विवेचन सारांश
योगियों के लक्षण
अपने शरीर, मन, इन्द्रियाँ, बुद्धि, आहार-विहार व निद्रा पर नियन्त्रण करते हुए मनुष्य किस प्रकार परमात्मा से योग साध सकता है, इसके लिए क्या-क्या आवश्यकताएँ हैं, ये सभी इस अध्याय में श्रीभगवान् ने बताया है। अध्याय पाँच में अर्जुन ने पूछा था कि संन्यास और योग में मेरे लिए जो उचित हो वह बताइए। तब श्रीभगवान् ने बताया कि संन्यासी और योगी दोनों वाह्य रूप से ही अलग दिखाई देते हैं परन्तु दोनों की आन्तरिक स्थिति समान है। दोनों को हमें भिन्न नहीं मानना चाहिए। दोनों की अन्तरङ्ग अवस्था समान होती है। जब तक कोई योगी अथवा संन्यासी योग करते हुए योगारूढ़ नहीं होता, तब तक उसके लिए कर्मयोग ही साधना है। जब योग साधना करते हुए मनुष्य योगारूढ़ हो जाता है तब उसके लिए शान्त, एकान्त में बैठकर ध्यान करना बताया गया है।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वानुशज्जते |
वह इन्द्रियों के विषयों में, कर्मों में आसक्त नहीं होता। कर्त्तव्य के रूप में सारे कर्म करता चला जाता है। उसके मन में सङ्कल्प-विकल्प की स्थिति नहीं होती है। जब वह इन सबसे आगे निकल जाता है तभी वह योगारूढ़ कहलाता है। इस सब तक पहुँचने के लिए मनुष्य को स्वयं का उद्धार स्वयं ही करना पड़ेगा। यह बात सत्य है कि भगवद् कृपा के बिना कुछ नहीं होता। किन्तु यह भी सत्य है कि यदि मनुष्य प्रयास ही न करे तो भगवद् कृपा भी प्राप्त नहीं होती। अतः प्रयास तो मनुष्य को ही करना पड़ेगा। स्वयं का उद्धार स्वयं को ही करना पड़ेगा।
इस प्रकार सम-बुद्धि की अवस्था उसको प्राप्त हो गई। बुद्धि का समत्त्व है, दृष्टि का समत्त्व है, व्यवहार की यथाधिकारिता है, अर्थात् किसी के साथ व्यवहार करते समय उसके अधिकार के अनुसार व्यवहार किया जाता है लेकिन दृष्टि, बुद्धि सभी के प्रति समत्त्व की ही है। यह महत्त्वपूर्ण बात है। जब मनुष्य उस अवस्था में पहुँच जाता है तब वह समत्त्व बुद्धि में आ जाता है। ऐसे समय में उसको एकान्त की आवश्यकता होती है। उसको ध्यान करना चाहिए।
ध्यान कोई क्रिया नहीं है कि कर लिया और हो गया। यह एक लगातार किया जाने वाला अभ्यास है। इसके लिए अष्टाङ्गयोग के छः नियम तो करने ही होंगे, यम, नियम, आसन, प्रत्याहार, प्राणायाम, धारणा। इसके पश्चात ध्यान आता है। तब उसे एकान्त में रहना है।
ध्यान करने के लिए मन की एकाग्रता आनी चाहिए, चित्त शुद्ध होना चाहिए। मन में उठने वाले सङ्कल्प-विकल्प दूर हो जाने चाहिए। ध्यान के लिए स्थान कैसा हो? यह श्रीभगवान् आगे बता रहे हैं।
6.11
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य, स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं(न्) नातिनीचं(ञ्), चैलाजिनकुशोत्तरम्॥11॥
वहाँ अपना स्थिर आसन लगाकर बैठना है। पतञ्जलि महामुनि ने आसन की व्याख्या की है-
स्थिरसुखम् आसनम्
आसन का माहात्म्य क्या है?
