विवेचन सारांश
योगियों के लक्षण

ID: 6341
हिन्दी
रविवार, 02 फ़रवरी 2025
अध्याय 6: आत्मसंयमयोग
2/4 (श्लोक 11-23)
विवेचक: गीता विशारद श्री श्रीनिवास जी वर्णेकर


सुमधुर भजन, प्रभु स्मरण, सुन्दर, पावन प्रार्थना के साथ दीप प्रज्वलन के पश्चात बसन्तोत्सव पर ज्ञान की देवी सरस्वती के स्मरण से इस सत्र का आरम्भ हुआ। पूर्व में बसन्त को विद्यारम्भ का समय माना जाता था। 

अपने शरीर, मन, इन्द्रियाँ, बुद्धि, आहार-विहार व निद्रा पर नियन्त्रण करते हुए मनुष्य किस प्रकार परमात्मा से योग साध सकता है, इसके लिए क्या-क्या आवश्यकताएँ हैं, ये सभी इस अध्याय में श्रीभगवान् ने बताया है। अध्याय पाँच में अर्जुन ने पूछा था कि संन्यास और योग में मेरे लिए जो उचित हो वह बताइए। तब श्रीभगवान् ने बताया कि संन्यासी और योगी दोनों वाह्य रूप से ही अलग दिखाई देते हैं परन्तु दोनों की आन्तरिक स्थिति समान है। दोनों को हमें भिन्न नहीं मानना चाहिए। दोनों की अन्तरङ्ग अवस्था समान होती है। जब तक कोई योगी अथवा संन्यासी योग करते हुए योगारूढ़ नहीं होता, तब तक उसके लिए कर्मयोग ही साधना है। जब योग साधना करते हुए मनुष्य योगारूढ़ हो जाता है तब उसके लिए शान्त, एकान्त में बैठकर ध्यान करना बताया गया है। 

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वानुशज्जते |
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगरूढ़ास्तदोच्यते |

वह इन्द्रियों के विषयों में, कर्मों में आसक्त नहीं होता। कर्त्तव्य के रूप में सारे कर्म करता चला जाता है। उसके मन में सङ्कल्प-विकल्प की स्थिति नहीं होती है। जब वह इन सबसे आगे निकल जाता है तभी वह योगारूढ़ कहलाता है। इस सब तक पहुँचने के लिए मनुष्य को स्वयं का उद्धार स्वयं ही करना पड़ेगा। यह बात सत्य है कि भगवद् कृपा के बिना कुछ नहीं होता। किन्तु यह भी सत्य है कि यदि मनुष्य प्रयास ही न करे तो भगवद् कृपा भी प्राप्त नहीं होती। अतः प्रयास तो मनुष्य को ही करना पड़ेगा। स्वयं का उद्धार स्वयं को ही करना पड़ेगा। 

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् |
आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मन: ||
इस प्रकार मनुष्य योगारूढ़ हो गया, समत्त्व की स्थिति में आ गया। 

'सुहृन्मित्रार्युदासीन मध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु' |
साधुश्वपि च पापेषु संबुद्धिर्विशिष्यते ||

इस प्रकार सम-बुद्धि की अवस्था उसको प्राप्त हो गई। बुद्धि का समत्त्व है, दृष्टि का समत्त्व है, व्यवहार की यथाधिकारिता है, अर्थात् किसी के साथ व्यवहार करते समय उसके अधिकार के अनुसार व्यवहार किया जाता है लेकिन दृष्टि, बुद्धि सभी के प्रति समत्त्व की ही है। यह महत्त्वपूर्ण बात है। जब मनुष्य उस अवस्था में पहुँच जाता है तब वह समत्त्व बुद्धि में आ जाता है। ऐसे समय में उसको एकान्त की आवश्यकता होती है। उसको ध्यान करना चाहिए।
 
ध्यान कोई क्रिया नहीं है कि कर लिया और हो गया। यह एक लगातार किया जाने वाला अभ्यास है। इसके लिए अष्टाङ्गयोग के छः नियम तो करने ही होंगे, यम, नियम, आसन, प्रत्याहार, प्राणायाम, धारणा। इसके पश्चात ध्यान आता है। तब उसे एकान्त में रहना है। 

ध्यान करने के लिए मन की एकाग्रता आनी चाहिए, चित्त शुद्ध होना चाहिए। मन में उठने वाले सङ्कल्प-विकल्प दूर हो जाने चाहिए। ध्यान के लिए स्थान कैसा हो? यह श्रीभगवान् आगे बता रहे हैं। 


6.11

शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य, स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं(न्) नातिनीचं(ञ्), चैलाजिनकुशोत्तरम्॥11॥

शुद्ध भूमि पर, (जिस पर क्रमशः) कुश, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं, (जो) न अत्यन्त ऊँचा है (और) न अत्यन्त नीचा, (ऐसे) अपने आसन को स्थिर स्थापन करके।

