विवेचन सारांश
सात्त्विकता का मार्ग
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यशंसय:॥68॥
भगवान आदि शङ्कराचार्य ने बहुत सुन्दर शब्दों में भगवद्गीता की महिमा का गान किया है:
भज गोविन्दं भज गोविन्दं,
गोविन्दं भज मूढ़मते।
भगवद् गीता किञ्चिदधीता,
गङ्गा जललव कणिकापीता।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा,
क्रियते तस्य यमेन न चर्चा॥20॥
भगवान आदिशङ्कराचार्य कहते हैं कि थोड़ी भी भगवद्गीता जीवन में धारण कर ली तो यम भी कभी उस जीव की चर्चा भी नहीं करता। हमारे शास्त्रों में पाँच 'ग' के बारे में वर्णन किया गया है- गाय, गङ्गा, गायत्री, गोविन्द और गीता। इन पाँचों को जो धारण कर लेता है वह भवसागर से पार हो जाता है। भगवद्गीता में ये पाँचो मिल जाते हैं।
गीता को गाय की उपमा भगवान ने दी है:
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपाल नन्दनः।
पार्थो: सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्॥
अर्थात् सभी उपनिषद् गाय हैं और उनको दुहने वाला गोपाल नन्दन श्री कृष्ण है। भगवद्गीता के दसवें अध्याय के श्लोक सङ्ख्या इकतीस में 'स्रोतसामस्मि जाह्नवी' (अर्थात् नदियों में मैं गङ्गा हूँ) और श्लोक सङ्ख्या पैंतीस में 'गायत्री छंदसामहम्' (अर्थात् छन्दों में मैं गायत्री छन्द हूँ) कहा है। कहने वाले स्वयं गोविन्द हैं। इस प्रकार उपरोक्त पाँचों 'ग' हमें श्रीमद्भगवद्गीता में मिल जाते हैं। अट्ठारहवें अध्याय के अढ़सठवें और उनहत्तरवें श्लोक में श्रीभगवान ने स्पष्ट कर दिया है कि जो इस गीता को पढ़ता है वह मुझे प्राप्त हो जाता है।
जो गीता का प्रचार करता है उसके लिये भगवान ने कहा:
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि॥69॥
उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो गीता जी का प्रचार करेगा वह मुझे प्राप्त होगा। गीता के अध्ययन से हमारे दोष उसी प्रकार दूर हो जाते हैं जैसे सूर्य के प्रकाश से अन्धेरा दूर हो जाता है। लेवल एक में बारहवें और पन्द्रहवें अध्याय का अध्ययन हमने किया है। अब हम सोलहवें अध्याय का अध्ययन करने जा रहे है। यहाँ भगवान ने मोटे तौर पर मनुष्यों के दो भेद किये हैं। दैवीय और आसुरी।
मनुष्य जाति में मूलतः दो ही प्रवृत्ति के मनुष्य पाए जाते है- दैवी या सुर। वैसे तो मनुष्यों में बहुत सी भिन्नता रहती है, जैसे कि कोई गोरा है, काला है, अमीर है या गरीब है। अगर मनुष्य दैवीय प्रवृत्ति का है तो वह संस्कारी होगा। वह मनुष्य सबका कल्याण करने की प्रवृत्ति रखता होगा, सबके लिए अच्छा बोलता होगा व किसी की भी निन्दा नहीं करता होगा। अगर व्यक्ति आसुरी प्रवृत्ति का होगा तो उसमें तामसिक प्रवृत्ति होगी, राजसी प्रवृत्ति होगी और वह सबकी निन्दा करता हुआ घूमेगा या फिर अहङ्कार करेगा बहुत अधिक विचार नहीं करेगा। जो भी उसके मन में आता है उस कार्य को कर देगा। ऐसा मनुष्य स्वार्थी होगा और अपने स्वार्थ के आगे उसे कुछ भी दिखाई नहीं देगा।
तामसिक वृत्ति या राजसिक वृत्ति सात्त्विक कैसे हो? इसके लिये मनुष्य को हमेशा सत्सङ्ग करना चाहिए। ऐसे अच्छे लोगों का साथ करना चाहिए जिनके साथ बैठकर वह समाज के लिए कुछ अच्छा कर सके:
एक लोकप्रिय भजन है:
तन के संग लाग रे तेरी अच्छी बनेगी।
अच्छी बनेगी तेरी बिगड़ी बनेगी, तेरो बहु बड़ भाग रे, तेरी अच्छी बनेगी।
सन्तन के संग पुण्य कमाई, रामचरण अनराग रे। तेरी अच्छी....
ध्रुव जी की बन गई, प्रहलाद जी की बन गई, हरि सुमिरन में लाग रे। तेरी अच्छी.....
कागा से तोहे हंस करेंगे, मिट जाए उर के दाग रे। तेरी अच्छी...
मोह निशा में बहुत दिन सोए, जाग सके तो अब जाग रे। तेरी अच्छी....
