विवेचन सारांश
कर्त्तव्य करते हुए वैराग्य की प्राप्ति
तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायों के नाम मिलते-जुलते है: कर्मयोग, ज्ञानकर्मसंन्यास तथा कर्मसंन्यासयोग।
अज्ञानी, जिसने गीता नहीं पढ़ी उसने संन्यास की परिभाषा को विस्तारित कर दिया। उसके लिए जो घर का त्याग कर हिमालय पर रहने लगा, वह संन्यासी है, जिसने भगवा वस्त्र पहने, वह संन्यासी है, लेकिन श्रीभगवान के अनुसार जो गृहस्थ है वह भी संन्यासी हो सकता है। सगुण-निर्गुण को मानने वाले सभी कर्मयोगी संन्यासी हैं, यदि उनमें आसक्ति नही है। पदार्थो की आसक्ति न होना ही संन्यासी है। सूखी रोटी या जलेबी, दोनों में जिसका भाव समान है, वह संन्यासी है। 'मन तो करेगा, किन्तु मैं नहीं करूँगा।'
ज्ञान की दृष्टि से स्वयं को सारी वासनाओं से, वैराग्य दृष्टि से मुक्त कर देना ज्ञानकर्मसंन्यासयोग कहलाता हैं।
तीसरा कर्मसंन्यासयोग जिसमें कर्ता बनने का भाव चला गया। शरीर को भूख लगी, हाथ ने खाना खिलाया, मैने कुछ नहीं किया।
विवेकानन्दजी के समकालीन एक सन्त स्वामी रामतीर्थ थे। वे लाहौर विश्वविद्यालय में गणित के प्रोफेसर थे। ज्ञानमार्ग का जो साहित्य उन्होंने लिखा वैसा विलक्षण साहित्य आधुनिक इतिहास में दुर्लभ है। वे भगवत् प्राप्त पुरुष थे। स्वामी विवेकानन्द जी की ही भाँति वे भी कम आयु में शरीर छोड़ कर चले गए। उन्होंने ज्ञानमार्ग पर बहुत ही अच्छी पुस्तक लिखी हैं। उनको भूख लगी तो 'अपने राम को भूख लगी है'। वे हमेशा कहते थे, 'अपने राम को जाना है, अपने राम को खाना हैं।' जो कुछ कर रहा है वह शरीर है।
वे अपने अन्त समय में हरिद्वार के निकट टिहरी जङ्गलों में जाकर ध्यान-साधना करते थे। एक दिन उनके मन में आया कि गर्मी हो रही है, नींबू शिकञ्जी मिल जाती तो बहुत अच्छा होता। थोड़ी देर बाद एक सेठ जी नीम्बू और चीनी लेकर स्वामी रामतीर्थ के पास आए और बोले मेरा मन हुआ कि आपको नींबू की शिकञ्जी पिलाऊँ। स्वामी रामतीर्थ चौंके और बोले कि यह तेरा सङ्कल्प नहीं है, किसी और ने भेजा है। उन्होंने सोचा कि मेरा मन सङ्कल्प करेगा और वह मेरे लिए कष्ट उठाएगा अतः उन्हें बहुत दुःख हुआ और उन्होंने नींबू उठाया और गङ्गा जी में फेंक दिया।
पहले अध्याय में अर्जुनविषादयोग में अर्जुन बोले, 'मैं संन्यास ले लूँगा, कुटुम्ब वालों को मारने का पाप मैं नहीं कर सकता।' भोग तो चाहते हैं किन्तु कुटुम्ब वालों को मारकर नहीं।
चौथे अध्याय के छत्तीसवें से बयालीसवें श्लोकों में श्रीभगवान ने जब ज्ञानमार्ग की बात की, तो छत्तीसवें श्लोक में श्रीभगवान ने कहा- "ज्ञानप्लेनैव" 'तुम ज्ञान रूपी नौका से भवसागर को पार कर जाओगे।' ज्ञान के समान अपने कर्त्तव्य के पालन के लिए युद्ध करो।'
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।
ज्ञान की अग्नि से तू अपने सारे कर्मों को भस्म कर दे। अड़तीसवें श्लोक में श्रीभगवान ने कहा कि ज्ञान साबुन की तरह है। ज्ञान व्यक्ति को चमका देता है। अर्जुन इन सबके लिए तैयार हो गया, किन्तु बयालीसवें श्लोक में श्रीभगवान ने कहा-
चित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ||"
