विवेचन सारांश
दिव्य रथ की विशेषता
हनुमान चालीसा, प्रारम्भिक प्रार्थना, दीप प्रज्वलन एवं गुरु वन्दना करते हुए विवेचन सत्र का शुभारम्भ हुआ। सत्र बालकों के लिए होने के कारण रुचि पूर्ण बनाने के उद्देश्य से संवादपरक रहा।
प्रश्न- प्रथम अध्याय का नाम क्या है।
उत्तर- प्रथम अध्याय का नाम अर्जुनविषादयोग है।
प्रश्न- प्रथम अध्याय में कितने श्लोक हैं?
उत्तर- प्रथम अध्याय में सैंतालीस श्लोक है।
इस अध्याय में अर्जुन को विषाद हो जाता है। इसके बारे में हमने पिछले सत्र में चर्चा की थी। पाण्डवों और कौरवों के बीच में युद्ध हो रहा है। जब अर्जुन देखते हैं कि उन्हें अपने प्रियजन, गुरु, मित्र, सगे सम्बन्धियों से युद्ध करना पड़ेगा, जिसमें उन प्रियजन के प्राण भी जा सकते हैं। अर्जुन डर (सहम) जाते हैं। प्रथम अध्याय के प्रारम्भ में ही अर्जुन को विषाद नहीं होता है। अर्जुन को विषाद कब होता है? वह हम देखेंगे।
उत्तर- प्रथम अध्याय में सैंतालीस श्लोक है।
इस अध्याय में अर्जुन को विषाद हो जाता है। इसके बारे में हमने पिछले सत्र में चर्चा की थी। पाण्डवों और कौरवों के बीच में युद्ध हो रहा है। जब अर्जुन देखते हैं कि उन्हें अपने प्रियजन, गुरु, मित्र, सगे सम्बन्धियों से युद्ध करना पड़ेगा, जिसमें उन प्रियजन के प्राण भी जा सकते हैं। अर्जुन डर (सहम) जाते हैं। प्रथम अध्याय के प्रारम्भ में ही अर्जुन को विषाद नहीं होता है। अर्जुन को विषाद कब होता है? वह हम देखेंगे।
हमने पहले सत्र में देखा कि एक कक्ष में धृतराष्ट्र और सञ्जय जिन्हें दिव्यदृष्टि प्राप्त है, वे बैठे हैं। सञ्जय युद्ध का विवरण धृतराष्ट्र को बता रहे हैं कि दुर्योधन द्रोणाचार्य से क्या कह रहे हैं यह बताना शुरू किया। दुर्योधन ने अपनी सेना के सेनापति और पाण्डवों के सेनापतियों का परिचय दिया।
नवें श्लोक में अपनी प्रशंसा करते हुए दुर्योधन कहता है कि मैं बड़े-बड़े शूरवीरों के लिए प्रिय हूॅं। बड़े-बड़े महारथी मेरे लिए प्राण देने को तैयार है। यहाॅं पर दुर्योधन थोड़ा भयभीत भी है, क्योंकि पाण्डवों की सेना में भी बड़े-बड़े महारथी हैं।
सम्पूर्ण महाभारत के युद्ध में अठारह अक्षौहिणी सेना थी। कोई बता सकता है क्या कि उनमें से पाण्डवों के पास कितनी सेना थी और कौरवों के पास कितनी सेना थी? कौरवों के पास ज्यादा सेना थी। राजा शल्य की जो सेना थी, वह भी छल से दुर्योधन ने अपनी ओर ले ली थी। जबकि शल्य पाण्डवों के मामा थें। जिस प्रकार गान्धारी के भाई शकुनि कौरवों के मामा थे।
सम्पूर्ण महाभारत के युद्ध में अठारह अक्षौहिणी सेना थी। कोई बता सकता है क्या कि उनमें से पाण्डवों के पास कितनी सेना थी और कौरवों के पास कितनी सेना थी? कौरवों के पास ज्यादा सेना थी। राजा शल्य की जो सेना थी, वह भी छल से दुर्योधन ने अपनी ओर ले ली थी। जबकि शल्य पाण्डवों के मामा थें। जिस प्रकार गान्धारी के भाई शकुनि कौरवों के मामा थे।
अर्जुन के सारथी भगवान श्री कृष्णा थे तो कर्ण के सारथी शैल्य थे। प्रश्न किया गया।
प्रश्न- पाण्डवों के पास कितनी सेना थी ?
उत्तर- पाण्डवों के पास सात अक्षौहिणी सेना थी ।
प्रश्न- कौरवों के पास कितनी सेना थी?
उत्तर- कौरवों के पास ग्यारह अक्षौहिणी सेना थी। पिछले सत्र में हमने देखा था कि अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण थे और एक प्रश्न किया था।
उत्तर- कौरवों के पास ग्यारह अक्षौहिणी सेना थी। पिछले सत्र में हमने देखा था कि अर्जुन के सारथी श्रीकृष्ण थे और एक प्रश्न किया था।
प्रश्न- कर्ण के सारथी कौन थे?
उत्तर- कर्ण के सारथी शल्य थे।
प्रश्न- महाराज शल्य किसके मामा जी थे?