विवेचन- यहाँ श्रीभगवान् बता रहे हैं कि वह स्थान कैसा होना चाहिए? वहाँ शुचिता होनी चाहिए। स्वच्छता, शुद्धता और पवित्रता, जब तीनों बातें एकत्र हो जाती हैं तो वह शुचिता कहलाती है। किसी स्थान पर यदि सन्त का आश्रम है अथवा वहाँ साधना की गयी है तो वह स्थान स्वतः पवित्र बन जाता है, तीर्थ क्षेत्र बन जाता है। इन स्थानों पर पारमार्थिक वाई-फाई बहुत अच्छा चलता है और वहाँ प्रातःकाल ध्यान करेंगे तो उस समय सारे महात्मा ऑनलाइन मिलेंगे। इसका अर्थ है कि वह स्थान सन्तों द्वारा पवित्र है और ध्यान करने योग्य है। 

वहाँ अपना स्थिर आसन लगाकर बैठना है। पतञ्जलि महामुनि ने आसन की व्याख्या की है-

स्थिरसुखम् आसनम्
कहते हैं कि जो व्यक्ति किसी अवस्था में, किसी स्थिति में स्थिर, सुख से, घण्टों आसन पर बैठकर ध्यान कर सकता है, वह आसन-सिद्ध हो गया, इसलिए योगाभ्यास का आरम्भ ही आसन से किया जाता है। यम, नियम आसनों से आरम्भ करना चाहिए।

आसन का माहात्म्य क्या है?
सबसे पहले अपने शरीर पर नियन्त्रण लाना है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना है। स्थूल है हमारा शरीर, उससे सूक्ष्म है हमारी इन्द्रियाँ, उससे सूक्ष्म है हमारा मन और बुद्धि। यदि शरीर पर ही नियन्त्रण नहीं है तो मन पर नियन्त्रण कैसे आएगा? इसलिए शरीर पर नियन्त्रण लाने के लिए स्थिरसुखम् आसनम्। 

ध्यानात्मक आसन हैं- पद्मासन, स्वस्तिकासन, गौमुखासन आदि। इनमें मनुष्य देर तक बिना हलचल किए बैठ सकता है। 

आसन कैसा हो?
कुश नामक घास बिछाकर, उस पर नैसर्गिक मृत्यु प्राप्त हुए मृग का चर्म बिछाया जाना चाहिए। उस पर कपास का वस्त्र रखा जाना चाहिए। यह आसन योगारूढ़ व्यक्ति के लिए ही है। सामान्य व्यक्ति के लिए सामान्य आसन ही पर्याप्त है। स्थान स्वच्छ और शान्त हो। ठाकुर जी के सामने देवघर में भी बैठ सकते हैं। ध्यान का स्थान अधिक ऊॅंचा होने से सन्तुलन बिगड़ सकता है। अधिक नीचा (गड्ढे में, गुफा बनाकर) होने से कीटाणु होने का संशय रहेगा। कीट, मच्छर, पशु आदि के होने से भी ध्यान नहीं हो सकेगा। अतः स्थान न अधिक ऊँचा हो, न ही अधिक नीचा हो। 
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-

ते संत निर्मित असावे स्थान | जेथे संतोष व्हावे साह्यपूर्ण |
वाढवा अत्यंत धैर्यगुण | अंतःकरणाचा ||

वह स्थान सन्तों द्वारा निर्मित होना चाहिए और वहाँ पर मनुष्य को सन्तुष्ट होना चाहिए। 

अन्तःकरण में धैर्य रखकर वहाँ बैठना चाहिए। वहाँ धूप भी हो तो शीतल धूप हो। धूप की गर्मी अधिक होने से भी मनुष्य ध्यान नहीं कर सकेगा। वायु भी चलती हो पर तेज न हो। धीमे वायु चलती रहे। निःशब्द हो, शान्त हो। भय न हो। 


6.12

तत्रैकाग्रं(म्) मनः(ख्) कृत्वा, यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्, योगमात्मविशुद्धये॥12॥

उस आसन पर बैठकर चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए मन को एकाग्र करके अन्तःकरण की शुद्धि के लिये योग का अभ्यास करे।

विवेचन- उस आसन पर बैठकर मन को एकाग्र करना है। जो हमारा ध्येय है, उसमें मन को एकाग्र करना है। धारणा करनी है। भगवान् कृष्ण का ध्यान कर रहे हैं, भगवान् राम का ध्यान कर रहे हैं, भगवान् शिव का ध्यान कर रहे हैं, तो मन को उनमें एकाग्र करना है। इन्द्रियों पर नियन्त्रण करना है। इन्द्रियों को विषयों का स्मरण नहीं होना चाहिए। आज भोजन में क्या मिलेगा? यह चिन्ता रहेगी तो ध्यान कैसे होगा? चित्त भी शान्त हो जाना चाहिए। आत्मा की शुद्धि के लिए ऐसा करना है।

यहाँ आत्मा शब्द का अर्थ है हमारा अन्तरङ्ग। आत्मा तो शुद्ध ही होती है। हमारा अन्तरङ्ग शुद्ध हो जाए।

चार अन्तरङ्ग बताए गए हैं- मन, बुद्धि, चित्त और अहङ्कार।

इनकी शुद्धि के लिए मन को एकाग्र करते हुए योगाभ्यास किया जाता है। योगाभ्यास से केवल शरीर ही ठीक नहीं होता अपितु हमारा अन्तरङ्ग भी शुद्ध होता है। शरीर की शुद्धि क्रियाएँ तो योग में हैं ही, प्राणायाम के अभ्यास से हमारा अन्तरङ्ग शुद्ध होना आरम्भ हो जाता है। प्रत्याहार के अभ्यास से अन्तरङ्ग शुद्ध होने लगता है। 