'हे अर्जुन! तू हृदय में स्थित इस अज्ञान रूप और संशय रूप का विवेकरूपी तलवार से छेदन कर और कर्त्तव्य पालन के लिए उठ अर्जुन। यह सुनते ही अर्जुन पुनः अवसादग्रस्त हो गये। दूसरे अध्याय के छठे श्लोक की स्थिति में पहुँच कर सातवें श्लोक में उन्होंने जो कहा, वहीं से पाँचवें अध्याय का प्रथम श्लोक आरम्भ हुआ।
5.1
अर्जुन उवाच सन्न्यासं(ङ्) कर्मणां(ङ्) कृष्ण, पुनर्योगं(ञ्) च शंससि। यच्छ्रेय एतयोरेकं(न्), तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥5.1॥
विवेचन- अर्जुन श्रीभगवान से कहते हैं, “हे कृष्ण! आप कर्मों के संन्यास की बात कह रहे हैं, फिर कर्मयोग, फिर कह रहे हैं कि युद्ध करो, आप क्या कहना क्या चाह रहे हैं? एक तरफ आप कह रहे हैं कि संन्यास ले, दूसरी तरफ आप कह रहे हैं कि युद्ध कर। मेरे लिए जो श्रेष्ठ है, जो सुनिश्चित है, वह बताईये तथा मेरा मार्गदर्शन कीजिए।” अर्जुन भ्रम में हैं, अपना श्रेय चाहते हैं।
अर्जुन ने दूसरे अध्याय के सातवें श्लोक में भी यही शब्द कहे जो यहाँ कहे, अर्थात् अर्जुन की स्थित बड़ी सधी हुयी है। उन्होंने दोनों श्लोकों में चार शब्द समान बोले। अर्जुन की दृष्टि अपने कल्याण पर है इसलिए अर्जुन श्रीमद्भगवद्गीता सुनने के अधिकारी हैं। अर्जुन किसी भी प्रकार से अपना श्रेय चाहते हैं। युद्ध नहीं करना उनको प्रेय है किन्तु उन्हें पता है कि मुझे श्रेय की ओर जाना है। प्रेय का अर्थ है जो मैं करना चाहता हूँ, जबकि श्रेय जो मेरे लिए श्रेष्ठ है। प्रेय मेरी पसन्द है और श्रेय मेरा कर्त्तव्य।
कपिल महामुनि ने साङ्ख्ययोग का प्रवर्तन किया है। उसके समान दूसरा कोई ग्रन्थ ही नहीं है लेकिन विलक्षण होने के बाद भी वह केवल साङ्ख्ययोग तक सीमित है।
भक्ति मार्ग के साधकों के लिए नारद भक्तिसूत्र पढ़ना बहुत जरूरी है। इसमें भक्ति के सारे लक्षण हैं। नारद जी ने उस ग्रन्थ में भक्ति के अलावा कुछ नहीं कहा। विष्णु, शिव, देवी, कोई भी पुराण पढ़ेंगे तो उनमें केवल उन्हीं श्रीभगवान की स्तुति मिलेगी। यह सारे ग्रन्थ अपने एक-एक महात्म्य को लेकर सीमित रहे, लेकिन श्रीमद्भग्वद्गीता एकमात्र ग्रन्थ है जो सभी मार्गो की अनुशंसा करता है। जो जिस मार्ग का पथिक हो, उस मार्ग का सूत्र इस ग्रन्थ में मिल जाएगा।
हनुमान जी मूल रूप से ज्ञानयोगी थे। उनके विषय में कहा जाता है “ज्ञानिनामग्रगण्यम”
वैसे हनुमानजी के अन्दर कर्म, ज्ञान, भक्ति तीनों योग थे लेकिन उनका आरम्भिक जीवन केवल ज्ञानयोग का था। उनका वेदों और व्याकरण का बहुत गूढ़ अध्ययन था। जब रामजी ने हनुमान जी को पहली बार देखा, तब वह लक्ष्मण जी से कहते हैं कि यह जो मन्त्र बोल रहा है उसमें मैंने एक भी त्रुटि नहीं सुनी। ब्राह्मण की एक भी त्रुटि नहीं।
हनुमानजी के जीवन में कर्मयोग का आगमन तब हुआ जब समुद्र पार करना था। जामवन्त जी कहते है कि मैं बूढ़ा हो गया हूँ। अङ्गद जी कहते हैं कि मैं जा तो सकता हूँ लेकिन वापस नहीं आ सकता। हनुमान जी कुछ नहीं बोले। अकेले एकान्त में बैठे हुए थे। जामवन्त जी बोले, हनुमान जी आप चुप क्यों बैठे हैं?
