विवेचन सारांश
समस्त सृष्टि राजविद्याराजगुह्ययोग के अधीन
प्रार्थना एवं दीप प्रज्वलन के उपरान्त परम पूज्य गुरुदेव और माँ सरस्वती को नमन करते हुए आज का विवेचन आरम्भ हुआ।
आज हम नवम अध्याय प्रारम्भ करने वाले है। इसके पहले हमने दो अध्यायों के बारे में जानकारी प्राप्त की - सोलहवाँ अध्याय एवम् सत्रहवाँ अध्याय।
मैं एक प्रश्न पूछती हूँ-
कौन सा अङ्क जादुई (magical) नम्बर कहा जाता है। बहुत से बच्चों ने नौ को जादुई अङ्क बताया। इसे जादुई (magical) नम्बर क्यों कहा जाता है?
इसका कारण है कि जब हम नौ का पहाड़ा (टेबल) लिखते हैं (9 ×2=18, 9×3 =27) और इनको जब जोड़ेंगे तो इनके उत्तर का जोड़- एक और आठ नौ होगा। दो और सात भी नौ होगा। इसी तरह पूरे नौ का पहाड़ा (टेबल) जब हम लिखेंगे और अङ्कों को जोड़ेंगे तो जोड़ नौ ही होगा, इसीलिए इसे जादुई (मैजिकल) अङ्क कहा जाता है। आज जो अध्याय आरम्भ हुआ, उसका नाम है-
राज विद्या का मतलब है विद्याओं का राजा। राज गुह्य का अर्थ होता है अत्यन्त गुप्त (सीक्रेट), ऐसा बोला जाता है। हम सभी आज इस विषय पर चर्चा करेंगे। यह अध्याय बहुत ही कठिन है। इसे बहुत ध्यान से सुनना होगा। अगर हम थोड़ा भी ध्यान इधर-उधर करेंगे तो यह अध्याय नहीं समझ पाएँगे। राजविद्याराजगुह्ययोग का प्रारम्भ करते हैं।
आज हम नवम अध्याय प्रारम्भ करने वाले है। इसके पहले हमने दो अध्यायों के बारे में जानकारी प्राप्त की - सोलहवाँ अध्याय एवम् सत्रहवाँ अध्याय।
सोलहवें अध्याय में हमने
छब्बीस दैवीय गुणों के बारे में जाना था।
छब्बीस दैवीय गुणों के बारे में जाना था।
इसके साथ ही हमने यह भी जाना कि जिनमें छब्बीस दैवीय गुण होते हैं वह श्रीभगवान का प्रिय होता है। सत्रहवें अध्याय में हमने श्रद्धा के बारे में जाना। श्रद्धा के अनुसार हम जैसा सोचते हैं वैसे ही बनते जाते हैं। हमने जाना कि हमें तीन प्रकार के भोजन- सात्त्विक, राजसिक, तामसिक में से कैसा भोजन करना चाहिये? हमने तीन प्रकार के यज्ञ, तीन प्रकार के तप देखे।
पूरे महाभारत के मध्य में है
गीता जी एवम् गीता जी के मध्य में है नवम् अध्याय।
गीता जी एवम् गीता जी के मध्य में है नवम् अध्याय।
मैं एक प्रश्न पूछती हूँ-
कौन सा अङ्क जादुई (magical) नम्बर कहा जाता है। बहुत से बच्चों ने नौ को जादुई अङ्क बताया। इसे जादुई (magical) नम्बर क्यों कहा जाता है?