सबसे पहले अपने शरीर पर नियन्त्रण लाना है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाना है। स्थूल है हमारा शरीर, उससे सूक्ष्म है हमारी इन्द्रियाँ, उससे सूक्ष्म है हमारा मन और बुद्धि। यदि शरीर पर ही नियन्त्रण नहीं है तो मन पर नियन्त्रण कैसे आएगा? इसलिए शरीर पर नियन्त्रण लाने के लिए स्थिरसुखम् आसनम्।
ध्यानात्मक आसन हैं- पद्मासन, स्वस्तिकासन, गौमुखासन आदि। इनमें मनुष्य देर तक बिना हलचल किए बैठ सकता है।
आसन कैसा हो?
कुश नामक घास बिछाकर, उस पर नैसर्गिक मृत्यु प्राप्त हुए मृग का चर्म बिछाया जाना चाहिए। उस पर कपास का वस्त्र रखा जाना चाहिए। यह आसन योगारूढ़ व्यक्ति के लिए ही है। सामान्य व्यक्ति के लिए सामान्य आसन ही पर्याप्त है। स्थान स्वच्छ और शान्त हो। ठाकुर जी के सामने देवघर में भी बैठ सकते हैं। ध्यान का स्थान अधिक ऊॅंचा होने से सन्तुलन बिगड़ सकता है। अधिक नीचा (गड्ढे में, गुफा बनाकर) होने से कीटाणु होने का संशय रहेगा। कीट, मच्छर, पशु आदि के होने से भी ध्यान नहीं हो सकेगा। अतः स्थान न अधिक ऊँचा हो, न ही अधिक नीचा हो।
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-
वाढवा अत्यंत धैर्यगुण | अंतःकरणाचा ||
अन्तःकरण में धैर्य रखकर वहाँ बैठना चाहिए। वहाँ धूप भी हो तो शीतल धूप हो। धूप की गर्मी अधिक होने से भी मनुष्य ध्यान नहीं कर सकेगा। वायु भी चलती हो पर तेज न हो। धीमे वायु चलती रहे। निःशब्द हो, शान्त हो। भय न हो।
तत्रैकाग्रं(म्) मनः(ख्) कृत्वा, यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्, योगमात्मविशुद्धये॥12॥
यहाँ आत्मा शब्द का अर्थ है हमारा अन्तरङ्ग। आत्मा तो शुद्ध ही होती है। हमारा अन्तरङ्ग शुद्ध हो जाए।
चार अन्तरङ्ग बताए गए हैं- मन, बुद्धि, चित्त और अहङ्कार।
इनकी शुद्धि के लिए मन को एकाग्र करते हुए योगाभ्यास किया जाता है। योगाभ्यास से केवल शरीर ही ठीक नहीं होता अपितु हमारा अन्तरङ्ग भी शुद्ध होता है। शरीर की शुद्धि क्रियाएँ तो योग में हैं ही, प्राणायाम के अभ्यास से हमारा अन्तरङ्ग शुद्ध होना आरम्भ हो जाता है। प्रत्याहार के अभ्यास से अन्तरङ्ग शुद्ध होने लगता है।
हमारे अन्तरङ्ग में हमारे अनेक जन्मों की बातें एकत्र हैं। जैसे, "उसने मुझे ऐसा कहा था, मैं उसे भूलूँगा नहीं," ऐसी बातें हम चित्त में एकत्र करके रखते हैं। जैसे हमारे फोन में अनावश्यक सन्देश भर जाते हैं तो हमें उसे साफ करना पड़ता है, वैसे ही हमारे मन में जो अनावश्यक बातें एकत्र हो गई हैं, उन्हें साफ करने के लिए योगाभ्यास किया जाता है।
समं(ङ्) कायशिरोग्रीवं(न्), धारयन्नचलं(म्) स्थिरः।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं(म्) स्वं(न्), दिशश्चानवलोकयन्॥13॥
हमारी पीठ, रीढ़, गर्दन एक सीध में होनी चाहिए। हमारा मेरुदण्ड सीधा होना चाहिए। यह ध्यान के लिए बैठने हेतु अत्यन्त आवश्यक है। पीठ झुकाकर मनुष्य अधिक समय के लिए नहीं बैठ सकता। इसलिए मेरुदण्ड सीधा होना चाहिए। पूज्य स्वामीजी को जिन्होंने देखा है, वे जानते हैं कि स्वामीजी चार-पाँच घण्टों तक भी सीधे बैठे रहते हैं, आसन्नजय रहते हैं। बिना हिले-डुले, बिना हलचल किए बैठने से ही साधक ध्यान करने योग्य बनता है। अतः यह अभ्यास सबसे पहले करना चाहिए। जो योगारूढ़ हो गया है, उसके लिए ध्यान है और जो नहीं हुआ है उसके लिए योगाभ्यास है। उसे अभ्यास करते रहना है।
आगे श्रीभगवान् बता रहे हैं कि ध्यान करते समय हमें कहाँ देखना है?