का चुप साधि रहेऊ बलवाना
आप पवनपुत्र हैं, आप जा सकते हैं। तब हनुमान जी को अपनी शक्ति का ज्ञान हुआ।
कनक भूधराकार सरीरा, समर भयङ्कर अति बलबीरा
और तब हनुमान जी लंका के लिए निकल गए।
राम काज कीन्हें बिनु, मोहि कहाँ विश्राम
अब वह कर्मयोगी बन गए किन्तु अभी भी भक्ति का उदय नहीं हुआ है। जब वह लङ्का पहुँचे, तब विभीषण से मिले। विभीषण के घर से रामनाम की आवाज आ रही थी।
रामायुध अङ्कित गृह, शोभा बरनि ना जाए,
यह शुभ चिह्न देख कर वह आश्चर्यचकित रह गए। विभीषण जी ने दरवाजा खोलते ही हनुमान जी को गले लगा लिया, बोले-
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी।
उन्होने कहा कि आपको देखते ही मेरे हृदय में बड़ी प्रीति हो रही है। उन्होंने माता सीता से हनुमान जी को मिलाया और हनुमानजी ने विभीषणजी को रामजी से मिलाया इस तरह दोनों ने एक दूसरे को माता-पिता से मिलवाया और उसके बाद हनुमानजी के अन्दर भक्ति का उदय हो गया।
संसार के समस्त धर्म सम्प्रदाय मार्गों के आग्रही हैं। सारे धर्म यही कहते हैं कि पूजा कैसे करनी चाहिए? मन में क्या है यह नहीं जानते, उपासना किस तरह से हो, यह सभी धर्मों की मूल जड़ है।
श्रीकृष्ण ने चतुर्थ अध्याय में कहा है कि तुम मुझे किसी भी रूप में, धर्म में, ज्ञान में कैसे भी पूजा करो, मैं उपलब्ध रहूँगा। यह प्रेम, दया, करुणा ही श्रीभगवान हैं। गीताजी हमें यह सिखाती है कि मार्ग का आग्रह न होकर गन्तव्य का आग्रह हो।
उद्धव जी गए ज्ञान का उपदेश करने और भक्ति सीख कर आए। श्रीभगवान ने उनको कहा कि सिखा कर आओ, जबकि उनका तात्पर्य था कि सीख कर आओ। गोपियों ने सिखा दिया-
ये तो प्रेम की बातें है ऊधो, बन्दगी तेरे बस की नहीं है।
यहाँ प्रेंम के होते हैं सौदे, आशिकी इतनी नहीं है।।
श्रीभगवानुवाच सन्न्यासः(ख्) कर्मयोगश्च, निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्, कर्मयोगो विशिष्यते॥5.2॥
विवेचन- श्रीभगवान बोले कि कर्मसंन्यास और ज्ञानकर्मयोग दोनों ही उत्तम हैं। दोनों में ही कल्याण है पर इन दोनो में तुलना करें तो कर्मसंन्यासयोग से कर्मयोग साधना में सुलभ होने से ज्यादा श्रेष्ठ है।
ज्ञेयः(स्) स नित्यसन्न्यासी, यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो, सुखं(म्) बन्धात्प्रमुच्यते॥5.3॥
विवेचन- श्रीभगवान कहते हैं कि जो पुरुष राग-द्वेष से मुक्त है, जिसका मन आकांक्षा से रहित है, वह कर्मयोगी सदैव संन्यासी समझने योग्य है, क्योंकि द्वन्द्वों से रहित (मनुष्य) सुखपूर्वक संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है। श्रीभगवान ने कहा कि तुम अभी भी यह समझ रहे हो कि जङ्गल में जाने वाला संन्यासी है और मैं तुम्हें अभी भी यह समझाने का प्रयास कर रहा हूँ कि संन्यासी को जङ्गल में जाने की जरूरत नहीं, तुम जिस स्थान पर जो कर्म करते हो, उसमें द्वन्द्वों का त्याग अर्थात् इन सबमें जिसमें समत्त्व की भावना आ गईं, वह कर्मयोगी संन्यासी ही तो है। सुख-दु:ख, जय-पराजय, लाभ-हानि से जिसका मन मुक्त है, वह संन्यासी है।
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः(फ्), प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः(स्) सम्यग्, उभयोर्विन्दते फलम्॥5.4॥