इसका कारण है कि जब हम नौ का पहाड़ा (टेबल) लिखते हैं (9 ×2=18, 9×3 =27) और इनको जब जोड़ेंगे तो इनके उत्तर का जोड़- एक और आठ नौ होगा। दो और सात भी नौ होगा। इसी तरह पूरे नौ का पहाड़ा (टेबल) जब हम लिखेंगे और अङ्कों को जोड़ेंगे तो जोड़ नौ ही होगा, इसीलिए इसे जादुई (मैजिकल) अङ्क कहा जाता है। आज जो अध्याय आरम्भ हुआ, उसका नाम है-
राजविद्याराजगुह्ययोग।
राज विद्या का मतलब है विद्याओं का राजा। राज गुह्य का अर्थ होता है अत्यन्त गुप्त (सीक्रेट), ऐसा बोला जाता है। हम सभी आज इस विषय पर चर्चा करेंगे। यह अध्याय बहुत ही कठिन है। इसे बहुत ध्यान से सुनना होगा। अगर हम थोड़ा भी ध्यान इधर-उधर करेंगे तो यह अध्याय नहीं समझ पाएँगे। राजविद्याराजगुह्ययोग का प्रारम्भ करते हैं।
9.1
श्रीभगवानुवाच
इदं(न्) तु ते गुह्यतमं(म्), प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं(व्ँ) विज्ञानसहितं(य्ँ), यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥9.1॥
श्रीभगवान् बोले -- यह अत्यन्त गोपनीय विज्ञान सहित ज्ञान दोष दृष्टि रहित तेरे लिये तो (मैं फिर) अच्छी तरह से कहूँगा, जिसको जानकर (तू) अशुभ से अर्थात् जन्म-मरण रूप संसार से मुक्त हो जायगा।
विवेचन- श्रीभगवान यहाँ पर अर्जुन से कह रहे हैं कि हे अर्जुन! मैं यह परम गुह्य (टॉप सीक्रेट) राज तुम्हें ही बताऊँगा क्योंकि तुम अनसूय हो।
अनसूय का मतलब होता है किसी में दोष न देखना, जो किसी में दोष नहीं देखता उसे अनसूय कहते हैं। अगर किसी में अच्छाइयाँ हैं तो भी हम उसमें बुराइयों को देखते है। अगर आप से कहा जाए कि आप इस पर एक पुस्तक लिखें तो आप बहुत मोटी पुस्तक बुराइयों पर लिख डालेंगे। अगर तारीफ लिखने को कहा जाये तो हम नहीं लिख पायेंगे। ऐसा हमारा व्यवहार, स्वभाव हो जाता है कि हम सिर्फ बुराइयों को देखते हैं। हमें सभी के अन्दर अच्छाइयों को ढूँढना चाहिए, लेकिन आज कल हम लोग बुराइयों को देखते हैं और अच्छाइयों को अनदेखा कर देते हैं। बुराइयों को उजागर करतें हैं।
श्रीभगवान अर्जुन को कहते हैं कि तुम दूसरे में दोष नहीं देखते हो इस लिए मैं तुम्हें यह ज्ञान बताता हू्ँ। यहाँ एक शब्द आया है 'गुह्यतम' इसका मतलब होता है सीक्रेट, अत्यन्त सीक्रेट। इसको बतलाया नहीं जा सकता है। हमारा सीक्रेट जो होता है वह बहुत गन्दा होता है लेकिन जो श्रीभगवान का सीक्रेट होता है वह बहुत पवित्र, शुद्ध, गुह्यतम और बहुत ज्ञानवर्धक होता है। जब हम अपना सीक्रेट किसी को बताते हैं तो हँसी के पात्र बन जाते हैं लेकिन श्रीभगवान का सीक्रेट ऐसा नहीं होता है, वह तो बहुत अच्छा होता है, ज्ञानवर्द्धक होता है। जिसे पता चलेगा वह ज्ञानी हो जायेगा।
गुह्यतम का अर्थ होता है टॉप सीक्रेट। जो हम किसी को बता नहीं सकते, लेकिन श्रीभगवान ने अर्जुन को यह टॉप सीक्रेट बताया है। श्रीभगवान अर्जुन को बहुत पसन्द करते हैं। अर्जुन उनके प्रिय शिष्य हैं इसलिए वे अर्जुन को ज्ञान-विज्ञान की बातें बताते हैं।
ज्ञानं विज्ञान सहितम्। ज्ञान का मतलब होता है जानना। विज्ञान का मतलब होता है जिसका हमने अनुभव कर लिया। जैसे हम सभी को चाय बनाने के लिए रसोई में जाना होता है। चाय कैसे बनती है? उसमें हम चीनी, चाय पत्ती, अदरक, इलायची डालकर कर बनाते हैं। किसी चीज का अभ्यास कर लेना विज्ञान है। किसी भी चीज का गहराई से अनुभव करना एवम् अभ्यास करना ही विज्ञान कहलाता है। श्रीभगवान कहते हैं, हे अर्जुन! इस गुह्य ज्ञान को विज्ञान सहित जान कर और मेरी शरण में आकर तू जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जायेगा, अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेगा।