हमारे अन्तरङ्ग में हमारे अनेक जन्मों की बातें एकत्र हैं। जैसे, "उसने मुझे ऐसा कहा था, मैं उसे भूलूँगा नहीं," ऐसी बातें हम चित्त में एकत्र करके रखते हैं। जैसे हमारे फोन में अनावश्यक सन्देश भर जाते हैं तो हमें उसे साफ करना पड़ता है, वैसे ही हमारे मन में जो अनावश्यक बातें एकत्र हो गई हैं, उन्हें साफ करने के लिए योगाभ्यास किया जाता है। 

6.13

समं(ङ्) कायशिरोग्रीवं(न्), धारयन्नचलं(म्) स्थिरः।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं(म्) स्वं(न्), दिशश्चानवलोकयन्॥13॥

काया, शिर और ग्रीवा को सीधे अचल धारण करके तथा दिशाओं को न देखकर (केवल) अपनी नासिका के अग्रभाग को देखते हुए स्थिर होकर (बैठे)।

विवेचन- यहाँ श्रीभगवान् बता रहे हैं कि ध्यान हेतु कैसे बैठना चाहिए?

हमारी पीठ, रीढ़, गर्दन एक सीध में होनी चाहिए। हमारा मेरुदण्ड सीधा होना चाहिए। यह ध्यान के लिए बैठने हेतु अत्यन्त आवश्यक है। पीठ झुकाकर मनुष्य अधिक समय के लिए नहीं बैठ सकता। इसलिए मेरुदण्ड सीधा होना चाहिए। पूज्य स्वामीजी को जिन्होंने देखा है, वे जानते हैं कि स्वामीजी चार-पाँच घण्टों तक भी सीधे बैठे रहते हैं, आसन्नजय रहते हैं। बिना हिले-डुले, बिना हलचल किए बैठने से ही साधक ध्यान करने योग्य बनता है। अतः यह अभ्यास सबसे पहले करना चाहिए। जो योगारूढ़ हो गया है, उसके लिए ध्यान है और जो नहीं हुआ है उसके लिए योगाभ्यास है। उसे अभ्यास करते रहना है। 

आगे श्रीभगवान् बता रहे हैं कि ध्यान करते समय हमें कहाँ देखना है?
श्रीभगवान् कहते हैं कि अपनी नासिकाग्र को देखो। नासिका के भ्रूमध्य पर भी दृष्टि केन्द्रित कर सकते हैं और अन्त पर भी कर सकते हैं। आँखें बन्द नहीं करनी हैं। नासिका पर दृष्टि रखनी है। आँखें बन्द करके बैठने से मनुष्य को नींद आएगी, इसलिए आँखें बन्द नहीं करनी हैं। मन को एकाग्र करना है तथा इधर- उधर नहीं देखना है। 

हमें जिसका ध्यान करना है वही हमारा केन्द्र-बिन्दु होना चाहिए। हम न्यायालय में जाते हैं तो वहाँ केन्द्र बिन्दु न्यायधीश होते हैं। ऑपरेशन थिएटर में सबका ध्यान चिकित्सक पर रहता है। वैसे ही योगाभ्यासी का केन्द्र-बिन्दु श्रीभगवान् हैं। अन्तरङ्ग में श्रीभगवान् की मूर्ति को देखना प्रारम्भ करना है।

6.14

प्रशान्तात्मा विगतभी:(र्), ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः(स्) संयम्य मच्चित्तो, युक्त आसीत मत्परः॥14॥

जिसका अन्तःकरण शान्त है, जो भयरहित है और जो ब्रह्मचारिव्रत में स्थित है, (ऐसा) सावधान ध्यान-योगी मन का संयम करके मेरे में चित्त लगाता हुआ मेरे परायण होकर बैठे।

विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं, "आत्मा को प्रशान्त अर्थात् अत्यन्त शान्त होना चाहिए।" ध्यान करते समय हमें किसी बात की चिन्ता न हो। मन बिल्कुल शान्त हो। "यह कार्य करना है, वह कार्य करना है," ऐसी चिन्ता में मनुष्य ध्यान नहीं कर सकता। श्रीभगवान् कहते हैं, "हमें भयभीत नहीं होना चाहिए।" ध्यान कर रहे हैं और मन में भय है तो ध्यान सम्भव नहीं है। 

"वह ब्रह्मचारी हो।" ब्रह्मचारी होने का अर्थ है, परब्रह्म में जिसका मन सञ्चार करता है। गृहस्थ ब्रह्मचारी को एक पत्नीव्रत करना चाहिए। मन को परमात्मा में लगाना है। मन को विचलित करने वाली बातें नहीं करनी हैं। ऐसी बातों का मनन नहीं करना चाहिए। गुह्य भाषण नहीं करना चाहिए। सङ्कल्प करके मन को परमात्मा में लगाना है। मन को संयमित करना है। नियन्त्रित करना है। श्रीभगवान् कहते हैं कि "अपने मन को, चित्त को मुझमें लगा दो।" वे कौन हैं? यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। वे तो हमारे आराध्य हैं। वे हमारे ध्येय हैं, उनमें हमें अपने चित्त को लगाना है। 

