया। यह विकर्ण अकेले द्रौपदी को दाॅंव पर लगाए जाने का विरोध करते हैं और कहते हैं कि जब युधिष्ठिर स्वयं को हार चुके हैं तब वे द्रौपदी भाभी को दाॅंव पर नहीं लगा सकते और यह कहते हुए उन्होंने सभा का त्याग कर दिया था। ऐसे विकर्ण का वध करने पर भीमसेन को दु:ख है और वह रोए हैं। सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा। ये सब यहाँ पर हमारी ओर से लड़ने के लिए एकत्रित हैं। यह सारा वर्णन दुर्योधन अपनी सेना का करते हैं।
अन्ये च बहवः(श्), शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः(स्), सर्वे युद्धविशारदाः।।1.9।।
इनके अतिरिक्त बहुत से शूरवीर हैं, (जिन्होंने) मेरे लिये अपने जीने की इच्छा का भी त्याग कर दिया है और जो अनेक प्रकार के -शस्त्रास्त्रों को चलाने वाले हैं (तथा जो) सब के सब युद्धकला में अत्यन्त चतुर हैं।
विवेचन- दुर्योधन कहते हैं कि मेरे लिए आए हुए मेरे सारे राजा मित्र, मेरे लिए अपनी जान पर खेलने को, अपने जीवन को दाॅंव पर लगाने को भी तैयार हैं। ये अनेक शस्त्रों से सुसज्जित हैं। यह सभी युद्ध कला में निपुण, विशारद लोग एकत्रित हुए हैं, लेकिन अब भी दुर्योधन के मन में खटास है, उसका मन विचलित है।
अपर्याप्तं(न्) तदस्माकं(म्), बलं(म्) भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं(न्) त्विदमेतेषां(म्), बलं(म्) भीमाभिरक्षितम्।।1.10।।
भीष्मपितामह द्वारा रक्षित हमारी यह सेना वह सेना स प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों कि यह सेना जीतने में सुगम है।
विवेचन- पितामह भीष्म कौरव सेना के सेनापति हैं। उनसे जिस सेना का संरक्षण हो रहा है, यह हमारा सैन्य जीतने के लिए अपर्याप्त है। भीमसेन जिस सेना की रक्षा कर रहे हैं वह पर्याप्त है अर्थात जीतने के लिए पर्याप्त है।
भीमसेन पाण्डव सेना के सेनापति नहीं हैं, वहाॅं धृष्टद्युम्न सेनापति हैं। साधक सञ्जीवनी में इसका दूसरा अर्थ भी बताया है कि दुर्योधन को अपना सैन्य बल अपर्याप्त लग रहा है, अर्थात् पूरा नहीं लग रहा है, कम लग रहा है। ग्यारह अक्षौहिणी सेना के साथ होकर भी सामने खड़ी पाण्डवों की सेना विशाल लग रही है, युद्ध जीतने के लिए पर्याप्त लग रही है। दुर्योधन के मन में खलबली है जिसे वह प्रकट कर रहा है।
अब दुर्योधन अपनी सेना के लिए आज्ञा देते हैं। एक भीम द्वारा रक्षित सेना और एक पितामह भीष्म द्वारा रक्षित सेना। भीमसेन पाण्डवों के सेनापति नहीं है, भीमसेन गदा युद्ध और कुश्ती में निपुण थे। भीमसेन और दुर्योधन दोनों ने श्रीकृष्ण जी के बड़े भाई बलराम जी से गदा चलाने की शिक्षा ली थी, वह उनके गुरु थे। दोनों प्रतिस्पर्धी हैं। दुर्योधन भीम से बहुत मत्सर करते हैं। उन्हें विष के लड्डू खिलाए, एक बार उन्हें तालाब में डुबो दिया था।
भीष्म हमारी सेना की रक्षा कर रहे हैं। यहाँ इसके दो अर्थ हैं- पितामह भीष्म जिसकी रक्षा कर रहे हैं, वह अजेय है उसे कोई नहीं हरा सकता। भीमसेन जिसकी रक्षा कर रहे हैं वह पर्याप्त है और जीतने के लिए सक्षम है।