अनसूय का मतलब होता है किसी में दोष न देखना, जो किसी में दोष नहीं देखता उसे अनसूय कहते हैं। अगर किसी में अच्छाइयाँ हैं तो भी हम उसमें बुराइयों को देखते है। अगर आप से कहा जाए कि आप इस पर एक पुस्तक लिखें तो आप बहुत मोटी पुस्तक बुराइयों पर लिख डालेंगे। अगर तारीफ लिखने को कहा जाये तो हम नहीं लिख पायेंगे। ऐसा हमारा व्यवहार, स्वभाव हो जाता है कि हम सिर्फ बुराइयों को देखते हैं। हमें सभी के अन्दर अच्छाइयों को ढूँढना चाहिए, लेकिन आज कल हम लोग बुराइयों को देखते हैं और अच्छाइयों को अनदेखा कर देते हैं। बुराइयों को उजागर करतें हैं।
श्रीभगवान अर्जुन को कहते हैं कि तुम दूसरे में दोष नहीं देखते हो इस लिए मैं तुम्हें यह ज्ञान बताता हू्ँ। यहाँ एक शब्द आया है 'गुह्यतम' इसका मतलब होता है सीक्रेट, अत्यन्त सीक्रेट। इसको बतलाया नहीं जा सकता है। हमारा सीक्रेट जो होता है वह बहुत गन्दा होता है लेकिन जो श्रीभगवान का सीक्रेट होता है वह बहुत पवित्र, शुद्ध, गुह्यतम और बहुत ज्ञानवर्धक होता है। जब हम अपना सीक्रेट किसी को बताते हैं तो हँसी के पात्र बन जाते हैं लेकिन श्रीभगवान का सीक्रेट ऐसा नहीं होता है, वह तो बहुत अच्छा होता है, ज्ञानवर्द्धक होता है। जिसे पता चलेगा वह ज्ञानी हो जायेगा।
गुह्यतम का अर्थ होता है टॉप सीक्रेट। जो हम किसी को बता नहीं सकते, लेकिन श्रीभगवान ने अर्जुन को यह टॉप सीक्रेट बताया है। श्रीभगवान अर्जुन को बहुत पसन्द करते हैं। अर्जुन उनके प्रिय शिष्य हैं इसलिए वे अर्जुन को ज्ञान-विज्ञान की बातें बताते हैं।
ज्ञानं विज्ञान सहितम्। ज्ञान का मतलब होता है जानना। विज्ञान का मतलब होता है जिसका हमने अनुभव कर लिया। जैसे हम सभी को चाय बनाने के लिए रसोई में जाना होता है। चाय कैसे बनती है? उसमें हम चीनी, चाय पत्ती, अदरक, इलायची डालकर कर बनाते हैं। किसी चीज का अभ्यास कर लेना विज्ञान है। किसी भी चीज का गहराई से अनुभव करना एवम् अभ्यास करना ही विज्ञान कहलाता है। श्रीभगवान कहते हैं, हे अर्जुन! इस गुह्य ज्ञान को विज्ञान सहित जान कर और मेरी शरण में आकर तू जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जायेगा, अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेगा।
राजविद्या राजगुह्यं(म्), पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं(न्) धर्म्यं(म्), सुसुखं(ङ्) कर्तुमव्ययम्।।9.2।।
यह (विज्ञान सहित ज्ञान अर्थात् समग्र रूप) सम्पूर्ण विद्याओं का राजा (और) सम्पूर्ण गोपनीयों का राजा है। यह अति पवित्र (तथा) अतिश्रेष्ठ है (और) इसका फल भी प्रत्यक्ष है। यह धर्ममय है, अविनाशी है (और) करने में बहुत सुगम है अर्थात् इसको प्राप्त करना बहुत सुगम है।
विवेचन- यह अध्याय थोड़ा कठिन है। समझना तो पड़ेगा इसलिए ध्यान से इस अध्याय से सुनिए। इस अध्याय में राजविद्या एवम् राजगुह्य के विषय में बताया गया है। राजविद्या का मतलब राजाओं की विद्या नहीं है। यहाँ राजविद्या का मतलब होता है सभी विद्याओं में सर्वश्रेष्ठ।
राजगुह्य का अर्थ होता है गोपनीयों का राजा। हम बहुत सारी भाषाएँ पढ़ते हैं लेकिन सभी भाषाओं को उच्च (सुपीरियर) नहीं कहा गया है, क्योंकि कुछ वर्षों बाद हम उन्हें भूल जाते हैं। यहाँ श्रीभगवान बताते हैं कि एक बार जो राज विद्या हम ने पा ली वह हम कभी भूलेंगे नहीं। वह हम जन्मों तक याद रखेंगे। वह हमारे साथ ही जाएगी। जैसे मान लीजिए, हम कार चलाना सीखते हैं, चित्रकारी (पेंटिंग) सीखते हैं और अन्य चीज सीखते हैं, वह हमेशा नहीं रहती। हम इस संसार में कोई भी विद्या प्राप्त करते हैं तो वह इस संसार में ही समाप्त हो जाती है किन्तु राजविद्या एवम् राजगुह्य योग हमें जन्मों तक याद रहेगा और साथ भी जायेगा। अगले जन्म में भी यह हमारे काम आएगा इसलिए इस विद्या को सबसे उच्च (सुपीरियर) माना गया है। ।सभी विद्याओं में यह सर्वोत्तम है।