श्रीभगवान् कहते हैं कि अपनी नासिकाग्र को देखो। नासिका के भ्रूमध्य पर भी दृष्टि केन्द्रित कर सकते हैं और अन्त पर भी कर सकते हैं। आँखें बन्द नहीं करनी हैं। नासिका पर दृष्टि रखनी है। आँखें बन्द करके बैठने से मनुष्य को नींद आएगी, इसलिए आँखें बन्द नहीं करनी हैं। मन को एकाग्र करना है तथा इधर- उधर नहीं देखना है।
हमें जिसका ध्यान करना है वही हमारा केन्द्र-बिन्दु होना चाहिए। हम न्यायालय में जाते हैं तो वहाँ केन्द्र बिन्दु न्यायधीश होते हैं। ऑपरेशन थिएटर में सबका ध्यान चिकित्सक पर रहता है। वैसे ही योगाभ्यासी का केन्द्र-बिन्दु श्रीभगवान् हैं। अन्तरङ्ग में श्रीभगवान् की मूर्ति को देखना प्रारम्भ करना है।
प्रशान्तात्मा विगतभी:(र्), ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः(स्) संयम्य मच्चित्तो, युक्त आसीत मत्परः॥14॥
"वह ब्रह्मचारी हो।" ब्रह्मचारी होने का अर्थ है, परब्रह्म में जिसका मन सञ्चार करता है। गृहस्थ ब्रह्मचारी को एक पत्नीव्रत करना चाहिए। मन को परमात्मा में लगाना है। मन को विचलित करने वाली बातें नहीं करनी हैं। ऐसी बातों का मनन नहीं करना चाहिए। गुह्य भाषण नहीं करना चाहिए। सङ्कल्प करके मन को परमात्मा में लगाना है। मन को संयमित करना है। नियन्त्रित करना है। श्रीभगवान् कहते हैं कि "अपने मन को, चित्त को मुझमें लगा दो।" वे कौन हैं? यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। वे तो हमारे आराध्य हैं। वे हमारे ध्येय हैं, उनमें हमें अपने चित्त को लगाना है।
युञ्जन्नेवं(म्) सदात्मानं(म्), योगी नियतमानसः।
शान्तिं(न्) निर्वाणपरमां(म्), मत्संस्थामधिगच्छति॥15॥
पूज्य जनार्दन स्वामीजी के योगाभ्यास मण्डल में संदेश लिखा हुआ है-
हमें जीवन में समाधान, सुख और निरोगी अवस्था यदि प्राप्त करनी है तो योगाभ्यास यथाशक्ति निरन्तर करना चाहिए। भोजन की भाँति योगाभ्यास भी दैनिक होना चाहिए। कितना समय कर पा रहे हैं, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, निरन्तर करते रहना है बस।
मन को नियन्त्रण में रखकर करना है। निरन्तर परमात्मा के साथ जोड़ते जाना है। परमात्मा में ध्यान लगाने से परमानन्द की प्राप्ति होती है।
परमात्मा की प्राप्ति में कितना समय लगेगा? यह इस बात पर निर्भर करेगा कि साधक कितना तीव्रता से योगाभ्यास करता है, कितना समय करता है?
एक बार एक व्यक्ति को किसी गाँव में जाना था। चलते-चलते रास्ते में एक किसान दिखाई दिया तो उससे पूछा कि मुझे गाँव तक पहुँचने में कितना समय लगेगा? किसान ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह व्यक्ति आगे बढ़ गया। वह कुछ कदम ही चल पाया था कि किसान ने बोला, तुम बीस मिनट में पहुँच जाओगे। उस व्यक्ति ने पूछा कि जब मैं तुम्हारे पास खड़ा था, तब तुमने क्यों नहीं बताया? किसान ने उत्तर दिया कि मैं तुम्हारी गति देख रहा था। गति देखने से मुझे पता चला कि तुम कितने समय में गाँव पहुँच सकोगे।
इसी प्रकार साधक की ध्यान की तीव्रता कितनी है और कितना समय देता है, उस पर ही यह निर्भर है कि उसे परमात्मा की प्राप्ति कब होगी?
