विवेचन सारांश
त्रिगुणात्मिका प्रकृति और उसके बन्धन
परम्परागत दीप प्रज्वलन, प्रार्थना, गुरु वन्दना और अभिवादन के साथ माघ पूर्णिमा के पवित्र दिवस पर आज का सत्र प्रारम्भ किया गया।
भगवद्गीता का चिन्तन करते समय उसकी रचना पर ध्यान देना भी आवश्यक है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भगवद्गीता तब सुनाई जब अर्जुन हताश और दु:खी होकर युद्ध छोड़कर जाना चाहते थे।
भगवद्गीता का प्रथम अध्याय अर्जुन की उसी मनःस्थिति और उस समय की परिस्थिति पर केन्द्रित है। दूसरे अध्याय में आत्मतत्त्व का ज्ञान है और उस ज्ञान को जानने हेतु कर्मयोग और आत्मसंयम को समझाता है तीसरा अध्याय, इसके बाद चौथे अध्याय से आठवें अध्याय तक ज्ञान विज्ञान के माध्यम से समग्र ज्ञान विज्ञान का विस्तार है।
भगवान सर्वत्र हैं, यह गुह्य और गोपनीय ज्ञान नौंवे अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया। यह रहस्य जानकर अर्जुन को सर्वव्यापी भगवान का रूप देखने की इच्छा होती है, तब दसवें अध्याय में भगवान अपनी सारी विभूतियों का वर्णन करते हैं और ग्यारहवें अध्याय में अपना विराट विश्व रूप दिखाते हैं। इसके बाद जो प्रेम जागृत होता है वही भक्ति है। बारहवाँ अध्याय भक्ति योग है।
तेरहवें अध्याय में एक ही तत्त्व को दो भागों, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ में विभाजित कर अर्जुन को समझाते हैं। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से यह सारा संसार निर्मित हुआ है। क्षेत्र अर्थात प्रकृति, माया या महद्ब्रह्म और इन सबका ज्ञान रखने वाला क्षेत्रज्ञ, ये दोनों इतने घुल-मिल गए हैं कि उन्हें अलग-अलग देखना सम्भव ही नहीं है। तेरहवें अध्याय में यही अन्तर अच्छी तरह से समझाया गया है।
"क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवम्, अन्तरं(ञ्) ज्ञानचक्षुषा।
भगवद्गीता का चिन्तन करते समय उसकी रचना पर ध्यान देना भी आवश्यक है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भगवद्गीता तब सुनाई जब अर्जुन हताश और दु:खी होकर युद्ध छोड़कर जाना चाहते थे।
भगवद्गीता का प्रथम अध्याय अर्जुन की उसी मनःस्थिति और उस समय की परिस्थिति पर केन्द्रित है। दूसरे अध्याय में आत्मतत्त्व का ज्ञान है और उस ज्ञान को जानने हेतु कर्मयोग और आत्मसंयम को समझाता है तीसरा अध्याय, इसके बाद चौथे अध्याय से आठवें अध्याय तक ज्ञान विज्ञान के माध्यम से समग्र ज्ञान विज्ञान का विस्तार है।
भगवान सर्वत्र हैं, यह गुह्य और गोपनीय ज्ञान नौंवे अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया। यह रहस्य जानकर अर्जुन को सर्वव्यापी भगवान का रूप देखने की इच्छा होती है, तब दसवें अध्याय में भगवान अपनी सारी विभूतियों का वर्णन करते हैं और ग्यारहवें अध्याय में अपना विराट विश्व रूप दिखाते हैं। इसके बाद जो प्रेम जागृत होता है वही भक्ति है। बारहवाँ अध्याय भक्ति योग है।
तेरहवें अध्याय में एक ही तत्त्व को दो भागों, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ में विभाजित कर अर्जुन को समझाते हैं। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से यह सारा संसार निर्मित हुआ है। क्षेत्र अर्थात प्रकृति, माया या महद्ब्रह्म और इन सबका ज्ञान रखने वाला क्षेत्रज्ञ, ये दोनों इतने घुल-मिल गए हैं कि उन्हें अलग-अलग देखना सम्भव ही नहीं है। तेरहवें अध्याय में यही अन्तर अच्छी तरह से समझाया गया है।
"क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवम्, अन्तरं(ञ्) ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं(ञ्) च, ये विदुर्यान्ति ते परम्॥१३.३४॥"
इसके पश्चात भगवान को इसी बात को और विस्तार से बताना आवश्यक लगा इसलिए अर्जुन के बिना कुछ पूछे ही चौदहवें अध्याय में ज्ञान बताने का उपक्रम जारी रखा।
इसके पश्चात भगवान को इसी बात को और विस्तार से बताना आवश्यक लगा इसलिए अर्जुन के बिना कुछ पूछे ही चौदहवें अध्याय में ज्ञान बताने का उपक्रम जारी रखा।
14.1
श्रीभगवानुवाच
परं(म्) भूयः(फ्) प्रवक्ष्यामि, ज्ञानानां(ञ्) ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनयः(स्) सर्वे, परां(म्) सिद्धिमितो गताः॥14.1॥
श्रीभगवान बोले – सम्पूर्ण ज्ञानों में उत्तम (और) श्रेष्ठ ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब के सब मुनि लोग इस संसार से (मुक्त होकर) परमसिद्धि को प्राप्त हो गये हैं।
विवेचन : अब भगवान ज्ञान में भी ऊँचा ऐसा परम् सर्वश्रेष्ठ ज्ञान फिर से बताना चाहते हैं, परन्तु इसकी क्या आवश्यकता है?
