विवेचन सारांश
अर्जुन के सात प्रश्न

ID: 4737
Hindi - हिन्दी
रविवार, 28 अप्रैल 2024
अध्याय 8: अक्षरब्रह्मयोग
1/3 (श्लोक 1-7)
विवेचक: गीता विशारद श्री श्रीनिवास जी वर्णेकर


पारम्परिक प्रार्थना, दीप प्रज्वलन, हनुमान चालीसा पाठ, भगवान् श्रीकृष्ण, गुरुदेव, भारत माता, गीता जी की प्रार्थना एवं परम पूज्य सद्गुरु गोविन्ददेव गिरि जी की वन्दना और गीता साधकों के अभिवादन के साथ सत्र आरम्भ हुआ।

आठवाँ अध्याय अक्षरब्रह्मयोग, एक गम्भीर अध्याय है। श्रीमद्भगवद्गीता हमें सिखाती है कि आनन्दमय जीवन किस प्रकार से जीना चाहिए। गीता जी सिखाती हैं - How to live happily. साथ ही यह भी सिखाती हैं कि इस संसार का त्याग करते समय मृत्यु को भी आनन्द से कैसे अपनाया जाए - How to leave this world happily.

मृत्यु भी आनन्दमय कैसे हो सकती है हमें भगवद्गीता यह भी सिखाती है।भगवद्गीता तो भव भय हारिणी है, सारे भय समाप्त करने वाली है।

मृत्यु की बात चलने से मनुष्य को भय लगता है। मृत्यु का भय नहीं करना चाहिए वरन् उस पर चिन्तन होना चाहिए। इस देह का अन्त होने वाला है। शरीर का कभी न कभी तो अन्त होगा। देहान्त आनन्दमय कैसे हो, अन्तिम क्षण आनन्दमय कैसे हो, यह भी हमें इस अध्याय से सीखना है। इस अध्याय का चिन्तन करने से आनन्द की प्राप्ति और अधिक होने लगती है।

अर्जुन के प्रश्न से इस अध्याय का प्रारम्भ होता है लेकिन प्रश्न पूछने के लिए भगवान ने ही अर्जुन को बाध्य किया। भगवान जगद्गुरु हैं और गुरु एक काउंसलर, परामर्शदाता भी होता है। एक अच्छा परामर्शदाता अपने श्रोता को सजग रखता है, उसको हमेशा दक्ष रखता है। श्रोता ध्यान से सुन रहा है या नहीं उसका ध्यान इसी तरफ लगा रहता है इसलिये भगवान ने ऐसे कुछ शब्दों का प्रयोग सातवें अध्याय, ज्ञानविज्ञानयोग, के अन्त में किया कि अर्जुन उन शब्दों का अर्थ पूछने के लिए बाध्य हो गए।


भगवान ने सातवें अध्याय के अन्तिम दो श्लोकों में कहा - 

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥7.29॥

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥7.30॥ 

यहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने कुछ अति महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया है -जैसे - ब्रह्म, कर्म, अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ आदि।

कोई नया शास्त्र सीखना है तो उसके पारिभाषिक शब्दों को सीखना पड़ता है।

कोई इञ्जीनियरिङ्ग, कम्प्यूटर साइन्स पढ़ता है तो उसको पारिभाषिक शब्द जैसे जीबी क्या है, टीबी क्या है, byte (बाइट) क्या है, megabyte/ gigabyte (मेगा बाइट/गीगा बाइट) आदि शब्दों को जानना होता है।

मेडिकल शास्त्र की पढ़ाई करने वाले को अनेक पारिभाषिक शब्दों को जानना पड़ेगा। यह आवश्यक ही है।

जिस प्रकार इन सभी विषयों को समझने के लिए पारिभाषिक शब्दावली का ज्ञान आवश्यक है उसी प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता भी एक शास्त्र है, ऐसा पुष्पिका में हम पढ़ते हैं - 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(म्) 'योगशास्त्रे'।

