विवेचन सारांश
सात्त्विक, राजसी और तामसिक गुणों का वर्णन
दीप प्रज्वलन के पश्चात गुरु श्रीगोविन्ददेवगिरि जी महाराज की वन्दना एवं भगवान श्रीकृष्ण जी के चरणों में वन्दन करते हुए आज के विवेचन सत्र का आरम्भ हुआ।
इस अध्याय को श्रीमद्भगवतगीता का कलश अध्याय कहते हैं। यह अध्याय अर्जुन के प्रश्न से आरम्भ होता है।
सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितम् |
इस अध्याय को श्रीमद्भगवतगीता का कलश अध्याय कहते हैं। यह अध्याय अर्जुन के प्रश्न से आरम्भ होता है।
सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितम् |
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिसूदन || 1||
संन्यास और त्याग के बीच में यहाँ भावात्मक अन्तर क्या है? भावार्थ में अन्तर क्या है यह जानने के लिए भगवान से अर्जुन ने यह प्रश्न पूछा और भगवान ने इसमें सारी भगवद्गीता का सार बता दिया।
भगवान ने अर्जुन को यह बताया कि त्याग भी सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के कारण तीन प्रकार का होता है। सात्त्विक त्याग, राजसी त्याग और तामसिक त्याग। उसी प्रकार कर्म, कर्ता, ज्ञान यह सारी बातें भी सात्त्विक, राजसी और तामसिक बन जाती हैं। हम कोई भी कर्म करना नहीं छोड़ सकते। उसके लिए सात्त्विक कर्म, राजसी कर्म और तामसिक कर्म और ज्ञान क्या है और किसी भी कर्म के पीछे जो कर्ता है वह सात्त्विक, राजस या तामसिक कैसा होता है, यही भगवान यहाँ विस्तार से बताते हैं।
संन्यास और त्याग के बीच में यहाँ भावात्मक अन्तर क्या है? भावार्थ में अन्तर क्या है यह जानने के लिए भगवान से अर्जुन ने यह प्रश्न पूछा और भगवान ने इसमें सारी भगवद्गीता का सार बता दिया।
भगवान ने अर्जुन को यह बताया कि त्याग भी सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के कारण तीन प्रकार का होता है। सात्त्विक त्याग, राजसी त्याग और तामसिक त्याग। उसी प्रकार कर्म, कर्ता, ज्ञान यह सारी बातें भी सात्त्विक, राजसी और तामसिक बन जाती हैं। हम कोई भी कर्म करना नहीं छोड़ सकते। उसके लिए सात्त्विक कर्म, राजसी कर्म और तामसिक कर्म और ज्ञान क्या है और किसी भी कर्म के पीछे जो कर्ता है वह सात्त्विक, राजस या तामसिक कैसा होता है, यही भगवान यहाँ विस्तार से बताते हैं।
18.26
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी, धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः(ख्), कर्ता सात्त्विक उच्यते॥18.26॥
(जो) कर्ता राग रहित, कर्तृत्वाभिमान से रहित, धैर्य और उत्साहयुक्त (तथा) सिद्धि और असिद्धि में निर्विकार है, (वह) सात्त्विक कहा जाता है।
विवेचन:- भगवान कहते हैं-
सात्त्विक कर्ता- श्रीभगवान सात्त्विक कर्ता के लिए चार प्रकार की विशेषताएँ बताते हैं। श्रीभगवान ने कहा कि ये चार गुण जिनमें विद्यमान हों उसे सात्त्विक कहना चाहिए।
1-मुक्तसड्गो।
2 अनहंवादी।
3 धृत्युत्साहसमन्वित:।
4 सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकार:
धृत्युत्साहसमन्वित: : सात्त्विक व्यक्ति सङ्कल्प तथा उत्साह से परिपूर्ण होता है। कोई भी अच्छा कार्य करता है तो उसमें बहुत उत्साह रहता है। उसमें धैर्य युक्त उत्साह होता है। उत्साह में तो हड़बड़ी आती है परन्तु धृति आते ही हड़बड़ी समाप्त हो जाती है। उत्साह के साथ धीरज भी होता है और रुकने की क्षमता भी होती है। जब उत्साह होता है और उसमें धैर्य भी होता है तो यह सात्त्विक होता है।
मुक्तसड्गो : उसमें आसक्ति नहीं है। आसक्ति किन-किन बातों में होती है? आसक्ति कर्म में होती है, कर्म के फल में हो सकती है। मुझे यह कर्म अच्छा लगता है और मैं यही करूँगा, यह आसक्ति नहीं होती। सात्त्विक कर्ता के लिए जिस प्रकार का कर्म करना आवश्यक है, वह उसी कर्म को समयानुसार करता है। कौन सा कर्त्तव्य है वह वही कर्म करता है। यदि बीच में सङ्ग आ गया तो यह ठीक नहीं है, कि मुझे जो अच्छा लगता है मैं वही करूँगा या फल मिलने पर उस फल में चिपक गया।
जड़भरत अत्यन्त श्रेष्ठ ज्ञानी थे लेकिन हिरण के शावक में आसक्त हो गये। ज्ञान अवरुद्ध होने के कारण वे जड़ हो गये इसलिये इनका नाम जड़भरत हो गया। जब यह आसक्ति छूट जाती है तो वह व्यक्ति सात्त्विक कर्ता कहलाता है। उसमें उत्साह, धैर्य है किन्तु वह परिणाम में चिपका हुआ है तो वह सात्त्विक कर्ता नहीं होगा। सात्त्विक योगी को कुछ भी अपेक्षा नहीं है। कर्त्तव्य है इसलिए कार्य करना है, वह इसी भाव से कार्य करता है। आसक्ति यानि कर्म की आसक्ति से मुक्त है। कर्म फल की भी आसक्ति नहीं है। मैंने यह किया इस भाव से भी वह चिपकता नहीं है।
अहंवादी : यानि मैं और मेरे में ही चिपका हुआ।
अनहंवादी : मैंने किया इस भाव से मुक्त है।
और अन्त में भगवान कहते हैं
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकार:।
दूसरे अध्याय में भगवान ने भक्त के लक्षण देखे तो उसमें उन्होंने कहा-
सुखदु:खे समेकृत्वा लाभालाभों जयाजयौ।
ततोयुद्धाय युञ्जस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।
कार्य की सिद्धि या अपूर्णता पर निर्विकार ही रहता है, वह विचलित नहीं होता। आधा रह जाने पर पुन: प्रयास करेंगे और कर्म को पूरा करेंगे ऐसा चिन्तन करता है, वह दु:खी नहीं होता है।
ज्ञानेश्वर महाराज जी इसका उदाहरण देते हैं कि
जो वर्षा काल के मेघ होते हैं, वे बरसते हैं गरजते नहीं हैं, यह मैंने किया, ऐसा अहङ्कार नहीं करता। वह केवल सच्चा कार्य करता है और वह जैसे- जैसे कार्य करता जाता है उसका उत्साह बढ़ता जाता है।
श्रीभगवान यह सात्त्विक कर्ता का वर्णन करते हैं। आगे वे राजसी कर्ता का वर्णन करते हैं।
सात्त्विक कर्ता- श्रीभगवान सात्त्विक कर्ता के लिए चार प्रकार की विशेषताएँ बताते हैं। श्रीभगवान ने कहा कि ये चार गुण जिनमें विद्यमान हों उसे सात्त्विक कहना चाहिए।
1-मुक्तसड्गो।
2 अनहंवादी।
3 धृत्युत्साहसमन्वित:।
4 सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकार:
धृत्युत्साहसमन्वित: : सात्त्विक व्यक्ति सङ्कल्प तथा उत्साह से परिपूर्ण होता है। कोई भी अच्छा कार्य करता है तो उसमें बहुत उत्साह रहता है। उसमें धैर्य युक्त उत्साह होता है। उत्साह में तो हड़बड़ी आती है परन्तु धृति आते ही हड़बड़ी समाप्त हो जाती है। उत्साह के साथ धीरज भी होता है और रुकने की क्षमता भी होती है। जब उत्साह होता है और उसमें धैर्य भी होता है तो यह सात्त्विक होता है।
मुक्तसड्गो : उसमें आसक्ति नहीं है। आसक्ति किन-किन बातों में होती है? आसक्ति कर्म में होती है, कर्म के फल में हो सकती है। मुझे यह कर्म अच्छा लगता है और मैं यही करूँगा, यह आसक्ति नहीं होती। सात्त्विक कर्ता के लिए जिस प्रकार का कर्म करना आवश्यक है, वह उसी कर्म को समयानुसार करता है। कौन सा कर्त्तव्य है वह वही कर्म करता है। यदि बीच में सङ्ग आ गया तो यह ठीक नहीं है, कि मुझे जो अच्छा लगता है मैं वही करूँगा या फल मिलने पर उस फल में चिपक गया।
जड़भरत अत्यन्त श्रेष्ठ ज्ञानी थे लेकिन हिरण के शावक में आसक्त हो गये। ज्ञान अवरुद्ध होने के कारण वे जड़ हो गये इसलिये इनका नाम जड़भरत हो गया। जब यह आसक्ति छूट जाती है तो वह व्यक्ति सात्त्विक कर्ता कहलाता है। उसमें उत्साह, धैर्य है किन्तु वह परिणाम में चिपका हुआ है तो वह सात्त्विक कर्ता नहीं होगा। सात्त्विक योगी को कुछ भी अपेक्षा नहीं है। कर्त्तव्य है इसलिए कार्य करना है, वह इसी भाव से कार्य करता है। आसक्ति यानि कर्म की आसक्ति से मुक्त है। कर्म फल की भी आसक्ति नहीं है। मैंने यह किया इस भाव से भी वह चिपकता नहीं है।
अहंवादी : यानि मैं और मेरे में ही चिपका हुआ।
अनहंवादी : मैंने किया इस भाव से मुक्त है।
और अन्त में भगवान कहते हैं
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकार:।
दूसरे अध्याय में भगवान ने भक्त के लक्षण देखे तो उसमें उन्होंने कहा-
सुखदु:खे समेकृत्वा लाभालाभों जयाजयौ।
ततोयुद्धाय युञ्जस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।
कार्य की सिद्धि या अपूर्णता पर निर्विकार ही रहता है, वह विचलित नहीं होता। आधा रह जाने पर पुन: प्रयास करेंगे और कर्म को पूरा करेंगे ऐसा चिन्तन करता है, वह दु:खी नहीं होता है।
ज्ञानेश्वर महाराज जी इसका उदाहरण देते हैं कि
जो वर्षा काल के मेघ होते हैं, वे बरसते हैं गरजते नहीं हैं, यह मैंने किया, ऐसा अहङ्कार नहीं करता। वह केवल सच्चा कार्य करता है और वह जैसे- जैसे कार्य करता जाता है उसका उत्साह बढ़ता जाता है।
श्रीभगवान यह सात्त्विक कर्ता का वर्णन करते हैं। आगे वे राजसी कर्ता का वर्णन करते हैं।
रागी कर्मफलप्रेप्सु:(र्), लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः(ख्) कर्ता, राजसः(फ्) परिकीर्तितः॥18.27॥
जो कर्ता रागी, कर्मफल की इच्छावाला, लोभी, हिंसा के स्वभाव वाला, अशुद्ध (और) हर्ष-शोक से युक्त है, (वह) राजस कहा गया है।
विवेचन :- सात्विक कर्ता मुक्तसङ्ग है और राजस कर्ता रागी है, राग अर्थात् आसक्ति। इनकी कर्म में, कर्म के फल में आसक्ति होती है।
कर्मफल प्रेप्सु :- कर्म फल की अत्यधिक इच्छा रखने वाला।
मुझे क्या मिलने वाला है तभी मैं यह कार्य करूँगा, नहीं तो नहीं करूँगा।
जिस प्रकार इलेक्शन में नेता लोग कहते हैं कि मुझे पार्टी में टिकट मिलेगा तो मैं काम करूँगा वर्ना नहीं। ये सभी कार्यकर्ता राजसी होते हैं।
लुब्धो :- लालची। यह लालच के लिए ही कर्म करता है अन्यथा यह कर्म नहीं करता।
ये हिंसात्मक होते हैं कि मेरे कर्म के बीच में कोई आता है तो उसका नुकसान भी हो तो चलेगा। वह उसके नुकसान की भी चिन्ता नहीं करता। उसे प्रसिद्धि की इतनी इच्छा, आकांक्षा होती है कि झूठी प्रशंसा भी हो रही हो तो वो कर्म करेगा। उसे यह लगता है कि मैंनें कोई काम किया है तो उसकी प्रशंसा भी होनी चाहिए। उसमें यह सारी अपेक्षाएँ होती हैं।
अशुचि: :- अपवित्र, उसमें पवित्रता का अभाव होता है। कर्म शुद्ध है या अशुद्ध है। कोई गलत काम है तो मुझे नहीं करना चाहिए, यह विचार उसके मन में नहीं आता क्योंकि उसमें उसे लाभ हो रहा है इसलिए वह गलत कार्य भी कर लेता है।
हर्षशोकान्वित :- वह हर्ष और शोक में डूबा रहता है। लाभ हो गया तो हर्ष में डूब जाएगा और असफल रहा तो दु:ख में डूब जाएगा। जिस प्रकार हम इस राजस कर्ता का वर्णन पढ़ रहे हैं उसके साथ-साथ हमें सात्त्विक कर्ता के गुण भी देखना चाहिए।
केवट के दृष्टान्त से समझना चाहिए कि सात्त्विक कर्ता कैसा होता है। प्रभु श्रीराम को गङ्गा पार कराने के पश्चात् भी वह उनसे कुछ नहीं लेता है। उसमें धृति है, धैर्य है। वह कहता है जो आप प्रसाद देंगे वह मैं बाद में ले लूँगा। उसने चौदह वर्ष तक धैर्य रखा। मैंनें प्रभु का काम इसलिए नहीं किया कि मुझे कुछ मिलेगा। यह सात्त्विक कार्य है और यदि अपेक्षा के लिए करता तो राजस होता।
कार्यक्रम पूरा होने के बाद मेरा नाम नहीं लिया इसलिए मैं यह कार्य नहीं करूँगा, मेरा सम्मान नहीं किया इसलिए मैं त्यागपत्र देता हूँ। ऐसे कर्ता को राजस कहा गया है।
अब यह राजस कर्ता ऐसा है तो तामस कर्ता कैसा होगा?
