विवेचन सारांश
भगवान योगेश्वर के विराट स्वरूप के दर्शन
हम अर्जुन के स्थान पर हैं, ऐसी कल्पना करेंगे तो शायद हम अर्जुन की भाँति योगेश्वर के विश्वरूप का दर्शन करेंगे। अर्जुन कहते हैं कि यदि आपको लगता है कि मैं विश्व रूप का दर्शन करने के योग्य हूँ तो आप कृपा करके मुझे विश्वरूप का दर्शन कराइए। भगवान ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान की। अब अर्जुन को भगवान के एक ही शरीर में सम्पूर्ण विश्व दिख रहा है। जैसे यशोदा मैय्या के पूछने पर कि क्या मिट्टी खाई? भगवान उन्हें अपने मुख में सारा ब्रह्माण्ड दिखा देते हैं उसी प्रकार अर्जुन को विश्व रूप के दर्शन होते हैं।
11.16
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं(म्),
पश्यामि त्वां(म्) सर्वतोऽनन्तरूपम्।
नान्तं(न्) न मध्यं(न्) न पुनस्तवादिं(म्),
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप॥11.16॥
असंख्य मुख और उदर दिखाई दे रहे हैं। हमें अनुभव करना है कि सर्वत्र परमात्मा व्याप्त है। यह दृष्टि जो अर्जुन को प्राप्त हुई यही हम प्राप्त करना चाहते हैं। भेद ही समाप्त हो गया।
जिस प्रकार एक वृक्ष पर अनेक पंछी अपने घोसलों के साथ, एक भारत माता कई पंजाबी, गुजराती, तमिल, असमी, तेलुगू, तमिल, कन्नड़ आदि को अपने मे समाहित किए हुए है।
अर्जुन योगेश्वर से कहते हैं कि हे माधव! मुझे दसों दिशाओं में आप ही दिखाई दे रहे हैं जिसका कोई अन्त नहीं है। आपका न तो अन्त दिखाई देता है न मध्य। आप अनादि हैं, आप अनन्त हैं।
किरीटिनं(ङ्) गदिनं(ञ्) चक्रिणं(ञ्) च,
तेजोराशिं(म्) सर्वतो दीप्तिमन्तम्।
पश्यामि त्वां(न्) दुर्निरीक्ष्यं(म्) समन्ताद्-
दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥11.17॥
त्वमक्षरं(म्) परमं(म्) वेदितव्यं(न्),
त्वमस्य विश्वस्य परं(न्) निधानम्।
त्वमव्ययः(श्) शाश्वतधर्मगोप्ता,
सनातनस्त्वं(म्) पुरुषो मतो मे॥11.18॥
"त्वमक्षरं(म्) परमं(व्ँ) वेदितव्यं(न्),
परमात्मा को ही परम अक्षर, परमब्रह्म कहा जाता है। जिसे जानने के लिए हमारा प्रयास होना चाहिए, मनुष्य का जन्म जिसके लिए हमने आपको बताया है। विश्व के आप परम निधान अर्थात् आश्रयस्थल हैं।
जिस प्रकार एक भण्डार कक्ष सारा सामान धारण करता है उसी प्रकार हमारे भण्डार कक्ष आप हैं। ऐसा लगता है मानो सारे विश्व का भुगतान कर दिया हो।
भगवान धरती पर ही क्यों आते हैं? उन्होंने स्वयं चतुर्थ अध्याय में कहा है। भगवान कहते हैं- धर्म की रक्षा के लिए मैं आता हूँ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभावामि युगे युगे॥4.8॥"
ज्ञानेश्वर महाराज इन्हें धर्म का कारण कहते हैं। यह प्रश्न कि धर्म क्या है? तो उनका सरल सा उत्तर है कि श्रीरामचन्द्र धर्म की साक्षात मूर्ति हैं। श्रीराम का जीवन अर्थात् धर्म। मनुष्य को मर्यादाओं का पालन करते हुए धर्म का पालन कैसे करना है, पिता के आदेशों का पालन किस प्रकार करना है, राजा को किस प्रकार के धर्म का पालन करना चाहिए। श्री राम ने अपने जीवन से सिद्ध करके बताया है।
अर्जुन शोक में भगवान की स्तुति करते हैं और बीच-बीच में भगवान के स्वरूप को देखते हैं और कभी भयभीत हो जाते हैं और कभी आनन्दित हो जाते हैं। क्या हो रहा है यह अर्जुन को कुछ भी समझ नहीं आ रहा। हमें भी नहीं समझ आता कि अर्जुन क्या देख रहे हैं? अर्जुन भगवान के ऐसे स्वरूप को देख रहे हैं कि जिसे देखकर हम मनुष्य शब्द विहीन हो जाएँगे।
