विवेचन सारांश
परमतत्त्व की प्राप्ति हेतु गुणातीत कैसे बनें
सुमधुर प्रार्थना, दीप प्रज्वलन, हनुमान चालीसा पाठ तथा गुरु वन्दना के साथ आज के सत्र का आरम्भ हुआ।
श्रीभगवान् की अतिशय मङ्गलमय कृपा हम सब पर बरस रही है जो हम अपने जीवन को सार्थक करने के लिए, सफल करने के लिए, इस जीवन को परमोच्च लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए और इस जीवन का सही अर्थ जानने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता में प्रवृत्त हो गए हैं। पता नहीं, हमने इस जन्म में कोई सुकृत किए हैं, पूर्वजन्म के कोई पुण्यकर्म हैं या फिर हमारे पूर्वजों के कोई पुण्य उदित हो गये जिस कारण हम पर श्रीभगवान् की ऐसी कृपा हो गयी कि हम श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने के लिए चुन लिये गये।
श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ना श्रीभगवान् का कृपा-प्रसाद है। प्रसाद का अर्थ है प्रसन्नता, इसलिए जो श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने लगता है, उसके जीवन के समस्त अवसाद समाप्त हो जाते हैं और उसके जीवन में प्रसन्नता का आरम्भ हो जाता है।
कोलकाता में श्रीभगवान् स्वामी नारायण मन्दिर की पावन भूमि पर गीता परिवार का राष्ट्रीय शिविर आयोजित हो रहा है। यह विवेचन उसी स्थान से हो रहा है। आज एक और सुन्दर अवसर है। आज हम सब श्रीरामलला की प्राण प्रतिष्ठा का प्रथम वार्षिकोत्सव मना रहे हैं। इस सुअवसर की आप सभी को बधाई। वैसे तो समस्त सनातन धर्मियों के लिए यह पर्व दीपावली के उत्सव के समान है। पिछले वर्ष आज ही की तिथि पर, हमारे रामलला तम्बू से निकलकर मन्दिर में विराजे। यह सुअवसर पाँच सौ वर्ष की प्रतीक्षा के बाद और बहुत कष्टों के बाद आया। उनको अपने धाम में प्रतिष्ठित करवाने के लिए सहस्रों हिन्दू धर्मावलम्बियों ने अपने बलिदान दिया। उनके प्रयासों को सफल होता हुआ तथा नयनों को सुख देने वाले, वह दृश्य हम लोगों ने देखे हैं।
आज जब हम उस अवसर की प्रथम वर्षगाँठ मना रहे हैं तो यह क्षण अत्यन्त भावुक करने वाला है। पूज्य स्वामीजी की कृपा से, उन क्षणों में वहाँ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था, जिसे जीवन भर भुलाया नहीं जा सकता। गीता परिवार के सौ कार्यकर्ता वहाँ पर सेवा में लगे थे। जब श्रीभगवान् की प्राण प्रतिष्ठा हुयी, तब सब रोये थे। वहाँ आठ-साढ़े आठ हज़ार व्यक्ति बैठे थे और टीवी पर तो करोड़ों व्यक्तियों ने वह दृश्य देखा था, शायद ही कोई होगा जिसकी आँखों में अश्रु नहीं थे। वहाँ उपस्थित सब श्रद्धालु आनन्द के अश्रु बहा रहे थे। हमारे रामलला को अपने भवन में विराजने के लिये पाँच सौ वर्षों की प्रतीक्षा करनी पड़ी थी। यह प्रत्येक सनातन धर्मावलम्बी के लिये बहुत गौरव के पल थे। दुःख भी था कि कितनी पुण्यात्माओं ने इसके लिये अपने प्राण दे दिये।
हमारा समाज इस समय बहुत चुनौतियों से जूझ रहा है। सौभाग्य की बात है कि हमें इस समय में पूज्य स्वामीजी जैसे सन्तों का सान्निध्य मिल रहा है तथा हमें ऐसे यशस्वी प्रधानमन्त्रीजी का साथ मिला है। शिवाजी के बाद पहली बार कोई ऐसा शासक इस पुण्य भूमि को प्राप्त हुआ है।