पवित्रमिदमुत्तम्-
यह बहुत पवित्र और बहुत उत्तम है।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यम्-
इसका फल भी प्रत्यक्ष( तुरन्त) मिलता है। यह धर्म से युक्त है।
सुसुखम्-
सुगम सरल एवम् सुखदाई है।
अव्यय-
मतलब अविनाशी होता है। जिसको नष्ट नहीं किया जा सकता वह अविनाशी है। राज विद्या अविनाशी है, इसको नष्ट (destroy) नहीं किया जा सकता।
राजगुह्य का अर्थ होता है गोपनीयों का राजा। हम बहुत सारी भाषाएँ पढ़ते हैं लेकिन सभी भाषाओं को उच्च (सुपीरियर) नहीं कहा गया है, क्योंकि कुछ वर्षों बाद हम उन्हें भूल जाते हैं। यहाँ श्रीभगवान बताते हैं कि एक बार जो राज विद्या हम ने पा ली वह हम कभी भूलेंगे नहीं। वह हम जन्मों तक याद रखेंगे। वह हमारे साथ ही जाएगी। जैसे मान लीजिए, हम कार चलाना सीखते हैं, चित्रकारी (पेंटिंग) सीखते हैं और अन्य चीज सीखते हैं, वह हमेशा नहीं रहती। हम इस संसार में कोई भी विद्या प्राप्त करते हैं तो वह इस संसार में ही समाप्त हो जाती है किन्तु राजविद्या एवम् राजगुह्य योग हमें जन्मों तक याद रहेगा और साथ भी जायेगा। अगले जन्म में भी यह हमारे काम आएगा इसलिए इस विद्या को सबसे उच्च (सुपीरियर) माना गया है। ।सभी विद्याओं में यह सर्वोत्तम है।
पवित्रमिदमुत्तम्-
यह बहुत पवित्र और बहुत उत्तम है।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यम्-
इसका फल भी प्रत्यक्ष( तुरन्त) मिलता है। यह धर्म से युक्त है।
सुसुखम्-
सुगम सरल एवम् सुखदाई है।
अव्यय-
मतलब अविनाशी होता है। जिसको नष्ट नहीं किया जा सकता वह अविनाशी है। राज विद्या अविनाशी है, इसको नष्ट (destroy) नहीं किया जा सकता।
अश्रद्दधानाः(फ्) पुरुषा, धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां(न्) निवर्तन्ते, मृत्युसंसारवर्त्मनि।।9.3।।
हे परंतप! इस धर्म की महिमा पर श्रद्धा न रखने वाले मनुष्य मुझे प्राप्त न होकर मृत्युरूप संसार के मार्ग में लौटते रहते हैं अर्थात् बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं।
विवेचन- श्रद्धा के साथ जो कुछ हम करते हैं उसका लाभ होता है। बिना श्रद्धा के कोई (बेनिफिट) लाभ नहीं होता है इसलिए हमें श्रद्धा के साथ कार्य करना चाहिए। जो श्रद्धा के बिना कोई कार्य करता है वह मुझे प्राप्त नहीं कर सकता है। बिना श्रद्धा के जो कार्य करते हैं वह बार-बार इस धरती पर आएँगे और फिर चले जायेंगे, इसलिए श्रद्धा से कार्य करना चाहिए। आने-जाने का यह चक्र ऐसे ही चलता रहेगा।
चौथे अध्याय में श्रीभगवान कहते है,
श्रद्धावान को ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। हमारे शिक्षक (टीचर) हमको जो कुछ पढ़ाते हैं अगर उनमें श्रद्धा नहीं है तो हम कोई भी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं। शिक्षक जो हमें पढ़ा रहे हैं उनमें मेरी श्रद्धा नहीं है तो हम उन पर विश्वास (trust) नहीं कर रहे हैं तो हम वह ज्ञान अर्जित नहीं कर पायेंगे। श्रद्धा बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। हमें हमेशा श्रद्धा और विश्वास रखना चाहिए और श्रीभगवान पर श्रद्धा रखना चाहिए। श्रद्धा से श्रीभगवान को मानते हैं तो इस धरती पर बार-बार हमें आना-जाना नहीं पड़ेगा। दूसरों में दोषदृष्टि रखने वाले श्रद्धा को प्राप्त नहीं कर पाते। वे बार-बार जन्म-मृत्यु के बन्धन में फँसते हैं।
