विवेचन सारांश
दैवी एवं आसुरी सम्पदा की व्याख्या व उनके परिणाम
1. अध्याय क्रमांक 2 में स्थितप्रज्ञ के लक्षण
2. अध्याय क्रमांक 12 में भक्ति के लक्षण
3. अध्याय 14 में गुणातीत के लक्षण और
4. अध्याय 16 में दैवी व आसुरी प्रवृत्ति के लक्षण
भगवान ने बताए, कि हम कहाँ स्थित हैं, जिससे हम इसका मूल्यांकन कर सकें। इस अध्याय के पहले श्लोक में जो नौ गुणों की चर्चा की गई थी ये सभी प्रत्येक मनुष्य के अन्दर विद्यमान होते हैं किन्तु मात्रा अलग अलग होती है। किसी के भी अन्दर न तो शून्य होता है और न ही शत- प्रतिशत। मेरे अन्दर कौन से गुण न्यून है उसे बढ़ाना है। विचार कीजिए हम सभी कुछ न कुछ दान देते रहते हैं किन्तु किसी के कहने या दबाव वश दान अवश्य दिया होगा अब हमें स्वेच्छा से बिना उपकार की भावना से दान देने की प्रवृत्ति को बढ़ाना होगा। इसी प्रकार धीरे धीरे सभी छब्बीस गुणों को अपने अन्दर बढ़ाने का प्रयास करते रहना चाहिए।
16.2
अहिंसा सत्यमक्रोध:(स्), त्यागः(श्) शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं(म्), मार्दवं(म्) ह्रीरचापलम्।।16.2।।
भगवान को अर्जुन के दो गुण सबसे प्रिय हैं:
1. अनघ: अर्जुन पाप रहित हैं।
2. अनसूय: दूसरों की निन्दा न करना।
किसी का दोष पता लग जाए तो उसको प्रकट नहीं करना चाहिए जब तक ऐसा आवश्यक न हो और यदि आवश्यक ही हो तो प्रिय युक्त होकर कहना चाहिए। भगवान कहते हैं कि सभी प्राणियों के प्रति दया का स्वभाव होना चाहिए। दूसरों को सहर्ष दो किन्तु उपकार की इच्छा नहीं होनी चाहिए। दया के समय उपदेश नहीं देना चाहिए क्योंकि उपदेश उस समय घाव पर नमक छिड़कने का काम करता है, जब कोई तकलीफ में है उसे उपदेश मत दीजिए क्योंकि वह अदया हो जाती है। मनुष्यों में ही नहीं वरन् समस्त प्राणियों के प्रति दया होनी चाहिए। हमारी संस्कृति में पहली रोटी गाय को, अन्तिम कुत्ते को, मीठी वस्तु गिर जाए वह चींटी को, पक्षी को दाना डालने का चलन था। दया के लिए अमीरी गरीबी नहीं चाहिए बल्कि दया एक स्वभावगत गुण है। मैंने ऐसे दम्पति को देखा है जो खाना बनाकर अपनी गाड़ी में रखकर मजदूरों में बाँट दिया करते हैं।
अलोलुप्त्वम् अर्थात् लालच न होना। किसी वस्तु आदि के प्रति देखकर लार टपकना लोलुपता कहलाती है। जैसे किसी के यहाँ गए पर्दा देखा तो पर्दे के बारे में चर्चा करने लगे और अपने परदे बदलने के जुगत में लग गए। लोलुपता आँखों से दिख जाती है।
अगला गुण है ः-
मार्दवम् अर्थात् कोमलता। राम जी कितने शक्तिशाली हैं, कृष्ण जी कितने बलशाली है किन्तु उनके अन्दर कोमलता है। कई लोगों को देखें तो वे अकड़ में चलते हैं, चेहरे पर क्रोध का भाव रहता है, ये सब अदैवीय गुण हैं। भगवान कहते हैं शास्त्र के विरुद्ध आचरण करने में लज्जा का भाव होना चाहिए। कुछ लोग जब कोई अशास्त्रीय कार्य करते हैं तो उसे सही सिद्ध करने की कोशिश करते हैं, वहीं पर आसुरी प्रवृत्ति हो जाती है।
अचापलम् अर्थात व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव। राजस्थान में एक क्षमा राम शास्त्री सन्त हैं जो छः घण्टे एक ही आसन में बैठ कर बिना इधर उधर हिले डुले रामायण का पाठ करते है, एक बार भी नजर उठाकर किसी ओर नहीं देखते और एक जैसी ही वाणी अनवरत बोलते है किन्तु हमें एक घण्टा भी एक आसन में बैठना मुश्किल हो जाता है।