परम् ज्ञान एक ही है। उसे समझने के लिए, जानने के लिए अलग-अलग रूप से प्रस्तुत किया जाता है, ताकि सभी अपनी क्षमता अनुसार समझ सकें।
एकम् सत् , विप्रा: बहुधा वदन्ति।
एक ही सत्य को ज्ञानी विभिन्न प्रकार से बताते हैं।
ऐसा लगता है कि भगवान एक ही बात बार-बार दोहराते हैं, लेकिन यह ध्यान रखना आवश्यक है कि भगवद्गीता एक संवाद है और संवादों में महत्त्वपूर्ण बातें दोहराई जाती हैं। उस परम् श्रेष्ठ ज्ञान को जानकर सारे मुनिगण इस लोक से परम् सिद्धि तक ज्ञान मार्ग पर चलते हुए परमात्मा तक पहुँच गए हैं, इसे पाने के लिए उन्हें कहीं जाना नहीं पड़ा, अपितु इसी लोक में, इसी देह में रहकर ही वे परमात्म स्वरूप बन गए।
ज्ञानानां ज्ञानं उत्तमं।
यह ज्ञान क्या है? ज्ञान के तीन प्रकार कहे जा सकते हैं:-
सामान्य ज्ञान: आँखों से देखना: नदी, पहाड़, वृक्ष पहचानना, रेलगाड़ी की आवाज से उसे पहचानना, जिह्वा से स्वाद की अनुभूति, हमारी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा विभिन्न वस्तुएँ अनुभव करना।
विज्ञान: इन्हीं बातों को विशेष रूप से जानना, जैसे वृक्ष की रचना कैसी है? उसमें जैविक कार्य कैसे होते हैं? यह वनस्पति विज्ञान है।
आत्मज्ञान: स्वयं के स्वरूप को परिपूर्णता से जानना, यह सर्वोत्तम ज्ञान कहलाता है।
तेरहवें अध्याय में इसकी व्याख्या भी की गई है:-
"अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं(न्), तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
परम् ज्ञान एक ही है। उसे समझने के लिए, जानने के लिए अलग-अलग रूप से प्रस्तुत किया जाता है, ताकि सभी अपनी क्षमता अनुसार समझ सकें।
एकम् सत् , विप्रा: बहुधा वदन्ति।
एक ही सत्य को ज्ञानी विभिन्न प्रकार से बताते हैं।
ऐसा लगता है कि भगवान एक ही बात बार-बार दोहराते हैं, लेकिन यह ध्यान रखना आवश्यक है कि भगवद्गीता एक संवाद है और संवादों में महत्त्वपूर्ण बातें दोहराई जाती हैं। उस परम् श्रेष्ठ ज्ञान को जानकर सारे मुनिगण इस लोक से परम् सिद्धि तक ज्ञान मार्ग पर चलते हुए परमात्मा तक पहुँच गए हैं, इसे पाने के लिए उन्हें कहीं जाना नहीं पड़ा, अपितु इसी लोक में, इसी देह में रहकर ही वे परमात्म स्वरूप बन गए।
ज्ञानानां ज्ञानं उत्तमं।
यह ज्ञान क्या है? ज्ञान के तीन प्रकार कहे जा सकते हैं:-
सामान्य ज्ञान: आँखों से देखना: नदी, पहाड़, वृक्ष पहचानना, रेलगाड़ी की आवाज से उसे पहचानना, जिह्वा से स्वाद की अनुभूति, हमारी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा विभिन्न वस्तुएँ अनुभव करना।
विज्ञान: इन्हीं बातों को विशेष रूप से जानना, जैसे वृक्ष की रचना कैसी है? उसमें जैविक कार्य कैसे होते हैं? यह वनस्पति विज्ञान है।
आत्मज्ञान: स्वयं के स्वरूप को परिपूर्णता से जानना, यह सर्वोत्तम ज्ञान कहलाता है।
तेरहवें अध्याय में इसकी व्याख्या भी की गई है:-
"अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं(न्), तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तम्, अज्ञानं(य्ँ) यदतोઽन्यथा॥१३.११॥"
आत्म ज्ञान प्राप्त करना, स्वयं को जानना और उस ज्ञान के साथ रहना, भाव सहित उसे जानना, यही सच्चा ज्ञान है।
सूर्य के प्रकाश में सब कुछ स्वच्छ और स्पष्ट दिखता है, जबकि अन्धेरे में टॉर्च की रोशनी की सीमा तक ही देखा जा सकता है। स्पष्ट रूप से देखने के लिए सूर्य का प्रकाश आवश्यक है। समग्र ज्ञान सूर्य के प्रकाश जैसा ही स्वच्छ है, शेष सभी अज्ञान है।
इसी ज्ञान को भगवान पुनः विस्तार से बता रहे हैं। इसे प्राप्त करने से क्या होगा?
आत्म ज्ञान प्राप्त करना, स्वयं को जानना और उस ज्ञान के साथ रहना, भाव सहित उसे जानना, यही सच्चा ज्ञान है।
सूर्य के प्रकाश में सब कुछ स्वच्छ और स्पष्ट दिखता है, जबकि अन्धेरे में टॉर्च की रोशनी की सीमा तक ही देखा जा सकता है। स्पष्ट रूप से देखने के लिए सूर्य का प्रकाश आवश्यक है। समग्र ज्ञान सूर्य के प्रकाश जैसा ही स्वच्छ है, शेष सभी अज्ञान है।
इसी ज्ञान को भगवान पुनः विस्तार से बता रहे हैं। इसे प्राप्त करने से क्या होगा?
इदं(ञ्) ज्ञानमुपाश्रित्य, मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते, प्रलये न व्यथन्ति च॥14.2॥
इस ज्ञान का आश्रय लेकर (जो मनुष्य) मेरी सधर्मता को प्राप्त हो गये हैं, (वे) महासर्ग में भी पैदा नहीं होते और महाप्रलय में भी व्यथित नहीं होते।
विवेचन: ज्ञानेश्वर महाराज ने बड़ी ही सुन्दर बात कही है। आत्म ज्ञान यानी स्वयं का ज्ञान, तो वह हमसे दूर कैसे हुआ?
एरवी हे ज्ञान आपुले, परन्तु तेपर झाले।
कारण मानवास आवडले स्वर्ग आणि संसार।।
मनुष्य संसार में ही रम गया, इसी सुख को श्रेष्ठ मानकर वह आत्म ज्ञान से दूर हो जाता है। सांसारिक आकर्षणों के आवरण मनुष्य के ज्ञान चक्षुओं पर चढ़ जाते हैं, अज्ञान का पर्दा आ जाता है।
जैसे परम् ज्ञान होता उदित, अन्य ज्ञाने होती लुप्त।
म्हणुन सर्व ही ज्ञानात, हे च एक उत्तम।।
जैसे सूर्योदय के बाद चन्द्र और तारे लुप्त हो जाते हैं, मात्र सूर्य ही दिखता है, ठीक वैसे ही परम् ज्ञान एक बार उदित हो जाता है तो अन्य सभी ज्ञान लुप्त हो जाते हैं। जो इस ज्ञान के आश्रय में सदा रहते हैं, वे भगवान का स्वरूप ही प्राप्त कर लेते हैं।
भगवान का स्वरूप क्या है? परमात्मा अजन्मे हैं।
चौथे अध्याय में हमने जाना है:-
"अजोઽपि सन्नव्ययात्मा, भूतानामीश्वरोઽपि सन्।
एरवी हे ज्ञान आपुले, परन्तु तेपर झाले।
कारण मानवास आवडले स्वर्ग आणि संसार।।
मनुष्य संसार में ही रम गया, इसी सुख को श्रेष्ठ मानकर वह आत्म ज्ञान से दूर हो जाता है। सांसारिक आकर्षणों के आवरण मनुष्य के ज्ञान चक्षुओं पर चढ़ जाते हैं, अज्ञान का पर्दा आ जाता है।
जैसे परम् ज्ञान होता उदित, अन्य ज्ञाने होती लुप्त।
म्हणुन सर्व ही ज्ञानात, हे च एक उत्तम।।
जैसे सूर्योदय के बाद चन्द्र और तारे लुप्त हो जाते हैं, मात्र सूर्य ही दिखता है, ठीक वैसे ही परम् ज्ञान एक बार उदित हो जाता है तो अन्य सभी ज्ञान लुप्त हो जाते हैं। जो इस ज्ञान के आश्रय में सदा रहते हैं, वे भगवान का स्वरूप ही प्राप्त कर लेते हैं।
भगवान का स्वरूप क्या है? परमात्मा अजन्मे हैं।
चौथे अध्याय में हमने जाना है:-
"अजोઽपि सन्नव्ययात्मा, भूतानामीश्वरोઽपि सन्।
