विवेचन सारांश
दैवी एवं आसुरी सम्पदा की व्याख्या व उनके परिणाम

ID: 4489
हिन्दी
रविवार, 10 मार्च 2024
अध्याय 16: दैवासुरसंपद्विभागयोग
2/2 (श्लोक 2-24)
विवेचक: गीता विशारद डॉ आशू जी गोयल


हमारा परम सौभाग्य है हम सभी अपने पूर्व जन्मों के संस्कारों के फलस्वरूप एवं सन्तों की कृपा से श्रीमद्भगवद्गीता के अध्ययन, चिन्तन, श्रवण एवं मनन में प्रवृत्त हुए हैं। पिछले सत्र में हमने छब्बीस दैवी गुणों में से आठ गुणों अभय, सत्व संशुद्धि, तत्व ज्ञान, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप एवं अन्तःकरण की सरलता के बारे में सुना और शबरी की कथा का भी श्रवण किया। गीता के कृष्ण पूर्णतया तार्किक (rational and scientific) एवं वैज्ञानिक हैं। वे कहते हैं कि तुम कैसे हो इसे चेक कर लो, स्वयं का मूल्यांकन करो,अपना चार्ट बनाओ, मैं ये चेक लिस्ट दे रहा हूँ,  मैंने यह दूसरों का विचार करने के लिए नहीं बल्कि स्वयम् का मूल्यांकन करने के लिए दिया है। मुझे आश्चर्य होता है कि कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि सामने वाले के अन्दर आसुरी गुण विद्यमान हों तो हमें क्या करना चाहिए अर्थात् प्रकारान्तर से वे अपने को दैवीय गुणों से सम्पन्न होने का प्रमाण पत्र दे देते हैं, बिना स्वयम् का मूल्यांकन किए ही। हमें सामने वाले पुरुष में दुर्गुण दिखाई देते हैं क्योंकि हम उसे पसन्द नहीं करते, मात्र इस कारण से वह आसुरी प्रवृत्ति वाला नहीं हो जाता। इसीलिए भगवान ने अपने को जानने के लिए लक्षण बताए:

1. अध्याय क्रमांक 2 में स्थितप्रज्ञ के लक्षण
2. अध्याय क्रमांक 12 में भक्ति के लक्षण
3. अध्याय 14 में गुणातीत के लक्षण और 
4. अध्याय 16 में दैवी व आसुरी प्रवृत्ति के लक्षण

 भगवान ने बताए, कि हम कहाँ स्थित हैं, जिससे हम इसका मूल्यांकन कर सकें। इस अध्याय के पहले श्लोक में जो नौ गुणों की चर्चा की गई थी ये सभी प्रत्येक मनुष्य के अन्दर विद्यमान होते हैं किन्तु मात्रा अलग अलग होती है। किसी के भी अन्दर न तो शून्य होता है और न ही शत- प्रतिशत। मेरे अन्दर कौन से गुण न्यून है उसे बढ़ाना है। विचार कीजिए हम सभी कुछ न कुछ दान देते रहते हैं किन्तु किसी के कहने या दबाव वश दान अवश्य दिया होगा अब हमें स्वेच्छा से बिना उपकार की भावना से दान देने की प्रवृत्ति को बढ़ाना होगा। इसी प्रकार धीरे धीरे सभी छब्बीस गुणों को अपने अन्दर बढ़ाने का प्रयास करते रहना चाहिए।

16.2

अहिंसा सत्यमक्रोध:(स्), त्यागः(श्) शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं(म्), मार्दवं(म्) ह्रीरचापलम्।।16.2।।

अहिंसा, सत्य भाषण, क्रोध न करना, संसार की कामना का त्याग, अन्तःकरण में राग-द्वेष जनित हलचल का न होना, चुगली न करना, प्राणियों पर दया करना, सांसारिक विषयों में न ललचाना, अन्तःकरण की कोमलता, अकर्तव्य करने में लज्जा, चपलता का अभाव।