तेजः क्षमा धृतिः(श्) शौचम्, अद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं(न्) दैवीम्, अभिजातस्य भारत।।16.3।।
क्षमा गुण देखने में आसान है किन्तु उसका पालन बहुत मुश्किल काम है। क्षमा कोई देना नहीं चाहता अपितु अपने लिए अपेक्षा का भाव ज़रूर रखते हैं। दूसरों के लिए वकील और अपने लिए जज की भूमिका में आ जाते हैं। दूसरे की गलती को छोटा और अपनी त्रुटि को बड़ा देखें तो सुधार होगा। अंग्रेजी की कहावत है: Forgive and Forget. सच्ची क्षमा है कि हमें याद ही नहीं है कि क्षमा भी किया था।
धृति का अर्थ धैर्य से है। आज के समय में इसकी महती आवश्यकता है।
जीवन की कुछ बातें समय के साथ आती हैं। गड़बड़ सौ दिन किया किन्तु एक दिन सही किया तो धैर्य खो देते हैं। जीवन में कोई शॉर्ट कट नहीं होनी चाहिए, जल्दबाजी नहीं होनी चाहिए।
धीरे धीरे रे मना धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय।।
धैर्य से ही कार्य करना चाहिए।
एक होती है धारणा अर्थात अच्छी बात को धारण करना।
शौच का अर्थ है शुचिता, पवित्रता। कोई मुझसे पूछा कि उठने में देरी हो जाती है तो क्या बिना नहाए भोग लगा दूँ, यह वर्जित है। बाहर और अन्दर दोनों की पवित्रता होनी चाहिए। पूजन के नियमानुसार, पहले अपने को तिलक लगाते हैं फिर भगवान को तिलक लगाते है अर्थात् पहले अपने को पवित्र करो फिर उपासना करो। भगवान कहते हैं कि जीवन में किसी के प्रति द्रोह नहीं करना चाहिए। किसी ने मेरे प्रति अपकार किया भी तो उसके प्रति मङ्गल की कामना होनी चाहिए।
नातिमानिता:- अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव होना चाहिए। अन्त में भगवान कहते हैं हे अर्जुन! ये सभी गुण दैवीय सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं। अपने को गुणों के आधार पर पूजनीय बनायें, वस्त्रादिके द्वारा नहीं।
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च, क्रोधः(फ्) पारुष्यमेव च।
अज्ञानं(ञ्) चाभिजातस्य, पार्थ सम्पदमासुरीम्।।16.4।।
दैवी सम्पद्विमोक्षाय, निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः(स्) सम्पदं(न्) दैवीम्, अभिजातोऽसि पाण्डव।।16.5।।
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्, दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः(फ्) प्रोक्त , आसुरं(म्) पार्थ मे शृणु।।16.6।।
प्रवृत्तिं(ञ्) च निवृत्तिं(ञ्) च, जना न विदुरासुराः।
न शौचं(न्) नापि चाचारो, न सत्यं(न्) तेषु विद्यते।।16.7।।
असत्यमप्रतिष्ठं(न्) ते, जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं(ङ्), किमन्यत्कामहैतुकम्।।16.8।।
एतां(न्) दृष्टिमवष्टभ्य, नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः, क्षयाय जगतोऽहिताः।।16.9।।
काममाश्रित्य दुष्पूरं(न्), दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्, प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः।।16.10।।
चिन्तामपरिमेयां(ञ्) च, प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा, एतावदिति निश्चिताः।।16.11।।
आशापाशशतैर्बद्धाः(ख्), कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थम्, अन्यायेनार्थसञ्चयान्।।16.12।।