आज इस अवसर पर हमारे भाव बार-बार अयोध्या जा रहे हैं। ये क्षण अत्यन्त भावुक करने वाले हैं। आज एक और शुभ अवसर भी है। कल अर्थात् बारह जनवरी को स्वामी विवेकानन्द जी की जयन्ती भी है। भारत भूमि महापुरुषों की भूमि है। इस पुण्य भूमि पर समय-समय पर अनेक महापुरुषों का प्रादुर्भाव हुआ है। स्वामी विवेकानन्द अद्भुत और विरले सन्त रहे हैं, इसीलिये पूज्य स्वामीजी ने स्वामी विवेकानन्द जी को हमारे गीता परिवार का मुख्य चरित्र बनाया है। वे गीता परिवार के मुख्य आधार हैं, इसीलिए आज उनकी जन्मशती पर उनका भी स्मरण करना आवश्यक है। उनका जन्म मकर सङ्क्रान्ति के दिन हुआ था। उस समय सङ्क्रान्ति बारह तारीख को आती थी जबकि आजकल चौदह या पन्द्रह तारीख को आती है।
हम चौदहवें अध्याय का चिन्तन कर रहे हैं। हमने पिछले सत्र में अट्ठारह श्लोकों का चिन्तन किया था। सत्त्व, रज और तम को समझने का प्रयास किया था। हमने देखा कि सत्त्वगुण, रजोगुण या तमोगुण के बढ़ने से मनुष्य के स्वभाव में क्या अन्तर आता है? आज का विवेचन सत्र उन्नीसवें श्लोक से आरम्भ करते हैं।
14.17
सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं(म्), रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो, भवतोऽज्ञानमेव च॥14.17॥
ऊर्ध्वं(ङ्) गच्छन्ति सत्त्वस्था, मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था, अधो गच्छन्ति तामसाः॥14.18॥
नान्यं(ङ्) गुणेभ्यः(ख्) कर्तारं(म्), यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं(म्) वेत्ति, मद्भावं(म्) सोऽधिगच्छति॥14.19॥
गुणानेतानतीत्य त्रीन्, देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखै:(र्), विमुक्तोऽमृतमश्नुते॥14.20॥
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं कि “अर्जुन! जिस समय दृष्टा इन तीनों गुणों के अतिरिक्त अन्य किसी कर्त्ता को नहीं देखता, तीनों गुणों से अत्यन्त परे सच्चिदानन्द स्वरूप मुझ परमात्मा को ही तत्त्व जानता है, तब वह मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाता है तथा यह पुरुष शरीर की उत्पत्ति के कारणरूप इन तीनों गुणों का उल्लङ्घन करके जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था तथा सब प्रकार के दुःखों से मुक्त हुआ परमानन्द को प्राप्त हो जाता है।”
श्रीभगवान् ने अभी तक यह कहा कि तमोगुण से रजोगुण में और रजोगुण से सत्त्वगुण में जाना ही जीवन की श्रेष्ठता है। तमोगुण और रजोगुण को दबाकर सत्त्वगुण को बढ़ा कर साधना करनी है, जीवन के लक्ष्य प्राप्त करने हैं। दुःखों से दूर जाना है। यदि हमें समाधान रूपी जीवन में स्वयं को लगाना है तो एकमात्र उपाय सत्त्वगुण को बढ़ाना ही है। जिसका सत्त्वगुण जितना अधिक बढ़ा हुआ होता है, उसके जीवन के दुःख उतने ही कम हो जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि उसके जीवन में दुःख नहीं आते। ज्वर तो उसे भी होगा, उसके भी किसी अपने की मृत्यु अवश्य होगी। उस क्लेश या दुःख को देखने की उसकी दृष्टि बदल जाती है। तब उसे सामान्य व्यक्ति की भाँति दुःख का अनुभव नहीं होता है। सामान्य व्यक्ति के ऊपर जब विपत्ति आती है तो वह सोचता है कि मेरे साथ ही ऐसा क्यों हो गया? मेरे साथ तो ऐसा नहीं होना चाहिए था। मैं तो श्रीभगवान् की पूजा करता हूँ, मैं तो अच्छा हूँ, मैं तो सात्त्विक हूँ आदि।
कुछ व्यक्ति तो कहते हैं कि श्रीभगवान् की इतनी भक्ति करने का मुझे क्या लाभ हुआ? मेरे जीवन में इतने क्लेश आ गये। ऐसे व्यक्ति अच्छा बनने का प्रयास तो कर रहे हैं, किन्तु पूरी तरह अच्छे बन नहीं पाये हैं। बुद्धि सत्त्व में स्थिर हो जाएगी तो परिस्थितियाँ तो वहीं आएँगी किन्तु देखने की दृष्टि बदल जाएगी।