सुत बित नारी तीन आशाएँ, त्याग सके तो त्याग रे। तेरी अच्छी...
कहत कबीर राम सुमिरन में, पाग सको तो पाग रे तेरी अच्छी बनेगी।
सन्तन के संग लाग रे तेरी अच्छी बनेगी।।
तमोगुण से सतोगुण की ओर जाने का सबसे अच्छा साधन सत्सङ्ग है। यहाँ सोलहवें अध्याय में श्रीभगवान ने सत्त्वगुणों की चेकलिस्ट दी है।
16.1
श्रीभगवानुवाच
अभयं(म्) सत्त्वसंशुद्धिः(र्), ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं(न्) दमश्च यज्ञश्च, स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।16.1।।
अभय- सबसे पहला गुण बताया। जब तक जीवन में अभयता का गुण नहीं आएगा तब तक सत्य नहीं आएगा व धर्म भी नहीं आएगा, इसलिए अभय होना पहला गुण है।
हितोपदेश में कहा गया है:
आहार-निद्रा-भय-मैथुनानि सामान्यम् एतत् पशुभिर् नराणाम् ।
ज्ञानं नराणाम् अधिको विशेषो ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः ॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन यह तो सामान्य बातें हैं जो भगवान ने मनुष्य के साथ-साथ पशुओं को भी दी है पर दोनों समान न हो ऐसी एक शक्ति भगवान ने मनुष्य को दी है और वह है ज्ञान अर्जित करने की शक्ति; धर्म और अधर्म में अन्तर करने की शक्ति। धर्म के मार्ग पर चलकर मनुष्य को धर्म के साथ इन सभी अभिव्यक्तियों को प्रयोग करने का गुण दिया है।
भय दो तरह के होते हैं। एक सात्त्विक भय है जो हमें गलत रास्ते पर जाने से रोकता है। गुरु का और अपने परिवार के बड़ों का एक भय व्यक्ति को गलत रास्ते पर जाने से रोकता है। जो जितना गुरु और बड़ों के सङ्ग रहता है और उनकी शरण लेता है वह उतना ही सात्त्विकता की ओर चल पड़ता है और अगर व्यक्ति अपनी मर्जी से कार्य करने का अभ्यस्त हो जाए और बड़ों का और गुरु का सङ्ग न करें तो उसमें तामसिक प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। 'मैं चाहे ये करूँ', 'मैं चाहे वो करूँ', 'मेरी मर्जी' यह निरङ्कुशता है। ऐसी निर्भयता विचारहीन और दिशाहीन है।
अभयता और निर्भयता में अन्तर होता है, इसलिए हमारे शास्त्रकारों ने निर्भयता के स्थान पर अभयता शब्द चुना, बिल्कुल वैसे ही जैसे लापरवाही और बेपरवाही में अन्तर होता है। लापरवाही और बेपरवाही एक दूसरे के विपरीत शब्द हैं। बेपरवाह व्यक्ति वह है, जैसे साधु शाम को भोजन कहाँ से प्राप्त होगा? उसे कोई परवाह नहीं होती। उसे विश्वास है कि भगवान व्यवस्था करेंगे। ऐसे ही बच्चा बेपरवाह होता है। लापरवाह मार्ग में चयन का विचार नहीं रखता। बेपरवाह व्यक्ति मञ्जिल की ओर बढ़ता जाता है और मञ्जिल क्या है इस बात की परवाह नहीं करता, पर हमेशा सही मार्ग का चयन करने का प्रयास करता है।
सन्त कबीर से किसी ने पूछा क्या आपको भी कभी भय लगता है? कबीर जी ने कहा:
काल पकड़ चेला किया भय के कतरे कान।
समरथ गुरु सर पे खड़े किस को करे सलाम।
मेरे सर पर समर्थ गुरु का हाथ है तो मुझे डर की क्या आवश्यकता है।
रामचरितमानस में परशुराम जी का प्रसङ्ग आता है। परशुराम जी को लगा कि श्रीराम और उनके भाई डरते नहीं हैं। परशुराम जी से बात करते हुए बहुत से लोग डरते थे। उनको लगा कि यह बच्चे तो मुस्कुरा कर बात कर रहे हैं। उन्होंने श्रीराम से पूछा क्या तुम्हें डर नहीं लगता।
भगवान श्रीराम ने बहुत ही सुन्दर उत्तर दिया:
बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥
सुनि मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के॥
हम आप के शिष्य हैं। आपके शिष्य सबसे निर्भय हो जाते हैं।
संघ सञ्चालक माननीय मोहनराव भागवत जी ने एक कार्यकर्ताओं की सभा में बहुत अच्छी बात कही जो इस संस्करण के साथ जुड़ती है। उन्होंने कहा कि अपने आपको अच्छा व्यक्ति तब मानना जब तुम किसी से भयभीत न हो और जब तुमसे भी कभी कोई भयभीत न हो।
उन्होंने गुरु गोविन्द सिंह जी की एक साखी कही:
भै काहू कउ देत नहि नहि भै मानत आन।
कहु नानक सुनि रे मना गिआनी ताहि बखानि ॥
किसी भी मनुष्य को डरने की आवश्यकता नहीं है और न ही उसे किसी अन्य को भयभीत करना चाहिए।