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यम्,
अनन्तबाहुं(म्) शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां(न्) दीप्तहुताशवक्त्रं(म्),
स्वतेजसा विश्वमिदं(न्) तपन्तम्॥11.19॥
एक ही शब्द का प्रयोग किया जा सकता है- अनन्त। प्रभु आपकी शक्ति का कोई अन्त नहीं है। आपकी भुजाएँ अनन्त है। सूर्य और चन्द्र आपके नेत्र हैं। किसी को डाँटना हो तो आप सूर्य के नेत्र से देखेंगे और दुलारना हो तो चन्द्र के नेत्र से।
अर्जुन कहते हैं कि आपका मुख प्रज्वलित अग्नि के समान प्रतीत हो रहा है। पहाड़ों पर जंगलों में लगने वाली आग, दावानल के समान। आप अपने तेज से इस सारे विश्व को तप्त कर रहे हैं। आपका यह तेज विश्व के द्वारा सहा नहीं जा रहा। गर्मी में जब पैंतालीस डिग्री तापमान हो जाता है तो हम सहन नहीं कर पाते।
जब सूर्य उदय होता है तब कुछ समय के लिए हम उसे देख सकते हैं किन्तु जब दोपहर में सूर्य ऊपर की ओर हो जाता है तब हम उसको देख नहीं सकते। जब एक सूर्य की तरफ हम नहीं देख सकते तो अनन्त सूर्य के प्रकाश के समान तेज राशि वाले भगवान की तरफ क्या कोई देख सकेगा? आपके तेज से सारा विश्व संतप्त हो रहा है।
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं(म्) हि,
व्याप्तं(न्) त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः।
दृष्ट्वाद्भुतं(म्) रूपमुग्रं(न्) तवेदं(म्),
लोकत्रयं(म्) प्रव्यथितं(म्) महात्मन्॥11.20॥
हम इन साधारण चर्म चक्षुओं से जो भी देखते हैं उसे सत्य मान लेते हैं। जब भावुक होते हैं तो सुन्दर विग्रह में भगवान के दर्शन होते हैं। विवेक दृष्टि जागृत होती है और संसार की सच्चाई पता चलती है कि यहाँ कुछ भी स्थिर नहीं है।
एक पाश्चात्य तत्ववेत्ता का सुन्दर वाक्य है-
You cannot wash your hands in same river again.
क्योंकि जिसमें हाथ धोए थे वह जल तो बहकर आगे चला गया।
जो सतत बदलता है, वह संसार है।
अर्जुन दिव्य दृष्टि से देखते हैं कि यह सारा संसार भगवान में समाया हुआ है और एक अंश के समान ही है। अर्जुन को लगता है कि भगवान को आलिङ्गन कैसे दूँ क्योंकि उन्होंने तो सारे विश्व को स्वयं में व्याप्त कर लिया है। आलिङ्गन न दूँ तो मुझे सुख कैसे मिलेगा? असांसारिक लोगों को भी संसार में केवल सुख ही चाहिए। ऐसा तब तक ही लगेगा जब तक वे विश्वरूप को नहीं देख लेते। चर्म चक्षुओं की दृष्टि, भाव दृष्टि, विवेक दृष्टि की अपेक्षा दिव्य दृष्टि उत्तम है जिसमें यह पता चलता है कि सारा संसार भगवान के भीतर एक अंश रूप में व्याप्त है।
संसार में कुछ घटनाएँ हो चुकी हैं, कुछ हो रही है और कुछ होने वाली हैं। यह सब मिलकर बनता है, काल। वह सब भी भगवान में समाया हुआ है।
अमी हि त्वां(म्) सुरसङ्घा विशन्ति,
केचिद्भीताः(फ्) प्राञ्जलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घा:(स्),
स्तुवन्ति त्वां(म्) स्तुतिभिः(फ्) पुष्कलाभिः॥11.21॥
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
अर्थात् "सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मङ्गलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख ना हो।