सात्त्विक व्यक्ति सोचता है कि जो रामजी ने रचा है वही होगा, तो मैं क्यों व्यर्थ चिन्ता करूँ? सात्त्विक व्यक्ति आयी हुयी विपदा में भी अपना कल्याण ढूँढ लेता है। वह विचार करता है कि श्रीभगवान् के हर विधान में मङ्गल है। जो आज मङ्गल दिखता है, वह दीर्घकाल में भी मङ्गल ही होगा और यदि कुछ अप्रिय हो गया तो मेरे पाप नष्ट हो गये।
जो बहुत दुःखी है, वह रजोगुणी है। जो हर काम उल्टा करता है, वह तमोगुणी है। जो अन्दर से सदा प्रसन्न रहता है, वही सत्त्वगुणी है।
जिसके जीवन में प्रकाश है, जिसका दृष्टिकोण स्पष्ट है, जो किसी बात में भ्रमित नहीं होता है, वह सात्त्विक है। जिसके जीवन में थोड़ा भ्रम है, वह राजसिक है। जो जानते हुये भी गलत काम करता है, वह तामसिक है।
उन्नीसवें और बीसवें श्लोक में श्रीभगवान् ने जब इस बात को आगे बढ़ाया, तब उन्होंने कहा, "अर्जुन! यह तो ठीक है कि सत्त्वगुण से प्रकाश आता है, रजोगुण से दुःख आता है तथा तमोगुण से मोह आता है, किन्तु जो इन तीनों गुणों से अतीत यानी गुणातीत होता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।" सत्त्वगुणी व्यक्ति स्वर्ग जाएगा किन्तु उसे वहाँ से वापस आना पड़ेगा। यदि वह मोक्ष प्राप्त करना चाहता है, इस जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा पाना चाहता है तो उसे इन तीनों गुणों से अतीत होना होगा।
आदि शङ्कराचार्य भागवान ने कहा है-
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम |
अर्थात् बार-बार जन्मते हो, बार-बार मरते हो, बार-बार माँ के गर्भ में उल्टे लटकते हो।
अर्जुन आश्चर्य चकित हो गये कि सत्त्व, रज और तम, इन तीनों से अतीत क्या होता है? यह कैसे हो सकता है? उन्होंने श्रीभगवान् से तीन प्रश्न पूछे-
अर्जुन उवाच
कैर्लिंगैस्त्रीन्गुणानेतान्, अतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः(ख्) कथं(ञ्) चैतांस्, त्रीन्गुणानतिवर्तते॥14.21॥
विवेचन- अर्जुन ने कहा, “हे पुरुषोत्तम! इन तीनों गुणों से अतीत हुआ मनुष्य किन लक्षणों से युक्त होता है? उसके आचरण कैसे होते हैं? इन तीनों गुणों से अतीत कैसे बना जा सकता है?”
श्रीभगवान् अर्जुन के प्रश्न से प्रसन्न हो जाते हैं। वास्तव में यह अत्यन्त उच्च स्तर का प्रश्न है। श्रीभगवान् ने भी अत्यन्त उच्च स्तर का उत्तर दिया। गुणातीत के लक्षण उत्तम सिद्धों की बात है।
एक बार श्रीराम ने हनुमानजी और अपने तीनों भाइयों को उपदेश दिया। उत्तरकाण्ड के दोहा सङ्ख्या इकतालीस में इसका वर्णन है।
त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक। भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक॥
अर्थात् मनुष्य शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म से अतीत हो जाता है।
श्रीभगवान् ने अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर देना आरम्भ किया-
श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं(ञ्) च प्रवृत्तिं(ञ्) च, मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि, न निवृत्तानि काङ्क्षति॥14.22॥
विवेचन- श्रीभगवान् ने कहा, "अर्जुन! जो पुरुष सत्त्वगुण के कारण प्रकाश को, रजोगुण के कारण प्रवृत्ति को और तमोगुण के कारण मोह को त्याग कर भी न तो इन में प्रवृत्त होने पर इनसे द्वेष करता है, न ही निवृत्त होने पर उनकी आकाङ्क्षा करता है।"