लेकिन अभय आएगा कैसे यह भी एक प्रश्न है? रावण अत्यन्त शक्तिशाली था लेकिन गलत कार्य करने की वजह से भय उत्पन्न हुआ।
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नींद दिन अन्न न खाहीं॥
सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भड़िहाईं॥
जिसके डर से देवता और दैत्य तक इतना डरते हैं कि रात को नींद नहीं आती और दिन में अन्न नहीं खाते; वही दस सिर वाला रावण कुत्ते की तरह इधर-उधर ताकता हुआ चोरी के लिए चला।
जो जितना अधिक सत्य के मार्ग पर चलता है वह उतना ही भगवत् आश्रय की ओर बढ़ता जाएगा।
हमारे साथ श्री रघुनाथ तो
किस बात की चिन्ता ।
चरण में रख दिया जब माथ तो
किस बात की चिन्ता।
हमारे साथ श्री रघुनाथ हैं, वे स्वयं ही सम्भाल लेंगे; ठाकुर जी स्वयं ही सम्भाल लेंगे। जिसे भगवान पर, अपने गुरु पर, अपने बड़ों पर विश्वास पक्का है उसको किसी बात से भय नहीं लगता।
किसी व्यक्ति की अगर किसी छोटे-मोटे सेठ से जान पहचान हो जाए तो बहुत बड़ी बात लगती है, मन्त्री से हो जाए तो और भी बड़ी बात लगती है, प्रधानमन्त्री से हो जाए तो उससे भी बड़ी बात लगती है, पर कल्पना कीजिए कि अगर साक्षात भगवान ठाकुर जी से ही जान पहचान हो जाए तो कोई भी भय नहीं रह सकता।
जीवन में भगवत् आश्रय जितना पक्का होता जाएगा, भगवान पर उतना विश्वास पक्का हो जाएगा तो भय स्वयं ही खत्म हो जाएगा, पर अभयता में भी सावधानी होनी चाहिये।
गुरुकुल से दो छात्र निकले। रास्ते में जाते हुए एक मस्त पागल हाथी पीछे पड़ गया। महावत ने कहा कि रास्ते से हट जाइए। आसपास से रास्ते में खड़े हुए लोगों ने भी कहा कि रास्ते से हट जाइए। पढ़ाई करके निकले उन छात्रों ने सोचा भगवान हमारे साथ है तो हमें किस बात का डर है, भगवान बचा लेंगे; हम तो भगवदाश्रय हैं। रास्ते से नहीं हटे, हाथी ने मार गिराया। जैसे ही स्वर्गलोक पहुँचे तो धर्मराज से लड़ पड़े। हम तो भगवान पर आश्रित थे और हमें तो यही सिखाया गया था कि हर प्राणी में भगवान होते हैं तो हमें लगा कि हाथी हमें हानि नहीं पहुँचा सकता। धर्मराज ने कहा कि भगवान तो महावत के रूप में भी थे जिन्होंने कहा था रास्ते से हट जाइए; लोगों के रूप में भी भगवान थे जिन्होंने कहा था रास्ते से हट जाइए, लेकिन आपने केवल हाथी में ही भगवान को क्यों देखा। जीवन में विवेक, सावधानी कभी नहीं छोड़ना चाहिये।
सत्त्वसंशुद्धि- भगवान ने दूसरा गुण बताया। अर्थात् अन्त:करण की पवित्रता। अन्तःकरण की पवित्रता भगवान को पाने के लिए बहुत ही आवश्यक है।
जैसे गन्दे कपड़े को स्वच्छ किया जाता है वैसे ही अन्तःकरण की स्वच्छता भी बहुत जरूरी है। केवल ध्यान करने से, अनुष्ठान करने से, ब्राह्मणों को भोजन कराने से, दान पुण्य करने से, पाठ करने से व व्रत रखने से यह स्वच्छता नहीं आती। जब तक मन से मैल नहीं निकला तब तक ऊपर का अभ्यास काम नहीं करता। कपड़े धोने पर मैल ही साफ करते हैं। किसी दर्पण को बहुत साल प्रयोग में न लाया जाए तो उस पर धूल जम जाती है फिर उसे स्वच्छ करना पड़ता है, वैसी ही अन्त:करण की स्थिति है। वास्तव में भगवान को प्राप्त नहीं करना, वे तो पहले से ही प्राप्त हैं, केवल वासनाओं की मैली चादर के कारण दिखते नहीं।
ज्ञानयोगव्यवस्थिति - तीसरा गुण भगवान ने कहा। भगवान कहते हैं कि अर्जुन कुछ लोग थोड़े समय के लिये ज्ञानी हो जाते हैं पर उसमें निरन्तरता नहीं होती।
कुछ पल के लिए शमशान में खड़े हुए शमशान वैराग्य आता है, लेकिन जैसे ही अपने घरों में वापस आ जाते हैं फिर उसी तरह की मोहमाया में फँस जाते हैं। वह वैराग्य शमशान में उत्पन्न होता है, शमशान में ही समाप्त हो जाता है। यह ज्ञान जीवन में कई बार आता है। दूसरों को देते समय भी आता है, परन्तु वह किसी काम का नहीं। जब तक उसकी निरन्तरता नहीं रहे तब तक वह ज्ञान किसी काम का नहीं है। निरन्तर ज्ञान को यहाँ ज्ञानयोगव्यवस्थिति कहा गया।