6.15

युञ्जन्नेवं(म्) सदात्मानं(म्), योगी नियतमानसः।
शान्तिं(न्) निर्वाणपरमां(म्), मत्संस्थामधिगच्छति॥15॥

वश में किये हुए मन वाला योगी मन को इस तरह से सदा (परमात्मा में) लगाता हुआ मुझमें सम्यक् स्थिति वाली (जो) निर्वाण परम शान्ति है, (उसको) प्राप्त हो जाता है।

विवेचन- इस प्रकार अपनी आत्मा को परमात्मा में लगाते जाना है। यह ध्यान निरन्तर करते जाना है। योगाभ्यास निरन्तर करते रहना चाहिए। 

पूज्य जनार्दन स्वामीजी के योगाभ्यास मण्डल में संदेश लिखा हुआ है-
'समाधानाय सौखाय निरोगत्वाय जीवने, योगमेवाभ्यासेत प्रज्ञाः यथाशक्ति निरंतरम्' 

हमें जीवन में समाधान, सुख और निरोगी अवस्था यदि प्राप्त करनी है तो योगाभ्यास यथाशक्ति निरन्तर करना चाहिए। भोजन की भाँति योगाभ्यास भी दैनिक होना चाहिए। कितना समय कर पा रहे हैं, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, निरन्तर करते रहना है बस। 

मन को नियन्त्रण में रखकर करना है। निरन्तर परमात्मा के साथ जोड़ते जाना है। परमात्मा में ध्यान लगाने से परमानन्द की प्राप्ति होती है। 
परमात्मा की प्राप्ति में कितना समय लगेगा? यह इस बात पर निर्भर करेगा कि साधक कितना तीव्रता से योगाभ्यास करता है, कितना समय करता है?

एक बार एक व्यक्ति को किसी गाँव में जाना था। चलते-चलते रास्ते में एक किसान दिखाई दिया तो उससे पूछा कि मुझे गाँव तक पहुँचने में कितना समय लगेगा? किसान ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह व्यक्ति आगे बढ़ गया। वह कुछ कदम ही चल पाया था कि किसान ने बोला, तुम बीस मिनट में पहुँच जाओगे। उस व्यक्ति ने पूछा कि जब मैं तुम्हारे पास खड़ा था,  तब तुमने क्यों नहीं बताया? किसान ने उत्तर दिया कि मैं तुम्हारी गति देख रहा था। गति देखने से मुझे पता चला कि तुम कितने समय में गाँव पहुँच सकोगे। 

इसी प्रकार साधक की ध्यान की तीव्रता कितनी है और कितना समय देता है, उस पर ही यह निर्भर है कि उसे परमात्मा की प्राप्ति कब होगी? 

6.16

नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति, न चैकान्तमनश्नतः।
न चातिस्वप्नशीलस्य, जाग्रतो नैव चार्जुन॥16॥

हे अर्जुन ! (यह) योग न तो अधिक खाने वाले का और न बिलकुल न खाने वाले का तथा न अधिक सोने वाले का और न (बिलकुल) न सोने वाले का ही सिद्ध होता है।

विवेचन- यहाँ  श्रीभगवान योगाभ्यास के लिए आवश्यक योग्यताओं के विषय में बता रहे हैं।

"जो अधिक खाता है, वह योग्य नहीं है और बिल्कुल न खाने वाला भी योग्य नहीं है। अधिक स्वप्न देखने वाले के लिए भी योग नहीं है और अधिक जागने वाले के लिए भी योग नहीं है। 

हमारे मन में प्रश्न उठेगा कि यह आवश्यक मात्रा कितनी हो?
यह आवश्यक मात्रा सबकी प्रकृति के अनुसार है। बीस वर्ष का युवक और पैंसठ वर्ष का ज्येष्ठ, दोनों साधक हैं। दोनों की भूख समान नहीं होगी। जिसको जितना आवश्यक है, उतना खाना चाहिए। आयुर्वेद के अनुसार हमें आधा पेट भोजन करना चाहिए। 
आधा पेट अन्न, चौथाई पेट पानी और चौथाई पेट वायु, यह आहार होना चाहिए। ऐसा न करने पर मनुष्य अस्वस्थ हो जाएगा और अस्वस्थता में ध्यान नहीं हो सकता। 

6.17

युक्ताहारविहारस्य, युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य, योगो भवति दुःखहा॥17॥

दुःखों का नाश करने वाला योग (तो) यथायोग्य आहार और विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का (तथा) यथायोग्य सोने और जागने वाले का ही सिद्ध होता है।

विवेचन- योग करने वाले व्यक्ति का आहार-युक्त होना चाहिए। आहार का अर्थ यहाँ भोजन से नहीं है। हमारी सभी इन्द्रियों का आहार होता है। आँखों का आहार दृश्य है। आँखों से हम दृश्य ग्रहण करते हैं। कानों का आहार शब्द है। त्वचा का आहार स्पर्श है। यह आहार उचित मात्रा में लेना चाहिए। पूरे दिन टेलीविजन देखेंगे तो ध्यान कैसे करेंगे? योग्य परिमाण में चलना चाहिए, अधिक भी नहीं चलना चाहिए। शरीर के द्वारा हलचल भी योग्य परिमाण में होनी चाहिए। नित्य योग्य व्यायाम करना चाहिए। 