ॐ स्वस्ति कहते हुए ऋषिगण आपसे सबके कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं।
हम हनुमान चालीसा का पाठ, राम रक्षा स्त्रोत का पाठ सबके कल्याण के लिए करते हैं।
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या-
विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा,
वीक्षन्ते त्वां (म्) विस्मिताश्चैव सर्वे॥11.22॥
जिस प्रकार हम बचपन में स्मरण शक्ति का खेल खेलते थे कि एक कमरे में बहुत सारी रखी हुई चीजों को देखकर दूसरे कमरे में जाकर लिखना।
इस प्रकार अर्जुन को सब दिखाई दे रहा है, वह योगेश्वर श्रीकृष्ण में दिखाई दे रही विश्वरूप की सब विशेषताओं को गिन रहे हैं।
रूपं (म्) महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं(म्),
महाबाहो बहुबाहूरुपादम्।
बहूदरं(म्) बहुदंष्ट्राकरालं(न्),
दृष्ट्वा लोकाः(फ्) प्रव्यथितास्तथाहम्॥11.23॥
नभःस्पृशं(न्) दीप्तमनेकवर्णं(म्),
व्यात्ताननं(न्) दीप्तविशालनेत्रम्।
दृष्ट्वा हि त्वां(म्) प्रव्यथितान्तरात्मा,
धृतिं(न्) न विन्दामि शमं(ञ्) च विष्णो॥11.24॥
"नभ: स्पर्शम् दीप्तम्" यह हमारी वायु सेना का बोध वाक्य है। हमारी वायु सेवा के विमान और वैमानिक दोनों ही नभ को स्पर्श करने वाले और तेजस्वी हैं।
अर्जुन कहते हैं मेरा सारा धैर्य समाप्त हो गया है और मुझे शान्ति की प्राप्ति भी नहीं हो रही। अर्जुन कहते हैं कि माधव मुझे तो लगा था कि आपका विराट रूप देखकर मुझे बहुत ही सुखद अनुभव होगा परंतु मैं भयभीत हो चुका हूँ!
हमें इस दृष्टि से संसार को भी देखना है कि चाहे सुनामी हो ,बाढ़ हो ,कोई भी भयावह स्थिति हो, इसी दृष्टि से देखना है कि वह भगवान का ही एक रूप है।
दसवें अध्याय विभूतियोग में, भगवान ने अर्जुन को बताया कि विशेषता कैसे देखना है अच्छाई में पहले अच्छाई को देखना, बुराई में भी पहले अच्छाई को ढूँढने का प्रयास करना है। इस अध्याय के माध्यम से भगवान हमें यह सिखाने का प्रयास करते हैं कि अच्छाई और बुराई के साथ संसार की सब वस्तुओं को, स्थितियों को स्वीकार करना कि, यह मेरी ही है।
व्यात्ताननम् शब्द के लिए ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं आपका मुख इतना विशाल दिखाई दे रहा है जैसे कि दो पहाड़ों के बीच की खाई दिखाई देती हो। अर्जुन कहते हैं- यह सब दिखाकर आप क्या कहना चाहते हैं? मेरे समझ में कुछ नहीं आ रहा। अर्जुन कहते हैं कि अब मुझे भय लगने लगा है।
गर्भवती स्त्री को कुछ खाने की इच्छा होती है उसी प्रकार अर्जुन कहते हैं कि मेरी इच्छा हुई आपका स्वरूप देखने की परन्तु आपका यह रूप देखकर तो मैं डर गया हूँ। भय से सारा शरीर कम्पित हो रहा है, मन भी संतप्त हो रहा है, कोई शान्ति नहीं मिल रही और मेरा सारा अभिमान समाप्त हो गया है। जिसे अधिक अभिमान हो जाए उसे ग्रह- नक्षत्र, एस्ट्रोफिजिक्स, का अध्ययन करने की सलाह देते हैं। जो ग्रह, नक्षत्र, तारे हम अब देख रहे हैं उस प्रकाश को हम तक आने में कई लाखों वर्षों का समय लग जाता है। जो हम अब देख रहे हैं वह नवीन नहीं, पुरातन है। जब यह सारा आँकड़ा देखते हैं तो मनुष्य का सारा अहङ्कार समाप्त हो जाता है। इतने बड़े विश्व में हमारी पृथ्वी एक धूलि कण से भी छोटी है। सम्पूर्ण पृथ्वी पर हमारा अस्तित्व कितना छोटा होगा, यह जानकर अभिमान करने को कुछ शेष रह नहीं जाता। हम स्वयं को कितना बड़ा समझते हैं? विश्वरूप दिखाने का प्रयोजन ही अहङ्कार को समाप्त करना है। ज्ञानचक्षु जब खुल जाते हैं तब पता चलता हैं कि वह अनन्त भी मेरा ही प्रकार है। जल बिन्दु जल में समाया हुआ रहता है, उसी प्रकार हमें भी परमात्मा में स्वयं को देखना है यही योग कहलाता है।