दान - इसे भगवान ने चौथा गुण कहा है। केवल धन का दान ही दान नहीं होता धन के दान को द्रव्य दान कहा जाता है। समय का और ज्ञान का दान भी दान होता है। गीता की कक्षा में बैठे हुए आप सबको शिक्षा देते हुए सभी गीता सेवी कार्यरत हैं, यह भी दान है जो वे अपने समय का कर रहे हैं। निष्काम भाव से कार्यरत हुए यह सब गीता सेवी भी दान करने में लगे हैं।
हमारे माननीय प्रधानमन्त्री जी ने स्वच्छता अभियान चलाया, जिसमें कई लोग निष्काम भाव से काम कर रहे हैं। यह स्वच्छता का दान है।
कुछ लोग प्रसन्नता का दान देते हैं। किसी को भी सुबह-शाम जब भी आप मिले प्रसन्न भाव से मिले तो उसको भी सारा दिन आपका मुस्कुराना याद रहता है। इस प्रकार जीवन में प्रसन्नता का भाव बाँटने से भी दान का पुण्य मिलता है।
आपने एलोपेथी, होम्योपेथी सुनी है। एक और पेथी है- सिम्पेथी। कोई दुखी हो तो उसकी बात सुनो। सद्भावना का दान करें। द्रव्य का दान तो है ही, हमें सेवा कार्यों में भी दान देना चाहिये। अपनी शुद्ध आय का दसवाँ अंश दान करने का नियम मनुस्मृति और बृहस्पति नीति में भी बताया गया है। दान की वृत्ति मनुष्य को देवता बनाती है। भगवान ने दो लाईन बनाई है एक देने वालों की और एक लेने वालों की। भगवान ने देने वालों की लाईन में आपको खड़ा किया है तो देने का अभिमान भी नहीं होना चाहिये।
दम - पाँचवाँ दैवीय गुण है। दम इन्द्रिय संयम को कहा जाता है। खाने, पीने, उठने, बैठने में संयम होना चाहिये।
यज्ञ - छठा दैवीय गुण है। कर्त्तव्य भाव से किया हुआ कोई भी काम यज्ञ हो जाता है। अग्निहोत्र यज्ञ भी एक प्रकार का यज्ञ है, परन्तु केवल अपने कल्याण की कामना से न करते हुए सबके लिये कर्त्तव्य भावना से जो कर्म करते हैं वह यज्ञ है।
स्वाध्याय - सातवाँ दैवीय गुण है। स्वाध्याय का साधारण अर्थ है- पढ़ना। शास्त्रीय दृष्टि से अर्थ है- 'स्व' का अध्ययन करना। अर्थात हमें स्वयं के स्वरूप को जानने का प्रयास करना चाहिये। 'मैं कौन हूँ' यह जानना स्वाध्याय है। स्वाध्याय और आत्मज्ञान पूरक हैं। इसके लिये पढ़ना-सुनना, जो क्रिया करें वह स्वाध्याय है।
तप - भगवान ने इसे आठवाँ दैवीय गुण कहा है। तप का अर्थ हिमालय पर जाकर तपस्या करना ही है ऐसा नहीं है। छोटा-सा भी नियम हमने जीवन में लिया है, उसका प्रसन्नता से पालन करना ही तप है। उस नियम के पालन में आने वाले कष्टों को प्रसन्नता से सहन करना तप है।
आर्जवं - (सरलता) को भगवान ने दैवीय गुण कहा है। मनसा, वाचा कर्मणा हम जैसे हैं वैसे ही दिखे। मन से सरल रहना चाहिए। हम जैसे हैं, हमें वैसा ही दिखना चाहिए। हमारे पास जितना पैसा है हम उससे ज्यादा अमीर दिखना चाहते हैं। हम जितने पढ़े-लिखे हैं उससे ज्यादा बुद्धिमान दिखना चाहते हैं। मन से सरल होना बहुत आवश्यक है। हम जो हैं हमें वैसा ही दिखना चाहिए। हमें लोग वैसा ही समझे तो ज्यादा सही होगा।
आर्जव का प्रसङ्ग आते ही माता शबरी का स्मरण आता है। छत्तीसगढ़ प्रान्त के रायपुर जिले में खनौंद नाम का गाँव है वहाँ पर शबरी माता का मन्दिर है।
शबरी एक कबीले के सरदार की बेटी थी। शबरी का मूल नाम श्रमणा था। ये भील समुदाय के शबर जाति से सम्बन्ध रखती थीं इसी कारण उनका नाम शबरी हुआ। श्रमणा जब छोटी थी, प्रकृति से जुड़ी हुई थी तथा स्वभाव से बहुत संवेदनशील थी। कहीं से एक मेमने (भेड़ का बच्चा) को ले आई और उसके साथ खेलने लगी। फिर उस मेमने को अपने साथ ही सुलाती, दिन भर उसके साथ खेलती और इस तरह उसका सारा समय अपने उस छोटे से मेमने के साथ बीतता। जब बारह-तेरह वर्ष की हुई तो उसका विवाह तय हो गया। एक दिन सुबह उठी तो उसे अपना मेमना दिखाई नहीं दिया। उसने सब जगह ढूँढा लेकिन मेमना नहीं मिला। श्रमणा रोने लगी, कोई उसे नहीं बता रहा था कि उसका मेमना कहाँ है। सारा दिन बीत गया, शाम हो गई; श्रमणा ने खाना भी नहीं खाया। उसकी सखी ने बताया कि हर घर से एक मेमना कमरे में बन्द कर दिया गया है क्योंकि तुम्हारा विवाह है। बारात को खिलाने के लिए उन सबको मार दिया जाएगा। यह सुनकर श्रमणा आवाक् रह गई। 