विवेचन- यहाँ श्रीभगवान ने बालबुद्धि शब्द का प्रयोग किया है।
बालबुद्धि, अल्पबुद्धि, बालकों जैसी बुद्धि वाला व्यक्ति जो कर्मयोग और संन्यासयोग को अलग-अलग समझता है।
जिसने बातों को, ज्ञान को, अभ्यास से प्राप्त किया है और जो परिपक्व है उसे पण्डित कहा गया है। यहाँ पण्डित का अर्थ जाति से नहीं है। गीताजी में कहीं भी जाति की बात नहीं कही गयी है।
यदि हम ऋषिकेश जाना चाहें तो रास्ते अलग-अलग हो सकते हैं, साधन अलग-अलग हो सकते हैं, किन्तु गन्तव्य एक ही है। जो लक्ष्य पर पहुँचता है, उसमें सारे लक्षण एकसाथ प्रकट हो जाते हैं, अतः लक्ष्य एक होना चाहिए।
शबरी को न गुरुभक्ति आती थी, न ही योगभक्ति आती थी। उसे तो सिर्फ भक्ति आती थी, किन्तु फिर भी उसने स्तुति से श्रीभगवान को प्राप्त कर लिया तथा योगाग्नि में खुद को भस्म कर दिया।
वह स्वयं कहती थी-
अधम ते अधम, अधम अति नारी। केहि विधि स्तुति करहूँ तुम्हारी।।
श्रीभगवान ने उसे नवधा भक्ति का उपदेश दिया और कहा कि तेरे अन्दर पूरी नवधा भक्ति है। भक्ति के समर्पण के परिणाम से योग आदि सिद्धियाँ शबरी को प्राप्त हो गयीं। वे उसमें सिद्ध हो गयीं।
आदि शङ्कराचार्य भगवान जीवन भर वेदान्त का अध्ययन करते रहे। जब भगवान अद्वैत का अभ्यास करते-करते सिद्धि तक पहुँचे तो उनके अन्दर भक्तिभाव जागृत हुआ। उन्होंने कृष्णाष्टक लिखा, गङ्गा लहरी लिखी।
एक भजन है-
अतः एक ही रास्ता है भगवद्प्राप्ति का-
एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाएँ।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय॥
कबीर दास जी कहते हैं कि एक ही मार्ग पकड़ो तभी सारी उपलब्धियाँ प्राप्त होंगी। एक मार्ग, एक नामजप से शान्ति मिलती है। बार-बार मार्ग बदलने से शान्ति की प्राप्ति नहीं होती है।
हम कभी ध्यान कर लेते हैं, थोड़े दिन जप, फिर थोड़े दिन गीताजी का अध्ययन आदि बार-बार मार्ग बदलते रहते हैं। फिर हम कहते हैं कि हमने दस वर्ष तक नामजप किया है, तीन वर्ष तक ध्यान भी किया है आदि, लेकिन शान्ति अभी तक नहीं मिली। थोड़ा बहुत सब जानना गलत नहीं है किन्तु एक मार्ग का सतत अभ्यास हो तब जाकर उपलब्धि प्राप्त होती है।
यत्साङ्ख्यैः(फ्) प्राप्यते स्थानं(न्), तद्योगैरपि गम्यते।
एकं(म्) साङ्ख्यं(ञ्) च योगं(ञ्) च, यः(फ्) पश्यति स पश्यति॥5.5॥
विवेचन- ज्ञानयोगियों के द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों के द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है, अतः जो मनुष्य ज्ञानयोग और कर्मयोग को एक ही भाव से एक देखता है, वही यथार्थ देखता है।
यहाँ श्रीभगवान विधेय की बात कर रहे हैं। श्रीभगवान कहते हैं कि तुम जिस मार्ग से जाओगे, तुम्हें उसी मार्ग से वही सब प्राप्त हो जाएगा, तुम चिन्ता न करो।
सन्न्यासस्तु महाबाहो, दुःखमाप्तुमयोगतः।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म, नचिरेणाधिगच्छति॥5.6॥
विवेचन- श्रीभगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात् मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्त्तापन का त्याग होना अत्यन्त कठिन है और भग्वत्स्वरूप को प्राप्त होने वाला कर्मयोगी परमात्मा को शीघ्र प्राप्त हो जाता है।