प्रकृतिं(म्) स्वामधिष्ठाय, सम्भवाम्यात्ममायया॥४.६॥"
संसार निर्माण के समय भगवान जन्म नहीं लेते, वे तो हमेशा ही रहते हैं। जब भी आवश्यकता होती है, भगवान अपनी इच्छा के अनुसार प्रकट होते हैं।
ज्ञानेश्वरी में कहा गया है:
तैसे देह मूलक द्वैत भान, ते समाप्त होते सम्पूर्ण।
मी तू हा भेद लोपून, एकात्मता येते।।
हम स्वयं को देह समझते हैं, लेकिन मेरी देह कहने वाला यह "मैं" कौन हूँ? इसका ध्यान ही नहीं रहता, बस अपने आपको ही देह मानने लगते हैं और इस प्रकार एक अपनी देह, दूसरी दूसरे की, ऐसा द्वैत भाव उत्पन्न होता है। जब यह भेद समाप्त हो जाता है तो एकात्मकता की भावना आती है और परम् तत्त्व सर्वत्र एक ही दिखता है। जब मनुष्य देह के रूप में अपने आपको नहीं देखता तब मैं और तू का भाव समाप्त होकर आत्म स्वरूप का ज्ञान होता है और वही सर्वत्र दिखता है। मैं और अन्य का भेद ही अज्ञान की दृष्टि है और एकात्मकता का दर्शन ही ज्ञान है।
जन्म मृत्यु च्या अतीत, धनञ्जया ते होतात।
ऐसे व्यक्ति जन्म और मृत्यु से व्यथित नहीं होते। जैसे एक खुला घड़ा आँगन में रखा होता है, उसके अन्दर भी आकाश है और बाहर भी। अब यदि यह घड़ा गिर कर टूट जाता है तो अन्दर का आकाश बाहर के आकाश में मिल जाता है, उनमें कोई अन्तर नहीं रहता।
एक समुद्र में एक घड़ा भरा हुआ रखा है, घड़े के अन्दर और बाहर समुद्र का जल ही होगा और घड़े के टूटने पर सागर का पानी सागर से मिल जाता है। इसी प्रकार, "मैं" का घड़ा फूटते ही आत्म ज्ञान होता है और आत्मतत्त्व से एकाकार हो जाते हैं।
अब भगवान उस ज्ञान को बताना आरम्भ करते हैं जिसे जानना आवश्यक है।
संसार निर्माण के समय भगवान जन्म नहीं लेते, वे तो हमेशा ही रहते हैं। जब भी आवश्यकता होती है, भगवान अपनी इच्छा के अनुसार प्रकट होते हैं।
ज्ञानेश्वरी में कहा गया है:
तैसे देह मूलक द्वैत भान, ते समाप्त होते सम्पूर्ण।
मी तू हा भेद लोपून, एकात्मता येते।।
हम स्वयं को देह समझते हैं, लेकिन मेरी देह कहने वाला यह "मैं" कौन हूँ? इसका ध्यान ही नहीं रहता, बस अपने आपको ही देह मानने लगते हैं और इस प्रकार एक अपनी देह, दूसरी दूसरे की, ऐसा द्वैत भाव उत्पन्न होता है। जब यह भेद समाप्त हो जाता है तो एकात्मकता की भावना आती है और परम् तत्त्व सर्वत्र एक ही दिखता है। जब मनुष्य देह के रूप में अपने आपको नहीं देखता तब मैं और तू का भाव समाप्त होकर आत्म स्वरूप का ज्ञान होता है और वही सर्वत्र दिखता है। मैं और अन्य का भेद ही अज्ञान की दृष्टि है और एकात्मकता का दर्शन ही ज्ञान है।
जन्म मृत्यु च्या अतीत, धनञ्जया ते होतात।
ऐसे व्यक्ति जन्म और मृत्यु से व्यथित नहीं होते। जैसे एक खुला घड़ा आँगन में रखा होता है, उसके अन्दर भी आकाश है और बाहर भी। अब यदि यह घड़ा गिर कर टूट जाता है तो अन्दर का आकाश बाहर के आकाश में मिल जाता है, उनमें कोई अन्तर नहीं रहता।
एक समुद्र में एक घड़ा भरा हुआ रखा है, घड़े के अन्दर और बाहर समुद्र का जल ही होगा और घड़े के टूटने पर सागर का पानी सागर से मिल जाता है। इसी प्रकार, "मैं" का घड़ा फूटते ही आत्म ज्ञान होता है और आत्मतत्त्व से एकाकार हो जाते हैं।
अब भगवान उस ज्ञान को बताना आरम्भ करते हैं जिसे जानना आवश्यक है।
मम योनिर्महद्ब्रह्म, तस्मिन्गर्भं(न्) दधाम्यहम्।
सम्भवः(स्) सर्वभूतानां(न्), ततो भवति भारत॥14.3॥
हे भरतवंशोद्भव अर्जुन! मेरी मूल प्रकृति तो उत्पत्ति स्थान है (और) मैं उसमें जीवरूप गर्भ का स्थापन करता हूँ। उससे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है।
विवेचन: भवति इति भूत:, जो निर्मित होता है वही भूत है। समस्त संसार, सौर मण्डल, चराचर जीव कैसे निर्मित हुए?
पिता द्वारा गर्भदान किया जाता है और माता द्वारा जन्म होता है। प्रभु, सृष्टि अथवा माया जो भगवान की ही है उसे महद्ब्रह्म कहते हैं और यह संसार की माता है। भगवान प्रकृति को चैतन्य प्रदान करते हैं और यह संसार निर्मित होता है।
सन्त ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं:-
हिच्या योगे किरीटि, विकार सारे मोठे होती।
म्हणूनी महद्ब्रह्म म्हणती मूळ मायेस।।
अङ्ग्रेजी में पत्नी को Better half कहा जाता है, वैसे ही यदि परमात्मा ब्रह्म हैं तो प्रकृति महद्ब्रह्म है, ऐसा श्रीभगवान यहाॅं कहते हैं।
हिलाच वेदान्त शास्त्रात, माया असे म्हणतात।।
अज्ञान क्यों होता है? ज्ञानेश्वर महाराज ने यह बहुत ही सुन्दर तरीके से समझाया है:
आपणास आपण विसरावे सम्पूर्ण, याचेच नाव अज्ञान।
हम "मैं" के मोह में पड़कर स्वयं को भी भूल जाते हैं, यही अज्ञान है। समग्र ज्ञान प्राप्ति के लिए कई जन्मों का तप करना होगा, जैसे भगवद्गीता को पूर्ण रूप से समझने के लिए उसे बार-बार पढ़ते रहना पड़ता है।
ज्ञानेश्वरी जी में अत्यन्त ही सुन्दर बात कही गई है:-
दूध घोटता साय नसते, निश्चल असता प्रकट होते।
विचारी नसते, एरवी असते, अज्ञान ते च।।
दूध को घोटते रहने से मलाई नहीं दिखती, घोटना बन्द करने पर मलाई ऊपर जम जाती है। ऐसे ही विचारों को घोटते रहने पर ऐसा लगता है कि अज्ञान दूर हो गया है। "मैं" देह नहीं हूँ, मैं "आत्मतत्त्व" हूॅं, जब यह विचार बार-बार दोहराते रहेंगे तो "मैं" लुप्त हो जाता है, परन्तु विचार करना छोड़ देंगे तो अज्ञान फिर आ जाता है इसलिए बार-बार चिन्तन करते रहने से अज्ञान की मलाई नहीं जमेगी और सच्चा आत्मदर्शन होगा। इस बात को अलग-अलग सन्दर्भ में अलग-अलग तरह से बताया गया है।
पिता द्वारा गर्भदान किया जाता है और माता द्वारा जन्म होता है। प्रभु, सृष्टि अथवा माया जो भगवान की ही है उसे महद्ब्रह्म कहते हैं और यह संसार की माता है। भगवान प्रकृति को चैतन्य प्रदान करते हैं और यह संसार निर्मित होता है।
सन्त ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं:-
हिच्या योगे किरीटि, विकार सारे मोठे होती।
म्हणूनी महद्ब्रह्म म्हणती मूळ मायेस।।
अङ्ग्रेजी में पत्नी को Better half कहा जाता है, वैसे ही यदि परमात्मा ब्रह्म हैं तो प्रकृति महद्ब्रह्म है, ऐसा श्रीभगवान यहाॅं कहते हैं।
हिलाच वेदान्त शास्त्रात, माया असे म्हणतात।।
अज्ञान क्यों होता है? ज्ञानेश्वर महाराज ने यह बहुत ही सुन्दर तरीके से समझाया है:
आपणास आपण विसरावे सम्पूर्ण, याचेच नाव अज्ञान।
