विवेचन सारांश
दैवीय गुणों की पहचान
आज के विवेचन सत्र का आरम्भ प्रारम्भिक प्रार्थना और दीप प्रज्वलन से हुआ। भगवान की हम पर असीम अनुकम्पा है जो हम इस पथ की ओर बढ़ रहे हैं। श्रीमद्भगवद्गीता की प्रस्तावना में श्री जयदयाल जी गोयन्दका जी ने लिखा है कि समस्त शास्त्रों का अवलोकन करने के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि श्रीमद्भगवद्गीता के समान कोई अन्य ग्रन्थ नहीं है जो मानव मात्र का कल्याण कर सके।
आदि शङ्कराचार्य जी ने भजगोविन्दम् स्तोत्र में कहा है-
भज गोविन्दम भज गोविन्दम,
आदि शङ्कराचार्य जी ने भजगोविन्दम् स्तोत्र में कहा है-
भज गोविन्दम भज गोविन्दम,
भज गोविन्दम मूढ़मते।
भगवद्गीता किञ्चिदधीता,
गङ्गा जललव कणिकापीता।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा,
क्रियते तस्य यमेन न चर्चा॥20॥
जिसने जीवन में थोड़ा सा भी श्रीमद्भगवद्गीता को धारण कर लिया, गङ्गाजल की एक बूँद का भी पान कर लिया और भगवान के नाम की जो चर्चा करता है, जिसने जीवन में यह तीन बातें कर ली यमराज उसके नाम की चर्चा करने से भी घबराता है। उसके जीवन का कल्याण निश्चित है। स्वयं भगवान ने भी श्रीमद्भगवद्गीता में यही बात कही है। अट्ठारहवें अध्याय के अड़सठवें श्लोक में श्रीभगवान ने स्पष्ट कर दिया है कि जो इस गीता को पढ़ता है वह मुझे प्राप्त होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
जिसने जीवन में थोड़ा सा भी श्रीमद्भगवद्गीता को धारण कर लिया, गङ्गाजल की एक बूँद का भी पान कर लिया और भगवान के नाम की जो चर्चा करता है, जिसने जीवन में यह तीन बातें कर ली यमराज उसके नाम की चर्चा करने से भी घबराता है। उसके जीवन का कल्याण निश्चित है। स्वयं भगवान ने भी श्रीमद्भगवद्गीता में यही बात कही है। अट्ठारहवें अध्याय के अड़सठवें श्लोक में श्रीभगवान ने स्पष्ट कर दिया है कि जो इस गीता को पढ़ता है वह मुझे प्राप्त होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥68॥
एक बार गीता भवन में गुरु रामसुखदास जी ने अपने प्रवचन में कहा कि आप सब जितने भी यहाँ बैठे हैं, सबका मोक्ष निश्चित है। सब प्रसन्न होकर एकटक निगाह से स्वामी जी को देखने लगे कि स्वामी जी आगे क्या कहने वाले हैं? कुछ देर बाद स्वामी जी बोले कि मोक्ष निश्चित है परन्तु यह सब की अपनी-अपनी गति पर निर्भर करेगा। स्वामी जी ने कहा कि यह तुम्हारी लगन, श्रद्धा और पुरुषार्थ पर निर्भर है कि तुम इस जीवन में प्राप्त करोगे या अगले जीवन में या उससे अगले जीवन में। इस प्रकार हम सबका भी मोक्ष निश्चित है क्योंकि हम श्रीमद्भगवद्गीता के मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं परन्तु यह हमारी गति पर निर्भर करेगा।
हमारे शास्त्रों में पाँच 'ग' के बारे में वर्णन किया गया है- गाय, गङ्गा, गायत्री, गोविन्द और गीता। इन पाँचों को जो धारण कर लेता है वह भवसागर से पार हो जाता है। भगवद्गीता में ये पाँचो मिल जाते हैं।
एक बार गीता भवन में गुरु रामसुखदास जी ने अपने प्रवचन में कहा कि आप सब जितने भी यहाँ बैठे हैं, सबका मोक्ष निश्चित है। सब प्रसन्न होकर एकटक निगाह से स्वामी जी को देखने लगे कि स्वामी जी आगे क्या कहने वाले हैं? कुछ देर बाद स्वामी जी बोले कि मोक्ष निश्चित है परन्तु यह सब की अपनी-अपनी गति पर निर्भर करेगा। स्वामी जी ने कहा कि यह तुम्हारी लगन, श्रद्धा और पुरुषार्थ पर निर्भर है कि तुम इस जीवन में प्राप्त करोगे या अगले जीवन में या उससे अगले जीवन में। इस प्रकार हम सबका भी मोक्ष निश्चित है क्योंकि हम श्रीमद्भगवद्गीता के मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं परन्तु यह हमारी गति पर निर्भर करेगा।
हमारे शास्त्रों में पाँच 'ग' के बारे में वर्णन किया गया है- गाय, गङ्गा, गायत्री, गोविन्द और गीता। इन पाँचों को जो धारण कर लेता है वह भवसागर से पार हो जाता है। भगवद्गीता में ये पाँचो मिल जाते हैं।
गीता को गाय की उपमा श्रीभगवान ने दी है:
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपाल नन्दनः।
पार्थो: वत्स सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्॥
अर्थात् सभी उपनिषद् गाय हैं और उनको दुहने वाला गोपाल नन्दन श्रीकृष्ण है।
भगवद्गीता के दसवें अध्याय के श्लोक सङ्ख्या इकतीस में 'स्रोतसामस्मि जाह्नवी' (अर्थात् नदियों में मैं गङ्गा हूँ) तथा श्लोक सङ्ख्या पैंतीस में 'गायत्री छंदसामहम्' (अर्थात् छन्दों में मैं गायत्री छन्द हूँ) कहा है। यह कहने वाले स्वयं गोविन्द हैं।