प्रकृति सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों से बनी हुई है। हमारा शरीर भी इन तीन गुणों से बना है। यह तीन गुण हम सब में भी हैं। परिपूर्ण सात्त्विक, परिपूर्ण राजस और परिपूर्ण तामस, ऐसा कोई नहीं होता है परन्तु यह सारी बातें भगवान ने यहाँ इसलिए बताई है कि हम जब कोई कार्य करते हैं तो यह सारी बातें हम स्वयं में भी देखें। मैं जो कार्य कर रहा हूँ वह किस लिए कर रहा हूँ? उसमें सात्त्विक भाव है या राजसी भाव या तामसिक या उसमें कुछ मेरी छुपी हुई इच्छाएँ हैं इसलिए कर रहा हूँ। यह प्रभु के कार्य के रूप में कर रहा हूँ। यह भाव महत्त्वपूर्ण है।
हमारी बुद्धि कभी सात्त्विक, राजसी या कभी तामसिक भी हो सकती है। हमें स्वयं में भी यह देखना होगा कि हम किस रूप में कार्य कर रहे हैं। यदि मेरा कार्य तामसी है तो उचित नहीं है। मुझे तामसी कर्ता के भाव में कर्म नहीं करना चाहिए और यदि राजसी कर्ता का भाव मुझ में आता है तो वह भी छूट जाना चाहिए।
छत्रपति महाराज ने साम्राज्य की स्थापना की। इतने बड़े राज्य की स्थापना करने के पश्चात भी यह कार्य मैंने किया, ये कभी नहीं कहा।
हे राज्यो भावे हितो श्री इतिइच्छा।
यह राज्य भगवान का है। मैं उनके लिए ही कर रहा हूँ। यह सात्त्विक भाव है और जो कार्य मैं अपने स्वार्थ के लिए करता हूँ वह राजस कार्य होता है। यह हमारे लिए एक दर्पण है।
केवट के लिए भगवान को क्या-क्या करना पड़ा। केवट ने भगवान से कुछ नहीं लिया किन्तु वापसी पर चौदह साल बाद भी रामजी को अपना पुष्पक विमान केवट के पास लाना पड़ा और केवट को साथ में लेकर अयोध्या गए और भगवान ने केवट से कहा कि मुझसे मिलने के लिए आते रहना। जो अपने लिए कुछ न लेने की इच्छा से कार्य करता है उसके लिए भगवान से ऐसा न्योता मिलता है क्योंकि यह सात्त्विक कर्ता का कार्य है।
कर्मफल प्रेप्सु :- कर्म फल की अत्यधिक इच्छा रखने वाला।
मुझे क्या मिलने वाला है तभी मैं यह कार्य करूँगा, नहीं तो नहीं करूँगा।
जिस प्रकार इलेक्शन में नेता लोग कहते हैं कि मुझे पार्टी में टिकट मिलेगा तो मैं काम करूँगा वर्ना नहीं। ये सभी कार्यकर्ता राजसी होते हैं।
लुब्धो :- लालची। यह लालच के लिए ही कर्म करता है अन्यथा यह कर्म नहीं करता।
ये हिंसात्मक होते हैं कि मेरे कर्म के बीच में कोई आता है तो उसका नुकसान भी हो तो चलेगा। वह उसके नुकसान की भी चिन्ता नहीं करता। उसे प्रसिद्धि की इतनी इच्छा, आकांक्षा होती है कि झूठी प्रशंसा भी हो रही हो तो वो कर्म करेगा। उसे यह लगता है कि मैंनें कोई काम किया है तो उसकी प्रशंसा भी होनी चाहिए। उसमें यह सारी अपेक्षाएँ होती हैं।
अशुचि: :- अपवित्र, उसमें पवित्रता का अभाव होता है। कर्म शुद्ध है या अशुद्ध है। कोई गलत काम है तो मुझे नहीं करना चाहिए, यह विचार उसके मन में नहीं आता क्योंकि उसमें उसे लाभ हो रहा है इसलिए वह गलत कार्य भी कर लेता है।
हर्षशोकान्वित :- वह हर्ष और शोक में डूबा रहता है। लाभ हो गया तो हर्ष में डूब जाएगा और असफल रहा तो दु:ख में डूब जाएगा। जिस प्रकार हम इस राजस कर्ता का वर्णन पढ़ रहे हैं उसके साथ-साथ हमें सात्त्विक कर्ता के गुण भी देखना चाहिए।
केवट के दृष्टान्त से समझना चाहिए कि सात्त्विक कर्ता कैसा होता है। प्रभु श्रीराम को गङ्गा पार कराने के पश्चात् भी वह उनसे कुछ नहीं लेता है। उसमें धृति है, धैर्य है। वह कहता है जो आप प्रसाद देंगे वह मैं बाद में ले लूँगा। उसने चौदह वर्ष तक धैर्य रखा। मैंनें प्रभु का काम इसलिए नहीं किया कि मुझे कुछ मिलेगा। यह सात्त्विक कार्य है और यदि अपेक्षा के लिए करता तो राजस होता।
कार्यक्रम पूरा होने के बाद मेरा नाम नहीं लिया इसलिए मैं यह कार्य नहीं करूँगा, मेरा सम्मान नहीं किया इसलिए मैं त्यागपत्र देता हूँ। ऐसे कर्ता को राजस कहा गया है।
अब यह राजस कर्ता ऐसा है तो तामस कर्ता कैसा होगा?
प्रकृति सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों से बनी हुई है। हमारा शरीर भी इन तीन गुणों से बना है। यह तीन गुण हम सब में भी हैं। परिपूर्ण सात्त्विक, परिपूर्ण राजस और परिपूर्ण तामस, ऐसा कोई नहीं होता है परन्तु यह सारी बातें भगवान ने यहाँ इसलिए बताई है कि हम जब कोई कार्य करते हैं तो यह सारी बातें हम स्वयं में भी देखें। मैं जो कार्य कर रहा हूँ वह किस लिए कर रहा हूँ? उसमें सात्त्विक भाव है या राजसी भाव या तामसिक या उसमें कुछ मेरी छुपी हुई इच्छाएँ हैं इसलिए कर रहा हूँ। यह प्रभु के कार्य के रूप में कर रहा हूँ। यह भाव महत्त्वपूर्ण है।
हमारी बुद्धि कभी सात्त्विक, राजसी या कभी तामसिक भी हो सकती है। हमें स्वयं में भी यह देखना होगा कि हम किस रूप में कार्य कर रहे हैं। यदि मेरा कार्य तामसी है तो उचित नहीं है। मुझे तामसी कर्ता के भाव में कर्म नहीं करना चाहिए और यदि राजसी कर्ता का भाव मुझ में आता है तो वह भी छूट जाना चाहिए।
छत्रपति महाराज ने साम्राज्य की स्थापना की। इतने बड़े राज्य की स्थापना करने के पश्चात भी यह कार्य मैंने किया, ये कभी नहीं कहा।
हे राज्यो भावे हितो श्री इतिइच्छा।
यह राज्य भगवान का है। मैं उनके लिए ही कर रहा हूँ। यह सात्त्विक भाव है और जो कार्य मैं अपने स्वार्थ के लिए करता हूँ वह राजस कार्य होता है। यह हमारे लिए एक दर्पण है।
केवट के लिए भगवान को क्या-क्या करना पड़ा। केवट ने भगवान से कुछ नहीं लिया किन्तु वापसी पर चौदह साल बाद भी रामजी को अपना पुष्पक विमान केवट के पास लाना पड़ा और केवट को साथ में लेकर अयोध्या गए और भगवान ने केवट से कहा कि मुझसे मिलने के लिए आते रहना। जो अपने लिए कुछ न लेने की इच्छा से कार्य करता है उसके लिए भगवान से ऐसा न्योता मिलता है क्योंकि यह सात्त्विक कर्ता का कार्य है।
अयुक्तः(फ्) प्राकृतः(स्) स्तब्धः(श्), शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च, कर्ता तामस उच्यते॥18.28॥
(जो) कर्ता असावधान, अशिक्षित, ऐंठ-अकड़वाला, जिद्दी, उपकारी का अपकार करनेवाला, आलसी, विषादी और दीर्घसूत्री है, (वह) तामस कहा जाता है।
विवेचन :- अयुक्त:, यह तामसिक कर्ता किसी का भी नहीं होता। यह प्राकृत होता है।
प्राकृत:- सुसंस्कृत के विरुद्ध है प्राकृत यानि असंस्कृत।
स्तब्ध :- घमण्डी, कुछ न करने वाला यानि आलसी होता है। कोई काम नहीं करता और उसके लिए बहाने बनाता है।
हिन्दी में कहावत है -
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब।।
यदि कार्य करना है। कल करना है तो आज कर लो और आज करना है तो अभी कर लो। रुकना किस लिए है परन्तु यह तामसी बहाने बनाता रहता है और कहता है -
आज करे सो काल कर, काल करे सो परसों।
इतनी जल्दी क्या है भाई, जब जीना है बरसों।।
काम को आगे ही धकेलते जाना। यह काम कभी-कभी हम भी करते हैं। यह वर्णन दूसरे के लिए तो अच्छा लगता है परन्तु यह बात जब अपने पर आती है तो हम भी कभी-कभी कामों को आगे धकेलते हैं कि आज रहने देते हैं कल देख लेंगे या परसों देखेंगे। अच्छे कार्य को कल तक धकेलना यह तामसी कर्ता का कार्य होता है तो क्या कभी-कभी मैं तामसी बन जाता हूँ। यह हमें स्वयं देखना होगा।
नैष्कृतिक: :- दूसरे का नुकसान होगा तो भी चलेगा, उसे दूसरे के नुकसान से कोई मतलब नहीं, चाहे उसमें स्वयं का फायदा भी न हो।
आतङ्कवादी भी यही करते हैं। गाड़ी में बम डाल दिया। उसमें उसका कोई फायदा भी नहीं है परन्तु दूसरों की मृत्यु हो गई और गाड़ी भी टूट गई तो उसमें किसका लाभ हुआ? आतङ्कवाद में और युद्ध में बहुत अन्तर होता है। छुपकर दूसरे का नुकसान करना यह आतङ्कवाद है और सामने से जो लड़ा जाए वह युद्ध होता है। दूसरे के नुकसान के लिए जो कर्म किया जाता है उसे ही नैष्कृत कहते हैं। ऐसा मनुष्य हमेशा विषाद में डूबा रहता है, दु:ख में डूबा रहता है।
विषाद का अर्थ है negativity.