चौथे अध्याय में श्रीभगवान कहते है,
श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं'
श्रद्धावान को ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। हमारे शिक्षक (टीचर) हमको जो कुछ पढ़ाते हैं अगर उनमें श्रद्धा नहीं है तो हम कोई भी ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं। शिक्षक जो हमें पढ़ा रहे हैं उनमें मेरी श्रद्धा नहीं है तो हम उन पर विश्वास (trust) नहीं कर रहे हैं तो हम वह ज्ञान अर्जित नहीं कर पायेंगे। श्रद्धा बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। हमें हमेशा श्रद्धा और विश्वास रखना चाहिए और श्रीभगवान पर श्रद्धा रखना चाहिए। श्रद्धा से श्रीभगवान को मानते हैं तो इस धरती पर बार-बार हमें आना-जाना नहीं पड़ेगा। दूसरों में दोषदृष्टि रखने वाले श्रद्धा को प्राप्त नहीं कर पाते। वे बार-बार जन्म-मृत्यु के बन्धन में फँसते हैं।
मया ततमिदं(म्) सर्वं(ञ्), जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि, न चाहं(न्) तेष्ववस्थितः।।9.4।।
यह सब संसार मेरे निराकार स्वरूप से व्याप्त है। सम्पूर्ण प्राणी मुझ में स्थित हैं; परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ तथा (वे) प्राणी (भी) मुझ में स्थित नहीं हैं - मेरे इस ईश्वर-सम्बन्धी योग (सामर्थ्य) को देख ! सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाला और प्राणियों का धारण, भरण-पोषण करने वाला मेरा स्वरूप उन प्राणियों में स्थित नहीं है। (9.4-9.5)
विवेचन- यहाँ श्रीभगवान राज विद्या के विषय में बताना शुरू करते हैं। वे कह रहे हैं कि यह पूरा संसार मेरे द्वारा ही बनाया गया है लेकिन मैं उसमें उपस्थित नहीं हूँ। बर्फ़ के उदाहरण से इसको समझते हैं, बर्फ पानी का ही जमा हुआ रूप है लेकिन बर्फ को ऐसे नहीं पिया जा सकता। उसे पानी में डालकर पिया जा सकता है। बर्फ को पानी की तरह नहीं बहाया जा सकता है। बर्फ जब तक है तब तक हम उसे नहीं पी सकते हैं। जैसे वह बर्फ पानी से बना है लेकिन उसमें पानी नहीं है, वैसे ही श्रीभगवान हैं, यह संसार श्रीभगवान से बना है, लेकिन वे उसमें नहीं हैं।
न च मत्स्थानि भूतानि, पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो, ममात्मा भूतभावनः।।9.5।।
विवेचन- श्रीभगवान कहते हैं कि सभी प्राणी मेरे में निहित नहीं हैं, लेकिन मैंने ही उन्हें बनाया है। श्रीभगवान कहते हैं कि न कोई मुझ में है न मैं उनमें हूँ लेकिन मेरी शक्ति (पावर) से सब कुछ चल रहा है।
यथाकाशस्थितो नित्यं(व्ँ), वायुः(स्) सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि, मत्स्थानीत्युपधारय॥9.6॥
जैसे सब जगह विचरने वाली महान् वायु नित्य ही आकाश में स्थित रहती है, ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी मुझमें ही स्थित रहते हैं - ऐसा तुम मान लो।
विवेचन- आकाश में वायु होती है पर वायु में आकाश नहीं है। वायु आकाश के बिना नहीं होती पर आकाश में वायु है, वायु में आकाश नहीं है। श्रीभगवान कहते हैं, वैसे ही सभी मुझसे उत्पन्न होते हैं पर मैं उनमे नहीं हूँ।
सर्वभूतानि कौन्तेय, प्रकृतिं(य्ँ) यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि, कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥9.7॥
