विवेचन सारांश
कृतार्थ अर्जुन द्वारा स्तुति
सुमधुर प्रार्थना, दीप प्रज्वलन, श्री गुरु वन्दना, भारतमाता की वन्दना, गीताजी की स्तुति, भगवान श्रीवेदव्यास तथा सद्गुरु स्वामी गोविन्ददेव गिरिजी महाराज के चरणों में वन्दना करते हुए, आज के विवेचन सत्र का शुभारम्भ हुआ।
श्रीमद्भगवद्गीता का अध्ययन करने का अवसर प्राप्त होना, जीवन के सबसे आह्लाददायक, आनन्ददायक क्षण हैं। यह अध्ययन करते-करते हम सब लोग चौथे स्तर के ग्यारहवें अध्याय का अध्ययन कर रहे हैं।
नवें अध्याय में श्रीभगवान ने अर्जुन को राजविद्याराजगुह्ययोग बताया। अत्यन्त गोपनीय ऐसा सारा ज्ञान अर्थात् परमात्मा ने स्वयं के बारे में ही बता दिया। अपना स्वयं का सारा रहस्य बता दिया और वह जानकर अर्जुन को यह तो पता चल गया कि विश्व में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ परमात्मा स्थित नहीं हैं। सारे विश्व को परमात्मा ने व्याप्त कर लिया है।
व्याप्तम् त्वैकेन।
यह परमात्मा का सगुण साकार रूप है। जो परमात्मा कण-कण में बसे हुए हैं, वे ही परमात्मा घनीभूत होकर, भगवान श्रीकृष्ण के रूप में अर्जुन के सामने बैठे हैं। इस बात को अर्जुन ने जाना और इसलिए अर्जुन ने श्रीभगवान से यह पूछा कि आप सर्वत्र ही व्याप्त हो परन्तु ऐसा जानकार मैं आपका ध्यान नहीं कर सकता, अतः आप मुझे कुछ ऐसे स्थान बताइए जहॉं पर मुझे आपकी विषेश अनुभूति हो जाए। आपका विशेष दर्शन मुझे हो जाए। अर्जुन के ऐसे प्रश्न करते ही श्रीभगवान ने अर्जुन को अपनी बहुत सारी विभूतियाँ बताईं।
अर्जुन ने तो पूछा था कि मुझे सारी विभूतियाँ बताएँ, परन्तु श्रीभगवान ने कहा कि सारी विभूतियाँ बताना सम्भव ही नहीं है, क्योंकि मेरा न कोई आदि है, न अन्त है। श्रीभगवान अनन्त हैं। उनकी विभूतियाँ भी अनन्त हैं। सारी विभूतियाँ बताना सम्भव ही नहीं है, इसलिए कुछ विभूतियाँ जहाँ पर हमें परमात्मा की अनुभूति आती है, दिव्यत्त्व की प्रतीति आती है, ऐसे कुछ स्थान श्रीभगवान ने अर्जुन को बताए। वो जानने के पश्चात् अर्जुन की जानने की लालसा, समझने की लालसा, देखने की लालसा और बढ़ गई इसलिए अर्जुन ने कहा, यह तो मैंने सुन लिया, यह भी मैं जनता हूँ कि आप सर्वत्र चराचर में व्याप्त हैं। क्या मैं उन्हें देख सकता हूँ? जिन्होंने समस्त विश्व को व्याप्त कर लिया है। अर्जुन ने यह प्रश्न पूछते समय बहुत सावधानी बरती है। अर्जुन ने यह नहीं कहा कि मुझे वह रूप दिखा दो। अर्जुन ने कहा, यदि आप ऐसा मानते हैं कि वह रूप देखने के लिए मैं योग्य हूँ या मेरी वह रूप देखने की पात्रता है तो आप मुझे वह रूप दिखाइए।
अर्जुन ने तो पूछा था कि मुझे सारी विभूतियाँ बताएँ, परन्तु श्रीभगवान ने कहा कि सारी विभूतियाँ बताना सम्भव ही नहीं है, क्योंकि मेरा न कोई आदि है, न अन्त है। श्रीभगवान अनन्त हैं। उनकी विभूतियाँ भी अनन्त हैं। सारी विभूतियाँ बताना सम्भव ही नहीं है, इसलिए कुछ विभूतियाँ जहाँ पर हमें परमात्मा की अनुभूति आती है, दिव्यत्त्व की प्रतीति आती है, ऐसे कुछ स्थान श्रीभगवान ने अर्जुन को बताए। वो जानने के पश्चात् अर्जुन की जानने की लालसा, समझने की लालसा, देखने की लालसा और बढ़ गई इसलिए अर्जुन ने कहा, यह तो मैंने सुन लिया, यह भी मैं जनता हूँ कि आप सर्वत्र चराचर में व्याप्त हैं। क्या मैं उन्हें देख सकता हूँ? जिन्होंने समस्त विश्व को व्याप्त कर लिया है। अर्जुन ने यह प्रश्न पूछते समय बहुत सावधानी बरती है। अर्जुन ने यह नहीं कहा कि मुझे वह रूप दिखा दो। अर्जुन ने कहा, यदि आप ऐसा मानते हैं कि वह रूप देखने के लिए मैं योग्य हूँ या मेरी वह रूप देखने की पात्रता है तो आप मुझे वह रूप दिखाइए।
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्॥11.4॥
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम्॥11.4॥
श्रीभगवान का प्रेम प्राप्त करने की हम सभी इच्छा रखते हैं। वे श्रीभगवान अर्जुन का प्रेम मॉंगते हैं। ऐसा सम्बन्ध है अर्जुन का और श्रीभगवान का। अर्जुन कुछ मॉंगें और श्रीभगवान ने दिया नहीं हो, ऐसा नहीं हो सकता है। मनुष्य अपने हृदय की गोपनीय बात अपने अत्यन्त निकटतम व्यक्ति को ही बताता है और वह निकटतम स्वाभाविक रूप से उसका मित्र होता है। श्रीभगवान और अर्जुन का सम्बन्ध हम सभी जानते हैं और अर्जुन के ऐसा कहते ही श्रीभगवान ने कहा उसमें क्या बात है! यह देख लो और श्रीभगवान ने अपना विश्वरूप दिखाना आरम्भ किया। तभी श्रीभगवान के ध्यान में आया यह ऐसे देख नहीं पाएगा, इसको दिव्यचक्षु की आवश्यकता है। फिर उन्होंने अर्जुन को दिव्यचक्षु प्रदान किये। जिनके माध्यम से अर्जुन ने विश्वरूप देखना प्रारम्भ किया। वह रूप देखते ही अर्जुन आश्चर्यचकित हो गये। उन्हें अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि ये मैं क्या देख रहा हूँ! एक ही भगवान श्रीकृष्ण के अन्दर सम्पूर्ण विश्व समाया हुआ है। भगवान श्रीकृष्ण कहाँ गए? पता ही नहीं चल रहा है? ऐसा दिख रहा है कि विश्व ने ही उनका आकार धारण कर लिया है या फिर उन्होंने विश्व का आकार धारण कर लिया है, ऐसा लग रहा था। दसवें अध्याय में श्रीभगवान ने अर्जुन को जो विभूतियाँ बताईं, उनमें में तो अच्छाई में और अच्छा कैसे देखना? उसकी विशेषता कैसे देखना? यह बताया है। अब तो श्रीभगवान अर्जुन को दिखा रहे हैं, विशेषता क्या? सम्पूर्ण विश्व ही मैं ही हूँ। यह विश्व श्रीभगवान का रूप है, ऐसा बताया तो अच्छाई के साथ भयङ्करता भी दिखती है। विश्व में बहुत भयानक घटनाएँ घटती हैं, ऐसा हम देखते हैं। वे सारी घटनाएँ अर्जुन ने घटती हुई देखी।
नभःस्पृशं दीप्तमनेकवर्णं
व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।
श्रीभगवान का आकाश को स्पर्श करता हुआ स्वरूप अर्जुन ने देखा। अनेक वर्ण दिख रहे हैं। उनका मुख कैसा है! प्रज्वलित अग्नि श्रीभगवान के अनेक मुखों से निकलती हुई अर्जुन देख रहे हैं। उनका मुख विस्तृत है, नेत्र प्रदीप्त और विशाल हैं। अर्जुन ने देखते-देखते यह भी देखा कि अनेक योद्धा श्रीभगवान के विस्तृत मुख में प्रवेश कर रहे हैं, समाप्त हो रहे हैं।
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि।
दिशो न जाने न लभे च शर्मप्रसीद देवेश जगन्निवास॥
11.25
11.25
आपके विकराल मुखों को देखकर न ही मुझे दिशाओं का ज्ञान हो रहा है, न ही शान्ति मिल रही है। हे देवेश! आप मुझ पर दया कीजिए। श्रीभगवान ने अर्जुन पर अभी भी यह कृपा करना प्रारम्भ नहीं किया है। वे चाहते हैं, अर्जुन पहले देख लो, यह क्या है और अर्जुन ने देखा-
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसङ्घैः।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः॥
11.26
सारे धृतराष्ट्र के पुत्र आपके मुख में जा रहे हैं। अवनिपाल अर्थात् पृथ्वी के राजाओं के बड़े-बड़े समूह के समूह आपके मुख में जा रहे हैं। मेरे पितामह भीष्म, गुरु द्रोण, कर्ण सब आपके मुख में प्रवेश कर रहे हैं। यह क्या! ऐसा लग रहा है कि सभी को श्रीभगवान के मुख में प्रवेश करने की शीघ्रता हो गई। उन्हें समाप्त होने की शीघ्रता हो गई है और सभी आपके मुख में जा रहे हैं। अत्यन्त भयावह, अत्यन्त भयङ्कर ऐसा रूप अर्जुन ने देखा और हमने पढ़ा भी है। यह पढ़ना भी कठिन है, ऐसा भयावह रूप अर्जुन ने कैसे देखा होगा?