विवेचन:- मुझे मेरे अपने अधिकारों का कोई विचार नहीं, हम दूसरे के अधिकारों को अपना मान लेते हैं। जो नही मिल रहा है उसके पीछे पड़े हैं। अहिंसा और सत्य का पालन व क्रोध का त्याग करने से तुरन्त शान्ति मिलती है।पहले 50-60 वर्ष आयु वाले को शान्ति आती थी अब व्हाट्सएप के आने से बच्चे से बूढ़े तक सभी उसी में लगे रहते हैं और अपनी शान्ति खो देते हैं। कुछ क्षण अपने बारे में सोचें और विचार करें किसके कारण मुझे इतना कुछ मिला है, किसके किसके प्रति कृतज्ञता अर्पित करनी है, ये स्वभाव में ही आना चाहिए। जीवन के कुछ क्षण ऐसे होने चाहिए जिससे कि मैं अपने को ढूँढ सकूँ। अपैशुनम् का अर्थ है किसी की चुग़ली न करना, निन्दा न करना। जिस प्रकार किसी घाव को खुजलाने से वह पक जाता है, निन्दा भी ठीक वैसी ही है। पता है कि कोई बात खुलेगी तो वितण्डा अर्थात झमेला खड़ा हो जायेगा फिर भी हम वैसा ही करते हैं।

भगवान को अर्जुन के दो गुण सबसे प्रिय हैं:

1. अनघ: अर्जुन पाप रहित हैं।
2. अनसूय: दूसरों की निन्दा न करना।

किसी का दोष पता लग जाए तो उसको प्रकट नहीं करना चाहिए जब तक ऐसा आवश्यक न हो और यदि आवश्यक ही हो तो प्रिय युक्त होकर कहना चाहिए। भगवान कहते हैं कि सभी प्राणियों के प्रति दया का स्वभाव होना चाहिए। दूसरों को सहर्ष दो किन्तु उपकार की इच्छा नहीं होनी चाहिए। दया के समय उपदेश नहीं देना चाहिए क्योंकि उपदेश उस समय घाव पर नमक छिड़कने का काम करता है, जब कोई तकलीफ में है उसे उपदेश मत दीजिए क्योंकि वह अदया हो जाती है। मनुष्यों में ही नहीं वरन् समस्त प्राणियों के प्रति दया होनी चाहिए। हमारी संस्कृति में पहली रोटी गाय को, अन्तिम कुत्ते को, मीठी वस्तु गिर जाए वह चींटी को, पक्षी को दाना डालने का चलन था। दया के लिए अमीरी गरीबी नहीं चाहिए बल्कि दया एक स्वभावगत गुण है। मैंने ऐसे दम्पति को देखा है जो खाना बनाकर अपनी गाड़ी में रखकर मजदूरों में बाँट दिया करते हैं।

अलोलुप्त्वम् अर्थात् लालच न होना। किसी वस्तु आदि के प्रति देखकर लार टपकना लोलुपता  कहलाती है। जैसे किसी के यहाँ गए पर्दा देखा तो पर्दे के बारे में चर्चा करने लगे और अपने परदे बदलने के जुगत में लग गए। लोलुपता आँखों से दिख जाती है।

अगला गुण है ः-

मार्दवम् अर्थात् कोमलता। राम जी कितने शक्तिशाली हैं, कृष्ण जी कितने बलशाली है किन्तु उनके अन्दर कोमलता है। कई लोगों को देखें तो वे अकड़ में चलते हैं, चेहरे पर क्रोध का भाव रहता है, ये सब अदैवीय गुण हैं। भगवान कहते हैं शास्त्र के विरुद्ध आचरण करने में लज्जा का भाव होना चाहिए। कुछ लोग जब कोई अशास्त्रीय कार्य करते हैं तो उसे सही सिद्ध करने की कोशिश करते हैं, वहीं पर आसुरी प्रवृत्ति हो जाती है।

अचापलम्
 अर्थात व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव। राजस्थान में एक क्षमा राम शास्त्री सन्त हैं जो छः घण्टे एक ही आसन में बैठ कर बिना इधर उधर हिले डुले रामायण का पाठ करते है, एक बार भी नजर उठाकर किसी ओर नहीं देखते और एक जैसी ही वाणी अनवरत बोलते है किन्तु हमें एक घण्टा भी एक आसन में बैठना मुश्किल हो जाता है।

16.3

तेजः क्षमा धृतिः(श्) शौचम्, अद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं(न्) दैवीम्, अभिजातस्य भारत।।16.3।।

तेज (प्रभाव), क्षमा, धैर्य, शरीर की शुद्धि, वैर भाव का न होना (और) मान को न चाहना, हे भरतवंशी अर्जुन ! (ये सभी) दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के (लक्षण) हैं।

विवेचन: श्रीभगवान कहते हैं हे अर्जुन! जीवन में तेजस्विता होनी चाहिए। हम जो भोजन करते हैं उससे सप्त धातु अर्थात्  पहले रस, रस से रक्त, रक्त से माँस, माँस से मज्जा, मज्ज़ा से अस्थियाँ, अस्थियों से वीर्य, वीर्य से ओज और ओज से तेज बनता है। तेजस्वी लोगों के एक बार कहने मात्र से ही लोग उसका पालन करते हैं।