अर्थात् यह एक योग शास्त्र है। यह ब्रह्म विद्या और योग शास्त्र है। श्रीमद्भगवद्गीता को ब्रह्म विद्या कहा गया है, योग शास्त्र कहा गया है। इस शास्त्र के भी कुछ पारिभाषिक शब्द हैं जिन्हें जानना आवश्यक है। भगवान ने ऐसे शब्दों का यहाँ प्रयोग किया है - ब्रह्म, अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ- ऐसे शब्दों को सुनकर अर्जुन तुरन्त जाग्रत हो गए। अर्जुन ने इसी योग शास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली को समझना आवश्यक समझा। ये शब्द जो आप प्रयोग कर रहे हैं इनका अर्थ विस्तार से समझाइए ऐसा प्रश्न लेकर अर्जुन श्रीभगवान से प्रश्न पूछना प्रारम्भ करते हैं।


8.1

अर्जुन उवाच
किं(न्) तद्ब्रह्म किमध्यात्मं(ङ्), किं(ङ्) कर्म पुरुषोत्तम ।
अधिभूतं(ञ्) च किं(म्) प्रोक्तम्, अधिदैवं(ङ्) किमुच्यते ॥8.1॥

अर्जुन बोले -हे पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? आध्यात्म क्या है? कर्म क्या है ? अधिभूत किसको कहा गया है और अधिदैव किसको कहा जाता है?

8.1 writeup

8.2

अधियज्ञ:(ख्) कथं (ङ्) कोऽत्र, देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।
प्रयाणकाले च कथं (ञ्), ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥ 8.2॥

यहाँ अधियज्ञ कौन है और (वह) इस देह में कैसे है? हे मधुसूदन! वशीभूत अंतःकरण वाले मनुष्यों के द्वारा, अन्त काल में (आप) कैसे जानने में आते हैं?

विवेचन- पहले दो श्लोकों में अर्जुन ने भगवान से सात प्रश्न पूछे -

1. ब्रह्म क्या है?

2. अध्यात्म क्या है?

3. कर्म क्या है?

4. अधिभूत किसे कहते हैं?

5. अधिदैव किसे कहते हैं?

6. अधियज्ञ कैसा है, कौन है, इस देह में कहाँ रहता है और किस रूप में विद्यमान है?

7. अन्त में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न पूछते हुए अर्जुन कहते हैं कि प्रयाण काल अर्थात् मृत्यु का समय आने पर भी जो अपने चित्त को निरन्तर आप में लगाए रहते हैं वो आपको किस प्रकार से जान पाते हैं? आपको कैसे प्राप्त किया जा सकता है? देह त्याग के समय परम तत्त्व को कैसे जाना जा सकता है? 

श्रीमद्भगवद्गीता जी के सातवें अध्याय के अन्त में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥ 7.30॥

जिनका चित्त युक्त है, वे मृत्यु का समय आने पर भी मुझे जानते हैं। 

श्रीभगवान अर्जुन के पारिभाषिक प्रश्नों, संज्ञाओं के उत्तर परिभाषा के रूप में देते हैं लेकिन अन्तिम प्रश्न का उत्तर विस्तार में बताते हैं कि अन्तिम समय आने पर भगवान को कैसे जाना जा सकता है।

8.3

श्रीभगवानुवाच
अक्षरं(म्) ब्रह्म परमं(म्), स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो, विसर्गः(ख्) कर्मसञ्ज्ञितः ॥ 8.3॥

श्रीभगवान बोले- परम अक्षर ब्रह्म है (और) परा प्रकृति (जीव) को अध्यात्म कहते हैं, प्राणियों की सत्ता को प्रकट करने वाला त्याग कर्म कहा जाता है।

विवेचन: श्रीभगवान कहते हैं -

ब्रह्म - अर्जुन के प्रश्न ब्रह्म क्या है? इसका उत्तर देते हुए श्रीभगवान कहते हैं कि अक्षर ही ब्रह्म है। जो अक्षर है, जिसका कभी क्षय नहीं होता है, जिसका कभी क्षरण नहीं होता है, जो कभी कम नहीं होता है। जैसा था वैसा ही रहता है, परिवर्तित नहीं होता है। जो विशाल है, जो परम है, जो श्रेष्ठ है, वही ब्रह्म है।  