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गै:॥11.27॥
कुछ के सिर चूर्ण होकर श्रीभगवान के दाँतों के बीच फँसे हैं। युद्ध के दृश्य सामान्य नहीं होते, अपितु भयानक होते हैं, उन्हें देखना पड़ता है। सुनामी आ जाती है तो जो होता है, भयङ्कर होता है, परन्तु जो सत्य है वह सत्य है। यह सब देखकर अर्जुन के मन में कुछ उपमाएँ आ रही हैं, उनको लगता है कि यह कैसा हो रहा है?
11.28
यथा नदीनां(म्) बहवोऽम्बुवेगाः(स्),
समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोकवीरा,
विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति॥11.28॥
जैसे नदियोंके बहुत-से जलके प्रवाह (स्वाभाविक) ही समुद्रके सम्मुख दौड़ते हैं, ऐसे ही वे संसारके महान् शूरवीर आपके सब तरफ से देदीप्यमान मुखोंमें प्रवेश कर रहे हैं।
विवेचन- नदियाँ जब बहती है, विशेष कर वर्षाकाल में जब उनमें बाढ़ आ जातो है तो जल का प्रवाह बढ़ जाता है, नदियाँ वेग से बहती हैं। सारी की सारी नदियाँ समुद्र की ओर ही दौड़ती हैं। नदियॉं भर-भर के तीव्रता से दौड़ती हैं। जिस प्रकार से बहुत सारी नदियाँ वेग के साथ समुद्र में जाती हैं, वैसे ही इस नरलोक के वीर, श्रेष्ठ योद्धा आपके दिख रहे असङ्ख्य प्रज्वलित मुखों में जा रहे हैं। युद्ध हो रहा है तो कैसे वाणों की वर्षा हो रही होगी? कैसे अग्निवाण चले होंगे?
अग्निवाण को आजकल के शब्दों में हम मिसाइल कहते हैं। मिसाइल का युद्ध होता है, अभी-अभी हुआ। गाजा में जो हुआ, रूस और यूक्रेन में जो हुआ। जहाँ अग्निवाण चलते हैं, वहाँ आग ही आग हो जाती है। श्रीभगवान के तो मुखों से ही आग निकल रही है। आपके प्रज्वलित मुखों में ये सारे योद्धा मुझको जाते हुए दिख रहे हैं। ये दौड़ती नदियों के समान आपके मुख में जा रहे हैं, मुझे ऐसा लगता है।
अग्निवाण को आजकल के शब्दों में हम मिसाइल कहते हैं। मिसाइल का युद्ध होता है, अभी-अभी हुआ। गाजा में जो हुआ, रूस और यूक्रेन में जो हुआ। जहाँ अग्निवाण चलते हैं, वहाँ आग ही आग हो जाती है। श्रीभगवान के तो मुखों से ही आग निकल रही है। आपके प्रज्वलित मुखों में ये सारे योद्धा मुझको जाते हुए दिख रहे हैं। ये दौड़ती नदियों के समान आपके मुख में जा रहे हैं, मुझे ऐसा लगता है।
यथा प्रदीप्तं(ञ्) ज्वलनं(म्) पतङ्गा,
विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः।
तथैव नाशाय विशन्ति लोका:(स्),
तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः॥11.29॥
जैसे पतंगे (मोहवश) (अपना) नाश करनेके लिये बड़े वेगसे दौड़ते हुए प्रज्वलित अग्निमें प्रविष्ट होते हैं, ऐसे ही ये सब लोग भी (मोहवश) (अपना) नाश करनेके लिये बड़े वेगसे दौड़ते हुए आपके मुखोंमें प्रविष्ट हो रहे हैं।
विवेचन- पतङ्गा नाम के कीड़े आपने देखे होंगे, जहाँ पर प्रकाश होता है, अग्नि होती है, वहाँ जाकर ये कूदते हैं। प्रज्वलित अग्नि में पतङ्गा नाम के कीड़े कूदते हैं। अपना स्वयं का नाश कर लेते हैं। ये वेग से आते हैं और उड़ते-उड़ते अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं। जैसे वे पतङ्गे स्वयं को समाप्त कर देने के लिए अत्यन्त वेग से अग्नि में प्रवेश करते हैं, वैसे ही ये लोकवीर भी मानो अपना स्वयं का नाश करने हेतु यहाँ आए हैं और अपना नाश करने हेतु बड़े वेग से आपके प्रज्वलित मुखों में जा रहे हैं। जैसे बाढ़ के समय नदियों का जल अत्यन्त वेग से समुद्र में जाता है, जैसे पतङ्गे अग्नि में स्वयं को समाप्त कर देते हैं, वैसे ये सारे श्रेष्ठ नरलोक वीरों को आपके मुखों में जाता हुआ मैं देख रहा हूँ।
श्रीभगवान अपना जो भयावह रूप दिखा रहे हैं, उसे दिखाना अभी रोका नहीं है। अर्जुन ने कहा-
श्रीभगवान अपना जो भयावह रूप दिखा रहे हैं, उसे दिखाना अभी रोका नहीं है। अर्जुन ने कहा-
प्रसीद देवेश जगन्निवास॥
अर्जुन कह रहे है- हे भगवान्! आप कृपा कीजिए। मुझसे यह दृश्य देखा नहीं जा रहा है।
परन्तु श्रीभगवान कहते हैं, एक बार तुम सब देख ही लो। तुम जानना चाहते हो कि मेरा रूप क्या है? मैं कौन हूँ? तुम समझ ही लो, मैं कौन हूँ? आगे जो युद्ध होने वाला है, उसका दृश्य कैसा है? अर्जुन को लगने लगा, यह मैं क्या देख रहा हूँ? ये जो मुखों में जा रहे हैं, दन्त पङक्तियों में फँस रहे हैं, सर फट रहे हैं, अभी तक जो देखा वो तो ठीक है परन्तु आगे यह श्रीभगवान का जो विश्वरूप है, ये क्या कर रहा है?
लेलिह्यसे ग्रसमानः(स्) समन्ताल्,
लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं(म्),
भासस्तवोग्राः(फ्) प्रतपन्ति विष्णो॥11.30॥
(आप अपने) प्रज्वलित मुखोंद्वारा सम्पूर्ण लोकोंका ग्रसन करते हुए (उन्हें) सब ओरसे बार-बार चाट रहे हैं (और) हे विष्णो! आपका उग्र प्रकाश अपने तेजसे सम्पूर्ण जगतको परिपूर्ण करके (सबको) तपा रहा है।
विवेचन- कल्पना कीजिए, हम किसी युद्धभुमि में खड़े हैं। चहुँओर से युद्ध हो रहा है, सारे सैनिक मरते जा रहे हैं, ऐसा भयावह दृश्य हम देख रहे हैं। वो युद्ध भी हम नहीं देख सकते। अर्जुन तो महायुद्ध देख रहे हैं और सारे योद्धाओं को फूटते हुए, टूटते हुए और अग्नि में प्रवेश करते हुए देखा है और अब अर्जुन कह रहे हैं, आपके मुख कैसे हैं?