'मेरे कारण इन निरीह मेमनों का वध किया जाएगा' ऐसा सोचकर श्रमणा विह्वल हो गई। उसने बहुत सोचा कि मैं इन मेमनों को बचाने के लिए क्या करूँ और अन्त में वह घर छोड़कर जङ्गल की ओर निकल गई ताकि उसकी शादी ही न हो और मेमने बच जाएँ। रात भर जङ्गल में चलते हुए वह राह बदलती गई, दिशा भी बदलती गई। नदी पार कर ली, पहाड़ पार कर लिए तीन दिन तक लगातार चलती रही ताकि कोई उसको पकड़ न सके और इस तरह जङ्गल में चलते हुए वह एक ऋषि के आश्रम तक पहुँची। यह आश्रम मतङ्ग ऋषि का था। ऋषि मतङ्ग सिद्ध ऋषि थे। मतङ्ग ऋषि ने श्रमणा को बेसुध देखा तो उन्हें लगा कि यह रास्ता भूल गई है, कोई इसे आकर ढूँढ ले जाएगा। मतङ्ग ऋषि ने उसकी आँखों पर जल गिराया। श्रमणा सचेत हुई तो ऋषि ने उससे पूछा वह कौन है और यहाँ कैसे पहुँची? श्रमणा ने मतङ्ग ऋषि को सारी कथा कही। ऋषि श्रमणा की बात सुनकर अत्यन्त भावुक हो गए। इतनी छोटी-सी बालिका और मन में इतनी सहानुभूति कि अपने मेमने की जान बचाने के लिए इतना बड़ा कदम उठा लिया। मतङ्ग मुनि ने श्रमणा से उसके घर के पते के बारे में जानने का प्रयास किया, परन्तु श्रमणा अपने घर की दिशा भी भूल चुकी थी। श्रमणा वहीं गुरुकुल में रहने लगी। उसको गुरुकुल का वातावरण बहुत पसन्द आया। वह वहाँ पढ़ रहे शिष्यों के लिए भोजन बनाती। वहाँ उसके कुछ दिन बीत गए। गुरुकुल में पढ़ने वाले छात्रों ने इस बात को पसन्द नहीं किया। उन्होंने कहा कि श्रमणा को वहाँ नहीं रहना चाहिए। श्रमणा को जब इस बात का पता चला तो वह चुपचाप एक दिन आश्रम से चली गई और आश्रम के आसपास के पेड़ों पर रहने लगी। श्रमणा कबीले में रहने के कारण पेड़ों पर रहना जानती थी। उसने सोचा कि जहाँ से उसके गुरु हर रोज नदी किनारे नहाने के लिए जाते हैं उस रास्ते को मैं साफ कर दिया करूँगी। गुरुकुल के छात्रों को बहुत दूर तक लकड़ी लाने के लिए जाना पड़ता था। श्रमणा रात में गुरुजी के लिए रास्ते को साफ करती और छात्रों के लिए दूर से लड़कियाँ लाकर आश्रम के आसपास बिखेर देती। ऐसा करते-करते श्रमणा को तीन वर्ष बीत गए। एक दिन गुरु मतङ्ग ऋषि ने पूछा कि तुम सब लकड़ी लेने गए और इतनी जल्दी वापस कैसे आ गए? तो छात्रों ने उत्तर दिया कि दैव ने आपके लिए कुछ इस तरह का प्रबन्ध कर दिया है कि लकड़ी हमें आश्रम के आसपास ही मिल जाती है। ऋषि को इस बात का रहस्य जानने की उत्सुकता हुई। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि हम आज रात को यह देखेंगे कि कौन इस राह को साफ करता है और लड़कियाँ लाकर रखता है। ऐसा कैसे हो सकता है? मतङ्ग ऋषि ने स्वयं प्रयास करके जाना कि श्रमणा ही इस पूरे कार्य को कर रही है। श्रमणा ने ऋषि कुमारों की शिकायत नहीं कि परन्तु मतङ्ग मुनि ने अपनी दिव्य दृष्टि से सब जान लिया। उन्होंने श्रमणा को आश्रम में वापस बुला लिया। गुरुकुल के शिष्य अपनी पढ़ाई पूर्ण करके चले गए। फिर एक दिन गुरु को यह लगा कि अब उनका समय हो गया है। वह अपनी जीवन यात्रा को हिमालय पर ही समाप्त करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने शबरी से कहा कि अब इस आश्रम को तुम ही सम्भालो क्योंकि मैं हिमालय की तरफ जा रहा हूँ। श्रमणा की उत्तम गुरुभक्ति को देखकर आशीर्वाद दिया कि इसी आश्रम में एक दिन तुम्हें श्रीराम आकर स्वयं दर्शन देंगे। शबरी को यह बात सुनकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई।
मतङ्ग ऋषि के जाने के बाद मन की सरल माता शबरी भगवान श्रीराम की प्रतीक्षा में हर रोज आश्रम की ओर आने वाले मार्ग को साफ करती, फल लेकर आती और जल भरती। वह निरन्तर प्रतीक्षारत रहती कि कब श्रीराम आएँगे। वह चिन्ता करती कि मैंने तो गुरुजी से पूछा ही नहीं कि श्रीराम कौन-से मार्ग से आएँगे? वह कभी उत्तर दिशा में सफाई करती, कभी दक्षिण का मार्ग साफ करती, कभी पूरब और कभी पश्चिम का मार्ग साफ करती। इस प्रकार माता शबरी ने लगभग सत्तर साल तक भगवान श्रीराम की प्रतीक्षा की। शबरी को गुरुजी ने कहा था कि 'राम जी आएँगे' तो बस राम जी आएँगे ही। सरल स्वभाव की माता शबरी ने वर्षों तक श्रीराम की प्रतीक्षा की। जब दिशा परिवर्तन से श्रीराम उनके आश्रम में पहुँचे, लक्ष्मण भी इस बात से हैरान थे कि वनवास के दौरान श्रीराम सीता माता की तलाश में जाते समय अचानक दिशा परिवर्तन कर किस तरफ चल पड़े हैं? जैसे ही श्रीराम शबरी के आश्रम में पहुँचे; शबरी उनके चरणों पर माथा टेक अपने गुरु को बारम्बार नमस्कार करती रही।
ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें आश्रम पगु धारा॥
सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥
शबरी के मन में पहली भावना यही आई कि मेरे गुरुजी के वचन सत्य हो गए। शबरीजी ने श्रीरामचन्द्रजी को घर में आए देखा, तब मुनि मतङ्गजी के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया।
सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥
कमल सदृश नेत्र और विशाल भुजाओं वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किए हुए सुन्दर, साँवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरीजी लिपट पड़ीं।
प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥
सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे॥
वे प्रेम में मग्न हो गईं, मुख से वचन नहीं निकलता। बार-बार चरण-कमलों में सिर नवा रही हैं। फिर उन्होंने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोए और उन्हें सुन्दर आसनों पर बैठाया।
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥
श्रीरामचरितमानस में कन्द-मूल का वर्णन है, परन्तु अन्य ग्रन्थों में बेर का वर्णन आता है। शबरी भगवान को चख-चखकर बेर देती हैं। लक्ष्मण जी को अच्छा नहीं लगता। लक्ष्मणजी शबरी को रोकना चाहते हैं, परन्तु भगवान श्रीराम लक्ष्मण को रोककर शबरी के झूठे बेर स्वाद ले-लेकर, बेर की प्रशंसा करते हुए खाते हैं और लक्ष्मण को भी खाने को देते हैं। लक्ष्मणजी खाते नहीं और पीछे फेंकते जाते हैं। एक क्षेपक कथा आती है कि उन्हीं बेर की सञ्जीवनी बूटी उगी, जिससे उनके प्राण बचे। शबरी के बेर की प्रशंसा भगवान ने केवल यहाँ ही नहीं की, वनवास पूरा होने के बाद भगवान के राज्याभिषेक के समय अयोध्या के नगर सम्भ्रान्तों द्वारा भगवान के लिये भोज रखने पर भोजन करते समय भी की है। भगवान श्रीराम जब अपनी ससुराल मिथिला गए, जनक जी ने विविध प्रकार के पकवान भगवान के लिये बनवाये। भगवान ने भोजन करते हुए लक्ष्मणजी से कहा कि लक्ष्मण मुझे इन पकवानों को ग्रहण करते हुए वह स्वाद नहीं आ रहा जो शबरी के बेर खाते हुए आया था।
भगवान शबरी के प्रेम-रस में ऐसे डूबे हुए हैं।
पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी॥
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी॥
फिर वे (शबरी) हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गईं। प्रभु को देखकर उनका प्रेम अत्यन्त बढ़ गया। मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ? मैं नीच जाति की और अत्यन्त मूढ़ बुद्धि हूँ।
अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी॥
जो अधम से भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें भी अत्यन्त अधम हैं और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मन्दबुद्धि हूँ।
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥
श्री रघुनाथजी ने कहा- हे भामिनि! मेरी बात सुन। मैं तो केवल एक भक्ति
ही का सम्बन्ध मानता हूँ। जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता - इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल (शोभाहीन) दिखाई पड़ता है। श्रीभगवान यहाँ माता शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हैं।
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥
मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है सन्तों का सत्सङ्ग दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसङ्ग में प्रेम होना।
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥
तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें।
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