ब्रह्म शब्द ‘बृह्’ धातु से निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है विशाल। इतना बड़ा कि उससे विशाल कुछ नहीं है। परमात्मा की इतनी वृहद शक्ति है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। 

विज्ञान की दृष्टि से एक परमाणु का निर्माण करने में जितनी ऊर्जा लगती है वह बहुत अधिक होती है अथवा एक परमाणु का विभाजन करने से जिस ऊर्जा का निर्माण होता है वह अत्यन्त विशाल होती है। इसके थोड़े से कण की ऊर्जा बहुत वृहद होती है, विस्फोटक होती है। परमाणु बम बनता है और आणुविक केन्द्र का आधार बनते हैं।

आइन्सटाइन का समीकरण है - E=mc² 

थोड़े से वस्तुमान को ऊर्जा में परिवर्तित करने पर बहुत सारी ऊर्जा लगती है। इस ब्रह्माण्ड में कितने परमाणु हैं, शरीर में कितने परमाणु हैं, पता नहीं। शरीर पृथ्वी पर धूलि के समान है और पृथ्वी ब्रह्माण्ड मे धूलि के समान है। इन सारे वस्तुमान के निर्माण में जो ऊर्जा लगी है उसका अनुमान नहीं किया जा सकता। ब्रह्माण्ड के निर्माण में जो ऊर्जा लगी है यह चैतन्य ऊर्जा ही ब्रह्म है। जो सर्वदा है, सर्वत्र है, सर्वगम्य है, सर्वव्यापी है, सर्वगत है, कण-कण में विराजमान है, अत्यन्त व्यापक है इसलिए उसे ब्रह्म कहा गया है। वह अक्षर है, उसका क्षरण नहीं होता। भगवान कहते हैं, अक्षरं ब्रह्म परमं।

वास्तव में ब्रह्म को शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता, उसे देखा भी नहीं जा सकता, उसकी केवल अनुभूति ही की जा सकती है।

वास्तव में उस एक तत्त्व को छोड़कर अन्य किसी का अस्तित्व नहीं है। वह चैतन्य तत्त्व ही सर्वव्यापी है, सर्वत्र है, सर्वगत है, सर्वातीत है, सर्वश्रेष्ठ है, उसी से समस्त संसार का निर्माण हुआ है। वह ब्रह्म है, अक्षर है, इसका कभी भी क्षरण नहीं होता। 

अध्यात्म - अर्जुन जानना चाहते हैं कि अध्यात्म क्या है? वह असीमित ब्रह्म जो सर्वगत है, सर्वत्र है, सर्वव्यापी है, किसी देह में अंश रूप में प्रकट होता है और उस देह का चलन होता है। ब्रह्म का वह छोटा-सा अंश जीवात्मा ही अध्यात्म है। वह जानने योग्य है, उसे जानना है। 

जैसे सागर है। सागर का जल सागर में है और सागर का जल घड़े में रखा है। दोनों में जैसा नाता है वैसा ही परमात्मा और जीवात्मा में है। ब्रह्म विशाल है, सर्वत्र है, असीम है। अध्यात्म सीमित है। ऐसा ही अध्यात्म और ब्रह्म का नाता है। 

जीव को अध्यात्म कहा गया है। वह असीमित ब्रह्म सीमित रूप में देह में अंश रूप में प्रकट हो जाता है, जिसे हम कहते हैं जीव आ गया। यह जानना अध्यात्म है।

स्वभाव - हमारे मन में आता है कि यह मेरा स्वभाव है कि यह मुझे अच्छा लगता है, यह अच्छा नहीं लगता। मुझे यह भाता है, यह नहीं। मेरा स्वभाव नहीं यह प्राकृतिक भाव है जिसके कारण हमारे शरीर का निर्माण हुआ है। स्वभाव का अर्थ "मैं" पन का भाव है।