उत्तर- महाराज शल्य पाण्डवों के मामा जी थे।
उत्तर- महाराज शल्य पाण्डवों के मामा जी थे।
अब प्रश्न उठता है पाण्डवों के मामा जी ने कौरवों की तरफ से युद्ध क्यों किया? इसकी भी एक कहानी है।
जब पाण्डवों ने अपने मामा शल्य को युद्ध के लिए आमन्त्रित किया। शल्य अपनी सेना लेकर कुरुक्षेत्र की ओर रवाना हुए। रास्ते में उनकी सेना के जलपान, विश्राम, भोजन-पानी आदि की व्यवस्था दुर्योधन ने चालाकी से की जिससे राजा शल्य को पता नहीं लगा कि यह व्यवस्था कौरव की सेना करवा रही है। उनको यह लगना चाहिए कि यह व्यवस्था पाण्डवों अर्थात् युधिष्ठिर की सेना करवा रही है। पूरे रास्ते उनको बिल्कुल पता नहीं चला। जब वे कुरुक्षेत्र के पास पहुँचने वाले थे, वहाँ से कुछ दूर रह गए थे तो उनके अन्तिम पड़ाव में दुर्योधन पहुँच गए।
हमें पता है दुर्योधन कितना अहङ्कारी, दम्भी और क्रूर व्यक्तित्व है। वह शल्य के समक्ष हाथ जोड़कर प्रणाम कर यह दर्शाना चाहता है कि वह कितना अच्छा है। शल्य बोलते हैं, मैं तो पाण्डवों की ओर से युद्ध करने आया हूॅं। आप मुझे क्यों प्रणाम कर रहे हैं? दुर्योधन कहते हैं- जैसे आप पाण्डवों के मामा जी वैसे हमारे भी मामा हुए। इसलिए मैं आपको प्रणाम करने आया हूॅं। मुझे आशीर्वाद दीजिए। उन्होंने कहा ठीक है। फिर दुर्योधन ने पूछा मार्ग में खाने-पीने की, रहने की व्यवस्था में कोई कमी तो नहीं रह गई है? शल्य बोले तुम मेरी व्यवस्था के बारे में क्यों पूछ रहे हो? दुर्योधन बोला- यह जो सारे पड़ाव लगाए उनके बारे में पूछने आया हूँ कि कोई कमी तो नहीं रह गई, कि आगे जितना रास्ता बचा है उसमें मैं उस कमी को पूरा कर दूँ। शल्य ने पूछा- यह सारी व्यवस्था तुमने करवाई है? दुर्योधन बोला आप मुझे अपना नहीं मानते हैं लेकिन मैं तो आपको अपना मानता हूँ। शल्य कहने लगे यह व्यवस्था युधिष्ठिर ने नहीं करवाई है? दुर्योधन बोला मामा जी वह यह सब कैसे करवा सकता है, यह तो सब मेरा ही काम है। आप मेरे भी तो मामाजी हैं।
महाराज शल्य को बड़ा पछतावा होता है। जब हम किसी से कुछ ले लेते हैं, किसी का आतिथ्य स्वीकार कर लेते हैं तो उनके विरोध में जाकर युद्ध नहीं लड़ सकते, यह अधर्म होता है। शल्य ने अपना माथा पीट लिया। मैंने दुर्योधन का आतिथ्य स्वीकार कर लिया। उसके विरोध में कैसे युद्ध लडूँगा? उन्होंने शीघ्र दूत को बुलाया और युधिष्ठिर को पत्र लिखा कि मैंने सारे रास्ते दुर्योधन का आतिथ्य, तुम्हारा आतिथ्य मानकर स्वीकार कर लिया है। इतना अधिक आतिथ्य लेकर उसके विरूद्ध लड़ूँ तो यह धर्म के विरुद्ध है। तुम मुझे बताओ मैं क्या करूँ?
जब पाण्डवों ने अपने मामा शल्य को युद्ध के लिए आमन्त्रित किया। शल्य अपनी सेना लेकर कुरुक्षेत्र की ओर रवाना हुए। रास्ते में उनकी सेना के जलपान, विश्राम, भोजन-पानी आदि की व्यवस्था दुर्योधन ने चालाकी से की जिससे राजा शल्य को पता नहीं लगा कि यह व्यवस्था कौरव की सेना करवा रही है। उनको यह लगना चाहिए कि यह व्यवस्था पाण्डवों अर्थात् युधिष्ठिर की सेना करवा रही है। पूरे रास्ते उनको बिल्कुल पता नहीं चला। जब वे कुरुक्षेत्र के पास पहुँचने वाले थे, वहाँ से कुछ दूर रह गए थे तो उनके अन्तिम पड़ाव में दुर्योधन पहुँच गए।
हमें पता है दुर्योधन कितना अहङ्कारी, दम्भी और क्रूर व्यक्तित्व है। वह शल्य के समक्ष हाथ जोड़कर प्रणाम कर यह दर्शाना चाहता है कि वह कितना अच्छा है। शल्य बोलते हैं, मैं तो पाण्डवों की ओर से युद्ध करने आया हूॅं। आप मुझे क्यों प्रणाम कर रहे हैं? दुर्योधन कहते हैं- जैसे आप पाण्डवों के मामा जी वैसे हमारे भी मामा हुए। इसलिए मैं आपको प्रणाम करने आया हूॅं। मुझे आशीर्वाद दीजिए। उन्होंने कहा ठीक है। फिर दुर्योधन ने पूछा मार्ग में खाने-पीने की, रहने की व्यवस्था में कोई कमी तो नहीं रह गई है? शल्य बोले तुम मेरी व्यवस्था के बारे में क्यों पूछ रहे हो? दुर्योधन बोला- यह जो सारे पड़ाव लगाए उनके बारे में पूछने आया हूँ कि कोई कमी तो नहीं रह गई, कि आगे जितना रास्ता बचा है उसमें मैं उस कमी को पूरा कर दूँ। शल्य ने पूछा- यह सारी व्यवस्था तुमने करवाई है? दुर्योधन बोला आप मुझे अपना नहीं मानते हैं लेकिन मैं तो आपको अपना मानता हूँ। शल्य कहने लगे यह व्यवस्था युधिष्ठिर ने नहीं करवाई है? दुर्योधन बोला मामा जी वह यह सब कैसे करवा सकता है, यह तो सब मेरा ही काम है। आप मेरे भी तो मामाजी हैं।
महाराज शल्य को बड़ा पछतावा होता है। जब हम किसी से कुछ ले लेते हैं, किसी का आतिथ्य स्वीकार कर लेते हैं तो उनके विरोध में जाकर युद्ध नहीं लड़ सकते, यह अधर्म होता है। शल्य ने अपना माथा पीट लिया। मैंने दुर्योधन का आतिथ्य स्वीकार कर लिया। उसके विरोध में कैसे युद्ध लडूँगा? उन्होंने शीघ्र दूत को बुलाया और युधिष्ठिर को पत्र लिखा कि मैंने सारे रास्ते दुर्योधन का आतिथ्य, तुम्हारा आतिथ्य मानकर स्वीकार कर लिया है। इतना अधिक आतिथ्य लेकर उसके विरूद्ध लड़ूँ तो यह धर्म के विरुद्ध है। तुम मुझे बताओ मैं क्या करूँ?