इस प्रकार उपरोक्त पाँचों 'ग' हमें श्रीमद्भगवद्गीता में मिल जाते हैं।
अट्ठारहवें अध्याय के अड़सठवें और उनहत्तरवें श्लोक में श्रीभगवान ने स्पष्ट कर दिया है कि जो इस गीता को पढ़ता है वह मुझे प्राप्त हो जाता है। पात्रता में कोई कमी नहीं है, स्वयं भगवान ने हमें चुनकर इस मार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया है, उस मार्ग पर तेज गति से चलना यह हमारी जिम्मेदारी है।
संसार की कामनाएँ, वासनाएँ, परिवार का मोह, सम्पत्ति का लाभ, अपनी उपलब्धियों का अहङ्कार आदि यह सब हमारे मार्ग में आने वाले बड़े आकर्षक माया रुपी बिन्दु हैं, इसी आकर्षण के चक्कर में कई बार सैकड़ो, हजारों जन्म भी बीत जाते हैं।
बारहवें अध्याय भक्तियोग में भगवान ने भक्ति के उनतालीस लक्षण बताए हैं और पन्द्रहवें अध्याय में भगवान ने अपना पता बताया है, ज्ञानयोग से उनकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? यह भी बताया और अपने पुरुषोत्तम स्वरूप का भी वर्णन किया।
आज हम सोलहवें अध्याय पर पहुँचे हैं, जिसका नाम है- दैवासुरसम्पद्विभागयोग। दैवी और आसुरी प्रवृत्ति।
मनुष्य जाति में मूलतः दो ही प्रवृत्ति के मनुष्य पाए जाते है- दैवी या आसुरी। वैसे तो मनुष्यों में बहुत सी भिन्नता रहती है, जैसे कोई गोरा है, कोई काला है, अमीर है या गरीब है। अगर मनुष्य दैवीय प्रवृत्ति का है तो वह संस्कारी होगा। वह मनुष्य सबका कल्याण करने की प्रवृत्ति रखता होगा, सबके लिए अच्छा बोलता होगा व किसी की भी निन्दा नहीं करता होगा।
बारहवें अध्याय में भगवान ने कहा है-
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र सम्बुद्धय: |
भगवद्गीता के दसवें अध्याय के श्लोक सङ्ख्या इकतीस में 'स्रोतसामस्मि जाह्नवी' (अर्थात् नदियों में मैं गङ्गा हूँ) तथा श्लोक सङ्ख्या पैंतीस में 'गायत्री छंदसामहम्' (अर्थात् छन्दों में मैं गायत्री छन्द हूँ) कहा है। यह कहने वाले स्वयं गोविन्द हैं।
इस प्रकार उपरोक्त पाँचों 'ग' हमें श्रीमद्भगवद्गीता में मिल जाते हैं।
अट्ठारहवें अध्याय के अड़सठवें और उनहत्तरवें श्लोक में श्रीभगवान ने स्पष्ट कर दिया है कि जो इस गीता को पढ़ता है वह मुझे प्राप्त हो जाता है। पात्रता में कोई कमी नहीं है, स्वयं भगवान ने हमें चुनकर इस मार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया है, उस मार्ग पर तेज गति से चलना यह हमारी जिम्मेदारी है।
संसार की कामनाएँ, वासनाएँ, परिवार का मोह, सम्पत्ति का लाभ, अपनी उपलब्धियों का अहङ्कार आदि यह सब हमारे मार्ग में आने वाले बड़े आकर्षक माया रुपी बिन्दु हैं, इसी आकर्षण के चक्कर में कई बार सैकड़ो, हजारों जन्म भी बीत जाते हैं।
बारहवें अध्याय भक्तियोग में भगवान ने भक्ति के उनतालीस लक्षण बताए हैं और पन्द्रहवें अध्याय में भगवान ने अपना पता बताया है, ज्ञानयोग से उनकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? यह भी बताया और अपने पुरुषोत्तम स्वरूप का भी वर्णन किया।
आज हम सोलहवें अध्याय पर पहुँचे हैं, जिसका नाम है- दैवासुरसम्पद्विभागयोग। दैवी और आसुरी प्रवृत्ति।
मनुष्य जाति में मूलतः दो ही प्रवृत्ति के मनुष्य पाए जाते है- दैवी या आसुरी। वैसे तो मनुष्यों में बहुत सी भिन्नता रहती है, जैसे कोई गोरा है, कोई काला है, अमीर है या गरीब है। अगर मनुष्य दैवीय प्रवृत्ति का है तो वह संस्कारी होगा। वह मनुष्य सबका कल्याण करने की प्रवृत्ति रखता होगा, सबके लिए अच्छा बोलता होगा व किसी की भी निन्दा नहीं करता होगा।
बारहवें अध्याय में भगवान ने कहा है-
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र सम्बुद्धय: |
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता: || 12•4||
ब्रह्मलीन स्वामी राघवेन्द्राचार्य जी ने कहा है कि यह शरीर संसार की सेवा के लिए है। वृन्दावन के एक महान सन्त प्रज्ञा चक्षु शरणानन्द जी महाराज जी का एक प्रसिद्ध वाक्य है- संसार योग्यता की नहीं उपयोगिता का सम्मान करता है।
अगर व्यक्ति आसुरी प्रवृत्ति का होगा तो उसमें तामसिक प्रवृत्ति होगी, राजसी प्रवृत्ति होगी और वह सबकी निन्दा करता हुआ घूमेगा या फिर अहङ्कार करेगा, बहुत अधिक विचार नहीं करेगा। जो भी उसके मन में आता है उस कार्य को कर देगा। ऐसा मनुष्य स्वार्थी होगा और अपने स्वार्थ के आगे उसे कुछ भी दिखाई नहीं देगा।
प्रश्न यह आता है कि क्या हम रजोगुण, सत्त्व गुण और तमोगुण तीनों को स्वयं के भीतर अनुभव कर सकते हैं? हमारी सात्त्विकता कैसे स्थिर हो? तामसिक व्यक्ति में भी कुछ अच्छाई होती है। तामसिक वृत्ति सात्त्विक कैसे हो?