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि,
दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि।
दिशो न जाने न लभे च शर्म,
प्रसीद देवेश जगन्निवास॥11.25॥
अमी च त्वां(न्) धृतराष्ट्रस्य पुत्राः(स्),
सर्वे सहैवावनिपालसङ्घैः।
भीष्मो द्रोणः(स्) सूतपुत्रस्तथासौ,
सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः॥11.26॥
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति,
दंष्ट्राकरालानि भयानकानि।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु,
सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गै:॥11.27॥
भगवान के विश्वरूप को अर्पण करके आज का विवेचन सत्र सम्पन्न हुआ और प्रश्नोत्तर सत्र आरम्भ हुआ।
प्रश्नोत्तर सत्र:-
प्रश्नकर्ता:- गीता दीदी
प्रश्नः सतरहवें श्लोक की अंतिम पंक्ति पुनः बताएँ।
उत्तरः द्युति अर्थात् प्रकाश – भगवान का सारा प्रकाश प्रखर प्रज्जवलित अग्नि के समान है।
प्रमेय – जिसका हल हो सकता है, प्रमाण किया जा सकता है, नापा जा सकता है। अप्रमेय – जिसको नापा नहीं जा सकता।
समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयं का अर्थ है जो चारों ओर से प्रखर अग्नि के समान है और जिसको नापा नहीं जा सकता।
प्रश्नकर्ता:- इन्द्रवदन भैया
प्रश्नः भगवान ने यशोदा मैया और अर्जुन दोनों को विश्वरूप दिखाया किन्तु मैया प्रसन्न हुई और अर्जुन भयभीत हो गये?
उत्तरः यशोदा मैया भगवान को बाँधना चाहती थी। वह भगवान को ऊखल से बाँधने का प्रयास करती हैं किन्तु हर बार रस्सी चार अँगुल छोटी पड़ जाती है। अन्ततः वह भगवान को ऊखल से बाँधने में सफल हो जाती हैं। यशोदा मैया भगवान से पूछती हैं कि मिट्टी खाई रे कान्हा। भगवान मैया को मुँह खोलकर दिखाते हैं कि मिट्टी की क्या बात है मैंने तो सब कुछ खा रखा है। भगवान यह सोचकर कि यदि मैया मेरे वास्तविक स्वरूप को जान जाएँगीं तो मुझे भगवान मानकर मेरी पूजा करने लगेगी और मैं अपने बचपन से वंचित हो जाऊँगा। इसलिए भगवान मैया को क्षण भर की लीला के पश्चात् माया की निद्रा में सुला देते हैं और मैया सब भूल जाती हैं।
अर्जुन ने भगवान से कहा कि मुझे वह बताइये जो मेरे लिए श्रेष्ठ है - यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे।।2.7।।
अर्जुन को भगवान समग्र ज्ञान देना चाहते हैं। अर्जुन जाग्रत अवस्था में है। सब कुछ होते हुए देख रहे है। भगवान ने अर्जुन को काल के भी अतीत जाकर दिखाया। जो हो गया है और जो होने वाला है वह भगवान दिखा सकते हैं। यह सारा संसार ऐसा ही है, मेरा ही रूप है इसे स्वीकार करना ही होगा। इसलिए मृत्यु का भय नहीं होना चाहिए किन्तु मृत्यु का विचार अवश्य होना चाहिए। मैं पुण्य कर्म करूँ ऐसा भाव होना चाहिए।
एकनाथ महाराज जी के पास एक व्यापारी जाकर बोला कि मैं व्यापार करता हूँ, पाप कर्म भी करता हूँ, मक्कारी भी करनी पड़ती है किन्तु आप एक भी अपराध पाप कर्म नहीं करते। ऐसा आप कैसे कर पाते हैं?