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति, न चैकान्तमनश्नतः।
न चातिस्वप्नशीलस्य, जाग्रतो नैव चार्जुन॥16॥
"जो अधिक खाता है, वह योग्य नहीं है और बिल्कुल न खाने वाला भी योग्य नहीं है। अधिक स्वप्न देखने वाले के लिए भी योग नहीं है और अधिक जागने वाले के लिए भी योग नहीं है।
हमारे मन में प्रश्न उठेगा कि यह आवश्यक मात्रा कितनी हो?
यह आवश्यक मात्रा सबकी प्रकृति के अनुसार है। बीस वर्ष का युवक और पैंसठ वर्ष का ज्येष्ठ, दोनों साधक हैं। दोनों की भूख समान नहीं होगी। जिसको जितना आवश्यक है, उतना खाना चाहिए। आयुर्वेद के अनुसार हमें आधा पेट भोजन करना चाहिए।
आधा पेट अन्न, चौथाई पेट पानी और चौथाई पेट वायु, यह आहार होना चाहिए। ऐसा न करने पर मनुष्य अस्वस्थ हो जाएगा और अस्वस्थता में ध्यान नहीं हो सकता।
युक्ताहारविहारस्य, युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य, योगो भवति दुःखहा॥17॥
कर्म कितना करना चाहिए?
किसी-किसी को हम कहते हैं, अरे! वह तो बहुत अधिक कार्य करता है। कार्य करने योग्य है या नहीं, परन्तु वह कार्य करता जाता है। ऐसा करने से योग सिद्ध नहीं हो सकता। कितना कार्य करना चाहिए? उसका भी कोई परिमाण होना चाहिए। कर्म करने में जितना प्रयास करना है, उतना ही करना चाहिए। बहुत अधिक करने से भी ठीक नहीं होगा। जो बारह से पन्द्रह घण्टे काम करेगा, वह ध्यान कैसे करेगा?
योग्य परिमाण में निद्रा और योग्य परिमाण में जागृति हो। ऐसे व्यक्तियों के लिए योग दुःख का हरण करने वाला होता है।
यदा विनियतं(ञ्) चित्तम्, आत्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः(स्) सर्वकामेभ्यो, युक्त इत्युच्यते तदा॥18॥
यथा दीपो निवातस्थो, नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य, युञ्जतो योगमात्मनः॥19॥
जैसे जलता हुआ दीपक ऐसे स्थान पर रखा है जहाँ वायु नहीं बह रही, उस पर आवरण रखा है, वह गर्भ-गृह में जल रहा है, उसको जलने के लिए आवश्यक वायु मिल रही है, परन्तु तेज वायु नहीं है। बहती वायु का स्पर्श उसको नहीं होता, तब उसकी ज्योति स्थिर रहती है। वह हिलती नहीं है। घर में जलते दीपक की ज्योति जिस प्रकार होती है, उसी प्रकार परमात्मा में ध्यान लगाए साधक के चित्त की स्थिति होती है।
जिसने अपने चित्त पर विजय प्राप्त कर ली है, जो ध्येय में ही विलीन हो गया तो वह क्या देखता है? उसको किसका दर्शन होता है? यह आगे बताया गया है।
यत्रोपरमते चित्तं(न्), निरुद्धं(म्) योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं(म्), पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥20॥
पतञ्जलि मुनि ने चित्त की पाँच अवस्थाएँ बताई हैं- मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध।
मूढ़- का अर्थ है, यह तमोगुण-प्रधान चित्त है। उसको किसी बात का ध्यान नहीं है। कोई पत्थर है, वृक्ष लताएँ हैं या स्वयं के बारे में भी वह अज्ञानी है। मूढ़ चित्त है। कुछ जानकारी नहीं।
क्षिप्त- अत्यन्त चञ्चल। रजोगुण-प्रधान चित्त। यह एक जगह स्थिर रहता ही नहीं। यह क्षिप्त चित्त है।
विक्षिप्त- योगाभ्यास करते-करते थोड़ी देर के लिए स्थिर हो जाता है, फिर क्षिप्त हो जाता है। इधर-उधर भागने लगता है। वह विक्षिप्त हो जाता है।
एकाग्र- जिसका ध्यान कर रहा हूँ, जो मेरे आलम्बन का साधन हैं, जो श्रीभगवान् का विग्रह है, जिस पर मैं अपना चित्त एकाग्र करने का प्रयास कर रहा हूँ, वह मेरा ध्येय और मैं ध्याता। जब ध्यान करने वाला ध्याता और ध्येय, ये दो ही रह जाते हैं तो उसका चित्त एकाग्रचित्त हो गया ऐसा कहा जाता है।
