विवेचन सारांश
अनन्य भक्ति के द्वारा परमात्मा से एकरूपता

ID: 6372
हिन्दी
रविवार, 09 फ़रवरी 2025
अध्याय 9: राजविद्याराजगुह्ययोग
3/3 (श्लोक 20-34)
विवेचक: गीताव्रती श्रीमती श्रुति जी नायक


पारम्परिक दीप प्रज्वलन और गुरु वन्दना के साथ आज का विवेचन सत्र प्रारम्भ हुआ। पिछले दो सत्रों में हमने देखा था कि किस तरह श्रीभगवान अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को गूढ़तम रहस्य का ज्ञान देना प्रारम्भ करते हैं। यह ज्ञान सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है जिसे पाने के बाद और कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम विद्यालय जाना ही बन्द कर दें, इस ज्ञान को पाकर भी हमें अपने-अपने काम करते रहना है।

श्रीभगवान आगे कहते हैं कि सूर्य का तेज, वर्षा, मृत्यु और सत्य-असत्य सब कुछ वही हैं। वे सब में होते हुए भी कहीं नहीं हैं।
अब श्रीभगवान विभिन्न प्रकार के भक्तों की चर्चा करते हैं।

9.20

त्रैविद्या मां(म्) सोमपाः(फ्) पूतपापा,
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं(म्) प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकम्,
अश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्।।9.20।।

तीन वेदों में कहे हुए सकाम अनुष्ठान को करने वाले (और) सोमरस को पीने वाले (जो) पाप रहित मनुष्य यज्ञों के द्वारा (इन्द्ररूप से) मेरा पूजन करके स्वर्ग-प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं, वे (पुण्यों के फलस्वरूप) पवित्र इन्द्रलोक को प्राप्त करके (वहाँ) स्वर्ग में देवताओं के दिव्य भोगों को भोगते हैं।

विवेचन- अगले दोनों श्लोक त्रिष्टुप छ्न्द में हैं।
जो भक्त तीनों वेदों को जानते हैं और यज्ञ कर स्वर्ग की कामना करते हुए श्रीभगवान को पूजते हैं, श्रीभगवान उनकी इच्छा अवश्य पूर्ण करते हैं।

प्रश्न- वेद कितने हैं?
उत्तर- चार वेद हैं- 
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।
प्रारम्भ में एक ही वेद था जो एक मोटी पुस्तक के रूप में था। महर्षि वेदव्यास जी ने सोचा कि इतनी बड़ी और मोटी पुस्तक देखकर सब डर जाएँगे और कोई उसे नहीं पढ़ेगा, इसलिए उन्होंने वेद को चार भागों में बाँटकर लिखा।

प्रश्न- स्वर्ग कैसा होता होगा?
उत्तर-
स्वर्ग की कल्पना एक पाँच सितारा (five star) होटल से कर सकते हैं। जहाँ सभी प्रकार की सुविधाएँ होती हैं। जिसे जो चाहिए, जैसा चाहिए, खाना मिलता है। लेकिन वहाँ ज्यादा समय तक नहीं रह सकते, मन ऊब जाता है। 

स्वर्ग में पहुँचकर व्यक्ति को सोम नामक वनस्पति का रस पीकर शक्ति मिलती है और उसे भूख भी नहीं लगती। सोमरस पीकर उनके पाप नष्ट हो जाते हैं और उनके पुण्य का फल मिल जाता है। स्वर्ग में सभी सुख-सुविधाएँ होती हैं लेकिन श्रीभगवान नहीं मिलते।

9.21

ते तं(म्) भुक्त्वा स्वर्गलोकं(व्ँ) विशालं(ङ्),
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं(व्ँ) विशन्ति।
एवं(न्)  त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना,
गतागतं(ङ्) कामकामा लभन्ते॥9.21॥

वे उस विशाल स्वर्गलोक के (भोगों को) भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदों में कहे हुए सकाम धर्म का आश्रय लिये हुए भोगों की कामना करने वाले मनुष्य आवागमन को प्राप्त होते हैं।