अर्जुन को भी विषाद हो गया था। वहाँ पर भगवान उसके साथ थे तो भगवान ने उन्हें विषाद से बाहर निकाल दिया। विषण्ण अर्जुन को भगवान ने प्रसन्न कर दिया। अर्जुन के लिए तो वहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण थे और हमारे लिए यहाँ पर श्रीमद्भागवद्गीता है। इसका आधार लेने से हम कितने भी विषाद में क्यों न डूबे हों, भगवद्गीता हमें उससे बचा लेती है।
जयतु जयतु गीता बाङ्गमय कृष्णमूर्ति ।
यह हमें तुरन्त ही बता देती हैं कि जो तुम कर्म कर रहे हो वह तामसिक कर्ता का लक्षण है। तुम ऐसे मत बनो, सात्त्विक बनो। यह जो तुम कर रहे हो वह राजस का लक्षण है। अच्छा कार्यकर्ता कैसा होना चाहिए? हमें वह सीखना है और वैसे ही बनना है।
गीता पढ़ें, पढ़ाएँ, जीवन में लाएँ।
इसका अर्थ है इन श्लोकों को समझना, इसे अपने अन्तरङ्ग में बसाना और अपने कार्यों में परिवर्तन करना।
दीर्घसूत्री - काम को टालने वाला।
यानि वह समय का चोर है। समय को व्यर्थ गँवाना, यह भी समय की चोरी है। बहुत चालाकी करता है। अपना होमवर्क ही न किया हो तो बच्चा भी बहाने बनाना सीख जाता है। यह गुण हम सबमें ही होते हैं और इन्हें हमें आने नहीं देना है। तमोगुण का नाश करना है।
भगवान ने हमें यही बताने के लिए कहा कि सात्त्विक बनना है तामसिक नहीं बनना है।
प्राकृत:- सुसंस्कृत के विरुद्ध है प्राकृत यानि असंस्कृत।
स्तब्ध :- घमण्डी, कुछ न करने वाला यानि आलसी होता है। कोई काम नहीं करता और उसके लिए बहाने बनाता है।
हिन्दी में कहावत है -
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब।।
यदि कार्य करना है। कल करना है तो आज कर लो और आज करना है तो अभी कर लो। रुकना किस लिए है परन्तु यह तामसी बहाने बनाता रहता है और कहता है -
आज करे सो काल कर, काल करे सो परसों।
इतनी जल्दी क्या है भाई, जब जीना है बरसों।।
काम को आगे ही धकेलते जाना। यह काम कभी-कभी हम भी करते हैं। यह वर्णन दूसरे के लिए तो अच्छा लगता है परन्तु यह बात जब अपने पर आती है तो हम भी कभी-कभी कामों को आगे धकेलते हैं कि आज रहने देते हैं कल देख लेंगे या परसों देखेंगे। अच्छे कार्य को कल तक धकेलना यह तामसी कर्ता का कार्य होता है तो क्या कभी-कभी मैं तामसी बन जाता हूँ। यह हमें स्वयं देखना होगा।
नैष्कृतिक: :- दूसरे का नुकसान होगा तो भी चलेगा, उसे दूसरे के नुकसान से कोई मतलब नहीं, चाहे उसमें स्वयं का फायदा भी न हो।
आतङ्कवादी भी यही करते हैं। गाड़ी में बम डाल दिया। उसमें उसका कोई फायदा भी नहीं है परन्तु दूसरों की मृत्यु हो गई और गाड़ी भी टूट गई तो उसमें किसका लाभ हुआ? आतङ्कवाद में और युद्ध में बहुत अन्तर होता है। छुपकर दूसरे का नुकसान करना यह आतङ्कवाद है और सामने से जो लड़ा जाए वह युद्ध होता है। दूसरे के नुकसान के लिए जो कर्म किया जाता है उसे ही नैष्कृत कहते हैं। ऐसा मनुष्य हमेशा विषाद में डूबा रहता है, दु:ख में डूबा रहता है।
विषाद का अर्थ है negativity.
अर्जुन को भी विषाद हो गया था। वहाँ पर भगवान उसके साथ थे तो भगवान ने उन्हें विषाद से बाहर निकाल दिया। विषण्ण अर्जुन को भगवान ने प्रसन्न कर दिया। अर्जुन के लिए तो वहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण थे और हमारे लिए यहाँ पर श्रीमद्भागवद्गीता है। इसका आधार लेने से हम कितने भी विषाद में क्यों न डूबे हों, भगवद्गीता हमें उससे बचा लेती है।
जयतु जयतु गीता बाङ्गमय कृष्णमूर्ति ।
यह हमें तुरन्त ही बता देती हैं कि जो तुम कर्म कर रहे हो वह तामसिक कर्ता का लक्षण है। तुम ऐसे मत बनो, सात्त्विक बनो। यह जो तुम कर रहे हो वह राजस का लक्षण है। अच्छा कार्यकर्ता कैसा होना चाहिए? हमें वह सीखना है और वैसे ही बनना है।
गीता पढ़ें, पढ़ाएँ, जीवन में लाएँ।
इसका अर्थ है इन श्लोकों को समझना, इसे अपने अन्तरङ्ग में बसाना और अपने कार्यों में परिवर्तन करना।
दीर्घसूत्री - काम को टालने वाला।
यानि वह समय का चोर है। समय को व्यर्थ गँवाना, यह भी समय की चोरी है। बहुत चालाकी करता है। अपना होमवर्क ही न किया हो तो बच्चा भी बहाने बनाना सीख जाता है। यह गुण हम सबमें ही होते हैं और इन्हें हमें आने नहीं देना है। तमोगुण का नाश करना है।
भगवान ने हमें यही बताने के लिए कहा कि सात्त्विक बनना है तामसिक नहीं बनना है।
बुद्धेर्भेदं(न्) धृतेश्चैव, गुणतस्त्रिविधं(म्) शृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण, पृथक्त्वेन धनञ्जय॥18.29॥
हे धनञ्जय! (अब तू) गुणों के अनुसार बुद्धि और धृति के भी तीन प्रकार के भेद अलग-अलग रूप से सुन, (जो कि मेरे द्वारा) पूर्णरूप से कहे जा रहे हैं।
विवेचन :- भगवान ने जैसे कर्ता के, कर्म के और ज्ञान के सत्त्व, राजस और तामस गुणों के अनुसार भेद बताए, वैसे ही बुद्धि भी त्रिगुणात्मक होती है।
धृति :- धृति का अर्थ है धारणा शक्ति, उसका दूसरा अर्थ है धीरज, धैर्य।
बुद्धि और धृति, यह भी सात्त्विक, राजसिक और तामसिक बन जाती है।
भगवान अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन! यहाँ पर सात्विक, राजस और तामसी बुद्धि के बारे में बताता हूँ।
आने वाले छ: श्लोक में हम यह देखेंगे कि सात्त्विक, राजस और तामसिक गुणों का खेल चलता रहता है। हम अपने भीतर इन गुणों के कारण बदलाव देखते रहते हैं। हमारी सात्त्विक, राजसी और तामसिक बुद्धि कब जागृत रहती है, यह हमें स्वयं ही देखना है। सबसे पहले हमें सात्त्विक बुद्धि के बारे में देखना है।
धृति :- धृति का अर्थ है धारणा शक्ति, उसका दूसरा अर्थ है धीरज, धैर्य।
बुद्धि और धृति, यह भी सात्त्विक, राजसिक और तामसिक बन जाती है।
भगवान अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन! यहाँ पर सात्विक, राजस और तामसी बुद्धि के बारे में बताता हूँ।
आने वाले छ: श्लोक में हम यह देखेंगे कि सात्त्विक, राजस और तामसिक गुणों का खेल चलता रहता है। हम अपने भीतर इन गुणों के कारण बदलाव देखते रहते हैं। हमारी सात्त्विक, राजसी और तामसिक बुद्धि कब जागृत रहती है, यह हमें स्वयं ही देखना है। सबसे पहले हमें सात्त्विक बुद्धि के बारे में देखना है।
प्रवृत्तिं(ञ्) च निवृत्तिं(ञ्) च, कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं(म्) मोक्षं(ञ्) च या वेत्ति, बुद्धिः(स्) सा पार्थ सात्त्विकी॥18.30॥
हे पृथानन्दन ! जो (बुद्धि) प्रवृत्ति और निवृत्ति को, कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बन्धन और मोक्ष को जानती है, वह बुद्धि सात्त्विकी है
विवेचन :- भगवान कहते हैं - हे अर्जुन! सात्विक बुद्धि वह होती है जो प्रवृत्ति-निवृत्ति मार्ग को, कर्त्तव्य-अकर्तव्य को, भय-अभय को बन्धन एवम् मोक्ष को वास्तविक रूप में जानती है। कर्तव्य करने के दो मार्ग हैं, प्रवृत्ति और निवृत्ति। गृहस्थ आश्रम का मार्ग प्रवृत्ति मार्ग है। कार्य करके, कर्मयोग करके परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग प्रवृत्ति मार्ग है।
निवृत्ति :- संन्यास मार्ग को निवृत्ति मार्ग कहा गया है क्योंकि वह स्वयं के प्रति आसक्ति न होने के कारण सांसारिक कर्मों का त्याग करके चलता है। यह एक बात है। दूसरी बात यह है कि, कौन से कर्म करने के लिए प्रवृत्त होना चाहिए और कौन से कर्म के लिए निवृत्त होना चाहिए। यह जिस बुद्धि के द्वारा जाना जाता है। किस प्रकार के कर्मों में प्रवृत्त होना चाहिए, मतलब अच्छे कर्मों में प्रवृत्त होना चाहिए। यह किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है। जो गलत काम हैं वह नहीं करने चाहिए, उनसे निवृत होना चाहिए। यह भी बताने की आवश्यकता नहीं है, फिर भी गुणों के प्रभाव के कारण मनुष्य गलत काम करने के लिए प्रवृत्त हो जाता है। यह सब कामना और रजोगुण के कारण होता है।
दुर्योधन और अर्जुन दोनों ने ही गुरु आचार्य द्रोण के पास शिक्षा ली हैं लेकिन अर्जुन गलत कार्य करने के लिए प्रवृत्त नहीं होते। अर्जुन ने रात-रात भर जाग कर अभ्यास किया है, उनसे प्रसन्न होकर अप्सरा उर्वशी आधी रात में उनके पास समर्पित होने के लिए पहुँच गई तो अर्जुन ने उस समय भी निवृत्त होने के कारण उन्हें माता कहकर वापस भेज दिया। उर्वशी ने उन्हें श्राप दिया। वे श्राप भी सह गए परन्तु गलत काम के लिए प्रवृत्त नहीं हुए।
