विवेचन सारांश
संसार और भगवान का विवरण
गीता परिवार के देशभक्ति गीत, हरि शरणम् सङ्कीर्तन, हनुमान चालीसा पाठ, परम्परागत दीप प्रज्वलन, श्रीकृष्ण भगवान की स्तुति, गुरु वन्दना एवं गीताजी की स्तुति से आज के सत्र का आरम्भ हुआ। बालकों के लिए यह विशेष सत्र, बच्चों से कुछ प्रश्नोत्तर और चर्चा से प्रारम्भ हुआ।
बच्चों को मन से सत्र में जोड़ने के लिए पूछा गया कि सब कैसे हो? सभी ने हाथ फैला कर बताया की बहुत-बहुत अच्छे हैं।
पिछले सत्र की पुनरावृत्ति स्वरूप बच्चों से पूछा गया कि श्रीमद्भगवद्गीता के बारहवें अध्याय में कितने श्लोक हैं? अनिका सहित सभी ने बताया, बीस श्लोक हैं और सही बताया।
बारहवाँ अध्याय जिसका नाम भक्तियोग है, उसमें श्रीभगवान ने सगुण और निर्गुण उपासकों के बारे में बताया है। भक्तियोग नामक अध्याय में हमने भक्त के उन्तालीस गुण देखे। बारहवें अध्याय में भक्ति के बारे में ही बात की गयी।
आज पन्द्रहवें अध्याय में उल्टे वृक्ष की बात हुई। साधारणतः वृक्ष के पत्ते ऊपर, तना बीच में, जड़ें नीचे ज़मीन के अन्दर होती हैं। यहाँ पर उल्टे वृक्ष की बात की गयी है।
पुरूषोत्तमयोग का अर्थ है कि हम और उत्तम कैसे बन सकते हैं? हमारी ज्ञान और भक्ति कैसे बढ़ेगी! पुरूषोत्तम अर्थात् जो पुरुषों में उत्तम हैं, अर्थात् जिनका अद्वितीय व्यक्तित्व है, अच्छे से, विनम्रता से बात करते हैं, अच्छे से व्यवहार करते हैं, किसी के लिए भी बुरा नहीं कहते और न ही करते हैं।
यहाँ अर्जुन श्रीभगवान से बहुत सारे प्रश्न पूछते हैं।
एक प्रश्न पूछा संसार कैसा है ?
भगवान श्रीकृष्ण ने संसार की कल्पना उल्टे वृक्ष से की। कागज पर वृक्ष का चित्र बना कर उल्टा कर दीजिए, वैसा वृक्ष। उसके माध्यम से संसार को समझेंगें। यह उदाहरण के द्वारा समझाया गया है।
जैसे कि कक्षा में हम किसी वस्तु के बारे में नहीं जानते हैं, नहीं समझते हैं, तो समझाने के लिए जिस वस्तु को अच्छे से जानते हैं, उसका उदाहरण देकर शिक्षिका समझाती हैं।
श्रीभगवान संसार के प्रारूप को उल्टे वृक्ष से समझा रहें हैं।
बच्चों से पूछा गया, पेड़ में क्या-क्या होता है?
बच्चों ने बताया, जड़ें, शाखाएँ, तना, पत्तियाँ, फूल, फल और फल के अन्दर बीज होते हैं।
हम बीज भी खाते हैं, मटर बीज है। पालक, पुदीना, मेथी ये सब पेड़ के पत्ते होते हैं। आलू, शलगम, मूली, गाजर आदि पेड़ की जड़ें होती हैं। फूल फल, केला, अमरूद ये सब हम खाते हैं।
लकड़ी से क्या करते हैं?
आग जलाते हैं, दरवाज़े, खिड़कियाँ आदि बनाते हैं।
बच्चों के लिए विशेष होने के कारण सत्र में सरल प्रश्नों को पूछ कर इसे रुचिकर किया गया।
बच्चों को मन से सत्र में जोड़ने के लिए पूछा गया कि सब कैसे हो? सभी ने हाथ फैला कर बताया की बहुत-बहुत अच्छे हैं।
पिछले सत्र की पुनरावृत्ति स्वरूप बच्चों से पूछा गया कि श्रीमद्भगवद्गीता के बारहवें अध्याय में कितने श्लोक हैं? अनिका सहित सभी ने बताया, बीस श्लोक हैं और सही बताया।
बारहवाँ अध्याय जिसका नाम भक्तियोग है, उसमें श्रीभगवान ने सगुण और निर्गुण उपासकों के बारे में बताया है। भक्तियोग नामक अध्याय में हमने भक्त के उन्तालीस गुण देखे। बारहवें अध्याय में भक्ति के बारे में ही बात की गयी।
आज पन्द्रहवें अध्याय में उल्टे वृक्ष की बात हुई। साधारणतः वृक्ष के पत्ते ऊपर, तना बीच में, जड़ें नीचे ज़मीन के अन्दर होती हैं। यहाँ पर उल्टे वृक्ष की बात की गयी है।
पुरूषोत्तमयोग का अर्थ है कि हम और उत्तम कैसे बन सकते हैं? हमारी ज्ञान और भक्ति कैसे बढ़ेगी! पुरूषोत्तम अर्थात् जो पुरुषों में उत्तम हैं, अर्थात् जिनका अद्वितीय व्यक्तित्व है, अच्छे से, विनम्रता से बात करते हैं, अच्छे से व्यवहार करते हैं, किसी के लिए भी बुरा नहीं कहते और न ही करते हैं।
यहाँ अर्जुन श्रीभगवान से बहुत सारे प्रश्न पूछते हैं।
एक प्रश्न पूछा संसार कैसा है ?