हम "मैं" के मोह में पड़कर स्वयं को भी भूल जाते हैं, यही अज्ञान है। समग्र ज्ञान प्राप्ति के लिए कई जन्मों का तप करना होगा, जैसे भगवद्गीता को पूर्ण रूप से समझने के लिए उसे बार-बार पढ़ते रहना पड़ता है।
ज्ञानेश्वरी जी में अत्यन्त ही सुन्दर बात कही गई है:-
दूध घोटता साय नसते, निश्चल असता प्रकट होते।
विचारी नसते, एरवी असते, अज्ञान ते च।।
दूध को घोटते रहने से मलाई नहीं दिखती, घोटना बन्द करने पर मलाई ऊपर जम जाती है। ऐसे ही विचारों को घोटते रहने पर ऐसा लगता है कि अज्ञान दूर हो गया है। "मैं" देह नहीं हूँ, मैं "आत्मतत्त्व" हूॅं, जब यह विचार बार-बार दोहराते रहेंगे तो "मैं" लुप्त हो जाता है, परन्तु विचार करना छोड़ देंगे तो अज्ञान फिर आ जाता है इसलिए बार-बार चिन्तन करते रहने से अज्ञान की मलाई नहीं जमेगी और सच्चा आत्मदर्शन होगा। इस बात को अलग-अलग सन्दर्भ में अलग-अलग तरह से बताया गया है।
सर्वयोनिषु कौन्तेय, मूर्तयः(स्) सम्भवन्ति याः।
तासां(म्) ब्रह्म महद्योनि:(र्), अहं(म्) बीजप्रदः(फ्) पिता॥14.4॥
हे कुन्तीनन्दन ! सम्पूर्ण योनियों में प्राणियों के जितने शरीर पैदा होते हैं, उन सबकी मूल प्रकृति तो माता है और मैं बीज-स्थापन करने वाला पिता हूँ।
विवेचन: मछलीघर (aquarium) में कई प्रकार की मछलियाॅं देखकर आश्चर्य होता है। मछली तो एक ही योनि है, उसके इतने प्रकार हो सकते हैं तो इस सृष्टि में असङ्ख्य योनियाॅं हैं, उनके भी कितने प्रकार होंगे? और इन सब योनियों की माता यह महद्ब्रह्म प्रकृति है और परब्रह्म परमात्मा ही सबके पिता हैं। जब हम सबके माता-पिता एक ही हैं तो वसुधैव कुटुम्बकम् का भाव निर्माण होना स्वाभाविक है। सारे प्राणी मात्र हमारे बन्धु हैं।
पृथकता का भाव मिटा देना होगा। हम मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगू या अन्य कोई भी भाषी हों, जब भारत माता की बात आती है तो हम सब भारतीय हैं।
अयं निज: परोवेति, गणना लघु चेतसाम्।
उदार चरितानां तू, वसुधैव कुटुम्बकम्।
अर्थात जो अपने-पराये में अन्तर करते हैं, वे सङ्कुचित विचार वाले होते हैं, उदार ह्रदय वालों को तो सारा संसार ही एक परिवार समान लगने लगता है। फिर यह अज्ञान कहाँ से आया? इसका मूल क्या है? जब यह जान जाएँगे तो उस कारण से छुटकारा पाकर हम मुक्त हो सकेंगे।
ज्ञानेश्वर महाराज ने प्रकृति के गुण का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है:-
ती अनादि नित्य तरुणी, अवर्णनीय आणि त्रिगुणी।
अविद्य जिला म्हणती ज्ञानी, माझी गृहिणी ती माया।।
माया को भगवान अपनी पत्नी कहते हैं। वह अनादि है और नित्य तरुणी है, नित्य नूतन है। माया अपने जाल में अलग-अलग तरह से मनुष्य को फॅंसाती है। यह मायाजाल है।
पहले बिजली नहीं थी, सिनेमा नहीं था, मनुष्य खुश था। जब सिनेमा आया तो मनुष्य उसके जाल में फॅंसता गया। सिनेमा से उकता गया तो आधुनिक तकनीक ने एक नया खिलौना उसके हाथ में पकड़ा दिया जिसे हम मोबाइल फोन कहते हैं, जिसके मोह में अब मनुष्य फॅंस चुका है। इससे मुक्त होने के लिए पहले उन बन्धनों को जानना होगा और हम उस बन्धन में कितने गहरे फॅंसे हैं, यह जानना होगा।
या कारणें मी पिता, महद्ब्रह्म ही माता,
अपत्य आमुचे पटता, विश्व हे जगद्व्व्याल।
शरीरे पाहून बहु विध, मानु नकोस काही भेद।
काय एकाच देहास विभिन्न अवयवे नसतात?
जैसे एक शरीर के कई अङ्ग होते हैं, वैसे ही यह संसार भी परमात्मा का ही एक बालक है और विभिन्न जीव उसके अवयव हैं।
मातीचा लेक घट, कापसाचा नातु पट
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं कि घड़ा मिट्टी से बनता है तो मिट्टी घड़े की माता हुई। कपास से रेशा बनता है और रेशों से कपड़ा बनता हे, इस नाते से कपास कपड़े का दादा हुआ।
तैसा अति निकट सम्बन्ध माझा आणि जगाचा।
ज्ञानेश्वर महाराज ईश्वर का जगत से सम्बन्ध भी इतना ही निकटतम बताते हैं, इस भाव से जब संसार को देखेंगे तो एकत्व ही दिखेगा।
इस बात को ज्ञानेश्वरी जी में और स्पष्ट कहा गया है:-
सोने अलङ्कार रूप झाले, म्हणुनी सोनेपण का त्याचे गेले?
सोने के गहने बनते हैं तो क्या उनमें सोना सोना नहीं रहता? सोने ने गहनों का आकार तो ले लिया, परन्तु उसकी चमक, उसके गुण तो वही रहेंगे। इस जगत में व्याप्त परमात्मा हमें नहीं दिखते, मात्र जगत दिखता है, तो क्या संसार को हटा देने से हमें भगवान मिल जाएँगे? नहीं, ऐसा नहीं होता, यह ग़लत धारणा है। इस विश्व में सब मिलकर जो है वही परमात्मा है। सम्पूर्ण विश्व उसी का प्रकट रूप है, प्रत्येक जीव में परमात्मा दिखेंगे ।
हे विश्वपण जावे,मग माझे ध्यावे,
ऐसा नव्हे मी आघवे सकट ची मी।। ( ज्ञानेश्वरी)
पृथकता का भाव मिटा देना होगा। हम मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगू या अन्य कोई भी भाषी हों, जब भारत माता की बात आती है तो हम सब भारतीय हैं।
अयं निज: परोवेति, गणना लघु चेतसाम्।
उदार चरितानां तू, वसुधैव कुटुम्बकम्।
अर्थात जो अपने-पराये में अन्तर करते हैं, वे सङ्कुचित विचार वाले होते हैं, उदार ह्रदय वालों को तो सारा संसार ही एक परिवार समान लगने लगता है। फिर यह अज्ञान कहाँ से आया? इसका मूल क्या है? जब यह जान जाएँगे तो उस कारण से छुटकारा पाकर हम मुक्त हो सकेंगे।
ज्ञानेश्वर महाराज ने प्रकृति के गुण का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है:-
ती अनादि नित्य तरुणी, अवर्णनीय आणि त्रिगुणी।
अविद्य जिला म्हणती ज्ञानी, माझी गृहिणी ती माया।।
माया को भगवान अपनी पत्नी कहते हैं। वह अनादि है और नित्य तरुणी है, नित्य नूतन है। माया अपने जाल में अलग-अलग तरह से मनुष्य को फॅंसाती है। यह मायाजाल है।
पहले बिजली नहीं थी, सिनेमा नहीं था, मनुष्य खुश था। जब सिनेमा आया तो मनुष्य उसके जाल में फॅंसता गया। सिनेमा से उकता गया तो आधुनिक तकनीक ने एक नया खिलौना उसके हाथ में पकड़ा दिया जिसे हम मोबाइल फोन कहते हैं, जिसके मोह में अब मनुष्य फॅंस चुका है। इससे मुक्त होने के लिए पहले उन बन्धनों को जानना होगा और हम उस बन्धन में कितने गहरे फॅंसे हैं, यह जानना होगा।
या कारणें मी पिता, महद्ब्रह्म ही माता,
अपत्य आमुचे पटता, विश्व हे जगद्व्व्याल।
शरीरे पाहून बहु विध, मानु नकोस काही भेद।
काय एकाच देहास विभिन्न अवयवे नसतात?