विवेचन- स्वर्ग लोक में मनुष्य उनके पुण्य का फल समाप्त होने तक रह सकते हैं और वहाँ का आनन्द ले सकते हैं, परन्तु पुण्य समाप्त होते ही उन्हें पुनः भू-लोक लौटना पड़ता है। इस प्रकार वे जन्म-मरण के चक्र से मुक्त नहीं हो पाते। 

एक उदाहरण द्वारा इस बात को समझ सकते हैं।
जैसे हमें किसी माॅल (mall) के खेल क्षेत्र (play zone) में खेलने के लिए एक कार्ड में पैसे जमा करने होते हैं और हम तभी तक खेल सकते हैं जब तक कार्ड में पैसे रहते हैं, उसके बाद यदि और खेलना हो तो फिर पैसे जमा करना पड़ते हैं अन्यथा हम नहीं खेल सकते।
यह कहा जा सकता है कि स्वर्ग लोक हमारा अन्तिम गन्तव्य (ultimate destination) नहीं है। 

9.22

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां(य्ँ), ये जनाः(फ्) पर्युपासते।
तेषां(न्) नित्याभियुक्तानां(य्ँ), योगक्षेमं(व्ँ) वहाम्यहम्॥9.22॥

जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए (मेरी) भली भांति उपासना करते हैं, (मुझ में) निरन्तर लगे हुए उन भक्तों का योगक्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा) मैं वहन करता हूँ।

विवेचन- जो भक्त निष्काम भाव से सदा भगवत्स्मरण करते हैं, सदा श्रीभगवान को भजते हैं उन्हें अनन्य भक्त कहते हैं। ये भक्त श्रीभगवान को अत्यन्त प्रिय होते हैं। ऐसे भक्तों को किसी भी बात की चिन्ता नहीं करनी पड़ती क्योंकि उनकी देखभाल स्वयं श्रीभगवान करते हैं। ईश्वर अपने भक्तों की सहायता किसी माध्यम द्वारा भी करते हैं, हमें यह बात समझना चाहिए, वरना हमारी स्थिति भी उस भक्त के समान हो जाएगी जो श्रीभगवान की सहायता की प्रतीक्षा करते हुए बाढ़ में डूब गया।

कहानी कुछ इस प्रकार है-

एक गाँव में एक बार बड़ी  भयानक बाढ़ आई थी, सब लोग अपने प्राण बचाने के लिए गाँव से भाग रहे थे। परन्तु एक व्यक्ति ऐसा था जिसने किसी की बात नहीं सुनी और न ही स्वयं को बचाने का प्रयास किया क्योंकि वह श्रीभगवान का अनन्य भक्त था और जानता था कि श्रीभगवान उसकी रक्षा अवश्य करेंगे। वह एक ऊँचे पेड़ पर चढ़ कर बैठ गया और श्रीभगवान की प्रतीक्षा करने लगा। बाढ़ से बचने के लिए सरकार ने नौकाओं की व्यवस्था की थी, उस व्यक्ति ने उसे अनदेखा कर दिया। तभी लकड़ी का एक बड़ा टुकड़ा पानी में बहता हुआ उसके पास आया, फिर एक हेलिकॉप्टर से उसकी सहायता के लिए रस्सी फेंकी गई, उसने वह भी नहीं पकड़ी क्योंकि वह तो श्रीभगवान की राह देख रहा था। धीरे-धीरे पानी का स्तर बढ़ता गया और वह व्यक्ति पानी में डूबने लगा तब उसने श्रीभगवान को पुकारा और पूछा कि वे उसे बचाने क्यों नहीं आए? आकाशवाणी हुई कि "भक्त, मैंने तो तुम्हें बचाने के लिए कई साधन भेजे थे पर तुम मुझे पहचान नहीं सके।"

9.23

येऽप्यन्यदेवता भक्ता, यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेऽपि मामेव कौन्तेय, यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।9.23।।