भीमसेन पाण्डव सेना के सेनापति नहीं हैं, वहाॅं धृष्टद्युम्न सेनापति हैं। साधक सञ्जीवनी में इसका दूसरा अर्थ भी बताया है कि दुर्योधन को अपना सैन्य बल अपर्याप्त लग रहा है, अर्थात् पूरा नहीं लग रहा है, कम लग रहा है। ग्यारह अक्षौहिणी सेना के साथ होकर भी सामने खड़ी पाण्डवों की सेना विशाल लग रही है, युद्ध जीतने के लिए पर्याप्त लग रही है। दुर्योधन के मन में खलबली है जिसे वह प्रकट कर रहा है।
अब दुर्योधन अपनी सेना के लिए आज्ञा देते हैं। एक भीम द्वारा रक्षित सेना और एक पितामह भीष्म द्वारा रक्षित सेना। भीमसेन पाण्डवों के सेनापति नहीं है, भीमसेन गदा युद्ध और कुश्ती में निपुण थे। भीमसेन और दुर्योधन दोनों ने श्रीकृष्ण जी के बड़े भाई बलराम जी से गदा चलाने की शिक्षा ली थी, वह उनके गुरु थे। दोनों प्रतिस्पर्धी हैं। दुर्योधन भीम से बहुत मत्सर करते हैं। उन्हें विष के लड्डू खिलाए, एक बार उन्हें तालाब में डुबो दिया था।
भीष्म हमारी सेना की रक्षा कर रहे हैं। यहाँ इसके दो अर्थ हैं- पितामह भीष्म जिसकी रक्षा कर रहे हैं, वह अजेय है उसे कोई नहीं हरा सकता। भीमसेन जिसकी रक्षा कर रहे हैं वह पर्याप्त है और जीतने के लिए सक्षम है।
साधक सञ्जीवनी में इसका दूसरा अर्थ दिया है। अप्राप्त अर्थात जो पूरी नहीं लग रही हो। वास्तविकता में कौरवों की सेना ग्यारह अक्षौहिणी है और पाण्डवों की सात अक्षौहिणी है।
एक अक्षौहिणी सेना में: -
इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर रथ,
इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर हाथी
पैंसठ हजार छ: सौ दस घोड़े, और
एक लाख नो हजार तीन सौ पचास पैदल सैनिक होते हैं।
इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर रथ,
इक्कीस हजार आठ सौ सत्तर हाथी
पैंसठ हजार छ: सौ दस घोड़े, और
एक लाख नो हजार तीन सौ पचास पैदल सैनिक होते हैं।
अयनेषु च सर्वेषु, यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु, भवन्तः(स्) सर्व एव हि।।1.11।।
आप सब के सब लोग सभी मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह दृढ़ता से स्थित रहते हुए ही निश्चित रूप से पितामह भीष्म की चारों ओर से रक्षा करें।
विवेचन- जो-जो भी व्यूह बनाए हैं, व्यूह द्वार पर जिसको जहाॅं नियुक्त किया है, वहाॅं पर खड़े रहते हुए, सब लोग मिलकर अपनी-अपनी जगह व्यवस्थित हो कर पितामह भीष्म की चारों ओर से रक्षा करिएगा।
युद्ध चुनौतियों का क्षेत्र है। दुर्योधन के मन में चोर भी है और डर भी है। ग़लत मार्ग से दुर्योधन ने षड्यन्त्र करते हुए पाण्डवों को परास्त किया है, लेकिन आज तक आमने-सामने के युद्ध में पाण्डवों को कभी पराजित नहीं किया।
युद्ध चुनौतियों का क्षेत्र है। दुर्योधन के मन में चोर भी है और डर भी है। ग़लत मार्ग से दुर्योधन ने षड्यन्त्र करते हुए पाण्डवों को परास्त किया है, लेकिन आज तक आमने-सामने के युद्ध में पाण्डवों को कभी पराजित नहीं किया।
