विवेचन सारांश
अर्जुन की पूर्ण शरणागति

ID: 6532
हिन्दी
रविवार, 09 मार्च 2025
अध्याय 2: सांख्ययोग
1/6 (श्लोक 1-8)
विवेचक: गीता प्रवीण कविता जी वर्मा


ईश्वर की असीम अनुकम्पा से एवम् गुरुदेव के आशीर्वाद से आज के विवेचन सत्र (बालकों-बालिकाओं हेतु) का शुभारम्भ सड्कीर्तन, भगवान श्रीकृष्ण की प्रार्थना एवम्  दीप प्रज्वलन के साथ हुआ। संवादात्मक सत्र होने के नाते बालक-बालिकाओं से समय-समय पर प्रश्न भी पूछे गये। बालकों का उत्साह देखते ही बनता था। 

हम इन कक्षाओं में श्रीमद्भगवद्गीता के अध्यायों तथा अर्थ विवेचनों के माध्यम से उनका मनन, चिन्तन कर आज उस पड़ाव पर पहुँचे हैं जो स्तर चार है। श्रीमद्भगवद्गीता रूपी चारधाम की इस यात्रा में हम तीन धामों को पार करते हुए चौथे धाम में पहुँच गए हैं। आप सभी का श्रीमद्भगवद्गीता के इस पड़ाव पर स्वागत एवं अभिनन्दन है। आप अब इस स्थिति में हैं कि लर्नगीता संस्थान द्वारा आयोजित विभिन्न परीक्षाओं में सम्मिलित हो सकते हैं, जैसे गीता जिज्ञासु, गीता पाठक, गीता पथिक, गीताव्रती। 

प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय स्तर में श्रीमद्भगवद्गीता के अधिकांश अध्याय पूर्ण हो चुके हैं। स्तर तीन के अन्तर्गत आने वाला द्वितीय अध्याय अत्यन्त विशेष है। इसमें ज्ञानकाण्ड का सार है। इससे पूर्व श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्याय में हम कर्मयोग का अध्ययन कर चुके हैं।  

वेदान्तों में अधिकांशतः ज्ञानकाण्ड एवं कर्मकाण्ड हैं। शङ्कराचार्य जी ने भी अपने गीता भाष्य में तृतीय अध्याय तक का चिन्तन किया है। चतुर्थ अध्याय के पश्चात श्रीभगवान् परिशिष्ट वर्णित करते हैं, जिनका सार-रूप पूर्व अध्यायों में बताया जा चुका है। 

अध्याअट्ठारह उपसंहार है, जिसके छियासठावें श्लोक में श्रीभगवान् उच्चारित करते हैं कि-

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। 

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।                         

अर्थात् सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरण में आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।”

 द्वितीय अध्याय का इक्कीसवाँ श्लोक- 

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।      
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।

 

अर्थात् “हे पृथानन्दन! जो मनुष्य इस शरीर को अविनाशी, नित्य, जन्मरहित और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको मारे और कैसे किसको मरवाये? 

ज्ञानयोग, कर्मयोग, साङ्ख्ययोग सहित स्थितप्रज्ञ के लक्षण भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। इस अध्याय में अनेक उपमाएँ भी श्रीभगवान् द्वारा दी गई हैं। यह अध्याय  श्लोकों का एक ऐसा सङ्ग्रह है, जिसके द्वारा सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता का सार ज्ञात हो जाएगा। अनेक प्रसिद्ध श्लोक जैसे- 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।। 

भी इस अध्याय में सङ्गृहीत हैं। 

प्रश्न- इस अध्याय से पूर्व किस अध्याय का पठन किया है? 
उत्तर- अध्याय छ: अर्थात् आत्मसंयमयोग। 

प्रश्न- अध्याय छ: में कितने श्लोक हैं? 
उत्तर- सैंतालीस श्लोक। 


2.1

सञ्जय उवाच
तं(न्) तथा कृपयाविष्टम्, अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं(व्ँ) वाक्यम्, उवाच मधुसूदनः॥2.1॥

संजय बोले - वैसी कायरता से व्याप्त हुए उन अर्जुन के प्रति, जो कि विषाद कर रहे हैं (और) आँसुओं के कारण जिनके नेत्रों की देखने की शक्ति अवरुद्ध हो रही है, भगवान् मधुसूदन यह (आगे कहे जाने वाले) वचन बोले।