कर्म कितना करना चाहिए?
किसी-किसी को हम कहते हैं, अरे! वह तो बहुत अधिक कार्य करता है। कार्य करने योग्य है या नहीं, परन्तु वह कार्य करता जाता है। ऐसा करने से योग सिद्ध नहीं हो सकता। कितना कार्य करना चाहिए? उसका भी कोई परिमाण होना चाहिए। कर्म करने में जितना प्रयास करना है, उतना ही करना चाहिए। बहुत अधिक करने से भी ठीक नहीं होगा। जो बारह से पन्द्रह घण्टे काम करेगा, वह ध्यान कैसे करेगा? 

योग्य परिमाण  में निद्रा और योग्य परिमाण में जागृति हो। ऐसे व्यक्तियों के लिए योग दुःख का हरण करने वाला होता है। 

6.18

यदा विनियतं(ञ्) चित्तम्, आत्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः(स्) सर्वकामेभ्यो, युक्त इत्युच्यते तदा॥18॥

वश में किया हुआ चित्त जिस काल में अपने स्वरूप में ही स्थित हो जाता है (और) (स्वयं) सम्पूर्ण पदार्थों से निःस्पृह (हो जाता है), उस काल में (वह) योगी है - ऐसा कहा जाता है।

विवेचन- जब विशेष रूप से नियन्त्रित चित्त है तब नियन्त्रण करने के लिए उसे प्रयास नहीं करने पड़ते। सहज रूप से नियन्त्रण हो जाता है। क्या करना चाहिए? क्या नहीं करना चाहिए? उसका नियन्त्रण स्वयं आ जाता है। 'यह बात नहीं करनी है,' यह उसे छोड़ना नहीं पड़ता, स्वयं छूट जाता है। उसका चिन्तन भी स्वयं छूट जाता है। जब वह आत्मा में स्थिर रहने लगता है, उसको अब स्वयं के लिए अपना ध्येय छोड़कर कुछ नहीं चाहिए। इस अवस्था में मनुष्य जब आ जाता है तो उसको केवल ध्येय ही दिखाई देता है, शेष कुछ नहीं दिखाई देता। अन्य सारी कामनाएँ गल जाती हैं। छोड़ना और छूटना, दोनों में अन्तर है। कामनाएँ छोड़ने से उनकी तरफ ध्यान जा सकता है। 'जो छूट गई तो छूट गईं, अब उनकी तरफ ध्यान नहीं जाता' ऐसी अवस्था जिसकी आ जाती है, उसका योग, युक्त हो जाता है। 

6.19

यथा दीपो निवातस्थो, नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य, युञ्जतो योगमात्मनः॥19॥

जैसे स्पन्दन रहित वायु के स्थान में स्थित दीपक की लौ चेष्टा रहित हो जाती है, योग का अभ्यास करते हुए वश में किए हुए चित्त वाले योगी के चित्त की वैसी ही उपमा कही गयी है।

विवेचन- जब चित्त में कोई कामना नहीं होती है तो उसका चित्त कैसा रहता है? 

जैसे जलता हुआ दीपक ऐसे स्थान पर रखा है जहाँ वायु नहीं बह रही, उस पर आवरण रखा है, वह गर्भ-गृह में जल रहा है, उसको जलने के लिए आवश्यक वायु मिल रही है, परन्तु तेज वायु नहीं है। बहती वायु का स्पर्श उसको नहीं होता, तब उसकी ज्योति स्थिर रहती है। वह हिलती नहीं है। घर में जलते दीपक की ज्योति जिस प्रकार होती है, उसी प्रकार परमात्मा में ध्यान लगाए साधक के चित्त की स्थिति होती है।

जिसने अपने चित्त पर विजय प्राप्त कर ली है, जो ध्येय में ही विलीन हो गया तो वह क्या देखता है? उसको किसका दर्शन होता है? यह आगे बताया गया है। 

6.20

यत्रोपरमते चित्तं(न्), निरुद्धं(म्) योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं(म्), पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥20॥

योग का सेवन करने से जिस अवस्था में निरुद्ध चित्त उपराम हो जाता है तथा जिस अवस्था में (स्वयं) अपने आप से अपने आपको देखता हुआ अपने आप में ही सन्तुष्ट हो जाता है।

विवेचन- योगसेव्य,यहाँ यह सुन्दर शब्द आया है। योगाभ्यास करते-करते उसका चित्त निरुद्ध हो जाता है। 

पतञ्जलि मुनि ने चित्त की पाँच अवस्थाएँ बताई हैं- मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध

मूढ़- का अर्थ है, यह तमोगुण-प्रधान चित्त है। उसको किसी बात का ध्यान नहीं है। कोई पत्थर है, वृक्ष लताएँ हैं या स्वयं के बारे में भी वह अज्ञानी है। मूढ़ चित्त है। कुछ जानकारी नहीं। 