तस्य सञ्जनयन्हर्षं(ङ्), कुरुवृद्धः(फ्) पितामहः।
सिंहनादं(व्ँ) विनद्योच्चैः(श्), शङ्खं(न्) दध्मौ प्रतापवान्॥1.12॥
उस (दुर्योधन) के (हृदय में) हर्ष उत्पन्न करते हुए कौरवों में वृद्ध प्रभावशाली पितामह भीष्म ने सिंह के समान गरज कर जोर से शंख बजाया।
विवेचन- दुर्योधन के मन में यह भी है कि पितामह भीष्म पक्षपाती हैं क्या? आचार्य द्रोण भी पक्षपाती हैं क्या? इस प्रकार के विचार भी उसके मन में हैं, इसलिए उसके मन की इस बात को समझते हुए, उसके डर को समझते हुए पितामह भीष्म ने सिंहनाद किया। अपना शङ्ख बजाया जिससे दुर्योधन के मन का डर निकल जाए।
अत्यन्त प्रतापी पितामह भीष्म जिनकी आयु युद्ध के समय डेढ़ सौ वर्ष की है, इसलिए उन्हें कुरु वृद्ध कहा गया है। दुर्योधन के मन में हर्ष, आनन्द उत्पन्न करने के लिए उन कुरु वृद्ध प्रतापी पितामह भीष्म ने अत्यन्त भीषण आवाज में सिंह के समान गर्जना की और अपना शङ्ख बजाया।
अर्जुन और नारायण उस समय लगभग सत्तर वर्ष के थे। तब यह युवावस्था मानी जाती थी, पाॅंच हजार वर्ष पूर्व द्वापर युग में आयु की गणना इसी तरह से की जाती थी। पितामह भीष्म ने सिंहनाद किया, क्योंकि गर्जना करने से मन का भय निकल जाता है।
आजकल भी युवक-युवतियाँ जोर की आवाज करते हैं, अपने मन के भय को निकालने के लिए डी जे चलाते हैं। मनोविकार बढ़ रहे हैं, किसी को शान्ति नहीं चाहिए क्योंकि शान्ति में अपने विकारों पर दृष्टि चली जाती है। अपने विकारों और मनोभावों को दबाते हुए आज की युवा पीढ़ी शोर शराबे की ओर जा रही है।
युद्ध भूमि में प्रेरणा और वीर रस का सञ्चार करने के लिए युद्ध के वाद्य बजने लगे। शिवाजी महाराज भी युद्ध के समय इस प्रकार गर्जना किया करते थे-
!! हर हर महादेव !!
यह कहते हुए उद्घोष करने से वीरता और प्रेरणा का सञ्चार होता था।
अत्यन्त प्रतापी पितामह भीष्म जिनकी आयु युद्ध के समय डेढ़ सौ वर्ष की है, इसलिए उन्हें कुरु वृद्ध कहा गया है। दुर्योधन के मन में हर्ष, आनन्द उत्पन्न करने के लिए उन कुरु वृद्ध प्रतापी पितामह भीष्म ने अत्यन्त भीषण आवाज में सिंह के समान गर्जना की और अपना शङ्ख बजाया।
अर्जुन और नारायण उस समय लगभग सत्तर वर्ष के थे। तब यह युवावस्था मानी जाती थी, पाॅंच हजार वर्ष पूर्व द्वापर युग में आयु की गणना इसी तरह से की जाती थी। पितामह भीष्म ने सिंहनाद किया, क्योंकि गर्जना करने से मन का भय निकल जाता है।
आजकल भी युवक-युवतियाँ जोर की आवाज करते हैं, अपने मन के भय को निकालने के लिए डी जे चलाते हैं। मनोविकार बढ़ रहे हैं, किसी को शान्ति नहीं चाहिए क्योंकि शान्ति में अपने विकारों पर दृष्टि चली जाती है। अपने विकारों और मनोभावों को दबाते हुए आज की युवा पीढ़ी शोर शराबे की ओर जा रही है।
युद्ध भूमि में प्रेरणा और वीर रस का सञ्चार करने के लिए युद्ध के वाद्य बजने लगे। शिवाजी महाराज भी युद्ध के समय इस प्रकार गर्जना किया करते थे-
!! हर हर महादेव !!