क्षमा गुण देखने में आसान है किन्तु उसका पालन बहुत मुश्किल काम है। क्षमा कोई देना नहीं चाहता अपितु अपने लिए अपेक्षा का भाव ज़रूर रखते हैं। दूसरों के लिए वकील और अपने लिए जज की भूमिका में आ जाते हैं। दूसरे की गलती को छोटा और अपनी त्रुटि को बड़ा देखें तो सुधार होगा। अंग्रेजी की कहावत है: Forgive and Forget. सच्ची क्षमा है कि हमें याद ही नहीं है कि क्षमा भी किया था।

धृति का अर्थ धैर्य से है। आज के समय में इसकी महती आवश्यकता है।

जीवन की कुछ बातें समय के साथ आती हैं। गड़बड़ सौ दिन किया किन्तु एक दिन सही किया तो धैर्य खो देते हैं। जीवन में कोई शॉर्ट कट नहीं होनी चाहिए, जल्दबाजी नहीं होनी चाहिए।

                     धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय।
                    माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय।।

धैर्य से ही कार्य करना चाहिए।

एक होती है धारणा अर्थात अच्छी बात को धारण करना।

शौच का अर्थ है शुचिता, पवित्रता। कोई मुझसे पूछा कि उठने में देरी हो जाती है तो क्या बिना नहाए भोग लगा दूँ, यह वर्जित है। बाहर और अन्दर दोनों की पवित्रता होनी चाहिए। पूजन के नियमानुसार, पहले अपने को तिलक लगाते हैं फिर भगवान को तिलक लगाते है अर्थात् पहले अपने को पवित्र करो फिर उपासना करो। भगवान कहते हैं कि जीवन में किसी के प्रति द्रोह नहीं करना चाहिए। किसी ने मेरे प्रति अपकार किया भी तो उसके प्रति मङ्गल की कामना होनी चाहिए।

नातिमानिता:- अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव होना चाहिए। अन्त में भगवान कहते हैं हे अर्जुन! ये सभी गुण दैवीय सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं। अपने को गुणों के आधार पर पूजनीय बनायें, वस्त्रादिके द्वारा नहीं।

16.4

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च, क्रोधः(फ्) पारुष्यमेव च।
अज्ञानं(ञ्) चाभिजातस्य, पार्थ सम्पदमासुरीम्।।16.4।।

हे पृथानन्दन ! दम्भ करना, घमण्ड करना और अभिमान करना, क्रोध करना तथा कठोरता रखना और अविवेक का होना भी - (ये सभी) आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के (लक्षण) हैं।

विवेचन: श्रीभगवान कहते है जो अपने बारे में ही बात करता है जैसे मैं स्वस्थ हूँ, मैं सुन्दर हूँ आदि ये अभिमान की श्रेणी में आएगा। जो मेरे पास है उसके बारे में बात करता है वह दर्प कहलाता है जैसे मेरा पुत्र सुन्दर है, मेरा मोबाइल कीमती है, मेरी पत्नी गुणवान है आदि। तीसरा जो न मेरे पास है और न मैं कुछ हूँ  फिर भी उसका दिखावा करते हैं, इसे दम्भ कहते हैं। मैं मेहमान को देखकर देर तक पूजा करता हूँ, जोर - जोर से ऊँची आवाज में पूजा करता हूँ, और इसके अतिरिक्त मॉल में गया, किसी शो रूम में कार के साथ फोटो खींच लिया जिससे लोगों को पता चले कि यह कार मैने ली है,ये सब दम्भ है। क्रोध करना और कठोरता का भाव रखना, मुझे पता नहीं है तथापि झूठ बोलना और ज्ञान होने का विश्वास दिलाना ये सब आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं।

16.5

दैवी सम्पद्विमोक्षाय, निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः(स्) सम्पदं(न्) दैवीम्, अभिजातोऽसि पाण्डव।।16.5।।

दैवी सम्पत्ति मुक्ति के लिये (और) आसुरी सम्पत्ति बन्धन के लिये मानी गयी है। हे पाण्डव! (तुम) दैवी सम्पत्ति को प्राप्त हुए हो, (इसलिये तुम) शोक (चिन्ता) मत करो।

विवेचन: हे अर्जुन! दैवी सम्पदा में जिन छब्बीस गुणों का वर्णन किया गया है वे सभी मनुष्य को मुक्ति प्रदान करने वाले हैं और आसुरी सम्पदा बन्धनकारी हैं। अतः तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुआ है।