हम सब जब छोटे थे तो यही कहते थे कि बस अब ये मिल गया और आगे अब कुछ नहीं चाहिए किन्तु उसकी पूर्ति के बाद ही दूसरी माँग माँ से किया करते थे और इस प्रकार वह माँग कभी खत्म होने वाली होती ही नहीं थी। आज भी बड़े होकर वही आशा पाले हुए हैं, कभी तृप्ति हुई ही नहीं। भगवान कहते हैं झूठे, मुझे पता है। एक प्रसिद्ध रूसी लेखक लियो टालस्टाय की साइबेरिया की कहानी है कि एक किसान के पास ज्यादा कुछ समृद्धि नहीं थी, उससे किसी ने कहा कि साइबेरिया में चले जाओ वहां जमीन बहुत खाली पड़ी है और मुफ्त ही मिल जाती है। वह किसान वहाँ गया और मुखिया से मिला । मुखिया ने कहा सुबह उठकर चलो और शाम तक जितना घेरा बना लोगे उतनी जमीन तुम्हें मुफ्त मिल जाएगी। किसान ने सोचा रात में ही खाना बना लेता हूँ और पानी ले लूँगा साथ में तथा सुबह होते ही चल पड़ूँगा। रात में वह इसी सोच विचार में सोया तक नहीं। सुबह चलना शुरू किया और सोचा कि दोपहर तक जितना क्षेत्र कवर कर लूँगा और फिर वहीं से दूसरी ओर कवर करते हुए शाम तक पहुँच जाऊँगा। आगे गया तो एक बड़ी झील दिखी और उसे कवर करना शुरू किया ,खाना पानी फेंक दिया और तेज दौड़ना शुरू किया इतने में दो बज गये और वह थक गया किन्तु इच्छा और बलवती होती जा रही थी, हाथ पैर दोनों से रेंग कर चलने लगा और इतना थक गया कि वहीं एक जगह बैठ गया और अब उससे चला नहीं जा रहा था तथा अन्त में हृदय गति रुक जाने से वहीं मर गया। ऐसी ही स्थिति हम सब की भी है। परिवार को, अपने स्वास्थ्य को, अपनी निद्रा को दाँव पर लगा देते है और भोग के सभी संसाधन होते हुए भी भोग नहीं पाते और ठीक उसी तरह किसान जैसी स्थिति हमारी भी हो जाती है।
इदमद्य मया लब्धम्, इमं(म्) प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे, भविष्यति पुनर्धनम्।।16.13।।
असौ मया हतः(श्) शत्रु:(र्), हनिष्ये चापरानपि।
ईश्वरोऽहमहं(म्) भोगी, सिद्धोऽहं(म्) बलवान्सुखी।।16.14।।
आढ्योऽभिजनवानस्मि, कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य, इत्यज्ञानविमोहिताः।।16.15।।
अनेकचित्तविभ्रान्ता, मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः(ख्) कामभोगेषु, पतन्ति नरकेऽशुचौ।।16.16।।
आत्मसम्भाविताः(स्) स्तब्धा, धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते, दम्भेनाविधिपूर्वकम्।।16.17।।
अहङ्कारं(म्) बलं(न्) दर्पं(ङ्), कामं(ङ्) क्रोधं(ञ्) च संश्रिताः ।
मामात्मपरदेहेषु, प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।16.18।।
तानहं(न्) द्विषतः(ख्) क्रूरान् , संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभान्, आसुरीष्वेव योनिषु।।16.19।।
आसुरीं(य्ँ) योनिमापन्ना, मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय, ततो यान्त्यधमां(ङ्) गतिम्।।16.20।।
त्रिविधं(न्) नरकस्येदं(न्), द्वारं(न्) नाशनमात्मनः।
कामः(ख्) क्रोधस्तथा लोभ:(स्), तस्मादेतत्त्रयं(न्) त्यजेत्।।16.21।।
एतैर्विमुक्तः(ख्) कौन्तेय, तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः(श्) श्रेयस् , ततो याति परां(ङ्) गतिम्।।16.22।।
यः(श्) शास्त्रविधिमुत्सृज्य, वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति , न सुखं(न्) न परां(ङ्) गतिम् ।।16.23।।
तस्माच्छास्त्रं(म्) प्रमाणं(न्) ते, कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं(ङ्), कर्म कर्तुमिहार्हसि।।16.24।।
1.महापुरुष के वचन
2. गुरु से प्राप्त निर्देश
3.सत्संग
इनके द्वारा बताई गई बातें शास्त्रोक्त हैं, ऐसा समझ कर अनुसरण करना चाहिए।
प्रश्नोत्तर:-
प्रश्नकर्ता:- कुन्दन दीदी
प्रश्न:- मृतक भोज खाना चाहिये या नहीं?