यह कहते हुए उद्घोष करने से वीरता और प्रेरणा का सञ्चार होता था।
ततः(श्) शङ्खाश्च भेर्यश्च, पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त, स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।।1.13।।
उसके बाद शंख और भेरी (नगाड़े) तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे बाजे एक साथ ही बज उठे। (उनका) वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।
विवेचन- नगाड़े, ढोल, मृदङ्ग और अलग-अलग वाद्य बजने लगे। वाद्यों से कायरों को डर लगता है लेकिन वीरों को स्फुरण मिलता है। अनेक शङ्ख, नगाड़े और ढोल बजने लगे जिनसे अत्यन्त भीषण, भयङ्कर ध्वनि का निर्माण हुआ। सारी धरती मानो काँप उठी।
ऐसे समय में हमारे श्रीमद्भगवद्गीता के नायक- श्रीभगवान नारायण और नरोत्तम वीर अर्जुन, जिनके सारथी भगवान बने हैं, जिनके घोड़ों की लगाम भगवान के हाथ में है, दोनों का प्राकट्य हुआ।
ऐसे समय में हमारे श्रीमद्भगवद्गीता के नायक- श्रीभगवान नारायण और नरोत्तम वीर अर्जुन, जिनके सारथी भगवान बने हैं, जिनके घोड़ों की लगाम भगवान के हाथ में है, दोनों का प्राकट्य हुआ।
ततः(श्) श्वेतैर्हयैर्युक्ते, महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः(फ्) पाण्डवश्चैव, दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः।।1.14।।
इसके पश्चात् सफेद घोड़ों से युक्त महान रथ पर बैठे हुए लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण और पाण्डुपुत्र अर्जुन ने भी दिव्य शंखों को बड़े जोर से बजाया।
विवेचन: अर्जुन के रथ का आकार इतना विशाल है कि नौ बैलगाडी़ में जितने अस्त्र-शस्त्र आ सकते हैं उतने अर्जुन के रथ में समाहित हो सकते हैं। इसकी ध्वजा चार कोस की है। ध्वजा पर कपि अर्थात प्रत्यक्ष हनुमान जी विराजित हैं। इसके सफेद घोड़े हैं जिनकी लगाम भगवान श्रीकृष्ण के हाथ में है। सामने हरि बैठे हैं और पीछे ध्वजा पर हनुमान जी अर्थात हर बैठे हैं। हरि और हर दोनों अर्जुन के साथ हैं ऐसा दिव्य रथ है। ध्वजा पर पीछे की ओर सोने का पतरा लगा हुआ है।
जिनके रथ की लगाम भगवान के हाथ में है, रथ पर प्रत्यक्ष शिव के अवतार हनुमान जी विराजित हैं, ऐसे अर्जुन, ऐसे नरोत्तम अर्जुन की ऐसी मनोदशा क्यों हुई कि भगवान के मुखविन्द से यह ज्ञान की शाश्वत धारा प्रवाहित हुई या अर्जुन को उपदेश दिया गया। ऐसा कौन सा मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया गया? कि अर्जुन हतोत्साहित हो रहे हैं। उनके मन पर दबाव क्यों हुआ? इस युद्ध में अर्जुन के पास ही दिव्यास्त्र थे, फिर ऐसा क्या हुआ था कि वे हतोत्साहित हो गए थे।
ऐसा क्या घटा इसका सुन्दर विश्लेषण गुरुदेव ने किया है जो अन्यत्र कहीं पर भी नहीं किया गया।
वे भगवान सेे दूूर होने के भय से भयभीत हो गये थेे। वे कहते हैं, अरे! राजभोग, समृद्धि से जीवन का अभ्युदय नहीं होता। कितना भी प्राप्त करो मनुष्य उसके लिए और लालायित होता है और लोभ बढ़ता है। परमात्मा के सानिध्य से ही नि:श्रेयस और अभ्युदय होता है। मैं युद्ध में विजयी हुआ तो आप मुझसे दूर हो जाओगे और आप मुझसे दूर हो जाओगे तो क्या रहेगा जीवन में?
नरोत्तम अर्जुन क्यों अवसादग्रस्त हो गए? उनका संयम क्यों टूट गया? ये बात हम पहले अध्याय से सीखते हैं। आगे क्या होता है यह हम अगले विवेचन में दर्शन का प्रयास करेंगे।
इसके साथ ही आज के सुन्दर विवेचन का समापन और प्रश्नोत्तरी सत्रारम्भ हुआ।
विचार मन्थन(प्रश्नोत्तर):-
प्रश्नकर्ता: रूबी चौधरी जी
प्रश्न: हमें L 1 में साधक व L 2 में साधक मित्र नाम से सम्बोधित किया गया, अब L 3 व L 4 में क्या कह कर बुलाया जाएगा?
उत्तर: ये आपको पता करके बता दिया जाएगा कि आपको अगले स्तर में कौन से शब्द से उद्बोधित किया जाएगा।
प्रश्नकर्ता: रमा शंकर जी
प्रश्न: दुर्योधन को पाण्डवों से ही द्वेष, ईर्ष्या थी या उसका स्वभाव ही ऐसा था?
उत्तर: दुर्योधन का स्वभाव ही द्वेष, ईर्ष्या से युक्त है। अति महत्वकांक्षा से भरपूर।
प्रश्नकर्ता: उदय चन्द्रिका जी
प्रश्न: अश्वत्थामा हतः इति! नरोवा कुंजरोवा महाभारत में यह कब कहा गया?