दुर्योधन महाभारत में कहते हैं-
जानामि धर्मम् न च में प्रवृत्ति: जानाम्यधर्मम् न च में निवृत्ति:।
केनापि देवेन हृदय स्थितेन तथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि।।
प्रवृत्ति क्या है? निवृत्ति क्या है? धर्म क्या है? अधर्म क्या है? क्या करना चाहिए? क्या नहीं करना चाहिए? यह मैं जानता हूँ परन्तु कोई बात तो मेरे अन्दर है जो कि मुझे गलत काम करने के लिए प्रवृत्त करती है। वह है काम, यह रजो गुण है। रजोगुण के कारण ही कामना जागृत होती है। कामना के कारण ही दुर्योधन रजोगुण का कार्य करने में प्रवृत्त होता है।
बुद्धि का अर्थ है जिसके द्वारा हम निश्चय करते हैं। हमारा मन तो सङ्कल्प - विकल्प करता रहता है। यह करना चाहिए या वह करना चाहिए, यह सब चलता रहता है, जो निर्णय देती है वह बुद्धि होती है। जो योग्य निर्णय देती है वह सात्त्विक बुद्धि है। कार्य-अकार्य का अर्थ है करने योग्य और न करने योग्य। कर्म और कार्य में क्या अन्तर है। सभी कर्म हैं परन्तु कार्य वह हैं जो करने योग्य हैं।
गाने के लिए योग्य है वह गेय। जो पीने योग्य है वह पेय। जो करने योग्य है वह कार्य। जो करने योग्य नहीं है वह अकार्य। उन दोनों में जो निर्णय देती है वह है बुद्धि।
भयाभये :- भय नहीं होना चाहिए क्या? मनुष्य को निर्भय होना चाहिए। उसे किसी बात का भय नहीं होना चाहिए, ऐसा नहीं है।
जिस बात का भय होना चाहिए, वह रखना ही चाहिए और जिस बात का भय नहीं होना चाहिए वह नहीं रखना चाहिए। बिजली के जो तार हैं उसे हाथ लगाने का भय होना ही चाहिए, अग्नि में हाथ डालने का भय भी होना चाहिए, बाढ़ आई है तो नदी मैं कूदने का भय भी होना चाहिए। किस बात का भय होना चाहिए और किस बात का भय नहीं होना चाहिए, यह बुद्धि बताती है तो वह सात्त्विक बुद्धि है।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति।
वेति यानि जानती है।
बन्धन होता है, मनुष्य कहता है, मैं कुछ भी कर सकता हूँ परन्तु बाद में पता लगता है कि यह बन्धन है। यह कर्म का बन्धन है, बिना कर्म किए मैं नहीं रह सकता। मुझे काम करना ही पड़ेगा तो यह बन्धन है। इस बन्धन से मुक्त होना है।
मोक्ष क्या है? सब कुछ करके भी यदि मनुष्य के मन में यह भाव आता है कि यह मैंने नहीं किया तो वह बन्धन से मुक्त हो जाता है। यह कर्म मुझे करना पड़ रहा है, यदि यह भाव आ जाता है तो मैं उस कर्म के बन्धन में हूँ और यदि यह कार्य करने का मुझे अवसर मिला है, यह भाव रखते हुए जब मैं कार्य करता हूँ तो मैं मुक्त हो जाता हूँ। भगवद्गीता पर बोलने का अवसर मिला है या सुनने का अवसर मिला है यह बन्धन नहीं है। यह बन्धन और मोक्ष क्या है? जब यह बुद्धि के द्वारा जाना जाये तो वह सात्त्विक बुद्धि है। राजसी बुद्धि कैसी होती है:-
निवृत्ति :- संन्यास मार्ग को निवृत्ति मार्ग कहा गया है क्योंकि वह स्वयं के प्रति आसक्ति न होने के कारण सांसारिक कर्मों का त्याग करके चलता है। यह एक बात है। दूसरी बात यह है कि, कौन से कर्म करने के लिए प्रवृत्त होना चाहिए और कौन से कर्म के लिए निवृत्त होना चाहिए। यह जिस बुद्धि के द्वारा जाना जाता है। किस प्रकार के कर्मों में प्रवृत्त होना चाहिए, मतलब अच्छे कर्मों में प्रवृत्त होना चाहिए। यह किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है। जो गलत काम हैं वह नहीं करने चाहिए, उनसे निवृत होना चाहिए। यह भी बताने की आवश्यकता नहीं है, फिर भी गुणों के प्रभाव के कारण मनुष्य गलत काम करने के लिए प्रवृत्त हो जाता है। यह सब कामना और रजोगुण के कारण होता है।
दुर्योधन और अर्जुन दोनों ने ही गुरु आचार्य द्रोण के पास शिक्षा ली हैं लेकिन अर्जुन गलत कार्य करने के लिए प्रवृत्त नहीं होते। अर्जुन ने रात-रात भर जाग कर अभ्यास किया है, उनसे प्रसन्न होकर अप्सरा उर्वशी आधी रात में उनके पास समर्पित होने के लिए पहुँच गई तो अर्जुन ने उस समय भी निवृत्त होने के कारण उन्हें माता कहकर वापस भेज दिया। उर्वशी ने उन्हें श्राप दिया। वे श्राप भी सह गए परन्तु गलत काम के लिए प्रवृत्त नहीं हुए।
दुर्योधन महाभारत में कहते हैं-
जानामि धर्मम् न च में प्रवृत्ति: जानाम्यधर्मम् न च में निवृत्ति:।
केनापि देवेन हृदय स्थितेन तथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि।।
प्रवृत्ति क्या है? निवृत्ति क्या है? धर्म क्या है? अधर्म क्या है? क्या करना चाहिए? क्या नहीं करना चाहिए? यह मैं जानता हूँ परन्तु कोई बात तो मेरे अन्दर है जो कि मुझे गलत काम करने के लिए प्रवृत्त करती है। वह है काम, यह रजो गुण है। रजोगुण के कारण ही कामना जागृत होती है। कामना के कारण ही दुर्योधन रजोगुण का कार्य करने में प्रवृत्त होता है।
बुद्धि का अर्थ है जिसके द्वारा हम निश्चय करते हैं। हमारा मन तो सङ्कल्प - विकल्प करता रहता है। यह करना चाहिए या वह करना चाहिए, यह सब चलता रहता है, जो निर्णय देती है वह बुद्धि होती है। जो योग्य निर्णय देती है वह सात्त्विक बुद्धि है। कार्य-अकार्य का अर्थ है करने योग्य और न करने योग्य। कर्म और कार्य में क्या अन्तर है। सभी कर्म हैं परन्तु कार्य वह हैं जो करने योग्य हैं।
गाने के लिए योग्य है वह गेय। जो पीने योग्य है वह पेय। जो करने योग्य है वह कार्य। जो करने योग्य नहीं है वह अकार्य। उन दोनों में जो निर्णय देती है वह है बुद्धि।
भयाभये :- भय नहीं होना चाहिए क्या? मनुष्य को निर्भय होना चाहिए। उसे किसी बात का भय नहीं होना चाहिए, ऐसा नहीं है।
जिस बात का भय होना चाहिए, वह रखना ही चाहिए और जिस बात का भय नहीं होना चाहिए वह नहीं रखना चाहिए। बिजली के जो तार हैं उसे हाथ लगाने का भय होना ही चाहिए, अग्नि में हाथ डालने का भय भी होना चाहिए, बाढ़ आई है तो नदी मैं कूदने का भय भी होना चाहिए। किस बात का भय होना चाहिए और किस बात का भय नहीं होना चाहिए, यह बुद्धि बताती है तो वह सात्त्विक बुद्धि है।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति।
वेति यानि जानती है।
बन्धन होता है, मनुष्य कहता है, मैं कुछ भी कर सकता हूँ परन्तु बाद में पता लगता है कि यह बन्धन है। यह कर्म का बन्धन है, बिना कर्म किए मैं नहीं रह सकता। मुझे काम करना ही पड़ेगा तो यह बन्धन है। इस बन्धन से मुक्त होना है।
मोक्ष क्या है? सब कुछ करके भी यदि मनुष्य के मन में यह भाव आता है कि यह मैंने नहीं किया तो वह बन्धन से मुक्त हो जाता है। यह कर्म मुझे करना पड़ रहा है, यदि यह भाव आ जाता है तो मैं उस कर्म के बन्धन में हूँ और यदि यह कार्य करने का मुझे अवसर मिला है, यह भाव रखते हुए जब मैं कार्य करता हूँ तो मैं मुक्त हो जाता हूँ। भगवद्गीता पर बोलने का अवसर मिला है या सुनने का अवसर मिला है यह बन्धन नहीं है। यह बन्धन और मोक्ष क्या है? जब यह बुद्धि के द्वारा जाना जाये तो वह सात्त्विक बुद्धि है। राजसी बुद्धि कैसी होती है:-
यया धर्ममधर्मं(ञ्) च, कार्यं(ञ्) चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति, बुद्धिः(स्) सा पार्थ राजसी॥18.31॥
हे पार्थ! (मनुष्य) जिसके द्वारा धर्म और अधर्म को, कर्तव्य और अकर्तव्य को भी ठीक तरह से नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है।
विवेचन :- यया मतलब जिस बुद्धि के द्वारा।
धर्म और अधर्म क्या है? यहाँ धर्म का अर्थ कर्ता के कर्त्तव्य भाव से है। शास्त्र के अनुसार क्या कर्त्तव्य करना चाहिए, यह धर्म है और जो नहीं करना चाहिए, वह अधर्म है।
कार्य और अकार्य क्या है?
योग्य कर्म और अयोग्य कर्म कौन सा है?
अयथावत् :- जैसा समझना चाहिए वैसा उस बुद्धि के द्वारा नहीं समझना। कभी सही लगता है, कभी गलत लगता है। कभी गलत ही सही लगता है। जो बुद्धि समझ नहीं पाती वो राजसी बुद्धि कहलाती है।
मध्यम बुद्धि :- उसमें हमें यह तो पता है कि नहीं करना है परन्तु वह हम करते हैं। ऐसा धुँधला आङ्लन जो करती है, इस प्रकार की बुद्धि राजसी बुद्धि होती है।
निकृष्ट बुद्धि :- बिल्कुल नहीं दिखना। अज्ञान, अन्धकार, तमोगुण।
धर्म और अधर्म क्या है? यहाँ धर्म का अर्थ कर्ता के कर्त्तव्य भाव से है। शास्त्र के अनुसार क्या कर्त्तव्य करना चाहिए, यह धर्म है और जो नहीं करना चाहिए, वह अधर्म है।
कार्य और अकार्य क्या है?
योग्य कर्म और अयोग्य कर्म कौन सा है?