भगवान श्रीकृष्ण ने संसार की कल्पना उल्टे वृक्ष से की। कागज पर वृक्ष का चित्र बना कर उल्टा कर दीजिए, वैसा वृक्ष। उसके माध्यम से संसार को समझेंगें। यह उदाहरण के द्वारा समझाया गया है।
जैसे कि कक्षा में हम किसी वस्तु के बारे में नहीं जानते हैं, नहीं समझते हैं, तो समझाने के लिए जिस वस्तु को अच्छे से जानते हैं, उसका उदाहरण देकर शिक्षिका समझाती हैं।
श्रीभगवान संसार के प्रारूप को उल्टे वृक्ष से समझा रहें हैं।
बच्चों से पूछा गया, पेड़ में क्या-क्या होता है?
बच्चों ने बताया, जड़ें, शाखाएँ, तना, पत्तियाँ, फूल, फल और फल के अन्दर बीज होते हैं।
हम बीज भी खाते हैं, मटर बीज है। पालक, पुदीना, मेथी ये सब पेड़ के पत्ते होते हैं। आलू, शलगम, मूली, गाजर आदि पेड़ की जड़ें होती हैं। फूल फल, केला, अमरूद ये सब हम खाते हैं।
लकड़ी से क्या करते हैं?
आग जलाते हैं, दरवाज़े, खिड़कियाँ आदि बनाते हैं।
बच्चों के लिए विशेष होने के कारण सत्र में सरल प्रश्नों को पूछ कर इसे रुचिकर किया गया।
15.1
श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधः(श्) शाखम्, अश्वत्थं(म्) प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि, यस्तं(व्ँ) वेद स वेदवित्॥15.1॥
श्रीभगवान् बोले – ऊपर की ओर मूल वाले (तथा) नीचे की ओर शाखा वाले (जिस) संसार रूप अश्वत्थ वृक्ष को (प्रवाह रूप से) अव्यय कहते हैं (और) वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसार-वृक्ष को जो जानता है, वह सम्पूर्ण वेदों को जानने वाला है।
विवेचन-संसार रूपी वृक्ष दिखता कैसा है?
वृक्ष के ऊपर का हिस्सा मूल है, नीचे का शाखा। इस वृक्ष का नाम है, अश्वत्थ वृक्ष। इस अश्वत्थ वृक्ष को नष्ट नहीं किया जा सकता।
वृक्ष के ऊपर का हिस्सा मूल है, नीचे का शाखा। इस वृक्ष का नाम है, अश्वत्थ वृक्ष। इस अश्वत्थ वृक्ष को नष्ट नहीं किया जा सकता।
वेद पत्तों के रूप में हैं। जो इस वृक्ष को अच्छे से जानता है, उसे ज्ञानी कहते हैं।
ऊर्ध्व अर्थात् ऊपर की ओर।
अश्वत्थ का मतलब होता है, पीपल का पेड़। एक अर्थ और होता है, अश्वत्थ अर्थात जिसमें निरन्तर परिवर्तन होता है।
संसार में दो चीजें बहुत चञ्चल होती हैं।
एक तो मन बहुत चञ्चल होता है। हम कहीं जाना चाहते हैं, तो शारीरिक रूप से वहाँ जा नहीं पाते, किन्तु मन क्षण भर में वहाँ जाकर घूम कर, नाना क्रियाएँ भी कर के आ जाता है। हम भले ही नहीं पहुँच पाएँ, सोचने मात्र से मन वहाँ पहुँचा देता है।
दूसरा है, पीपल का पत्ता। बिल्कुल भी हवा नहीं चल रही हो तो भी पीपल का पत्ता धीरे धीरे हिलता रहेगा, डोलता रहेगा।
अश्वत्थ वृक्ष में भी लगातार परिवर्तन हो रहा है।
अव्ययम् इसको नष्ट भी नहीं किया जा सकता।
एक कागज लेकर नष्ट करने के लिए जला देते हैं, तो क्या वो नष्ट हुआ?