हे कुन्तीनन्दन ! कल्पों का क्षय होने पर (महाप्रलय के समय) सम्पूर्ण प्राणी मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं (और) कल्पों के आदि में (महासर्ग के समय) मैं फिर उनकी रचना करता हूँ।
विवेचन- सामान्यतय: हम जानते हैं कि सतयुग, द्वापरयुग, त्रेतायुग और कलयुग इन चार युगों का एक कल्प होता है।
चार लाख बत्तीस हजार वर्ष का कलयुग, आठ लाख चौंसठ हजार वर्ष का द्वापरयुग,
बारह लाख छियानवें हजार वर्ष का त्रेता युग और
सत्रह लाख अट्ठाईस हजार वर्ष का सतयुग होता है।
इस तरह तैतालीस लाख बीस हजार मनुष्य वर्ष की एक चतुर्युगी होती है। ब्रह्मा जी के एक दिन का आधा भाग अर्थात् बारह घण्टे का एक कल्प होता है।
तैतालिस लाख बीस हजार गुणा इकहत्तर, यह एक मनु का काल हुआ।
चार युग का एक कल्प, इसे चतुर्युगी कहते हैं।
इकहत्तर (71 times) चतुर्युगी का एक कल्प होता है।
इकहत्तर (71 times) चतुर्युगी का एक कल्प होता है।
चार लाख बत्तीस हजार वर्ष का कलयुग, आठ लाख चौंसठ हजार वर्ष का द्वापरयुग,
बारह लाख छियानवें हजार वर्ष का त्रेता युग और
सत्रह लाख अट्ठाईस हजार वर्ष का सतयुग होता है।
इस तरह तैतालीस लाख बीस हजार मनुष्य वर्ष की एक चतुर्युगी होती है। ब्रह्मा जी के एक दिन का आधा भाग अर्थात् बारह घण्टे का एक कल्प होता है।
ब्रह्मा जी का आधा दिन अर्थात् बारह घण्टे में चौदह मनु होते हैं। एक मनु की अवधि इकहत्तर चतुर्युगी की होती है।
अभी हम जिस मनु में जी रहे हैं वह है, वैवस्वत मनु।
तैतालिस लाख बीस हजार गुणा इकहत्तर, यह एक मनु का काल हुआ।
यह जो कुछ भी है उसके गुणा चौदह, लगभग एक हजार, तो एक हजार चतुर्युगी अर्थात् ब्रह्मा जी के बारह घण्टे। ब्रह्मा जी बारह घण्टे सोते हैं और बारह घण्टे जागते हैं। ब्रह्मा जी जब जागते हैं तो कल्प की रचना करते हैं और जब वे सोते हैं तो यह कल्प उनमें समाहित हो जाता है। ब्रह्मा जी के सोने पर यह जो कल्प उनमें समाहित हो जाता है तो वह जाता कहाँ है?
इसे एक एक छोटे से उदाहरण से समझते हैं।
मिट्टी (क्ले) से हम बहुत शेप बनाते हैं। उससे मिट्टी के अलग-अलग खिलौने बनाते हैं । बार-बार बनाते हैं। यह प्रक्रिया चलती रहती है। इस मिट्टी की पिण्डी को ब्रह्मजी का अण्ड कहा गया है अर्थात ब्रह्माण्ड। ब्रह्माजी के सो जाने पर यह पिण्ड उनमें समा जाता है और जागने पर फिर से उसकी रचना होती है। श्रीभगवान सृष्टि को रचते हैं। जो जैसा कर्म करता है उसका वैसी ही आकार बनाते हैं। मरते समय हमारे मन में जो भावनाएँ आती हैं, हम वही रूप मरने के पश्चात धारण करते हैं। श्रीभगवान हमारी रचना हमारे कर्मों के अनुसार करते हैं। जो जैसा कर्म करता है उसे वैसी ही योनि प्राप्त होती है।
अगले जन्म में जब हम पैदा होंगे तो हाथी बनेंगे? कुत्ता बनेंगे या बन्दर बनेंगे?या कि मनुष्य ही बनेंगे? हम क्या बनेंगे! यह हम अगले श्लोक में सुनेंगे। मिट्टी (क्ले) से हम बहुत शेप बनाते हैं। उससे मिट्टी के अलग-अलग खिलौने बनाते हैं । बार-बार बनाते हैं। यह प्रक्रिया चलती रहती है। इस मिट्टी की पिण्डी को ब्रह्मजी का अण्ड कहा गया है अर्थात ब्रह्माण्ड। ब्रह्माजी के सो जाने पर यह पिण्ड उनमें समा जाता है और जागने पर फिर से उसकी रचना होती है। श्रीभगवान सृष्टि को रचते हैं। जो जैसा कर्म करता है उसका वैसी ही आकार बनाते हैं। मरते समय हमारे मन में जो भावनाएँ आती हैं, हम वही रूप मरने के पश्चात धारण करते हैं। श्रीभगवान हमारी रचना हमारे कर्मों के अनुसार करते हैं। जो जैसा कर्म करता है उसे वैसी ही योनि प्राप्त होती है।
प्रकृतिं(म्) स्वामवष्टभ्य, विसृजामि पुनः(फ्) पुनः।
