विवेचन सारांश
दैवी एवं आसुरी गुणों के ज्ञान से जीवन उन्नयन
आज के विवेचन सत्र का आरम्भ दीप प्रज्वलन के साथ हुआ। माता सरस्वती, महर्षि वेदव्यास, ज्ञानेश्वर महाराज एवं परम पूज्य स्वामी गोविन्द देव गिरि जी महाराज के चरणों में नतमस्तक होते हुए बताया गया कि व्यवहारिक दृष्टि में इस अध्याय का कितना महत्त्व है? इस मानव जीवन का लक्ष्य परमात्मा को प्राप्त करना है, जिसके लिए जो दैवी सद्गुण हमें ग्राह्य करने हैं और जिन आसुरी सम्पत्तियों से हमें बचना है, उसका वर्णन इस अध्याय में है।
साथ ही गीता जी के बारहवें अध्याय एवं पन्द्रहवें अध्याय के महत्त्व को भी बताया गया। अगर हम गीता जी को एक मन्दिर के रूप में देखें तो बारहवाँ अध्याय गर्भ गृह है और जीव, जगत और परमेश्वर इसका ज्ञान देने वाला पन्द्रहवाँ अध्याय पुरुषोत्तमयोग, विग्रह है।
इस संसार के नियामक, सञ्चालक परमात्मा को जानना और प्राप्त करना ही इस मानव जीवन का परम ध्येय है। भगवद्गीता हमें वह पाथेय प्रदान करती है कि हम अपने स्वरूप को जानें।
जब हम पुरुषोत्तम के साथ योग करना चाहते हैं तो उसके लिए हमें कुछ गुणों का आधान करना पड़ेगा। जिस प्रकार नरोत्तम अर्जुन के सारथी स्वयं नारायण श्रीकृष्ण हैं, उसी प्रकार हम चाहते हैं कि सृष्टिकर्ता हमारे जीवन के सारथी बन जाएँ तो हमें भी नरोत्तम अर्जुन के गुण अपने जीवन में उतारने होंगे। इन सब का वर्णन इस अध्याय में श्रीभगवान जी कर रहे हैं।
श्रीभगवान दैवी सम्पत्ति के बारे में बता रहे हैं। धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा, उपाधि ये सब भौतिक सम्पत्ति हैं। ये सब जीवन में होनी ही चाहिए परन्तु श्रीभगवान अन्तरङ्ग के गुणों की महिमा बता रहे हैं। यह अन्तरङ्ग की शुद्धता पर ही निर्भर होगा कि अन्ततोगत्वा हम उस परमात्मा के प्रिय हो सकेंगे क्या?
ज्ञानेश्वर महाराज जिन्होंने अपने सद्गुरु की कृपा से श्रीमद्भागवद्गीता पर नौ हजार ओवियों का एक अद्भुत भाष्य 'ज्ञानेश्वरी' अपने मुख से प्रस्फुटित किया है, इस पर कहते हैं:-
अहो अर्जुनाचिये पांती । जे परिसणया योग्य होती ।
तिहीं कृपा करून संतीं ।
अवधान द्यावे ॥ ६२॥
अर्थात् अर्जुन यह सारा ज्ञान कहीं एकान्त में गङ्गा जी के तट पर नहीं सुन रहे हैं अपितु युद्ध भूमि में सुनने के लिए लालायित हैं। हमारा जीवन भी इसी तरह सङ्घर्ष पूर्ण होता है।
तुकाराम महाराज कहते हैं:-
अंतर्बाह्य जग आणि मन।।
अर्थात् बहिरङ्ग में जगत के साथ और अन्तरङ्ग में मन के साथ युद्ध चलता रहता है।
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं, जिस प्रकार अर्जुन युद्ध के कोलाहल और विचलित स्थिति में भी जितनी लगन के साथ श्रीभगवान के मुख से प्रस्फुटित ज्ञान को श्रवण कर रहे हैं, उस प्रकार के लोग ही इसे सुनने के योग्य हैं।
इस अध्याय के प्रथम तीन श्लोकों में श्रीभगवान छब्बीस दैवीय सम्पत्तियों का वर्णन करते हैं।
16.1
श्रीभगवानुवाच
अभयं(म्) सत्त्वसंशुद्धिः(र्), ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं(न्) दमश्च यज्ञश्च, स्वाध्यायस्तप आर्जवम्।।16.1।।
श्रीभगवान बोले – भय का सर्वथा अभाव; अन्तःकरण की अत्यंत शुद्धि; ज्ञान के लिये योग में दृढ़ स्थिति; सात्त्विक दान; इन्द्रियों का दमन; यज्ञ; स्वाध्याय; कर्तव्य-पालन के लिये कष्ट सहना और शरीर-मन-वाणी की सरलता।
विवेचन:- श्री गुरुदेव ने गीता साधना शिविर में इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट किया कि श्रीभगवान ने इन दोनों सम्पत्तियों का जो वर्गीकरण किया है, वह जाति, वर्ण, सम्पन्न, गरीब, मेरे मत को मानने वाले, न मानने वाले इस भौतिक आधार पर नहीं किया है। यह सब अन्तरङ्ग के गुणों बारे में है। गुरुदेव यह भी कहते हैं कि ये आपस में बदलने योग्य हैं अर्थात् सद्गुणी व्यक्ति किसी दोष युक्त व्यक्ति की सङ्गत में आ जाए तो कुछ दोष ग्रहण कर लेता है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति अगर अपने दुर्गुण या अपने दोष से मुक्त होने की तीव्र इच्छा रखता है और अगर सद्गुणी व्यक्ति की सङ्गत में आता है तो वह अपने दोषों से मुक्त हो सकता है। सद्गुणों का आदान करते हुए परमात्मा तक पहुँच सकता है।
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं:-
यालागीं दुष्कृती जऱ्ही जाहला,
तरि अनुतापतीर्थीं न्हाला।
न्हाऊनि मजआंतु आला,
सर्वभावें ॥ ४२० ॥
वे कहते हैं कि कोई दोषी व्यक्ति भी अगर अन्तरङ्ग से पश्चाताप करता है तो वह अनुताप के तीर्थ से नहाते हुए अपने जीवन का उन्नयन करता है और परमात्मा तक पहुँच जाता है।
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे तरुण्या भयम् |
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयम्
सर्वं वस्तुभयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाSभयम् ||
अर्थात् अत्यन्त भोगी जीवन होने से रोग का भय होता है। अति सम्पन्न समृद्ध कुल हो तो उसकी प्रतिष्ठा को नष्ट करने वाली सन्तति का भय होता है। बहुत ज्यादा सम्पत्ति है तो बहुत अधिक कर भरने का भय, सम्पत्ति छिन जाने का भय, डिमॉनेटाइजेशन का भय, शास्त्र का ज्ञान हो जाए तो कोई मेरे सिद्धान्त का खण्डन न करे इसका भय, अच्छे गुण होने पर खलकामी लोगों का भय, लोग उसे अधोगति तक ले जाना चाहते हैं, रूपवान को वय के साथ रूप ढलने का भय, सम्मान हो तो अपमान का भय, बलवान हैं तो शत्रुओं का भय और शरीर है तो मृत्यु का भय कि यह शरीर छोड़ना पड़ेगा। अन्त में केवल प्रभुपाद श्रीभगवान के पद पङ्कज ही हमें निर्भय दे सकते हैं।
2) सत्त्व संशुद्धि:- सत्त्व या चित्त। मन, बुद्धि, चित्त और अहङ्कार ये हमारे अन्तःकरण चतुष्टय कहलाते हैं। हमारा मन संङ्कल्प-विकल्प करता रहता है परन्तु बुद्धि इसका चयन करती है। हित बुद्धि होगी तो अच्छा चयन करेगी और शत्रु बुद्धि होगी तो अहितकारी चयन करेगी। यह चित्त की स्थिति पर निर्भर करता है। चित्त निर्मल होगा तो बुद्धि हितकारी होगी इसलिए चित्त की शुद्धता आवश्यक है।
गुरुने दिला ज्ञानरूपी वसा..