वह न तो यह विचार करता है कि यह मुझे करना है, न ही यह विचार करता है कि यह मुझे नहीं करना है। वह तटस्थ रहता है। वही गुणातीत है। कर्त्तव्य कर्म सामने आया तो कर लिया, नही आया तो भी विचलित नहीं होता।
उदासीनवदासीनो, गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव, योऽवतिष्ठति नेङ्गते॥14.23॥
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं कि जो मनुष्य साक्षी के सदृश गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा “गुण ही गुणों में बरत रहे हैं”, इस भाव से सच्चिदानन्द परमात्मा में एक ही भाव से स्थित रहता है, वह उस स्थिति से कभी विचलित नहीं होता।
अब यहाँ श्रीभगवान् ने थोड़ी बड़ी बात कह दी है। जैसे एक स्नातक स्तर की शिक्षा होती है और उसके पश्चात स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा होती है।स्नातक स्तर की शिक्षा में हम जो भी पढ़ते हैं, उसी को सूक्ष्म रूप से पढ़ना ही स्नातकोत्तर की शिक्षा होती है, इसलिए स्नातकोत्तर स्तर में कुछ नया विषय नहीं आता। जो स्नातक में पढ़ा है, उसी को सूक्ष्म रूप से पढ़ना होता है, अर्थात् स्नातकोत्तर स्तर में हमें स्नातक की शिक्षा का गुरु बनना होता है, अर्थात् मास्टर्स जैसे कला का मास्टर्स, विज्ञान का मास्टर्स, वाणिज्य का मास्टर्स आदि।
हम जो कुछ पहले से जानते हैं, हमें उसका गुरु बनना होता है इसीलिए इस अध्याय का नाम गुणत्रयविभागयोग अध्याय है। अब तक श्रीभगवान् ने सत्त्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण आदि विभाग बताएँ हैं।
श्रीभगवान् आगे कहते हैं कि इन विभागों के मास्टर बनो।
प्रकाशञ् च अर्थात् सत्त्वगुण, प्रवृत्तिञ् च अर्थात् रजोगुण और मोहमेव च अर्थात् तमोगुण।
अब स्थिति ऐसी हो गई कि साधक इन तीनों में से कोई गुण ग्रहण करता है और कोई नहीं।
किसी गुण को छोड़ दूँ और किसी को ग्रहण करूँ, जब यह चाह भी नहीं रहती, तब वह गुणातीत बन जाता है।
शास्त्रीय भाषा में कुछ करने की इच्छा को प्रवृत्ति कहते हैं तथा कुछ छोड़ने की इच्छा को निवृत्ति कहते हैं। श्रीभगवान् कहते हैं कि न तो प्रवृत्त होने पर उसे द्वेष होता है, न ही उसकी निवृत्त होने की आकाङ्क्षा है कि उसे कुछ न करना पड़े। वह सोचता है कि मैं सत्त्व, रज और तम, इन तीन गुणों में फँसू ही नहीं। निश्चित रूप से यह बहुत ही कठिन विषय है कि इसको किस तरह से समझाया जाए। पहले ही से कह दिया है कि यह स्नातकोत्तर से भी आगे का विषय है।
प्रवृत्ति की ओर द्वेष न करना और निवृत्ति की आकाङ्क्षा न करना, इस बुद्धि से समझना थोड़ा सा कठिन है। हमें लगता है कि या तो प्रवृत्ति करो या फिर निवृत हो जाओ। प्रवृत्त नहीं होना जैसी भी मन में कोई बात नहीं है, निवृत्त हो जाऊँ, ऐसा भी नहीं है।
कोई व्यक्ति कहे कि क्या तुम्हें भी शादी में चलना है? और सामने वाला उत्तर न दे, तो क्या उसकी जाने की इच्छा नहीं है? ऐसा भी नहीं है। तो फिर प्रश्न पूछने वाला सोचने लगेगा, “अरे! यह पागल तो नहीं?” अरे बाबा! कोई तो बात बताओ, जाना है तो हाँ या फिर नहीं जाना है तो नहीं। यह बड़ी सूक्ष्म बात है। कोई उस सामने वाले को गाड़ी में बैठाकर ले जाएगा तो वह चल देगा, क्योंकि उसमें न जाने की प्रवृत्ति नहीं है।
यहाँ श्रीभगवान् का तात्पर्य है कि स्वाभाविक रूप से जो हो गया, सो हो गया, नहीं तो नहीं। कोई कर्म हुआ तो भी ठीक है और न हुआ तो भी ठीक है।
मनुष्य यह कैसे कर सकता है?