क्षिप्त- अत्यन्त चञ्चल। रजोगुण-प्रधान चित्त। यह एक जगह स्थिर रहता ही नहीं। यह क्षिप्त चित्त है।

विक्षिप्त- योगाभ्यास करते-करते थोड़ी देर के लिए स्थिर हो जाता है, फिर क्षिप्त हो जाता है। इधर-उधर भागने लगता है। वह विक्षिप्त हो जाता है। 

एकाग्र- जिसका ध्यान कर रहा हूँ, जो मेरे आलम्बन का साधन हैं, जो श्रीभगवान् का विग्रह है, जिस पर मैं अपना चित्त एकाग्र करने का प्रयास कर रहा हूँ, वह मेरा ध्येय और मैं ध्याता। जब ध्यान करने वाला ध्याता और ध्येय, ये दो ही रह जाते हैं तो उसका चित्त एकाग्रचित्त हो गया ऐसा कहा जाता है।
 
निरुद्ध- ध्यान करने वाला ही नहीं रहा। उसका चित्त ध्येय के साथ एकरूप हो गया। मैं ही नहीं रहा। उसका अन्तरङ्ग चित्त एकाग्र हो गया। 
एकाग्र के ऊपर की अवस्था है एकरूपता। अपने ध्येय के साथ एकरूप हो गया, तो कहते हैं कि उसका चित्त निरुद्ध हो गया और यह योगाभ्यास से हो जाता है। 

6.21

सुखमात्यन्तिकं(म्) यत्तद्, बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं(म्), स्थितश्चलति तत्त्वतः॥21॥

जो सुख आत्यन्तिक, अतीन्द्रिय (और) बुद्धिग्राह्य है, उस सुखका जिस अवस्था में अनुभव करता है और (जिस सुख में) स्थित हुआ यह ध्यानयोगी तत्त्व से फिर (कभी) विचलित नहीं होता।

विवेचन- परमात्मा का ध्यान करते-करते उसे उसको स्वयं का दर्शन हो जाता है। आत्मरूप हो जाता है। परमात्मा का ध्यान करते-करते वह इतना खो जाता है कि वह और परमात्मा एक हो जाते हैं, अलग नहीं होते। वह स्वयं में स्वयं को देखने लगता है। ऐसा देखकर वह सन्तुष्ट हो जाता है। अधिक आनन्द की प्राप्ति करता है। अत्यधिक सुख की प्राप्ति करता है। परमात्मा का ध्यान करते-करते वह परमानन्द को भी प्राप्त कर लेता है। उसको जो सुख प्राप्त होता है, वह श्रीभगवान् आगे बताते हैं। जब चित्त निरुद्ध हो गया तो योगसिद्ध हो गया। वह आत्यन्तिक सुख है, उससे ऊपर कोई और सुख नहीं है। इस सुख के सामने उसको संसार का साम्राज्य भी व्यर्थ लगता है।

बाकी कोई सुख उसको दिखाई नहीं देता। वह सुख आँखों से दिखाई नहीं देता है, न ही कानों से सुनाई देता है, न जिह्वा से, न त्वचा से दिखता है। श्रीभगवान् कहते हैं कि यह सुख किसी इन्द्रिय से मिलने वाला सुख नहीं है। उस सुख के लिए हमें किसी बात पर निर्भर नहीं होना पड़ता है। दूसरे अन्य सारे सुखों के लिए हमें पराधीन होना पड़ता है, परन्तु यह आत्यन्तिक सुख किसी पर निर्भर नहीं है। किसी के अधीन नहीं है। बाकी सारे सुखों का प्रारम्भ होकर उनका अन्त भी होता है, परन्तु आत्यन्तिक सुख का कोई अन्त नहीं  है। यह बुद्धि के द्वारा ग्राह्य है। इस सुख को चखने के पश्चात साधक विचलित ही नहीं होता। इस अवस्था में पहुँचने के पश्चात वह योगी वहीं का हो जाता है। 

6.22

यं(म्) लब्ध्वा चापरं(म्) लाभं(म्), मन्यते नाधिकं(न्) ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन, गुरुणापि विचाल्यते॥22॥

जिस लाभ की प्राप्ति होने पर उससे अधिक कोई दूसरा (लाभ) (उसके) मानने में भी नहीं आता और जिसमें स्थित होने पर (वह) बड़े भारी दुःख से भी विचलित नहीं किया जा सकता।

विवेचन- ऐसा व्यक्ति कैसे उठता है? कैसे बैठता है? कुछ व्यवहार करता है या नहीं? 