भूतग्राममिमं(ङ्) कृत्स्नम्, अवशं(म्) प्रकृतेर्वशात्।।9.8।।
प्रकृति के वश में होने से परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण प्राणी समुदाय की (कल्पों के आदि में) मैं अपनी प्रकृति को वश में करके बार-बार रचना करता हूँ।
विवेचन- हमारे कर्मफल अर्थात हम जो करते हैं, उसका फल! हमने अच्छा किया तो उसका फल अच्छा मिलेगा। कुछ बुरा किया तो फल बुरा मिलेगा। हमारे कर्मफल कभी नष्ट नहीं होते। आज हम किसी के साथ बुरा करते हैं तो उसका फल हमें ही भोगना पड़ेगा।
जीवन में अच्छा कर्म करेंगे और अच्छे बनेंगे। बुरा कर्म करके बुरे नहीं बनेंगे।
हम श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने लगे हैं तो हमें अच्छे कर्म और बुरे कर्म का ज्ञान हो गया है। हम बुरे काम करेंगे तो किसी अन्य योनि में कुत्ता या बन्दर बन जाएँगे। अच्छे करेंगे तो मनुष्य बन जाएँगे। बहुत अच्छे कर्म करेंगे, पूजा पाठ, जप-तप और बहुत अच्छे कर्म करके हम देवता भी बन सकते हैं।
आज आठवें श्लोक तक हमने सुना है। अगले सप्ताह नौवें श्लोक से सुनेंगे।
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा ।
जो जस करहि सो तस फल चाखा ॥
श्रीरामचरितमानस 5:48
कर्मों के अनुसार ही संसार चलता है। मनुष्य तो मनमर्जी कर सकता है, अन्य प्राणी मनमर्जी से नहीं रह सकते। हम अपनी इच्छा से खाना खा सकते हैं, अन्य प्राणियों को तो भोजन ढूॅंढना पड़ता है।
कर्म के अनुसार ही इस संसार की रचना होती है। अन्त समय में हम जैसा सोचते हैं वैसा ही बन जाते हैं।
श्रीभगवान की व्यवस्था है। हम पूर्ण भी समाप्त हो गए तब भी हमारे कर्म वैसे के वैसे रहेंगे और जब ब्रह्मा जी नए कल्पों की रचना करते हैं तब हम वैसे ही बन जाते हैं, उसी योनि में जन्म लेते हैं जैसे हमने कर्म किए हैं।
जीवन में अच्छा कर्म करेंगे और अच्छे बनेंगे। बुरा कर्म करके बुरे नहीं बनेंगे।
हम अगले जन्म में क्या बनेंगे यह इस पर निर्भर करता है कि हम कैसे कर्म करते हैं! अगर अच्छे कर्म नहीं करते, सब बुरे बुरे कर्म करते हैं। जानवरों को तङ्ग करते हैं। अपने आस पास वालों को तङ्ग करते हैं। कोई अच्छा काम नहीं करते हैं, अगले जन्म में हम क्या बनेंगे? हो सकता है कि हम कुत्ता ही बन जायें।
अन्तकाले च मामेव, स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः(फ्) प्रयाति स मद्भावं(य्ँ), याति नास्त्यत्र संशयः॥
8:5
अन्तकाल में मृत्यु के समय हम जैसे स्मरण करते हैं, वैसा ही बन जाते हैं। यदि पूरा जीवन हमने भगवान जी को याद ही नहीं किया तो मृत्यु के समय भगवान जी याद ही नहीं आएंगे। उस समय माता पिता या घर परिवार याद आएगा या रुपया पैसा याद आ जाएगा। मृत्यु के समय हम आम का सोच रहे होते हैं, तो अगले जन्म में आम के कीड़े बन जाएँगे। अन्तिम समय में जैसे सोचेंगे, हम अगले जन्म में वैसे ही बन जाएँगे। पूरा जीवन अच्छा सोचते और अच्छा करते रहे हैं तो मनुष्य बनेंगे।
हम श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने लगे हैं तो हमें अच्छे कर्म और बुरे कर्म का ज्ञान हो गया है। हम बुरे काम करेंगे तो किसी अन्य योनि में कुत्ता या बन्दर बन जाएँगे। अच्छे करेंगे तो मनुष्य बन जाएँगे। बहुत अच्छे कर्म करेंगे, पूजा पाठ, जप-तप और बहुत अच्छे कर्म करके हम देवता भी बन सकते हैं।
आज आठवें श्लोक तक हमने सुना है। अगले सप्ताह नौवें श्लोक से सुनेंगे।
हरि नाम संकीर्तन के साथ सत्र का समापन हुआ।
प्रश्नोत्तर-
प्रश्नकर्ता- वन्दन भैया
प्रश्न नवम् अध्याय का नाम क्या है?