श्रीभगवान् ने छठे अध्याय में बताया था- मध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु। वहाँ यह बताया गया था कि सह-सम्बन्ध में उदासीन। यह प्रवृत्ति और निवृत्ति में सम हो गया, उससे ऊपर हो गया।
कबीर जी का एक दोहा है-
कबीरा खड़ा बाज़ार में, सबकी माँगे खैर |
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर ||
'ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर' यह उदासीनता है।
शुकदेव मुनि की कथा आती है जिससे स्पष्ट होगा कि गुणातीत कैसा होता है।
शुकदेव जी राजा जनक जी से मिलने आए। शुकदेव जी को आश्चर्य होता है, "मैं नैष्ठिक ब्रह्मचारी, सदा से जङ्गलों में रहने वाला, आज तक किसी शहर में नहीं गया। मेरे पिता ज्ञान प्राप्ति के लिए मुझे एक राजा के पास भेज रहे हैं। मैं स्वयं महान ऋषि वेदव्यास जी का पुत्र हूँ।"
यहाँ जनक एक पद है, ये जनकजी माता सीता के पिता महाराज जनक नहीं हैं। श्रीमद्भागवत जी में तिहत्तर जनकों की सूची दी गयी है। सीताजी के पिता उञ्चासवें जनक थे जिनका नाम शीलध्वज था।
वहाँ राजसभा में पहुँच कर शुकदेवजी ने द्वारपाल को दम्भवश स्वयं का बहुत लम्बा परिचय दिया। उन्होंने कहा कि जाकर जनकजी को बताओ कि वेदव्यासजी का पुत्र उनसे मिलने आया है। जब द्वारपाल राजा के समक्ष पहुँचा, तब राजा ने द्वारपाल से शुकदेव जी को वहीं द्वार पर प्रतीक्षा करने हेतु कहा। सात दिन तक शुकदेव जी वहीं राजभवन के द्वार पर महाराज के आदेश की प्रतीक्षा करते रहे एवं अब उनका अहङ्कार गल कर समाप्त हो गया।
पिता की आज्ञानुसार वे अपने प्रश्नों का उत्तर लिए बिना वहाँ से वापस जा भी नहीं सकते थे, अत: सातवें दिन जब शुकदेव जी का अहङ्कार टूटा तब उन्होंने स्वयं का परिचय कुछ इस प्रकार द्वारपाल को दिया कि 'हे राजन! समर्पित, ज्ञानाकाङ्क्षी शुकदेव आपके दर्शन का अभिलाषी है।' तब राजा जनक दौड़कर आए और ससम्मान सन्त शुकदेव जी से महल के भीतर आने का आग्रह किया। भोजन, विश्राम आदि के पश्चात राजा जनक ने उनसे मिलकर राज्य में हो रहे देवी-उत्सव के विषय में बताया। उन्होंने बताया कि मिथिला नगरी की स्थापना का यह उत्सव तब पूर्ण माना जाता है जब कोई महान सन्त तेल से भरे पात्र को सम्पूर्ण नगरी में घुमाकर पुनः महल में वापस आ कुलदेवी की पूजा अर्चना पूर्ण करता है। आपसे उत्तम नैष्ठिक ब्रह्मचारी पूरे विश्व में दूसरा कोई नहीं है। ध्यान देने योग्य यह है कि पात्र में से एक बूँद भी तेल छलकना नहीं चाहिए अन्यथा सम्पूर्ण प्रक्रिया व्यर्थ हो जाती है।
तब राजा ने शुकदेव जी के हाथ में पात्र देकर नगर भ्रमण को रवाना कर दिया। चार घण्टे नगर भ्रमण पूर्ण करने के उपरान्त शुकदेव जी ने महल में वापस आकर देवी का पूजन आदि करके उस उत्सव को पूर्ण किया। तत्पश्चात महाराज जनक ने शुकदेव जी को प्रणाम किया और उनके हाथ से पात्र लेकर देवी के चरणों में रखा और पूछा कि आपको नगर कैसा लगा? शुकदेव जी अचम्भित हो राजा की ओर दृष्टि करके बोले," मैं तो उस पात्र को ही निहारता रहा ताकि तेल न छलक जाये। भव्य मिथिला नगरी देखने की ओर मेरा ध्यान ही नहीं गया।"
राजा जनक ने उनका यह उत्तर सुनकर कहा कि शुकदेव मुनि! आपकी प्रथम शिक्षा पूर्ण हुयी कि संसार में रहते हुए भी सदैव सांसारिक बन्धनों से मुक्त रहने का प्रयास जीव को करना चाहिए। चाहे संसार कितना ही सुन्दर तथा भव्य हो। यह उदासीन भाव है जो सत्त्व, रज तथा तम- तीनों से परे है।
श्रीभगवान् ने कहा है कि गुण ही गुण में बरतता है। गुणा एव वर्तन्ते।