एकनाथ जी ने बोला कि अपना हाथ दिखाओ। हाथ देखने के पश्चात बोले कि एक सप्ताह के बाद आपकी मृत्यु हो जाएगी। व्यापारी डर गया और चला गया। एक सप्ताह तक एक-एक दिन गिनता रहा। आठवें दिन महाराज के पास जाकर बोला कि मैं तो जीवित हूँ। महाराज जी ने उससे पूछा कि तुमने पिछले एक सप्ताह में कितने पाप कर्म किए। तब व्यापारी ने बताया कि मैंने पिछले एक सप्ताह में एक भी पाप कर्म नहीं किया क्योंकि मुझे मृत्यु का भय था। एकनाथजी के कहा कि ऐसे ही मैं यह भाव रखकर रहता हूँ कि हमें जो दिख रहा है सब कुछ समाप्त होने वाला है। ऐसा भाव रखकर पवित्र कर्म करता हूँ। ऐसा स्वीकार करने से, सबको सच्चिदानन्द मिले।
प्रश्नकर्ता:- सपना खण्डेलवाल दीदी
प्रश्नः तृतीय अध्याय में भगवान ने कर्म योग के बारे में बताया है। गीता पढ़ने के समय विघ्न आता है तो क्या करें?
उत्तर: अपना कर्त्तव्य जानना महत्त्वपूर्ण है। दो कर्त्तव्यों के बीच में चयन करना है तो जो बड़ा कर्त्तव्य हो उसे भी उसका चयन करना है। यह विवेक जागृत होने पर ही हो सकता है। कहा गया है – नीर क्षीर विवेक का हमको ज्ञान होना चाहिए
एक उदाहरण से समझते हैं-
एक सैनिक छुट्टी में घर पर आया। माँ अचानक बीमार हो गई और आईसीयू में भर्ती हो गई। माँ गम्भीर है कभी भी देहान्त हो सकता है। अचानक संदेश आया कि उसे बॉर्डर पर जाना है। वह अपना कर्त्तव्य देश के प्रति समझकर माँ को अपने अन्य सम्बन्धियों के भरोसे छोड़कर सीमा पर चला गया।
समय-समय पर कर्त्तव्य बदलता है। इसलिए विशाल कर्त्तव्य को पहले करना है।
बच्चों को स्कूल भेजना है तो उस समय गीता पढ़ना नहीं क्योंकि बच्चे को स्कूल भेजना प्रथम कर्त्तव्य है। गीता पाठ को कर्त्तव्य कर्म करने के समय छोड़ने से बिल्कुल दोष नहीं लगता। भगवद्गीता माता समान है। माँ बच्चे को कभी दोष नहीं देती। अपने कर्त्तव्य के लिए गीता पाठ छोड़ने से दोष नहीं लगता।
प्रश्नकर्ता:- अनिता दीदी
प्रश्नः अर्जुन ने भगवान के विश्वरूप के दर्शन किए और विश्वरूप में महादेव के भी अलग से दर्शन किए लेकिन महादेव निरङ्कारी हैं, अजन्मा हैं।
उत्तरः महादेव अजन्मा है, निरङ्कार है, अव्यय है। एक ही परमात्मा के अनेक रूप है। अर्जुन भगवान के अनेक रूपों को एक ही रूप में देख रहा है –
तेरे नाम अनेक तू एक ही है
तेरे रूप अनेक तू एक ही है।
कर्म के अनुसार भगवान के नाम अलग-अलग हो गए हैं –
जब वे विलय करते हैं तब महादेव कहलाते हैं,
जब उत्पत्ति का कारक होते हैं तो ब्रह्मा कहलाते हैं और
जब सृष्टि का भरण-पोषण करते हैं तो उन्हें विष्णु कहा जाता है।