इसके लिए कबीरदास जी का एक बहुत ही अच्छा भजन है-
ब्रह्मलीन स्वामी राघवेन्द्राचार्य जी ने कहा है कि यह शरीर संसार की सेवा के लिए है। वृन्दावन के एक महान सन्त प्रज्ञा चक्षु शरणानन्द जी महाराज जी का एक प्रसिद्ध वाक्य है- संसार योग्यता की नहीं उपयोगिता का सम्मान करता है।
अगर व्यक्ति आसुरी प्रवृत्ति का होगा तो उसमें तामसिक प्रवृत्ति होगी, राजसी प्रवृत्ति होगी और वह सबकी निन्दा करता हुआ घूमेगा या फिर अहङ्कार करेगा, बहुत अधिक विचार नहीं करेगा। जो भी उसके मन में आता है उस कार्य को कर देगा। ऐसा मनुष्य स्वार्थी होगा और अपने स्वार्थ के आगे उसे कुछ भी दिखाई नहीं देगा।
प्रश्न यह आता है कि क्या हम रजोगुण, सत्त्व गुण और तमोगुण तीनों को स्वयं के भीतर अनुभव कर सकते हैं? हमारी सात्त्विकता कैसे स्थिर हो? तामसिक व्यक्ति में भी कुछ अच्छाई होती है। तामसिक वृत्ति सात्त्विक कैसे हो?
इसके लिए कबीरदास जी का एक बहुत ही अच्छा भजन है-
सन्तन के सङ्ग लाग रे तेरी अच्छी बनेगी।
अच्छी बनेगी तेरी बिगड़ी बनेगी, तेरो बहु बड़ भाग रे, तेरी अच्छी बनेगी।
सन्तन के सङ्ग पुण्य कमाई, रामचरण अनुराग रे। तेरी अच्छी....
ध्रुव जी की बन गई, प्रह्लाद जी की बन गई, हरि सुमिरन में लाग रे। तेरी अच्छी.....
कागा से तोहे हंस करेंगे, मिट जाए उर के दाग रे। तेरी अच्छी...
मोह निशा में बहुत दिन सोए, जाग सके तो अब जाग रे। तेरी अच्छी....
सुत बित नारी तीन आशाएँ, त्याग सके तो त्याग रे। तेरी अच्छी...
कहत कबीर राम सुमिरन में, पाग सको तो पाग रे तेरी अच्छी बनेगी।
सन्तन के सङ्ग लाग रे तेरी अच्छी बनेगी।।
तेरो बड़भाग रे तेरी अच्छी बनेगी।
तामसिक वृत्ति सात्त्विक कैसे हो? इसके लिये मनुष्य को हमेशा सत्सङ्ग करना चाहिए। ऐसे अच्छे लोगों का साथ करना चाहिए जिनके साथ बैठकर वह समाज के लिए कुछ अच्छा कर सके। हमें अपने दैवीय गुणों का साक्षात्कार करने के लिए भगवान ने सोलहवें अध्याय के पहले तीन श्लोकों में छब्बीस गुणों की सूची दी है।
भगवान ने दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ की सूची दी है, बारहवें अध्याय में भक्त के लक्षण बताए हैं, तेरहवें अध्याय में भगवान ने ज्ञानी के लक्षण बताए, चौदहवें में गुणातीत के और सोलहवें अध्याय में दैवीय गुण बताए हैं।
तेरो बड़भाग रे तेरी अच्छी बनेगी।
तामसिक वृत्ति सात्त्विक कैसे हो? इसके लिये मनुष्य को हमेशा सत्सङ्ग करना चाहिए। ऐसे अच्छे लोगों का साथ करना चाहिए जिनके साथ बैठकर वह समाज के लिए कुछ अच्छा कर सके। हमें अपने दैवीय गुणों का साक्षात्कार करने के लिए भगवान ने सोलहवें अध्याय के पहले तीन श्लोकों में छब्बीस गुणों की सूची दी है।
भगवान ने दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ की सूची दी है, बारहवें अध्याय में भक्त के लक्षण बताए हैं, तेरहवें अध्याय में भगवान ने ज्ञानी के लक्षण बताए, चौदहवें में गुणातीत के और सोलहवें अध्याय में दैवीय गुण बताए हैं।
16.1
श्रीभगवानुवाच
अभयं(म्) सत्त्वसंशुद्धिः(र्), ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं(न्) दमश्च यज्ञश्च, स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।16.1।।
श्रीभगवान बोले – भय का सर्वथा अभाव; अन्तःकरण की अत्यंत शुद्धि; ज्ञान के लिये योग में दृढ़ स्थिति; सात्त्विक दान; इन्द्रियों का दमन; यज्ञ; स्वाध्याय; कर्तव्य-पालन के लिये कष्ट सहना और शरीर-मन-वाणी की सरलता।
विवेचन- श्रीभगवान ने इस अध्याय के आरम्भिक तीन श्लोकों में सात्त्विक व्यक्ति के छब्बीस गुण बताए हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने-
अभय- सबसे पहला गुण बताया। जब तक जीवन में अभयता का गुण नहीं आएगा तब तक सत्य नहीं आएगा व धर्म भी नहीं आएगा इसलिए अभय पहला गुण है। हम अलग-अलग तरह के भय से ग्रसित होते हैं, किसी को अनहोनी का डर सताता है, कोई छिपकली से डरता है, कोई जल से डरता है, कोई ऊँचाई से डरता है आदि।
भय दो तरह के होते हैं। एक सात्त्विक भय है जो हमें गलत रास्ते पर जाने से रोकता है। गुरु का और अपने परिवार के बड़ों का भय व्यक्ति को गलत रास्ते पर जाने से रोकता है। जो जितना गुरु और बड़ों के सङ्ग रहता है और उनकी शरण लेता है वह उतना ही सात्त्विकता की ओर चल पड़ता है और यदि व्यक्ति अपनी मर्जी से कार्य करने का अभ्यस्त हो जाए और बड़ों का और गुरु का सङ्ग न करे तो उसमें तामसिक प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। 'मैं चाहे यह करूँ', 'मैं चाहे वह करूँ', 'मेरी मर्जी,' यह निरङ्कुशता है। ऐसी निर्भयता विचारहीन और दिशाहीन है।
पूज्य स्वामी रामसुखदास जी का कथन है कि बेपरवाह रहिये, लापरवाही मत कीजिए।
लापरवाही और बेपरवाही में अन्तर होता है। लापरवाही और बेपरवाही एक दूसरे के विपरीत शब्द हैं। बेपरवाह व्यक्ति वह है जिसे परवाह नहीं होती। जैसे साधु, शाम को भोजन कहाँ से प्राप्त होगा? उसे कोई परवाह नहीं होती। उसे विश्वास है कि भगवान व्यवस्था करेंगे। ऐसे ही बच्चा बेपरवाह होता है परन्तु लापरवाह मार्ग में चयन का विचार नहीं रखता।
बेपरवाह व्यक्ति मञ्जिल की ओर बढ़ता जाता है और मञ्जिल क्या है इस बात की परवाह नहीं करता पर हमेशा सही मार्ग का चयन करने का प्रयास करता है।
सन्त कबीर से किसी ने पूछा क्या आपको भी कभी भय लगता है?