मेरे (राम) मन्त्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इन्द्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरन्तर सन्त पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥
सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और सन्तों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में सन्तोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना। बारहवें अध्याय में भगवान ने कहा है- 'संतुष्टो येन केनचित्'। 'जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये' का भाव भी यही है।
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥
नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना।
इन नौ में से जिनके हृदय में एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, चराचर कोई भी हो वह मुझे अत्यन्त प्रिय है। भगवान यहाँ माता शबरी को प्रमाणित करते हैं कि तुझमें तो सभी प्रकार की भक्ति है। अर्जुन की भक्ति को भी भगवान इसी प्रकार सोलहवें अध्याय में प्रमाणित करते हैं।(मा शुच: सम्पदं दैवीमभिजातोसि पाण्डव)। भगवान कहते हैं कि शबरी तुम कहती हो कि मैं कैसे तुम्हारी स्तुति करूँ, परन्तु सम्पूर्ण नौ भक्ति तुझमें है।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥
हे भामिनि! मुझे वही अत्यन्त प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है।
मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा॥
मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।
कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पंकज धरे।
तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे।
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी रामपद अनुरागहू॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि शबरी माता योगाग्नि से देह को त्याग कर (जलाकर) दुर्लभ हरिपद में लीन हो गई, जहाँ से लौटना नहीं होता। शबरी ने अपनी सरलता के बल पर परम पद प्राप्त किया। जीवन में सरलता होनी चाहिये।
समास और व्यास शैली में बात कही जाती है। माता शबरी के प्रसङ्गवश व्यास शैली का समावेश हुआ।
इसी के साथ विवेचन सत्र समाप्त हुआ।
प्रश्नोत्तर
प्रश्नकर्ता: पद्मिनि अग्रवाल
प्रश्न: हम सन्तों की कथाओं में सुनते हैं कि गोपियाँ वेदों की श्रुतियाँ हैं। तो वेदों की श्रुतियाँ देह कैसे धारण कर सकती है?
उत्तर: भगवान की प्रकृति के आधि-भौतिक और आधि-दैविक दो स्वरूप हैं। कण-कण में भगवान का अंश हैं। आधि दैविक स्वरूप में ऋचाएँ हैं; आधिभौतिक स्वरूप में गोपियाँ हो गई। जैसे गङ्गा जी ने स्त्री शरीर धारण करके शान्तनु से विवाह किया। पृथ्वी गोल है लेकिन देवी के रूप में माता के स्वरूप में भी हम देखते हैं।
प्रश्न: गीता को सञ्जय और बर्बरीक ने भी श्रवण किया।
उत्तर: बर्बरीक का वर्णन तो नहीं पढ़ा, परन्तु हनुमान जी महाराज ने जरूर सुना।
प्रश्न: वेद व्यास जी ने कैसे गीता को लिखा?
उत्तर: वेद व्यास जी त्रिकाल दर्शी थे। उन्होंने सञ्जय को भी दिव्य दृष्टि प्रदान की। उनके पास दिव्य दृष्टि थी तभी तो उन्होनें सञ्जय को प्रदान की। वे भूत, भविष्य और वर्तमान को प्रत्यक्ष देख सकते थे। वैसे ही जैसे हम एकदूसरे को देख रहे हैं। उन्होंने महाभारत को प्रत्यक्ष के समान ही लिखा इसलिये गीता में भगवान ने जो कुछ कहा वैसा का वैसा लिख दिया। इसका प्रमाण यह भी है कि वेद व्यास जी ने महाभारत में अन्यत्र भगवान श्रीकृष्ण ने कुछ कहा है ऐसा वर्णन करने के लिये, 'वासुदेव उवाच', 'केशव उवाच' आदि सम्बोधन दिया है, परन्तु गीता जी में (जो महाभारत के भीष्म पर्व के पच्चीसवें अध्याय से लेकर बयालीसवें अध्याय तक आती है) 'श्रीभगवान उवाच' ही लिखा है ताकि लोगों को सन्देह न रहे कि मैंने (वेद व्यास) उनकी बात को कुछ अलग तरह से लिखा। अर्थात गीता में जैसा भगवान ने कहा वैसा ही लिखा गया।
प्रश्नकर्ता: हिमानी जी
प्रश्न: अगर हमारे पास समय कम हो तो अध्याय छह, बारह और पन्द्रह केवल इन तीन अध्याय का पाठ कर लें तो पूरी गीता का पाठ करने का फल मिलता है। क्या यह सही है?