यहाँ श्रीभगवान ने दूसरी बात कही। उन्होंने कहा कि संन्यास वृत्ति के बिना कर्मयोग अत्यन्त कठिन है। कर्त्तापन का त्याग वही कर सकेगा, जिसमें भोग से आसक्ति का त्याग हो जायेगा। सन्त रामतीर्थ जी की जगह हम होते तो सोचते कि श्रीभगवान ने भेजा है, आज तो शिकञ्जी पी लेते हैं। जो हम कर रहे है, आसक्ति का त्याग नहीं है। जो सन्त रामतीर्थ जी ने किया, वह आसक्ति का त्याग है। जो आसक्ति का नाश करता है वह कर्मयोगी परमात्मा को प्राप्त होता है।
योगयुक्तो विशुद्धात्मा, विजितात्मा जितेन्द्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा, कुर्वन्नपि न लिप्यते॥5.7॥
विवेचन- श्रीभगवान कहते हैं कि जिसका मन तथा इन्द्रियों पर नियन्त्रण है, जिसकी आत्मा विशुद्ध है, वही मुझे प्रिय है।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा, निर्मल मन जन सो मोहि पावा,
श्रीभगवान को कभी भी कपटी लोग नहीं पसन्द आते हैं। उन्हें हमेशा निर्मल मन ही पसन्द आता है इसलिए श्रीभगवान विभीषण को गले लगा लेते हैं। श्रीभगवान को प्राप्त करना है तो मन को निर्मल रखना होता है। कपटी व्यक्ति श्रीभगवान को प्रिय नहीं होते।
भीष्म पितामह का एक बहुत ही सुन्दर उदाहरण है। महाभारत का युद्ध समाप्त होने के पश्चात युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण से मिलने गए तो वह देखते हैं कि वे पद्मासन में बैठ कर ध्यान कर रहे हैं। युधिष्ठिर पूछते हैं कि स्वामी, जो तीनों लोकों के भगवान हैं, उनका ध्यान पूरी सृष्टि करती है, वह किसका ध्यान कर रहे हैं? तब श्रीकृष्ण भगवान कहते हैं कि वे भीष्म पितामह का ध्यान कर रहे हैं क्योंकि भीष्म पितामह हर समय उनका ही चिन्तन करते रहते थे। जब वे शरशैया पर थे, तब भी उन्हें सिर्फ श्रीकृष्ण भगवान का ही ध्यान था।
नैव किञ्चित्करोमीति, युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्, नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्॥5.8॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्, नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु, वर्तन्त इति धारयन्॥5.9॥
विवेचन- आठवाँ और नौवाँ श्लोक उच्चारण की दृष्टि से सबसे कठिन श्लोक है। श्रीभगवान कहते हैं, अर्जुन! तत्त्वों को जानने वाला योगी अर्थात् देखता हुआ, सुनता हुआ, छूता हुआ, सूँघता हुआ, खाता हुआ, चलता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, (मल-मूत्र का) त्याग करता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आँखें खोलता हुआ (और) मूँदता हुआ भी यह मानता है कि सम्पूर्ण इन्द्रियाँ ही इन्द्रियों के विषयों में बरत रही हैं।
इसका उदाहरण है कि शरीर को भूख लगी है, हाथ भोजन को उठा रहा है, आँखें भोजन को देख रही हैं, मुख भोजन को खा रहा है, दाँत चबा रहे हैं, गला निगल रहा है, पेट उसे पचा रहा है। मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूँ।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि, सङ्गं(न्) त्यक्त्वा करोति यः꠰
लिप्यते न स पापेन, पद्मपत्रमिवाम्भसा॥5.10꠱
विवेचन-
यहाँ श्रीभगवान ने बहुत सुन्दर उदाहरण दिया- पद्मपत्र। कमल बहुत विशिष्ट पुष्प है इसलिये श्रीभगवान के अङ्गों को सदैव कमल की उपमा दी जाती है। पद-कमल, कर-कमल, कमल-नयन।