हे कुन्तीनन्दन! जो भी भक्त (मनुष्य) श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओं का पूजन करते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, (पर करते है) अविधिपूर्वक अर्थात् देवताओं को मुझसे अलग मानते हैं।

विवेचन- बच्चों की रुचि विवेचन में बनी रहे इसलिए उनसे प्रश्न पूछे गए।

प्रश्न- कौन्तेय किसे कहा जाता है?
उत्तर- अर्जुन को कौन्तेय कहते हैं।

प्रश्न- अर्जुन को कौन्तेय क्यों कहते हैं?
उत्तर- वे माता कुन्ती के पुत्र थे इसलिए उन्हें कौन्तेय कहा जाता है।

सत्रहवें अध्याय में हमने देखा था कि सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों के प्रभाव में रहकर श्रद्धा और भक्ति से या सकाम भाव से जो अपने इष्ट देव की पूजा करते हैं उन्हें परमात्मा ही प्राप्त होते हैं, अतः यह समझना आवश्यक है कि परमात्मा एक ही हैं किसी भी रूप में पूजा की जा सकती है।

पुनः प्रश्न पूछे गए।
प्रश्न- हमारी कितनी इन्द्रियाँ हैं?
उत्तर- हमारी पाँच इन्द्रियाँ हैं जिन्हें पञ्चेन्द्रियाँ कहते हैं।

प्रश्न- पञ्चेन्द्रियाँ कौन-कौन सी हैं? 
उत्तर- नाक, कान, आँखें, जिव्हा तथा त्वचा।

प्रश्न- इन इन्द्रियों का प्रभाव किस पर होता है?
उत्तर- इनका प्रभाव हम पर ही होता है। जैसे देवान्शी अपनी आँखों से देखती है, कानों से सुनती है।

हम शक्ति के लिए हनुमानजी की पूजा करते हैं।
विद्या-बुद्धि के लिए गणेश जी या माता सरस्वती को पूजते हैं, परन्तु किसी भी देवता की पूजा परमात्मा को ही प्राप्त होती है।

9.24

अहं(म्) हि सर्वयज्ञानां(म्), भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति, तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते।।9.24।।

क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी भी मैं ही हूँ; परन्तु वे मुझे तत्त्व से नहीं जानते, इसी से उनका पतन होता है।

विवेचन-  हम अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए अपने इष्ट देव की पूजा करते हैं, यज्ञ करते हैं तो उसके भोक्ता परमात्मा ही हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता पढ़कर हम धीरे-धीरे यह बात जानने लगे हैं। परन्तु कुछ भक्त श्रीभगवान को तत्त्व से नहीं जानते जिससे उनका पतन होता है अर्थात् उन्हें श्रीभगवान नहीं मिलते और उनका पुनर्जन्म होता रहता है।

9.25

यान्ति देवव्रता देवान्, पितॄन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या, यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।9.25।।

(सकाम भाव से) देवताओं का पूजन करने वाले (शरीर छोड़ने पर) देवताओं को प्राप्त होते हैं। पितरों का पूजन करने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतों का पूजन करने वाले भूत-प्रेतों को प्राप्त होते हैं। (परन्तु) मेरा पूजन करने वाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।

विवेचन- सत्रहवें अध्याय में हमने देखा था कि देवताओं की पूजा करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को और भूत-प्रेतों को पूजने वाले भूत-प्रेतों को ही प्राप्त होते हैं। परन्तु जो श्रीभगवान की पूजा करते हैं वे श्रीभगवान को प्राप्त होते हैं जो कि अन्तिम गन्तव्य है और उन्हें बार-बार जन्म नहीं लेना पड़ता।

9.26

पत्रं(म्) पुष्पं(म्) फलं(न्) तोयं(य्ँ), यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं(म्) भक्त्युपहृतम्, अश्नामि प्रयतात्मनः॥9.26॥

जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य एवं अनायास प्राप्त वस्तु) को प्रेमपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस (मुझमें) तल्लीन हुए अन्तःकरण वाले भक्त के द्वारा प्रेमपूर्वक दिये हुए उपहार (भेंट) को मैं खा लेता हूँ अर्थात् स्वीकार कर लेता हूँ।