भगवान के अनेक रूप हम देखते हैं। हमें जो भी भाता है हम उसकी उपासना करते हैं। भगवान के नाम, रूप- रंग अलग-अलग हैं लेकिन एक ही हैं। शिव-शक्ति भी अलग-अलग नहीं है।
जैसे हीरे के चारों पहलुओं में अलग-अलग रूप दिखते हैं वैसे ही भगवान के भी अनेक रूप दिखते हैं।
जैसे इंद्रधनुष में सात रंगों के अनेक स्पेक्ट्रम होते हैं लेकिन मूल रंग सफेद ही होता है उसी प्रकार भगवान के नाम रूप-रंग अलग-अलग है लेकिन वे एक ही हैं। जिसे जो अच्छा लगे स्वीकार करें।
प्रश्नकर्ता:- श्री राम चौधरी भैया
प्रश्नः भगवान और अर्जुन एक दूसरे को महाबाहू कह रहे हैँ।
उत्तरः भगवान और अर्जुन एक दूसरे को महाबाहू कह रहे हैं क्योंकि दोनों ही पराक्रमी हैं।
प्रश्नकर्ता:- रमाकांत खरे भैया
प्रश्नः छठे और बाइसवें श्लोक में ग्यारह रुद्र बारह आदित्य, आठ वसु आदि को विस्तार से जानने के लिए क्या पढ़ें?
उत्तरः भगवद्गीता की टीका जो पूज्य स्वामी रामसुखदास जी ने साधक संजीवनी के नाम से लिखी है। आप उसे पढ़ लीजिए। गीता प्रेस का प्रकाशन है।
प्रश्नकर्ता:- रमाकांत खरे भैया
प्रश्नः भगवान ने अर्जुन को अपना विश्वरूप क्यों दिखाया?
उत्तरः भगवान ने अर्जुन को मोह से बाहर निकालने के लिए अपना विश्वरूप दिखाया।
प्रश्नकर्ता:- गुरमेल कौर दीदी
प्रश्नः हम श्रीराम प्रतिष्ठा के लिए शतकोटि हनुमान चालीसा का पाठ कर रहे थे। क्या अभी और पाठ करें?
उत्तरः भगवान की प्राण-प्रतिष्ठा हो गई है लेकिन मंदिर का का निर्माण कार्य अभी बाकी है। जितना पाठ करेंगे कल्याण होगा इसलिए पाठ करते रहें।
प्रश्नकर्ता:- सहस पांडा
प्रश्नः अठ्ठहारवें श्लोक में कहा गया है कि भगवान ओङ्कार से भी परे हैं? उत्तरः ऐसा ज्ञानेश्वर महाराज ने ज्ञानेश्वरी में कहा है कि भगवान ओङ्कार से भी परे हैं। भगवान निर्गुण साकार रूप है, सगुण साकार रूप हैं। जिसको जैसा है ऐसा देखिए। भगवान निर्गुण निराकार हैं, निर्गुण साकार है, सगुण निराकार हैं, सगुण साकार भी हैं।
ओङ्कार रूप में निर्गुण होते हुए भी नाद के रूप में साकार हैं।
प्रश्नकर्ता:- सहस पांडा
प्रश्नः भगवान ने अर्जुन को भविष्य के बारे में बताया था। क्या अर्जुन ने अपने परिवार पक्ष के लोगों को भी मरते हुए देखा?
उत्तरः ऐसा पता नहीं कि उन्होंने अलग-अलग देखा या नहीं देखा। पर यह सच है कि भगवान ने अर्जुन को उसके पक्ष के परिवार के लोगों को भी मरते हुए दिखाया था।
प्रश्नकर्ता:- चित्रा सुरेश दीदी
प्रश्नः भगवान ने यशोदा मैया को दिव्यरूप दिखाया और अर्जुन को एक दिव्यरूप दिखाया पर वह डर गया। हम अपने आप को कैसे सम्भालें?