उत्तर: आचार्य द्रोणाचार्य जी के हाथों में शस्त्र रहते उन्हें पराजित करना सम्भव नहीं था। अश्वत्थामा उनके परम प्रिय पुत्र हैं। आचार्य जी के हाथ से शस्त्रों का त्याग करवाने के लिए अश्वत्थामा नाम के हाथी का संहार करवाया गया। यह सूचना युद्धभूमि में धर्मराज युधिष्ठिर के मुख से आचार्य जी को प्रेषित की गई। यह सुनने के बाद उनके हाथ से शस्त्र छूट गए। तब उनको मारा जा सका। क्योंकि युधिष्ठिर जी असत्य भाषण नहीं करते थे इसी कारण नर या कुञ्जर शब्द जोड़ा गया।
प्रश्नकर्ता :सुनीता जी
प्रश्न : गीता जी की पुस्तक के आरम्भ में महात्म्य लिखा है परन्तु स्तर दो पार करने पर भी अभी तक सिखाया नहीं गया?
उत्तर : स्तर चार पूर्ण होने के बाद आपको महात्म्य, न्यास आदि सब सिखाया जाएगा।
प्रश्नकर्ता : प्रतिमा नारायण जी
प्रश्न : जिज्ञासु, पाठक परीक्षा के लिए कौन-कौन से अध्याय कण्ठस्थ करना होता है?
उत्तर : जिज्ञासु परीक्षा के लिए बारहवाँ, पन्द्रहवाँ एवं सोलहवाँ अध्याय एवं पाठक की परीक्षा के लिए बारहवाँ, पन्द्रहवाँ, सोलहवाँ, नौवाँ, चौदहवाँ एवं सत्रहवाँ, अध्याय कण्ठस्थ करना होता है। यह विवरण परीक्षा की सूचना के साथ हर बार दिया जाता है।
विचार मन्थन(प्रश्नोत्तर):-
प्रश्नकर्ता: रूबी चौधरी जी
प्रश्न: हमें L 1 में साधक व L 2 में साधक मित्र नाम से सम्बोधित किया गया, अब L 3 व L 4 में क्या कह कर बुलाया जाएगा?
उत्तर: ये आपको पता करके बता दिया जाएगा कि आपको अगले स्तर में कौन से शब्द से उद्बोधित किया जाएगा।
प्रश्नकर्ता: रमा शंकर जी
प्रश्न: दुर्योधन को पाण्डवों से ही द्वेष, ईर्ष्या थी या उसका स्वभाव ही ऐसा था?
उत्तर: दुर्योधन का स्वभाव ही द्वेष, ईर्ष्या से युक्त है। अति महत्वकांक्षा से भरपूर।
प्रश्नकर्ता: उदय चन्द्रिका जी
प्रश्न: अश्वत्थामा हतः इति! नरोवा कुंजरोवा महाभारत में यह कब कहा गया?
उत्तर: आचार्य द्रोणाचार्य जी के हाथों में शस्त्र रहते उन्हें पराजित करना सम्भव नहीं था। अश्वत्थामा उनके परम प्रिय पुत्र हैं। आचार्य जी के हाथ से शस्त्रों का त्याग करवाने के लिए अश्वत्थामा नाम के हाथी का संहार करवाया गया। यह सूचना युद्धभूमि में धर्मराज युधिष्ठिर के मुख से आचार्य जी को प्रेषित की गई। यह सुनने के बाद उनके हाथ से शस्त्र छूट गए। तब उनको मारा जा सका। क्योंकि युधिष्ठिर जी असत्य भाषण नहीं करते थे इसी कारण नर या कुञ्जर शब्द जोड़ा गया।
प्रश्नकर्ता :सुनीता जी
प्रश्न : गीता जी की पुस्तक के आरम्भ में महात्म्य लिखा है परन्तु स्तर दो पार करने पर भी अभी तक सिखाया नहीं गया?
उत्तर : स्तर चार पूर्ण होने के बाद आपको महात्म्य, न्यास आदि सब सिखाया जाएगा।
प्रश्नकर्ता : प्रतिमा नारायण जी
प्रश्न : जिज्ञासु, पाठक परीक्षा के लिए कौन-कौन से अध्याय कण्ठस्थ करना होता है?
उत्तर : जिज्ञासु परीक्षा के लिए बारहवाँ, पन्द्रहवाँ एवं सोलहवाँ अध्याय एवं पाठक की परीक्षा के लिए बारहवाँ, पन्द्रहवाँ, सोलहवाँ, नौवाँ, चौदहवाँ एवं सत्रहवाँ, अध्याय कण्ठस्थ करना होता है। यह विवरण परीक्षा की सूचना के साथ हर बार दिया जाता है।
ॐ श्रीकृष्णार्पणमस्तु