कबीर जी ने कहा:
को करि तर्क बढावहि त्रासा।।
गुरु गोविन्द सिंह जी ने एक साखी कही:
भै काहू कउ देत नहि नहि भै मानत आन।
आप जिन गीता कक्षाओं में सीख रहे हैं वहाँ बयासी तरह के विभाग हैं और हर कोई बिना किसी अपेक्षा के अपना कार्य कर रहा है। जिस कक्षा में आप हैं वहाँ ट्रेनर सिखा रहे हैं, टेक हैं जो स्लाइड्स लगा रहे हैं, जीसी हैं, बीसी हैं, सब निःस्वार्थ भाव से अपना कार्य कर रहे हैं। कोई इस समय विवेचन लिख रहा है तो कोई अनुवाद कर रहा है, कोई एडिटिङ्ग करेगा।
देश हमें देता है सब कुछ, कुछ हम भी तो देना सीखें।
अर्जुन की भक्ति को भी भगवान इसी प्रकार सोलहवें अध्याय में प्रमाणित करते हैं-
मा शुच: सम्पदं दैवीमभिजातोसि पाण्डव।
प्रश्नोत्तर-
भगवान श्रीकृष्ण ने-
अभय- सबसे पहला गुण बताया। जब तक जीवन में अभयता का गुण नहीं आएगा तब तक सत्य नहीं आएगा व धर्म भी नहीं आएगा इसलिए अभय पहला गुण है। हम अलग-अलग तरह के भय से ग्रसित होते हैं, किसी को अनहोनी का डर सताता है, कोई छिपकली से डरता है, कोई जल से डरता है, कोई ऊँचाई से डरता है आदि।
भय दो तरह के होते हैं। एक सात्त्विक भय है जो हमें गलत रास्ते पर जाने से रोकता है। गुरु का और अपने परिवार के बड़ों का भय व्यक्ति को गलत रास्ते पर जाने से रोकता है। जो जितना गुरु और बड़ों के सङ्ग रहता है और उनकी शरण लेता है वह उतना ही सात्त्विकता की ओर चल पड़ता है और यदि व्यक्ति अपनी मर्जी से कार्य करने का अभ्यस्त हो जाए और बड़ों का और गुरु का सङ्ग न करे तो उसमें तामसिक प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। 'मैं चाहे यह करूँ', 'मैं चाहे वह करूँ', 'मेरी मर्जी,' यह निरङ्कुशता है। ऐसी निर्भयता विचारहीन और दिशाहीन है।
पूज्य स्वामी रामसुखदास जी का कथन है कि बेपरवाह रहिये, लापरवाही मत कीजिए।
लापरवाही और बेपरवाही में अन्तर होता है। लापरवाही और बेपरवाही एक दूसरे के विपरीत शब्द हैं। बेपरवाह व्यक्ति वह है जिसे परवाह नहीं होती। जैसे साधु, शाम को भोजन कहाँ से प्राप्त होगा? उसे कोई परवाह नहीं होती। उसे विश्वास है कि भगवान व्यवस्था करेंगे। ऐसे ही बच्चा बेपरवाह होता है परन्तु लापरवाह मार्ग में चयन का विचार नहीं रखता।
बेपरवाह व्यक्ति मञ्जिल की ओर बढ़ता जाता है और मञ्जिल क्या है इस बात की परवाह नहीं करता पर हमेशा सही मार्ग का चयन करने का प्रयास करता है।
सन्त कबीर से किसी ने पूछा क्या आपको भी कभी भय लगता है?
कबीर जी ने कहा:
काल पकड़ चेला किया भय के कतरे कान।
समरथ गुरु सर पे खड़े का को करे सलाम।
मेरे सर पर समर्थ गुरु का हाथ है तो मुझे डर की क्या आवश्यकता है?
रामचरितमानस में परशुराम जी का प्रसङ्ग आता है। जब श्रीराम शिवजी का धनुष तोड़ते हैं तो परशुराम जी और लक्ष्मण में बहस होती है। परशुराम जी को लगा कि श्रीराम और लक्ष्मण उनसे डरते नहीं हैं। परशुराम जी से बात करते हुए बहुत से लोग डरते थे। उनको लगा कि यह बच्चे तो मुस्कुरा कर बात कर रहे हैं। उन्होंने श्रीराम से पूछा, क्या तुम्हें डर नहीं लगता?