उत्तरः भयङ्कर दृश्य संसार का हिस्सा हैं। सुनामी आई, एक्सीडेंट हो गया, हमें उनको स्वीकार करना ही होगा। भगवद्गीता जी से दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है। यह स्वीकार करना ही है कि संसार विनाशी है भगवान
अविनाशी हैं। इसे स्वीकार करने के लिए गीता ज्ञान प्राप्त करना ही होगा। भगवान कृष्ण और भगवद्गीता में कोई अन्तर नहीं है। कहा गया है - जयतु जयतु गीता वाङ्मयी कृष्णमूर्ति।
प्रश्नकर्ता:- चित्रा सुरेश दीदी
प्रश्नः ऐसा माना जाता है कि भगवान ने आधे घंटे में अर्जुन को गीताजी का ज्ञान दे दिया था।
उत्तरः भगवान और अर्जुन के बीच वैसा ही सम्वाद हुआ था जैसे हम सम्वाद करते हैं। उस सम्वाद को महर्षि वेदव्यास जी ने श्लोकबद्ध किया।
पूज्य स्वामी गोविन्द देव गिरि जी महाराज सम्पूर्ण गीता का पारायण 40 मिनट में कर लेते हैं। जब स्वामी जी ऐसा कर सकते हैं तो भगवान तो भगवान हैं।
प्रश्नकर्ता:- सुरेश गुप्ता
प्रश्नः ज्ञानयोग से भक्ति की जाती है। कर्मयोग से भक्ति की जाती है और भक्तियोग से भक्ति की जाती है। क्या तीनों प्रकार की भक्ति से वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है?
उत्तरः भगवान कहते हैं कि मुझे प्राप्त करना ही भक्ति है। भक्त चार प्रकार से मुझे भजते हैं।
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।7.16।।
भक्त चार प्रकार के होते है-
आर्त भक्त जो दुख में मुझे याद करते हैं।
जिज्ञासु भक्त जिनको उत्सुकता रहती है कि भगवान कैसे हैं, कैसा उनका स्वरूप है। यह जानने के बाद मुझे याद करते हैं।
अर्थाथी भक्त मुझे सुख साधन प्राप्त हो ऐसी इच्छा के साथ में वे मुझे याद करते हैं।
ज्ञानी भक्त भगवान को जानने के बाद भगवान से प्रीत प्रेम करते हैं। ये श्रेष्ठ भक्त हैँ।
ज्ञानयोग और कर्मयोग के लिए भक्ति अनिवार्य नहीं है। भगवान पर श्रद्धा आवश्यक नहीं है। अच्छे कर्म करके भूल जाओ वह भी कर्मयोग ही है। कर्म करके उसे भगवान को अर्पित कर दो और यह श्रेष्ठ है।
जब मनुष्य कर्मयोग से भगवान को प्राप्त करता है तो उसे ज्ञान प्राप्त होने लगता है और भगवान पर प्रेम जागृत होने लगता है। धीरे-धीरे वह भक्ति में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार एक चक्र शुरू हो जाता है। ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग सभी के द्वारा मनुष्य भगवान की भक्ति करता है, जिसके फलस्वरूप उसे भगवद् प्राप्ति होती है।
प्रश्नकर्ता:- रविन्द्र भैया
प्रश्नः श्री भगवान के विश्वरूप के दर्शन कितने लोगों ने किए हैं?
उत्तरः अर्जुन और सञ्जय को भगवान के विश्वरूप के दर्शन हुए। अर्जुन को भगवान की कृपा से और सञ्जय को अपने गुरु वेदव्यास महाराज की कृपा से भगवान के विश्वरूप के दर्शन हुए। यदि हम इस अध्याय को बार-बार पढ़ें और समझें तो हम भी भगवान के विश्वरूप के दर्शन कर सकते हैं।
प्रश्नकर्ता:- समीर टिक्कू भैया
प्रश्नः क्या सूर्यदेव ने भगवान के विश्वरूप के दर्शन किए हैं?
उत्तरः भगवान ने सूर्य को योगशास्त्र बताया है लेकिन दर्शन दिए हैं ऐसा कहीं उल्लेख नहीं है।
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥ ४-१॥
श्रीकृष्ण प्रार्थना और श्री हनुमान चालीसा पाठ के साथ सत्र का समापन हुआ।