विवेचन- यह इस अध्याय का महत्त्वपूर्ण श्लोक है। 

प्रश्न - पत्रं, पुष्पं, फलं, तोयं, संस्कृत पढ़ने वाले विद्यार्थी इन शब्दों का अर्थ बताएँ।
उत्तर - पत्र - तुलसी (leaf)
पुष्पं - फूल (flowers)
फलं - फल (fruits)
तोयं - पानी (water)

श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि यदि किसी भक्त के पास उन्हें चढ़ाने के लिए कुछ नहीं है तो मात्र एक पत्ता, फूल, फल या केवल पानी भी भक्ति भाव से चढाएँगे तो वे उसे भी स्वीकार करते हैं। इसीलिए हम शिवजी को बिल्वपत्र, श्रीकृष्ण को तुलसी पत्र और गणेश जी को दुर्वा चढ़ाते हैं।

श्रीभगवान भक्ति और प्रेम के भूखे हैं। हमारी पूजा में भक्ति भाव होना चाहिए। इस बात को दुर्योधन, विदुर और सुदामा के उदाहरण से अच्छी तरह समझ सकते हैं।

हम सभी जानते हैं कि जब भगवान श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर सन्धि प्रस्ताव लेकर दुर्योधन के पास गए और पाण्डवों को पाँच राज्य वापस करने की बात कही तो दुर्योधन ने कहा कि "पाँच राज्य तो क्या, वह सुई की नोंक के बराबर भूमि भी नहीं देंगे" और श्रीकृष्ण की बात नहीं मानी। इसलिए श्रीकृष्ण ने दुर्योधन के साथ भोजन नहीं किया और बिना बुलाए ही दुर्योधन के चाचा विदुर के घर जाकर भोजन किया क्योंकि विदुर श्रीकृष्ण के परम् भक्त थे।

सुदामा और श्रीकृष्ण की मित्रता सबको पता है। दोनों बाल मित्र थे। सुदामा अत्यन्त गरीब थे और सहायता माँगने श्रीकृष्ण के पास मथुरा गए थे। उनके पास श्रीकृष्ण को भेंट में देने के लिए थोड़े से पोहे थे जो उन्होंने अपने फटे हुए अँगोछे में बाँधे थे। इसलिए श्रीकृष्ण को देने में सङ्कोच कर रहे थे। जैसे ही भगवान श्रीकृष्ण को यह पता चलता है तो उन्होंने सुदामा के हाथों से पोहे छीन कर खा लिए।

हम देख सकते हैं कि श्रीभगवान प्रेम और भक्ति के भूखे हैं। सच्चे भक्त को उन्हें बुलाना नहीं पड़ता, वे भाव जानकर ही आ जाते हैं।

9.27

यत्करोषि यदश्नासि, यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय, तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।9.27।।

हे कुन्तीपुत्र ! (तू) जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है (और) जो कुछ तप करता है, वह (सब) मेरे अर्पण कर दे।

9.27 writeup

9.28

शुभाशुभफलैरेवं(म्), मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा, विमुक्तो मामुपैष्यसि।।9.28।।

इस प्रकार (मेरे अर्पण करने से) कर्म बन्धन से और शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मों के फलों से (तू) मुक्त हो जायगा। ऐसे अपने सहित सब कुछ मेरे अर्पण करने वाला (और) सबसे सर्वथा मुक्त हुआ (तू) मुझे प्राप्त हो जायगा।

विवेचन- श्रीभगवान अपने भक्तों द्वारा भक्ति  से समर्पित की गई कोई भी वस्तु स्वीकार करते हैं। परन्तु यदि हम वह भी नहीं कर सकते तो हम जो भी काम करते हैं, उसे श्रीभगवान का स्मरण करते हुए करें तो वह भी श्रीभगवान को स्वीकार्य है।