16.6

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्, दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः(फ्) प्रोक्त , आसुरं(म्) पार्थ मे शृणु।।16.6।।

इस लोक में दो तरह के ही प्राणियों की सृष्टि है -- दैवी और आसुरी। दैवी को तो (मैंने) विस्तार से कह दिया, (अब) हे पार्थ! (तुम) मुझसे आसुरी को (विस्तार) से सुनो।

विवेचन: आगे अब भगवान नकारात्मकता वाले गुणों की बात करते हैं। हे अर्जुन! इस लोक में मनुष्यों की दो प्रकार की ही प्रवृत्ति है: एक दैवीय प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला। इन दोनों में अभी तक दैवी गुणों वाले मनुष्यों के बारे में विस्तार पूर्वक बताया गया, अब तुम मुझसे आसुरी गुणों वाले मनुष्यों के बारे में विस्तार से सुनो।

16.7

प्रवृत्तिं(ञ्) च निवृत्तिं(ञ्) च, जना न विदुरासुराः।
न शौचं(न्) नापि चाचारो, न सत्यं(न्) तेषु विद्यते।।16.7।।

आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य किस में प्रवृत होना चाहिये और किससे निवृत्त होना चाहिये (इसको) नहीं जानते और उनमें न तो बाह्य शुद्धि, न श्रेष्ठ आचरण तथा न सत्य-पालन ही होता है।

विवेचन: हे अर्जुन! आसुरी प्रवृत्ति वाला मनुष्य करने योग्य कार्य को टालता रहेगा और न करने योग्य कार्य को करेगा। ऐसे लोग प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दोनों को नहीं जानते। उनमें न तो बाहर और भीतर की पवित्रता है, न ही श्रेष्ठ आचरण तथा न सत्य भाषण ही है। यह कभी उचित कार्य नहीं करेगा।

16.8

असत्यमप्रतिष्ठं(न्) ते, जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं(ङ्), किमन्यत्कामहैतुकम्।।16.8।।

वे कहा करते हैं कि संसार असत्य, बिना मर्यादा के (और) बिना ईश्वर के अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से पैदा हुआ है। (इसलिये) काम ही इसका कारण है, इसके सिवाय और क्या कारण है? (और कोई कारण हो ही नहीं सकता।)

विवेचन: आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य भगवान को नहीं मानते और वे कहते हैं कि ये सम्पूर्ण जगत आश्रय रहित, सर्वथा असत्य और अपने आप केवल स्त्री पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुआ है, केवल काम ही इसका कारण है इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं।

16.9

एतां(न्) दृष्टिमवष्टभ्य, नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः, क्षयाय जगतोऽहिताः।।16.9।।

इस (पूर्वोक्त) (नास्तिक) दृष्टि का आश्रय लेने वाले जो मनुष्य अपने नित्य स्वरूप को नहीं मानते, जिनकी बुद्धि तुच्छ है, जो उग्र कर्म करने वाले (और) संसार के शत्रु हैं, उन मनुष्यों की सामर्थ्य का उपयोग जगत का नाश करने के लिये ही होता है।

विवेचन: हे अर्जुन! ऐसे पुरुष मिथ्या ज्ञान का सहारा लेकर, जिनकी बुद्धि अल्प है तथा स्वभाव नष्ट हो गया है, सभी के अहित की बात सोचने वाले ऐसे क्रूर कर्म करने वाले लोग जगत् के नाश के लिए ही उत्पन्न होते हैं।

16.10

काममाश्रित्य दुष्पूरं(न्), दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्, प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः।।16.10।।

कभी पूरी न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर दम्भ, अभिमान और मद में चूर रहने वाले (तथा) अपवित्र व्रत धारण करने वाले मनुष्य मोह के कारण दुराग्रहों को धारण करके (संसार में) विचरते रहते हैं।

विवेचन: हे अर्जुन! ऐसे आसुरी स्वभाव वाले लोग दम्भ, मान और मद में चूर बड़ी बड़ी कामनाओं का आश्रय लेकर जो कभी पूर्ण होने वाली भी नहीं है, अज्ञान वश मिथ्या सिद्धान्तों का सहारा लेकर भ्रष्ट आचरणों को धारण कर विचरते रहते हैं।

16.11

चिन्तामपरिमेयां(ञ्) च, प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा, एतावदिति निश्चिताः।।16.11।।