अर्जुन कहते हैं जैसे मनुष्य एक-एक निवाला ग्रहण करता है, उसी तरह आप अपने अनेक मुखों से एक-एक ग्रास लेते जा रहे हो। उनको अपने जलते मुखों से खाते जा रहे हो। खाते समय क्या होता है? इधर-उधर लग जाता है तो हम जीभ से चाट जाते हैं। अर्जुन कहते हैं, आप चारों तरफ से चाट-चाट कर खा रहे हो, कोई छूट नहीं रहा है। कैसा भयावह दिखता होगा? अर्जुन देख रहे हैं, हम तो उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते।
अर्जुन कहते हैं, आपका यह जो उग्र रूप दिख रहा है। आपका तेज विलक्षण है, मुझसे देखा नहीं जा रहा है। आप अपने तेज से समस्त विश्व को अत्यन्त तप्त कर रहे हो। ऐसा लगता है कि पूरा विश्व भस्म हो जाएगा।
मई महीने में नागपुर में ऐसी धूप होती है कि खड़ा नहीं रहा जाता है। जब एक सूर्य के तेज के कारण ऐसा होता है तो तब कैसा होगा जब हजारों सूर्य एक साथ आकाश में आ जाएँ? जब यह वैसा तेज है तो यह कितना भयङ्कर होगा? अर्जुन कहते हैं, आप अपने तेज से समस्त विश्व को अत्यन्त तप्त कर रहे हैं। ऐसा लगता है सब खेल समाप्त हो गया, यह विश्व अब नहीं रहेगा। प्रलय आ गया है, ऐसा लगता है। जल-प्रलय, अग्नि-प्रलय होता है, ऐसा हम जानते हैं। वह कितना भयावह होता है, यहाँ तो पूरा विश्व ही तप्त हो गया है। अब अर्जुन अत्यन्त डर गए। उनके मन में आया होगा, यह मैंने क्या कामना की और क्या मुझे दिख रहा है? उन्हें लगा होगा कहाँ मैने विश्व में व्याप्त सुन्दर रूप देखने की कल्पना की और यह तो भयङ्कर दिख रहा है।
अर्जुन कहते हैं जैसे मनुष्य एक-एक निवाला ग्रहण करता है, उसी तरह आप अपने अनेक मुखों से एक-एक ग्रास लेते जा रहे हो। उनको अपने जलते मुखों से खाते जा रहे हो। खाते समय क्या होता है? इधर-उधर लग जाता है तो हम जीभ से चाट जाते हैं। अर्जुन कहते हैं, आप चारों तरफ से चाट-चाट कर खा रहे हो, कोई छूट नहीं रहा है। कैसा भयावह दिखता होगा? अर्जुन देख रहे हैं, हम तो उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते।
अर्जुन कहते हैं, आपका यह जो उग्र रूप दिख रहा है। आपका तेज विलक्षण है, मुझसे देखा नहीं जा रहा है। आप अपने तेज से समस्त विश्व को अत्यन्त तप्त कर रहे हो। ऐसा लगता है कि पूरा विश्व भस्म हो जाएगा।
मई महीने में नागपुर में ऐसी धूप होती है कि खड़ा नहीं रहा जाता है। जब एक सूर्य के तेज के कारण ऐसा होता है तो तब कैसा होगा जब हजारों सूर्य एक साथ आकाश में आ जाएँ? जब यह वैसा तेज है तो यह कितना भयङ्कर होगा? अर्जुन कहते हैं, आप अपने तेज से समस्त विश्व को अत्यन्त तप्त कर रहे हैं। ऐसा लगता है सब खेल समाप्त हो गया, यह विश्व अब नहीं रहेगा। प्रलय आ गया है, ऐसा लगता है। जल-प्रलय, अग्नि-प्रलय होता है, ऐसा हम जानते हैं। वह कितना भयावह होता है, यहाँ तो पूरा विश्व ही तप्त हो गया है। अब अर्जुन अत्यन्त डर गए। उनके मन में आया होगा, यह मैंने क्या कामना की और क्या मुझे दिख रहा है? उन्हें लगा होगा कहाँ मैने विश्व में व्याप्त सुन्दर रूप देखने की कल्पना की और यह तो भयङ्कर दिख रहा है।
ज्ञानेश्वर महाराज बहुत सुन्दर वर्णन करते हैं -
काय सागराचा घोंटु भरावा ? । कीं पर्वताचा घांसु करावा ? ।
ब्रह्मकटाहो घालावा । आघवाचि दाढे ॥ 430 ।।
मानों आप एक-एक सागर एक घूँट के समान पी रहे हों। एक-एक पर्वत आप निवाला जैसे खा रहे हों और अपने दाँतों के बीच सारा ब्रह्माण्ड चूर्ण कर रहे हों ऐसा मुझे लग रहा है।
यह ज्ञानेश्वर महाराज का किया हुआ वर्णन है। वे आगे लिखते हैं।
दिशा सगळियाचि गिळाविया । चांदिणिया चाटूनि घ्याविया ।
ऐसें वर्तत आहे साविया । लोलुप्य बा तुझें ॥ 431 ।।
सारी दिशाओं को आप खा रहे हैं। मुझे कोई दिशा समझ में नहीं आ रही है। कहाँ पूरब है और कहाँ पश्चिम है? मुझे समझ में नहीं आ रहा है।
दिशो न जाने न लभे च शर्म,
ऐसा लग रहा आप सारी दिशाएँ खाए जा रहे हों, सारे ग्रह, नक्षत्र, चाँदनियाँ सब चाट-चाट कर खाए जा रहे हों। आपको ऐसी भूख लगी है कि आप सारा विश्व ही खाए जा रहे हो।
वे आगे लिखते हैं।
तैसी खातखातांचि तोंडें । खाखांतें ठेलीं ॥ 432 ॥
कैसें एकचि केवढें पसरलें । त्रिभुवन जिव्हाग्रीं आहे टेकलें ।
जैसें कां कवीठ घातलें । वडवानळीं ॥ 433॥
कवठ नाम का सन्तरे जैसा छोटा एक खट्टा-मीठा फल होता है। ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं आपका मुख इतना प्रचण्ड है, ऐसा लग रहा है कि आपके जिह्वाग्र पर यह सारा ब्रह्माण्ड आ गया है और वह ऐसा लग रहा है जैसे सारे पहाड़, जङ्गल को आग लगी हो और उसमें एक छोटा कवठ का फल जैसा लग रहा यह ब्रह्माण्ड गिरा है। इतना विशाल रूप अर्जुन ने देखा है। अब अर्जुन पूछ रहे हैं आप मेरे कृष्ण नहीं दिख रहे हो, आप कौन हो? बताओ।
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो,
नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं(न्),
न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्॥11.31॥
मुझे यह बताइये कि उग्र रूपवाले आप कौन हैं? हे देवताओंमें श्रेष्ठ! आपको नमस्कार हो। (आप) प्रसन्न होइये। आदिरूप आपको (मैं) तत्त्व से जानना चाहता हूँ; क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्तिको भलीभांति नहीं जानता।
विवेचन- अर्जुन कहते हैं हे! भगवान यह उग्र रूप धारण करने वाले आप कौन हो? मुझे बताओ। ये मुझे श्रीभगवान नहीं लग रहे हैं, ये कोई और ही लग रहे हैं। हे देव श्रेष्ठ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आप मेरा प्रणाम स्वीकार करें। मुझ पर कृपा करें, आप मुझे बताएँ कि आप कौन हैं? मैं आपको जानना चाहता हूँ। अभी भी अर्जुन में ज्ञान लालसा समाप्त नहीं हुई है।
श्रीभगवान के चार प्रकार के भक्त होते हैं।
श्रीभगवान के चार प्रकार के भक्त होते हैं।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।
आर्त, जिज्ञासु, सुरार्थी और ज्ञानी।
जानने की इच्छा, जिज्ञासा श्रीभगवान की भक्ति है। आर्तता अर्थात् जब हम सङ्कट में आ जाते हैं तो श्रीभगवान को याद करते हैं, यह भी एक भक्ति है। अर्जुन की जिज्ञासा इस कठिन परिस्थिति में भी समाप्त नहीं हुई है। वे जानना चाहते हैं कि आपका आदि क्या है? आप कहाँ से आए हैं और इस समय क्या करने के लिए प्रवृत्त हुए हैं? यह सब मुझे समझ में नहीं आ रहा है। मैं यह सब जानना चाहता हूँ। कृपा कर मुझे बताइए।
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं, अर्जुन को लगा था कि मैं आपका, श्रीभगवान का विश्वरूप देख लूँगा तो सब कुछ ठीक हो जाएगा।
जानने की इच्छा, जिज्ञासा श्रीभगवान की भक्ति है। आर्तता अर्थात् जब हम सङ्कट में आ जाते हैं तो श्रीभगवान को याद करते हैं, यह भी एक भक्ति है। अर्जुन की जिज्ञासा इस कठिन परिस्थिति में भी समाप्त नहीं हुई है। वे जानना चाहते हैं कि आपका आदि क्या है? आप कहाँ से आए हैं और इस समय क्या करने के लिए प्रवृत्त हुए हैं? यह सब मुझे समझ में नहीं आ रहा है। मैं यह सब जानना चाहता हूँ। कृपा कर मुझे बताइए।
ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं, अर्जुन को लगा था कि मैं आपका, श्रीभगवान का विश्वरूप देख लूँगा तो सब कुछ ठीक हो जाएगा।
मियां होआवया समाधान । जी पुसिलें विश्वरूपध्यान ।
आणि एकेंचि काळें त्रिभुवन । गिळितुचि उठिलासी ॥ 446
तरी तूं कोण कां येतुलीं । इयें भ्यासुरें मुखें कां मेळविलीं । 447
परन्तु आप तो पूरा ब्रह्माण्ड उठा लाए हैं, इतने विलक्षण आप कौन हैं? ऐसा भयावह रूप, ऐसा मुख क्यों धारण किया है?