नहीं, जलाने पर भी राख रूप में काला काला दिखता है। कागज नष्ट नहीं हुआ, उसका स्वरूप बदल गया।
संसार रूपी वृक्ष अव्यय, अविनाशी है। इसका नाश नहीं होता है।
पत्ते वेद हैं। ज्ञान बहुत विशाल होता है। किसी को गणित का विशेष ज्ञान है, किसी को गणित और विज्ञान दोनों का बहुत ज्ञान हो सकता है। किसी को इससे भी बहुत अधिक ज्ञान हो सकता है। ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती। पूरे ज्ञान को हम जान भी नहीं सकते।
पत्ते वेद हैं, वेद ज्ञान हैं।
वेद कितने होते हैं?
चार- ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्वेद, सामवेद।
जिसको बहुत ज्ञान होता है, उसको ज्ञानी कहते हैं। किसी को किसी का ज्ञान है, किसी को किसी का। बाद में जितना ज्ञान होता है, उसी के आधार पर द्वन्द्व छिड़ जाता है। मैं जो कह रहा हूँ, वही सही है।
ज्ञान बहुत विशाल है। तर्क नहीं करना चाहिए। हमें बिन्दु मात्र ही पता होता है। एक कहानी द्वारा समझाने की चेष्टा करते हैं।
एक शिक्षक के पास पाँच अन्धे रहते हैं। शिक्षक ने एक दिन उनको बताया कि वे एक हाथी देख कर आ रहें हैं। उन अन्धों ने भी हाथी को देखना चाहा। महावत को बुला कर, उनको हाथी देखने भेज दिया गया। वो देख तो पाते नहीं थे। सभी ने छूकर अनुभव किया। एक ने हाथी की पूँछ पकड़ ली और बोलने लगा की हाथी तो रस्सी जैसा है। एक ने सूँड़ पकड़ ली तो उसने कहा, हाथी साँप जैसा है। एक ने पैर पकड़ लिया तो बोला हाथी तो खम्भे जैसा है, एक अन्धा थोड़ा क़द में छोटा था, हाथी के नीचे जाकर पेट का स्पर्श कर के बोला, हाथी छत की तरह है, एक अन्धा लम्बा था तो हाथी के कान का स्पर्श कर के बोला हाथी सूप जैसा (अनाज फटकने वाला उपकरण) जैसा है।
शिक्षक ने पूछा हाथी कैसा था?
एक ने बताया- रस्सी जैसा, एक ने बताया- खम्भे जैसा, एक ने बताया- छत के जैसा, एक ने सर्प के जैसा बताया। सभी अपने को सही मान कर लड़ने लगे।
जीवन में भी ऐसा ही होता है। हम जितना जानते है उतना ही सही मानते हैं। शिक्षक ने कहा, तुम सभी सही हो। तुम सबने पूरा हाथी नहीं देखा, एक-एक हिस्से को देखा है।
गीता पढ़ने से ज्ञान बढ़ता जाएगा। वेदों का ज्ञान भी अध्ययन करने से ही होगा।
संसार रूपी वृक्ष को जानने वाले को ही ज्ञानी कहते हैं।
अधश्चोर्ध्वं(म्) प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके।।2।।
उस संसार वृक्ष की गुणों (सत्त्व, रज और तम) के द्वारा बढ़ी हुई (तथा) विषय रूप कोंपलों वाली शाखाएँ नीचे, (मध्य में) और ऊपर (सब जगह) फैली हुई हैं। मनुष्यलोक में कर्मों के अनुसार बाँधने वाले मूल (भी) नीचे और (ऊपर) (सभी लोकों में) व्याप्त हो रहे हैं।
विवेचन- संसार रूपी वृक्ष बढ़ता भी तो है। हम अगर खाना पीना नहीं खाएँगे तो दुबले हो जाएँगे।
वैसे ही साधारण पेड़ को पानी, प्रकाश, खाद चाहिए।
संसार रूपी वृक्ष को तीन गुण चाहिएं। सत्, रज्, तम्। सात्विक, राजसी, तामसी।
हम सारे कर्म इन तीनों गुणों के माध्यम से ही करते हैं।
तामसी गुण नहीं होगा तो हम सो नहीं पाएँगे।
राजसी गुण नहीं होगा तो दौड़ दौड़ कर काम नहीं कर पाएँगे, क्रियाशील नहीं हो पाएँगे।
सात्त्विक गुण अर्थात् अच्छाई। हमारे में जो अच्छे अच्छे गुण हैं, वो सात्त्विक गुणों के कारण ही आते हैं।
सारी क्रियाएँ इन गुणों के माध्यम से ही होती हैं।
यहाँ पर श्रीभगवान बता रहें हैं कि सात्त्विक, राजसी, तामसी इन तीन गुणों के कारण ही संसार वृक्ष बढ़ता है।