(वे) मृत्यु पर्यन्त रहने वाली अपार चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, पदार्थों का संग्रह और उनका भोग करने में ही लगे रहने वाले और 'जो कुछ है, वह इतना ही है' - ऐसा निश्चय करने वाले होते हैं।

विवेचन: आसुरी स्वभाव वाले लोग मृत्यु पर्यन्त रहने वाली असंख्य चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, विषय भोगों को भोगने में तत्पर रहने वाले और इतना ही सुख है अर्थात् शादी कर लो, सन्तति बढ़ा लो, उन्हें पढ़ा लिखा दो आदि ही अपना उद्देश्य मानने वाले होते हैं और इससे आगे कुछ नहीं। समाज से उन्हें कुछ लेना देना नहीं होता।

16.12

आशापाशशतैर्बद्धाः(ख्), कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थम्, अन्यायेनार्थसञ्चयान्।।16.12।।

(वे) आशा की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर पदार्थों का भोग करने के लिये अन्याय पूर्वक धन-संचय करने की चेष्टा करते रहते हैं।

विवेचन: यह एक महत्त्वपूर्ण श्लोक है। भगवान कहते हैं कि ऐसे लोग, आशा की सैकड़ों फाँसो में बँधे हुए हैं और काम क्रोध के वशीभूत होकर विषय भोगों के लिए अन्याय से धन आदि पदार्थों को संग्रह करने की चेष्टा में लगे रहते हैं।

हम सब जब छोटे थे तो यही कहते थे कि बस अब ये मिल गया और आगे अब कुछ नहीं चाहिए किन्तु उसकी पूर्ति के बाद ही दूसरी माँग माँ से किया करते थे और इस प्रकार वह माँग कभी खत्म होने वाली होती ही नहीं थी। आज भी बड़े होकर वही आशा पाले हुए हैं, कभी तृप्ति हुई ही नहीं। भगवान कहते हैं झूठे, मुझे पता है। एक प्रसिद्ध रूसी लेखक लियो टालस्टाय की  साइबेरिया की कहानी है कि एक किसान के पास ज्यादा कुछ समृद्धि नहीं थी, उससे किसी ने कहा कि साइबेरिया में चले जाओ वहां जमीन बहुत खाली पड़ी है और मुफ्त ही मिल जाती है। वह किसान वहाँ गया और मुखिया से मिला । मुखिया ने कहा सुबह उठकर चलो और शाम तक जितना घेरा बना लोगे उतनी जमीन तुम्हें मुफ्त मिल जाएगी। किसान ने सोचा रात में ही खाना बना लेता हूँ और पानी ले लूँगा साथ में तथा सुबह होते ही चल पड़ूँगा। रात में वह इसी सोच विचार में सोया तक नहीं। सुबह चलना शुरू किया और सोचा कि दोपहर तक जितना क्षेत्र कवर कर लूँगा और फिर वहीं से दूसरी ओर कवर करते हुए शाम तक पहुँच जाऊँगा। आगे गया तो एक बड़ी झील दिखी और उसे कवर करना शुरू किया ,खाना पानी फेंक दिया और तेज दौड़ना शुरू किया इतने में दो बज गये और वह थक गया किन्तु इच्छा और बलवती होती जा रही थी, हाथ पैर दोनों से रेंग कर चलने लगा और इतना थक गया कि वहीं एक जगह बैठ गया और अब उससे चला नहीं जा रहा था तथा अन्त में हृदय गति रुक जाने से वहीं मर गया। ऐसी ही स्थिति हम सब की भी है। परिवार को, अपने स्वास्थ्य को, अपनी निद्रा को दाँव पर लगा देते है और भोग के सभी संसाधन होते हुए भी भोग नहीं पाते और ठीक उसी तरह किसान जैसी स्थिति हमारी भी हो जाती है।

16.13

इदमद्य मया लब्धम्, इमं(म्) प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे, भविष्यति पुनर्धनम्।।16.13।।

वे इस प्रकार के मनोरथ किया करते हैं कि - इतनी वस्तुएँ तो हमने आज प्राप्त कर लीं (और अब) इस मनोरथ को प्राप्त (पूरा) कर लेंगे। इतना धन तो हमारे पास है ही, इतना (धन) फिर भी हो जायगा।

विवेचन हे अर्जुन! आसुरी स्वभाव वाले पुरुष सोच विचार में पड़े रहते हैं कि मैने आज इतना प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोकामना की पूर्ति कर लूँगा। मेरे पास इतना धन आ गया है और भविष्य में भी और प्राप्त कर लूँगा। इसी सब उधेड़ बुन में ऐसे लोग लगे रहते हैं।