स्वस्य भाव: अर्थात् मैं कौन हूँ? मेरा भाव क्या है? भाव का अर्थ है पन।शरीर में, "मैं" कौन है, उसे भाव को जानना है। "मैं" पन की प्रतीति करने वाला भाव जिसके कारण मैं अस्तित्व में हूँ, जिसके कारण भाव निर्माण होता है उसे स्वभाव कहते हैं।

कोऽहम् अर्थात् मैं कौन हूँ? इसे जानना ही अध्यात्म है।

जैसे एक ही ब्रह्म है, परमात्मा है।

कर्म - जैसे शरीर प्रकट होता है वैसे ही संसार का निर्माण हुआ है।  परमब्रह्म द्वारा संसार निर्माण करने का जो मुख्य क्रम आरम्भ हुआ वह कर्म है। 

भूत का अर्थ है भवति इति भूत:। जिसका निर्माण हुआ है वे सब भूत हैं, अर्थात् उस परम ब्रह्म परमात्मा को छोड़कर सभी भूत है क्योंकि जो निर्मित होता है वह नष्ट होता ही है। संसार का निर्माण ही आदि कर्म, मुख्य कर्म है। अन्य सभी रासायनिक, भौतिक क्रियाएँ chain reactions हैं, प्रतिकर्म हैं। संसार का उद्भव ही मूल कर्म है।

परमात्मा को एक विचार आता है, 'एकोऽहं बहुस्याम:' इसे आदि सङ्कल्प' कहते हैं। मैं अकेला हूँ, मेरे साथ कोई होना चाहिए, ऐसा सङ्कल्प आते ही एक बड़ा विस्फोट हुआ जिससे संसार का निर्माण हुआ, यह कर्म है। आदि सङ्कल्प से जो निर्माण कार्य हुआ है, मात्र वह ही कर्म है। 

भूत भावो उद्भव करा - भूतभाव के निर्माण के क्रम में जो ऊर्जा का त्याग हुआ वह कर्म है। ऊर्जा के परिवर्तन से वस्तुमान का निर्माण हुआ उसे कर्म की संज्ञा दी गई।

8.4

अधिभूतं(ङ्) क्षरो भावः(फ्), पुरुषश्चाधिदैवतम् ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र, देहे देहभृतां(म्) वर ॥ 8.4॥

हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! क्षर भाव अर्थात् नाशवान् पदार्थ अधिभूत हैं, पुरुष अर्थात हिरण्यगर्भ ब्रह्मा अधिदैव हैं और इस देह में (अंतर्यामी रूप से) मैं ही अधियज्ञ हूँ।

विवेचन-

अधिभूत - जिसका क्षरण होता है, जो नाशवान है, जिसका परिवर्तन होता है, जो बदलता है, वह अधिभूत है। वे प्राणी मात्र, जिन्हें हम देखते हैं वे अधिभूत हैं।


प्राणी मात्र में क्या परिवर्तन होता है -
जायते - निर्माण होता है।
अस्ति - हैं
वर्धते - बढ़ते जाते हैं।
विविच्छते - विकृति आती है, बदल जाते हैं।
अपक्षीयते - क्षरण होता है।
विनश्यति – नष्ट हो जाते हैं, मृत्यु हो जाती है।

संसार में हम जो भी देखते हैं, अधिभूत सर्वत्र दिखाई देते हैं। ब्रह्म को हम नहीं देख पाते। संसार हर क्षण बदलता जा रहा है।

हमारे शरीर में नई-नई कोशिकाएँ हैं - अस्ति, बनती हैं - जायते, बढ़ती हैं, विकसित होती हैं - वर्धते, विकृति आती है - विविच्छते, नष्ट हो जाती हैं - विनश्यति नया जन्म लेती हैं। संसार में यह प्रक्रिया सतत् चल रही है। संसार में परिवर्तन ही स्थिर है।

एक प्रसिद्ध पाश्चात्य दार्शनिक कहते हैं - 

You can not wash your hands in the same river again. 