जैसे एक शरीर के कई अङ्ग होते हैं, वैसे ही यह संसार भी परमात्मा का ही एक बालक है और विभिन्न जीव उसके अवयव हैं।
मातीचा लेक घट, कापसाचा नातु पट
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं कि घड़ा मिट्टी से बनता है तो मिट्टी घड़े की माता हुई। कपास से रेशा बनता है और रेशों से कपड़ा बनता हे, इस नाते से कपास कपड़े का दादा हुआ।
तैसा अति निकट सम्बन्ध माझा आणि जगाचा।
ज्ञानेश्वर महाराज ईश्वर का जगत से सम्बन्ध भी इतना ही निकटतम बताते हैं, इस भाव से जब संसार को देखेंगे तो एकत्व ही दिखेगा।
इस बात को ज्ञानेश्वरी जी में और स्पष्ट कहा गया है:-
सोने अलङ्कार रूप झाले, म्हणुनी सोनेपण का त्याचे गेले?
सोने के गहने बनते हैं तो क्या उनमें सोना सोना नहीं रहता? सोने ने गहनों का आकार तो ले लिया, परन्तु उसकी चमक, उसके गुण तो वही रहेंगे। इस जगत में व्याप्त परमात्मा हमें नहीं दिखते, मात्र जगत दिखता है, तो क्या संसार को हटा देने से हमें भगवान मिल जाएँगे? नहीं, ऐसा नहीं होता, यह ग़लत धारणा है। इस विश्व में सब मिलकर जो है वही परमात्मा है। सम्पूर्ण विश्व उसी का प्रकट रूप है, प्रत्येक जीव में परमात्मा दिखेंगे ।
हे विश्वपण जावे,मग माझे ध्यावे,
ऐसा नव्हे मी आघवे सकट ची मी।। ( ज्ञानेश्वरी)
सत्त्वं(म्) रजस्तम इति, गुणाः(फ्) प्रकृतिसम्भवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो, देहे देहिनमव्ययम्॥14.5॥
हे महाबाहो! प्रकृति से उत्पन्न होने वाले सत्त्व, रज (और) तम – ये (तीनों) गुण अविनाशी देही (जीवात्मा) को देह में बाँध देते हैं।
विवेचन: अब भगवान उन बन्धनों को बताना आरम्भ करते हैं, जिन्होंने हमें अपने पाश में बाँध रखा है। सभी बन्धन मुक्त होना चाहते हैं।
मोक्ष किंवा देह बन्धन,ते स्वत: मध्ये स्वरूप ज्ञान।
जेथे स्वरूपाचे अज्ञान,तेथे बन्धनं आणि मोक्ष।।
श्री ज्ञानेश्वर महाराज ने कहा है कि मोक्ष मिल गया यह समझना अज्ञान है। जब तक स्वरूप का अज्ञान है, तब तक बन्धन और मोक्ष हैं, परन्तु जब स्वरूप को जानेंगे तभी मोक्ष का वास्तविक ज्ञान होगा
वे फिर कहते हैं:-
माझेच मलाच बन्धन, याचे तत्वत: काय कारण?
हम स्वयं अपने बन्धनों में बँधे हैं, इसका कारण क्या है?
श्रीभगवान कहते हैं कि हे अर्जुन, हमें बाँधने वाले तीन गुण हैं:- सत्त्व, रज और तमोगुण।
संस्कृत में गुण शब्द के दो अर्थ हैं---- हमारा स्वभाव और दूसरा अर्थ होता है रस्सी जो सबको बाँधती है।
ये गुण कहाॅं से आए? ये प्रकृति के ही गुण हैं। प्रकृति त्रिगुणात्मिका है। प्रकृति और आत्मतत्त्व से मिलकर यह संसार बना है।
त्रिगुणात्मिका प्रकृति के ये तीन गुण सारे संसार में दिखते हैं। ये गुण रस्सियाँ हैं जो सृष्टि का सारा कारोबार भी चलाती हैं। ये गुण उस अव्यय, अविनाशी आत्मतत्त्व, जीवात्मा को देह से बाँधकर रखते हैं और जब देह से जुड़े हैं तो कार्य भी करने पड़ेंगे, यही बन्धन है।
देह को नष्ट करने से हम मुक्त नहीं हो सकते, क्योंकि जीवात्मा के दूसरी देह में प्रवेश करने से ये गुण उस देह में जाते हैं। इसलिए देह में रहकर ही उन बन्धनों से मुक्त होना होगा।
सत्व, रज आणि तम, तीन गुणांची प्रत्येकी नाम।
आणि प्रकृति पासून जन्म झाला यांचा।।
जीवात्मा मूलतः शुद्ध है, मुक्त है, क्षेत्रज्ञ है, परन्तु जब "यह देह मेरी है" इस बात का अभिमान हो जाता है, यही पहला अपशकुन है। इसके बाद आमरण देह के उस बन्धन का भार उठाकर चलना पड़ता है।
यही बात ज्ञानेश्वरजी में बड़े ही सुन्दर ढङ्ग से कही है :-
विशुद्धात्मा झाला क्षेत्रज्ञ, मीच देह हा धरी अभिमान,
तो च पहिला अपशकुन झाला जाणावा पार्था, देता देहात विषयी मी पण।
मग जन्मा पासुन आमरण, देह धर्माचे दृढ़ बन्धन जीवास येते।।
मछली पकड़ने के लिए जाल में आमिष (आकर्षण हेतु) लगाया जाता है जिसके प्रलोभन में आकर मछली जाल में फँस जाती है।
"मैं देह हूँ" यह भाव आमिष है, जिससे हम प्रकृति के बन्धन में फँस जाते हैं। प्रकृति के तीनों गुण सत्त्व, रज और तमोगुण, आमिष का काम करते हैं। इन गुणों का कार्य कैसे चलता है? यह इस अध्याय से जाना जा सकता है। प्रकृति के सञ्चालन के लिए तीनों गुण आवश्यक हैं। प्रकृति इन्हें नहीं छोड़ सकती, हमें ही उनसे मुक्त होना है। प्रकृति से कार्य करवाना सीखना होगा क्योंकि वह हमसे सब करवा लेती है, जिससे "मैंने किया" यह ममत्व की भावना पैदा हो जाती है।
एक गाड़ी के चलने के लिए इञ्जन और पेट्रोल चाहिए, इनसे गाड़ी तो चल पड़ेगी, परन्तु दिशाहीन होकर क्योंकि स्टेयरिंग व्हील नहीं है जो गाड़ी को दिशा दे सके। गन्तव्य पर पहुॅंच कर या बीच में आवश्यकतानुसार रुकने के लिए ब्रेक भी चाहिए।
प्रकृति के तीनों गुण भी जीवन रूपी गाड़ी चलाने के लिए जरूरी हैं।
रजोगुण ईन्धन और इञ्जन है जिनसे गाड़ी दौड़ती है। सत्त्व गुण दिग्दर्शक या स्टेयरिंग का काम करता है और तमोगुण ब्रेक का, जिससे विश्रान्ति मिल सकती है, परन्तु ये तीनों गुण एक दूसरे पर हावी हो जाते हैं, इसलिए उन पर नियन्त्रण आवश्यक है। उनके साथ रहते हुए भी उनसे मुक्ति पाना इस अध्याय से सीख सकते हैं।
सत्त्व गुण दिग्दर्शक है, मार्गदर्शक है, तो वह कैसे बाॅंध सकता है?