कमल की उत्पत्ति जल से हुई। जल उसका जनक है। पङ्कज, नीरज, जलज सभी में ज जुड़ा है अतः ये जल के पर्यायवाची हैं। उन सब में ज जोड़ दो तो कमल के पर्यायवाची हो जाएँगे। यही संस्कृत भाषा का वैशिष्ट्य है।
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ
ब्रह्मा जी से पूर्व कमल की उत्पत्ति हुयी। पहले विष्णु भगवान की नाभि से कमल की उत्पत्ति हुई और कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। अतः वह श्रीभगवान का सबसे निकट है।
विष्णु जी की पत्नी का नाम है कमला और भगवान विष्णु का नाम कमलकान्त है।
कमल की पत्ती और कमलनाल की एक विशेषता होती है कि वह जितने गहरे पानी में जाएँगी, कमल को उतना ही ऊपर रखेंगी। कमल का पुष्प जल से ही उत्पन्न हुआ, जल में ही रहता है, किन्तु कभी जल को स्पर्श नहीं करता है। उसकी विशेषता होती है कि उस पर पानी की बूँद भी नहीं टिकती है इसलिये सन्तों ने सुन्दर भजन बनाया-
जो जग में रहूँ तो ऐसे रहूँ,
जैसे जल में कमल का फूल रहे
ऐसा योगी संसार से उत्पन्न हुआ संसार में रहकर संसार से विरक्त रहता है। ऐसा योगी सर्वश्रेष्ठ है।
श्रीराम का पुष्प वाटिका प्रसङ्ग में एक वर्णन आता है। श्रीभगवान जानकी जी को पहली बार देखते हैं, तो देखते ही रह जाते हैं। उनके नयन खुले ही रह जाते हैं। वापस आकर श्रीभगवान लक्ष्मण जी से कहते हैं कि मैंने कभी स्वप्न में भी किसी पर नारी का चिन्तन नहीं किया है। मेरा मन आज तक किसी नारी के रूप पर नहीं अटका, किन्तु आज जबसे जानकी जी को देखा, उनके प्रति मेरे मन में अत्यन्त प्रीति उत्पन्न हो रही है।
मोहि अतिसय प्रीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥
ठाकुर रामकृष्ण एक ब्रह्मसिद्ध महात्मा थे तथा काली माता से साक्षात बात करते थे। वह विवेकानन्द जी के गुरु थे। उन्हें गले का कैंसर हुआ। विवेकानन्द जी से उनका कष्ट देखकर रहा नहीं गया तो एक दिन उन्हें बोल दिया कि आप यदि अपने कैंसर पर ध्यान लगाएँगे तो वह हट जाएगा, तो आप कुछ करते क्यों नहीं हैं? परमहंस जी मुस्कुरा कर कृपा पूर्वक बोले, “बेटा नरेन्द्र! यदि मैं ध्यान करूँ तो मेेरे क्या, पूरी पृथ्वी के व्यक्तियों के मुख से कैंसर समाप्त हो जाए किन्तु उसके लिए मुझे श्रीभगवान से ध्यान हटाकर कैंसर पर ध्यान लगाना होगा, जो मैं नहीं कर सकता। सभी मनुष्यों के मुँह से मैं ही तो खा रहा हूँ।” तब विवेकानन्द जी को प्रथम बार बोध हुआ कि गुरुदेव कोई सामान्य व्यक्ति नहीं हैं। वे व्यष्टि से समष्टि में पहुँच गये हैं।
कर्मयोगी व्यष्टि से समष्टि तक पहुँच जाता है। आठवें और नौवें श्लोक में श्रीभगवान ने तेरह क्रियाएँ बताई हैं- पञ्च ज्ञानेन्द्रिय, पञ्च कर्मेन्द्रिय, मन, बुद्धि तथा चित्त। उन तेरह क्रियाओं में उसकी स्थिति “मैं कुछ करता ही नहीं हूँ" ऐसी हो जाती है।
इन्ही शब्दों के साथ आज के विवेचन सत्र का समापन हुआ।
प्रश्नोत्तर:
प्रश्नकर्ता: मुरली भैया
प्रश्न : साङ्ख्य योग क्या है? कृपया इसे थोड़ा और विस्तार से समझाएँ।