16.14

असौ मया हतः(श्) शत्रु:(र्), हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं(म्) भोगी, सिद्धोऽहं(म्) बलवान्सुखी।।16.14।।

वह शत्रु तो हमारे द्वारा मारा गया और (उन) दूसरे शत्रुओं को भी (हम) मार डालेंगे। हम ईश्वर (सर्व समर्थ) हैं। हम भोग भोगने वाले हैं।हम सिद्ध हैं, (हम) बड़े बलवान (और) सुखी हैं।

विवेचन: हे अर्जुन! आसुरी स्वभाव वाला मनुष्य सोचता है कि वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा। वह मानता है कि मैं ही ईश्वर हूँ, सभी सुख सुविधाओं को भोगने वाला हूँ, मुझे सभी सिद्धियाँ प्राप्त हैं तथा मैं ही बलवान और सुखी हूँ।

16.15

आढ्योऽभिजनवानस्मि, कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य, इत्यज्ञानविमोहिताः।।16.15।।

हम धनवान हैं, बहुत से मनुष्य हमारे पास हैं, हमारे समान दूसरा कौन है? (हम) खूब यज्ञ करेंगे, दान देंगे (और) मौज करेंगे - इस तरह (वे) अज्ञान से मोहित रहते हैं।

विवेचन: आसुरी स्वभाव वाले लोग ऐसा सोचते है कि मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाले के घर जन्म लिया है और इस प्रकार मेरे मुकाबले दूसरा कौन ठहर सकता है? मैं अपनी इच्छानुसार यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आमोद - प्रमोद करूँगा और इस प्रकार वे अज्ञान से विमोहित होने वाले लोग होते हैं।

16.16

अनेकचित्तविभ्रान्ता, मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः(ख्) कामभोगेषु, पतन्ति नरकेऽशुचौ।।16.16।।

(कामनाओं के कारण) तरह-तरह से भ्रमित चित्त वाले, मोह-जाल में अच्छी तरह से फँसे हुए (तथा) पदार्थों और भोगों में अत्यन्त आसक्त रहने वाले मनुष्य भयंकर नरकों में गिरते हैं।

विवेचन: ऐसे आसुरी स्वभाव के लोग अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले होते है और मोह रूपी जाल से घिरे होते है, सांसारिक विषय भोगों में अत्यन्त लिप्त रहकर अपवित्र नरक में गिरते हैं।

16.17

आत्मसम्भाविताः(स्) स्तब्धा, धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते, दम्भेनाविधिपूर्वकम्।।16.17।।

अपने को सबसे अधिक पूज्य मानने वाले, अकड़ रखने वाले (तथा) धन और मान के मद में चूर रहने वाले वे मनुष्य दम्भ से अविधिपूर्वक नाममात्र के यज्ञों से यजन करते हैं।

विवेचन: ऐसे आसुरी प्रवृत्ति वाले पुरुष अपने आप ही श्रेष्ठ मानने वाले, घमण्डी पुरुष, धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाम मात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्रविधि रहित यज्ञ करते हैं। जैसे आज कल हम देखते हैं गणेश पूजा, दुर्गा पूजा आदि में भगवान के उत्सव के नाम पर फिल्मी गानों पर नृत्य करते हैं जहाँ श्रद्धा का कोई लेश मात्र भी नहीं दिखाई देता।

16.18

अहङ्कारं(म्) बलं(न्) दर्पं(ङ्), कामं(ङ्) क्रोधं(ञ्) च संश्रिताः ।
मामात्मपरदेहेषु, प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।16.18।।

(वे) अहंकार, हठ, घमण्ड, कामना और क्रोध का आश्रय लेने वाले मनुष्य अपने और दूसरों के शरीर में (रहने वाले) मुझ अन्तर्यामी के साथ द्वेष करते हैं (तथा) (मेरे और दूसरों के गुणों में) दोष दृष्टि रखते हैं।

विवेचन: भगवान कहते है कि हे अर्जुन! ऐसे आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग अहङ्कार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोध आदि का आश्रय ले कर दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीरों में स्थित मुझ अन्तर्यामी परमात्मा से ही एक प्रकार से द्वेष करने वाले होते हैं।

16.19

तानहं(न्) द्विषतः(ख्) क्रूरान् , संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभान्, आसुरीष्वेव योनिषु।।16.19।।

उन द्वेष करने वाले, क्रूर स्वभाव वाले (और) संसार में महानीच, अपवित्र मनुष्यों को मैं बार-बार आसुरी योनियों में ही गिराता ही रहता हूँ।