अयथावत् :- जैसा समझना चाहिए वैसा उस बुद्धि के द्वारा नहीं समझना। कभी सही लगता है, कभी गलत लगता है। कभी गलत ही सही लगता है। जो बुद्धि समझ नहीं पाती वो राजसी बुद्धि कहलाती है।
मध्यम बुद्धि :- उसमें हमें यह तो पता है कि नहीं करना है परन्तु वह हम करते हैं। ऐसा धुँधला आङ्लन जो करती है, इस प्रकार की बुद्धि राजसी बुद्धि होती है।
निकृष्ट बुद्धि :- बिल्कुल नहीं दिखना। अज्ञान, अन्धकार, तमोगुण।
अधर्मं(न्) धर्ममिति या, मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च, बुद्धिः(स्) सा पार्थ तामसी॥18.32॥
हे पृथानन्दन ! तमोगुण से घिरी हुई जो बुद्धि अधर्म को धर्म मान लेती है और सम्पूर्ण चीजों को उलटा (मान लेती है), वह तामसी है।
विवेचन :- भगवान कहते हैं- जो बुद्धि अधर्म को ही धर्म मानती है, श्रद्धा को अश्रद्धा कहती है, भ्रष्टाचार को ही शिष्टाचार कहती है। जिस बुद्धि को गलत काम ही सही लगता है। वह तामसी बुद्धि है।
अपेय पान नहीं करना चाहिए परन्तु बुद्धि को लगता है कि पार्टी में जाना है या संसार में रहना है तो हमें यह करना ही पड़ेगा, यही योग्य है उसके लिए। जो बुद्धि यह बताती है और जो शास्त्रों में बताया है, वह गलत लगता है। जिसके कारण भ्रम पैदा होता है। जिस बुद्धि के कारण गलत ही सही लगने लगता है वह तामसी बुद्धि है।
घ
शराब पीने का समर्थन करते हैं। वह सेहत के लिए अच्छी होती है इसलिए हम पीते हैं, इसका समर्थन जिस बुद्धि द्वारा किया जाता है वह तामसी बुद्धि है। जो वस्तु अभक्ष्य है वह भी खाना चाहिए, यह जिस बुद्धि द्वारा मनुष्य समझता है वह तामसी बुद्धि है। जब हमारी बुद्धि भी किसी गलत बात को सही बताना शुरू कर दे तो हमें अपनी बुद्धि को थोड़ा तराश लेना चाहिए कि मेरी बुद्धि गलत दिशा में जा रही है।
अपेय पान नहीं करना चाहिए परन्तु बुद्धि को लगता है कि पार्टी में जाना है या संसार में रहना है तो हमें यह करना ही पड़ेगा, यही योग्य है उसके लिए। जो बुद्धि यह बताती है और जो शास्त्रों में बताया है, वह गलत लगता है। जिसके कारण भ्रम पैदा होता है। जिस बुद्धि के कारण गलत ही सही लगने लगता है वह तामसी बुद्धि है।
घ
शराब पीने का समर्थन करते हैं। वह सेहत के लिए अच्छी होती है इसलिए हम पीते हैं, इसका समर्थन जिस बुद्धि द्वारा किया जाता है वह तामसी बुद्धि है। जो वस्तु अभक्ष्य है वह भी खाना चाहिए, यह जिस बुद्धि द्वारा मनुष्य समझता है वह तामसी बुद्धि है। जब हमारी बुद्धि भी किसी गलत बात को सही बताना शुरू कर दे तो हमें अपनी बुद्धि को थोड़ा तराश लेना चाहिए कि मेरी बुद्धि गलत दिशा में जा रही है।
धृत्या यया धारयते, मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या, धृतिः(स्) सा पार्थ सात्त्विकी॥18.33॥
हे पार्थ! समता से युक्त जिस अव्यभिचारिणी धृति के द्वारा (मनुष्य) मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है अर्थात् संयम रखता है, वह धृति सात्त्विकी है।
विवेचन :- धृति :- धारणा शक्ति ( धैर्य ) के द्वारा मन, इन्द्रिय, प्राण आदि क्रियाओं पर नियन्त्रण कर सकता है। इसका अर्थ है धीरज, तितिक्षा। अपने आप को ग़लत करने से, कुछ गलत खाने से रोक सकना धृति है।
सात्त्विक धृति का अर्थ है strong people, जिनकी इच्छाशक्ति तीव्र होती है। विकारों से स्वयं को किस प्रकार रोकना चाहिए? अपने मन को कहाँ-कहाँ, कौन-कौन से विषयों से मुझे दूर रखना पड़ेगा? यह जिस धृति के द्वारा मनुष्य कर सकता है, वह सात्त्विक धृति है।
गीता जी कण्ठस्थ करना। बहुत से लोग गीताव्रती बन गए हैं और उसके लिए जो धैर्य चाहिए, वह सात्त्विक धृति है। गीताव्रती तो बनना चाहता हूँ परन्तु हो नहीं सकता क्योंकि उसके लिए समय देना पड़ता है। यह सब कर सकने वाली सात्त्विक धृति है।
गीता पढ़ सकता है, गीता कण्ठस्थ कर सकता है, उसके विवेचन सुन उसकी मुख्य बातों को ध्यान में रखना, इसका अर्थ समझने का प्रयास करने का जो धैर्य रखता है वह सात्त्विक धैर्य होता है। अच्छे कार्य करने का जो धीरज रखता है और जमकर अध्ययन करने के लिए जो बैठता है और स्वयं को गलत काम करने से रोकता है, ऐसे धैर्य अथवा धीरज को सात्त्विक धृति कहते हैं।
हम इस प्रकार अपने पर नियन्त्रण रख सकते हैं तो हमें पता चलता है कि हमारी धृति में कुछ सात्त्विकता है। व्रत रखना भी कोई आसान बात नहीं है, उसके लिए भी स्वयं पर नियन्त्रण रखना पड़ता है और उसके लिए जो धीरज रखता है वह सात्त्विक धैर्य होता है। राजसी धृति क्या है :-
सात्त्विक धृति का अर्थ है strong people, जिनकी इच्छाशक्ति तीव्र होती है। विकारों से स्वयं को किस प्रकार रोकना चाहिए? अपने मन को कहाँ-कहाँ, कौन-कौन से विषयों से मुझे दूर रखना पड़ेगा? यह जिस धृति के द्वारा मनुष्य कर सकता है, वह सात्त्विक धृति है।
गीता जी कण्ठस्थ करना। बहुत से लोग गीताव्रती बन गए हैं और उसके लिए जो धैर्य चाहिए, वह सात्त्विक धृति है। गीताव्रती तो बनना चाहता हूँ परन्तु हो नहीं सकता क्योंकि उसके लिए समय देना पड़ता है। यह सब कर सकने वाली सात्त्विक धृति है।
गीता पढ़ सकता है, गीता कण्ठस्थ कर सकता है, उसके विवेचन सुन उसकी मुख्य बातों को ध्यान में रखना, इसका अर्थ समझने का प्रयास करने का जो धैर्य रखता है वह सात्त्विक धैर्य होता है। अच्छे कार्य करने का जो धीरज रखता है और जमकर अध्ययन करने के लिए जो बैठता है और स्वयं को गलत काम करने से रोकता है, ऐसे धैर्य अथवा धीरज को सात्त्विक धृति कहते हैं।
हम इस प्रकार अपने पर नियन्त्रण रख सकते हैं तो हमें पता चलता है कि हमारी धृति में कुछ सात्त्विकता है। व्रत रखना भी कोई आसान बात नहीं है, उसके लिए भी स्वयं पर नियन्त्रण रखना पड़ता है और उसके लिए जो धीरज रखता है वह सात्त्विक धैर्य होता है। राजसी धृति क्या है :-
यया तु धर्मकामार्थान्, धृत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी, धृतिः (स्) सा पार्थ राजसी॥18.34॥
हे पार्थ! समता से युक्त जिस अव्यभिचारिणी धृति के द्वारा (मनुष्य) मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है अर्थात् संयम रखता है, वह धृति सात्त्विकी है।
विवेचन :- कुछ फलों की प्राप्ति करने के लिए फलाकाङ्क्षा रखते हुए विषयों को प्राप्त करना, धर्म, अर्थ, काम को प्राप्त करना। धर्म अर्थात् कर्त्तव्य। उस कर्त्तव्य को करने के लिए धीरज लगता है। यह कर्त्तव्य भी अगर कुछ मिलने के लिए करते हैं। कुछ पैसा मिलता है तो उसके लिए बड़े-बड़े कार्य किए जाते हैं और करने भी चाहिए परन्तु इस कार्य का फल मिल रहा है तो ही मैं करूँगा, यह भावना होना। अच्छा फल मिल रहा है तो भी ठीक है परन्तु सामने जब कोई लालच आ जाता है तो उस फलाकाङ्क्षा के लिए कुछ गलत कार्य हो जाता है, तो यह राजसी धृति होती है। ऐसे कार्य में, धर्म, अर्थ, काम इनको धारण तो किया जाता है परन्तु यह अत्यन्त फल की आकाङ्क्षा के लिये होता है और अपने आपको रोकने पर भी मनुष्य लीलच में आ जाता है।
अकबर बीरबल का उदाहरण :-
अकबर के पास एक बिल्ली थी और उसे ट्रेनिङ्ग दे रखी थी कि अकबर भोजन करने बैठते थे तो बिल्ली उनके पास बैठ जाती थी। थाली में कुछ भी परोसा जाए, वह हिलती नहीं थी। उसके सिर पर एक दिया रखते थे पर वह भी नहीं गिरता, इतना बिना हिले वह बैठ सकती थी। अकबर ने बीरबल से कहा कि देखो इस बिल्ली को कितना ट्रेण्ड किया है कि अपनी जगह से बिल्कुल नहीं हिलती। उसमें कितना धैर्य है, तो बीरबल ने कहा- महाराज! कल देखते हैं इसमें कितना धीरज है।
दूसरे दिन जब बीरबल उसे देखने के लिए गया तो बिल्ली वहाँ पर बैठी हुई थी और उसके सिर पर दीपक रखा था। वह इतनी स्थिर बैठी थी कि दीपक भी नहीं हिल रहा था। बीरबल अपने साथ एक थैली में चूहा लेकर गया। बीरबल ने जैसे ही चूहा छोड़ा, बिल्ली ने देखा और अपना स्थान छोड़कर उस चूहे को पकड़ने के लिए भागी। सामने विषय देखते ही उसका धीरज खो गया। बिल्ली आसक्ति के कारण चूहे के पीछे भागी। वैसे ही हम स्वयं पर नियन्त्रण करते हैं, व्रत के लिए भी स्वयं पर नियन्त्रण करते हैं तो क्या हम विषय सामने आने पर ललचा जाते हैं? यदि हम ललचा जाते हैं तो यह धीरज राजसी धीरज है।
तामसी धीरज क्या है?
धीरज ही नहीं रहना, यही तामस धीरज है। धैर्य का अभाव अर्थात् तामस धैर्य।
अकबर बीरबल का उदाहरण :-
अकबर के पास एक बिल्ली थी और उसे ट्रेनिङ्ग दे रखी थी कि अकबर भोजन करने बैठते थे तो बिल्ली उनके पास बैठ जाती थी। थाली में कुछ भी परोसा जाए, वह हिलती नहीं थी। उसके सिर पर एक दिया रखते थे पर वह भी नहीं गिरता, इतना बिना हिले वह बैठ सकती थी। अकबर ने बीरबल से कहा कि देखो इस बिल्ली को कितना ट्रेण्ड किया है कि अपनी जगह से बिल्कुल नहीं हिलती। उसमें कितना धैर्य है, तो बीरबल ने कहा- महाराज! कल देखते हैं इसमें कितना धीरज है।
दूसरे दिन जब बीरबल उसे देखने के लिए गया तो बिल्ली वहाँ पर बैठी हुई थी और उसके सिर पर दीपक रखा था। वह इतनी स्थिर बैठी थी कि दीपक भी नहीं हिल रहा था। बीरबल अपने साथ एक थैली में चूहा लेकर गया। बीरबल ने जैसे ही चूहा छोड़ा, बिल्ली ने देखा और अपना स्थान छोड़कर उस चूहे को पकड़ने के लिए भागी। सामने विषय देखते ही उसका धीरज खो गया। बिल्ली आसक्ति के कारण चूहे के पीछे भागी। वैसे ही हम स्वयं पर नियन्त्रण करते हैं, व्रत के लिए भी स्वयं पर नियन्त्रण करते हैं तो क्या हम विषय सामने आने पर ललचा जाते हैं? यदि हम ललचा जाते हैं तो यह धीरज राजसी धीरज है।
तामसी धीरज क्या है?
धीरज ही नहीं रहना, यही तामस धीरज है। धैर्य का अभाव अर्थात् तामस धैर्य।
यया स्वप्नं(म्) भयं(म्) शोकं(म्), विषादं(म्) मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा, धृतिः(स्) सा पार्थ तामसी॥18.35॥
हे पार्थ! दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धृति के द्वारा निद्रा, भय, चिन्ता, दुःख और घमण्ड को भी नहीं छोड़ता अर्थात् धारण किये रहता है, वह धृति तामसी है।
विवेचन :- हम देखते हैं कि कुछ लोगों को गलत आदत हो जाती है। जब वह छूटती नहीं है तो वह कहते हैं कि हम तो इसे छोड़ना ही नहीं चाहते। वह कहते है मेरी इच्छा है इसलिए मैं नहीं छोडूँगा। वह छोड़ ही नहीं सकता लेकिन सबसे कहेगा कि मैं नहीं छोडूँगा।
शराब पीने की आदत है, मैं नहीं छोडूँगा इसलिए नहीं छूटती। वास्तव में उसे छोड़ने का धैर्य ही नहीं है। गलत बात को छोड़ने के लिए धैर्य लगता है, पकड़ने के लिए धैर्य नहीं चाहिए।
न विमुञ्चति:- छोड़ती नहीं।
मैं सुबह जल्दी उठ सकता हूँ परन्तु जल्दी उठकर क्या करना है इसलिए नहीं उठता। नींद, आलस्य नहीं छोड़ता और सपने देखने में ही पड़ा रहेगा। किस बात का भय रखना चाहिए, इसका भान नहीं है परन्तु भय को यह कहता है कि यही योग्य है।
जब कोरोना काल था, उसमें भय रखने की आवश्यकता नहीं थी। तब तो सावधानी रखने की आवश्यकता थी परन्तु कुछ लोग भय में ही रहे। कुछ लोग बाहर भी नहीं निकलते थे, इसे सावधानी कहते हैं। इसे भय नहीं कह सकते। सावधानी और भय इसका अन्तर न समझ कर उसी में डूबे रहे। भय में ही डूबे रहे।
उस समय विवेचक ने एक कविता पढ़ी थी जिससे ऐसा लग रहा कि सारा संसार ही समाप्त होने वाला है और घर खाली हो जाएँगे परन्तु यहँ कहना भी उन्हें अच्छा नहीं लगा क्योंकि वह बहुत ही भयानक कविता थी।
धैर्य का अभाव ही तामसी धृति होता है वैसे ही जैसे प्रकाश का अभाव मतलब अन्धकार। धीरज का अभाव यानि तामसी धृति। अपना मद भी नहीं छोड़ते हैं। हम जो कर रहे हैं वही अच्छा है। वह गलत नहीं है परन्तु उसे छोड़ ही नहीं सकते, यही तामसी धृति है।
इन सब के बाद भगवान अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन! सुख भी तीन प्रकार का होता है। सुख किसको नहीं चाहिए। सुख तो सभी को चाहिए परन्तु कौन सा सुख हमें लेना चाहिए और कौन सा सुख प्राप्त करने के लिए हमें प्रयास करना चाहिए। वह भी जान लेना आवश्यक है।
सात्त्विक सुख क्या है? राजस सुख क्या है और तामसिक सुख क्या है?