युधिष्ठिर तो धर्मराज हैं। उनके प्राण भी चले जाए तो भी वे सत्य और धर्म का ही साथ देंगे। ऐसा उनका चरित्र महाभारत में वर्णित है।
युधिष्ठिर ने उत्तर लिखा मामा जी आपकी बात बिल्कुल सही है। यदि आपने दुर्योधन का आतिथ्य स्वीकार किया है तो आपको उसी के पक्ष में युद्ध लड़ना चाहिए। युधिष्ठिर जानते हैं कि उनके पास वैसे ही सेना बहुत कम है। फिर भी उन्होंने सत्य का ही साथ दिया। इस प्रकार राजा शल्य की सेना भी कौरवों के पक्ष में आ गई। अब उन्होंने शल्य को कर्ण का सारथी बनाया।
जिस प्रकार कक्षा में यदि आप कोई प्रतिस्पर्धा में भाग लेते हैं और आपके मित्रगण आपको उत्साहित करने के लिए सकारात्मक विचार से प्रोत्साहित करते हैं तो आप अच्छा प्रदर्शन करते हैं। यदि आपको हतोत्साहित करने के लिए आपके लिए बोलें कि आप ऐसा नहीं कर सकते। नकारात्मक बात कहें तो आप अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं। इसलिए कहा जाता है जब कोई भी अच्छा कार्य करें तो सकारात्मक विचार रखें, शुभ-शुभ बोले इसीलिए शल्य ने विचार किया कि जब कर्ण अर्जुन के विरुद्ध युद्ध करेंगे तो मैं कर्ण को हतोत्साहित करूॅंगा और शल्य ऐसा करते भी हैं, जिससे कि कर्ण हतोत्साहित होते हैं। श्रीकृष्ण अर्जुन के साथ भी ऐसा करते हैं। जब अर्जुन अत्याधिक आत्मविश्वासी हो जाते हैं, उनमें अभिमान आने लगता है, श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी हैं तो वे अर्जुन को हतोत्साहित करने के लिए उस समय कर्ण की प्रशंसा करने लगते हैं। कुल ग्यारह अक्षौहिणी सेना कौरवों के पास है। पाण्डव तो वनवास में थे। वनवास में किसी से मिलना जुलना भी नहीं हो पा रहा था। दूसरी ओर कौरवों ने सभी बड़े-बड़े शूरवीर और महारथियों से मित्रता कर ली थी।
जब हम सत्य के पक्ष में होते हैं तो हमारा आत्मविश्वास अधिक होता है। यहॉं पर दुर्योधन डर चुका है। सेना भले ही दुर्योधन के पास अधिक है, लेकिन जब हम सत्य या धर्म की तरफ से युद्ध (लड़ाई) करते हैं, तब हमारा आत्मविश्वास अपने आप बढ़ता है और यदि हम झूठ या अधर्म की तरफ से लड़ाई करते हैं, तब अपने आप हमारा आत्मविश्वास कम हो जाता है। जैसे कि आपने होमवर्क नहीं किया और शिक्षक ने आपसे पूछा कॉपी दो। पहले तो आपने सच कहा कि आपने होमवर्क नहीं किया तो आपको थोड़ा सा ही डर लगेगा और वो डर थोड़ा ही रहेगा, थोड़े ही समय के लिए रहेगा, एक बार दण्ड मिल गया तो वह डर खत्म हो जाएगा। किन्तु अगर आपने झूठ बोल दिया कि नहीं कल तो मेरे सिर में दर्द था, पेट में दर्द था इसलिए मैंने होमवर्क नहीं किया तो अभी क्या होगा? दण्ड तो मिलेगा ही और उसका डर भी रहेगा पर, अब आपको बाद में भी डर रहेगा कि कहीं मेरा झूठ खुल न जाए, शिक्षक पकड़ न ले, कहीं मेरे अभिभावकों से बात न हो जाए, कहीं अभिभावक शिक्षक बैठक में शिक्षक बता न दें। इसी तरह हमारा डर बाद में भी बना रहता है।
इसी तरह दुर्योधन भी जानता है कि वो अधर्म की तरफ से लड़ रहा है और इसीलिए उसे डर लग रहा है।
1.10
अपर्याप्तं(न्) तदस्माकं(म्), बलं(म्) भीष्माभिरक्षितम्।
पर्याप्तं(न्) त्विदमेतेषां(म्), बलं(म्) भीमाभिरक्षितम्।।1.10।।
भीष्मपितामह द्वारा रक्षित हमारी यह सेना वह सेना स प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगों कि यह सेना जीतने में सुगम है।
विवेचन- इस श्लोक के दो अर्थ हैं- श्री रामसुखदास जी ने अलग अर्थ बताया है और दूसरे महात्माजी ने अलग अर्थ बताया है।
एक में दुर्योधन कह रहा है कि “हमारी सेना भीष्म पितामह ने संरक्षित की है, वे इसका नेतृत्व कर रहे हैं, इसलिए हमारी सेना अवश्य जीतेगी और इनकी सेना भी जीतने में सुगम है।”
इसका दूसरा अर्थ है कि “भले ही भीष्म पितामह ने हमारी सेना की रक्षा की है, परन्तु हमारी सेना अपर्याप्त है, जबकि इनकी सेना अधिक पर्याप्त और अधिक बलवान है।”
इस प्रकार, दो तरह से इसकी व्याख्या की गयी है और हम दोनों को ले सकते हैं। मुख्य रूप से दोनों ही प्रचलन में हैं। यहाँ मुख्य रूप से श्रीभगवान को यही बताना है कि दुर्योधन बहुत डर चुका है, इसलिये इस प्रकार की बातें करने लगा है।
जब कोई व्यक्ति डर जाता है तो इधर-उधर की अनेक बातें करना आरम्भ कर देता है। यही यहाँ पर दुर्योधन कर रहा है।