आम्ही चालवू हा पुढे वारसा।
गुरु से मिले हुए ज्ञान को अपने पास सीमित नहीं रख सकते उसे बाँटना पड़ता है, बहाना पड़ता है।
“ऐसी देनी देन जु, कित सीखे हो सेन।
ज्यों-ज्यों कर ऊँचौ करो, त्यों-त्यों नीचे नैन।।”
एक कवि ने रहीम दास जी से पूछा कि आप दान देते समय हाथ ऊपर करते-करते आँखें नीचे कर लेते हैं, ऐसा क्यों?
लोग भरम हम पर करें, याते नीचे नैन॥
अर्थात् देने वाला तो कोई और है, लोगों को भ्रम है कि मैं दे रहा हूँ इसलिए मेरे नैन झुक जाते हैं।
5) दमश्च:- दो महत्वपूर्ण बातें होती हैं- दम और शम। शम का अर्थ होता है मन को नियन्त्रित करना। दम इन्द्रियों का नियन्त्रण है।
6) यज्ञ:- अब आगे श्रीभगवान यज्ञ के बारे में बताते हैं जिसका विस्तृत विवरण भी सत्रहवें अध्याय में है। यज्ञ सर्व हितकारी समर्पण की सङ्कल्पना है।
8) तप:- जैसे ज्ञान गीता जी का महत्त्वपूर्ण शब्द है वैसे ही तप भी एक महत्वपूर्ण शब्द है। परमात्म तत्त्व के साथ मिलने के लिए अन्तरङ्ग को तपाना पड़ेगा। सोने को भी तपाया जाता है तब वह शुद्ध होता है।
जिस प्रकार महर्षि वाल्मीकि जी के जीवन में यह घटित हुआ।
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं:-
तरि अनुतापतीर्थीं न्हाला।
न्हाऊनि मजआंतु आला,
सर्वभावें ॥ ४२० ॥
वे कहते हैं कि कोई दोषी व्यक्ति भी अगर अन्तरङ्ग से पश्चाताप करता है तो वह अनुताप के तीर्थ से नहाते हुए अपने जीवन का उन्नयन करता है और परमात्मा तक पहुँच जाता है।
इस तरह भगवद्गीता हमें गिरने से बचाती है और इसलिए इसे माँ कहा गया।
अद्वैतामृतवर्षिणीं भगवतीम्- अष्टादशाध्यायिनीम्
अम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम् ॥ १॥
अम्ब त्वामनुसन्दधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम् ॥ १॥
माँ जिस प्रकार से अपने बच्चों के दुर्गुण दूर कर सद्गुण सङ्क्रमित करती है उसी प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता हमारे जीवन में पाथेय प्रदान करती है।
पहला गुण जो श्रीभगवान बताते हैं वह है-
पहला गुण जो श्रीभगवान बताते हैं वह है-
1)अभय:- इसे सभी गुणों का सेनापति कहा गया है। अभय का एक अर्थ है कि मुझे किसी से भय नहीं लेकिन इसके साथ एक अर्थ और जुड़ा है कि मुझसे भी किसी को भय नहीं। कोई मेरे पास आने से डरे नहीं, इतना विशाल हृदय हो। ऐसा सन्त महात्माओं के जीवन में दिखता है जिन्हें आत्म साक्षात्कार की प्राप्ति हो गई और जो एकात्म हो गए हों।
तुकाराम महाराज के जीवन की एक घटना है-
तुकाराम महाराज भण्डारा नाम के टीले पर ध्यान करने जाते थे। जब वे पहुँचते थे तो देखते थे कि अभी तक स्वच्छन्द विहार करने वाले पशु-पक्षी उन्हें देखकर चले जाते हैं। तुकाराम महाराज सोचते कि अभी तक वे सृष्टि से एकात्मता नहीं कर पाए हैं तो परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग दूर है। धीरे-धीरे विट्ठल विट्ठल नाम स्मरण करते हुए तुकाराम महाराज के अन्तरङ्ग का इतना विस्तार हुआ कि जब भी उस टीले पर ध्यान में बैठते थे तो सारे पशु- पक्षी उनके शरीर पर स्वच्छन्द विहार करते थे।
तुकाराम महाराज भण्डारा नाम के टीले पर ध्यान करने जाते थे। जब वे पहुँचते थे तो देखते थे कि अभी तक स्वच्छन्द विहार करने वाले पशु-पक्षी उन्हें देखकर चले जाते हैं। तुकाराम महाराज सोचते कि अभी तक वे सृष्टि से एकात्मता नहीं कर पाए हैं तो परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग दूर है। धीरे-धीरे विट्ठल विट्ठल नाम स्मरण करते हुए तुकाराम महाराज के अन्तरङ्ग का इतना विस्तार हुआ कि जब भी उस टीले पर ध्यान में बैठते थे तो सारे पशु- पक्षी उनके शरीर पर स्वच्छन्द विहार करते थे।
हमारे जीवन में कौन-कौन से भय हैं इसे भी समझना चाहिए।
श्रीगुरुदेव इस श्लोक के बारे में बताते हैं-
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयंमाने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे तरुण्या भयम् |
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयम्
सर्वं वस्तुभयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाSभयम् ||
अर्थात् अत्यन्त भोगी जीवन होने से रोग का भय होता है। अति सम्पन्न समृद्ध कुल हो तो उसकी प्रतिष्ठा को नष्ट करने वाली सन्तति का भय होता है। बहुत ज्यादा सम्पत्ति है तो बहुत अधिक कर भरने का भय, सम्पत्ति छिन जाने का भय, डिमॉनेटाइजेशन का भय, शास्त्र का ज्ञान हो जाए तो कोई मेरे सिद्धान्त का खण्डन न करे इसका भय, अच्छे गुण होने पर खलकामी लोगों का भय, लोग उसे अधोगति तक ले जाना चाहते हैं, रूपवान को वय के साथ रूप ढलने का भय, सम्मान हो तो अपमान का भय, बलवान हैं तो शत्रुओं का भय और शरीर है तो मृत्यु का भय कि यह शरीर छोड़ना पड़ेगा। अन्त में केवल प्रभुपाद श्रीभगवान के पद पङ्कज ही हमें निर्भय दे सकते हैं।
एक बार जीवन में अभय आ जाए तो अन्य गुण अपने आप ही आ जायेंगे।
2) सत्त्व संशुद्धि:- सत्त्व या चित्त। मन, बुद्धि, चित्त और अहङ्कार ये हमारे अन्तःकरण चतुष्टय कहलाते हैं। हमारा मन संङ्कल्प-विकल्प करता रहता है परन्तु बुद्धि इसका चयन करती है। हित बुद्धि होगी तो अच्छा चयन करेगी और शत्रु बुद्धि होगी तो अहितकारी चयन करेगी। यह चित्त की स्थिति पर निर्भर करता है। चित्त निर्मल होगा तो बुद्धि हितकारी होगी इसलिए चित्त की शुद्धता आवश्यक है।
श्रीभगवान कहते हैं कि यह चित्त मुझ में लगाओ। अन्तिम अध्याय में भगवान कहते हैं:-
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि, मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्, न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।18.58।।
गोपियाँ भगवान को चित्त चोर कहतीं थीं। अपना चित्त श्रीभगवान को दे देती थीं। श्रीभगवान अविकारी हैं और हम विकारों से ग्रस्त हैं इस प्रकार उनके चित्त की शुद्ध हो जाती थी।
तुलसीदास जी कहते हैं -
इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनम्।
मम ह्रदय कुंज निवास कुरु कामादी खल दल गंजनम्।।
तुलसीदास जी कहते हैं, हे राम जी! आप मेरे अन्तरङ्ग में समा जाइए। आप अविकारी हैं जिससे मेरे मन के विकार धीरे-धीरे ढ़ल जाएँगे।
3) ज्ञानयोगव्यवस्थिति:- भौतिक ज्ञान हो या आध्यात्मिक ज्ञान, दोनों के लिए योग अर्थात् जुड़ना आवश्यक है। जब तक एकाग्र बुद्धि नहीं होगी तब तक ज्ञान नहीं हो सकता।
आज तो ज्ञान गूगल पर, व्हाट्सएप पर, मोबाइल पर मिल जाता है परन्तु वह मेरे अन्तरङ्ग में उतरे उसके लिए योग की आवश्यकता है।
4) दान:- सत्रहवें अध्याय में इसकी पूर्ण व्याख्या की गई है। कहा गया है कि जो आपके पास है उसे बाँटें।
हमें जब ज्ञान प्राप्त होता है तब हम उसे अपने पास नहीं रख सकते उसे दान के माध्यम से देना पड़ता है तभी वह बढ़ता है। केवल धन का दान नहीं समय का दान भी होना चाहिए।
आम्ही चालवू हा पुढे वारसा।
गुरु से मिले हुए ज्ञान को अपने पास सीमित नहीं रख सकते उसे बाँटना पड़ता है, बहाना पड़ता है।
ज्यों-ज्यों कर ऊँचौ करो, त्यों-त्यों नीचे नैन।।”
एक कवि ने रहीम दास जी से पूछा कि आप दान देते समय हाथ ऊपर करते-करते आँखें नीचे कर लेते हैं, ऐसा क्यों?