आप उसी नदी में अपने हाथ फिर से नहीं धो सकते क्योंकि नदी का स्वरूप प्रत्येक क्षण परिवर्तित होता रहता है, बदलता रहता है, वह निरन्तर बह रही है।

भूतमात्र के शरीर का भी परिवर्तन होता है।

आकाश में ग्रह नक्षत्र स्थिर नहीं हैं। जिस दिन ये स्थिर हो जाएँगे वे नष्ट हो जाएँगे। गति के कारण ही वे अस्तित्व में हैं।

अधिदैव - जो पुरुष तत्त्व है, जो परमब्रह्म हैं उनसे आदिमाया, आदिशक्ति का निर्माण हुआ है। आदिशक्ति से ब्रह्मा जी और अन्य देवताओं का निर्माण हुआ है, ये सब दैव हैं।

अधिदैव परम ब्रह्म और अधिभूतों के मध्य में होते हैं। इनका भी जीवनमान होता है, क्षरण होता है।

ब्रह्मा जी का दिन कितना बड़ा है यह बताया है -

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः।।8.17।।

लगभग चवालीस लाख वर्षों का एक दिन है और चवालीस लाख वर्षों की एक रात है। ऐसे सौ वर्षों का जीवनमान ब्रह्मा जी का है।

अधिदैव Bridging हैं अर्थात् जोड़ने वाले हैं। ब्रह्माजी और देवता हैं जो परमात्मा और अधिभूतों के बीच हैं। इनका भी क्षरण होता है लेकिन बहुत अधिक आयु होने के कारण ये हमारे लिए अमर जैसे हैं।

जैसे किसी बड़े अधिकारी तक पहुँचना है तो उसके पास जाने के लिए सेक्रेटरी या पी.ए. आदि का सहारा लेना पड़ता है या कहीं से चिट्ठी लानी पड़ती है। ये अधिदैव परमात्मा के पास पहुँचने के लिए यही कार्य करते हैं।


अधियज्ञ - इस देह में अधियज्ञ मैं ही हूँ। स्वयं परमात्मा ही अंश रूप में विराजमान हैं। वे हमारे द्वारा होने वाले सभी कार्यों को जानते हैं। अर्जुन देहधारियों में श्रेष्ठ हैं, नर श्रेष्ठ हैं इसलिये भगवान अर्जुन को कह रहे हैं –

देहे देहभृतां वर।

अर्जुन के अन्तिम प्रश्न प्रयाण काल में आपको कैसे जान सकते हैं? इसके उत्तर में,

भगवान् ने सातवें में अध्याय में कहा है -

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥7.30॥

जिन्होंने स्वयं पर नियन्त्रण करते हुए अपने चित्त को मुझमें लगा रखा है, वे मुझे जानते हैं और मुझे ही प्राप्त होते हैं।

8.5

अन्तकाले च मामेव, स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः(फ्) प्रयाति स मद्भावं(म्), याति नास्त्यत्र संशयः॥ 8.5॥

जो मनुष्य अन्तकाल में भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़ कर जाता है, वह मेरे स्वरूप को ही प्राप्त होता हैं, इसमें सन्देह नहीं है।

विवेचन - साक्षात् परमब्रह्म परमात्मा घनीभूत होकर श्रीकृष्ण के रूप में अर्जुन के सामने बोल रहे हैं कि अन्तकाल में मृत्यु के समय में जो मेरा ही चिन्तन करते हैं, स्मरण करते हैं, वे शरीर से मुक्त हो जाते हैं। जो इस प्रकार से देहत्याग करते हैं वह मेरे ही भाव को प्राप्त हो जाते हैं, मुझे ही प्राप्त हो जाते हैं, एकीकृत हो जाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है। पर हमारी मृत्यु कब आएगी यह हमें ज्ञात नहीं है इसलिए हमें मृत्यु को ध्यान में रखकर सदैव परमात्मा का चिन्तन करना चाहिए।

स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा कि यदि आपने केवल जीवन का विचार किया, मृत्यु का विचार नहीं किया तो आपने परम सत्य का आधा ही दर्शन किया है। आधा सत्य ही जाना, मृत्यु के सच को नहीं जाना।