विवेचन: हे अर्जुन! ऐसे आसुरी स्वभाव वाले द्वेष करने वाले, पापाचरण का व्यवहार करने वाले और क्रूर कर्मी नराधमों को मैं  संसार में बार- बार आसुरी योनियों अर्थात् निम्न योनियों जैसे नाली के कीड़े, कीट पतङ्गों आदि की योनि में डालता हूँ।

16.20

आसुरीं(य्ँ) योनिमापन्ना, मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय, ततो यान्त्यधमां(ङ्) गतिम्।।16.20।।

हे कुन्तीनन्दन ! (वे) मूढ मनुष्य मुझे प्राप्त न करके ही जन्म-जन्मान्तर में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, (फिर) उससे भी अधिक अधम गति में अर्थात् भयंकर नरकों में चले जाते हैं।

विवेचन: भगवान कहते हैं हे अर्जुन! ऐसे आसुरी प्रवृत्ति वाले मूढ़ जन मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म - जन्म में आसुरी योनियों को ही प्राप्त होते हैं और फिर उससे भी अति नीच गति को प्राप्त होते हैं अर्थात घोर नर्कों में जाते हैं।

16.21

त्रिविधं(न्) नरकस्येदं(न्), द्वारं(न्) नाशनमात्मनः।
कामः(ख्) क्रोधस्तथा लोभ:(स्), तस्मादेतत्त्रयं(न्) त्यजेत्।।16.21।।

काम, क्रोध और लोभ - ये तीन प्रकार के नरक के दरवाजे जीवात्मा का पतन करने वाले हैं, इसलिये इन तीनों का त्याग कर देना चाहिये।

विवेचन: काम, क्रोध, लोभ तो सभी में कुछ न कुछ मात्रा में पाया जाता है किन्तु इनके वेग बहुत खतरनाक हैं। ये तीनो नरक के द्वार  आत्मा का नाश करने वाले होते है और उसे अधोगति में ले जाते हैं। अतः इन तीनों का त्याग करना ही श्रेयस्कर है।

16.22

एतैर्विमुक्तः(ख्) कौन्तेय, तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः(श्) श्रेयस् , ततो याति परां(ङ्) गतिम्।।16.22।।

हे कुन्तीनन्दन ! इन नरक के तीनों दरवाजों से रहित हुआ (जो) मनुष्य अपने कल्याण का आचरण करता है, (वह) उससे परम गति को प्राप्त हो जाता है।

विवेचन: भगवान आश्वासन देते है कि हे अर्जुन! इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण हेतु आचरण करता है जिससे वह परम गति को प्राप्त हो जाता है यानि मुझको ही प्राप्त हो जाता है।

16.23

यः(श्) शास्त्रविधिमुत्सृज्य, वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति , न सुखं(न्) न परां(ङ्) गतिम् ।।16.23।।

जो मनुष्य शास्त्रविधि को छोड़कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि (अन्तःकरण की शुद्धि) को, न सुख (शान्ति) को (और) न परमगति को (ही) प्राप्त होता है।

विवेचन: आज कल आपको ऐसे लोग मिलते हैं जो कहते है कि मैं कोई शास्त्र विधि का काम नहीं करूँगा बल्कि किसी अनाथ आश्रम में भोजन करा दूँगा, किसी संस्था में द्रव्य दान कर दूँगा किन्तु भगवान कहते हैं कि जो पुरुष शास्त्र में बताए गए विधि को त्याग कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है वह न किसी सिद्धि को प्राप्त कर पाता है, न परम गति को और न इस लोक में सुख की ही उसे प्राप्ति हो पाती है।

16.24

तस्माच्छास्त्रं(म्) प्रमाणं(न्) ते, कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं(ङ्), कर्म कर्तुमिहार्हसि।।16.24।।

अतः तेरे लिये कर्तव्य-अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र (ही) प्रमाण है - (ऐसा) जानकर (तू) इस लोक में शास्त्रविधि से नियत कर्तव्य-कर्म करने योग्य है अर्थात् तुझे शास्त्रविधि के अनुसार कर्तव्य-कर्म करने चाहिये।

विवेचन: भगवान कहते है हे अर्जुन! कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य के बीच शास्त्र ही प्रमाण स्वरूप है और तदनुसार ही आचरण करने चाहिए। अब कुछ लोग कहेंगे की मुझे शास्त्र का ज्ञान नहीं है मैं कैसे आचरण करूँगा? इसके लिए मनुष्य को निम्न का आश्रय ले कर कर्म करने चाहिए:

1.महापुरुष के वचन
2. गुरु से प्राप्त निर्देश
3.सत्संग 

इनके द्वारा बताई गई बातें शास्त्रोक्त हैं, ऐसा समझ कर अनुसरण करना चाहिए।
                     
प्रश्नोत्तर:-

प्रश्नकर्ता:- कुन्दन दीदी

प्रश्न:- मृतक भोज खाना चाहिये या नहीं?