तब रहीम जी बोले-
देनहार कोई और है, देवत है दिन रैन। लोग भरम हम पर करें, याते नीचे नैन॥
अर्थात् देने वाला तो कोई और है, लोगों को भ्रम है कि मैं दे रहा हूँ इसलिए मेरे नैन झुक जाते हैं।
5) दमश्च:- दो महत्वपूर्ण बातें होती हैं- दम और शम। शम का अर्थ होता है मन को नियन्त्रित करना। दम इन्द्रियों का नियन्त्रण है।
भगवान शङ्कराचार्य जी कहते हैं, मेरा अविनय चला जाए। इन्द्रियाँ मन का उपकरण है। अतः मैं इनको नियन्त्रित कर सकूँ।
6) यज्ञ:- अब आगे श्रीभगवान यज्ञ के बारे में बताते हैं जिसका विस्तृत विवरण भी सत्रहवें अध्याय में है। यज्ञ सर्व हितकारी समर्पण की सङ्कल्पना है।
हम चार स्तर पर जीवन जीते हैं:-
1) व्यष्टि
2) समष्टि
3) सृष्टि
4) परमेष्ठी
2) समष्टि
3) सृष्टि
4) परमेष्ठी
व्यष्टि याने मैं, मेरा परिवार। इसका उन्नयन करते-करते हम समाज को न भूलें। समष्टि का उन्नयन तब होगा जब सृष्टि अनुकूल होगी और अन्त में परमेष्ठी। इन चारों स्तरों पर पूर्ण समर्पण के साथ मेरे पास जो भी है उसकी आहुति मैं दूँ तो वह यज्ञ है।
जिस प्रकार गीता परिवार के इस महायज्ञ में हर कोई अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार आहुति दे रहा है, जिस प्रकार देवताओं के लिए यज्ञ कुण्ड में आहुति देकर यज्ञ किया जाता है। श्रीभगवान इसे दैवी सम्पत्ति कहते हैं, यज्ञ कहते हैं।
7) स्वाध्याय:- इसमें पहले आता है पठन जो हम दैनिक जीवन में प्रतिदिन कुछ न कुछ पढ़ते हैं। फिर आता है अध्ययन जो हम अपने भौतिक उन्नयन के लिए पढ़ाई करते हैं। भगवद्गीता दोनों ही उन्नयन की आग्रही है।
धर्म की व्याख्या भी की गई है-
यतो अभ्युदय निःश्रेयस् सिद्धि सह धर्मः।
अर्थात् भौतिक प्रगति भी हो और आत्मिक शान्ति भी हो।
फिर आता है स्वाध्याय। अपने अन्तरङ्ग को शुद्ध करने के लिए हम गीता जी पढ़ते हैं, श्रीरामचरितमानस जैसे अन्य ग्रन्थ पढ़ते हैं जिससे हमारे मन का धीरे-धीरे उन्नयन होता है, विकार धीरे-धीरे कम होने लगते हैं।
8) तप:- जैसे ज्ञान गीता जी का महत्त्वपूर्ण शब्द है वैसे ही तप भी एक महत्वपूर्ण शब्द है। परमात्म तत्त्व के साथ मिलने के लिए अन्तरङ्ग को तपाना पड़ेगा। सोने को भी तपाया जाता है तब वह शुद्ध होता है।
ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि के निर्माण का कार्य आरम्भ किया तब उनके कान में आया हुआ पहला शब्द तप ही था।
तप की दूसरी व्याख्या महाभारत में भी है। यक्ष ने जब युधिष्ठिर से तप क्या है? यह प्रश्न पूछा तब युधिष्ठिर ने उत्तर दिया-
तप: स्वधर्मं वर्तित्वं।
अर्थात् स्वधर्म का पालन करने के लिए मुझे जो कष्ट होते हैं उनको सहन करना तप है। जैसे माता-पिता अपने बच्चों के उत्थान के लिए जो कष्ट उठाते हैं या हम राष्ट्र के लिए जो करते हैं, उसके लिए जो कष्ट उठाते हैं, वह तप कहलाता है।
9) आर्जवम्:- इसका अर्थ है सरलता। सबके साथ सरल व्यवहार होना। अन्दर बाहर सब तरफ एक जैसा होना। अर्जुन सबके प्रिय इसलिए हैं क्योंकि उनका सबके साथ सरल व्यवहार है। अर्जुन का अर्थ ही है जिसमें रुजुता है। अन्दर बाहर एक जैसा व्यवहार होगा तो जीवन में शान्ति होगी। दोगला व्यवहार होने पर, मेरा पराया होने पर अशान्ति ही अशान्ति है। जैसे धृतराष्ट्र पहले ही श्लोक में कहते हैं, मेरे और पाण्डु के पुत्र। धृतराष्ट्र का मन पुत्र मोह के कारण मैला हो गया था इसलिए धृतराष्ट्र का व्यवहार सरल नहीं था।
जीवन के उन्नयन के लिए आर्जवम् अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गुण है।
अहिंसा सत्यमक्रोध:(स्), त्यागः(श्) शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं(म्), मार्दवं(म्) ह्रीरचापलम्।।16.2।।
अहिंसा, सत्य भाषण, क्रोध न करना, संसार की कामना का त्याग, अन्तःकरण में राग-द्वेष जनित हलचल का न होना, चुगली न करना, प्राणियों पर दया करना, सांसारिक विषयों में न ललचाना, अन्तःकरण की कोमलता, अकर्तव्य करने में लज्जा, चपलता का अभाव।
विवेचन:- अगला दैवी सम्पत्ति गुण श्रीभगवान बताते हैं-
10) अहिंसा:- अहिंसा केवल शारीरिक नहीं होती हे। तीन स्तरों पर होती है- शारीरिक, मानसिक और वाचिक।
तैसा स्वरूपाचिया प्रसरा,
लागीं प्राणेंद्रियशरीरां,
आटणी करणें जें वीरा,
तेंचि तप ॥ १०८ ॥
आणि जगाचिया सुखोद्देशें,
शरीरवाचामानसें,
राहाटणें तें अहिंसे,
रूप जाण ॥ ११४ ॥
12) अक्रोध:- अक्रोध भी दैवी सम्पत्ति है। किसी पर क्रोध नहीं करना।
जे धैर्यमंडपाचे स्तंभ।
जे आंनदसमुद्रीं कुंभ,
चुबकळोनि भरिले ॥ १९१ ॥
10) अहिंसा:- अहिंसा केवल शारीरिक नहीं होती हे। तीन स्तरों पर होती है- शारीरिक, मानसिक और वाचिक।
श्रीगुरुदेव कहते हैं कि श्रीभगवान की अहिंसा को हम समझें। अगर श्रीभगवान पूरी तरह अहिंसा कहते हैं तब अर्जुन को युद्ध भूमि से भाग जाने को कहते, कि जाकर हिमालय में छुप जाओ। इसे हमें समझना होगा।
पृथ्वीराज चौहान ने कई बार मुहम्मद गोरी को युद्ध में हराया परन्तु हर बार क्षमा करके छोड़ दिया। अन्त में जब एक ही बार मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराया तो हम जानते हैं कि उनके साथ किस तरह का व्यवहार किया। उनकी आँखें तक निकल ली। इस तरह के लोगों के साथ क्षमा का व्यवहार श्रीभगवान नहीं बताते।