आनन्दमय देह त्याग कैसे करना है, आनन्दमय जीवन जीने के साथ भगवद् परायण हो गया तो हमारा जीवन ही सार्थक हो जाएगा।

आप किस भाव में देह त्याग करते हैं यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। अन्तकाल आने पर भगवान का चिन्तन करते हुए जो शरीर का त्याग करता है वह भगवान के भाव को प्राप्त कर लेता है अर्थात् परम तत्त्व के साथ एकाकार हो जाता है। अन्तिम क्षण में भगवान की स्तुति  - स्मृति हो गई तो मृत्यु आनन्दमय होगी। यह कैसे सम्भव हो सकता है इसे श्रीभगवान आगे के श्लोक में बताते हैं।

8.6

यं(म्) यं(म्) वापि स्मरन्भावं(न्), त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं(न्) तमेवैति कौन्तेय, सदा तद्भावभावितः ॥ 8.6॥

हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! (मनुष्य) अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव का स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह उस (अंतकाल के) भाव से सदा भावित होता हुआ उस- उस को ही प्राप्त होता है अर्थात् उस - उस योनि में ही चला जाता है।

विवेचन - भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मृत्यु के समय मनुष्य जिस भाव का स्मरण करते हुए अपने शरीर का त्याग करता है उसको वह प्राप्त हो जाता है।

इसे एक उदाहरण से समझते हैं -

सारा साल लेन-देन का व्यापार चलता रहता है। उसका उधार देना है, अमुक से लेना है। जैसे ही इकतीस मार्च आती है हम सारा हिसाब बन्द कर देते हैं। जैसे इकतीस मार्च को बैलेन्सशीट बनाते है, उसमें Profit (लाभ) और loss (हानि) को अङ्कित करते हैं। व्यापार  कितना भी हो, लाभ और हानि की सङ्ख्या निश्चित हो जाती है और अगले Financial year (वित्तीय वर्ष) में प्रारम्भिक शेष के लिए लागू हो जाती है। अन्तिम शेष पिछले वर्ष का समापन शेष और नये वर्ष का प्रारम्भिक शेष हो जाता है।


वैसे ही इस जन्म का समापन शेष नए जन्म के लिए प्रारम्भिक शेष हो जाता है अर्थात् अगले जन्म में प्रारम्भिक शेष वही होगा जो आप अन्तिम क्षणों में सोचते हैं। शरीर का त्याग करते समय जो चिन्तन हम करते हैं, उन्हीं विचारों को लेकर हम आगे जाते हैं।

भगवान आगे श्लोक में बताते हैं कि अन्तकाल में परमात्मा का स्मरण कैसे हो, इसके लिए क्या प्रयास करना होगा।

8.7

तस्मात्सर्वेषु कालेषु, मामनुस्मर युध्य च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धि:(र्), मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥ 8.7॥

इसलिए (तू) सब समय में मेरा स्मरण कर (और) युद्ध भी कर। मुझमें मन और बुद्धि अर्पित करने वाला (तू) निःसन्देह मुझे ही प्राप्त होगा।

विवेचन - हम मृत्यु का चिन्तन नहीं करते।

इस सम्दर्भ में एक सुन्दर कथा है -


एक बार एक व्यापारी सन्त एकनाथ महाराज जी के पास गया। चरण स्पर्श करके बोला कि वह बहुत पापी है, उसने जीवन में बहुत पाप किये हैं। मैं आपको देखता हूँ कि आपके मन में पाप का विचार भी नहीं आता, ऐसा कैसे सम्भव हो पाता है। वह इतने सारे पुण्य कैसे कर पाते हैं। सन्त एकनाथ महाराज जी ने उसके हाथ की रेखाएँ देख कर कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि एक सप्ताह के भीतर उसकी मृत्यु निश्चित है। यह सुनकर वह डर गया और वहाँ से चला गया। आज मेरी मृत्यु निश्चित है ऐसा सोचते सात दिन बीत गए। आठवें दिन जब सुबह सो कर उठा तो उसे आश्चर्य हुआ कि वह जीवित है। एकनाथ महाराज के पास जाकर बोला कि आपने कहा था कि वह मरने वाला है। एकनाथ महाराज ने उससे पूछा कि सात दिनों में उसने कितने पाप किये। व्यापारी ने कहा कि सात दिनों में मरना है यह विचार कर उसने एक भी पाप नहीं किया अपितु दान-पुण्य, सत्कर्म किये। एकनाथ महाराज जी ने कहा कि यह मेरे जीवन का अन्तिम दिन है, ऐसा सोचकर मैं भी पुण्य कर्म करता हूँ।