कोई ऐसा योगी नहीं है जो कहे कि मैं भोजन कर रहा हूँ, वह तो कहेगा कि पेट को भूख लगी, आँखें भोजन को देख रही हैं, हाथ भोजन को उठा रहा है, दाँत भोजन को चबा रहे हैं आदि। मैं कुछ नहीं कर रहा, सब कुछ अपने आप हो रहा है। आप में से किसी ने कभी कहा कि मैं श्वास ले रहा हूँ? मैंने बहुत अच्छी श्वास ली, मैं श्वास लेना भूल गया। कोई कभी कहता है कि मैंने आज भोजन अच्छे से पचाया, आज भोजन मैंने अच्छे से नहीं पचाया, क्योंकि हमें लगता है कि यह सब कुछ अपने आप हो रहा है। हम श्वास ले रहे हैं, भोजन खा रहे हैं, परन्तु यह सब कुछ तो शरीर की शक्ति से ही हो रहा है। यह सब कुछ तो मैं कर्त्ता भाव से कर रहा हूँ। कुछ हम कर्त्तापन के भाव से करते ही नहीं है, क्योंकि श्रीभगवान् ने हमें वह स्वातन्त्र्य नहीं दिया है।
सब कुछ अपने आप हो रहा है, जैसे हमारी धमनियों में रक्त प्रवाहित हो रहा है। हमारा हृदय कार्य कर रहा है, मैं भोजन कर रहा हूँ, कभी वहाँ जा रहा हूँ, कभी यहाँ जा रहा हूँ, सब कुछ अपने आप ही हो रहा है। सब कुछ शरीर के अङ्गों द्वारा हो रहा है। जहाँ जिसकी जैसी आवश्यकता है, वह कर रहा है, मैं कुछ नहीं करता।
जो इन गुणों पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह गुणातीत बन जाता है।सब्जी में नमक कम हुआ तो उसे पता नहीं चलेगा। किसी ने उसका मान या अपमान किया, उसे पता नहीं चलेगा, क्योंकि अपमान हुआ तो शरीर का हुआ और मैं शरीर नहीं हूँ। उसे कोई आकर माला पहनाएगा, उससे उसे कुछ अन्तर नहीं होगा, अर्थात् वह सुख और दुःख, दोनों से ही परे हो जाता है। सुख-दु:ख की उसकी स्थिति कैसी होती है? यह श्रीभगवान् अगले श्लोक में बता रहे हैं।
समदुःखसुखः(स्) स्वस्थः(स्), समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीर:(स्), तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥14.24॥
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं, “अर्जुन! जो निरन्तर आत्मभाव में स्थिर हो गया, जो सुख-दु:ख को सम समझता है, जो मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला है, वह ही गुणातीत है।
एक बार रङ्का और बङ्का दो मित्र थे। बड़े अच्छे साधक थे, दोनों गुरु के परम भक्त, दोनों सगे भाई और दोनों ने गुरु की सेवा से परमयोगी की स्थिति प्राप्त कर ली थी। दोनों पर गुरुजी की बड़ी कृपा थी। एक दिन दोनों सत्सङ्ग से लौट रहे थे। बङ्का आगे चल रहा था। उसने देखा कि मार्ग में एक सोने की अङ्गूठी पड़ी हुई है। उसके लिए तो सोना-मिट्टी सब एक समान है, उसे सोने को लेकर क्या करना है?
"चलो मेरा तो कुछ नहीं! मुझे इसका मोह भी नहीं, परन्तु पीछे आ रहा रङ्का, यदि उसके मन में लालच आ गया तो? इसलिए मैं ऐसा कर देता हूँ कि मैं इसे मिट्टी से ढक देता हूँ, ताकि वह उसे देखे ही नहीं और न ही उसके मन में कोई लालसा उत्पन्न हो। गुरुकृपा से मेरा तो मन सम्भल गया, यदि उसका मन न सम्भला तो? यदि उसे लालच आ गया तो उसका तो पतन हो जाएगा।" यह सोचकर वह धीरे से उस अङ्गूठी पर मिट्टी सरकाने लगा।
रङ्का ने पीछे से देख लिया और कहने लगा, “अरे बङ्का! तुम क्या कर रहे हो? मिट्टी के ऊपर मिट्टी क्यों डाल रहे हो? "यह सुनकर बङ्का स्तब्ध हो गया। उसने तुरन्त रङ्का के चरण पकड़ लिए। कहने लगा, "भैया मुझसे बड़ी भूल हो गई।" रङ्का ने पूछा, " क्या हुआ, तुम ऐसे क्यों बोल रहे हो?"
बङ्का कहने लगा, "मैं तो अपने आप को ही महान समझता था कि मिट्टी और सोना सम हैं। आप तो मुझसे भी महान हो गए क्योंकि आपको तो सोना दिख ही नहीं रहा। आप कह रहे हैं कि मिट्टी के ऊपर मिट्टी क्यों डाल रहे हो। आप को तो सोने की अङ्गूठी दिखती ही नहीं। मैं सोने को देखकर लालच नहीं करूँगा, यह बात अलग है। सोना और मिट्टी एक समान है, यह कितने ऊपर की बात है।"
ध्यान में रखने की बात यह है कि समदर्शन और संवर्तन में अन्तर है। यहाँ समदर्शन क्या है और संवर्तन क्या नहीं?