पृथ्वीराज चौहान ने कई बार मुहम्मद गोरी को युद्ध में हराया परन्तु हर बार क्षमा करके छोड़ दिया। अन्त में जब एक ही बार मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराया तो हम जानते हैं कि उनके साथ किस तरह का व्यवहार किया। उनकी आँखें तक निकल ली। इस तरह के लोगों के साथ क्षमा का व्यवहार श्रीभगवान नहीं बताते।
लागीं प्राणेंद्रियशरीरां,
आटणी करणें जें वीरा,
तेंचि तप ॥ १०८ ॥
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं कि अपने स्वरूप की प्राप्ति के लिए अपने शरीर इन्द्रिय, वाणी, मन को किस प्रकार कष्टपूर्वक लगाना है उसे तप कहते हैं। सभी के सुख के लिए शरीर, वचन और मन से कार्य करना अहिंसा का रूप है।
शरीरवाचामानसें,
राहाटणें तें अहिंसे,
रूप जाण ॥ ११४ ॥
जगत के भले के लिए कोरोना के जो कीटाणु हैं उन्हें हमें मारना ही होगा, यही अहिंसा कहलाएगी। कोई सैनिक अगर अपने देश की रक्षा के लिए शत्रु को मारता है तो वह अहिंसा कहलाएगी।
श्री गुरुदेव कहते हैं कि बन्दूक अच्छी है या बुरी, यह व्यक्ति पर निर्भर करता है। अगर वह सैनिक के हाथ में है और वह शत्रु को मार गिराती है तो वह अच्छी है परन्तु वह अगर किसी दोषी के हाथ में है और निर्दोष को मारती है तो वह बुरी है।
आगे श्रीभगवान कहते हैं-
11) सत्य:- भी दैवी सम्पत्ति है। सत्य की बड़ी महती श्रीभगवान गाते हैं।
11) सत्य:- भी दैवी सम्पत्ति है। सत्य की बड़ी महती श्रीभगवान गाते हैं।
ज्ञानेश्वर महाराज तो कहते हैं कि ज्ञानेश्वरी मेरे मुख से इसलिए प्रस्फुटित हुई क्योंकि कई जन्मों तक मैं असत्य नहीं बोला।
माझे सत्यवादाचे तप
भाचा केले कित्येक कल्प।
महाराज युधिष्ठिर सत्यवादी थे। उनका रथ जमीन से ऊपर चलता था परन्तु जब उन्होंने कहा कि अश्वत्थामा मारा गया हाथी या नर? तब रथ जमीन पर आ गया और कुछ समय के लिए उन्हें नरक के भी दर्शन हुए।
सत्यं वद धर्मं चर स्वाध्यायान्मा प्रमदः।
आचारस्य प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः॥
आचारस्य प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः॥
ऐसे हमारे गुरुकुलों में कहा जाता था। कौरवों और पाण्डवों को जब द्रोणाचार्य जी ने यह पाठ पढ़ाया और दूसरे दिन सभी से पूछा कि यह पाठ सबको याद हो गया तो युधिष्ठिर को छोड़कर सभी ने हामी भरी। युधिष्ठिर से अगले दिन गुरुदेव ने पूछा तब भी युधिष्ठिर ने कहा मुझे तो नहीं याद हुआ। तब द्रोणाचार्य जी बोले कि ऐसा कैसे हो सकता है? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि जब तक मैं थोड़ा भी असत्य बोलूँगा तब तक मुझे यह पाठ याद नहीं होगा। सत्य की इतनी महती है।
12) अक्रोध:- अक्रोध भी दैवी सम्पत्ति है। किसी पर क्रोध नहीं करना।
क्रोध आना और क्रोध करना दो अलग बातें हैं। व्यक्तिगत मान-अपमान मुझे सहन करना आ जाए। किसी की भलाई के लिए मुझे क्रोध करना पड़े तो अलग बात है। जैसे कोई माँ अपने बच्चों के भले के लिए उन्हें डाँटती है, क्रोध करती है।
एक बार स्वामी विवेकानन्द जी जहाज पर यात्रा कर रहे थे। उस समय कुछ यूरोपियन लोगों ने उनका उपहास किया, उनके रङ्ग को लेकर, उनके गेरुए कपड़ों को लेकर। स्वामी विवेकानन्द जी अपनी पुस्तक पढ़ते रहे, कुछ नहीं बोले परन्तु जैसे ही विदेशी भारत देश के बारे में उपहास करने लगेे तब स्वामी विवेकानन्द जी तुरन्त उठे और उनको कहा कि मैं तुम्हें अभी सागर में फेंक सकता हूँ। मैं मेरे देश का अपमान सहन नहीं करूँगा।
एक बार एक साधु जङ्गल से जा रहे थे और रास्ते में एक साँप दिखा। वह साँप सबको दंश करता था। उसने महाराज से पूछा कि क्या मेरा भी उन्नयन हो सकता है? तब साधु महाराज बोले हाँ, तुम दंश करना छोड़ दो। कुछ दिनों बाद वही साधु फिर से उस जङ्गल से जा रहे थे तब उन्होंने देखा कि साँप लहू लुहान स्थिति में पड़ा हुआ है। उन्होंने साँप से पूछा तुम्हारी यह स्थिति कैसे हुई? साँप बोला कि आपके उपदेश के बाद मैंने दंश करना छोड़ दिया, सब मुझे मारते हैं, परेशान करते हैं। साधु महाराज बोले, मैंने तुम्हें फुफकारने से मना नहीं किया था। कोई अगर तुम पर वार करे तो तुम्हें अपनी रक्षा करनी चाहिए।
अब आगे श्रीभगवान कहते हैं-
13)त्याग:- त्याग भी दैवी सम्पत्ति है।
13)त्याग:- त्याग भी दैवी सम्पत्ति है।
14) शान्ति:- अन्तःकरण की परम शान्ति।
जे ज्ञानगंगे नाहाले,
पूर्णता जेऊनि धाले।
जे शांतीसि आले,
पालव नवे ॥ १९० ॥
जे परिणामा निघाले कोंभ, पूर्णता जेऊनि धाले।
जे शांतीसि आले,
पालव नवे ॥ १९० ॥
जे धैर्यमंडपाचे स्तंभ।
जे आंनदसमुद्रीं कुंभ,
चुबकळोनि भरिले ॥ १९१ ॥
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं कि हमारा अन्तःकरण परम शान्ति से परिपूर्ण हो जाए।
15) अपैशुनम्:- अर्थात् चुगली न करना। इस गुण को हमें विकसित करना चाहिए। व्यर्थ में किसी की निन्दा नहीं करनी चाहिए।
16) दया:- अब्राहम लिंकन एक बार एक मीटिङ्ग में जा रहे थे। उन्होंने देखा एक सूअर नाली में फँसा हुआ था। वह अपनी गाड़ी से उतरे और उसे बाहर निकाला, उसके बाद मीटिङ्ग में पहुँचे और समय पर न पहुँचने के लिए सबसे क्षमा माँगी।
इस प्रकार की दया हम सन्तों के जीवन में देख सकते हैं।