अयनेषु च सर्वेषु, यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु, भवन्तः(स्) सर्व एव हि।।1.11।।
आप सब के सब लोग सभी मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह दृढ़ता से स्थित रहते हुए ही निश्चित रूप से पितामह भीष्म की चारों ओर से रक्षा करें।
विवेचन- यहाँ दुर्योधन कह रहा है कि “सभी प्रकार से, चारों ओर से भीष्म पितामह की ही रक्षा करें, क्योंकि भीष्म पितामह हमारे मुख्य सेनापति हैं।" वह ऐसा इसलिए कह रहा है क्योंकि भीष्म पितामह यदि हार गए या उनके प्राण गये तो बहुत कठिनाई होगी।
यहाँ हमें दुर्योधन की मानसिकता देखनी चाहिए कि वह कितनी अजीब बातें कर रहा है। हम जानते हैं कि भीष्म पितामह बहुत बड़े योद्धा थे। उन्होंने अकेले ही अनेक युद्ध लड़ लिए थे। अतः दुर्योधन को यह बोलने की आवश्यकता ही नहीं है, किन्तु वह इतना अधिक डर गया है कि बोल रहा है कि भीष्म पितामह की रक्षा करें, जबकि उसे अपनी सेना का हौसला बढ़ाना चाहिए और बोलना चाहिए कि अच्छे से युद्ध करें।
जब स्वामीजी साधक सञ्जीवनी में इसकी व्याख्या करते हैं तो कहते हैं कि दुर्योधन का भय दिख रहा है, इसलिए इतने शूरवीर भीष्म पितामह के लिए भी वह बोल रहा है कि उनकी रक्षा करें। पहले वह बोला था कि हमारी सेना शायद न भी जीत पाये क्योंकि वह सोच रहा था कि भीष्म पितामह भले ही हमारी ओर से युद्ध कर रहे हैं, किन्तु मन से वे पाण्डवों की ओर से हैं, इसलिये वे शतप्रतिशत हमारी ओर से युद्ध नहीं करेंगे। वे कुछ न कुछ पक्षपात अवश्य करेंगे। इस डर से वह ऐसा बोल रहा है। यह भी एक व्याख्या है।
दूसरी व्याख्या के अनुसार बोला जाता है कि “भीष्म पितामह द्वारा रक्षित हमारी सेना अजेय है अर्थात् उसे किसी के द्वारा जीतना सम्भव नहीं है और इनकी सेना भी जीतने में सुगम है। इनकी सेना भी जीत सकती है परन्तु हमारी सेना तो अजेय है।”
विवेचन के मध्य में बच्चों से प्रश्न पूछा गया-
प्रश्न -"भीष्म पितामह के माता-पिता का नाम क्या है?
बहुत सारे बच्चों ने सही उत्तर दिये-
उत्तर - "भीष्म पितामह की माता का नाम गङ्गाजी तथा पिता का नाम राजा शान्तनु है।"
भीष्म पितामह बहुत वीर योद्धा थे इसलिए उनके माता-पिता का नाम पूछा गया। इसी प्रकार जब कभी आप कक्षा में प्रथम आते हैं, आपको पुरस्कार मिलता है तो पूछा जाता है कि आपके माता-पिता का क्या नाम है? इसलिए हमें उनसे सीखना चाहिए कि जैसा भीष्म पितामह जी का जीवन था, वैसा ही हम अपने जीवन में बनने का प्रयास करें।
पिछले सत्र में भीष्म पितामह के जीवन की एक विशेषता बतायी गयी थी, जिसे हमें सीखना चाहिए। बच्चों ने बताया कि “उन्होंने एक बार जो सङ्कल्प लिया, उसे पूरी तरह से निभाया। इसी प्रकार हम भी अगर कोई सङ्कल्प लेते हैं, जैसे हम पढ़ाई करेंगे, प्रतिदिन पूजा करेंगे, तिलक लगाएँगे, प्रतिदिन मन्दिर जाएँगे आदि, तो हमें भी वैसे ही अपने सङ्कल्प को निभाना चाहिए।
इस प्रकार की शिक्षा हम भीष्म पितामह से भी ले सकते हैं और अन्य महापुरुषों से भी ले सकते है। भीष्म पितामह ने अपना सङ्कल्प कभी नहीं तोड़ा इसीलिए भीष्म पितामह इतने बड़े योद्धा बन पाये
और हम सङ्कल्प लेते हैं सुबह जल्दी उठने का किन्तु फिर सोचते हैं कि आज नींद अधिक आ रही है, पाँच मिनट और सो जाते हैं। पाँच-पाँच मिनट एक घण्टे में बदल जाता है। हमें अपने सङ्कल्प पूरे करने चाहिए तब ही सफलता मिलेगी।
और हम सङ्कल्प लेते हैं सुबह जल्दी उठने का किन्तु फिर सोचते हैं कि आज नींद अधिक आ रही है, पाँच मिनट और सो जाते हैं। पाँच-पाँच मिनट एक घण्टे में बदल जाता है। हमें अपने सङ्कल्प पूरे करने चाहिए तब ही सफलता मिलेगी।
तस्य सञ्जनयन्हर्षं(ङ्), कुरुवृद्धः(फ्) पितामहः।
सिंहनादं(व्ँ) विनद्योच्चैः(श्), शङ्खं(न्) दध्मौ प्रतापवान्॥1.12॥
उस (दुर्योधन) के (हृदय में) हर्ष उत्पन्न करते हुए कौरवों में वृद्ध प्रभावशाली पितामह भीष्म ने सिंह के समान गरज कर जोर से शंख बजाया।