उत्तर:- अपने सम्बन्धी का मृतक भोज खाना चाहिये। इधर उधर सब जगह का नहीं खाना चाहिये।
प्रश्नकर्ता :- सरला दीदी
प्रश्न:- यदि एक ही घर में दैवी सम्पत्ति एवम् आसुरी सम्पत्ति के लोगों को एक साथ रहना हो तो कैसे रहें?
उत्तर:- ये समस्त लक्षण अपने अन्दर देखने के लिये बतलाये गये हैं, दूसरों के अन्दर देखने के लिये नहीं बताये गये हैं। आसुरी और दैवी का विचार अपने लिये करें, दूसरों के लिये नहीं। जो भी बातें मुझे अच्छी लगती हैं, वे दूसरों को नहीं पसन्द आतीं। इसे हम स्वभाव की भिन्नता मानें दैवी या आसुरी नहीं। ऐसा हम तब कर सकते हैं, जब हमारे अन्दर कोई दोष न हो। हम अपने गुण दोषों को देखने के अधिकारी हैं दूसरों के नहीं। जीवन सामञ्जस्य से ही चलता है।
प्रश्नकर्ता:- रेखा दीदी
प्रश्न:- भगवान को लहसुन प्याज़ का भोग लगाना चाहिए या नहीं? क्या स्वयम् भी इसका उपभोग नहीं करना चाहिए?
उत्तर:- नहीं बिल्कुल नहीं, लहसुन प्याज़ का भोग नहीं लगाना चाहिए। दही का भोग लगा सकते हैं। यह उत्तम है कि स्वयम् भी इनका उपभोग न करें। यह वस्तुयें तामसिक है, यदि हम साधना में लगना चाहते हैं तो इन वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए। यह हमारे लिये श्रेयस्कर है।
प्रश्नकर्ता:- शिवराज भैया
प्रश्न:- हम श्रीभगवान का नाम लेकर सोते हैं तो हमें नींद भी अच्छी आती है, और स्वप्न भी भगवान के ही दिखाई देते हैं। हमें यह बात दूसरों को बतानी चाहिए या नहीं?
उत्तर:- आप बतायें या न बतायें, इससे कोई अन्तर नहीं आता। हाँ इससे आत्म प्रशंसा का भाव आता है, जिससे अहम् बढ़ता है।
प्रश्नकर्ता:- स्वाति दीदी
प्रश्न:- क्या रविवार को तुलसी जी को जल नहीं चढ़ाना चाहिये? क्या बेलपत्र को तोड़ना भी निषिद्ध है?
उत्तर:-यह सत्य है कि रविवार के दिन तुलसी का स्पर्श निषिद्ध है। बेल पत्र के विषय में मैं नहीं जानता। मैंने कभी सुना नहीं।
मैं अपने माता पिता की एकमात्र सन्तान हूँ। क्या मैं उनका श्राद्ध कर सकती हूँ?
उत्तर:- कन्या द्वारा किया गया श्राद्ध पितरों द्वारा स्वीकार्य नहीं है। आपका पुत्र या फिर ब्राह्मण द्वारा किया गया श्राद्ध फलीभूत होता है। आपके द्वारा किये गये भोज का पुण्य तो मिलता है, किन्तु वह श्राद्ध रूप में पूर्वजों को नहीं स्वीकार होता।
प्रश्नकर्ता:- गौरी शंकर भैया
प्रश्न:- अन्त:करण में – मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त ये चार अवस्थाएँ आती हैं, यह चित्त क्या है?
उत्तर:- चित्त जो धारणा करता है, चित्त और अन्त: करण कोई अलग-अलग नहीं है, जब यह संकल्प करता है, यह मन कहलाता है, जब यह निर्णय करता है, यह बुद्धि कहलाता है, जिस समय यह धारणा करता है, बुद्धि कहलाता है। जिस समय यह स्वयम् की अनुभूति करता है, वह अहङ्कार कहलाता है।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्याय:।।