भगवान श्रीराम ने बहुत ही सुन्दर उत्तर दिया:
भय तो हमें काल का भी नहीं लगता।
बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥
जिसे भगवान पर दृढ़ विश्वास है वह जीवन की विपरीत से विपरीत परिस्थिति में भी परेशान नहीं होता।
हमारे साथ श्रीरघुनाथ तो
जिसे भगवान पर दृढ़ विश्वास है वह जीवन की विपरीत से विपरीत परिस्थिति में भी परेशान नहीं होता।
हमारे साथ श्रीरघुनाथ तो
किस बात की चिन्ता ।
चरण में रख दिया जब माथ तो
किस बात की चिन्ता।
हमारे साथ श्रीरघुनाथ हैं, वे स्वयं ही सम्भाल लेंगे; ठाकुर जी स्वयं ही सम्भाल लेंगे। जिसे भगवान पर, अपने गुरु पर, अपने बड़ों पर विश्वास पक्का है, उसको किसी बात से भय नहीं लगता।
होई है वही जो राम रचि राखा।को करि तर्क बढावहि त्रासा।।
गुरु गोविन्द सिंह जी ने एक साखी कही:
भै काहू कउ देत नहि नहि भै मानत आन।
कहु नानक सुनि रे मना गिआनी ताहि बखानि॥
किसी भी मनुष्य को डरने की आवश्यकता नहीं है और न ही उसे किसी अन्य को भयभीत करना चाहिए। जीवन में जितना भगवान पर विश्वास होता जाएगा उतनी ही अभयता आती जाएगी।
सत्त्वसंशुद्धि- भगवान ने दूसरा गुण बताया, अन्त:करण की पवित्रता। अन्तःकरण की पवित्रता भगवान को पाने के लिए बहुत ही आवश्यक है।
सत्त्वसंशुद्धि- भगवान ने दूसरा गुण बताया, अन्त:करण की पवित्रता। अन्तःकरण की पवित्रता भगवान को पाने के लिए बहुत ही आवश्यक है।
जैसे गन्दे कपड़े को स्वच्छ किया जाता है वैसे ही अन्तःकरण की स्वच्छता भी बहुत जरूरी है। केवल ध्यान करने से, अनुष्ठान करने से, ब्राह्मणों को भोजन कराने से, दान पुण्य करने से, पाठ करने से व व्रत रखने से यह स्वच्छता नहीं आती। जब तक मन से मैल नहीं निकला तब तक ऊपर का अभ्यास काम नहीं करता। कपड़े धोने पर मैल ही साफ करते हैं। किसी दर्पण को बहुत साल प्रयोग में न लाया जाए तो उस पर धूल जम जाती है, फिर उसे स्वच्छ करना पड़ता है, वैसी ही अन्त:करण की स्थिति है। वास्तव में हमें भगवान को प्राप्त नहीं करना, वे तो पहले से ही प्राप्त हैं, केवल वासनाओं की मैली चादर के कारण दिखते नहीं।
हम चाहे कितने ही महङ्गे से महङ्गे कपड़े ले लें लेकिन अगर उस पर दाग है तो उसे पहन कर पार्टी में जाना सम्भव नहीं होगा, इसी प्रकार हमें भगवान के सम्मुख होने के लिए अपने मन के मैल को हटाना होगा।
भगवान ने पन्द्रहवें अध्याय में कहा है-
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
हम चाहे कितने ही महङ्गे से महङ्गे कपड़े ले लें लेकिन अगर उस पर दाग है तो उसे पहन कर पार्टी में जाना सम्भव नहीं होगा, इसी प्रकार हमें भगवान के सम्मुख होने के लिए अपने मन के मैल को हटाना होगा।
भगवान ने पन्द्रहवें अध्याय में कहा है-
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः।।15.11।।
बाहर से कितना भी यत्न कर लो जब तक तुम्हारा अन्त:करण निर्मल नहीं होगा तब तक मैं दिखाई नहीं दूँगा।
भगवान ने शबरी को कहा है-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा,
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
जीवन में पूर्ण सत्य रखें तो साधन सफल होने लगते हैं, नहीं तो माला करते रहते हैं, वर्षों तक गीता पढ़ते रहते हैं, ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, ऐसा हम सब स्वयं के साथ और अपने आसपास भी देखते रहते हैं।
ज्ञानयोगव्यवस्थिति- तीसरा गुण भगवान ने कहा। श्रीभगवान कहते हैं कि अर्जुन कुछ लोग थोड़े समय के लिये ज्ञानी हो जाते हैं, जब तक विवेचन आदि सुनते हैं पर उसमें निरन्तरता नहीं होती। भगवान कहते हैं कि मन को स्थिर करना, टिकाना सीखो, हमेशा अच्छे विचार बने रहें। किसी सत्सङ्ग में जाते हैं तो लगता है कि मन कुछ समय के लिए शुद्ध हो गया है, जैसे ही अपने घर में वापस आ जाते हैं, फिर उसी तरह की मोहमाया में फँस जाते हैं। ज्ञान जीवन में कई बार आता है। निरन्तर ज्ञान को यहाँ ज्ञानयोगव्यवस्थिति कहा गया।
दान - इसे भगवान ने चौथा गुण कहा है। दान का अर्थ है देना और हर समय देने के लिए तत्पर रहना। केवल धन का दान ही दान नहीं होता। धन के दान को द्रव्य दान कहा जाता है। समय का और ज्ञान का दान भी दान होता है। गीता की कक्षा में बैठे हुए, आप सबको शिक्षा देते हुए सभी गीता सेवी कार्यरत हैं, यह भी दान है जो वे अपने समय का कर रहे हैं। निष्काम भाव से कार्यरत हुए यह सब गीता सेवी भी दान करने में लगे हैं।
भगवान ने शबरी को कहा है-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा,
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
जीवन में पूर्ण सत्य रखें तो साधन सफल होने लगते हैं, नहीं तो माला करते रहते हैं, वर्षों तक गीता पढ़ते रहते हैं, ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, ऐसा हम सब स्वयं के साथ और अपने आसपास भी देखते रहते हैं।
ज्ञानयोगव्यवस्थिति- तीसरा गुण भगवान ने कहा। श्रीभगवान कहते हैं कि अर्जुन कुछ लोग थोड़े समय के लिये ज्ञानी हो जाते हैं, जब तक विवेचन आदि सुनते हैं पर उसमें निरन्तरता नहीं होती। भगवान कहते हैं कि मन को स्थिर करना, टिकाना सीखो, हमेशा अच्छे विचार बने रहें। किसी सत्सङ्ग में जाते हैं तो लगता है कि मन कुछ समय के लिए शुद्ध हो गया है, जैसे ही अपने घर में वापस आ जाते हैं, फिर उसी तरह की मोहमाया में फँस जाते हैं। ज्ञान जीवन में कई बार आता है। निरन्तर ज्ञान को यहाँ ज्ञानयोगव्यवस्थिति कहा गया।
दान - इसे भगवान ने चौथा गुण कहा है। दान का अर्थ है देना और हर समय देने के लिए तत्पर रहना। केवल धन का दान ही दान नहीं होता। धन के दान को द्रव्य दान कहा जाता है। समय का और ज्ञान का दान भी दान होता है। गीता की कक्षा में बैठे हुए, आप सबको शिक्षा देते हुए सभी गीता सेवी कार्यरत हैं, यह भी दान है जो वे अपने समय का कर रहे हैं। निष्काम भाव से कार्यरत हुए यह सब गीता सेवी भी दान करने में लगे हैं।