आघवियाचि करीं परिजिलीं । शस्त्रें कांह्या ॥ 447
ऐसे भयङ्कर शस्त्र आपने क्यों धारण किये हैं? आप कौन हैं? श्रीभगवान क्या उत्तर देते हैं? हम देखेंगे।
श्रीभगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो,
लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।
ऋतेऽपि त्वां(न्) न भविष्यन्ति सर्वे,
येऽवस्थिताः(फ्) प्रत्यनीकेषु योधाः॥11.32॥
श्रीभगवान् बोले - (मैं) सम्पूर्ण लोकोंका नाश करनेवाला बढ़ा हुआ काल हूँ (और) इस समय (मैं) (इन सब) लोगोंका संहार करनेके लिये (यहाँ) आया हूँ। (तुम्हारे) प्रतिपक्षमें जो योद्धालोग खड़े हैं, (वे) सब तुम्हारे (युद्ध किये) बिना भी नहीं रहेंगे।
विवेचन- श्रीभगवान ने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात यहाँ बता दी है। उहोंने बताया, मैं काल हूँ। काल जिसका आदि, अन्त कोई नहीं जानता है। जिसके वश में आकर कौन कहाँ चले जाते हैं, पता नहीं चलता है। काल के वश में आकर कितने ही इस नरलोक के वीर कहाँ चले गए, आज उनका कोई अता-पता नहीं है। यह काल का प्रवाह है। अर्जुन ने पूछा आप किसलिए आए हैं?
श्रीभगवान कहते हैं, मैं इहलोक में सारे लोगों को समाप्त कर देने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ, क्योंकि इनका समय समाप्त हो गया है। इन्हें अब जाना है। उनमें भी विशेष रूप से अपने प्रतिपक्ष के जो योद्धा तुम देख रहे हो, उनको समाप्त करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ। तुमने कुछ भी नहीं किया, तब भी इनमें से कोई रहने वाला नहीं है। यहाँ श्रीभगवान अर्जुन का सारा अहङ्कार समाप्त करते हैं। जैसा श्रीभगवान ने अर्जुन का अहङ्कार समाप्त किया, वैसे ही हमारा भी समाप्त हो जाय क्योंकि हम कोई छोटा सा भी कार्य करते हैं या उसमें प्रवृत्त होते हैं तो हमें लगता है कि यह मैं करूँगा, मैंने ऐसा किया।
श्रीभगवान ने अर्जुन को कहा कि तुम कहते हो कि ये सब मेरे आप्त स्वजन हैं, मैं इन्हें कैसे मारूँगा? मैं इन्हें मारूँगा तो ये मर जाएँगे। अर्जुन ने पहले ही अध्याय में यह सब कहा है। श्रीभगवान कहते हैं, अरे! तुम कुछ भी नहीं करोगे तब भी ये सब समाप्त होने वाले हैं। काल के सामने कोई टिकने वाला नहीं है। तुमने एक भी बाण नहीं चलाया तब भी तुम्हारे सामने उपस्थित कोई योद्धा रहने वाला नहीं है।
हम विजयी होते हैं तो हमें लगता हैं कि हम अच्छा खेले इस कारण जीत गए। श्रीभगवान ने दिखाया, तुम कुछ भी नहीं करोगे तब भी जो होने वाला है, वह होगा। इस श्लोक का अर्थ हमें कैसे लेना है? इसे समझना है, श्रीभगवान ने अगले श्लोक में इसका स्पष्टीकरण दिया है। जो होने वाला है, वह तो होने वाला है। इस पर निराशावादी लोग कहते है, जो होनेवाला है, वह तो होनेवाला है फिर हम क्यों कुछ करें? श्रीभगवान को जो करना है, वह करेंगे ही फिर हम क्यों कष्ट उठाएँ? हमें भोजन मिलने वाला है तो खाट पर बैठे हुए भी मिल जाएगा।
मराठी में इस पर एक कहावत है।
श्रीभगवान कहते हैं, मैं इहलोक में सारे लोगों को समाप्त कर देने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ, क्योंकि इनका समय समाप्त हो गया है। इन्हें अब जाना है। उनमें भी विशेष रूप से अपने प्रतिपक्ष के जो योद्धा तुम देख रहे हो, उनको समाप्त करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ। तुमने कुछ भी नहीं किया, तब भी इनमें से कोई रहने वाला नहीं है। यहाँ श्रीभगवान अर्जुन का सारा अहङ्कार समाप्त करते हैं। जैसा श्रीभगवान ने अर्जुन का अहङ्कार समाप्त किया, वैसे ही हमारा भी समाप्त हो जाय क्योंकि हम कोई छोटा सा भी कार्य करते हैं या उसमें प्रवृत्त होते हैं तो हमें लगता है कि यह मैं करूँगा, मैंने ऐसा किया।
श्रीभगवान ने अर्जुन को कहा कि तुम कहते हो कि ये सब मेरे आप्त स्वजन हैं, मैं इन्हें कैसे मारूँगा? मैं इन्हें मारूँगा तो ये मर जाएँगे। अर्जुन ने पहले ही अध्याय में यह सब कहा है। श्रीभगवान कहते हैं, अरे! तुम कुछ भी नहीं करोगे तब भी ये सब समाप्त होने वाले हैं। काल के सामने कोई टिकने वाला नहीं है। तुमने एक भी बाण नहीं चलाया तब भी तुम्हारे सामने उपस्थित कोई योद्धा रहने वाला नहीं है।
हम विजयी होते हैं तो हमें लगता हैं कि हम अच्छा खेले इस कारण जीत गए। श्रीभगवान ने दिखाया, तुम कुछ भी नहीं करोगे तब भी जो होने वाला है, वह होगा। इस श्लोक का अर्थ हमें कैसे लेना है? इसे समझना है, श्रीभगवान ने अगले श्लोक में इसका स्पष्टीकरण दिया है। जो होने वाला है, वह तो होने वाला है। इस पर निराशावादी लोग कहते है, जो होनेवाला है, वह तो होनेवाला है फिर हम क्यों कुछ करें? श्रीभगवान को जो करना है, वह करेंगे ही फिर हम क्यों कष्ट उठाएँ? हमें भोजन मिलने वाला है तो खाट पर बैठे हुए भी मिल जाएगा।
मराठी में इस पर एक कहावत है।
असेल माझा हरी तर देईल खाटल्यावरी;
यदि वे श्रीभगवान हैं, सबको खिलाते हैं तो मुझे भी खिलाएँगे, मै बैठा रहूँगा खटिया पर, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं लेना है। हम कुछ करें या नहीं करें जो होने वाला है होके रहेगा, यह बात सच है, इसे कोई टाल नहीं सकता है। काल में जो सत्य छुपा है वह होने ही वाला है। यहाँ श्रीभगवान ने सबको जाता हुआ दिखा दिया परन्तु अर्जुन को जाता हुआ नहीं दिखाया है।
तरी आतांचिये संहारवाहरे । तुम्हीं पांडव असा बाहिरे ।
तेथ जातजातां धनुर्धरें । सांवरिले प्राण ॥ 454
तेथ जातजातां धनुर्धरें । सांवरिले प्राण ॥ 454
पार्थ की जान में जान आ गई, चलो मैं तो रहने वाला हूँ। अर्जुन ने स्वयं को जाता हुआ नहीं देखा है, उसे विश्वास हो गया कि मैं तो अभी रहने वाला हूँ परन्तु एक महत्त्वपूर्ण बात श्रीभगवान ने अर्जुन को बताई कि तुमने कुछ भी नहीं किया तब भी इनमें से कोई रहेगा नहीं। जो होनेवाला है, वह होगा इसलिए हमें क्या करना है श्रीभगवान बताते हैं।
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व,
जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं(म्) समृद्धम्।
मयैवैते निहताः(फ्) पूर्वमेव,
निमित्तमात्रं(म्) भव सव्यसाचिन्॥11.33॥
इसलिये तुम (युद्धके लिये) खड़े हो जाओऔर यशको प्राप्त करो (तथा) शत्रुओंको जीतकर धन-धान्यसे सम्पन्न राज्यको भोगो। ये सभी मेरे द्वारा पहलेसे ही मारे हुए हैं। हे सव्यसाचिन्! अर्थात् दोनों हाथों से बाण चलानेवाले अर्जुन! (तुम इनको मारनेमें) निमित्तमात्र बन जाओ।
विवेचन- हे अर्जुन! तुम उठो और विजयी हो जाओ। विजय तुम्हारी होने वाली है यह तो मैंने तुम्हें दिखा दिया है। जो भविष्य में होने वाला है, वह श्रीभगवान ने अर्जुन को दिखाया। इस बात पर विशेष रूप से विज्ञान पढ़ने वाले लोगों को विश्वास नहीं होता। जो हो गया है, भूत को किसी ने बताया वह बात अलग है लेकिन जो अभी हुआ ही नहीं है उसे कोई कैसे, बता सकता है और दिखा सकता है?