यह हम जान लें और हम किस प्रकार के सुख के लिए प्रयास करते हैं यह भी समझ लें। कौन सा सुख सबसे अच्छा है? जो मिलने पर समाप्त नहीं होता है, ऐसा सुख जो मिलने पर मनुष्य सदा प्रसन्न रहेगा वह सुख कौनसा है और कौन से सुख में डूबने से अन्त में उसे दु:ख प्राप्त होने वाला है, वह भी जान लेना चाहिए।
शराब पीने की आदत है, मैं नहीं छोडूँगा इसलिए नहीं छूटती। वास्तव में उसे छोड़ने का धैर्य ही नहीं है। गलत बात को छोड़ने के लिए धैर्य लगता है, पकड़ने के लिए धैर्य नहीं चाहिए।
न विमुञ्चति:- छोड़ती नहीं।
मैं सुबह जल्दी उठ सकता हूँ परन्तु जल्दी उठकर क्या करना है इसलिए नहीं उठता। नींद, आलस्य नहीं छोड़ता और सपने देखने में ही पड़ा रहेगा। किस बात का भय रखना चाहिए, इसका भान नहीं है परन्तु भय को यह कहता है कि यही योग्य है।
जब कोरोना काल था, उसमें भय रखने की आवश्यकता नहीं थी। तब तो सावधानी रखने की आवश्यकता थी परन्तु कुछ लोग भय में ही रहे। कुछ लोग बाहर भी नहीं निकलते थे, इसे सावधानी कहते हैं। इसे भय नहीं कह सकते। सावधानी और भय इसका अन्तर न समझ कर उसी में डूबे रहे। भय में ही डूबे रहे।
उस समय विवेचक ने एक कविता पढ़ी थी जिससे ऐसा लग रहा कि सारा संसार ही समाप्त होने वाला है और घर खाली हो जाएँगे परन्तु यहँ कहना भी उन्हें अच्छा नहीं लगा क्योंकि वह बहुत ही भयानक कविता थी।
धैर्य का अभाव ही तामसी धृति होता है वैसे ही जैसे प्रकाश का अभाव मतलब अन्धकार। धीरज का अभाव यानि तामसी धृति। अपना मद भी नहीं छोड़ते हैं। हम जो कर रहे हैं वही अच्छा है। वह गलत नहीं है परन्तु उसे छोड़ ही नहीं सकते, यही तामसी धृति है।
इन सब के बाद भगवान अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन! सुख भी तीन प्रकार का होता है। सुख किसको नहीं चाहिए। सुख तो सभी को चाहिए परन्तु कौन सा सुख हमें लेना चाहिए और कौन सा सुख प्राप्त करने के लिए हमें प्रयास करना चाहिए। वह भी जान लेना आवश्यक है।
सात्त्विक सुख क्या है? राजस सुख क्या है और तामसिक सुख क्या है?
यह हम जान लें और हम किस प्रकार के सुख के लिए प्रयास करते हैं यह भी समझ लें। कौन सा सुख सबसे अच्छा है? जो मिलने पर समाप्त नहीं होता है, ऐसा सुख जो मिलने पर मनुष्य सदा प्रसन्न रहेगा वह सुख कौनसा है और कौन से सुख में डूबने से अन्त में उसे दु:ख प्राप्त होने वाला है, वह भी जान लेना चाहिए।
सुखं(न्) त्विदानीं(न्) त्रिविधं(म्), शृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र, दुःखान्तं(ञ्) च निगच्छति॥18.36॥
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! अब तीन प्रकार के सुख को भी (तुम) मुझसे सुनो। जिसमें अभ्यास से रमण होता है और (जिससे) दुःखों का अन्त हो जाता है, ऐसा वह परमात्म-विषयक बुद्धि की प्रसन्नता से पैदा होने वाला जो सुख (सांसारिक आसक्ति के कारण) आरम्भ में विष की तरह (और) परिणाम में अमृत की तरह होता है, वह (सुख) सात्त्विक कहा गया है। (18.36-18.37)
विवेचन :- भगवान कहते हैं -हे अर्जुन! अब तीन प्रकार के सुख सुन लो। जिस सुख के द्वारा दु:ख का अन्त हो जाता है और जिस सुख में मनुष्य अभ्यास में रममाण हो जाता है, गीता अभ्यास में रममाण हो जाता है, भजन कीर्तन में रममाण होता है, अच्छे कार्य में रममाण हो जाता है। बार-बार जिस अभ्यास को करने से दु:ख का अन्त हो जाए, वह सुख कैसा होता है उसे सुनो।
यत्तदग्रे विषमिव, परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं(म्) सात्त्विकं(म्) प्रोक्तम्, आत्मबुद्धिप्रसादजम्॥18.37॥
विवेचन :- भगवान कहते हैं- हे अर्जुन! यह सुख प्रारम्भ में विष जैसा कटु लगता है, कठिन लगता है, कष्ट वाला लगता है परन्तु उसका परिणाम अमृत जैसा होता है।
कभी कुछ रोग हो जाता है और उसके लिए कुछ दवाइयाँ दी जाती हैं तो वह दवाई सामान्य रूप से कड़वी रहती है, इञ्जेक्शन भी चुभता है। शल्यक्रिया में भी वेदना होती है परन्तु कड़वी दवाई लेने के कारण उसका अच्छा परिणाम आता है। हमारी प्रकृति ठीक हो जाती है। यह प्रारम्भ में कठिन लगता है परन्तु उसका परिणाम अच्छा होता है।
हम में से कुछ लोग सुबह व्यायाम करते हैं, सूर्य नमस्कार करते हैं या सुबह की सैर करते हैं। उसके लिए आरम्भ में तो उठते हुए कष्ट होता है परन्तु योगाभ्यास करने के बाद शरीर को बहुत अच्छा लगता है।
भगवद्गीता कण्ठस्थ करनी है, यह कठिन तो लगता है परन्तु कण्ठस्थ हो गई तो बहुत सुख मिलता है। अमृत जैसा आनन्द मिलता है। पढ़ाई में भी अधिक कष्ट कर लिया, उसका फल भी तो अच्छा मिलता है। उसे सात्त्विक सुख कहा गया है। उसमें परमात्मा प्राप्ति की प्रसन्नता मिलती है। सात्त्विक बुद्धि होती है तो परमात्मा के बारे में ज्ञान प्राप्त होने लगता है और वह प्राप्त होने से जो सुख मिलता है उसे प्रसाद कहा गया है।
प्रसाद शब्द का अर्थ है अन्तःकरण की प्रसन्नता। जिस सुख के द्वारा अन्त:करण प्रसन्न होता है, ऐसा सुख सात्त्विक सुख होता है। व्रत में कष्ट होता है परन्तु उनमें परिपूर्ति का आनन्द भी मिलता है।
गीता परिवार से जब जुड़े थे तो अब करते-करते स्तर चार पर आ गए। अट्ठारह अध्याय कण्ठस्थ हो जाएँगे तो परिपूर्ति का आनन्द मिलेगा। हमारा मन हमारी बुद्धि सब आनन्दमय हो जाएँगे।
सोने को हम जितना तपाते हैं वह अधिक चमकता है और कुन्दन बन जाता है और तप करने से मनुष्य को जो सुख प्राप्त होता है वह सात्त्विक सुख होता है।
भगवान कहते हैं राजस सुख कैसा होता है :-
कभी कुछ रोग हो जाता है और उसके लिए कुछ दवाइयाँ दी जाती हैं तो वह दवाई सामान्य रूप से कड़वी रहती है, इञ्जेक्शन भी चुभता है। शल्यक्रिया में भी वेदना होती है परन्तु कड़वी दवाई लेने के कारण उसका अच्छा परिणाम आता है। हमारी प्रकृति ठीक हो जाती है। यह प्रारम्भ में कठिन लगता है परन्तु उसका परिणाम अच्छा होता है।
हम में से कुछ लोग सुबह व्यायाम करते हैं, सूर्य नमस्कार करते हैं या सुबह की सैर करते हैं। उसके लिए आरम्भ में तो उठते हुए कष्ट होता है परन्तु योगाभ्यास करने के बाद शरीर को बहुत अच्छा लगता है।
भगवद्गीता कण्ठस्थ करनी है, यह कठिन तो लगता है परन्तु कण्ठस्थ हो गई तो बहुत सुख मिलता है। अमृत जैसा आनन्द मिलता है। पढ़ाई में भी अधिक कष्ट कर लिया, उसका फल भी तो अच्छा मिलता है। उसे सात्त्विक सुख कहा गया है। उसमें परमात्मा प्राप्ति की प्रसन्नता मिलती है। सात्त्विक बुद्धि होती है तो परमात्मा के बारे में ज्ञान प्राप्त होने लगता है और वह प्राप्त होने से जो सुख मिलता है उसे प्रसाद कहा गया है।
प्रसाद शब्द का अर्थ है अन्तःकरण की प्रसन्नता। जिस सुख के द्वारा अन्त:करण प्रसन्न होता है, ऐसा सुख सात्त्विक सुख होता है। व्रत में कष्ट होता है परन्तु उनमें परिपूर्ति का आनन्द भी मिलता है।
गीता परिवार से जब जुड़े थे तो अब करते-करते स्तर चार पर आ गए। अट्ठारह अध्याय कण्ठस्थ हो जाएँगे तो परिपूर्ति का आनन्द मिलेगा। हमारा मन हमारी बुद्धि सब आनन्दमय हो जाएँगे।
सोने को हम जितना तपाते हैं वह अधिक चमकता है और कुन्दन बन जाता है और तप करने से मनुष्य को जो सुख प्राप्त होता है वह सात्त्विक सुख होता है।
भगवान कहते हैं राजस सुख कैसा होता है :-
विषयेन्द्रियसंयोगाद्, यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव, तत्सुखं (म्) राजसं (म्) स्मृतम्॥18.38॥
जो सुख इन्द्रियों और विषयों के संयोग से (होता है), वह आरम्भ में अमृत की तरह (और) परिणाम में विष की तरह प्रतीत होता है, वह (सुख) राजस कहा गया है।
विवेचन :- इन्द्रिय और इन्द्रियों के विषय में हम जानते हैं। हमारी दस इन्द्रियाँ हैं और ग्यारहवाँ मन है, वह भी इन्द्रिय कहलाता है। आँख, कान, जिह्वा, त्वचा आदि ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। हाथ, पाँव आदि कर्मेन्द्रियाँ हैं। इनका विषय मिलने से उनको सुख मिलता है। जिह्वा को अच्छा लगने वाला व्यञ्जन खाने को मिल गया तो जिह्वा को सुख का अनुभव होता है परन्तु वह थोड़े से समय के लिए ही होता है। ज्यादा खा लिया तो दूसरे दिन पेट बिगड़ने का भय रहता है तो उसका परिणाम गलत हो जाता है। सुख अच्छा लग रहा है इसलिए ग्रहण कर रहे हैं पर ज्यादा सुख ग्रहण करने पर उसका परिणाम कई बार गलत भी हो जाता है।
सुख शब्द का अर्थ क्या है-
सु- यानि अच्छा लगना।
ख- यानि इन्द्रिय।
जो इन्द्रियों कोअच्छा लगता है वह राजसी सुख है। वह इन्द्रियों को तो सुख देता है परन्तु अन्त मे उससे दु:ख प्राप्त होता है।
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-
अपेय का पान करने से और जो नहीं खाना चाहिए वह खाने से, जो नहीं पीना चाहिए वह पीने से, स्त्री के साथ गमन करने से जो सुख मिलता है, वह सुख क्या है? वह राजसी सुख है। उसका परिणाम विष जैसा होता है।
आजकल जञ्क फूड बहुत चलता है। बच्चों को तो वह खाने में बहुत ही अच्छा लगता है। उन्हें तो वह अमृत जैसा लगता है परन्तु उसके खाने से परिणाम खराब होता है। इस राजसी सुख से हमें दूर रहना चाहिए।