उत्तर : साङ्ख्य अर्थात् जिसमें सङ्ख्या का वर्णन है। ज्ञानयोग में एक तत्त्व से लेकर उन्तीस तत्त्वों तक का, श्रीभगवान को तथा जगत की समष्टि को समझने का अर्थात् उस परमात्त्म शक्ति को समझने का विश्लेषण है। एक तत्त्व अर्थात् एकोब्रह्म द्वितीयो नास्ति। इसका तात्पर्य है कि ब्रह्म एक ही है, दूसरा कुछ नहीं है। दो तत्त्व अर्थात् एक प्रकृति है तथा दूसरा परमात्मा है। तीन तत्त्व अर्थात् एक प्रकृति, एक पुरुष तथा एक परमात्मा है। फिर इसमें पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पञ्चमहाभूत जुड़ गए, मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार आदि जुड़ गए। इस प्रकार तेईस तत्त्व हो गये। ऐसा करते-करते सङ्ख्या से तत्त्वों का विवेचन करने की विधा को साङ्ख्य योग कहा गया है। महापुरुषों ने सङ्ख्या की दृष्टि से एक से लेकर उन्तीस तक तत्त्वों का जो विश्लेषण किया है, उसे साङ्ख्ययोग कहते हैं।
प्रश्नकर्ता: बजरङ्ग भैया
प्रश्न: आपने कर्मयोग के विषय में बताया है। किसी से कर्म होता है परन्तु कर्मयोग नहीं होता है। वह ग्रहस्थ आश्रम के कर्मों और यज्ञादि कर्मों का सन्तुलन बनाता है, तो क्या उसे इस लोक में तथा परलोक में स्वर्गादि मिल जाएँगे?
उत्तर : जी बिल्कुल मिल जाएँगे। उसका कर्मयोग से कोई लेना-देना नहीं है। वे शुभ कर्म तथा अशुभ कर्म हैं। शुभ कर्मों के फल से स्वर्गादि मिलेंगे तथा अशुभ कर्मों के फल से कुछ कष्ट भी मिलेंगे।
प्रश्नकर्ता: बीना दीदी
प्रश्न : जब हम श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ आरम्भ करते हैं तो बोलते हैं कि धृतराष्ट्र को सञ्जय ने दिव्य दृष्टि से यह सुनायी परन्तु यहाँ विवेचन में हमें यह ज्ञात हुआ कि श्रीमद्भगवद्गीता दसवें दिन आरम्भ हुयी और सञ्जय दस दिन तक युद्धभूमि में थे। इससे कुछ भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
उत्तर : युद्ध के दसवें दिन भीष्म पितामह शर-शैया पर आ गये, तब तक सञ्जय युद्धभूमि में थे। भीष्म पितामह का समाचार देने के लिए सञ्जय वापस हस्तिनापुर आये और धृष्टराष्ट्र को यह समाचार दिया। तब धृतराष्ट्र ने कहा कि मुझे आरम्भ से बताओ कि वहाँ क्या-क्या हुआ?
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ॥
तब सञ्जय ने दिव्य दृष्टि द्वारा भूतकाल का सब कुछ देख कर वैसा का वैसा ही बताना आरम्भ किया।
प्रश्नकर्ता: मोनिका दीदी
प्रश्न: बारहवें अध्याय भक्तियोग में श्रीभगवान ने कहा है कि मन और बुद्धि को मुझे अर्पित कर दो। हम सोचते हैं कि हमने मन और बुद्धि श्रीभगवान को अर्पित कर दी, लेकिन हमें कैसे पता चलेगा कि हमने वास्तव में मन और बुद्धि श्रीभगवान को अर्पित कर दी है?
उत्तर : हमारे मन में कोई भी सङ्कल्प उठे, तो यह मेरा सङ्कल्प नहीं है। जब बुद्धि में कोई भी बात हो तो मेरी प्रशंसा नहीं है। जो भी घट रहा है, वह श्रीभगवान का है। उस मन और बुद्धि में कोई भी पाप आता ही नहीं है, क्योंकि वह श्रीभगवान का है। जब ऐसा महसूस होने लगे, तब समझ लीजिये कि मन और बुद्धि श्रीभगवान को समर्पित हो गयी। जब तक मन में सङ्कल्प-विकल्प, इच्छाएँ-कामनाएँ, वासनाएँ तथा चालाकी है, तब तक बुद्धि समर्पित नहीं हुई, वह मेरे पास ही है।
प्रश्नकर्ता: देवी दीदी
प्रश्न : विष्णुसहस्रनाम में श्रीमद्भगवद्गीता के बहुत सारे श्लोक भी होते हैं। मेरा संशय यह है कि यह किसने तथा कब बोला है?