उत्तर- राजविद्याराजगुह्ययोग
प्रश्नकर्ता- आर्या दीदी
प्रश्न- महाभारत का युद्ध कहाँ हुआ था?
उत्तर- यह युद्ध कुरुक्षेत्र में हुआ था जो अब हरियाणा में है।
प्रश्नकर्ता- राघव भैया
प्रश्न- क्या हमारा पाप अधिक होगा तो हम मनुष्य नहीं बन पायेंगे? हमारे बडे़ अगर कुछ कह रहे हैं और वह ग़लत है, हम उसे नहीं मानते तो भी क्या हमें पाप लगेगा?
उत्तर- श्रीभगवान को छोटे-बडे़ से कुछ मतलब नहीं है, जो भी ग़लत होगा उसका फल उसी को मिलेगा। अगर सही तो पुण्य, ग़लत तो पाप।
प्रश्नकर्ता- राघव भैया
प्रश्न- राज विद्या अगले जन्म में भी कैसे आयेगी?
उत्तर- जब हम राज विद्या को समझ लेंगे तो वह आपके खाते में (account) में जुड़ जायेगी, जो अगले जन्म तक जायेगी।
प्रश्नकर्ता- महावीर भैया
प्रश्न- मेरा मन कभी-कभी भटकता है इधर-उधर, उसे स्थिर कैसे करें?
उत्तर- उस समय शान्ति से बैठें, पढा़ई का समय है और खेलने का मन करे तो परीक्षा (exam) का ध्यान कर के पढ़ाई में मन लगाना। धीरे-धीरे मन नियन्त्रण में आ जायेगा।
प्रश्न नवम् अध्याय का नाम क्या है?
उत्तर- राजविद्याराजगुह्ययोग
प्रश्नकर्ता- आर्या दीदी
प्रश्न- महाभारत का युद्ध कहाँ हुआ था?
उत्तर- यह युद्ध कुरुक्षेत्र में हुआ था जो अब हरियाणा में है।
प्रश्नकर्ता- राघव भैया
प्रश्न- क्या हमारा पाप अधिक होगा तो हम मनुष्य नहीं बन पायेंगे? हमारे बडे़ अगर कुछ कह रहे हैं और वह ग़लत है, हम उसे नहीं मानते तो भी क्या हमें पाप लगेगा?
उत्तर- श्रीभगवान को छोटे-बडे़ से कुछ मतलब नहीं है, जो भी ग़लत होगा उसका फल उसी को मिलेगा। अगर सही तो पुण्य, ग़लत तो पाप।
प्रश्नकर्ता- राघव भैया
प्रश्न- राज विद्या अगले जन्म में भी कैसे आयेगी?
उत्तर- जब हम राज विद्या को समझ लेंगे तो वह आपके खाते में (account) में जुड़ जायेगी, जो अगले जन्म तक जायेगी।
प्रश्नकर्ता- महावीर भैया
प्रश्न- मेरा मन कभी-कभी भटकता है इधर-उधर, उसे स्थिर कैसे करें?
उत्तर- उस समय शान्ति से बैठें, पढा़ई का समय है और खेलने का मन करे तो परीक्षा (exam) का ध्यान कर के पढ़ाई में मन लगाना। धीरे-धीरे मन नियन्त्रण में आ जायेगा।