एक श्रेष्ठ वैज्ञानिक ने ही इसका उत्तर दिया है कि आने वाले काल में क्या होने वाला है? यह मनुष्य जान सकता है यदि वह प्रकाश की गति से अधिक तीव्र गति से चलता है तो भविष्य की बात को जान सकता है।
एक श्रेष्ठ वैज्ञानिक ने ही इसका उत्तर दिया है कि आने वाले काल में क्या होने वाला है? यह मनुष्य जान सकता है यदि वह प्रकाश की गति से अधिक तीव्र गति से चलता है तो भविष्य की बात को जान सकता है।
आइंस्टीन ने बताया, एक बहुत लम्बी रेलगाड़ी की कल्पना कीजिए, जिसके गार्ड के डब्बे से प्रकाश बत्ती दिखाने पर उस प्रकाश को इञ्जन तक पहुँचने में दो माह का समय लगेगा। गार्ड ने हरी बत्ती दिखाई, जिसे चालक तक पहुँचने में दो माह लगेगा। दूर ऐसी जगह बैठे आदमी को जिसे पूरी रेलगाड़ी दिख रही है(जैसे परमात्मा को सब कुछ दिखता है, वे सर्वव्यापी हैं), तो दूर बैठा आदमी यह बता सकता है कि गार्ड ने हरी बत्ती दिखाई है। दो महीने बाद चालक को हरी बत्ती दिखाई देगी और यह गाड़ी चल पड़ेगी। हमको लगता है कि हम बहुत बड़े हैं, सब कुछ करते हैं तो एकबार विश्व के आकार को समझ लेना चाहिए। इतने बड़े-बड़े तारे इतनी दूर हैं कि उनके प्रकाश को हम तक आने में कई लाख वर्ष लग जाते हैं। सूर्य का प्रकाश भी हम तक आठ मिनट में पहुँच पाता है। हम अभी जो सूर्य देखते हैं, वह सूर्य के आठ मिनट पूर्व की स्थिति होती है। इतना विस्तार है विश्व का। परमात्मा इस सम्पूर्ण विश्व को हर समय देख रहे हैं। उनको आगे दिखने वाला भी सब कुछ दिख रहा है, इसलिए उन्होंने आगे क्या होने वाला है? यह अर्जुन को दिखा दिया।
श्रीभगवान कहते हैं अर्जुन उठो, अपने शत्रुओं को जीतकर इस धरती के समृद्ध राज्य का उपभोग करो। विजय तुम्हारी है। मेरे द्वारा इनको पहले ही समाप्त किया जा चुका है। अर्जुन के लिए जो भविष्य काल है, वह श्रीभगवान के लिए भूतकाल है। श्रीभगवान स्वयं काल हैं अतः वे कालातीत हैं। अर्जुन के लिए जो भविष्य में होना है, श्रीभगवान बता रहे हैं कि वे पहले ही, भूतकाल में कर चुके हैं।
हे सव्यसाची तुमको मात्र निमित्त बनना है। अर्जुन दोनों हाथों से धनुष चला सकते हैं। अर्जुन बाएँ और दाएँ किसी भी हाथ से धनुष पकड़ कर चला सकते हैं, अतः उन्हें सव्यसाची कहा जाता है। श्रीभगवान अर्जुन को याद दिलाते हैं कि तुम सव्यसाची, श्रेष्ठ योद्धा हो, तो उठो और विजय प्राप्त करो। श्रीभगवान अर्जुन को आश्वस्त कर रहे हैं कि मैंने सब कर दिया है, तुझे मात्र निमित्त बनना है। हताश व्यक्ति को आश्वस्त करना पड़ता है। श्रीभगवान ने मात्र अर्जुन को गीता नहीं बताई है, हम सभी के लिए बताई है। उन्होंने बताया है कि कभी हताश मत होना। जो होना है वह होना है तुम कभी हताश मत होना, कार्य करते रहना। श्रीभगवान पर दृढ़ विश्वास रखना, जीत तुम्हारी होगी।
श्रीभगवान कहते हैं अर्जुन उठो, अपने शत्रुओं को जीतकर इस धरती के समृद्ध राज्य का उपभोग करो। विजय तुम्हारी है। मेरे द्वारा इनको पहले ही समाप्त किया जा चुका है। अर्जुन के लिए जो भविष्य काल है, वह श्रीभगवान के लिए भूतकाल है। श्रीभगवान स्वयं काल हैं अतः वे कालातीत हैं। अर्जुन के लिए जो भविष्य में होना है, श्रीभगवान बता रहे हैं कि वे पहले ही, भूतकाल में कर चुके हैं।
हे सव्यसाची तुमको मात्र निमित्त बनना है। अर्जुन दोनों हाथों से धनुष चला सकते हैं। अर्जुन बाएँ और दाएँ किसी भी हाथ से धनुष पकड़ कर चला सकते हैं, अतः उन्हें सव्यसाची कहा जाता है। श्रीभगवान अर्जुन को याद दिलाते हैं कि तुम सव्यसाची, श्रेष्ठ योद्धा हो, तो उठो और विजय प्राप्त करो। श्रीभगवान अर्जुन को आश्वस्त कर रहे हैं कि मैंने सब कर दिया है, तुझे मात्र निमित्त बनना है। हताश व्यक्ति को आश्वस्त करना पड़ता है। श्रीभगवान ने मात्र अर्जुन को गीता नहीं बताई है, हम सभी के लिए बताई है। उन्होंने बताया है कि कभी हताश मत होना। जो होना है वह होना है तुम कभी हताश मत होना, कार्य करते रहना। श्रीभगवान पर दृढ़ विश्वास रखना, जीत तुम्हारी होगी।
एक राजा पर सङ्कट आ गया। उसका श्रेष्ठ सेनापति, जिसपर पूरी सेना को विश्वास था उसका देहान्त हो गया। सारी सेना हतबल थी। अवसर देखकर शत्रु ने आक्रमण कर दिया। अब राजा भी हतबल हो गया, सोचने लगा ऐसे समय जब योग्य सेनापति के नहीं रहने के कारण पूरी सेना हतबल है, मै युद्ध कैसे लड़ूँगा? उसी समय राजा के पास एक संन्यासी आया। संन्यासी ने राजा से पूछा तो राजा ने बताया कि सेनापति के नहीं रहने के कारण सेना हतबल है और ऐसे समय में हमें पराभव स्वीकार करना पड़ेगा। संन्यासी ने कहा यदि तुम युद्ध में विजयी होना चाहते हो तो मैं सेनापति का दायित्व धारण करूँ? राजा ने कहा कि आप संन्यासी हैं, आप सेनापति के वस्त्र कैसे धारण करेंगे? संन्यासी बोला मैं धारण कर लूँगा, संन्यासी के लिए इसमें कोई दोष नहीं, संन्यासी के लिए सब ठीक है। राजा हतबल था, उसने स्वीकार कर लिया। तेजस्वी संन्यासी ने सेनापति के वस्त्र धारण कर लिए। वह तेजस्वी तो था ही, सेनापति के वस्त्र धारण कर और तेजस्वी लगने लगा। उसने सेना को बुलाकर सेना के सामने भाषण दिया, बोला किसी को डरना नहीं है, हम इस युद्ध में विजयी हो जाएँगे, आप चलिए मेरे साथ, युद्ध के लिए तैयार हो जाइए, परन्तु कोई सैनिक मानने को तैयार नहीं था। सभी कह रहे थे, अब हम सभी को मरना ही है, सभी हताश थे।
संन्यासी ने कहा, एक उपाय है, हमारे यहाँ एक अत्यन्त जागृत देवता हैं। सभी वहाँ चलिए। देवता की इच्छा जान लेते हैं। वहाँ जाकर संन्यासी ने कहा कि मेरे पास एक सिक्का है मैं इसे उछालूँगा, यदि पट आ गया तो मानेंगे कि देवता का सङ्केत है कि हम जीतेंगे। सिक्का उछला तो पट आ गया। सेना में हर्ष का सञ्चार हो गया, परन्तु फिर सैनिक कहने लगे ऐसा थोड़े होता है, संयोग से पट आ गया होगा। एक बार और देवता बताएं तो मानेंगे। फिर सिक्का उछाला गया, फिर पट आ गया। फिर भी कुछ लोगों ने एक बार और सिक्का उछालने की बात कही। तीसरी बार भी पट ही आया। सेना में जोश आ गया, हमला किया, शत्रु को कल्पना भी नहीं थी कि सेनापति के बिना सेना मैं इतना जोश आ सकता है? सेना युद्ध जीत गई। विजय प्राप्त करने के लिए सेना का बल वैसा ही था। मात्र मनोधैर्य समाप्त हो गया था। संन्यासी ने उनका मनोधैर्य वापस लाकर दिया।