17) अलोलुप्त:- लोलुप्त का अर्थ होता है लार टपकना। अलोलुप्त का अर्थ है विषयों का इन्द्रियों से संयोग होने के बाद भी कोई आसक्ति नहीं होना।
17) अलोलुप्त:- लोलुप्त का अर्थ होता है लार टपकना। अलोलुप्त का अर्थ है विषयों का इन्द्रियों से संयोग होने के बाद भी कोई आसक्ति नहीं होना।
18) मार्दवम्:- अर्थात् अन्तःकरण की मृदुता, जानबूझकर किसी का हृदय नहीं दु:खाना।
19) ह्रीर:- अर्थात् मर्यादा का पालन, लोक लज्जा। अपनी मर्यादा का पालन करना एक दैवी सम्पत्ति है।रामदास स्वामी जी कहते हैं-
सकला दुर्गुणा माजी दुर्गुण
आपले दुर्गुण वाटते गुण।
अपने दुर्गुण को गुण समझना सारे दुर्गुणों में सबसे बड़ा दुर्गुण है।
20) अचापलम्:- यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गुण है। इसका अर्थ है व्यर्थ क्रिया का अभाव।
हम कुछ काम लोगों को क्या लगेगा, यह सोचकर करते हैं जो कि व्यर्थ है। अन्य लोगों का देखकर दिखावे के लिए हम कई काम करते हैं।
हम कुछ काम लोगों को क्या लगेगा, यह सोचकर करते हैं जो कि व्यर्थ है। अन्य लोगों का देखकर दिखावे के लिए हम कई काम करते हैं।
जीवन के कल्याण के लिए व्यर्थ क्रियाओं से बचना एक दैवी गुण है।
तेजः क्षमा धृतिः(श्) शौचम्, अद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति सम्पदं(न्) दैवीम्, अभिजातस्य भारत।।16.3।।
तेज (प्रभाव), क्षमा, धैर्य, शरीर की शुद्धि, वैर भाव का न होना (और) मान को न चाहना, हे भरतवंशी अर्जुन ! (ये सभी) दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के (लक्षण) हैं।
विवेचन:- इस श्लोक में श्रीभगवान कहते हैं-
21) तेज अर्थात् तेजस्विता:- जीवन में तेज होना चाहिए, वाणी में तेजस्विता होनी चाहिए।
21) तेज अर्थात् तेजस्विता:- जीवन में तेज होना चाहिए, वाणी में तेजस्विता होनी चाहिए।
22) क्षमा:- अर्थात् किसी ने कुछ बुरा किया है तो उसे क्षमा करना। यह एक अर्थ है और दूसरा अर्थ है सहन करने की शक्ति।
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-
हे अनाक्रोश क्शमा, जयापाशीं प्रियोत्तमा,
जाण तेणें महिमा,
ज्ञानासि गा ॥ ३५३ ॥
वह कहते हैं कि आक्रोश में बार-बार किसी की बुराई याद करके उसको क्षमा करना और बात है परन्तु क्षमा अनाक्रोशी होनी चाहिए। यह ज्ञानेश्वर महाराज के जीवन में दिखती है। समाज ने उन पर कितने अत्याचार किये। सन्यासी की सन्तान होने के कारण उन्हें बहुत कष्ट दिया, निष्कासित किया परन्तु उन्होंने कभी आक्रोश नहीं किया।
23) धृति अर्थात् धैर्य:- शौर्य और धैर्य विजय रथ के दो पहिए कहे जाते हैं। धैर्य के भी दो अर्थ हैं- अङ्ग्रेज़ी में जिसे कहते हैं पेशेंस और करेज।
दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं।
24) शौचम् अर्थात शुचिता:- एक होती है स्वच्छता, एक होती है शुद्धता और एक होती है पवित्रता। हमारे घर में जो पानी आता है वह स्वच्छ होता है, हम उसे फिल्टर करते हैं तब वह शुद्ध हो जाता है परन्तु गङ्गाजल पवित्र है। श्रीभगवान अन्तर्बाह्य शुचिता के आग्रही हैं।
25) अद्रोह:- अर्थात् किसी से बिना कारण शत्रुता नहीं करना।
26) अन्त में श्रीभगवान कहते हैं,
नातिमानिता:- यहाँ पर श्रीभगवान समझाते हैं कि अपने जीवन में स्वयं के लिए मानिता होनी चाहिए, स्वाभिमान होना चाहिए, गौरव होना चाहिए परन्तु अगर हम दूसरों को नीचा दिखाते हुए अभिमानी बने तो यह दैवी सम्पत्ति नहीं है।
नातिमानिता:- यहाँ पर श्रीभगवान समझाते हैं कि अपने जीवन में स्वयं के लिए मानिता होनी चाहिए, स्वाभिमान होना चाहिए, गौरव होना चाहिए परन्तु अगर हम दूसरों को नीचा दिखाते हुए अभिमानी बने तो यह दैवी सम्पत्ति नहीं है।
श्रीभगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! इस प्रकार ये सब दैवी सम्पत्ति के लक्षण होते हैं ।
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च, क्रोधः(फ्) पारुष्यमेव च।
अज्ञानं(ञ्) चाभिजातस्य, पार्थ सम्पदमासुरीम्।।16.4।।
हे पृथानन्दन ! दम्भ करना, घमण्ड करना और अभिमान करना, क्रोध करना तथा कठोरता रखना और अविवेक का होना भी - (ये सभी) आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के (लक्षण) हैं।
विवेचन:- इस श्लोक में श्रीभगवान आसुरी सम्पत्ति का प्रारम्भ दम्भ से करते है।
दम्भ:-
दम्भ:-
श्री रामदास स्वामी कहते हैं-
उत्तम गुण अभ्यासिता येति।
अर्थात् अभ्यास करने से उत्तम गुण सङ्क्रमित हो जाते हैं। इसमें हमें कौन से आसुरी गुणों को दूर करना है, यह भी देखना होगा।
जिस प्रकार दैवी सम्पत्ति का पहला लक्षण भगवान ने अभय बताया, उसी प्रकार आसुरी सम्पत्ति का पहला लक्षण दम्भ बताया अर्थात् दिखावा या पाखण्ड। जब हमें दैवी सम्पत्ति के लक्षणों का पता चल जाता है तो हम उन्हें दिखाने का पाखण्ड करने लगते हैं।
इसके पीछे-पीछे अन्य सारी आसुरी सम्पत्तियों के लक्षण अपने आप आ जाते हैं।
दर्प:- अगला लक्षण है दर्प अर्थात् अपने कुल के लिए व्यर्थ अभिमान।
आगे श्रीभगवान ने कहा अभिमान, यहाँ इसका अर्थ है दूसरों को नीचा दिखाना।
क्रोध:- व्यक्तिगत आलोचना पर किया गया क्रोध। क्रोध से आस-पास का वातावरण भी कलुषित होता है। एक घटना में हमने देखा कि जब शङ्कराचार्य जी एवं मण्डन मिश्र जी का शास्त्रार्थ हो रहा था तब दोनों के गले में फूलों की माला पहनाई गई थी। क्रोध के कारण मण्डन मिश्र जी की माला सूख गई।