सन्त तुकाराम महाराज जी को शिवाजी महाराज ने नज़राना भेजा था, वह भी उन्होंने आदर पूर्वक वापस कर दिया। उन्होंने कहा कि इन विषयों में अगर मेरा मन लग जाएगा तो मेरी इन्द्रियों को अभी तो सुख मिल जाएगा परन्तु उस विट्ठल से दूर हो जाऊँगा। यदि इस विट्ठल से दूर हट जाऊँगा तो मैं सच्चा सुख प्राप्त नहीं कर पाऊँगा। मुझे यह सुख नहीं चाहिए।
जिस प्रकार हमें भोजन तो करना ही पड़ेगा परन्तु उसमें भी क्या खाना और क्या नहीं खाना? इस पर तो विचार करना चाहिए। जो मन को अच्छा लगता है वह अच्छा ही खाद्य है ऐसा नहीं कह सकते।
सात्त्विक आहार क्या है? राजसी आहार क्या है और तामसी आहार क्या है? यह हमने सत्रहवें अध्याय में देखा है। अब हम तामसी सुख देखते हैं और उसे सुख कहना है या नहीं यह भी हमें देखना है।
सुख शब्द का अर्थ क्या है-
सु- यानि अच्छा लगना।
ख- यानि इन्द्रिय।
जो इन्द्रियों कोअच्छा लगता है वह राजसी सुख है। वह इन्द्रियों को तो सुख देता है परन्तु अन्त मे उससे दु:ख प्राप्त होता है।
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-
अपेय का पान करने से और जो नहीं खाना चाहिए वह खाने से, जो नहीं पीना चाहिए वह पीने से, स्त्री के साथ गमन करने से जो सुख मिलता है, वह सुख क्या है? वह राजसी सुख है। उसका परिणाम विष जैसा होता है।
आजकल जञ्क फूड बहुत चलता है। बच्चों को तो वह खाने में बहुत ही अच्छा लगता है। उन्हें तो वह अमृत जैसा लगता है परन्तु उसके खाने से परिणाम खराब होता है। इस राजसी सुख से हमें दूर रहना चाहिए।
सन्त तुकाराम महाराज जी को शिवाजी महाराज ने नज़राना भेजा था, वह भी उन्होंने आदर पूर्वक वापस कर दिया। उन्होंने कहा कि इन विषयों में अगर मेरा मन लग जाएगा तो मेरी इन्द्रियों को अभी तो सुख मिल जाएगा परन्तु उस विट्ठल से दूर हो जाऊँगा। यदि इस विट्ठल से दूर हट जाऊँगा तो मैं सच्चा सुख प्राप्त नहीं कर पाऊँगा। मुझे यह सुख नहीं चाहिए।
जिस प्रकार हमें भोजन तो करना ही पड़ेगा परन्तु उसमें भी क्या खाना और क्या नहीं खाना? इस पर तो विचार करना चाहिए। जो मन को अच्छा लगता है वह अच्छा ही खाद्य है ऐसा नहीं कह सकते।
सात्त्विक आहार क्या है? राजसी आहार क्या है और तामसी आहार क्या है? यह हमने सत्रहवें अध्याय में देखा है। अब हम तामसी सुख देखते हैं और उसे सुख कहना है या नहीं यह भी हमें देखना है।
यदग्रे चानुबन्धे च, सुखं(म्) मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं(न्), तत्तामसमुदाहृतम्॥18.39॥
निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होने वाला जो सुख आरम्भ में और परिणाम में अपने को मोहित करने वाला है, वह (सुख) तामस कहा गया है।
विवेचन :- यह हम सब ने थोड़ा-थोड़ा अनुभव किया है। प्रारम्भ से उसी में डूबे रहना, स्वयं को अज्ञान और मोह में डाल देना है, मोहित कर देना है। आलस्य एवम् निद्रा में पड़ कर सोते ही रहना, उठने की इच्छा ही नहीं होना, इसी में सुख प्राप्त करना तामसी सुख कहलाता है।
सुबह जल्दी उठना चाहिए। यह मालूम होते हुए भी, यह जानकर भी मनुष्य को लेटे हुए रहने की इच्छा होती है। उस समय वह नींद में डूबा रहता है। सुबह पाँच बजे उठना चाहिए और योगाभ्यास करना चाहिए। छात्र हैं तो पढ़ना चाहिए। उसके लिए ही अलार्म लगाया है परन्तु अलार्म तो बज गया। सोचते हैं कि बस पाँच मिनट और नींद ले लें। उठने की इच्छा नहीं होती और फिर हमारी नींद सात बजे ही खुलती है, तो क्या हमें इससे सुख मिला? इससे तामसी सुख मिला और मिला निद्रा आलस्य।
सूर्योदय से पहले उठना और सूर्योदय के बाद में उठना, इसमें क्या अन्तर है?
यह एक बार समझ लेंगे तो कोई सूर्योदय के बाद कोई नहीं उठेगा। यदि हम सूर्योदय से पहले उठते हैं तो हममें उत्साह रहता है और अच्छा कार्य करने की इच्छा रहती है और जितना देरी से उठेंगे, उतना ही आलस्य बढ़ता जाता है। इसका एक वैज्ञानिक कारण है, हमारे मुँह में जो लार सूर्योदय से पहले रहती है वह शरीर के लिए बहुत अच्छी होती है। सूर्योदय के बाद वह खराब हो जाती है। वह जहरीली होने लगती है और उसके कारण हमारा आलस्य बढ़ता जाता है और जितना हम सोते हैं उतना और सोने की इच्छा बढ़ती जाती है। निद्रा, आलस्य और उसके बाद प्रमाद। मनुष्य गलतियों में डूब कर गलत काम करता है और उसे वही सही लगने लगता है और उसी में डूब जाता है।
चावलों को सड़ा कर उसकी शराब बनाते हैं और पीते हैं और बाद में नाली में गिरते हैं। उसके पश्चात् भी अगर लगता है कि मेरे जैसा सुखी कोई नहीं है, यह तामसी सुख है। रास्ते में पड़े हैं परन्तु तब भी लग रहा है कि मैं बहुत सुखी हूँ, परन्तु क्या वह सुख है?
स्वयं को लग रहा है वह सुख है परन्तु बाकियों को पता है कि वह नाली में पड़ा है, कीड़े के जैसा? यह तामसी सुख है। तामस का पूर्णतया त्याग हो जाना चाहिए। इसका तात्पर्य है कि- तामसी सुख, तामसी बुद्धि, तामसी धृति, तामसी ज्ञान इन सबसे छूट जाना चाहिए।
इससे मध्यम राजस बुद्धि है लेकिन सर्वोत्तम तो सात्त्विक बुद्धि ही है, सात्त्विक धृति और सात्त्विक ज्ञान है।
बालक पढ़ाई नहीं कर रहा है तो तामसी है परन्तु माता खिलौना लाकर देगी तो वह पढ़ाई करता है, वह कुछ तो ठीक है परन्तु सबसे अच्छा तो वह है जो अपना कर्त्तव्य जानकर उसके अनुसार कार्य करता है, वह सात्त्विक है। इसलिए सबसे पहले तमोगुण को हटाना है और उसे हटाने के लिए भले ही रजोगुण का सहारा लेना पड़े तो वह ठीक है परन्तु तमोगुण से बाहर आना ही पड़ेगा और फिर धीरे-धीरे राजोगुण का त्याग करके सत्त्व गुण की तरफ बढ़ना चाहिए, यही जीवन है।
हमारा प्रवास तमोगुण से सत्त्व गुण की ओर होना चाहिए। उसके लिए बीच में रजोगुण का आधार लेना पड़े तो सही है। सत्त्वगुण का अङ्कुश सब पर होना चाहिए।
सत्त्वगुण है पॉजिटिव चार्ज।
रजोगुण है नेगेटिव चार्ज, और
तमोगुण कुछ भी नहीं है केवल धरती पर भार है।
तमोगुण हम सब के जीवन में नहीं है ऐसा नहीं है, परन्तु तमोगुण पर नियन्त्रण करना सीखना चाहिए तो मनुष्य उन गुणों से भी अतीत निकल सकता है। जो गुणों पर नियन्त्रण कर सकता है वह गुणातीत कहलाता है।
गुणातीत बनने के लिए क्या करना चाहिए?
पहले तमोगुण को हटाना फिर धीरे-धीरे रजोगुण कम करना फिर सत्त्व गुण और रजोगुण द्वारा अच्छे कार्य करते रहना, परन्तु मैं नहीं कर रहा, इस भाव से जो करता जाता है तो वह गुणातीत बन जाता है। इस प्रकार भगवान ने यह सारी बातें बताई।
अन्त में भगवान कहते हैं कि इन तीन गुणों के अतिरिक्त प्रकृति का और कोई तत्त्व नहीं है। सारी प्रकृति ही त्रिगुणात्मक है। आत्म तत्त्व ने प्रकृति को धारण कर रखा है। उस तक पहुँचने के लिए पहले इन तीन गुणों पर विजय प्राप्त करनी पड़ेगी। तीन गुणों से मुक्त प्रकृति का कोई भी तत्त्व नहीं है और इसलिए इन तीन गुणों के प्रभाव के कारण चार प्रकार के लोग बन गए हैं। किसी में सत्त्वगुण का प्रभाव ज्यादा है, रजोगुण, तमोगुण का कम है, किसी में इसका विपरीत है।
इन तीन गुणों की मात्रा कुछ कम-ज्यादा हो सकती है। जिस प्रकार किसी व्यञ्जन में शक्कर, नमक या मिर्ची पाउडर कुछ कम-ज्यादा हो जाये तो उसका स्वाद बदल जाता है, वैसे ही इन तीन गुणों के अनुसार हर मनुष्य का स्वभाव अलग-अलग बन जाता है।
सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के प्रभाव कम अथवा ज्यादा होने के कारण हर मनुष्य का स्वभाव अलग-अलग होता है और वह कैसा होता है और किस प्रकार का कार्य करने के लिए होता है? भगवान यही सारी बातें आगे विस्तार से बताने वाले हैं।
आज का प्रसङ्ग परमात्मा के श्रीचरणों में समर्पित करते है
प्रश्नोत्तर-
प्रश्नकर्ता:- सुरेश्वर भैया
प्रश्न:- संन्यास और त्याग क्या भिन्न-भिन्न हैं?
उत्तर:- अर्जुन यही प्रश्न तो श्रीकृष्ण से पूछ रहे हैं!
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषिकेश पृथक्केशिनिषूदन।।
न्यास का अर्थ है- त्याग, संन्यास का तात्पर्य है- अच्छी तरह से त्याग। श्रेष्ठ संन्यासी त्याग को कर्मों का त्याग कहते हैं, उनके लिये भोजन पकाना भी निषिद्ध है। भिक्षा से प्राप्त अन्न ही वे ग्रहण करते हैं। कुछ सभी कर्मों के फल को त्याग कहते हैं। वे सेवा आदि कर्मों का त्याग नहीं करते हैं, किन्तु उनके परिणाम की लालसा नहीं रखते। वाह्य रूप में संन्यास एवम् त्याग भिन्न हैं परन्तु आन्तरिक रूप से वे एक ही हैं।
छठे अध्याय के प्रथम श्लोक में कहा है—
अनाश्रित: कर्मफलम् कार्यम् कर्म करोति य।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय:।।
प्रश्नकर्ता:- सपना दीदी
प्रश्न:- गीता जिज्ञासु, गीता गुञ्जन, गीता पाठक का अर्थ तो समझ में आ गया है। गीताव्रती क्या है इसका नाम गीताव्रती क्यों रखा गया है?
उत्तर:- जिसने गीता के अट्ठारह अध्याय कण्ठस्थ कर लिये हैं वह गीताव्रती कहलायेगा। गीताव्रती मतलब गीता उसके जीवन का अब व्रत हो गया है, गीता मैया ही कण्ठ में आकर बैठ गई, गीता कण्ठस्थ हो गई, इसलिये वह गीताव्रती कहलाता है।
प्रश्नकर्ता:- मोहन भैया
प्रश्न:- सात्त्विक, राजसिक, तामसिक ये तीनों गुण हम सभी में विद्यमान होते हैं, हम लोगों ने पढ़ा कि कोई सात्त्विक, कोई राजसिक, कोई तामसिक गुणों वाला होता है, किन्तु जीवन में ऐसा देखने को मिलता है कि परिस्थिति के अनुसार तीनों गुण हम सभी में समय-समय पर प्रादुर्भूत होते हैं। सत्य क्या है?