श्रीभगवान ने भयानक दृश्य दिखा कर, शत्रु पक्ष को मरा हुआ दिखाकर अर्जुन को आश्वस्त किया कि विजय तुम्हारी है।
श्रीभगवान ने भयानक दृश्य दिखा कर, शत्रु पक्ष को मरा हुआ दिखाकर अर्जुन को आश्वस्त किया कि विजय तुम्हारी है।
गीताजी का अन्तिम श्लोक है-
यत्र योगेश्वरः कृष्णो, यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूति: ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥
18:78
18:78
जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं, जहाँ श्रीकृष्ण की आज्ञा मानने वाले धनुष-बाण लेकर सिद्ध अर्जुन हैं। मनुष्य अपने साधनों के साथ यह सोचकर खड़ा हो जाता है कि मैं श्रीभगवान का कार्य कर रहा हूँ तो उसकी विजय सुनिश्चित है। मनुष्य देह हमें क्यों प्राप्त हुई? थोड़ा सोचना है। श्रीभगवान के कार्य के लिए खड़ा होना है। श्रीमद्भगवद्गीता विजय का शास्त्र है। हम जब कोई भी कार्य यह सोच कर करते हैं कि यह श्रीभगवान का कार्य है तो सफलता निश्चित है। श्रीभगवान ने सब कर दिया, हमें मात्र सहयोग करना है।
गीता परिवार का इतना विराट कार्य खड़ा हो गया। किसी को लगता था कि इतना बड़ा हो जाएगा! वो भी करोना के काल में। आज लाखों लोग पढ़ रहे हैं, हजारों सेवी जुड़े हैं। जो सेवा दे रहे हैं, उनसे पूछिए उन्हें कैसा लग रहा है? सभी आनन्द की अनुभूति कर रहे हैं। श्रीभगवान यही अर्जुन को समझा रहे हैं।
द्रोणं(ञ्) च भीष्मं(ञ्) च जयद्रथं(ञ्) च,
कर्णं(न्) तथान्यानपि योधवीरान्।
मया हतांस्त्वं(ञ्) जहि मा व्यथिष्ठा,
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्॥11.34॥
द्रोण और भीष्म तथा जयद्रथ और कर्ण तथा अन्य सभी मेरे द्वारा मारे हुए शूरवीरोंको तुम मारो। तुम व्यथा मत करो (और) युद्ध करो। युद्ध में (तुम निःसन्देह) वैरियोंको जीतोगे।
विवेचन- ये पितामह भीष्म, गुरु द्रोण, जयद्रथ, जिनके साथ युद्ध करने में तुमको डर लग रहा है कि इन्हें कैसे मारूँ? उन्हें मैंने ही मार दिया है। इन सबको मैंने ही मार दिया है। तुम इन्हें नष्ट कर दो। ये तुम्हारे पितामह होंगे, गुरु होंगे परन्तु ये काल के प्रभाव में आ गए हैं।
गरुड़ पुराण की एक कथा है। देवताओं की एक बैठक थी। एक-एक करके सभी देवता आ गए। सभी अन्दर बैठे थे, गरुड़ जी बाहर बैठे थे। उन्होंने देखा दो पक्षी बैठे हैं, आपस में प्रेम से बात कर रहे हैं। इतने में यमराज जी आए। उन्होंने भी उन पक्षियों को देखा और फिर अन्दर चले गए। यमराज जी के जाने के बाद यमराज की दृष्टि पड़ने से भयभीत पक्षी गरुड़ जी के पास आए और बोले यमराज की दृष्टि हम पर पड़ गई है। अब हम बचेंगे नहीं, वे हमें क्रोध से भी देख रहे थे। आप कृपा करके कहीं ले जाकर छुपा दीजिए। गरुड़ जी ने दया करके उन्हें दूर हिमालय में पहुँचा दिया। बैठक के बाद यमराज जी बाहर आए तो उधर देखा जिधर पक्षी बैठे थे। पक्षी नहीं दिखे, यमराज ने गरुड़ जी से पूछा तो उन्होंने बताया आपसे भयभीत होकर, मुझसे सहायता मॉंगी तो मैंने उन्हें हिमालय में पहुँचा दिया। यमराज जी बोले यह तो आपने ठीक ही किया, जाते समय उनको यहॉं देखकर मैं सोच रहा था इस समय इनकी मृत्यु हिमालय में लिखी है तो ये यहॉं कैसे बैठे हैं? जिसकी मृत्यु जिस समय होनी है, वह टल नहीं सकती यही काल है।
श्रीभगवान अर्जुन को कहते हैं ये पितामह भीष्म, गुरु द्रोण, जयद्रथ और अन्य वीरों को मैंने मार दिया है, तुम इनका नाश कर दो। तुम्हारी विजय सुनिश्चित है। श्रीभगवान ने यही हम सभी के लिए भी कहा है। हम श्रीमद्भगवद्गीता जो श्रीभगवान का रूप है, अपने हृदय में धारण कर सारे कार्य श्रीभगवान का दिया हुआ मानकर करें तो विजय सुनिश्चित है।
अर्जुन की स्थिति यह सब देखने और सुनने के बाद क्या हुई? आगे देखते हैं।
गरुड़ पुराण की एक कथा है। देवताओं की एक बैठक थी। एक-एक करके सभी देवता आ गए। सभी अन्दर बैठे थे, गरुड़ जी बाहर बैठे थे। उन्होंने देखा दो पक्षी बैठे हैं, आपस में प्रेम से बात कर रहे हैं। इतने में यमराज जी आए। उन्होंने भी उन पक्षियों को देखा और फिर अन्दर चले गए। यमराज जी के जाने के बाद यमराज की दृष्टि पड़ने से भयभीत पक्षी गरुड़ जी के पास आए और बोले यमराज की दृष्टि हम पर पड़ गई है। अब हम बचेंगे नहीं, वे हमें क्रोध से भी देख रहे थे। आप कृपा करके कहीं ले जाकर छुपा दीजिए। गरुड़ जी ने दया करके उन्हें दूर हिमालय में पहुँचा दिया। बैठक के बाद यमराज जी बाहर आए तो उधर देखा जिधर पक्षी बैठे थे। पक्षी नहीं दिखे, यमराज ने गरुड़ जी से पूछा तो उन्होंने बताया आपसे भयभीत होकर, मुझसे सहायता मॉंगी तो मैंने उन्हें हिमालय में पहुँचा दिया। यमराज जी बोले यह तो आपने ठीक ही किया, जाते समय उनको यहॉं देखकर मैं सोच रहा था इस समय इनकी मृत्यु हिमालय में लिखी है तो ये यहॉं कैसे बैठे हैं? जिसकी मृत्यु जिस समय होनी है, वह टल नहीं सकती यही काल है।
श्रीभगवान अर्जुन को कहते हैं ये पितामह भीष्म, गुरु द्रोण, जयद्रथ और अन्य वीरों को मैंने मार दिया है, तुम इनका नाश कर दो। तुम्हारी विजय सुनिश्चित है। श्रीभगवान ने यही हम सभी के लिए भी कहा है। हम श्रीमद्भगवद्गीता जो श्रीभगवान का रूप है, अपने हृदय में धारण कर सारे कार्य श्रीभगवान का दिया हुआ मानकर करें तो विजय सुनिश्चित है।
अर्जुन की स्थिति यह सब देखने और सुनने के बाद क्या हुई? आगे देखते हैं।
सञ्जय उवाच
एतच्छ्रुत्वा वचनं(ङ्) केशवस्य,
कृताञ्जलिर्वेपमानः(ख्) किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं(म्),
सगद्गदं(म्) भीतभीतः(फ्) प्रणम्य ॥11.35॥
सञ्जय बोले - भगवान केशवका यह वचन सुनकर (भयसे) काँपते हुए किरीटधारी अर्जुन हाथ जोड़कर नमस्कार करके (और) भयभीत होते हुए भी फिर प्रणाम करके गद्गद् वाणीसे भगवान् कृष्णसे बोले।
विवेचन- श्रीभगवान की ये बाते सुनकर अर्जुन ने हाथ जोड़ लिये। अर्जुन श्रीभगवान की इन सारी बातों को देखकर काँपने लगे। बार- बार नमस्कार करने लगे और गद्गद होकर बोले।