रङ्का और बङ्का अपने घर के स्वर्ण आभूषणों को मार्ग पर लाकर नहीं फेंकेंगे, वे उन्हें तिजोरी में ही रखेंगे। अपने अधिकार की बात नही है तो उस पर मिट्टी डालेंगे, परन्तु अपने घर के आभूषणों को रास्ते पर नहीं फेंकेंगे। समदर्शन अलग बात है और संवर्तन अलग बात है।
आजकल कुछ लोग कुत्ते में भी श्रीभगवान् को देखते हैं और डाइनिङ्ग टेबल पर उसे बैठाकर खाना भी खिलाते हैं। इन समदर्शन और संवर्तन करने वाले महापुरुषों को नमन ही कीजिये। यह सब कुछ तो पागलपन ही है। कुत्ते में श्रीभगवान् देखते हैं तो भी उसे दरवाजे के बाहर ही भोजन खिलाइए।
कोई सन्त आपके घर आते हैं तो उन्हें उच्च आसन पर बैठाकर ही भोजन करवाइये। सेवा कीजिये। अपने माता-पिता को पहले भोजन करवाइये, फिर बाद में स्वयं खाइये। सभी को रोटी खिलाएँ, पर रोटी खिलाने का अलग-अलग क्रम है। संवर्तन नहीं कर सकते। समदर्शन अच्छी बात है।
ज्ञानी प्रिय और अप्रिय को एक सा मानने वाला और अपने मान-अपमान को भी एक सा मानने वाला होता है।
चाहे करे निन्दा कोई, चाहे कोई सत्कार करे |
फूलों की चिन्ता न करे, काँटों को सिर पर न धरे ||
मान और अपमान ही दोनों, जिसके लिए समान रे |
वह सच्चा इन्सान रे, वह सच्चा इन्सान रे ||
मानापमानयोस्तुल्य:(स्), तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी, गुणातीतः(स्) स उच्यते॥14.25॥
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं, “हे अर्जुन! जो मान और अपमान में सम है, मित्र और बैरी के पक्ष में भी सम है, सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है।” श्रीभगवान् ने उसी बात को विस्तृत रूप दिया।
मान और अपमान में सम, मित्र और बैरी में सम, सर्वारम्भ का परित्यागी। इसे कोई कार्य आरम्भ करने की इच्छा नहीं। जो जैसा आया, वैसे कर लिया। नहीं करना है, ऐसी कोई बात नहीं है ,जो कुछ काम आ गया तो कर लिया।
सुख दु:ख ने एक सार समझ के सहणा सीख ले।
हमें हमेशा सोचना चाहिए कि श्रीभगवान् आप जो चाहते हैं, मैं उसी में सन्तुष्ट हूँ।
सुख की स्थिति में ऊपर मुँह करके नहीं रहना है। एक बार जीवन में सुख आया तो हम अहङ्कार से फूलने लगते हैं। थोड़ा दुःख आया तो कहने लगते हैं कि मेरा तो भाग्य ही खराब है। मेरे साथ ही ऐसा होता है। यह बात ध्यान रखिए कि जो कुछ भी आपके साथ हो रहा है, वह बीज आपने ही बोया है।
मां(ञ्) च योऽव्यभिचारेण, भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्, ब्रह्मभूयाय कल्पते॥14.26॥
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं, “हे अर्जुन! जो मनुष्य अव्यभिचारिणी भक्तियोग के द्वारा निरन्तर मुझको भजता है, वह इन तीनों गुणों को लाङ्घ कर सच्चिदानन्द परब्रह्म प्राप्ति का पात्र हो जाता है।"
इस श्लोक का एक गलत अर्थ कभी-कभी साधक कर लेते हैं।
श्रीभगवान् अव्यभिचारिणी भक्ति के विषय में कह रहे हैं। अव्यभिचारिणी भक्ति क्या होती है?
कुछ लोग समझा देते हैं कि सत्सङ्गों में भी महाराज, महाराज नहीं होते हैं, परन्तु महाराज जैसे दिखने वाले होते हैं। कई बार ऐसे बता देते हैं कि तुम यदि श्रीराम की भक्ति और श्रीकृष्ण की भक्ति, दोनों ही करोगे तो यह व्यभिचार हो जाएगा। यह सब मिथ्या बात है। कोई श्रीराम की पूजा करता होगा तो शिवजी की पूजा नहीं कर सकता और कोई श्रीकृष्ण की पूजा नहीं कर सकता, ऐसा कुछ कहना अनुचित है।
अव्यभिचारिणी का अर्थ है कि मेरा आश्रय संसार के बदले श्रीभगवान् का हो जाए।