क्रोध:- व्यक्तिगत आलोचना पर किया गया क्रोध। क्रोध से आस-पास का वातावरण भी कलुषित होता है। एक घटना में हमने देखा कि जब शङ्कराचार्य जी एवं मण्डन मिश्र जी का शास्त्रार्थ हो रहा था तब दोनों के गले में फूलों की माला पहनाई गई थी। क्रोध के कारण मण्डन मिश्र जी की माला सूख गई।
पारुष्य:- अत्यन्त कठोरता। दूसरों के साथ थोड़ी भी सहानुभूति न रखते हुए जीवन जीना।
अज्ञान:- यह भी आसुरी सम्पत्ति का लक्षण है। जो ज्ञान को जो ढक देता है और असत्य को बढ़ावा देता है वह अज्ञान कहलाता है।
दैवी सम्पद्विमोक्षाय, निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः(स्) सम्पदं(न्) दैवीम्, अभिजातोऽसि पाण्डव।।16.5।।
दैवी सम्पत्ति मुक्ति के लिये (और) आसुरी सम्पत्ति बन्धन के लिये मानी गयी है। हे पाण्डव! (तुम) दैवी सम्पत्ति को प्राप्त हुए हो, (इसलिये तुम) शोक (चिन्ता) मत करो।
विवेचन:- इतने गुण सुनकर अर्जुन के चेहरे के भाव देख कर श्रीभगवान यहाँ बताते हैं कि दैवी सम्पत्ति मोक्ष प्रदान करने वाली है। मोक्ष शब्द का अर्थ है मोह से मुक्ति। यह देह छोड़ने के बाद की बात नहीं है।
श्रीभगवान अर्जुन को बताते हैं कि देह में रहते हुए ही दैवी सम्पत्ति को ग्रहण कर, अनुसरण कर दु:खों से कैसे मुक्ति प्राप्त करते हैं?
आसुरी सम्पत्ति बन्धन का, दु:ख का कारण है, परन्तु हे अर्जुन! तुम महाराज पाण्डु के पुत्र हो। ऋषि मुनियों के साथ वन में पले-बढे़ हो। शोक मत करो, तुमने दैवी सम्पत्तियों के साथ जन्म लिया है।
श्रीभगवान अर्जुन को बताते हैं कि देह में रहते हुए ही दैवी सम्पत्ति को ग्रहण कर, अनुसरण कर दु:खों से कैसे मुक्ति प्राप्त करते हैं?
आसुरी सम्पत्ति बन्धन का, दु:ख का कारण है, परन्तु हे अर्जुन! तुम महाराज पाण्डु के पुत्र हो। ऋषि मुनियों के साथ वन में पले-बढे़ हो। शोक मत करो, तुमने दैवी सम्पत्तियों के साथ जन्म लिया है।
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्, दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः(फ्) प्रोक्त , आसुरं(म्) पार्थ मे शृणु।।16.6।।
इस लोक में दो तरह के ही प्राणियों की सृष्टि है -- दैवी और आसुरी। दैवी को तो (मैंने) विस्तार से कह दिया, (अब) हे पार्थ! (तुम) मुझसे आसुरी को (विस्तार) से सुनो।
विवेचन:- भगवान यहाँ पर सारे विश्व का दो भागों में गुणों पर आधारित वर्गीकरण करते हैं। यहाँ पर किसी जाति, वर्ण, देश, सम्पन्न और असम्पन्न किसी पद्धति को मानने वाले, न मानने वाले ऐसा कोई भी विभाजन नहीं है।
सभी स्थान पर सभी प्रकार के लोग मिलेंगे। श्रीभगवान कहते हैं, हे अर्जुन! मैंने दैवी सम्पत्ति का विस्तार से वर्णन किया है अब आसुरी सम्पत्ति का वर्णन सुनो।
सभी स्थान पर सभी प्रकार के लोग मिलेंगे। श्रीभगवान कहते हैं, हे अर्जुन! मैंने दैवी सम्पत्ति का विस्तार से वर्णन किया है अब आसुरी सम्पत्ति का वर्णन सुनो।
प्रवृत्तिं(ञ्) च निवृत्तिं(ञ्) च, जना न विदुरासुराः।
न शौचं(न्) नापि चाचारो, न सत्यं(न्) तेषु विद्यते।।16.7।।
आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य किस में प्रवृत होना चाहिये और किससे निवृत्त होना चाहिये (इसको) नहीं जानते और उनमें न तो बाह्य शुद्धि, न श्रेष्ठ आचरण तथा न सत्य-पालन ही होता है।
विवेचन:- क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिए? आसुरी सम्पत्ति वाले व्यक्ति में यह विवेक नहीं होता है। पवित्रता भी नहीं होती है। आचरण में भी सत्यता नहीं होती है। सत्य की प्रतिष्ठा भी उनके जीवन में नहीं होती है।
असत्यमप्रतिष्ठं(न्) ते, जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं(ङ्), किमन्यत्कामहैतुकम्।।16.8।।
वे कहा करते हैं कि संसार असत्य, बिना मर्यादा के (और) बिना ईश्वर के अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से पैदा हुआ है। (इसलिये) काम ही इसका कारण है, इसके सिवाय और क्या कारण है? (और कोई कारण हो ही नहीं सकता।)
विवेचन:- आसुरी सम्पत्ति के लोग जगत में कोई प्रतिष्ठा नहीं रखते। इस जगत में किसी को अधिष्ठाता नहीं मानते।
वास्तव में वेदान्त में यह बात समझाई जाती है।
विठ्ठला,
तू वेडा कुंभार
माती पाणी, उजेड वारा,
तूच मिसळसी सर्व पसारा
आभाळच मग ये आकारा
तुझ्या घटांच्या उतरंडीला नसे अंत ना पार
घटा घटांचे रुप आगळे,
प्रत्येकाचे दैव वेगळे
तुझ्याविणा ते कोणा न कळे
मुखी कुणाच्या पडते लोणी, कुणा मुखी अंगार
तूच घडविसी, तूच फोडीसी, कुरवाळीसी तू तूच ताडीसी
न कळे यातून काय जोडीसी
देसी डोळे परी निर्मिसी तयापुढे अंधार।
कहते हैं, हे विट्ठल! तू ही बनाता है, तू ही बिगाड़ता है, तू ही मिट्टी को आकार देता है। किस प्रकार अपने समय पर सारी ऋतुएँ आती-जाती हैं परन्तु आसुरी सम्पत्ति वाले इस नियामक सृष्टि के रचयिता को नहीं मानते हैं। वे तो समझते हैं- खाओ पियो मौज करो। वे जगत को भोग-विलास के कारण, कामना के कारण उत्पन्न हुआ संसार मानते हैं। इस प्रकार ये असत्य का प्रचार करने वाले लोग हैं।
वास्तव में वेदान्त में यह बात समझाई जाती है।
No creation is without a creator.