मोक्ष किंवा देह बन्धन,ते स्वत: मध्ये स्वरूप ज्ञान।
जेथे स्वरूपाचे अज्ञान,तेथे बन्धनं आणि मोक्ष।।
श्री ज्ञानेश्वर महाराज ने कहा है कि मोक्ष मिल गया यह समझना अज्ञान है। जब तक स्वरूप का अज्ञान है, तब तक बन्धन और मोक्ष हैं, परन्तु जब स्वरूप को जानेंगे तभी मोक्ष का वास्तविक ज्ञान होगा
वे फिर कहते हैं:-
माझेच मलाच बन्धन, याचे तत्वत: काय कारण?
हम स्वयं अपने बन्धनों में बँधे हैं, इसका कारण क्या है?
श्रीभगवान कहते हैं कि हे अर्जुन, हमें बाँधने वाले तीन गुण हैं:- सत्त्व, रज और तमोगुण।
संस्कृत में गुण शब्द के दो अर्थ हैं---- हमारा स्वभाव और दूसरा अर्थ होता है रस्सी जो सबको बाँधती है।
ये गुण कहाॅं से आए? ये प्रकृति के ही गुण हैं। प्रकृति त्रिगुणात्मिका है। प्रकृति और आत्मतत्त्व से मिलकर यह संसार बना है।
त्रिगुणात्मिका प्रकृति के ये तीन गुण सारे संसार में दिखते हैं। ये गुण रस्सियाँ हैं जो सृष्टि का सारा कारोबार भी चलाती हैं। ये गुण उस अव्यय, अविनाशी आत्मतत्त्व, जीवात्मा को देह से बाँधकर रखते हैं और जब देह से जुड़े हैं तो कार्य भी करने पड़ेंगे, यही बन्धन है।
देह को नष्ट करने से हम मुक्त नहीं हो सकते, क्योंकि जीवात्मा के दूसरी देह में प्रवेश करने से ये गुण उस देह में जाते हैं। इसलिए देह में रहकर ही उन बन्धनों से मुक्त होना होगा।
सत्व, रज आणि तम, तीन गुणांची प्रत्येकी नाम।
आणि प्रकृति पासून जन्म झाला यांचा।।
जीवात्मा मूलतः शुद्ध है, मुक्त है, क्षेत्रज्ञ है, परन्तु जब "यह देह मेरी है" इस बात का अभिमान हो जाता है, यही पहला अपशकुन है। इसके बाद आमरण देह के उस बन्धन का भार उठाकर चलना पड़ता है।
यही बात ज्ञानेश्वरजी में बड़े ही सुन्दर ढङ्ग से कही है :-
विशुद्धात्मा झाला क्षेत्रज्ञ, मीच देह हा धरी अभिमान,
तो च पहिला अपशकुन झाला जाणावा पार्था, देता देहात विषयी मी पण।
मग जन्मा पासुन आमरण, देह धर्माचे दृढ़ बन्धन जीवास येते।।
मछली पकड़ने के लिए जाल में आमिष (आकर्षण हेतु) लगाया जाता है जिसके प्रलोभन में आकर मछली जाल में फँस जाती है।
"मैं देह हूँ" यह भाव आमिष है, जिससे हम प्रकृति के बन्धन में फँस जाते हैं। प्रकृति के तीनों गुण सत्त्व, रज और तमोगुण, आमिष का काम करते हैं। इन गुणों का कार्य कैसे चलता है? यह इस अध्याय से जाना जा सकता है। प्रकृति के सञ्चालन के लिए तीनों गुण आवश्यक हैं। प्रकृति इन्हें नहीं छोड़ सकती, हमें ही उनसे मुक्त होना है। प्रकृति से कार्य करवाना सीखना होगा क्योंकि वह हमसे सब करवा लेती है, जिससे "मैंने किया" यह ममत्व की भावना पैदा हो जाती है।
एक गाड़ी के चलने के लिए इञ्जन और पेट्रोल चाहिए, इनसे गाड़ी तो चल पड़ेगी, परन्तु दिशाहीन होकर क्योंकि स्टेयरिंग व्हील नहीं है जो गाड़ी को दिशा दे सके। गन्तव्य पर पहुॅंच कर या बीच में आवश्यकतानुसार रुकने के लिए ब्रेक भी चाहिए।
प्रकृति के तीनों गुण भी जीवन रूपी गाड़ी चलाने के लिए जरूरी हैं।
रजोगुण ईन्धन और इञ्जन है जिनसे गाड़ी दौड़ती है। सत्त्व गुण दिग्दर्शक या स्टेयरिंग का काम करता है और तमोगुण ब्रेक का, जिससे विश्रान्ति मिल सकती है, परन्तु ये तीनों गुण एक दूसरे पर हावी हो जाते हैं, इसलिए उन पर नियन्त्रण आवश्यक है। उनके साथ रहते हुए भी उनसे मुक्ति पाना इस अध्याय से सीख सकते हैं।
सत्त्व गुण दिग्दर्शक है, मार्गदर्शक है, तो वह कैसे बाॅंध सकता है?
तत्र सत्त्वं(न्) निर्मलत्वात्, प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति, ज्ञानसङ्गेन चानघ॥14.6॥
हे पाप रहित अर्जुन! उन गुणों में सत्त्वगुण निर्मल (स्वच्छ) होने के कारण प्रकाशक (और) निर्विकार है। (वह) सुख की आसक्ति से और ज्ञान की आसक्ति से (देही को) बाँधता है।
विवेचन: श्रीकृष्ण अर्जुन को "अनघ" कहकर सम्बोधित करते हैं। अनघ का अर्थ है निष्पाप, शुद्ध अन्तःकरण वाला। यही अर्जुन की सबसे बड़ी विशेषता थी। उन्होंने निष्पाप और शुद्ध मन से भगवद्गीता ग्रहण की जो उनके हृदय में धारित हो गई। भगवान अर्जुन के माध्यम से हमें भी अनघ होकर भगवद्गीता ग्रहण करने का उपदेश देते हैं। कर्मयोग चित्त की शुद्धि का मार्ग है:
चित्तस्य शुद्धये कर्मण:।
सत्त्व गुण निर्मल है, पवित्र है, प्रकाश या ज्ञान देने वाला है। हमारा सही दिशा में मार्गदर्शन करता है, उसमें कोई विकार नहीं है, फिर यह बन्धन में कैसे बाॅंधता है? सत्त्व गुण जब हावी होता है तो मनुष्य को लगता है कि वह सबसे ज्यादा सुखी है, भाग्यशाली है, ज्ञानी है। अधूरे ज्ञान से उसका अहङ्कार बढ़ जाता है, वह उसी अनुभूति से सुखी हो जाता है, यही "मैं" का बन्धन है।
मराठी में एक कहावत है:
उथळ पाण्याला खळखळाट फार।
अर्थात गहराई में पानी शान्त होता है जबकि ऊपरी पानी में हलचल अधिक होती है।
चित्तस्य शुद्धये कर्मण:।
सत्त्व गुण निर्मल है, पवित्र है, प्रकाश या ज्ञान देने वाला है। हमारा सही दिशा में मार्गदर्शन करता है, उसमें कोई विकार नहीं है, फिर यह बन्धन में कैसे बाॅंधता है? सत्त्व गुण जब हावी होता है तो मनुष्य को लगता है कि वह सबसे ज्यादा सुखी है, भाग्यशाली है, ज्ञानी है। अधूरे ज्ञान से उसका अहङ्कार बढ़ जाता है, वह उसी अनुभूति से सुखी हो जाता है, यही "मैं" का बन्धन है।
मराठी में एक कहावत है:
उथळ पाण्याला खळखळाट फार।
अर्थात गहराई में पानी शान्त होता है जबकि ऊपरी पानी में हलचल अधिक होती है।
रजो रागात्मकं(म्) विद्धि, तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय, कर्मसङ्गेन देहिनम्॥14.7॥
हे कुन्तीनन्दन! तृष्णा और आसक्ति को पैदा करने वाले रजोगुण को (तुम) रागस्वरूप समझो। वह कर्मों की आसक्ति से देही जीवात्मा को बाँधता है।
विवेचन: रजोगुण आसक्ति का, राग का ही रूप है और राग या आकर्षण आता है, जा नहीं सकता। इच्छाओं का कोई अन्त नहीं है, वे बढ़ती ही जाती हैं, उन पर हमारा नियन्त्रण नहीं रहता।
अङ्ग्रेजी में एक कहावत है:-
Desire is that state of mind which is always empty.