आप जिन गीता कक्षाओं में सीख रहे हैं वहाँ बयासी तरह के विभाग हैं और हर कोई बिना किसी अपेक्षा के अपना कार्य कर रहा है। जिस कक्षा में आप हैं वहाँ ट्रेनर सिखा रहे हैं, टेक हैं जो स्लाइड्स लगा रहे हैं, जीसी हैं, बीसी हैं, सब निःस्वार्थ भाव से अपना कार्य कर रहे हैं। कोई इस समय विवेचन लिख रहा है तो कोई अनुवाद कर रहा है, कोई एडिटिङ्ग करेगा।
हमारे माननीय प्रधानमन्त्री जी श्री नरेन्द्र मोदी जी ने इस बार तीसरी बार शपथ ली है देश का नेतृत्व करने की, हमें ऐसे श्रेष्ठ नेतृत्व का साथ मिला है, हम सौभाग्यशाली हैं, उन्होंने स्वच्छता अभियान चलाया, जिसमें कई लोग निष्काम भाव से काम कर रहे हैं। यह स्वच्छता का दान है।
कुछ लोग प्रसन्नता का दान देते हैं। किसी से भी, सुबह-शाम जब भी आप मिलें तो प्रसन्न भाव से मिलें तो उसको भी सारा दिन आपका मुस्कुराना याद रहता है। इस प्रकार जीवन में प्रसन्नता का भाव बाँटने से भी दान का पुण्य मिलता है।
एक पुराना गीत है-
किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार
किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है
आपने एलोपेथी, होम्योपेथी सुनी है। एक और पेथी है- सिम्पेथी, सहानुभूति, कोई दु:खी हो तो उसकी बात सुनो।
देश हमें देता है सब कुछ, कुछ हम भी तो देना सीखें।
सद्भावना का दान करें। द्रव्य का दान तो है ही, हमें सेवा कार्यों में भी दान देना चाहिये। अपनी शुद्ध आय का दसवाँ अंश दान करने का नियम मनुस्मृति और बृहस्पति नीति में भी बताया गया है। दान की वृत्ति मनुष्य को देवता बनाती है। भगवान ने दो कतार बनाई है, एक देने वालों की और एक लेने वालों की। भगवान ने देने वालों की कतार में आपको खड़ा किया है तो देने का अभिमान भी नहीं होना चाहिये।
मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरन्तर सज्जन धरमा॥
मेरे (राम) मन्त्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है।
छठी भक्ति है इन्द्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरन्तर सन्त पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना।
छठी भक्ति है इन्द्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरन्तर सन्त पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥
सातवीं भक्ति है जगत भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और सन्तों को मुझसे भी अधिक मानना।
आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में सन्तोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना।
बारहवें अध्याय में भगवान ने कहा है-
'संतुष्टो येन केनचित्'।
'जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये' का भाव भी यही है।
आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में सन्तोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना।
बारहवें अध्याय में भगवान ने कहा है-
'संतुष्टो येन केनचित्'।
'जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये' का भाव भी यही है।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा॥
मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥
नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई।
नारि पुरुष सचराचर कोई॥
नारि पुरुष सचराचर कोई॥
नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना।
श्रीभगवान ने भक्ति के नौ प्रकार बताए हैं, जिसे नवधा भक्ति कहा जाता है।
इन नौ में से जिनके हृदय में एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, चराचर कोई भी हो, वह भगवान को अत्यन्त प्रिय है। भगवान यहाँ माता शबरी को प्रमाणित करते हैं कि तुझमें तो सभी प्रकार की भक्ति है।
भगवान कहते हैं कि शबरी तुम कहती हो कि मैं कैसे तुम्हारी स्तुति करूँ, परन्तु सम्पूर्ण नौ भक्ति तुझमें है।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
भगवान कहते हैं कि शबरी तुम कहती हो कि मैं कैसे तुम्हारी स्तुति करूँ, परन्तु सम्पूर्ण नौ भक्ति तुझमें है।
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥
हे भामिनि! मुझे वही अत्यन्त प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है।
अर्जुन की भक्ति को भी भगवान इसी प्रकार सोलहवें अध्याय में प्रमाणित करते हैं-
मा शुच: सम्पदं दैवीमभिजातोसि पाण्डव।
मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा॥
मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।
कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पंकज धरे।
तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे।
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी रामपद अनुरागहू॥
शबरी की श्रीराम भक्ति की कहानी अत्यन्त प्रसिद्ध है। बचपन में मेमने की प्राण रक्षा हेतु वह घर छोड़ मतङ्ग मुनि की शरण जाती है और उनसे दीक्षा लेकर भगवान श्रीराम की प्रतीक्षा करते हुए अपना सम्पूर्ण जीवन बिता देती है। अन्त में श्रीराम ने उन्हें दर्शन दिए जिनका स्वागत वह जूठे बेर देकर करती है।
तुलसीदासजी कहते हैं कि शबरी माता योगाग्नि से देह को त्याग कर (जलाकर) दुर्लभ हरिपद में लीन हो गई, जहाँ से लौटना नहीं होता। शबरी ने अपनी सरलता के बल पर परम पद प्राप्त किया। जीवन में सरलता होनी चाहिये।
साधकों की जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए सत्र समाप्त हुआ।
साधकों की जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए सत्र समाप्त हुआ।
प्रश्नोत्तर-
प्रश्नकर्ता : श्री विलास भैया
प्रश्न : इस अध्याय के पहले श्लोक में आर्जवम् शब्द का सही अर्थ क्या है?
उत्तर : सरलता
प्रश्नकर्ता : श्री विलास भैया
प्रश्न : गीता परिवार की कक्षाओं में अध्याय पठन बारहवें अध्याय से ही क्यों होता है?