निरुद्ध- ध्यान करने वाला ही नहीं रहा। उसका चित्त ध्येय के साथ एकरूप हो गया। मैं ही नहीं रहा। उसका अन्तरङ्ग चित्त एकाग्र हो गया।
एकाग्र के ऊपर की अवस्था है एकरूपता। अपने ध्येय के साथ एकरूप हो गया, तो कहते हैं कि उसका चित्त निरुद्ध हो गया और यह योगाभ्यास से हो जाता है।
सुखमात्यन्तिकं(म्) यत्तद्, बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं(म्), स्थितश्चलति तत्त्वतः॥21॥
बाकी कोई सुख उसको दिखाई नहीं देता। वह सुख आँखों से दिखाई नहीं देता है, न ही कानों से सुनाई देता है, न जिह्वा से, न त्वचा से दिखता है। श्रीभगवान् कहते हैं कि यह सुख किसी इन्द्रिय से मिलने वाला सुख नहीं है। उस सुख के लिए हमें किसी बात पर निर्भर नहीं होना पड़ता है। दूसरे अन्य सारे सुखों के लिए हमें पराधीन होना पड़ता है, परन्तु यह आत्यन्तिक सुख किसी पर निर्भर नहीं है। किसी के अधीन नहीं है। बाकी सारे सुखों का प्रारम्भ होकर उनका अन्त भी होता है, परन्तु आत्यन्तिक सुख का कोई अन्त नहीं है। यह बुद्धि के द्वारा ग्राह्य है। इस सुख को चखने के पश्चात साधक विचलित ही नहीं होता। इस अवस्था में पहुँचने के पश्चात वह योगी वहीं का हो जाता है।
यं(म्) लब्ध्वा चापरं(म्) लाभं(म्), मन्यते नाधिकं(न्) ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन, गुरुणापि विचाल्यते॥22॥
उस अवस्था में पहुँच कर उसका चित्त विचलित नहीं होता। वहीं स्थिर हो जाता है। इससे ऊपर कोई सुख नहीं हो सकता। उस पर कितना भी बड़ा दुख का पहाड़ आ जाए, वह आत्यन्तिक सुख से विचलित नहीं हो सकता। बाहरी दुःख-सुख का उस पर प्रभाव नहीं होता। केवल सुख ही नहीं, दुःख से भी वह विचलित नहीं होता। कितना भी बड़ा मान-सम्मान कर दो, उस पर कोई प्रभाव नहीं होता। वह अपने स्थान पर अडिग रहता है। परमात्मा में उसका चित्त हमेशा के लिए लगा रहता है। हमें उस योग को सीखना चाहिए।
तं(म्) विद्याद् दुःखसंयोग, वियोगं(म्) योगसञ्ज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो, योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥23॥
दुःख से संयोग का वियोग करने वाला योग योगसञ्ज्ञितम्, जिसकी संज्ञा योग है, जिसका नाम योग है। यह योग की व्याख्या है। जिसके कारण दुःख से योग का वियोग हो जाता है उसे संयोगितम कहते हैं। निश्चय पूर्वक इस योग का अभ्यास करना चाहिए। बेमन से नहीं, जब तक योग सिद्ध न हो जाए, तब तक करते रहना चाहिए।
लोहे के टुकड़े को जब चुम्बक में परिवर्तित करना हो तो उसके ऊपर से बार-बार चुम्बक को घुमाया जाता है। बार-बार घुमाने से लोहा, चुम्बक बन जाता है। इसी प्रकार योग का तब तक अभ्यास करना चाहिए जब तक परमात्मा से एकरूपता न हो जाए। हमारा धैर्य, हमारा निश्चय पक्का रहना चाहिए जब तक हमें, हमारा ध्येय प्राप्त नहीं जाता। यह सारा मार्ग कठिन लगता है और है भी, परन्तु जो नियमित रूप से कर रहे हैं, उनके लिए कठिन नहीं है। परीक्षा जब निकट आती है तो कुछ बच्चे दिन-रात पढ़ने लगते हैं, परन्तु उनका उतना अभ्यास नहीं होता जितना नियमित रूप से पाठ करने वाले का होता हैं। इसी प्रकार आधा घण्टा या एक घण्टा नियमित अभ्यास करना चाहिए।
स्वामीजी कहते हैं, "परमात्मा की प्राप्ति करनी है तो नियमित रूप से योगाभ्यास करना चाहिए।"
जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य क्या हो सकता है?