उस अवस्था में पहुँच कर उसका चित्त विचलित नहीं होता। वहीं स्थिर हो जाता है। इससे ऊपर कोई सुख नहीं हो सकता। उस पर कितना भी बड़ा दुख का पहाड़ आ जाए, वह आत्यन्तिक सुख से विचलित नहीं हो सकता। बाहरी दुःख-सुख का उस पर प्रभाव नहीं होता। केवल सुख ही नहीं, दुःख से भी वह विचलित नहीं होता। कितना भी बड़ा मान-सम्मान कर दो, उस पर कोई प्रभाव नहीं होता। वह अपने स्थान पर अडिग रहता है। परमात्मा में उसका चित्त हमेशा के लिए लगा रहता है। हमें उस योग को  सीखना चाहिए। 

6.23

तं(म्) विद्याद् दुःखसंयोग, वियोगं(म्) योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो, योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥23॥

जिसमें दुःखों के संयोग का ही वियोग है, उसी को 'योग' नाम से जानना चाहिये। (वह योग जिस ध्यानयोग का लक्ष्य है,) उस ध्यानयोग का अभ्यास न उकताये हुए चित्त से निश्चयपूर्वक करना चाहिये।

विवेचन- जिसके द्वारा दुःख के आयोग का ही वियोग हो जाता है, दुःख आता है परन्तु वहाँ तक पहुँचता ही नहीं। बहुत अधिक वर्षा हो रही हो तो मैं छाता ले लेता हूँ या रेनकोट पहन लेता हूँ। इससे वर्षा नहीं रुकती परन्तु मैं नहीं भीगता। यह सुख-दुःख आना बन्द नहीं होता परन्तु उस योगी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह विचलित नहीं होता, अडिग रहता है। 

दुःख से संयोग का वियोग करने वाला योग योगसञ्ज्ञितम्, जिसकी संज्ञा योग है, जिसका नाम योग है। यह योग की व्याख्या है। जिसके कारण दुःख से योग का वियोग हो जाता है उसे संयोगितम कहते हैं। निश्चय पूर्वक इस योग का अभ्यास करना चाहिए। बेमन से नहीं, जब तक योग सिद्ध न हो जाए, तब तक करते रहना चाहिए।

लोहे के टुकड़े को जब चुम्बक में परिवर्तित करना हो तो उसके ऊपर से बार-बार चुम्बक को घुमाया जाता है। बार-बार घुमाने से लोहा, चुम्बक बन जाता है। इसी प्रकार योग का तब तक अभ्यास करना चाहिए जब तक  परमात्मा से एकरूपता न हो जाए। हमारा धैर्य, हमारा निश्चय पक्का रहना चाहिए जब तक हमें, हमारा ध्येय प्राप्त नहीं जाता। यह सारा मार्ग कठिन लगता है और है भी, परन्तु जो नियमित रूप से कर रहे हैं, उनके लिए कठिन नहीं है। परीक्षा जब निकट आती है तो कुछ बच्चे दिन-रात पढ़ने लगते हैं, परन्तु उनका उतना अभ्यास नहीं होता जितना नियमित रूप से पाठ करने वाले का होता हैं। इसी प्रकार आधा घण्टा या एक घण्टा नियमित अभ्यास करना चाहिए। 

स्वामीजी कहते हैं, "परमात्मा की प्राप्ति करनी है तो नियमित रूप से योगाभ्यास करना चाहिए।" 

जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य क्या हो सकता है?

नर का नारायण हो जाना
इसकी प्राप्ति के लिए योगाचरण करते रहना चाहिए। योगाभ्यास से हमारे शरीर पर नियन्त्रण आने लगेगा। प्राणायाम से हमारे मन, चित्त पर नियन्त्रण आने लगेगा और ऐसा करते-करते परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। यह अष्टाङ्गयोग का मार्ग है। 

इसी के साथ विवेचन सत्र समाप्त हुआ तथा प्रश्नोत्तर सत्र आरम्भ हुआ। 


प्रश्नोत्तर

 

प्रश्नकर्ता- जयराज सिंह भैया 

प्रश्न- हम साधकों को श्रीमद्भगवद्गीता के उच्चारण तो सिखा रहे हैं। क्या प्रत्येक साधक को योग करना अनिवार्य होना चाहिए?

उत्तर- सबको निश्चित रूप से योग करना चाहिए। हमारी इस शिक्षा प्रणाली में कहीं कोई बाध्यता नहीं है, इसलिए पूज्य स्वामीजी ने भी कहा है- “योगमेवाभ्यसे प्राज्ञ, यथाशक्ति निरन्तरम” अर्थात् जो समझदार है, उसे योगाभ्यास करना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता सीखने के लिए कोई पूर्व योग्यता निर्धारित नहीं की गयी है क्योंकि यह सबके लिए है। यहाँ योगारूढ़ होने के लिए योग्यताएँ बतायी गयी हैं। ध्यान करने के लिए पूर्व सिद्धता के विषय में बताया गया है। हम जन्म लेते हैं तो हम गर्भासन में होते हैं तथा जब हमारी मृत्यु होती है, तब हम शवासन में चले जाते हैं। गर्भासन से शवासन के मध्य हम कोई भी योगासन कर सकते हैं।  

प्रश्न- श्लोक क्रमाङ्क बीस में “निरुद्धै” चित्त की एकाग्रता का ही विस्तार है अथवा लक्ष्य है?