सात्त्विक गुण के कारण हम अच्छे होते हैं, भगवान के प्रति समर्पण का भाव आता है।
राजसी गुण से आसक्ति और क्रियाशीलता आती है।
तामसी के कारण आलस्य, प्रमाद आता है।
जिस प्रकार हमें बढ़ने के लिए खाना पीना चाहिए, वैसे ही संसार वृक्ष को ये तीनों गुण चाहिए।
इन गुणों के बिना संसार की क्रिया ठीक से नहीं होगी।
इस वृक्ष का ऊपर का हिस्सा जड़ है, श्रीभगवान कहते हैं वो मैं हूँ। ईश्वर ही सर्वोत्तम हैं।
ये सब संसार को समझने के लिए है।
बीच में जो वृक्ष का तना है, वो ब्रह्माजी हैं। शाखा और पत्ते इसी से निकले हैं इस संसार की रचना इन तीन गुणों से ही हुई है।
इन तीन गुणों के मिश्रण से ही तीन योनियाँ होती हैं। देव योनि, मनुष्य योनि, तिर्यक योनि।
देवता स्वर्ग में रहते हैं, वो देव योनि है। बहुत सारे गुण हम अर्जित करेंगे तो देव योनि को प्राप्त कर सकते हैं। हमें भी अनेक शक्तियाँ मिल जाएँगी । अगर हम ऊँचा पद या शिक्षा पाना चाहते हैं तो पढ़ना पड़ता है। देवता की उपाधि चाहिए तो बहुत सारे पुण्य अर्जित करने होंगे।
मनुष्य योनि में हम हैं, स्वयं चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि श्रेष्ठ योनि है। उसमें ही हम गीता जी का अभ्यास कर पा रहे हैं।
कीट, पतङ्ग आदि तिर्यक योनियाँ हैं।
भगवान सम्पूर्ण संसार को और ब्रह्माजी केवल शाखाओं को देख पाते हैं। आगे श्रीभगवान बताते हैं।
वैसे ही साधारण पेड़ को पानी, प्रकाश, खाद चाहिए।
संसार रूपी वृक्ष को तीन गुण चाहिएं। सत्, रज्, तम्। सात्विक, राजसी, तामसी।
हम सारे कर्म इन तीनों गुणों के माध्यम से ही करते हैं।
तामसी गुण नहीं होगा तो हम सो नहीं पाएँगे।
राजसी गुण नहीं होगा तो दौड़ दौड़ कर काम नहीं कर पाएँगे, क्रियाशील नहीं हो पाएँगे।
सात्त्विक गुण अर्थात् अच्छाई। हमारे में जो अच्छे अच्छे गुण हैं, वो सात्त्विक गुणों के कारण ही आते हैं।
सारी क्रियाएँ इन गुणों के माध्यम से ही होती हैं।
यहाँ पर श्रीभगवान बता रहें हैं कि सात्त्विक, राजसी, तामसी इन तीन गुणों के कारण ही संसार वृक्ष बढ़ता है।
सात्त्विक गुण के कारण हम अच्छे होते हैं, भगवान के प्रति समर्पण का भाव आता है।
राजसी गुण से आसक्ति और क्रियाशीलता आती है।
तामसी के कारण आलस्य, प्रमाद आता है।
जिस प्रकार हमें बढ़ने के लिए खाना पीना चाहिए, वैसे ही संसार वृक्ष को ये तीनों गुण चाहिए।
इन गुणों के बिना संसार की क्रिया ठीक से नहीं होगी।
इस वृक्ष का ऊपर का हिस्सा जड़ है, श्रीभगवान कहते हैं वो मैं हूँ। ईश्वर ही सर्वोत्तम हैं।
ये सब संसार को समझने के लिए है।
बीच में जो वृक्ष का तना है, वो ब्रह्माजी हैं। शाखा और पत्ते इसी से निकले हैं इस संसार की रचना इन तीन गुणों से ही हुई है।
इन तीन गुणों के मिश्रण से ही तीन योनियाँ होती हैं। देव योनि, मनुष्य योनि, तिर्यक योनि।
देवता स्वर्ग में रहते हैं, वो देव योनि है। बहुत सारे गुण हम अर्जित करेंगे तो देव योनि को प्राप्त कर सकते हैं। हमें भी अनेक शक्तियाँ मिल जाएँगी । अगर हम ऊँचा पद या शिक्षा पाना चाहते हैं तो पढ़ना पड़ता है। देवता की उपाधि चाहिए तो बहुत सारे पुण्य अर्जित करने होंगे।
मनुष्य योनि में हम हैं, स्वयं चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि श्रेष्ठ योनि है। उसमें ही हम गीता जी का अभ्यास कर पा रहे हैं।
कीट, पतङ्ग आदि तिर्यक योनियाँ हैं।
भगवान सम्पूर्ण संसार को और ब्रह्माजी केवल शाखाओं को देख पाते हैं। आगे श्रीभगवान बताते हैं।