प्रश्न
- बच्चे क्या-क्या करते हैं?
उत्तर- वे पाठशाला (school) जाते हैं। पढ़ाई करते हैं, घर में माता-पिता का हाथ बँटाते हैं।
यदि यह सारे काम श्रीभगवान को स्मरण करते हुए करें तो वे हमेशा हमारे साथ रहेंगे।

बारहवें अध्याय में  श्रीभगवान यही कहते हैं-

एवं सततयुक्ता ये, भक्तास्त्वां पर्युपासते।।12·01।।

जब हम खाना खाते हैं तो एक निवाला श्रीभगवान के लिए निकाल कर रखना चाहिए, हो सकता है श्रीभगवान आकर उसे खा लें। हम उनको देख तो नहीं सकते परन्तु उनकी उपस्थिति को जान सकते हैं।

दान देते हुए यह सोचकर देना चाहिए कि हम जो कुछ भी दे रहे हैं वह श्रीभगवान का दिया हुआ है।
ऐसा करने से क्या होगा?
ऐसा करने से हम शुभ और अशुभ कर्मफलों से मुक्त हो सकते हैं। 
अपना सबकुछ श्रीभगवान को अर्पित करने से हम परमात्मा से एकरुप होकर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।

9.29

समोऽहं(म्) सर्वभूतेषु, न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां(म्) भक्त्या, मयि ते तेषु चाप्यहम्।।29।।

मैं सम्पूर्ण प्राणियों में समान हूँ। (उन प्राणियों में) न तो कोई मेरा द्वेषी है (और) न कोई प्रिय है। परन्तु जो प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मुझ में हैं और मैं भी उनमें हूँ।

विवेचन- श्रीभगवान आगे कहते हैं कि वे सभी चराचर जीवों में समान रूप से रहते हैं। वे न तो किसी से द्वेष करते हैं और न ही किसी से अधिक प्रेम, उनके लिए सभी जीव एक समान हैं। उनके मन में भेदभाव नहीं होता है। परन्तु, जो अच्छे कार्य करते हैं, श्रीभगवान पर श्रद्धा और भक्ति रखते हैं, वे भक्त उन्हें अत्यन्त प्रिय होते हैं।

जैसे एक माँ के लिए उसके सभी बच्चे एक जैसे प्रिय होते हैं, उसके मन में भेदभाव की भावना नहीं होती। लेकिन सब बच्चों में जो बच्चा माँ का बताया हुआ काम अच्छे से करता है, माँ की बात मानता है, उसके प्रति माँ के मन में ज्यादा प्रेम होता है।

भगवान सभी जीवों में समभाव से रहते हैं। अच्छे कार्य करने वाला व्यक्ति सभी को श्रीभगवान का स्वरूप दिखता है।

9.30

अपि चेत्सुदुराचारो, भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः(स्), सम्यग्व्यवसितो हि सः।।9.30।।

अगर (कोई) दुराचारी से दुराचारी भी अनन्य भक्त होकर मेरा भजन करता है (तो) उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।

विवेचन- यदि कोई व्यक्ति दुराचारी है परन्तु वह ज्ञान प्राप्त करने के बाद श्रीभगवान की पूजा करने लगे और निरन्तर भजन गाने लगे तो ऐसे दुराचारी को भी साधु या धर्मात्मा मानना चाहिए क्योंकि अब वह कुछ भी गलत नहीं करेगा।

9.31

क्षिप्रं(म्) भवति धर्मात्मा, शश्वच्छान्तिं(न्) निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि, न मे भक्तः(फ्) प्रणश्यति।।9.31।।

(वह) तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है (और) निरन्तर रहने वाली शान्ति को प्राप्त हो जाता है। हे कुन्तीनन्दन ! मेरे भक्त का पतन नहीं होता (ऐसी तुम) प्रतिज्ञा करो।

विवेचन- जब दुराचारी धर्मात्मा बन जाता है तो वह शीघ्र परमात्मा को प्राप्त होता है और उसे परम् शान्ति मिलती है।