उत्तर:- अपने सम्बन्धी का मृतक भोज खाना चाहिये। इधर उधर सब जगह का नहीं खाना चाहिये।

प्रश्नकर्ता :- सरला दीदी

प्रश्न:- यदि एक ही घर में दैवी सम्पत्ति एवम् आसुरी सम्पत्ति के लोगों को एक साथ रहना हो तो कैसे रहें?

उत्तर:- ये समस्त लक्षण अपने अन्दर देखने के लिये बतलाये गये हैं, दूसरों के अन्दर देखने के लिये नहीं बताये गये हैं। आसुरी और दैवी का विचार अपने लिये करें, दूसरों के लिये नहीं। जो भी बातें मुझे अच्छी लगती हैं, वे दूसरों को नहीं पसन्द आतीं। इसे हम स्वभाव की भिन्नता मानें दैवी या आसुरी नहीं। ऐसा हम तब कर सकते हैं, जब हमारे अन्दर कोई दोष न हो। हम अपने गुण दोषों को देखने के अधिकारी हैं दूसरों के नहीं। जीवन सामञ्जस्य से ही चलता है।

प्रश्नकर्ता:- रेखा दीदी

प्रश्न:- भगवान को लहसुन प्याज़ का भोग लगाना चाहिए या नहीं? क्या स्वयम् भी इसका उपभोग नहीं करना चाहिए?

उत्तर:- नहीं बिल्कुल नहीं, लहसुन प्याज़ का भोग नहीं लगाना चाहिए। दही का भोग लगा सकते हैं। यह उत्तम है कि स्वयम् भी इनका उपभोग न करें। यह वस्तुयें तामसिक है, यदि हम साधना में लगना चाहते हैं तो इन वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए। यह हमारे लिये श्रेयस्कर है।

प्रश्नकर्ता:- शिवराज भैया

प्रश्न:- हम श्रीभगवान का नाम लेकर सोते हैं तो हमें नींद भी अच्छी आती है, और स्वप्न भी भगवान के ही दिखाई देते हैं। हमें यह बात दूसरों को बतानी चाहिए या नहीं?

उत्तर:- आप बतायें या न बतायें, इससे कोई अन्तर नहीं आता। हाँ इससे आत्म प्रशंसा का भाव आता है, जिससे अहम् बढ़ता है।

प्रश्नकर्ता:- स्वाति दीदी

प्रश्न:- क्या रविवार को तुलसी जी को जल नहीं चढ़ाना चाहिये? क्या बेलपत्र को तोड़ना भी निषिद्ध है?

उत्तर:-यह सत्य है कि रविवार के दिन तुलसी का स्पर्श निषिद्ध है। बेल पत्र के विषय में मैं नहीं जानता। मैंने कभी सुना नहीं।

मैं अपने माता पिता की एकमात्र सन्तान हूँ। क्या मैं उनका श्राद्ध कर सकती हूँ?

उत्तर:- कन्या द्वारा किया गया श्राद्ध पितरों द्वारा स्वीकार्य नहीं है। आपका पुत्र या फिर ब्राह्मण द्वारा किया गया श्राद्ध फलीभूत होता है। आपके द्वारा किये गये भोज का पुण्य तो मिलता है, किन्तु वह श्राद्ध रूप में पूर्वजों को नहीं स्वीकार होता।

प्रश्नकर्ता:- गौरी शंकर भैया

प्रश्न:- अन्त:करण में – मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त ये चार अवस्थाएँ आती हैं, यह चित्त क्या है?

उत्तर:- चित्त जो धारणा करता है, चित्त और अन्त: करण कोई अलग-अलग नहीं है, जब यह संकल्प करता है, यह मन कहलाता है, जब यह निर्णय करता है, यह बुद्धि कहलाता है, जिस समय यह धारणा करता है, बुद्धि कहलाता है। जिस समय यह स्वयम् की अनुभूति करता है, वह अहङ्कार कहलाता है। 
               
                     

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्याय:।।

इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘देवासुरसम्पदविभाग योग’ नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।