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते, नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं(म्) सुविरूढमूलम्, असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा।।3।।
इस संसार वृक्ष का (जैसा) रूप (देखने में आता है), वैसा यहाँ (विचार करने पर) मिलता नहीं; (क्योंकि इसका) न तो आदि है, न अन्त है और न स्थिति ही है। इसलिये इस दृढ़ मूलों वाले संसार रूप अश्वत्थ वृक्ष को दृढ़ असङ्गता रूप शस्त्र के द्वारा काटकर –
विवेचन- श्रीभगवान अर्जुन को कह रहे हैं कि मैं ने तुम्हें समझाने के लिए संसार को उल्टा वृक्ष बताया है। ये कल्पना मात्र है। इसे ढूंढ़ने मत निकल जाना।
समझाने के लिए बताया है कि संसार कहाँ से शुरू होता है और कहाँ इसका अन्त होता है।
श्रीभगवान ने हमें संसार में भेजा है, किन्तु हम संसार में आकर, इस संसार में फँस जाते हैं।
हमारा कुछ होता ही नहीं है, सब कुछ श्रीभगवान का ही है।
श्रीभगवान ने हमें काम करने के लिए भेजा है, पर हम आसक्त हो जाते हैं।
संसार का आनन्द लें किन्तु इसमें आसक्त न हों।
इसी में आगे बताते हुए श्रीभगवान कहते हैं कि वैराग्य से आसक्ति को दूर किया जा सकता है।
मेरा कोई भी सामान खो जाये तो जब तक नहीं मिलता है, तब तक खलबली मची रहती है।
अध्याय के अन्त में आनन्दोत्सव होगा। उसमें आप सब एक पुरानी गलत आदत छोड़ सकते हैं, एक नयी अच्छी आदत का सङ्कल्प ले सकते हैं।
इससे हमारे जीवन में अच्छी बात आने लगती है और जीवन श्रेष्ठ हो सकता है।
समझाने के लिए बताया है कि संसार कहाँ से शुरू होता है और कहाँ इसका अन्त होता है।
श्रीभगवान ने हमें संसार में भेजा है, किन्तु हम संसार में आकर, इस संसार में फँस जाते हैं।
हमारा कुछ होता ही नहीं है, सब कुछ श्रीभगवान का ही है।
श्रीभगवान ने हमें काम करने के लिए भेजा है, पर हम आसक्त हो जाते हैं।
संसार का आनन्द लें किन्तु इसमें आसक्त न हों।
इसी में आगे बताते हुए श्रीभगवान कहते हैं कि वैराग्य से आसक्ति को दूर किया जा सकता है।
मेरा कोई भी सामान खो जाये तो जब तक नहीं मिलता है, तब तक खलबली मची रहती है।
अध्याय के अन्त में आनन्दोत्सव होगा। उसमें आप सब एक पुरानी गलत आदत छोड़ सकते हैं, एक नयी अच्छी आदत का सङ्कल्प ले सकते हैं।
इससे हमारे जीवन में अच्छी बात आने लगती है और जीवन श्रेष्ठ हो सकता है।
ततः(फ्) पदं(न्) तत्परिमार्गितव्यं(य्ँ) यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं(म्) पुरुषं(म्) प्रपद्ये यतः(फ्) प्रवृत्तिः(फ्) प्रसृता पुराणी॥15.4॥
उसके बाद उस परमपद (परमात्मा) की खोज करनी चाहिये जिसको प्राप्त होने पर मनुष्य फिर लौटकर संसार में नहीं आते और जिससे अनादिकाल से चली आने वाली (यह) सृष्टि विस्तार को प्राप्त हुई है, उस आदिपुरुष परमात्मा के ही मैं शरण हूँ।
विवेचन- भगवान ने हमें संसार में भेजा है। पर हम भगवान को भूल जाते हैं, संसार में फँस जाते हैं।
कई बच्चे भगवान को याद करके पूजा भी करते हैं। गीता भी पढ़ते हैं।
इस श्लोक में श्रीभगवान ने यही कहा है कि हमें भगवान को भूलना नहीं है।
हम अपने माता-पिता को भूलते हैं क्या? जो बच्चें माता पिता को प्यार करते हैं, उनकी आज्ञा का पालन करते हैं, वो अच्छे बच्चे होते हैं।
माता पिता की तरह ही श्रीभगवान को मान कर, उनकी नित्य पूजा करनी चाहिए और उनका स्मरण करना चाहिए।
श्रीभगवान सर्वोत्तम हैं।
फिर से बच्चों को सम्बोधित करते हुए पूछा गया कि कौन-कौन श्रीभगवान की पूजा नित्य करता है?