प्रश्न - परम् शान्ति क्या है?
उतर - बच्चे घर में शोर मचाते हैं। वे जब बाहर खेलने जाते हैं तो कुछ देर तक घर में शान्ति रहती है, जो क्षणिक है।

श्रीभगवान को प्राप्त कर मन को मिलने वाली शान्ति चिरन्तन है, वही परम् शान्ति है।

अनन्य भक्त का पुण्य कभी समाप्त नहीं होता, यह सत्य है।
शबरी श्रीराम की अनन्य भक्त थीं। अपना सम्पूर्ण जीवन उन्होंने श्रीराम की प्रतीक्षा में व्यतीत कर दिया था। वह यही कहती रही "आएँगे आएँगे मेरे राम आएँगे"  और उनके घर श्रीराम आते हैं।

श्रीभगवान के घर देर तो हो सकती है पर अन्धेर नहीं हो सकती।

प्रश्न - क्या हमारी भक्ति भी शबरी जैसी हो सकती है? 
उत्तर - हम तो साधारण मनुष्य हैं, भोग लगाते हैं, कुछ देर प्रतीक्षा करते हैं और फिर भूख लगने पर वही भोग प्रसाद समझकर खा लेते हैं। ऐसी भक्ति से श्रीभगवान नहीं मिलते।

9.32

मां(म्) हि पार्थ व्यपाश्रित्य, येऽपि स्युः(फ्) पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रा:(स्), तेऽपि यान्ति परां(ङ्) गतिम्।।9.32।।

हे पृथानन्दन ! जो भी पाप योनि वाले हों (तथा जो भी) स्त्रियाँ, वैश्य और शूद्र (हों), वे भी सर्वथा मेरे शरण होकर निःसन्देह परमगति को प्राप्त हो जाते हैं।

विवेचन- श्रीभगवान अर्जुन को पृथानन्दन या पार्थ कहकर सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि पहले पुरुष और ब्राह्मण ही पूजा कर सकते थे, परन्तु स्त्री, वैश्य (व्यापारी) और शूद्र भी यदि भक्ति भाव से श्रीभगवान की शरण जाएँगे तो वे भी परमात्मा को प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।

9.33

किं(म्) पुनर्ब्राह्मणाः(फ्) पुण्या, भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं(म्) लोकम्, इमं(म्) प्राप्य भजस्व माम्।।9.33।।

(जो) पवित्र आचरण वाले ब्राह्मण और ऋषिस्वरूप क्षत्रिय भगवान् के भक्त हों, (वे परम गति को प्राप्त हो जायँ) इसमें तो कहना ही क्या है। (इसलिये) इस अनित्य (और) सुखरहित शरीर को प्राप्त करके (तू) मेरा भजन कर।

विवेचन- श्रीभगवान बार-बार यही कहते हैं कि जो भी भक्ति, श्रद्धा और प्रेम भाव से उनकी शरण जाएगा वह उन्हीं को प्राप्त होगा। 

श्रीभगवान अर्जुन को निमित्त बनाकर यह हमें समझा रहे हैं।  मनुष्य जन्म मिला है तो उसका सदुपयोग करो, अनन्य भक्त बनो, श्रीभगवान का स्मरण करते हुए उन्हें प्राप्त करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए।

9.34

मन्मना भव मद्भक्तो, मद्याजी मां(न्) नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवम्, आत्मानं(म्) मत्परायणः।।9.34।।

(तू) मेरा भक्त हो जा, मुझमें मन वाला हो जा, मेरा पूजन करने वाला हो जा (और) मुझे नमस्कार कर। इस प्रकार अपने-आपको (मेरे साथ) लगाकर, मेरे परायण हुआ (तू) मुझे ही प्राप्त होगा।

विवेचन- भौतिक सुख क्षणिक होते हैं। हम किसी पार्टी में जाते हैं, उसका आनन्द लेते हैं परन्तु पार्टी के बाद घर लौटना पड़ता है।
परन्तु श्रीभगवान के भक्त बनकर उनका स्मरण करेंगे तो वे सदा हमारे साथ रहेंगे। किसी भी देवता की पूजा करें उस पूजा के पीछे श्रीभगवान ही रहते हैं।