अब तक हम लोग भक्ति श्रीभगवान् की करते हैं पर आश्रय संसार का लेते हैं। कुछ दु:ख आ जाए तो हम लोग क्या करते हैं? अपने बल का, अपने बुद्धि का, अपने सामर्थ्य का, अपने धन का, अपनी जाति का, अपने कुल का आश्रय लेते हैं कि नहीं? हम सोचते हैं कि अरे मेरा कोई कार्य रुकेगा नहीं। मेरे पास इतना धन है, मेरे पास इतनी बुद्धि है, मैं सब कर लूँगा। मेरे रिश्तेदारों के साथ रिश्ते बड़े अच्छे हैं, मैं सब कर लूँगा। ऐसा कुछ हम कहते रहते हैं। यदि इसके पश्चात कुछ काम बिगड़ जाते हैं तो श्रीभगवान् से कहते हैं, “हे भगवान! मुझसे कुछ हो नहीं रहा।”
अव्यभिचारिणी भक्ति का अर्थ होता है संसार का आश्रय लेना छोड़ दें और श्रीभगवान् का आश्रय लें। पूजा सभी की कीजिये, पूजा करने में कोई आपत्ति नहीं है।
श्रीभगवान् ने मानस में दस सम्बन्ध बताए हैं-
जननी जनक बन्धु सुत दारा | तन धन भवन सुहृद परिवारा ||
इन दस सम्बन्धों में कहाँ-कहाँ सब की बुद्धि अटकती है।
जननी अर्थात् माँ में, जनक अर्थात् पिता में, बन्धु अर्थात् परिवार में, सुत अर्थात् सन्तान में, दारा अर्थात् पत्नी में। ये पाँच व्यक्ति तो श्रीभगवान् ने बताए हैं। फिर आगे बताए- तन अर्थात् अपने शरीर में, धन में तो सभी सम्पत्तियाँ आ जाती हैं, भवन को श्रीभगवान् ने अलग से लिया। अपने घर का मोह और लोभ होता है, इसलिए श्रीभगवान् ने भवन को अलग से लिया। सुहृद और परिवार, सुहृद जो अच्छा करता है और परिवार तो अपना परिवार है।
श्रीभगवान् कहते हैं, इन दस सम्बन्धों में व्यक्ति की बुद्धि अटकती है। श्रीभगवान् कहते हैं कि इन सब की ममता की डोरी को साथ में ले आओ और मेरे अङ्गूठे में बाँध दो। “हे भगवान! सब कुछ तो आपका ही दिया हुआ है।” हर समय यही विचार अपने मन में रखना चाहिए। सबके साथ रहो और सब कुछ श्रीभगवान् में लगा दो, सब कुछ तो उन्हीं का दिया हुआ है।
इनमें से श्रीभगवान् कुछ ले लेते हैं तो वह उन्हीं का है। श्रीभगवान् कुछ वापस ले लेते हैं तो हमें क्या दिक्कत हो सकती है? ऐसे विचारों से हमारी ममता कहीं नहीं फँसेगी।
श्रीभगवान् कहते हैं कि बस मेरी शरण में आ जाओ।
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्, अमृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य, सुखस्यैकान्तिकस्य च॥14.27॥
विवेचन- इस श्लोक में श्रीभगवान् कहते, "हे अर्जुन! उस अविनाशी परब्रह्म और अमृत का तथा नित्यधर्म अखण्ड एकरस आनन्द का आश्रय मैं ही हूँ।"
श्रीभगवान् कहते हैं कि यह श्रीमद्भगवद्गीता का सार है। सन्तों ने कहा है कि यदि एक शब्द में श्रीमद्भगवद्गीता का सार समझना हो तो वह “शरणागति" है।
अर्थात् श्रीभगवान् की शरण में आ जाओ।
श्रीभगवान् ने कहा है -
मामेकं शरणं व्रज।
"केवल मेरी शरण में आ जाओ क्योंकि सभी विषयों का आश्रय मैं ही हूँ।"
किसी ने खीर देखी। एक ही खीर को कोई चखकर, कोई सूँघकर या कोई देखकर अलग-अलग इन्द्रियों से उसका भाव महसूस करता है। वैसे ही श्रीभगवान् एक ही हैं। कोई उन्हें निराकार भाव से देखता है, कोई सगुण साकार भाव से देखता है तो कोई अलग ही शक्ति के भाव से देखता है।
श्रीभगवान् कहते हैं कि "तुम किसी भी भाव से आओ, तुम मुझ तक ही आओगे क्योंकि सभी बातों का अन्तिम आश्रय एकमात्र मैं ही हूँ।"
इसी के साथ हरिनाम सङ्कीर्तन करते हुये इस अध्याय या सारगर्भित विवेचन सम्पूर्ण हुआ तथा प्रश्नोत्तर सत्र आरम्भ हुआ।
जो करना चाहिए, वह कर लिया तो सतोगुण बढ़ गया और जो अच्छा लगता है, वह किया तो रजोगुण बढ़ गया।
इस बात को हमें हमेशा ध्यान रखना चाहिए।
हमें बुद्धि को मन के ऊपर विजय दिलानी है। बुद्धि की बात सुननी चाहिए, मन की बात नहीं सुननी चाहिए।
हरि शरणम् हरि शरणम् हरि शरणम् हरि शरणम् |
हरि शरणम् हरि शरणम् हरि शरणम् हरि शरणम् ||
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(म्) योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्याय:।।