अथर्व, प्रियांशु, रिया आशु बहुत से बच्चे नित्य पूजा करते हैं। जो नहीं करते हैं, उन्हें आरम्भ कर देना चाहिए।
जिन्हें फिर से इस संसार में नहीं आना, भगवान के धाम में ही रहना है, उन्हें नित्य पूजा करनी ही होगी।
आगे श्रीभगवान कहते हैं -
कई बच्चे भगवान को याद करके पूजा भी करते हैं। गीता भी पढ़ते हैं।
इस श्लोक में श्रीभगवान ने यही कहा है कि हमें भगवान को भूलना नहीं है।
हम अपने माता-पिता को भूलते हैं क्या? जो बच्चें माता पिता को प्यार करते हैं, उनकी आज्ञा का पालन करते हैं, वो अच्छे बच्चे होते हैं।
माता पिता की तरह ही श्रीभगवान को मान कर, उनकी नित्य पूजा करनी चाहिए और उनका स्मरण करना चाहिए।
श्रीभगवान सर्वोत्तम हैं।
फिर से बच्चों को सम्बोधित करते हुए पूछा गया कि कौन-कौन श्रीभगवान की पूजा नित्य करता है?
अथर्व, प्रियांशु, रिया आशु बहुत से बच्चे नित्य पूजा करते हैं। जो नहीं करते हैं, उन्हें आरम्भ कर देना चाहिए।
जिन्हें फिर से इस संसार में नहीं आना, भगवान के धाम में ही रहना है, उन्हें नित्य पूजा करनी ही होगी।
आगे श्रीभगवान कहते हैं -
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा, अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः(स्) सुखदुःखसञ्ज्ञै:(र्), गच्छन्त्यमूढाः(फ्) पदमव्ययं(न्) तत्।।5।।
जो मान और मोह से रहित हो गये हैं, जिन्होंने आसक्ति से होने वाले दोषों को जीत लिया है, जो नित्य-निरन्तर परमात्मा में ही लगे हुए हैं, जो (अपनी दृष्टि से) सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो गये हैं, जो सुख-दुःख नाम वाले द्वन्द्वों से मुक्त हो गये हैं, (ऐसे) (ऊँची स्थिति वाले) मोह रहित साधक भक्त उस अविनाशी परमपद (परमात्मा) को प्राप्त होते हैं।
विवेचन- श्रीभगवान बताते हैं कि हम क्यों नहीं भगवान जी को याद करते हैं? क्योकि संसार में फँस जाते हैं।
हमें श्रीभगवान को याद करते रहना चाहिए। कलम, पुस्तक के लिए भाई, बहनों से भी लड़ाई कर लेते हैं। अपने सामान के लिए आसक्ति है। हम कहते हैं कि ये मेरा घर, मेरी कलम, मेरी पुस्तक है।
हमें श्रीभगवान को याद करते रहना चाहिए। कलम, पुस्तक के लिए भाई, बहनों से भी लड़ाई कर लेते हैं। अपने सामान के लिए आसक्ति है। हम कहते हैं कि ये मेरा घर, मेरी कलम, मेरी पुस्तक है।
ये मेरा-मेरा ही आसक्ति है।
आसक्ति से दूर होते हैं, मैं मेरा से दूर होते हैं, तो श्रीभगवान के पास होते हैं। किसी भी कार्य में आसक्ति से लगे हैं, तो श्रीभगवान में नहीं लग पाएँगे।
कहानी- एक व्यक्ति की दो बेटियाँ थीं। एक का नाम लल्ली था, एक का नाम तल्ली। लल्ली का विवाह कुम्हार के घर पर हुआ था, तल्ली का विवाह किसान से हुआ था। पिता ने तल्ली से बात की, कि कैसी हो? वो बोली अच्छी हूँ। बहुत से मिट्टी के घड़े बनाये हैं। बारिश न हो तो सारे सूख जाएँगे। अच्छी आमदनी हो जाएगी।
तल्ली से पूछा, चूँकि वह किसान के यहाँ ब्याही गयी थी। उसने कहा-पिताजी सभी ठीक है, अभी फसल लगाई है, बारिश होने से अच्छी फसल हो जाएगी।
दोनों दो घरों में एक गाँव में ही रहती थीं। दोनों ही पिताजी को प्रार्थना करने को कह रही हैं। एक कह रही है कि वह श्रीभगवान से प्रार्थना करें कि बारिश नहीं हो और एक बोल रही है बारिश हो जाए।