हम जब भी घर से कहीं बाहर जाते हैं तो घर के सदस्यों को बताकर जाते हैं और "टाटा, बाय, फिर मिलते हैं", कहते हैं।
ऐसे ही यदि श्रीभगवान से भी कहेंगे तो वे हमेशा हमारे साथ ही रहेंगे।
निरन्तर श्रीभगवान में आस्था, श्रद्धा रखकर भक्ति करने से हम उनके परम् भक्त बन जाएँगे।

यही वह गूढ़ रहस्य है जो श्रीभगवान ने अर्जुन के माध्यम से हमें बताया है।

यह दिखने में बहुत सरल दिखता है परन्तु हमारी साँसें रहने तक हमें निरन्तर इस बात को मानते रहना चाहिए।

बच्चों से पूछा गया कि ऐसा कौन-कौन करेगा?
सभी बच्चों ने एक साथ हामी भरी और कहा कि अभी से हम परम् भक्त बनने का प्रयास करेंगे। स्वयं कुछ खाने से पहले एक निवाला श्रीभगवान को अवश्य खिलाएँगे। 

प्रश्नोत्तर सत्र

प्रश्नकर्ता- वेद भैया 
प्रश्न- क्या स्वर्ग परम धाम नहीं है?
उत्तर- स्वर्ग हमारा वह गन्तव्य है जहाँ हम थोड़े समय के लिए आनन्द प्राप्ति के लिए जाते हैं। जैसे कि पाँच सितारा होटल। 
परम धाम तो भगवान का धाम है। जहाँ भगवान रहते हैं, जैसे बैकुण्ठ धाम-जहाँ विष्णु भगवान रहते हैं।

प्रश्नकर्ता- वेद भैया 
प्रश्न- कृपया तीसवें श्लोक का अर्थ पुनः समझा दीजिए।
उत्तर- 
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।9.30।।

अर्थात् बहुत दुराचारी व्यक्ति भी यदि भगवान को भजते हैं तो वे भी धर्मात्मा बन जाएँगे और परमात्मा को प्राप्त होंगे। जैसे वाल्मीकि जी पहले डाकू थे। भगवान नाम स्मरण से उन पर भगवान की कृपा हुई और उन्होंने रामायण लिखी।

प्रश्नकर्ता- काव्या दीदी 
प्रश्न- चार धाम की यात्रा से मोक्ष मिलता है क्या?
उत्तर- चार धाम की यात्रा से हम पुण्य अर्जित करते हैं। यह यात्रा सकाम होती है। शास्त्रों में लिखा है कि हमें चार धाम की यात्रा करनी चाहिए, इसलिए हम चार धाम यात्रा करते हैं। हम अपना अर्जित पुण्य कुछ भी भगवान से माँग कर समाप्त हो जाता है जबकि हमें भगवान से माँगना चाहिए कि जो भी भगवान हमारे लिए आप उचित समझो वो हमें आप दे दीजिए।

प्रश्नकर्ता- मान्या दीदी 
प्रश्न- गुह्य का क्या अर्थ है?
उत्तर- गुह्य का अर्थ है, रहस्य (secret) और राज गुह्य का अर्थ है, गूढ़ रहस्य (Top secret)

प्रश्नकर्ता- मान्या दीदी 
प्रश्न- सुदामा तो भगवान श्रीकृष्ण के मित्र थे। फिर वो निर्धन क्यों थे?
उत्तर- भगवान सबकी परीक्षा लेते हैं। बाद में जब सुदामा श्रीकृष्ण से मिलने आए थे तो उन्होंने सुदामा को बिना माँगे ही सब कुछ दे दिया था।

बाल साधकों की जिज्ञासाओं के समाधान के साथ आज का सत्र समाप्त हुआ।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्याय:।।

इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘राजविद्याराजगुह्ययोग’ नामक नवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।