अगर कहीं मटके रखे हुए हैं तो मनुष्य समझता है कि कुम्हार भी है। तो इस संसार में जब इतने घट है तो घटवासी भी होगा। हम श्रीभगवान को घट-घट वासी कहते हैं।
मराठी में कहते है-
फिरत्या चाकावरती देसी मातीला आकारविठ्ठला,
तू वेडा कुंभार
माती पाणी, उजेड वारा,
तूच मिसळसी सर्व पसारा
आभाळच मग ये आकारा
तुझ्या घटांच्या उतरंडीला नसे अंत ना पार
घटा घटांचे रुप आगळे,
प्रत्येकाचे दैव वेगळे
तुझ्याविणा ते कोणा न कळे
मुखी कुणाच्या पडते लोणी, कुणा मुखी अंगार
तूच घडविसी, तूच फोडीसी, कुरवाळीसी तू तूच ताडीसी
न कळे यातून काय जोडीसी
देसी डोळे परी निर्मिसी तयापुढे अंधार।
कहते हैं, हे विट्ठल! तू ही बनाता है, तू ही बिगाड़ता है, तू ही मिट्टी को आकार देता है। किस प्रकार अपने समय पर सारी ऋतुएँ आती-जाती हैं परन्तु आसुरी सम्पत्ति वाले इस नियामक सृष्टि के रचयिता को नहीं मानते हैं। वे तो समझते हैं- खाओ पियो मौज करो। वे जगत को भोग-विलास के कारण, कामना के कारण उत्पन्न हुआ संसार मानते हैं। इस प्रकार ये असत्य का प्रचार करने वाले लोग हैं।
एतां(न्) दृष्टिमवष्टभ्य, नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः, क्षयाय जगतोऽहिताः।।16.9।।
इस (पूर्वोक्त) (नास्तिक) दृष्टि का आश्रय लेने वाले जो मनुष्य अपने नित्य स्वरूप को नहीं मानते, जिनकी बुद्धि तुच्छ है, जो उग्र कर्म करने वाले (और) संसार के शत्रु हैं, उन मनुष्यों की सामर्थ्य का उपयोग जगत का नाश करने के लिये ही होता है।
विवेचन:- आसुरी जाति नहीं है, यह मनोवृति है। गलत सिद्धान्तों को फैलाना, व्यसन करना, इन सब का प्रचार करना। श्रीभगवान कहते हैं, ऐसे मन्दबुद्धि के लोग स्वयं की तो हानी करते ही हैं, गलत बातों के प्रचार प्रसार से दूसरों की हानि भी करते हैं। ऐसे उग्र प्रवृत्ति के लोग जग के नाश का कारण बनते हैं।
भगवद्गीता का उद्देश्य है-
सर्व भूत हिते रताः। सभी के कल्याण के लिए जीवन जीना।
भगवद्गीता का उद्देश्य है-
सर्व भूत हिते रताः। सभी के कल्याण के लिए जीवन जीना।
आज भी हम देख रहे हैं कहीं-कहीं युद्ध हो रहे हैं, छोटे-छोटे बालकों का वध किया जा रहा है।
काममाश्रित्य दुष्पूरं(न्), दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्, प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः।।16.10।।
कभी पूरी न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर दम्भ, अभिमान और मद में चूर रहने वाले (तथा) अपवित्र व्रत धारण करने वाले मनुष्य मोह के कारण दुराग्रहों को धारण करके (संसार में) विचरते रहते हैं।
विवेचन:- यह लोग कभी पूरी न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेते हैं। एक कामना पूरी होते-होते आगे दस कामनाएँ जन्म ले लेती हैं। अज्ञान और मोह के कारण गलत सिद्धान्त धारण करते हैं। आज भी हम देखते हैं कि किस प्रकार से भ्रष्टाचार होता है और इसको आगे और सङ्क्रमित किया जाता है। दम्भ, झूठे मान, मद में जीने वाले लोग होते हैं। सभी चीजों का सङ्ग्रह करते रहते हैं।
हमारे पूर्व राष्ट्रपति जिनके अकाउंट में सत्तर रुपए भी नहीं थे, उनका कोई घर भी नहीं था, इस तरह अपरिग्रह करने वाले लोगों का हमें अनुसरण करना चाहिए।
श्रीसमर्थ स्वामी रामदास जी कहते हैं -
पावन भिक्षा दे रे राम । दीनदयाळा दे रे राम ॥ ध्रु० ॥
अभेदभक्ती दे रे राम । आत्मनिवेदन दे रे राम ॥ १ ॥
तद्रूपता मज दे रे राम । अर्थारोहण दे रे राम ॥ २ ॥
सज्जनसंगति दे रे राम । अलिप्तपण मज दे रे राम ॥ ३ ॥
ब्रह्मअनुभव दे रे राम । अनन्यसेवा दे रे राम ॥ ४ ॥
मजविण तूं मज दे रे राम । दास म्हणे मज दे रे राम ॥ ५ ॥
अभेदभक्ती दे रे राम । आत्मनिवेदन दे रे राम ॥ १ ॥
तद्रूपता मज दे रे राम । अर्थारोहण दे रे राम ॥ २ ॥
सज्जनसंगति दे रे राम । अलिप्तपण मज दे रे राम ॥ ३ ॥
ब्रह्मअनुभव दे रे राम । अनन्यसेवा दे रे राम ॥ ४ ॥
मजविण तूं मज दे रे राम । दास म्हणे मज दे रे राम ॥ ५ ॥
इस प्रकार ये सन्त-महात्मा एवं श्री गुरुदेव हमें ऐसे मार्ग पर ले जाते हैं जिस पर हम चल पड़ें तो हमारे जीवन का उन्नयन होगा।
इस सुन्दर विवेचन को श्री गुरुदेव एवं श्री ज्ञानेश्वर महाराज के चरणों में समर्पित किया गया।
प्रश्नोत्तर सत्र:-
प्रश्नकर्ता:- हारा मिश्रा भैया
प्रश्न:- काम, क्रोध को किस प्रकार छोड़ा जा सकता है?
उत्तर:- इसके कई मार्ग हैं:-
1) योगासन, प्राणायाम करके।
प्राणायाम से मन वायु से लग जाता है और हमारे विकार घटने लगते हैं।
2) क्रोध आए तो उसके मूल कारण को खोजिए और उसका मनन कीजिए। धीरे-धीरे क्रोध की तीव्रता कम होती चली जाएगी।
3) अभ्यास और तप के माध्यम से भी इन विकारों पर नियन्त्रण करते हुए इन्हें छोड़ा जा सकता है।
प्रश्नकर्ता:- मुनमुन दीदी
प्रश्न:- प्रेम, भक्ति और कर्त्तव्य क्या एक सिक्के के दो पहलू हैं?
उत्तर:- कर्त्तव्य अलग होता है, जो हमें जन्म से प्राप्त होता है। यह हमारा स्वधर्म होता है जिसका हमें सबके प्रति निर्वाह करना होता है।
प्रेम और भक्ति अत्यन्त गहरे विषय हैं। प्रेम हमें हमारे परिवार से, समाज से और राष्ट्र से हो सकता है। जब प्रेम निष्काम होने लगता है, जब हमें प्रतिफल की आशा नहीं रहती है तो उसे भक्ति कहते हैं। जब हम अपने बच्चों से, परिवारजनों से प्रेम करते हैं और हमें उनके द्वारा इच्छित प्रतिफल नहीं मिलता है तो हम दुःखी हो जाते हैं किन्तु जब हमें उनसे किसी प्रतिफल की अपेक्षा न रहे, हमारे भीतर केवल प्रेम रस बह रहा है तो यह निष्काम प्रेम भक्ति बन जाता है। प्रेम का भाव प्रतिफल की अपेक्षा छोड़कर परमात्मा की ओर बहने लगता है तो यह भक्ति कहलाता है।
पैं भक्ति एकी मी जाणें,
तेथ सानें थोर न म्हणें।
आम्ही भावाचे पाहुणे,
भलतेया ॥ ३९५ ॥
ज्ञानेश्वर महाराज ऐसी भक्ति की बहुत सुन्दर व्याख्या करते हैं-
"कां सकळ जळसंपत्ती,
घेऊनि समुद्रातें गिंवसिती,
गंगा जैसी अनन्यगती,
मिळालीचि मिळे ॥ ६८७ ॥"
न अन्य अर्थात् जब अनन्य भक्ति होगी तो यह परमात्मा के प्रति निष्काम प्रेम की भावना होगी। भोगों से भाव तक, भाव से भक्ति तक अन्तः करण का उन्नयन जब होगा तो यह एक रस परमात्मा की ओर बहने वाले प्रेम से भक्ति प्राप्त होती है।
प्रश्नकर्ता:- हारा मिश्रा भैया
प्रश्न:- काम, क्रोध को किस प्रकार छोड़ा जा सकता है?