उस व्यक्ति ने भगवान पर छोड़ दिया।
कई जन छोटे-छोटे घरों में रहते हैं। झोपड़ी में रहते हैं। बरसात में पानी टपकता है, रहना भी मुश्किल हो जाता है।
जब हमारे मन की नहीं होती है तो ये मानें कि किसी दूसरे के मन की हो रही है। उसको ही अच्छा मानें।
आगे श्रीभगवान बताते हैं कि ज्ञानी जन सम भाव में रहते हैं, तो भगवान को प्राप्त होते हैं।
न तद्भासयते सूर्यो, न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते, तद्धाम परमं(म्) मम।।6।।
उस (परमपद) को न सूर्य, न चन्द्र (और) न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है (और) (जिसको) प्राप्त होकर जीव लौट कर (संसार में) नहीं आते, वही मेरा परम धाम है।
विवेचन- जब प्रकाश नहीं होता है, तो प्रकाश पाने के लिए हम क्या क्या करते हैं?
मोमबती, लालटेन, फ़ोन की लाइट, आपातकालीन उपयोग में काम में आने वाले यन्त्रों का उपयोग करते हैं।
हम विज्ञान में पढ़ते हैं कि प्रकाश का मुख्य स्रोत सूर्य ही है।
यहाँ पर श्रीभगवान बता रहें हैं कि सूर्य को जो प्रकाश मिल रहा है, वह श्रीभगवान ही प्रदान कर रहें हैं।
सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि तीनों को शक्ति, प्रकाश, ऊर्जा श्रीभगवान ही देते हैं।
वे नहीं दें तो हम तक प्रकाश नहीं पहुँचेगा।
जो इस संसार रूपी वृक्ष को अच्छे से जान लेते हैं, वो परम धाम को प्राप्त कर लेते हैं।
श्रीभगवान को याद करते रहना चाहिए।
बच्चों को विद्यालय जाते समय, श्रीभगवान को हाथ जोड़ कर जाना चाहिये।
रास्ते में मन्दिर मिले तो प्रणाम अवश्य करना चाहिए।
विद्यालय से आकर पूजा कर लेना चाहिए। धीरे-धीरे हम ज्ञानी हो जाते हैं।
ज्ञानी को परम धाम की प्राप्ति हो जाती है।
आज विवेचन के पूर्वार्ध में संसार को उल्टे वृक्ष से जाना है, अगले सत्र में हम जन्म कैसे लेते हैं, इस पर बात करेंगे।
इसके साथ ही विवेचन सत्र समाप्त हआ और प्रश्न उत्तर प्रारम्भ हुए।
मोमबती, लालटेन, फ़ोन की लाइट, आपातकालीन उपयोग में काम में आने वाले यन्त्रों का उपयोग करते हैं।
हम विज्ञान में पढ़ते हैं कि प्रकाश का मुख्य स्रोत सूर्य ही है।
यहाँ पर श्रीभगवान बता रहें हैं कि सूर्य को जो प्रकाश मिल रहा है, वह श्रीभगवान ही प्रदान कर रहें हैं।
सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि तीनों को शक्ति, प्रकाश, ऊर्जा श्रीभगवान ही देते हैं।
वे नहीं दें तो हम तक प्रकाश नहीं पहुँचेगा।
जो इस संसार रूपी वृक्ष को अच्छे से जान लेते हैं, वो परम धाम को प्राप्त कर लेते हैं।
श्रीभगवान को याद करते रहना चाहिए।
बच्चों को विद्यालय जाते समय, श्रीभगवान को हाथ जोड़ कर जाना चाहिये।
रास्ते में मन्दिर मिले तो प्रणाम अवश्य करना चाहिए।
विद्यालय से आकर पूजा कर लेना चाहिए। धीरे-धीरे हम ज्ञानी हो जाते हैं।
ज्ञानी को परम धाम की प्राप्ति हो जाती है।
आज विवेचन के पूर्वार्ध में संसार को उल्टे वृक्ष से जाना है, अगले सत्र में हम जन्म कैसे लेते हैं, इस पर बात करेंगे।
इसके साथ ही विवेचन सत्र समाप्त हआ और प्रश्न उत्तर प्रारम्भ हुए।
प्रश्नोत्तर
प्रश्नकर्ता- अनिका दीदी
प्रश्न- अभी आपने कहानी सुनाई कि अन्धे लोगों को दिखता नहीं था। तो फिर वो कैसे काम करते थे? उन्हें क्या दिखता था?