विवेचन- श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय में युद्धक्षेत्र का विवरण है तथा महाभारत का युद्ध भी यहीं से प्रारम्भ होता है। श्रीभगवान् के वे वचन, जिनके नायक महान धनुर्धर अर्जुन हैं। युद्धभूमि कुरुक्षेत्र में पाण्डवों सहित कौरवों की सेनाएँ आमने-सामने खड़ी हैं। पाँचों पाण्डव अर्थात् युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल एवं सहदेव युद्धक्षेत्र में उपस्थित हैं। युद्ध भी कैसा, जहाँ दो कुरुवंशी भाइयों, धृतराष्ट्र एवं पाण्डु के पुत्रों के मध्य युद्ध अवश्यम्भावी हो चला है। तब ऐसी स्थिति में अपने ही भाइयों को स्वयं का शत्रु बना देखकर अर्जुन का मन विचलित हो उठा है तथा वे अचानक ही विषादग्रस्त हो गए हैं।

प्रश्न- अर्जुन को युद्धक्षेत्र में विषाद क्यों हुआ?
उत्तर- स्वयं के ही भाइयों को अपने विरुद्ध युद्धभूमि में खड़ा देख, वे एक योद्धा होने के नाते यदि अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हैं, तब ऐसी स्थिति में निश्चित ही उनके हाथों से स्वयं के ही भाइयों की हत्या का पाप क्या उन्हें पुण्य प्रदान करेगा? मन में चलते इसी धर्म, अधर्म के द्वन्द्व के कारण अर्जुन विषाद से ग्रस्त हो जाते हैं।

करुणा से व्याप्त, शोकयुक्त, अश्रुपूरित नेत्रों वाले अर्जुन जो शब्द श्रीभगवान् से कहते हैं, उनसे अर्जुन की मनोदशा पूर्णत: स्पष्ट हो रही है-  
     
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः।।

अर्थात्  हे कृष्ण! युद्ध की इच्छावाले इस कुटुम्ब-समुदाय को अपने सामने उपस्थित देखकर मेरे अङ्ग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है तथा मेरे शरीर में कँपकँपी आ रही है एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं। हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी जल रही है। मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है और मैं खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहा हूँ। 
     
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते।।

अर्जुन कहते हैं, "हे कृष्ण ! युद्ध की इच्छा रखकर उपस्थित हुए इन स्वजनों को देखकर मेरे अङ्ग शिथिल हुए जाते हैं, मुख भी सूख रहा है और मेरे शरीर में कम्पन तथा रोमाञ्च हो रहा है। अर्जुन के शब्दों से स्पष्ट है कि उनकी स्थिति इतनी तनावपूर्ण है कि वे अपना धनुष पीछे रख बैठ जाते हैं तथा अपने शीश पर हाथ रख लेते हैं।

द्वितीय अध्याय में साङ्ख्ययोग प्रारम्भ होता है।

प्रश्न- साङ्ख्ययोग क्या है?
उत्तर- साङ्ख्य अर्थात् विषयक बुद्धि। सम्यक् ख्यायते अर्थात् सम्यक् प्रकाश्यने। जो तत्त्वज्ञान है अर्थात् परमात्मा क्या है? ईश्वर क्या है? मैं कौन हूँ? संसार क्या है? संसार नश्वर क्यों है?
हमारे मन में उत्पन्न इन समस्त प्रश्नों के सटीक उत्तर का जो ज्ञान हम सभी को देता है, वह साङ्ख्ययोग है। परमात्मा की प्राप्ति के अनेक मार्गों में यह भी एक महत्वपूर्ण मार्ग है। इस श्लोक में सञ्जय द्वारा कहे गए वचन अत्यन्त विचारणीय हैं कि किस प्रकार युद्धभूमि में अर्जुन जैसा महान योद्धा भी विषादग्रस्त हो सकता है। उनके नेत्र अश्रुपूरित हैं, यह वैसा ही है जैसे हम अपने किसी वरिष्ठ व्यक्ति के नेत्र अश्रुओं से पूर्ण देखेंगे तो तत्क्षण हम निश्चित ही अचम्भित होंगे। ठीक उसी प्रकार मधुसूदन श्रीकृष्ण भी अर्जुन जैसे पराक्रमी योद्धा की इस अवस्था को देख आश्चर्यचकित हैं, तब वे अर्जुन को उनकी इस दशा से मुक्त कराने हेतु अपने श्रीमुख से जिन वचनों को उच्चारित करते हैं, उनके वे वचन वर्तमान समय में श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में एकत्रित होकर अनेकानेक प्राणियों हेतु उनके पथप्रदर्शक की भाँति स्थापित हैं।