नर का नारायण हो जाना।
इसकी प्राप्ति के लिए योगाचरण करते रहना चाहिए। योगाभ्यास से हमारे शरीर पर नियन्त्रण आने लगेगा। प्राणायाम से हमारे मन, चित्त पर नियन्त्रण आने लगेगा और ऐसा करते-करते परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। यह अष्टाङ्गयोग का मार्ग है।
इसी के साथ विवेचन सत्र समाप्त हुआ तथा प्रश्नोत्तर सत्र आरम्भ हुआ।
प्रश्नोत्तर
प्रश्नकर्ता- जयराज सिंह भैया
प्रश्न- हम साधकों को श्रीमद्भगवद्गीता के उच्चारण तो सिखा रहे हैं। क्या प्रत्येक साधक को योग करना अनिवार्य होना चाहिए?
उत्तर- सबको निश्चित रूप से योग करना चाहिए। हमारी इस शिक्षा प्रणाली में कहीं कोई बाध्यता नहीं है, इसलिए पूज्य स्वामीजी ने भी कहा है- “योगमेवाभ्यसे प्राज्ञ, यथाशक्ति निरन्तरम” अर्थात् जो समझदार है, उसे योगाभ्यास करना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता सीखने के लिए कोई पूर्व योग्यता निर्धारित नहीं की गयी है क्योंकि यह सबके लिए है। यहाँ योगारूढ़ होने के लिए योग्यताएँ बतायी गयी हैं। ध्यान करने के लिए पूर्व सिद्धता के विषय में बताया गया है। हम जन्म लेते हैं तो हम गर्भासन में होते हैं तथा जब हमारी मृत्यु होती है, तब हम शवासन में चले जाते हैं। गर्भासन से शवासन के मध्य हम कोई भी योगासन कर सकते हैं।
प्रश्न- श्लोक क्रमाङ्क बीस में “निरुद्धै” चित्त की एकाग्रता का ही विस्तार है अथवा लक्ष्य है?
उत्तर- चित्त की पाँच अवस्थाएँ बतायी गयी हैं। यहाँ एकाग्र तथा निरुद्ध में अन्तर समझना चाहिए। “चित्त एकाग्र है", इसका अर्थ है- जब चित्त में ध्याता (ध्यान करने वाला) और ध्येय (जिसका ध्यान किया जा रहा है) के अतिरिक्त दूसरा विषय नहीं रह जाता है, तब कहते हैं कि चित्त एकाग्र हो गया। एकाग्र चित्त अवस्था में ध्यान करते-करते जब ध्याता उस ध्येय में ही विलीन हो जाता है, उस अवस्था को निरुद्ध कहते हैं। इस अवस्था में पहुँचने के पश्चात मनुष्य कहीं भी रहे, उसका चित्त सदैव स्थिर रहता है। इसी अध्याय में श्रीभगवान् ने वर्णन किया है-
“सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते |”
अर्थात् उस अवस्था में गया हुआ योगी यद्यपि वर्तमान में व्यवहार करता हुआ दिखेगा, फिर भी वह सदैव परमात्मा के साथ एकरूप ही रहता है। इस प्रकार “चित्त निरुद्ध हो गया” का अर्थ है “चित्त एकरूप हो गया।”
प्रश्नकर्ता- कृषी लाहौटी दीदी
प्रश्न- योग तथा प्राणायाम, दोनों करने चाहिए अथवा प्राणायाम पर्याप्त है?