उत्तर: भगवद्गीता श्रीकृष्ण ने अर्जुन की मन: स्थिति देखकर कहीं थी इसलिए पहले अध्याय में अर्जुन के दुःख का चित्रण है, फिर साङ्ख्ययोग, कर्मयोग आदि, ये अध्याय बड़े और क्लिष्ट हैं और एक सामान्य मनुष्य के लिए उबाऊ हो सकते हैं जबकि बारहवाँ, पन्द्रहवाँ और सोलहवाँ अध्याय, ये छोटे और समझने में सरल हैं। अतः शास्त्रों के अनुसार यही क्रम अपनाया गया है। बारहवाँ अध्याय भक्तियोग है और यदि यहाँ पर हम रुक भी जाएँ तो भी जीवन धन्य होगा।
प्रश्नकर्ता : श्रीमती पुष्पा तिवारी दीदी
प्रश्न : क्या सूक्ष्म शरीर और आत्मा एक ही हैं?
उत्तर : दोनो अलग-अलग बातें हैं। सूक्ष्म शरीर यानी जडत्व, स्थूलता और चित्त। यह अन्तर्मन चतुष्ट्य है, मन, बुद्धि, चित्त और अहम्। जब कोई सङ्कल्प लेते हैं तो मन से, निर्णय बुद्धि से, धारणा चित्त से और स्वानुभूति अहम् से होती है।
प्रश्नकर्ता : श्री विक्रान्त भैया
प्रश्न : क्या मात्र किसी एक भगवान में ही ध्यान लगाना चाहिए?
उत्तर : ऐसा आवश्यक नहीं है। अपने इष्ट का ध्यान सर्वोत्तम माना जाता है, उन्हें निश्चित कर जप करने से जप का प्रभाव प्रखर होता है।
प्रश्नकर्ता : श्री नानकचन्द गर्ग भैया
प्रश्न : काक भुसुण्डी ने श्रीकृष्ण और श्रीराम में अन्तर कर दुःख सहे। क्यों?
उत्तर : परब्रह्म एक ही हैं, नाम अलग-अलग हैं। स्वरूप में भेद नहीं करना चाहिए। भक्ति शुद्ध मन से करनी चाहिए और यदि कष्ट हों भी तो सहन करना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : श्री मुरली भैया
प्रश्न : जीवन में दुविधा हर क्षेत्र में होती है। कैसे समझ सकते हैं कि किसका त्याग किया जाए?
उत्तर : आसक्ति को छोड़ना चाहिए। निष्काम भाव से अपने कर्त्तव्य करना है। जलेबी पसन्द है तो उसे नहीं छोड़ना है, उसका मोह छोड़ना चाहिए। निष्काम कर्म भगवान हमसे करवा रहे हैं।
प्रश्नकर्ता : श्रीमती वर्षा वाकर
प्रश्न : जानते हैं कि बुरा कर्म नहीं करना चाहिए, परन्तु पुलिस विभाग में होने से कभी-कभी ग़लत काम करना पड़ता है, किसी निर्दोष को सजा हो जाती है। इससे मन को अत्यन्त पीड़ा होती है और दुःख होता है। क्या ग़लत काम करने का पाप लगेगा?
उत्तर : अधिकार और आज्ञा अपना कर्त्तव्य मानकर करें, इसे कर्म नहीं मानना चाहिए। टालने का प्रयास कर सकते हैं लेकिन यदि वरिष्ठ अधिकारी की आज्ञा हो तो कर्त्तव्य समझकर करने से पाप के भागी नहीं होंगे। चाहें तो पीछे से से उस व्यक्ति की सहायता करें जो आपको निर्दोष लगता है।
प्रश्नकर्ता : श्री जेनालगुड्डा भास्कर भैया
प्रश्न : इस अध्याय के पहले श्लोक में सत्त्व का अर्थ सत्त्व गुण से है?
उत्तर : नहीं, यहाँ इसका अर्थ है अन्तःकरण (insight)
प्रश्नकर्ता: श्रीमती गरिमा तिवारी दीदी
प्रश्न : क्या दीक्षा लेना आवश्यक है? सही गुरु की पहचान कैसे करें?
उत्तर : सही ज्ञान के लिए दीक्षा आवश्यक है। सही गुरु के चयन के चार सूत्र हैं
1 गुरु स्वयंभू हैं या उन्होंने किसी गुरु से दीक्षा ली है? यदि स्वयंभू हैं तो वे एक ढोङ्गी हैं।
2 गुरु परम्परा देखें। गुरु के गुरु और उनके गुरु कैसे हैं?
3 जिनका चयन कर रहे हैं उन्हें शास्त्रों का कितना ज्ञान है? उपनिषद पढ़ें हैं या नहीं?
4 वे अपनी ही पूजा करवाते हैं या ईश्वर की?
भारत वर्ष में सद्गुरुओं की कमी नहीं है परन्तु उनकी पहचान आवश्यक है।
प्रश्नकर्ता : श्रीमती दीपिका अग्रवाल
प्रश्न : सहेली की बेटी ने कम उम्र में आत्महत्या कर ली। सहेली बहुत दु:खी है, उन्हें सान्त्वना तो देना है लेकिन कैसे बात करें समझ नहीं आता?
उत्तर : सान्त्वना से आपकी सहेली को सम्बल मिलेगा। उन्हें गीता परिवार से जुड़ने की सलाह दें जिससे उन्हें दुःख सहने की शक्ति आएगी और वे इस हादसे को भुला सकेंगी।
प्रश्नकर्ता : श्री राघवेन्द्र जोशी भैया
प्रश्न : श्लोक और मन्त्र में क्या अन्तर है?
उत्तर : संस्कृत में जो छन्द लिखे जाते हैं श्लोक कहलाते हैं परन्तु सभी छन्द मन्त्र नहीं होते। मन्त्र सिद्ध होते हैं जिनसे कल्याण हो सकता है। भगवद्गीता के श्लोक श्रीमुख से निकले छन्द हैं, अतः वे सभी मन्त्र हैं।
प्रश्न : इस अध्याय के पहले श्लोक में आर्जवम् शब्द का सही अर्थ क्या है?
उत्तर : सरलता
प्रश्नकर्ता : श्री विलास भैया
प्रश्न : गीता परिवार की कक्षाओं में अध्याय पठन बारहवें अध्याय से ही क्यों होता है?