प्रश्न- मधुसूदन किसका नाम है?
उत्तर- मधु नामक राक्षस का वध करने के कारण श्रीकृष्ण मधुसूदन कहलाए।

करुणा से भरे अर्जुन को देख श्रीभगवान् को सहानुभूति हो रही है। हमारे जीवन में भी अर्जुन सदृश्य स्थिति बारम्बार उत्पन्न होती है। जैसे अभी हम बालक हैं। बालकों को सर्वाधिक भय उनकी परीक्षाओं से होता है तथा ऐसा भी होता है कि जब हम परीक्षा देने हेतु परीक्षा कक्ष में जाते हैं तथा प्रश्नपत्र प्राप्त होते ही हम भयभीत हो जाते हैं तथा हमारी कलम हाथ से छूट जाती है। हमारी देह काँपने लगती है। ये समस्त अवस्थाएँ अर्जुन द्वारा प्रदर्शित दशा के सदृश्य हैं, अत: इस विषाद से कैसे पार पाया जाए? इस विषय पर ही श्रीभगवान् अपने विचार यहाँ प्रकट कर रहे हैं जो मात्र अर्जुन हेतु ही नहीं, सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण हेतु श्रीभगवान् के श्रीमुख से उच्चारित हुए।

2.2

श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं(व्ँ), विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यम्, अकीर्तिकरमर्जुन॥2.2॥

श्रीभगवान् बोले - हे अर्जुन! इस विषम अवसर पर तुम्हें यह कायरता कहाँ से प्राप्त हुई, (जिसका कि) श्रेष्ठ पुरुष सेवन नहीं करते, (जो) स्वर्ग को देने वाली नहीं है और कीर्ति करने वाली भी नहीं है।

विवेचन- श्रीभगवान् ने कहा कि "हे अर्जुन! तुम्हारे मन में यह कल्मष आया कैसे?"
इस श्लोक में श्रीभगवान् कुत: शब्द उपयोग में ला रहे हैं।              
  • कुत: अर्थात् कहाँ से?
यह उपनिषद् में आने वाले शब्द हैं, जैसे-
  • कोहम अर्थात् मैं कौन?
  • सोहम अर्थात् मैं उस परम् पिता परमात्मा का अंश रूप हूँ।
यही उपनिषद् का सार है। मैं कहाँ से आया हूँ?, किसने मुझे बनाया है? तथा परम् धाम का भी वर्णन है।
श्रीभगवान् अर्जुन से कहते हैं कि "इस युद्ध क्षेत्र से तुम तनिक भी अनभिज्ञ नहीं हो। युद्ध भूमि में दौड़ते हुए अश्व, उनके कदमों के कारण उड़ती हुई धूल तथा शोर मचाते डोल, नगाड़े आदि, होता हुआ शङ्खनाद तुम्हारे लिए नया नहीं है। युद्ध में तुम्हारे विरोध में स्थित यह समस्त योद्धागण भी तुम्हारे लिए चाहें सगे-सम्बन्धी ही क्यों न हों, वर्तमान समय में तुम्हारे शत्रु हैं। तब हे शत्रुहन्ता! इन समस्त शत्रुओं का दमन करने हेतु सक्षम हो। कोई शोक न करो। यह उस मनुष्य हेतु तनिक भी अनुकूल नहीं है, जो जीवन के मूल्य को जानता हो। इससे उच्चलोक की नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होती है।"

यह वैसा ही है जैसे कोई बालक परीक्षा देने जाता है एवं तीन घण्टे की उसकी परीक्षा में वह अपना एक घण्टा रोने में ही व्यतीत कर देता है। तब उसके पास दो ही घण्टे शेष रह जाते जाते हैं तथा इतने अल्पसमय में तीन घण्टे की अवधि वाली पूर्ण परीक्षा देना अत्यधिक कठिन हो जाता है एवं अत्यधिक विलाप के कारण उसने परीक्षा हेतु जो भी तैयारियाँ की हैं, उनके व्यर्थ होने की सम्भावना में वृद्धि होती है।