अर्जुन उवाच
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या,
जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति,
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घा:॥11.36॥
अर्जुन बोले - हे अन्तर्यामीभगवन! आपके (नाम, गुण, लीलाका) कीर्तन करनेसे यह सम्पूर्ण जगत् हर्षित हो रहा है और अनुराग (प्रेम) को प्राप्त हो रहा है। (आपके नाम, गुण आदि के कीर्तनसे) भयभीत होकर राक्षसलोग दसों दिशाओंमें भागते हुए जा रहे हैं और सम्पूर्ण सिद्धगण आपको नमस्कार कर रहे हैं। यह सब होना उचित ही है।
विवेचन- अर्जुन कहते हैं- आज तक आपकी कृति बहुत कुछ सुनते आ रहा था, परन्तु आज मैंने प्रत्यक्ष देखा है। आपकी जो कृति अब तक सुनता रहा हूँ, वह अपने स्थान पर सत्य है। आपको देव, दानव कोई नहीं जान सकते, आप साक्षात काल हैं। आपकी कृति, आपके स्तोत्र सुनकर पूरा जगत अत्यन्त हर्षित हो जाता हैै। वे प्रेम भी प्राप्त कर लेते हैं।
श्रीभगवान के गुणों का वर्णन जब मनुष्य सुनता है तो उसे आत्यन्तिक आनन्द प्राप्त होता है। अर्जुन यह जो गा रहे है यह श्रीभगवान की स्तुति है, स्तुति जो गाई जाती है वह स्तोत्र है। प्रेम भी प्राप्त कर लेते हैं। श्रीभगवान को प्रणाम कौन करता है और कौन डरता है? पापियों को श्रीभगवान का नाम सुनकर ही डर लगने लगता है। इस कारण जब मनुष्य को डर लगता है तो वह राम, राम, राम, राम जपने लगता है। ऐसा करने से भय भी समाप्त हो जाता है और पापी भी भाग जाते हैं। राक्षस दसों दिशाओं में भाग जाते हैं। सिद्ध, सन्त आपका गायन करने लगते हैं, प्रणाम करते हैं।
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन्,
गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास,
त्वमक्षरं(म्) सदसत्तत्परं(म्) यत्॥11.37॥
हे महात्मन्! गुरुओंके भी गुरु और ब्रह्माके भी आदिकर्ता आपके लिये (वेसिद्धगण) नमस्कार क्यों नहीं करें? (क्योंकि) हे अनन्त! हे देवेश! हे जगन्निवास! आप अक्षरस्वरूप हैं; (आप) सत् भी हैं, असत् भी हैं, (और) उनसे (सत्-असत् से) पर भी जो कुछ है (वह भी आप ही हैं)।
विवेचन- अर्जुन श्रीभगवान की जो स्तुति कर रहे हैं, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वे कहते हैं, हे महात्मा! वे सब क्यों न आपको प्रणाम करें? आप तो ब्रह्मा जी को भी उत्पन्न करने वाले हैं, उनके आदि हैं। बह्मदेव जिन्होंने इस सारे संसार की रचना की, वे भी आपसे ही उत्पन्न हुए हैं। आप सर्वश्रेष्ठ हैं। गरीयसी का अर्थ है श्रेष्ठ।
अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥
इसमें जन्मभूमि की श्रेष्ठता, महत्त्व बताया गया है। प्रभु श्रीराम अपनी जन्मभूमि का वर्णन करते हुए उसे स्वर्ग से भी श्रेष्ठ बताते हैं। भारतमाता हमारे लिए स्वर्ग से भी श्रेष्ठ हैं।
यहाँ अर्जुन गरीयसी से श्रीभगवान की श्रेष्ठता बताते हैं। हे देवेश! आप देवों के ईश हैं, आप जगन्निवास हैं। आप अक्षर हैं। जो कुछ भी सत्य है, जो कुछ भी असत्य है और जो इनसे परे है, सब आप ही हैं।
सत्य वह है जो स्थान या काल बदल जाने पर भी नहीं बदलता। ध्यान से देखने पर इस संसार में कुछ भी सत्य नहीं दिखाई देगा। हमने कहा हिमालय उतर में है, हमारे लिए यह सत्य लगता है, परन्तु हम दूसरी ओर से देखे तो सत्य नहीं रह जाता। हिमालय सत्य है, ऐसा कहते हैं तो यह सबसे नया पर्वत है, यह पृथ्वी, सौर मण्डल सबका निर्माण कुछ समय पहले हुआ है। कुछ भी अपने स्थान पर स्थिर नहीं है, सब कुछ बदल रहा है। नदी का प्रवाह सतत बदलता रहता है, वैसे ही संसार भी हर क्षण बदल रहा है, तो सत्य कैसे है? जो क्षण बीत गया वह अभी के जैसा नहीं है। आने वाला क्षण अलग है। सब कुछ बदल रहा है, मात्र एक चीज स्थाई है, वह है परिवर्तन। एक पाश्चात्य दार्शनिक का कथन है-
आप उसी नदी में दुबारा हाथ नहीं धो सकते हो।
जिस नदी में आपने हाथ धोया है, वह बह गई।
सब कुछ प्रतिक्षण बदल रहा है। आप ही सब कुछ हैं। अर्जुन आगे कह रहे हैं।
आप उसी नदी में दुबारा हाथ नहीं धो सकते हो।
जिस नदी में आपने हाथ धोया है, वह बह गई।
सब कुछ प्रतिक्षण बदल रहा है। आप ही सब कुछ हैं। अर्जुन आगे कह रहे हैं।
त्वमादिदेवः(फ्) पुरुषः(फ्) पुराण:(स्),
त्वमस्य विश्वस्य परं(न्) निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं(ञ्) च परं(ञ्) च धाम,
त्वया ततं(म्) विश्वमनन्तरूप॥11.38॥
आप (ही) आदिदेव और पुराण पुरुष हैं (तथा) आप (ही) इस संसार के परम आश्रय हैं। (आप ही) सबको जाननेवाले, जाननेयोग्य और परमधाम हैं। हे अनन्तरूप! आपसे (ही) सम्पूर्ण संसार व्याप्त है।
विवेचन- सारे देवों के आदि देव आप ही हैं। आप चैतन्य पुरुष हैं। सातवें अध्याय में हमने पुरुष और प्रकृति को देखा है। वो चैतन्य पुरुष आप ही हैं। आप अत्यन्त पुरातन हैं, अतः आप पुराण हो। पूरे विश्व के परम आश्रय आप ही हैं, आप ही परम धाम हैं। आप ही सब कुछ जानने वाले हैं, ये सारी बातें आप ही जान सकते हैं। परमात्मा कैसे हैं? यह कौन जान सकता है? उसे स्वयं परमात्मा ही जान सकते हैं। आकाश कितना बड़ा है? यह मात्र आकाश ही बता सकता है। बहुत प्रयास के बाद भी वैज्ञानिक अभी तक जान नहीं पाए हैं। अतः वेत्ता मात्र आप ही हैं। परमात्मा को जानने के लिए उनके साथ एकरूप होना पड़ता है, तब इन बातों को वह जान सकता है।
योग का अर्थ है एकरूपता, परमात्मा के साथ जब एकरूपता सधनी होगी तो सधेगी, पहले योगासन करो, प्राणायाम करो, फिर आत्मसंयम जब आ जाएगा तो ध्यान करके, समाधि अवस्था में एकरूप हो जाओगे तब उसे जान पाओगे। अर्जुन एक शब्द में कहते हैं, आप वेत्ता हो और जिसे जानना है, वह भी आप ही हो। सारे विश्व को आपने व्याप्त कर रखा है।
आगे अर्जुन को स्मरण आता है कि ये तो हमारे सखा हैं तो पहले की बातें याद करते हुए श्रीभगवान की स्तुति करते हैं, उन्हें हम अगले विवेचन में देखेंगे।
आज का विवेचन पूर्ण हुआ।
प्रश्नोत्तर सत्र।
प्रश्नकर्ता- गौरी रवीन्द्र महाजन दीदी
प्रश्न- प्राकृतिक आपदा क्या है?