उत्तर- उन्हें दिखता नहीं था, इसलिए वो छू कर ही सारा काम करते थे। जब उनके मास्टरजी ने कहा कि उन्होंने आज एक बहुत बड़ा जानवर देखा है, तब उनको भी देखने की इच्छा हुई। उनके पास आँखे तो थी नहीं। जब वो हाथी को देखने गये तो उसे छू कर ही देखने गये थे।
प्रश्नकर्ता-अनिका दीदी
प्रश्न- लेवल एक कितने दिनों का होता है?
उत्तर- लेवल एक में बीस कक्षा होती हैं और यह पच्चीस दिन में पूर्ण हो जाता है।
प्रश्नकर्ता- आद्या दीदी
प्रश्न- मुझे पुरुषोत्तम योग का अर्थ बताइये?
उत्तर- पुरुषोत्तम योग का अर्थ है पुरूषों में उत्तम। हमें कैसे पुरूषों में उत्तम बनना है, कैसे अपनी (पर्सनैलिटी personality) व्यक्तित्व को हम सर्वश्रेष्ठ बना सकते हैं, इसके लिए ही यह अध्याय है। जब हम इस संसार को जानते हैं, श्रीभगवान को जानते हैं, इस ज्ञान को जानते हैं तो हमारी personality wonderful हो जाती है, हमारा व्यक्तित्व आश्चर्य जनक हो जाता है। पुरुषों में उत्तम कैसे बनना है, इस अध्याय में यही ज्ञान हमें बताया गया है।
प्रश्नकर्ता- वर्णिका दीदी
प्रश्न- श्रीभगवान ने अर्जुन को उल्टे वृक्ष की उपमा क्यों दी?
उत्तर- संसार का रहस्य समझाने के लिए श्रीभगवान ने यह उदाहरण दिया है। इस संसार को समझना कठिन है इसलिए श्रीभगवान ने अर्जुन को और हमें समझाने के लिए यह कहा है।
प्रश्नकर्ता - वेदानन्द भैया
प्रश्न- हम मोक्ष और श्रीभगवान को कैसे प्राप्त कर सकते हैं?
उत्तर- गीता जी के द्वारा। श्रीमद्भगवद्गीता जी को पढ़ने से हमें यह प्राप्त हो जायेगा। अभी जो आप गीता जी पढ़ रहे हैं, यह अभ्यास निरन्तर ज़ारी रखें।
प्रश्नकर्ता- राजश्री दीदी
प्रश्न- क्या हमें पन्द्रहवाँ अध्याय याद करना चाहिए?
उत्तर- आप पन्द्रहवाँ अध्याय याद करें और भी सभी अध्याय हमें याद करने चाहिए। आप अभी यह आराम से कर सकते हैं, बाद में तो आपकी बोर्ड की परीक्षा और अन्य परिक्षाएं प्रारम्भ हो जायेंगी। आप गीता जी के सभी श्लोकों को याद करें। यह समय आपके लिए सर्वथा उपयुक्त है। जितने ज्यादा से ज्यादा श्लोक याद कर सकें, उतने करने चाहिए।
प्रश्नकर्ता- अदिति दीदी
प्रश्न - लेवल दो में क्या-क्या होगा?
उत्तर - लेवल दो में बहुत सारी बातें होंगी। उस में चार अध्याय होंगे। सोलहवाँ अध्याय होने के बाद, जिज्ञासु की परीक्षा भी होगी। यदि आप तीन अध्याय कण्ठस्थ कर लें तो आप कण्ठस्थीकरण की परीक्षा भी दे सकते हैं।
लेवल दो पूरा होने के बाद में गीता पाठक की परीक्षा भी होती है। यदि आप छः अध्याय कण्ठस्थ कर लेते हैं, तो गीता पाठक भी बन सकते हैं।
प्रश्नकर्ता - शिवाङ्ग भैया
प्रश्न - द्वादश अध्याय को भक्तियोग क्यों कहते हैं?
उत्तर - द्वादश अध्याय को भक्तियोग कहते हैं क्योंकि उसमें श्रीभगवान ने भक्ति के लक्षण बताएं हैं। श्रीभगवान की भक्ति करने का सही तरीका क्या है, यह उस अध्याय में बताया गया है।
इसके उपरान्त हनुमान चालीसा पाठ और हरी नाम सङ्कीर्तन के साथ आज के सुन्दर सत्र का समापन हुआ।