उत्तर- यह सारा योगाभ्यास है। आप यदि प्राणायाम करती हैं तो योगासन सिद्ध किए बिना प्राणायाम नहीं कर सकतीं क्योंकि प्राणायाम के लिए पूर्व सिद्धता है कि रीढ़ की हड्डी सीधी रख कर बैठना है। इसके बिना प्राणायाम नहीं हो सकता, इसलिए योगासन भी करना है और प्राणायाम भी करना है। योगासन से शरीर पर नियन्त्रण होता है तथा प्राणायाम से चित्त पर नियन्त्रण होता है। प्राणायाम से अन्तरङ्ग शुद्धि होती है, अतः शरीर पर नियन्त्रण, इन्द्रियों पर नियन्त्रण, मन, बुद्धि पर नियन्त्रण आदि करते-करते आगे बढ़ना है। प्राणायाम करते-करते उसके आगे की स्थिति प्रत्याहार है, जिसमें इन्द्रियों को बाहरी विषयों की याद भी नहीं आती। इन्द्रियाँ अन्तर्मुख हो जाती हैं। मन और बुद्धि को ईश्वर में लगाने के लिए ही यह साधना बतायी गयी है।
प्रश्नकर्ता- रजनीश भैया
प्रश्न- ध्यान करते समय “ॐ” बीजमन्त्र का उच्चारण कर सकते हैं?
उत्तर- हम ध्यान लगाने के लिए नामजप करते हैं। यह ध्यान का ही अभ्यास है। ऊँकार का जप करते समय भी हम अपने चित्त को एकाग्र करने का प्रयास करते हैं। ॐ का ध्यान करते हुए अपने भ्रूमध्य में ऊँकार की प्रतिमा स्थापित करते हुए ॐ जप करते रहेंगे तो हम बाहरी विषय भूल जाएँगे। जप की भी अलग-अलग स्थितियाँ होती हैं। मुँह से ध्वनि करते हुए भी जप किया जाता है, फिर केवल मुँह हिलाते हुए जप किया जाता है, फिर मानसिक जप किया जाता है। ये सब हमारे लिए दिये गये साधना के साधन हैं। हमें इन साधनों का उपयोग करते हुए ध्यान करना है। साधन अलग-अलग हो सकते हैं।
प्रश्न- कहा जाता है कि ध्यान लगाते समय मन में आने वाले विभिन्न विचारों पर ध्यान न दें, परन्तु हमारे मन में अनेक विचार आते-जाते रहते हैं। हमारा मन शून्य स्थिति में नहीं पहुँच पाता। ऐसे में क्या करना चाहिए?
उत्तर- अर्जुन ने भी यह प्रश्न आगे पूछा है, “चंचलम हि मनः“ यहाँ अर्जुन कहते हैं कि “हे भगवान्! आप कहते हैं कि ऐसा ध्यान करो किन्तु हमारा मन इतना चञ्चल है कि वह स्थिर नहीं होता, उसका निग्रह नहीं होता। तो इस स्थिति में, मैं क्या करूँ?” इसका उत्तर हम इसी अध्याय में आगे पढ़ने वाले हैं।
प्रश्नकर्ता- सेजल भालानी दीदी
प्रश्न- इक्कीसवें श्लोक में आपने बताया कि परमात्मा के स्वरूप में हमारा मन विचलित होता ही नहीं। मेरा प्रश्न है कि परमात्मा का स्वरूप क्या है? जैसे, मैं यदि श्रीराम या श्रीकृष्ण को मानती हूँ, तो उनका स्वरूप क्या है?
उत्तर- परमात्मा के जिस रूप पर हमारी श्रद्धा है, उसी का ध्यान करते जाना है। धीरे-धीरे हमें सारे उत्तर मिल जाएँगे, जैसे “प्रभु श्रीराम कौन हैं?” “भगवान श्रीकृष्ण कौन हैं?” “मैं कौन हूँ?”आदि। फिर सबके साथ एकरूपता आ जाती है तथा जब यह चित्त उनके साथ जुड़ जाता है, तब बड़े से बड़ा दुःख आने पर व्यक्ति विचलित नहीं होता।