मनुष्य को अपनी मृत्यु के बारे में अवश्य सोचना है। अन्तिम समय में मेरा स्मरण कैसे करना है। यह सोचकर वह पाप कर्म छोड़कर दान-पुण्य करता रहा। एकनाथ महाराज ने बताया कि वे भी यह सोच कर कि आज उनका अन्तिम दिन है, अच्छे कर्म करते हैं।

ईश्वर का ध्यान करने के लिए रोज ईश्वर का चिन्तन करना पड़ेगा। तस्मात् का अर्थ है इसलिये। भगवान जहाँ भी तस्मात् कहते हैं इसका तात्पर्य है कि इसे ध्यान से सुने। भगवान कहते हैं कि अन्तकाल में मेरा स्मरण हो इसलिये हर समय, हर क्षण में मेरा स्मरण करो किन्तु अपना कर्म करते रहो। जो भी तुम्हारा कर्त्तव्य कर्म है उसे करते हुए मेरा स्मरण करते रहो।


इसे एक उदाहरण से समझते हैं-


किसी कार्यक्रम में जाते हैं। वहाँ फोटोग्राफर होते हैं जो फोटो खीञ्चते रहते हैं। हमारी इच्छा रहती है कि हमारी फोटो अच्छी हो, मुस्कुराता चित्र आए। हम चाहते हैं कि हमारी फोटो अच्छी आए लेकिन फोटोग्राफर कब फोटो खीञ्च ले यह पता नहीं। यदि मैं अभ्यास करके मुस्कुराता रहूँगा तो फोटोग्राफर कभी भी फोटो खीञ्चे, फोटो मुस्कुराते हुए ही आएगी।

भगवान कहते हैं कि हर काल में मेरा स्मरण करो, युद्ध करते समय भी। इसके लिए अपने मन और बुद्धि को मुझे अर्पित कर दो। ऐसा अभ्यास से ही सम्भव है।

बुद्धि विश्लेषण करती है, उचित और अनुचित क्या है , बुद्धि निश्चय करती है, निश्चयात्मक होती है।

मन का कार्य है – भाव, मन भावात्मक होता है। प्रेम भाव निर्माण होता है, द्वेष का भाव, आसक्ति का भाव, प्रेम करना।

भगवान कहते हैं कि मन से प्रेम करना और बुद्धि से विचार करना कि परमात्मा कैसा है। भगवान कहते हैं कि तुम मुझे प्राप्त कर लोगे।

गोपियों को भगवान का स्मरण करते समय माला की आवश्यकता नहीं होती। वे गोपी भाव से भगवान को याद रखती हैं। गोपी भाव से सतत् स्मरण करती हैं।

कोई भी काम करते समय सोचते हैं कि हम यह कैसे कर पाएँगे? कर्म करते-करते यदि अभ्यास करेंगे तो ऐसा हम कर पाएँगे। कोई भी कार्य निरन्तर करने से धीरे-धीरे हम (एक्सपर्ट) निपुण हो जाते हैं। एक बार निपुणता प्राप्त करने के बाद हम उसके साथ दूसरा कार्य भी कर सकते हैं

यदि कोई साइकिल चलाना सीखता है या तैरना सीखना है तो साइकिल चलाते समय उसको सन्तुलन बनाना सीखना पड़ता है लेकिन जब वह दक्ष हो जाता है तो उसे कुछ सोचना नहीं पड़ता।


इसी प्रकार तैरना सीखते समय पहले पूरा ध्यान हाथ-पैर और साँस पर रहता है लेकिन एक बार जब तैरना सीख जाते हैं तो तैराक को कुछ करना नहीं पड़ता। वह सरलता से तैरने लगता है, float भी करने लगता है।