उत्तर : भीष्म पितामह ने शर-शैया पर लेटे-लेटे श्रीभगवान की स्तुति की है। श्रीकृष्ण भगवान उनके सामने खड़े हैं तथा भीष्म पितामह ने उनके एक सहस्र नामों से उन्हें प्रणाम करके उनकी स्तुति की इसलिए उसका नाम विष्णुसहस्रनाम पड़ा। यह महाभारत के शान्तिपर्व में हुआ।
प्रश्नकर्ता: भालचन्द्र भैया
प्रश्न: आपने बताया कि श्रीभगवान तक पहुँचने के अनेक मार्ग हैं, जैसे भक्तिमार्ग, ज्ञानमार्ग आदि किन्तु व्यक्ति को एक ही मार्ग चुनना चाहिए। सामान्यतः हम कभी रामायण पढ़ते हैं, कभी श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ते हैं और कभी पुराण पढ़ते हैं। कृपया बताएँ कि हमें क्या करना चाहिये?
उत्तर: समस्त ग्रन्थ पढ़ना भक्तिमार्ग ही है लेकिन यदि हम भक्ति छोड़कर कुछ दिन बिपश्यना करें, फिर कुछ दिन पश्चात उसे छोड़ कर श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ेंगे, इससे मनुष्य भटक जाता है। हम एक मार्ग चुनें तथा अवसर प्राप्त होने पर उसके साथ दूसरा कुछ कार्य भी करें तो उसमें आपत्ति की कोई बात नहीं है। हमारा नियत मार्ग छूटना नहीं चाहिये। सभी अपने जीवन में थोड़ा-थोड़ा हर मार्ग का अभ्यास करते हैं और यह सामान्य बात है, लेकिन एक मार्ग को छोड़कर दूसरे मार्ग को चुनने से हमारी प्रगति रुक जाती है।
प्रश्नकर्ता: जानकी दीदी
प्रश्न: मेरा प्रश्न है कि अर्जुन-विषाद योग कैसे हुआ?
उत्तर: आपका प्रश्न बहुत अच्छा है। अर्जुन का जो विषाद है, उसमें भी उसके मन में जो अपने कल्याण की भावना है, वह उसे श्रीभगवान से जोड़ देती है। “मैं युद्ध नहीं करूँगा” यह बात उसे प्रेय है, किन्तु उसे प्रेय नहीं अपितु श्रेय चाहिये। दूसरे अध्याय के सातवें श्लोक में वह स्पष्ट कहता है कि मुझे श्रेय ही चाहिये।
‘तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम’
अर्थात् आप मुझे वही मार्ग बताइये जो मेरे लिए कल्याणकारी है। अर्जुन रोते समय भी, अर्थात् विषाद करते समय भी श्रीभगवान से छूटना नहीं चाहते। वह कहते हैं कि आप ही मुझे मार्ग दिखाएँ। अर्जुन विषाद के समय भी श्रीभगवान से जुड़े रहे, इसलिए श्रीवेदव्यास भगवान ने अर्जुन के रोने को भी श्रीभगवान से जुड़ने का साधन बताया।
प्रश्नकर्ता: हरीश भैया
प्रश्न: भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापर युग में अर्जुन को श्रीमद्भग्वद्गीता का उपदेश दिया। वह कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड के नायक, जिनके सम्पर्क में अर्जुन रहे, उन भगवान श्रीकृष्ण को स्वयं अर्जुन को इतना समझाने की आवश्यकता क्यों पड़ी?
उत्तर: इसमें बहुत अधिक समय नहीं बल्कि केवल चालीस मिनट लगे थे। श्रीभगवान चाहते तो अर्जुन को केवल एक सङ्केत से समझा सकते थे, परन्तु उन्होंने अर्जुन को निमित्त बना कर हम सबके कल्याण के लिये यह सारे उपदेश दिये। अर्जुन बहुत ज्ञानी थे इसलिये उन्होंने एक ही बार श्रीमद्भगवद्गीता सुनी और कह दिया कि मेरा मोह नष्ट हो गया। अब जैसा आप कहते हैं, वैसा ही करूँगा। हम जैसे साधारण मनुष्य सैंकड़ों बार सुनकर भी यह नहीं कह पाते। यह हमारी और उनकी स्थिति का अन्तर है।
।। ॐ श्रीकृष्णार्पणमस्तु।।