रजोगुण की अधिकता से जीवात्मा कर्म के बन्धन में पड़ जाता है। साध्य और साधन का विवेक खो देता है। रजोगुण कर्म करने का साधन है जिसके कारण अच्छे-अच्छे कार्य होते हैं, परन्तु मनुष्य उसी में अटक जाता है क्योंकि वह फल के मोह में फॅंसता है। कौन सा कार्य कितना करना है, कब तक करना है? पढ़ना, सोना, टी वी देखना, इस बात का भी उसे ध्यान नहीं होता। यहाॅं तक कि कार्यों में व्यस्त हो कर अपने बच्चों और परिवार के साथ भी समय नहीं बिता पाता, ऐसे व्यक्ति को workaholic( Work alcoholic) कहते हैं, क्योंकि उसे मानों कार्य करते रहने का नशा सा हो जाता है।
अङ्ग्रेजी में एक कहावत है:-
Desire is that state of mind which is always empty.
रजोगुण की अधिकता से जीवात्मा कर्म के बन्धन में पड़ जाता है। साध्य और साधन का विवेक खो देता है। रजोगुण कर्म करने का साधन है जिसके कारण अच्छे-अच्छे कार्य होते हैं, परन्तु मनुष्य उसी में अटक जाता है क्योंकि वह फल के मोह में फॅंसता है। कौन सा कार्य कितना करना है, कब तक करना है? पढ़ना, सोना, टी वी देखना, इस बात का भी उसे ध्यान नहीं होता। यहाॅं तक कि कार्यों में व्यस्त हो कर अपने बच्चों और परिवार के साथ भी समय नहीं बिता पाता, ऐसे व्यक्ति को workaholic( Work alcoholic) कहते हैं, क्योंकि उसे मानों कार्य करते रहने का नशा सा हो जाता है।
तमस्त्वज्ञानजं(म्) विद्धि, मोहनं(म्) सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभि:(स्), तन्निबध्नाति भारत॥14.8॥
हे भरतवंशी अर्जुन ! सम्पूर्ण देहधारियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तुम अज्ञान से उत्पन्न होने वाला समझो। वह प्रमाद, आलस्य और निद्रा के द्वारा देहधारियों को बाँधता है
विवेचन: अज्ञान और आलस्य का दूसरा नाम तमोगुण है। आलस्य के कारण मनुष्य कुछ करना ही नहीं चाहता और यदि कुछ करता भी है तो असावधानी से गलतियाॅं होती हैं, जिन्हें प्रमाद कहते हैं। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए निद्रा आवश्यक है, परन्तु तमोगुण की अधिकता से निद्रा की सीमा का पता नहीं होता। सोते हैं तो सारा दिन सोते ही रहते हैं।
मराठी में एक कहावत भी यही कहती है:-
सकल इन्द्रियात जडत्व, मना मध्ये मूढत्व,
जब हमारी इन्द्रियाँ काम नहीं करेंगी तो मन मूढ़ता से भर जाता है, यह अनुभव लगभग सभी को होता ही है। ये सारी बातें हमें अपने आपको पहचान पाने के लिए ही हैं। हम यह समझ सकें कि हम पर कब किस गुण का प्रभाव अधिक है।
झोपेचे निघता नावं, ज्याचा सन्तुष्ट होई जीव,
तुच्छ माने स्वर्गी चे देव,झोपी जावे।
दूसर्याच्या आग्रहा मुळे जरी व्यापारा कड़े वळे,
तरी अन्ध जैसा रागात चाले, तैसी याची वागणुक।।
तमोगुण की अधिकता से सोने के नाम से ही व्यक्ति प्रसन्न हो जाता है, अब उसे स्वर्ग या वहाँ के देवता भी तुच्छ लगते हैं। वह कोई काम करना ही नहीं चाहता और यदि दबाव में आकर काम करे भी तो गलतियाॅं करेगा और गुस्से में भटक रहे अन्धे की तरह उसका व्यवहार होगा।
एक पतङ्गा जङ्गल में लगी आग को देखकर सोचता है कि वह अपने पङ्खों से आग बुझा सकता है और आग में अपने आपको झोंक देता है।
आपल्या पङ्खाने वणवा टाकीन विझून
तीन प्रकार की रस्सियाँ, उनके बन्धन और उनसे मुक्ति के मार्ग की चर्चा आगामी सत्रों में किये जाने के आश्वासन और साधकों की शङ्काओं के समाधान के साथ आज का सत्र समाप्त हुआ और प्रश्नोत्तर सत्र आरम्भ हुआ।
प्रश्नोत्तर:
प्रश्नकर्ता: गायत्री दीदी
प्रश्न: रजोगुण कर्म करवाता है, ऊँचा ध्येय होने पर काम भी अधिक करना पड़ता है, वरना आलस्य आ जाता है। तो क्या अधिक काम करना सही है?
उत्तर: रजोगुण बुरा नहीं है। ध्येय ऊँचा रखकर दिन-रात काम करने से एक दिन हमारा शरीर ही जवाब दे जाएगा। जैसे- गाड़ी को उसकी सीमा से अधिक दौड़ाएँगे तो वह खराब हो जाएगी, इसलिए अपनी सीमा और क्षमता का विवेक रखकर काम करना चाहिए, अन्यथा वह रजोगुण का बन्धन हो जाएगा। अनियन्त्रित कर्म रजोगुण का बन्धन है।
प्रश्नकर्ता: अनिल भैया जी
प्रश्न: कहा जाता है कि किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखना चाहिए, क्योंकि यदि वह पूरी नहीं हुई तो दुःख होता है, तो फिर अपेक्षा रखें ही क्यों? अपेक्षा करना किसी गुण में आता है?