विवेचन- अब भीष्म पितामह को भी बात समझ आ गई कि दुर्योधन बहुत डर गया है और इसीलिए वह कह रहा है कि भीष्म पितामह की रक्षा करो। डर के कारण ही दुर्योधन इस तरह बहकी बहकी बातें कर रहा है। दुर्योधन के डर को शान्त करने के लिए कौरवों में सबसे अधिक वृद्ध, अत्यधिक श्रेष्ठ भीष्म पितामह ने दुर्योधन के हृदय में थोड़ा हर्ष उत्पन्न करने के लिए उन्होंने उच्च स्वर में सिंह की भांति गर्जन करते हुए जोर से शङ्ख बजाया। शङ्ख बजाना भी कोई साधारण बात नहीं हैं। सिंह की दहाड़ की तरह ही वह शङ्ख भी गरजा और ऐसा तीव्र शङ्ख यदि हम यहॉं पर बजा दें तो आप सब भयभीत हो जाएँगे। युद्ध के आरम्भ में उन्होंने शङ्ख बजाया।
प्रश्न- शङ्ख बजाने का कारण क्या है?
उत्तर- शङ्ख की गूँज सुनकर विरोधी डर जाते हैं। उनका हृदय दहल जाता है।
ततः(श्) शङ्खाश्च भेर्यश्च, पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त, स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।।1.13।।
उसके बाद शंख और भेरी (नगाड़े) तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे बाजे एक साथ ही बज उठे। (उनका) वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।
विवेचन- भीष्म पितामह के शङ्खनाद के उपरान्त अन्य शङ्ख, नगाड़े, ढोल, मृदङ्ग और नृसिंह आदि वाद्य एक साथ बजने लगे, जिससे अत्यन्त भयङ्कर नाद उत्पन्न हुआ। सभी सेनाओं के प्रमुख अपने-अपने शङ्ख, नगाड़े अलग-अलग वाद्य यन्त्र बजाने लगे। चारों ओर इतना शोर होने पर अपने आप ही भय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। घोड़े की हिनहिनाहट, हाथी की चिङ्घाड़। सैनिक गण अपने-अपने सेनापतियों की जय जयकार कर रहे हैं। इन सब के बीच हमारे नायक, महाभारत के नायक श्रीकृष्ण और अर्जुन का आविर्भाव होता है।
ततः(श्) श्वेतैर्हयैर्युक्ते, महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः(फ्) पाण्डवश्चैव, दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः।।1.14।।
इसके पश्चात् सफेद घोड़ों से युक्त महान रथ पर बैठे हुए लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण और पाण्डुपुत्र अर्जुन ने भी दिव्य शंखों को बड़े जोर से बजाया।
विवेचन - श्वेत अर्थात् सफेद रङ्ग के र्हयै अर्थात् घोड़े महती यानी बड़े स्यन्द अर्थात् रथ पर बैठे हुए। इस प्रकार के रथ पर माधव अर्थात् श्रीकृष्ण और अर्जुन बैठे हुए हैं। दोनों ने अपने-अपने दिव्य शङ्ख बजाए। अर्जुन का रथ सामान्य रथ नहीं था। वह पूरा रथ स्वर्ण का बना हुआ था। रथ धरती अर्थात धरा से ऊपर रहता था। रथ के घोड़ों के पैर हवा में रहते थे, घोड़े अक्षय थे, वे मर नहीं सकते थें। रथ के ऊपर कपिध्वज था। ध्वज अर्थात् झण्डा। झण्डे पर स्वयं हनुमान जी विराजित थे। हमें भी कहा जाता है न कि भय लग रहा हो तो हनुमान चालीसा पढ़ लो-
"भूत पिशाच निकट नहीं आवे, महावीर जब नाम सुनावे।"
हनुमानजी की शक्ति का क्या कहना। महारथी हनुमान जी अर्जुन के रथ की ध्वजा पर विराजित है। उस रथ का कोई क्या बिगाड़ सकता है। महाभारत युद्ध में सब कुछ नष्ट हो गया केवल अर्जुन का रथ बचा रहा।
अर्जुन को यह दिव्य रथ कैसे प्राप्त हुआ? इसकी एक कहानी है। एक बार अग्नि देव को अपच हो जाता है। अपच कैसे हो गया? यज्ञ आदि में घी की आहुति दी जाती है, वह बहुत अधिक मात्रा में हो गई। ज्यादा घी पी लिया। कहा भी जाता है-
"अति सर्वत्र वर्जयते"।
अग्नि देव श्रीकृष्ण और अर्जुन के पास सहायता मॉंगने आते हैं। वे कहते हैं मेरे पेट में बड़ी गड़बड़ हो रही है। श्रीकृष्ण बोले हम वैद्य नहीं है। भला हम आपकी क्या सहायता कर सकते हैं? अग्निदेव बोले आप वैद्य नहीं है, पर आप ही मेरी सहायता कर सकते हैं। मेरा यह पेट तब सही होगा जब मैं बहुत बड़ी मात्रा में वनस्पतियों का सेवन करूॅंगा। पास में ही खाण्डव वन है। यह बहुत बड़ा वन है, इसे खाकर ही मेरा पेट सही हो सकता है। श्रीकृष्ण बोले आप स्वयं ही जाकर खाण्डव वन को जला सकते हैं। अग्निदेव बोले तक्षक नाग स्वयं उस वन की रक्षा कर रहे हैं। इसलिए मैं उसे खाण्डव वन को नहीं जला सकता। उन्होंने अर्जुन की तरफ देखा, अर्जुन भगवान का अभिप्राय समझ गये और उनका अभिवादन किया। अर्जुन तक्षक नाग से युद्ध करते हैं और खाण्डववन में आग लगा देते हैं। तक्षक नाग इन्द्रदेव (देवों के राजा) के पास जाकर प्रार्थना करते हैं कि श्रीकृष्ण और अर्जुन खाण्डव वन जला रहे हैं, आप मेरी सहायता करिए। इन्द्रदेव क्रुद्ध होते हैं, ऐसे कैसे जला देंगे? मैं आकर देखता हूॅं।
प्रश्न- अर्जुन के पिता का नाम क्या था?