उत्तर:- इसके कई मार्ग हैं:-
1) योगासन, प्राणायाम करके।
प्राणायाम से मन वायु से लग जाता है और हमारे विकार घटने लगते हैं।
2) क्रोध आए तो उसके मूल कारण को खोजिए और उसका मनन कीजिए। धीरे-धीरे क्रोध की तीव्रता कम होती चली जाएगी।
3) अभ्यास और तप के माध्यम से भी इन विकारों पर नियन्त्रण करते हुए इन्हें छोड़ा जा सकता है।
प्रश्नकर्ता:- मुनमुन दीदी
प्रश्न:- प्रेम, भक्ति और कर्त्तव्य क्या एक सिक्के के दो पहलू हैं?
उत्तर:- कर्त्तव्य अलग होता है, जो हमें जन्म से प्राप्त होता है। यह हमारा स्वधर्म होता है जिसका हमें सबके प्रति निर्वाह करना होता है।
प्रेम और भक्ति अत्यन्त गहरे विषय हैं। प्रेम हमें हमारे परिवार से, समाज से और राष्ट्र से हो सकता है। जब प्रेम निष्काम होने लगता है, जब हमें प्रतिफल की आशा नहीं रहती है तो उसे भक्ति कहते हैं। जब हम अपने बच्चों से, परिवारजनों से प्रेम करते हैं और हमें उनके द्वारा इच्छित प्रतिफल नहीं मिलता है तो हम दुःखी हो जाते हैं किन्तु जब हमें उनसे किसी प्रतिफल की अपेक्षा न रहे, हमारे भीतर केवल प्रेम रस बह रहा है तो यह निष्काम प्रेम भक्ति बन जाता है। प्रेम का भाव प्रतिफल की अपेक्षा छोड़कर परमात्मा की ओर बहने लगता है तो यह भक्ति कहलाता है।
पैं भक्ति एकी मी जाणें,
तेथ सानें थोर न म्हणें।
आम्ही भावाचे पाहुणे,
भलतेया ॥ ३९५ ॥
ज्ञानेश्वर महाराज ऐसी भक्ति की बहुत सुन्दर व्याख्या करते हैं-
"कां सकळ जळसंपत्ती,
घेऊनि समुद्रातें गिंवसिती,
गंगा जैसी अनन्यगती,
मिळालीचि मिळे ॥ ६८७ ॥"
न अन्य अर्थात् जब अनन्य भक्ति होगी तो यह परमात्मा के प्रति निष्काम प्रेम की भावना होगी। भोगों से भाव तक, भाव से भक्ति तक अन्तः करण का उन्नयन जब होगा तो यह एक रस परमात्मा की ओर बहने वाले प्रेम से भक्ति प्राप्त होती है।
तुकाराम महाराज कहते हैं कि मुझे आपसे प्रेम ही चाहिए। परमात्मा के साथ प्रेम का यह आदान-प्रदान ही भक्ति कहलाता है।
प्रश्नकर्ता:- प्रेमनाथ उपाध्याय भैया
प्रश्न:- लोभ के सम्बन्ध में आपने जो श्लोक कहा था, वह कहाँ मिलेगा?
उत्तर:- यह भागवत जी का श्लोक है। यह स्वामी जी के मुखारविन्द से सुना था।
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे तरुण्या भयम् |
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयम्
सर्वं वस्तुभयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाSभयम् ||
प्रश्नकर्ता:- प्रेमनाथ उपाध्याय भैया
प्रश्न:- लोगों ने ज्ञानेश्वर महाराज का उपनयन संस्कार क्यों नहीं होने दिया था?
उत्तर:- ज्ञानेश्वर महाराज के पिताजी ने अपनी पत्नी रुक्मणी जी से बिना सहमति लिए संन्यास आश्रम ग्रहण कर लिया था। जिसके कारण वह बहुत दु:खी थीं। उन्होंने अत्यन्त कठोर तप-साधना की। तब आलन्दी में स्वयं विट्ठल महाराज जिनसे ज्ञानेश्वर महाराज के पिताजी ने दीक्षा ली थी, वह प्रकट हुए और उन्होंने रुक्मणी जी को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया। यह आशीर्वाद सुनकर वह रोने लगीं और सारी व्यथा कह सुनाई। इस पर विट्ठल महाराज ने अपने शिष्य अर्थात् ज्ञानेश्वर महाराज के पिताजी को आज्ञा दी कि यह गुरु आज्ञा है, तुम पुनः गृहस्थ आश्रम ग्रहण करो। धर्म के सञ्चालकों ने किसी संन्यासी द्वारा पुनः गृहस्थ आश्रम ग्रहण करने पर और पुत्र प्राप्ति पर अत्यन्त रोष जताते हुए उन पर कई प्रकार अत्याचार किये और ज्ञानेश्वर महाराज का उपनयन संस्कार भी नहीं होने दिया।
।।ॐ श्रीकृष्णार्पणमस्तु।।प्रश्न:- लोभ के सम्बन्ध में आपने जो श्लोक कहा था, वह कहाँ मिलेगा?
उत्तर:- यह भागवत जी का श्लोक है। यह स्वामी जी के मुखारविन्द से सुना था।
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे तरुण्या भयम् |
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयम्
सर्वं वस्तुभयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाSभयम् ||
प्रश्नकर्ता:- प्रेमनाथ उपाध्याय भैया
प्रश्न:- लोगों ने ज्ञानेश्वर महाराज का उपनयन संस्कार क्यों नहीं होने दिया था?
उत्तर:- ज्ञानेश्वर महाराज के पिताजी ने अपनी पत्नी रुक्मणी जी से बिना सहमति लिए संन्यास आश्रम ग्रहण कर लिया था। जिसके कारण वह बहुत दु:खी थीं। उन्होंने अत्यन्त कठोर तप-साधना की। तब आलन्दी में स्वयं विट्ठल महाराज जिनसे ज्ञानेश्वर महाराज के पिताजी ने दीक्षा ली थी, वह प्रकट हुए और उन्होंने रुक्मणी जी को पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया। यह आशीर्वाद सुनकर वह रोने लगीं और सारी व्यथा कह सुनाई। इस पर विट्ठल महाराज ने अपने शिष्य अर्थात् ज्ञानेश्वर महाराज के पिताजी को आज्ञा दी कि यह गुरु आज्ञा है, तुम पुनः गृहस्थ आश्रम ग्रहण करो। धर्म के सञ्चालकों ने किसी संन्यासी द्वारा पुनः गृहस्थ आश्रम ग्रहण करने पर और पुत्र प्राप्ति पर अत्यन्त रोष जताते हुए उन पर कई प्रकार अत्याचार किये और ज्ञानेश्वर महाराज का उपनयन संस्कार भी नहीं होने दिया।