बारहवें अध्याय में भगवान ने कहा - 


मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः।।12.8।।

अभ्यास से तुम मुझ में निवास करने लगोगे। हम विषयों में फँसे रहते हैं, बुद्धि उसी में लगी रहती है, मन वहीं रहता है।

ज्ञानेश्वर महाराज जी कहते हैं कि हमारा स्वभाव सीमित है इसलिये यदि हमारा मन सदैव भगवान में लगा रहेगा तो हम उसी के साथ एकरूप हो जाएँगे। हमें परमात्मा के साथ एकरूप हो जाना, व्यापक हो जाना है। सीमितता से व्यापकता प्राप्त करना है। जहाँ हमारा मन रहता है वहीं हम रहते हैं, हमारी आत्मा रहती है।

यत्रैव यत्रैव मनो मदीयं तत्रैव तत्रैव तवस्वरूपम्।

यदि अपना मन और बुद्धि मुझ में लगा दोगे तो जैसा मैं व्यापक हूँ, तुम भी वैसे ही व्यापक हो जाओगे। जीवात्मा परमात्मा के साथ एकरूप हो जाए इसके लिए उसे व्यापक का चिन्तन करना होगा।

इसी के साथ इस गूढ़ अध्याय का समापन हुआ।

विचार मन्थन(प्रश्नोत्तर):-

प्रश्नकर्ता: कोमल शर्मा जी 
प्रश्न : बाल्य अवस्था में, माता-पिता के आदेश से की गई ग़लती का पाप बन्धन कितना रहता है। बड़े हो जाने पर की गई ग़लती के बन्धन से ये अलग है क्या, कृपया बताएँ? 
उत्तर: बाल्य अवस्था में की गई ग़लती अनजाने में की जाती है इसलिये उसका पाप नहीं लगता। बाल्य अवस्था में माता-पिता के ग़लत आदेश के पालन का दोष बालक को नहीं लगता क्योंकि उसे अच्छे-बुरे का पता नहीं होता। पाप माता-पिता को लगेगा। बड़े हो जाने पर की गई ग़लती  के कर्म बन्धन चिपकते हैं। अपने सारे अच्छे-बुरे कर्म भगवान को समर्पित कर देने से, पाप-पुण्य दोनों से मुक्ति हो जाती है।

प्रश्नकर्ता: मनीषा शर्मा जी 
प्रश्न :
पुण्य करने पर अहङ्कार बहुत जल्दी आ जाता है। इतना गीता जी का पाठ करने पर भी आ जाता है इससे कैसे बच सकते हैं?
उत्तर: 
अहङ्कार अति सूक्ष्म व बलशाली है। अपने अच्छे कर्म नित्य भगवान को अर्पण करते जायेंगे तो धीरे-धीरे कम होगा। यह आसानी से नहीं छूटेगा, सारे कर्म भगवान को समर्पित करने का सतत् अभ्यास करना होगा तभी इसको कम किया जा सकता है।

प्रश्नकर्ता: गीता चावला जी 
प्रश्न :
वेदव्यास जी ने दिव्य दृष्टि सञ्जय को ही क्यों प्रदान की, धृतराष्ट्र को क्यों नहीं?
उत्तर:
सञ्जय भगवान् वेदव्यास जी के आज्ञाकारी शिष्य हैं इसलिये उन्हें दिव्य दृष्टि प्रदान की गई। धृतराष्ट्र वेदव्यास जी के शिष्य नहीं हैं। धृतराष्ट्र अत्यन्त अहङ्कारी हैं। चर्मचक्षु ही नहीं ज्ञानचक्षु से विहीन है। गीता जी के पहले श्लोक में (उनके एकमात्र श्लोक) ही उनकी मनोदशा स्पष्टता से दिखाईं पड़ती है। मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया।? यह उनकी विकृत मानसिकता को दर्शाता है।
  ।। ॐ श्रीकृष्णार्पणमस्तु।।