उत्तर- अर्जुन के पिता का नाम इन्द्र था।
माता कुन्ती को पाॅंचो पुत्र देवताओं से प्राप्त हुए थे। कर्ण सूर्य पुत्र थे। सूर्य देवता से प्राप्त हुए थे।
इन्द्रदेव देखते हैं अरे यह तो मेरा ही पुत्र है। मैं इसे तुरन्त परास्त कर दूॅंगा। इन्द्र को पता है, इससे पहले भी गोकुल में ऐसी घटना हो चुकी है। जब श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत अपनी उॅंगली पर उठा लिया था। इन्द्र का घमण्ड चकनाचूर हो गया था। अभी भी इन्द्र का अभिमान शेष है। इन्द्र अपने सभी देवताओं को बुला लेते हैं। मूल महाभारत में यह कथा दी हुई है। सारे देवता एक ओर और अर्जुन दूसरी ओर। अर्जुन किसी को भी मारते नहीं है, पर सभी को परास्त कर देते हैं। सारे देवता वहाॅं से भाग जाते हैं और अन्त में विजय श्रीकृष्ण और अर्जुन की ही होती है। इन्द्रदेव का अभिमान एक बार फिर से खण्डित हो जाता है। अर्जुन जीत जाते हैं और इस तरह अग्निदेव को पूरा खाण्डव वन मिल जाता है।
श्रीभगवान और अर्जुन तीन महीने तक समस्त वन को जलाते है और अग्नि देव अपना पेट सही करते है। अग्निदेव प्रसन्न होते हैं और अर्जुन से कहते तुम्हें क्या चाहिए माँगो। अग्नि देव सोचते हैं अर्जुन योद्धा और क्षत्रिय हैं उसे तो युद्ध उपकरण देना चाहिए जो आगामी युद्ध में उपयोग में आ सके। इस घटना से प्रभावित होकर अग्निदेव ने अर्जुन को यह दिव्य रथ प्रदान किया।
इस रथ में अनेक विशेषताएँ थी- यह आठ घोड़ों से युक्त, इसके पहिये धरती को स्पर्श नहीं करते, इसके घोड़े अक्षय थे, कभी मरते नहीं, कितने भी मन्त्रों का प्रहार किया जाए, यह रथ नष्ट नहीं होगा। यह रथ अक्षय था, यह स्वर्ण का बना हुआ था। यह अत्यन्त बड़ा था और इसकी ध्वजा पर स्वयं हनुमान जी विराजमान थे। भगवान श्रीकृष्ण ने भी अग्नि देव से कुछ मॉंगा।
प्रश्न -श्रीकृष्ण ने अग्नि देवता से क्या मॉंगा?