उत्तर: ऐसा नहीं है। समय कम है तो किसी भी अध्याय के पाठ से कल्याण ही होगा। पन्द्रहवें अध्याय के पाठ की परम्परा अधिक है। श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में काकभुशुण्डी जी ने पाँच-छह दोहे में पूरी रामायण कही है, जिसे काकभुशुण्डी रामायण कहते हैं। मुरारी बापू जैसे सन्त कहते हैं कि काकभुशुण्डि जी द्वारा कही गई रामायण के पाठ से पूरी रामायण के पाठ का फल मिलता है।
प्रश्नकर्ता: साधना जी
प्रश्न: आपने शबरी की कथा कही तो ऐसा लगा कि शबरी रामजी की नहीं अपने गुरु की भक्त हैं तो शबरी को परम गति कैसे मिल गई?
उत्तर: भगवान ने सातवीं भक्ति कही है "मो ते अधिक सन्त कर लेखा" अर्थात जो मुझसे अधिक सन्तों को मानेगा वह मेरी भक्ति करता है। मतङ्ग मुनि कहकर गये कि 'राम आयेंगे' तो जीवन भर शबरी ने राम का ही चिन्तन किया। भगवान के आने पर गुरु के वचन के प्रमाणित होने पर विशेष प्रसन्नता होना शबरी की गुरुभक्ति है। प्रभु-भक्ति और गुरु-भक्ति दोनों एक-दूसरे की पूरक हैं।
प्रश्नकर्ता: सुमन जी
प्रश्न: पिताजी गीता कक्षा में रूचि नहीं लेते?
उत्तर: आपने गीता कक्षा से उन्हें जोड़ा आपका कर्तव्य पूरा हूआ। ईश्वर ने सभी को कर्म करने की स्वतन्त्रता दी है।
प्रश्नकर्ता: निर्मला जी
प्रश्न: मृत्यु के बाद आत्मा कहाँ जाती है?
उत्तर: मृत्य के दस दिन बाद से अगले एक वर्ष में उसे अन्य योनी का शरीर मिल जाता है। कर्मों के कष्ट शरीर को मिलते हैं आत्मा को नहीं।
प्रश्नकर्ता: सुभाजित जी
प्रश्न: पन्द्रवें अध्याय में क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम क्या है?
उत्तर: एक शरीर है, एक जीव जो परमात्मा का अंश है तथा एक है परमात्मा। परमात्मा का अंश और परमात्मा एक ही हैं। जैसे समुद्र और समुद्र की बूँद दोनों तात्त्विक दृष्टि से एक ही हैं, परन्तु बूँद से समुद्र नहीं बन सकता, समुद्र से बूँद का निर्माण होता है, वैसे ही परमात्मा से जीवों का निर्माण होता है। भगवान कहते हैं कि मैं तो एक ही इन सबका भरण-पोषण करने वाला इनसे उत्तम पुरुषोत्तम हूँ, तो शरीर 'क्षर' है, जीव अक्षर है और परमात्मा इन सबको बनाने वाला परम चैतन्य परमब्रह्म है।
प्रश्नकर्ता: किशोर जी
प्रश्न: मृत्युशैया पर लेटे व्यक्ति को कौन-से अध्याय का पाठ सुनाना चाहिये?
उत्तर: पूरी गीता का पाठ सुनाना चाहिये, परन्तु समय कम हो तो पन्द्रहवें अध्याय को सुनाने की परम्परा है।
प्रश्न: सूर्य को दोपहर में अर्घ्य दे सकते हैं?
उत्तर: जरूर दे सकते हैं परन्तु पुण्य फल के विचार से ब्रह्म मुहूर्त में सर्वोत्तम है। उसके पश्चात जितना देरी होगी क्रमश: फल कम होता जाएगा।
प्रश्न: गायत्री, विष्णु, शिव, राम आदि भगवान के रूपों में से किसकी उपासना करें?
उत्तर: भगवान आदि शङ्कराचार्य ने गृहस्थ के लिये नित्य पञ्चदेवों की उपासना का विधान किया है। भगवान विष्णु के किसी रूप (राम, कृष्ण), शिव, देवी के किसी रूप (दुर्गा, गायत्री), गणेश और सूर्य की उपासना गृहस्थ को नित्य करना चाहिये।