उत्तर: भगवद्गीता श्रीकृष्ण ने अर्जुन की मन: स्थिति देखकर कहीं थी इसलिए पहले अध्याय में अर्जुन के दुःख का चित्रण है, फिर साङ्ख्ययोग, कर्मयोग आदि, ये अध्याय बड़े और क्लिष्ट हैं और एक सामान्य मनुष्य के लिए उबाऊ हो सकते हैं जबकि बारहवाँ, पन्द्रहवाँ और सोलहवाँ अध्याय, ये छोटे और समझने में सरल हैं। अतः शास्त्रों के अनुसार यही क्रम अपनाया गया है। बारहवाँ अध्याय भक्तियोग है और यदि यहाँ पर हम रुक भी जाएँ तो भी जीवन धन्य होगा।
प्रश्नकर्ता : श्रीमती पुष्पा तिवारी दीदी
प्रश्न : क्या सूक्ष्म शरीर और आत्मा एक ही हैं?
उत्तर : दोनो अलग-अलग बातें हैं। सूक्ष्म शरीर यानी जडत्व, स्थूलता और चित्त। यह अन्तर्मन चतुष्ट्य है, मन, बुद्धि, चित्त और अहम्। जब कोई सङ्कल्प लेते हैं तो मन से, निर्णय बुद्धि से, धारणा चित्त से और स्वानुभूति अहम् से होती है।
प्रश्नकर्ता : श्री विक्रान्त भैया
प्रश्न : क्या मात्र किसी एक भगवान में ही ध्यान लगाना चाहिए?
उत्तर : ऐसा आवश्यक नहीं है। अपने इष्ट का ध्यान सर्वोत्तम माना जाता है, उन्हें निश्चित कर जप करने से जप का प्रभाव प्रखर होता है।
प्रश्नकर्ता : श्री नानकचन्द गर्ग भैया
प्रश्न : काक भुसुण्डी ने श्रीकृष्ण और श्रीराम में अन्तर कर दुःख सहे। क्यों?
उत्तर : परब्रह्म एक ही हैं, नाम अलग-अलग हैं। स्वरूप में भेद नहीं करना चाहिए। भक्ति शुद्ध मन से करनी चाहिए और यदि कष्ट हों भी तो सहन करना चाहिए।
प्रश्नकर्ता : श्री मुरली भैया
प्रश्न : जीवन में दुविधा हर क्षेत्र में होती है। कैसे समझ सकते हैं कि किसका त्याग किया जाए?
उत्तर : आसक्ति को छोड़ना चाहिए। निष्काम भाव से अपने कर्त्तव्य करना है। जलेबी पसन्द है तो उसे नहीं छोड़ना है, उसका मोह छोड़ना चाहिए। निष्काम कर्म भगवान हमसे करवा रहे हैं।
प्रश्नकर्ता : श्रीमती वर्षा वाकर
प्रश्न : जानते हैं कि बुरा कर्म नहीं करना चाहिए, परन्तु पुलिस विभाग में होने से कभी-कभी ग़लत काम करना पड़ता है, किसी निर्दोष को सजा हो जाती है। इससे मन को अत्यन्त पीड़ा होती है और दुःख होता है। क्या ग़लत काम करने का पाप लगेगा?
उत्तर : अधिकार और आज्ञा अपना कर्त्तव्य मानकर करें, इसे कर्म नहीं मानना चाहिए। टालने का प्रयास कर सकते हैं लेकिन यदि वरिष्ठ अधिकारी की आज्ञा हो तो कर्त्तव्य समझकर करने से पाप के भागी नहीं होंगे। चाहें तो पीछे से से उस व्यक्ति की सहायता करें जो आपको निर्दोष लगता है।
प्रश्नकर्ता : श्री जेनालगुड्डा भास्कर भैया
प्रश्न : इस अध्याय के पहले श्लोक में सत्त्व का अर्थ सत्त्व गुण से है?
उत्तर : नहीं, यहाँ इसका अर्थ है अन्तःकरण (insight)
प्रश्नकर्ता: श्रीमती गरिमा तिवारी दीदी
प्रश्न : क्या दीक्षा लेना आवश्यक है? सही गुरु की पहचान कैसे करें?
उत्तर : सही ज्ञान के लिए दीक्षा आवश्यक है। सही गुरु के चयन के चार सूत्र हैं
1 गुरु स्वयंभू हैं या उन्होंने किसी गुरु से दीक्षा ली है? यदि स्वयंभू हैं तो वे एक ढोङ्गी हैं।
2 गुरु परम्परा देखें। गुरु के गुरु और उनके गुरु कैसे हैं?
3 जिनका चयन कर रहे हैं उन्हें शास्त्रों का कितना ज्ञान है? उपनिषद पढ़ें हैं या नहीं?
4 वे अपनी ही पूजा करवाते हैं या ईश्वर की?
भारत वर्ष में सद्गुरुओं की कमी नहीं है परन्तु उनकी पहचान आवश्यक है।
प्रश्नकर्ता : श्रीमती दीपिका अग्रवाल
प्रश्न : सहेली की बेटी ने कम उम्र में आत्महत्या कर ली। सहेली बहुत दु:खी है, उन्हें सान्त्वना तो देना है लेकिन कैसे बात करें समझ नहीं आता?
उत्तर : सान्त्वना से आपकी सहेली को सम्बल मिलेगा। उन्हें गीता परिवार से जुड़ने की सलाह दें जिससे उन्हें दुःख सहने की शक्ति आएगी और वे इस हादसे को भुला सकेंगी।
प्रश्नकर्ता : श्री राघवेन्द्र जोशी भैया
प्रश्न : श्लोक और मन्त्र में क्या अन्तर है?
उत्तर : संस्कृत में जो छन्द लिखे जाते हैं श्लोक कहलाते हैं परन्तु सभी छन्द मन्त्र नहीं होते। मन्त्र सिद्ध होते हैं जिनसे कल्याण हो सकता है। भगवद्गीता के श्लोक श्रीमुख से निकले छन्द हैं, अतः वे सभी मन्त्र हैं।