उत्तर- चित्त की पाँच अवस्थाएँ बतायी गयी हैं। यहाँ एकाग्र तथा निरुद्ध में अन्तर समझना चाहिए। “चित्त एकाग्र है", इसका अर्थ है- जब चित्त में ध्याता (ध्यान करने वाला) और ध्येय (जिसका ध्यान किया जा रहा है) के अतिरिक्त दूसरा विषय नहीं रह जाता है, तब कहते हैं कि चित्त एकाग्र हो गया। एकाग्र चित्त अवस्था में ध्यान करते-करते जब ध्याता उस ध्येय में ही विलीन हो जाता है, उस अवस्था को निरुद्ध कहते हैं। इस अवस्था में पहुँचने के पश्चात मनुष्य कहीं भी रहे, उसका चित्त सदैव स्थिर रहता है। इसी अध्याय में श्रीभगवान् ने वर्णन किया है-

सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते |

अर्थात् उस अवस्था में गया हुआ योगी यद्यपि वर्तमान में व्यवहार करता हुआ दिखेगा, फिर भी वह सदैव परमात्मा के साथ एकरूप ही रहता है। इस प्रकार “चित्त निरुद्ध हो गया” का अर्थ है “चित्त एकरूप हो गया।”

प्रश्नकर्ता- कृषी लाहौटी दीदी

प्रश्न- योग तथा प्राणायाम, दोनों करने चाहिए अथवा प्राणायाम पर्याप्त है?

उत्तर- यह सारा योगाभ्यास है। आप यदि प्राणायाम करती हैं तो योगासन सिद्ध किए बिना प्राणायाम नहीं कर सकतीं क्योंकि प्राणायाम के लिए पूर्व सिद्धता है कि रीढ़ की हड्डी सीधी रख कर बैठना है। इसके बिना प्राणायाम नहीं हो सकता, इसलिए योगासन भी करना है और प्राणायाम भी करना है। योगासन से शरीर पर नियन्त्रण होता है तथा प्राणायाम से चित्त पर नियन्त्रण होता है। प्राणायाम से अन्तरङ्ग शुद्धि होती है, अतः शरीर पर नियन्त्रण, इन्द्रियों पर नियन्त्रण, मन, बुद्धि पर नियन्त्रण आदि करते-करते आगे बढ़ना है। प्राणायाम करते-करते उसके आगे की स्थिति प्रत्याहार है, जिसमें इन्द्रियों को बाहरी विषयों की याद भी नहीं आती। इन्द्रियाँ अन्तर्मुख हो जाती हैं। मन और बुद्धि को ईश्वर में लगाने के लिए ही यह साधना बतायी गयी है।

प्रश्नकर्ता- रजनीश भैया

प्रश्न- ध्यान करते समय “ॐ” बीजमन्त्र का उच्चारण कर सकते हैं?

उत्तर- हम ध्यान लगाने के लिए नामजप करते हैं। यह ध्यान का ही अभ्यास है। ऊँकार का जप करते समय भी हम अपने चित्त को एकाग्र करने का प्रयास करते हैं। ॐ का ध्यान करते हुए अपने भ्रूमध्य में ऊँकार की प्रतिमा स्थापित करते हुए ॐ जप करते रहेंगे तो हम बाहरी विषय भूल जाएँगे। जप की भी अलग-अलग स्थितियाँ होती हैं। मुँह से ध्वनि करते हुए भी जप किया जाता है, फिर केवल मुँह हिलाते हुए जप किया जाता है, फिर मानसिक जप किया जाता है। ये सब हमारे लिए दिये गये साधना के साधन हैं। हमें इन साधनों का उपयोग करते हुए ध्यान करना है। साधन अलग-अलग हो सकते हैं।

प्रश्न- कहा जाता है कि ध्यान लगाते समय मन में आने वाले विभिन्न विचारों पर ध्यान न दें, परन्तु हमारे मन में अनेक विचार आते-जाते रहते हैं। हमारा मन शून्य स्थिति में नहीं पहुँच पाता। ऐसे में क्या करना चाहिए?

उत्तर- अर्जुन ने भी यह प्रश्न आगे पूछा है, “चंचलम हि मनः“ यहाँ अर्जुन कहते हैं कि “हे भगवान्! आप कहते हैं कि ऐसा ध्यान करो किन्तु हमारा मन इतना चञ्चल है कि वह स्थिर नहीं होता, उसका निग्रह नहीं होता। तो इस स्थिति में, मैं क्या करूँ?” इसका उत्तर हम इसी अध्याय में आगे पढ़ने वाले हैं।

प्रश्नकर्ता- सेजल भालानी दीदी

प्रश्न- इक्कीसवें श्लोक में आपने बताया कि परमात्मा के स्वरूप में हमारा मन विचलित होता ही नहीं। मेरा प्रश्न है कि परमात्मा का स्वरूप क्या है? जैसे, मैं यदि श्रीराम या श्रीकृष्ण को मानती हूँ, तो उनका स्वरूप क्या है?

उत्तर- परमात्मा के जिस रूप पर हमारी श्रद्धा है, उसी का ध्यान करते जाना है। धीरे-धीरे हमें सारे उत्तर मिल जाएँगे, जैसे “प्रभु श्रीराम कौन हैं?” “भगवान श्रीकृष्ण कौन हैं?” “मैं कौन हूँ?”आदि। फिर सबके साथ एकरूपता आ जाती है तथा जब यह चित्त उनके साथ जुड़ जाता है, तब बड़े से बड़ा दुःख आने पर व्यक्ति विचलित नहीं होता।