उत्तर- अर्जुन और मेरी मैत्री एवं प्रीति हमेशा बनी रहे।
अर्जुन कितने श्रेष्ठ व्यक्ति हैं कि स्वयं श्रीकृष्ण भगवान अग्निदेव से उनकी और अर्जुन की मित्रता हमेशा बनी रहे ऐसा वर, आशीर्वाद मॉंगते हैं। इसीलिए श्रीमद्भागवद्गीता में-
"सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं"
चौथा अध्याय में भी कहा गया है-
तुम मेरे प्रिय सखा और भक्त हो।
(you are my best friend)
इसलिए यह ज्ञान में तुम्हें दे रहा हूॅं।
तुम मेरे प्रिय सखा और भक्त हो।
(you are my best friend)
इसलिए यह ज्ञान में तुम्हें दे रहा हूॅं।
अर्जुन श्रीकृष्ण के प्रिय मित्र हैं।
पाञ्चजन्यं(म्) हृषीकेशो, देवदत्तं(न्) धनञ्जयः।
पौण्ड्रं(न्) दध्मौ महाशङ्खं(म्), भीमकर्मा वृकोदरः।।1.15।।
अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य नामक (तथा) धनञ्जय अर्जुन ने देवदत्त नामक (शंख बजाया और) भयानक कर्म करने वाले वृकोदर भीम ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया।
विवेचन- भगवान् श्रीकृष्ण के शङ्ख का नाम पाञ्चजन्य और अर्जुन (धनञ्जय) के शङ्ख का नाम देवदत्त है और दोनों ने अपने अपने शङ्ख बजाए। पौण्ड्रं नामक शङ्ख भीम ने बजाया। वृकोदर का अर्थ यहॉं पर भीम के बड़े पेट से है।
अनन्तविजयं(म्) राजा, कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः(स्) सहदेवश्च, सुघोषमणिपुष्पकौ।।1.16।।
कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक (शंख बजाया तथा) नकुल और सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नामक (शंख बजाये)।
विवेचन- कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नाम का शङ्ख बजाया। नकुल ने सुघोष और सहदेव ने मणिपुष्पक नामक शङ्ख बजाये।
काश्यश्च परमेष्वासः(श्), शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।।1.17।।
हे राजन्! श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी तथा धृष्टद्युम्न एवं राजा विराट और अजेय सात्यकि,
1.17 writeup
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च, सर्वशः(फ्) पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहुः(श्), शङ्खान्दध्मुः(फ्) पृथक्पृथक्।।1.18।।
राजा द्रुपद और द्रौपदी के पाँचों पुत्र तथा लम्बी-लम्बी भुजाओं वाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु (इन सभी ने) सब ओर से अलग-अलग (अपने - अपने) शंख बजाये।
विवेचन- यहाॅं बताया जा रहा है कि श्रेष्ठ धनुषवाले काशीराज, महारथी शिखण्डी, द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न, उत्तरा के पिता राजा विराट, अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद, द्रौपदी के पाॅंचो पुत्रों और सुभद्रा-पुत्र अभिमन्यु, इन सभी ने अपने-अपने शङ्ख बजाए।
विराट नगर की कहानी भी हमने पिछले सप्ताह सुनी थी। कैसे अर्जुन वहाॅं पर बृहन्नला के वेश में उत्तरा के नृत्य शिक्षक बने रहते हैं। अर्जुन बहुप्रतिभा के धनी होते हैं।
अभी सुनते हैं शिखण्डी की कहानी जो बहुत ही रोचक है। भीष्म पितामह कुछ कन्याओं को उनके स्वयंवर से लाए थे। अम्बा, अम्बालिका उन्हीं में से दो बहनें थीं। इनमें से एक अम्बा किसी अन्य से प्रेम करती थी। भीष्म पितामह अपने भाई से विवाह करने के लिए उन्हें ले आए थे। वह अपने प्रेम प्रसङ्ग के विषय में बता कर वापस चली जाती है। वापस जाने पर उस कन्या का प्रेमी भी उसे स्वीकार नहीं करता। कहने लगता है कि भीष्म पितामह तो तुम्हें ले गए थे स्वयंवर से। तब वह कन्या अम्बा एक सङ्कल्प लेती है कि मैं इस शरीर को त्याग दूॅंगी और मैं ही भीष्म पितामह की मृत्यु का कारण भी बनूॅंगी। यही कन्या अगले जन्म में शिखण्डी का देह धारण करके जन्म लेती है। यह शिखण्डी नपुंसक होता है। भीष्म पितामह यह प्रण लिए होते हैं कि वे किसी स्त्री पर वार नहीं करेंगे। जब शिखण्डी भीष्म पितामह के सामने खड़ी हो जाती है तो भीष्म पितामह बाण नहीं चलाते। तब अर्जुन बाणों की वर्षा करके भीष्म पितामह को बाणों की शय्या पर लिटा देते हैं। कई दिनों के पश्चात वे मृत्यु को प्राप्त कर लेते हैं। इस तरह से शिखण्डी भीष्म पितामह के मृत्यु का कारण बन जाता है।
पाण्डव सेना के सभी महारथी, बड़े-बड़े योद्धा जब अपने-अपने शङ्ख बजाते हैं, तब बहुत ही भयङ्कर शब्द से आकाश और पृथ्वी गूॅंजने लगती हैं, साथ में घोड़ों के पैरों की आवाज, हाथियों की आवाज इन सब से वह वातावरण गूॅंज जाता है, धूल से भर जाता है। महाभारत के युद्ध जैसा बड़ा युद्ध पहले कभी भी नहीं हुआ है।
स घोषो धार्तराष्ट्राणां(म्), हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं(ञ्) चैव, तुमुलो व्यनुनादयन्।।1.19।।
और (पाण्डव-सेना के शंखों के) उस भयंकर शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुँजाते हुए धार्तराष्ट्रों अर्थात् आपके पक्ष वालों के हृदय विदीर्ण कर दिये।
विवेचन- महाभारत युद्ध की इस भयङ्कर ध्वनि से और वहाॅं पर किए जा रहे उद्घोष से युद्ध आरम्भ हो जाता है। इस उद्घोष के कारण, आकाश और पृथ्वी को गूञ्जायमान करने वाली ध्वनि के कारण दुर्योधन एवं कौरव सेना के हृदय विदीर्ण हो जाते हैं। सारा आकाश कम्पायमान जाता है।