उत्तर:
"उद्धरेदात्मनात्मानं(न्), नात्मानमवसादयेत्।
मराठी में एक कहावत भी यही कहती है:-
सकल इन्द्रियात जडत्व, मना मध्ये मूढत्व,
जब हमारी इन्द्रियाँ काम नहीं करेंगी तो मन मूढ़ता से भर जाता है, यह अनुभव लगभग सभी को होता ही है। ये सारी बातें हमें अपने आपको पहचान पाने के लिए ही हैं। हम यह समझ सकें कि हम पर कब किस गुण का प्रभाव अधिक है।
झोपेचे निघता नावं, ज्याचा सन्तुष्ट होई जीव,
तुच्छ माने स्वर्गी चे देव,झोपी जावे।
दूसर्याच्या आग्रहा मुळे जरी व्यापारा कड़े वळे,
तरी अन्ध जैसा रागात चाले, तैसी याची वागणुक।।
तमोगुण की अधिकता से सोने के नाम से ही व्यक्ति प्रसन्न हो जाता है, अब उसे स्वर्ग या वहाँ के देवता भी तुच्छ लगते हैं। वह कोई काम करना ही नहीं चाहता और यदि दबाव में आकर काम करे भी तो गलतियाॅं करेगा और गुस्से में भटक रहे अन्धे की तरह उसका व्यवहार होगा।
एक पतङ्गा जङ्गल में लगी आग को देखकर सोचता है कि वह अपने पङ्खों से आग बुझा सकता है और आग में अपने आपको झोंक देता है।
आपल्या पङ्खाने वणवा टाकीन विझून
तीन प्रकार की रस्सियाँ, उनके बन्धन और उनसे मुक्ति के मार्ग की चर्चा आगामी सत्रों में किये जाने के आश्वासन और साधकों की शङ्काओं के समाधान के साथ आज का सत्र समाप्त हुआ और प्रश्नोत्तर सत्र आरम्भ हुआ।
प्रश्नोत्तर:
प्रश्नकर्ता: गायत्री दीदी
प्रश्न: रजोगुण कर्म करवाता है, ऊँचा ध्येय होने पर काम भी अधिक करना पड़ता है, वरना आलस्य आ जाता है। तो क्या अधिक काम करना सही है?
उत्तर: रजोगुण बुरा नहीं है। ध्येय ऊँचा रखकर दिन-रात काम करने से एक दिन हमारा शरीर ही जवाब दे जाएगा। जैसे- गाड़ी को उसकी सीमा से अधिक दौड़ाएँगे तो वह खराब हो जाएगी, इसलिए अपनी सीमा और क्षमता का विवेक रखकर काम करना चाहिए, अन्यथा वह रजोगुण का बन्धन हो जाएगा। अनियन्त्रित कर्म रजोगुण का बन्धन है।
प्रश्नकर्ता: अनिल भैया जी
प्रश्न: कहा जाता है कि किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखना चाहिए, क्योंकि यदि वह पूरी नहीं हुई तो दुःख होता है, तो फिर अपेक्षा रखें ही क्यों? अपेक्षा करना किसी गुण में आता है?
उत्तर:
"उद्धरेदात्मनात्मानं(न्), नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः(र्), आत्मैव रिपुरात्मनः॥६.५॥"
अपना कर्त्तव्य पहले करें, दूसरे की तरफ ध्यान नहीं देना है।
अपना कर्त्तव्य पहले करें, दूसरे की तरफ ध्यान नहीं देना है।
ग़ालिब साहब की सुन्दर पङ्क्तियाॅं हैं:-
जिन्दगी भर ग़ालिब गलतियाँ ये करता रहा,
धूल चेहरे पर थी और आईना साफ करता रहा।
इसलिए अपनी तरफ पहले देखें।
प्रश्नकर्ता: अनिल भैया जी
प्रश्न: इस अध्याय में; मैं, मेरी देह यह भाव मिटाने की बात कही गई है। लेकिन देह बीमार है, उसे कष्ट हो रहा है या आराम मिलता है, इन भावनाओं को तो नहीं छोड़ा जा सकता?
उत्तर: देह में रहकर देह बुद्धि नहीं छोड़ी जा सकती। गुणों की जो गाॅंठें लगी हुई हैं उन्हें खोलना होगा, धीरे-धीरे तमोगुण से निकलकर रजोगुण और अन्त में सत्त्व गुण की तरफ बढ़ने का प्रयास कर फिर गुणातीत होने का प्रयत्न करना चाहिए। यह कठिन है, परन्तु अपने आपको पहचानकर बदलाव लाया जा सकता है। इस अध्याय के द्वारा हमें सहायता मिल सकती है।
प्रश्नकर्ता: सारिका दीदी
प्रश्न: तमोगुण को कैसे कम करें?
उत्तर: मेरा अपना अनुभव है कि सूर्योदय से पहले उठकर सुबह की सैर के लिए जाना (brisk walking) तमोगुण को कम करने का एक अच्छा उपाय है।
प्रश्नकर्ता: नागराजू भैया
प्रश्न: धर्म क्या होता है? धर्म को कैसे निभाना है? सनातन धर्म किसे कहते हैं?
उत्तर: आपका प्रश्न तो छोटा सा है परन्तु इसका उत्तर बहुत विशाल है। धर्म एक गहन शब्द है। श्रीमद्भगवद्गीता में धर्म की व्याख्या कर्त्तव्य के रूप में की गई है, जैसे मातृ धर्म, पितृ धर्म, पुत्र धर्म, राष्ट्र धर्म इत्यादि। धर्म का दूसरा अर्थ है: ऐसा मार्ग जिसके आश्रय से अभ्युदय और नि:श्रेयस दोनों की प्राप्ति हो। धर्म का अर्थ सम्प्रदाय नहीं है। धर्म का एक और अर्थ भी है; जो हम सबको एक रूप में धारण करता है, उसे धर्म कहा जाता है। वेदों को समस्त विश्व का संविधान कहा गया है तो वेदों के अनुसार आचरण करना सनातन धर्म है।
जिन्दगी भर ग़ालिब गलतियाँ ये करता रहा,
धूल चेहरे पर थी और आईना साफ करता रहा।
इसलिए अपनी तरफ पहले देखें।
प्रश्नकर्ता: अनिल भैया जी
प्रश्न: इस अध्याय में; मैं, मेरी देह यह भाव मिटाने की बात कही गई है। लेकिन देह बीमार है, उसे कष्ट हो रहा है या आराम मिलता है, इन भावनाओं को तो नहीं छोड़ा जा सकता?
उत्तर: देह में रहकर देह बुद्धि नहीं छोड़ी जा सकती। गुणों की जो गाॅंठें लगी हुई हैं उन्हें खोलना होगा, धीरे-धीरे तमोगुण से निकलकर रजोगुण और अन्त में सत्त्व गुण की तरफ बढ़ने का प्रयास कर फिर गुणातीत होने का प्रयत्न करना चाहिए। यह कठिन है, परन्तु अपने आपको पहचानकर बदलाव लाया जा सकता है। इस अध्याय के द्वारा हमें सहायता मिल सकती है।
प्रश्नकर्ता: सारिका दीदी
प्रश्न: तमोगुण को कैसे कम करें?
उत्तर: मेरा अपना अनुभव है कि सूर्योदय से पहले उठकर सुबह की सैर के लिए जाना (brisk walking) तमोगुण को कम करने का एक अच्छा उपाय है।
प्रश्नकर्ता: नागराजू भैया
प्रश्न: धर्म क्या होता है? धर्म को कैसे निभाना है? सनातन धर्म किसे कहते हैं?
उत्तर: आपका प्रश्न तो छोटा सा है परन्तु इसका उत्तर बहुत विशाल है। धर्म एक गहन शब्द है। श्रीमद्भगवद्गीता में धर्म की व्याख्या कर्त्तव्य के रूप में की गई है, जैसे मातृ धर्म, पितृ धर्म, पुत्र धर्म, राष्ट्र धर्म इत्यादि। धर्म का दूसरा अर्थ है: ऐसा मार्ग जिसके आश्रय से अभ्युदय और नि:श्रेयस दोनों की प्राप्ति हो। धर्म का अर्थ सम्प्रदाय नहीं है। धर्म का एक और अर्थ भी है; जो हम सबको एक रूप में धारण करता है, उसे धर्म कहा जाता है। वेदों को समस्त विश्व का संविधान कहा गया है तो वेदों के अनुसार आचरण करना सनातन धर्म है।