उत्तर- ग्यारहवें अध्याय में आपने जो पढ़ा है, प्राकृतिक आपदा उसका ही साक्षात् अनुभव है। जैसा सुनामी तूफान के समय मछलीपत्तनम् नगर का वर्णन किया है, यह अध्याय हमें सभी प्राकृतिक आपदाओं और मानव निर्मित आपदाओं की ओर इङ्गित करता है।
जो सुन्दर और मनोहर है, केवल वही ईश्वर नहीं हैं, सब कुछ जो भी घटित हो रहा है, सभी प्रभु की लीला है। श्रीभगवान द्वारा रचित प्रकृति ही सब कुछ कर रही है। श्रीभगवान सर्वत्र व्याप्त हैं, किन्तु वे स्वयं कुछ नहीं करते हैं। इस अध्याय में श्रीभगवान बता रहे हैं कि प्रकृति में होने वाली घटनाओं को हम स्वीकार करें। सुनामी, कॉरोना, महामारी, अन्य घटनाएँ या दुर्घटनाएँ, इन्हें हम स्वीकार करें। जो होने वाला है, वह होने ही वाला है। उसकी चिन्ता न करते हुए, हम वर्तमान में जीवन व्यतीत करें। इस समय मेरा कर्त्तव्य क्या है? यह विचार करें कि श्रीभगवान ने हमें किस कार्य हेतु यहॉं भेजा है!
जो होने वाला है, उससे डरो मत, अपितु उससे लड़ो। श्रीभगवान ने अर्जुन को यही सिखाया है। प्राकृतिक आपदाओं के माध्यम से हमें भी यही सिखा रहे हैं।
गीता पढ़ें, पढ़ायें, जीवन में लायें!
हमें चलते रहना है।
चरैवेति! चरैवेति!! चरैवेति!!!
यह श्रीमद्भगवद्गीता का सन्देश है।
प्रश्नकर्ता- रुक्मिणी दीदी
प्रश्न- व्यक्ति विशेष पर किसी देवी देवता का प्रभाव आना सत्य है या असत्य?
उत्तर- जिस किसी व्यक्ति को ऐसे देवी-देवता का अनुभव होता हो, उन्हें ऐसा होने दें। हमें श्रीमद्भगवद्गीता को अपने जीवन में लाना है। श्रीमद्भगवद्गीता का आचरण जीवन में आने से ऐसे विचार स्वत: समाप्त हो जाएँगे। हमारे लिए श्रीमद्भगवद्गीता साक्षात् परमात्मा है।
जयतु जयतु गीता वाङ्मयी कृष्णमूर्ति:
यह शब्दों के रूप में भगवान श्रीकृष्ण ही हैं। इसमें जैसे बताया वैसे आचरण में लाएँगे, तो हमें अपना स्वयं का अनुभव होगा। दूसरों को जैसा अनुभव होता है, उन्हें वैसा अनुभव लेने दें। हम अपना स्वयं का अनुभव लें। ऐसा भाव रखें कि श्रीभगवान के लिए कर्त्तव्य निर्वहन करना है। श्रीमद्भगवद्गीता से हमें श्रीभगवान के सान्निध्य का अनुभव मिलेगा। यह सारा अनुभव का शास्त्र है, स्वयं ही अनुभव लेना है।
प्रश्नकर्ता- तनुश्री दीदी
प्रश्न- क्या सूर्यदेव को भी गीता का ज्ञान दिया था?
उत्तर- यह ज्ञान श्रीभगवान पहले सूर्यदेव को प्राचीनकाल में बता चुके हैं। अर्जुन को ही पहली बार बताया हो, ऐसा नहीं है।
श्रीभगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेઽब्रवीत्॥4:1॥
श्रीभगवान ने सूर्य को बताया, सूर्य ने मनु को बताया, मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को बताया। पृथ्वी पर राजर्षियों ने इसे जाना। परम्परा रूप में बहुत काल तक चलते हुए लुप्त हो गया। यह हमारा भारत ही है।
भारत भूचि पवित्र ठेवण पुत्र तियेचे गेले विसुरन।
हमारे देश में यह ज्ञान आज से नहीं, अपितु हजारों वर्षों से है, किन्तु हम इस ज्ञान को भूल गये। चौथे अध्याय में साक्षात् श्रीभगवान ही बता रहे हैं। वे कहते हैं कि अर्जुन मैंने पहले बताया था, फिर बता रहा हूँ, क्योंकि तुम मुझे अत्यन्त प्रिय हो।
प्रश्नकर्ता- उपेन्द्रनाथ मिश्र भैया
प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता ऑंखों देखा हाल है या कि पूर्व घटना का वर्णन है?
उत्तर- धृतराष्ट्र ने जो पूछा है और सञ्जय ने जो बताया है, वह पूर्व घटित घटनाओं का वर्णन है। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद को महर्षि वेदव्यास जी ने लिपिबद्ध किया। जो संवाद पूर्व में हो चुका था, उसी को वेदव्यास जी ने श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में हमें दिया है। धृतराष्ट्र ने सञ्जय से पूछा -
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥1:1॥
किम् अकुर्वत में अकुर्वत भूतकाल का शब्द है। धृतराष्ट्र ने पूछा कि मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया? वह मुझे बताओ। युद्धभूमि में जो कुछ हो चुका था, वह ही सञ्जय ने धृतराष्ट्र के समक्ष वर्णन किया है। भूतकाल से वर्णन आरम्भ हुआ और आगे वर्तमान आ गया। सञ्जय ने सीधी बात धृतराष्ट्र को बता दी है। अन्त में कहा कि जहॉं भगवान श्रीकृष्ण हैं और धनुर्धारी अर्जुन हैं, वहॉं पर विजय होना सुनिश्चित है। यह बात सञ्जय ने युद्ध समाप्त होने से पहले कही है इसलिए यह वर्तमान का ही वर्णन है।
प्रश्नकर्ता- विलास मोहरिर
प्रश्न- विष्णु सहस्रनाम श्रीमद्भगवद्गीता से पहले का है या बाद का?
उत्तर- श्रीविष्णु सहस्रनाम में युधिष्ठिर ने श्रीविष्णु भगवान के एक हजार नाम लिये हैं। भीष्म युधिष्ठिर का यह संवाद श्रीमद्भगवद्गीता के संवाद से पहले का है? या बाद का? इससे अन्तर नहीं पड़ता। एक हजार नौकाएँ हैं, श्रीभगवान तक पहुॅंचाने के लिए। किसी में भी बैठकर पहुँच सकते हैं।
युधिष्ठिर उवाच
किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम् ।
स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् ॥ 2 ॥
प्रश्नकर्ता- विनिता राजपुरोहित दीदी
प्रश्न- पूजा में अगरबत्ती जलानी चाहिए या नहीं?
उत्तर- यह कर्मकाण्ड का प्रश्न है। ऐसा कहा जाता है कि अगरबत्ती में बॉंस होता है, इसलिए उसे जलाना नहीं चाहिए। वस्तुत: अपनी-अपनी श्रद्धा की बात है।
श्रद्धावॉंल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। 4:39
सात्त्विक श्रद्धा रखिए। सत्रहवें अध्याय में श्रद्धा का वर्णन आया है। आप जिन वैदिक पुरोहित जी से देवी देवताओं का पूजन करवाते हैं, उनसे इस प्रश्न का समाधान ले सकते हैं। वैदिक शास्त्रों का अध्ययन करने वाले वैदिक पण्डित शास्त्रानुसार जैसा कहें, उनकी आज्ञानुसार वैसा ही करना चाहिए।
श्रीभगवान ने स्वयं कहा है-
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥16:24॥
कार्य क्या है? अकार्य क्या है? शास्त्र ही इसका प्रमाण हैं। यहॉं शास्त्र का अर्थ वेदशास्त्रों से है। उन्हीं से पता चलता है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए?
यथाशक्ति कर सकते हैं। मानस पूजा भी की जाती है -
शिव मानस पूजा
रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं।
नाना रत्न विभूषितम् मृग मदामोदांकितम् चंदनम॥
जाती चम्पक बिल्वपत्र रचितं पुष्पं च धूपं तथा।
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितम् गृह्यताम्॥1॥
हृदय में कल्पना करके भी हम श्रीभगवान का पूजन और धूप-दीप कर सकते हैं, तथापि प्रत्यक्ष धूप-दीप भी करना चाहिए। श्रद्धापूर्वक जो भी अर्पित करें, श्रीभगवान स्वीकार करते हैं।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥9:26॥
जिस भाव से अर्पण किया गया है, श्रीभगवान उसी भाव से ग्रहण करते हैं।