उत्तर:- पूर्ण सात्त्विक, पूर्ण राजसिक, पूर्ण तामसिक कोई नहीं होता। हमें यह देखना है कि किस समय कौन सा गुण प्रबल हो जाता है। मेरा कर्म, बुद्धि, धैर्य कब किस गुण से आच्छादित हो जाते हैं, यह निरीक्षण करना है, इसका ज्ञान होने पर हम स्वयम् का उन्नयन कर सकते हैं, यह सम्भव नहीं कि एक ही गुण सदैव बना रहे, हाँ हम अपने सात्त्विक गुण को बढ़ा सकते हैं।
चतुर्दश अध्याय में श्रीभगवान ने बताया है-
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वम् भवति भारत ।
रज: सत्त्वम् तमश्चैव तम: सत्त्वम् रजस्तथा।।
तीनों गुण एक दूसरे को दबाकर आगे बढ़ते हैं, आत्म-निरीक्षण द्वारा हम गुणों को नियन्त्रित कर सकते हैं, अर्थात् सत्त्वगुण को बढ़ा सकते है।
प्रश्नकर्ता:- उर्मिला दीदी
प्रश्न:- श्री गीता जी में कहा गया है कि हर कार्य के कर्ता-धर्ता श्रीभगवान ही हैं, तो क्या प्रत्येक कार्य हमसे श्रीभगवान ही करवाते हैं ?
उत्तर:- हमारे द्वारा जो भी कार्य होता है उसके पीछे की सम्पूर्ण शक्ति ईश्वर की ही है। हर जीव अपनी-अपनी इच्छानुसार कार्य करता है अत: इच्छा जीव की है शक्ति प्रभु की है। विद्युत हीटर में गर्म करती है किन्तु फ्रिज में ठण्डा करती है। शक्ति बिजली की है, कार्य करने वाला हीटर या फ्रिज है। इसी प्रकार जीव ईश्वर प्रदत्त शक्ति से अपनी इच्छानुसार ग़लत या सही कार्य करता है।
सुबह जल्दी उठना चाहिए। यह मालूम होते हुए भी, यह जानकर भी मनुष्य को लेटे हुए रहने की इच्छा होती है। उस समय वह नींद में डूबा रहता है। सुबह पाँच बजे उठना चाहिए और योगाभ्यास करना चाहिए। छात्र हैं तो पढ़ना चाहिए। उसके लिए ही अलार्म लगाया है परन्तु अलार्म तो बज गया। सोचते हैं कि बस पाँच मिनट और नींद ले लें। उठने की इच्छा नहीं होती और फिर हमारी नींद सात बजे ही खुलती है, तो क्या हमें इससे सुख मिला? इससे तामसी सुख मिला और मिला निद्रा आलस्य।
सूर्योदय से पहले उठना और सूर्योदय के बाद में उठना, इसमें क्या अन्तर है?
यह एक बार समझ लेंगे तो कोई सूर्योदय के बाद कोई नहीं उठेगा। यदि हम सूर्योदय से पहले उठते हैं तो हममें उत्साह रहता है और अच्छा कार्य करने की इच्छा रहती है और जितना देरी से उठेंगे, उतना ही आलस्य बढ़ता जाता है। इसका एक वैज्ञानिक कारण है, हमारे मुँह में जो लार सूर्योदय से पहले रहती है वह शरीर के लिए बहुत अच्छी होती है। सूर्योदय के बाद वह खराब हो जाती है। वह जहरीली होने लगती है और उसके कारण हमारा आलस्य बढ़ता जाता है और जितना हम सोते हैं उतना और सोने की इच्छा बढ़ती जाती है। निद्रा, आलस्य और उसके बाद प्रमाद। मनुष्य गलतियों में डूब कर गलत काम करता है और उसे वही सही लगने लगता है और उसी में डूब जाता है।
चावलों को सड़ा कर उसकी शराब बनाते हैं और पीते हैं और बाद में नाली में गिरते हैं। उसके पश्चात् भी अगर लगता है कि मेरे जैसा सुखी कोई नहीं है, यह तामसी सुख है। रास्ते में पड़े हैं परन्तु तब भी लग रहा है कि मैं बहुत सुखी हूँ, परन्तु क्या वह सुख है?
स्वयं को लग रहा है वह सुख है परन्तु बाकियों को पता है कि वह नाली में पड़ा है, कीड़े के जैसा? यह तामसी सुख है। तामस का पूर्णतया त्याग हो जाना चाहिए। इसका तात्पर्य है कि- तामसी सुख, तामसी बुद्धि, तामसी धृति, तामसी ज्ञान इन सबसे छूट जाना चाहिए।
इससे मध्यम राजस बुद्धि है लेकिन सर्वोत्तम तो सात्त्विक बुद्धि ही है, सात्त्विक धृति और सात्त्विक ज्ञान है।
बालक पढ़ाई नहीं कर रहा है तो तामसी है परन्तु माता खिलौना लाकर देगी तो वह पढ़ाई करता है, वह कुछ तो ठीक है परन्तु सबसे अच्छा तो वह है जो अपना कर्त्तव्य जानकर उसके अनुसार कार्य करता है, वह सात्त्विक है। इसलिए सबसे पहले तमोगुण को हटाना है और उसे हटाने के लिए भले ही रजोगुण का सहारा लेना पड़े तो वह ठीक है परन्तु तमोगुण से बाहर आना ही पड़ेगा और फिर धीरे-धीरे राजोगुण का त्याग करके सत्त्व गुण की तरफ बढ़ना चाहिए, यही जीवन है।
हमारा प्रवास तमोगुण से सत्त्व गुण की ओर होना चाहिए। उसके लिए बीच में रजोगुण का आधार लेना पड़े तो सही है। सत्त्वगुण का अङ्कुश सब पर होना चाहिए।
सत्त्वगुण है पॉजिटिव चार्ज।
रजोगुण है नेगेटिव चार्ज, और
तमोगुण कुछ भी नहीं है केवल धरती पर भार है।
तमोगुण हम सब के जीवन में नहीं है ऐसा नहीं है, परन्तु तमोगुण पर नियन्त्रण करना सीखना चाहिए तो मनुष्य उन गुणों से भी अतीत निकल सकता है। जो गुणों पर नियन्त्रण कर सकता है वह गुणातीत कहलाता है।
गुणातीत बनने के लिए क्या करना चाहिए?
पहले तमोगुण को हटाना फिर धीरे-धीरे रजोगुण कम करना फिर सत्त्व गुण और रजोगुण द्वारा अच्छे कार्य करते रहना, परन्तु मैं नहीं कर रहा, इस भाव से जो करता जाता है तो वह गुणातीत बन जाता है। इस प्रकार भगवान ने यह सारी बातें बताई।
अन्त में भगवान कहते हैं कि इन तीन गुणों के अतिरिक्त प्रकृति का और कोई तत्त्व नहीं है। सारी प्रकृति ही त्रिगुणात्मक है। आत्म तत्त्व ने प्रकृति को धारण कर रखा है। उस तक पहुँचने के लिए पहले इन तीन गुणों पर विजय प्राप्त करनी पड़ेगी। तीन गुणों से मुक्त प्रकृति का कोई भी तत्त्व नहीं है और इसलिए इन तीन गुणों के प्रभाव के कारण चार प्रकार के लोग बन गए हैं। किसी में सत्त्वगुण का प्रभाव ज्यादा है, रजोगुण, तमोगुण का कम है, किसी में इसका विपरीत है।
इन तीन गुणों की मात्रा कुछ कम-ज्यादा हो सकती है। जिस प्रकार किसी व्यञ्जन में शक्कर, नमक या मिर्ची पाउडर कुछ कम-ज्यादा हो जाये तो उसका स्वाद बदल जाता है, वैसे ही इन तीन गुणों के अनुसार हर मनुष्य का स्वभाव अलग-अलग बन जाता है।
सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के प्रभाव कम अथवा ज्यादा होने के कारण हर मनुष्य का स्वभाव अलग-अलग होता है और वह कैसा होता है और किस प्रकार का कार्य करने के लिए होता है? भगवान यही सारी बातें आगे विस्तार से बताने वाले हैं।
आज का प्रसङ्ग परमात्मा के श्रीचरणों में समर्पित करते है
प्रश्नोत्तर-
प्रश्नकर्ता:- सुरेश्वर भैया
प्रश्न:- संन्यास और त्याग क्या भिन्न-भिन्न हैं?
उत्तर:- अर्जुन यही प्रश्न तो श्रीकृष्ण से पूछ रहे हैं!
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषिकेश पृथक्केशिनिषूदन।।
न्यास का अर्थ है- त्याग, संन्यास का तात्पर्य है- अच्छी तरह से त्याग। श्रेष्ठ संन्यासी त्याग को कर्मों का त्याग कहते हैं, उनके लिये भोजन पकाना भी निषिद्ध है। भिक्षा से प्राप्त अन्न ही वे ग्रहण करते हैं। कुछ सभी कर्मों के फल को त्याग कहते हैं। वे सेवा आदि कर्मों का त्याग नहीं करते हैं, किन्तु उनके परिणाम की लालसा नहीं रखते। वाह्य रूप में संन्यास एवम् त्याग भिन्न हैं परन्तु आन्तरिक रूप से वे एक ही हैं।
छठे अध्याय के प्रथम श्लोक में कहा है—
अनाश्रित: कर्मफलम् कार्यम् कर्म करोति य।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय:।।
प्रश्नकर्ता:- सपना दीदी
प्रश्न:- गीता जिज्ञासु, गीता गुञ्जन, गीता पाठक का अर्थ तो समझ में आ गया है। गीताव्रती क्या है इसका नाम गीताव्रती क्यों रखा गया है?
उत्तर:- जिसने गीता के अट्ठारह अध्याय कण्ठस्थ कर लिये हैं वह गीताव्रती कहलायेगा। गीताव्रती मतलब गीता उसके जीवन का अब व्रत हो गया है, गीता मैया ही कण्ठ में आकर बैठ गई, गीता कण्ठस्थ हो गई, इसलिये वह गीताव्रती कहलाता है।
प्रश्नकर्ता:- मोहन भैया
प्रश्न:- सात्त्विक, राजसिक, तामसिक ये तीनों गुण हम सभी में विद्यमान होते हैं, हम लोगों ने पढ़ा कि कोई सात्त्विक, कोई राजसिक, कोई तामसिक गुणों वाला होता है, किन्तु जीवन में ऐसा देखने को मिलता है कि परिस्थिति के अनुसार तीनों गुण हम सभी में समय-समय पर प्रादुर्भूत होते हैं। सत्य क्या है?
उत्तर:- पूर्ण सात्त्विक, पूर्ण राजसिक, पूर्ण तामसिक कोई नहीं होता। हमें यह देखना है कि किस समय कौन सा गुण प्रबल हो जाता है। मेरा कर्म, बुद्धि, धैर्य कब किस गुण से आच्छादित हो जाते हैं, यह निरीक्षण करना है, इसका ज्ञान होने पर हम स्वयम् का उन्नयन कर सकते हैं, यह सम्भव नहीं कि एक ही गुण सदैव बना रहे, हाँ हम अपने सात्त्विक गुण को बढ़ा सकते हैं।
चतुर्दश अध्याय में श्रीभगवान ने बताया है-
रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वम् भवति भारत ।
रज: सत्त्वम् तमश्चैव तम: सत्त्वम् रजस्तथा।।
तीनों गुण एक दूसरे को दबाकर आगे बढ़ते हैं, आत्म-निरीक्षण द्वारा हम गुणों को नियन्त्रित कर सकते हैं, अर्थात् सत्त्वगुण को बढ़ा सकते है।
प्रश्नकर्ता:- उर्मिला दीदी
प्रश्न:- श्री गीता जी में कहा गया है कि हर कार्य के कर्ता-धर्ता श्रीभगवान ही हैं, तो क्या प्रत्येक कार्य हमसे श्रीभगवान ही करवाते हैं ?
उत्तर:- हमारे द्वारा जो भी कार्य होता है उसके पीछे की सम्पूर्ण शक्ति ईश्वर की ही है। हर जीव अपनी-अपनी इच्छानुसार कार्य करता है अत: इच्छा जीव की है शक्ति प्रभु की है। विद्युत हीटर में गर्म करती है किन्तु फ्रिज में ठण्डा करती है। शक्ति बिजली की है, कार्य करने वाला हीटर या फ्रिज है। इसी प्रकार जीव ईश्वर प्रदत्त शक्ति से अपनी इच्छानुसार ग़लत या सही कार्य करता है।
ॐ श्रीकृष्णार्पणमस्तु
।