अथ व्यवस्थितान् दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।।1.20।।
हे राजन् इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने शास्त्र चलाने कि तैयारी के समय धनुष उठाकर मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र सम्बन्धियों को देखकर
1.20 writeup
हृषीकेशं(न्) तदा वाक्यम्, इदमाह महीपते। अर्जुन उवाच सेनयोरुभयोर्मध्ये, रथं(म्) स्थापय मेऽच्युत।।1.21।।
अर्जुन बोले - हे अच्युत! दोनों सेनाओं के मध्य में मेरे रथ को (आप तब तक) खड़ा कीजिये, जब तक मैं (युद्धक्षेत्र में) खड़े हुए इन युद्ध की इच्छा वालों को देख न लूँ कि इस युद्धरूप उद्योग में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है।
विवेचन- श्रीभगवान बताते हैं, कपिध्वज धारण किए हुए अर्जुन, शस्त्र चलाने के लिए पूर्ण रूपसे तैयार धृतराष्ट्र की सेना को देख रहे हैं। युद्ध में स्थित अपनों को और अपने परिजनों को वे देख रहे हैं। अर्जुन पूर्ण आत्मविश्वास से भरे हुए हैं और इससे पहले भी वे कई युद्ध जीत चुके हैं।
विराट नगर के युद्ध में भी अर्जुन बृहन्नला के वेश में अकेले ही भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और कौरव सेना के साथ युद्ध करके जीत चुके हैं। अर्जुन को कोई सन्देह है ही नहीं कि वे कौरव सेना को नहीं हराएंगे। उन्हें पूर्ण विश्वास है कि पाण्डव सेना ही जीतेगी। अर्जुन को पहले से ही कोई विषाद नहीं है। अगला श्लोक जो हम देखेंगे उसमें अर्जुन को विषाद से भरा हुआ नहीं बताया गया है, उन्हें पूर्णतः सन्तुष्ट दिखाया गया है। यहॉं भगवान श्रीकृष्ण एक वचन कहते हैं। सभी श्लोकों में हमने देखा है कि श्रीभगवानुवाच, अर्जुन उवाच श्लोक के आरम्भ में आता है। पर पहले अध्याय का इक्कीसवॉं श्लोक, यह एक ऐसा श्लोक है, उसकी यह विशेषता है कि जिसमें अर्जुन उवाच श्लोक के मध्य में आता है।
अर्जुन कहते हैं-
हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में खड़ा कीजिए।
हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य में खड़ा कीजिए।
अब यहाॅं देखने वाली बात यह है कि अर्जुन अपने रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करने के लिए क्यों बोल रहे हैं? यहाॅं बच्चों के ज्ञान को परखने के लिए भी पूछा जाता है कि अर्जुन दोनों सेनाओं के बीच में क्यों खड़ा होना चाहते हैं? इस विषय को यहीं पर छोड़ा दिया जाता है। बताया जाता है कि इस विषय में हम अगले सत्र और अगले श्लोक में देखते हैं कि अर्जुन ऐसा क्यों कहते हैं। बच्चों को यह भी बताया जाता है कि वे कहीं पर इन टिप्पणियों को लिख लें ताकि वे आने वाले सत्र के प्रश्नोत्तरी में अच्छा प्रदर्शन कर सकें, प्रश्नों के सही उत्तर दे सकें। विवेचन लेख के पी. डी. एफ. भी आते हैं, जिनमें ये सभी बातें दी गई होती हैं।
बच्चों को बताया गया कि प्रश्नोत्तरी में बड़े कठिन प्रश्न भी आने वाले हैं जिनके लिए उन्हें तैयारी करनी होगी। इसके साथ ही आज का विवेचन सत्र समाप्त हुआ।
प्रश्नोत्तर
प्रश्नकर्ता - अन्य रोहिला भैय्या
प्रश्न - अर्जुन को युद्ध करने के लिए रथ क्यों मिला था?
उत्तर - अर्जुन एक क्षत्रिय योद्धा हैं। युद्ध के लिए उनके पास तो रथ होना ही चाहिए। बिना रथ के वे युद्ध कैसे करेंगे? उन्होंने अग्निदेव की सहायता की थी। उन्होंने अग्निदेव के लिए जङ्गल को उपलब्ध करवाया था, इसलिए उन्हें रथ प्राप्त हुआ था।
प्रश्नकर्ता - अमायरा वाधेरा दीदी
प्रश्न - क्या शिखण्डी को महिला के रूप में शिखण्डिनी कहा गया था?
उत्तर - हाॅं, शिखण्डी को पहले जन्म में राजकुमारी के रूप में ही जन्म मिला था। फिर पुनर्जन्म में उसे पुरुष रूप शिखण्डी का जन्म मिला।
प्रश्नकर्ता - पर्णिका पाण्डे दीदी
प्रश्न - अभिमन्यु के पिता का नाम क्या था?
उत्तर - अभिमन्यु के पिता का नाम अर्जुन था, श्रीकृष्ण जिनके सारथी थे।
प्रश्नकर्ता - प्रितिका दीदी
प्रश्न - सभी का बचपन का नाम होता है, तो द्रौपदी का बचपन का क्या नाम था।
उत्तर - द्रौपदी का बचपन का कोई नाम था, इसके कोई साक्षी नहीं हैं। वह यज्ञ से उत्पन्न हुईं थी तो उनको याज्ञसेनी बोला गया। यज्ञ से उत्पन्न होने के कारण उनका रङ्ग सांवला था, इसलिए उन्हें कृष्णा भी बोला गया। इसलिए श्रीभगवान कृष्ण का जब सम्बोधन होता है तो श्रीकृष्ण कहते हैं और श्रीकृष्णा कहने से वह द्रौपदी का सम्बोधन हो जाता है। पाञ्चाल नरेश की पुत्री होने के कारण द्रौपदी का नाम पाञ्चाली भी था। इस तरह उनके कई नाम थे।
प्रश्नकर्ता - मधुश्री सुरावार दीदी
प्रश्न - मधुश्री दीदी ने एक महत्वपूर्ण विषय को साझा किया। अम्बा रुपहरी थी और वह जिस राजा से विवाह करना चाहती थीं वे शाल्व देश के राजा थे उनका नाम था सारस्व।
उत्तर - मधुश्री दीदी को शाबाशी देते हुए अर्थात् उनका साधुवाद करते हुए बताया गया कि ऐसे महत्वपूर्ण बिन्दुओं को प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता में चयनित किया जाएगा।