अत: श्रीभगवान् अर्जुन को विलाप में समय व्यर्थ न करते हुए अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करने का आह्वान करते हैं। वे अर्जुन को आर्य सम्बोधित करते हैं। आर्य अर्थात् पुरुषों में श्रेष्ठ। श्रीभगवानानुसार ऐसे व्यक्ति को शोक करना तथा व्याकुलता शोभा नहीं देती। जो योद्धा, युद्ध से पूर्व इस प्रकार विलाप करता है, उसे न तो स्वर्ग की प्राप्ति होगी, न ही राज्य की। उसे केवल अपयश की ही प्राप्ति होगी तथा अन्य योद्धा अर्जुन पर हँसना प्रारम्भ कर देंगे।

2.3

क्लैब्यं(म्) मा स्म गमः(फ्) पार्थ, नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं(म्) हृदयदौर्बल्यं(न्), त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥2.3॥

हे पृथानन्दन अर्जुन ! इस नपुंसकता को मत प्राप्त हो; (क्योंकि) तुम्हारे में यह उचित नहीं है। हे परन्तप ! हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता का त्याग करके (युद्ध के लिये) खड़े हो जाओ।

विवेचन- हम सभी स्वामी विवेकानन्द जी को जानते हैं। वे महान भारतीय वैदिक परम्परा के एक प्रसिद्ध सन्त तथा विद्वान थे। उनका जन्मदिवस बारह जनवरी को युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता के सात सौ श्लोकों में यह श्लोक उनका सर्वाधिक पसन्द का था। इस श्लोक की विशिष्टता इसके अर्थ में निहित है, जो इस प्रकार है-
"हे पृथापुत्र! इस हीन नपुंसकता को प्राप्त मत हो। यह तुम्हें शोभा नहीं देती। हे शत्रुओं के दमनकर्ता! हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर युद्ध हेतु खड़े हो।"

इस श्लोक में श्रीभगवान् अर्जुन के प्रति अपने क्रोध को व्यक्त करते हुए प्रतीत होते हैं जो सर्वथा प्रतीकात्मक है। यह वैसे ही है जैसे हम प्रायः टीवी धारावाहिक में देखते हैं कि कोई सकारात्मक चरित्र युक्त अभिनेता किसी अन्य व्यक्ति को समझाने हेतु अपना क्रोध प्रकट करता है परन्तु उसका वह क्रोध वास्तविक नहीं होता।

युद्ध क्षेत्र में अर्जुन, जो एक योद्धा का अपना कर्तव्य बिसरा चुके हैं एक स्त्री के समान व्यवहार कर रहे हैं, उन्हें श्रीभगवान् भाँति-भाँति से समझाने का प्रयत्न निरन्तर करते हैं। जैसे कक्षा का कोई प्रथम स्थान प्राप्त करने वाला बालक परीक्षा से भयभीत होने लगे।

यहाँ अर्जुन के हृदय की दुर्बलता उस बालक के मन की दुर्बलता सदृश्य प्रतीत होती है जो कदापि किसी प्रतियोगिता का भागीदार नहीं बनना चाहता तथा उसके मन में सदैव यह विचार विद्यमान होता है कि कहीं मैं प्रतियोगिता में असफल न हो जाऊँ। किसी की सफलता तथा असफलता उसके द्वारा उस प्रतियोगिता हेतु की गई तैयारियों पर निर्भर होती है। कभी हम प्रतियोगिता में सफल होते हैं, कभी असफल परन्तु प्रतियोगिता में सम्मिलित न होने का निर्णय हमारे आत्मविश्वास को दर्शाता है। यदि हम जीवन में निरन्तर असफलता प्राप्त करते हैं तब उचित तैयारियों सहित हम जीवन की विभिन्न प्रतियोगिताओं में सफलता भी प्राप्त करते हैं, अत: इस आत्मविश्वास सहित खड़े होकर हमें युद्धस्थल रूपी जीवन में आने वाली चुनौतियों का समाधान निकालना होगा।

यहाँ श्रद्धा की भावना की जो बात हम कहते हैं, तब यह हम किसी व्यक्ति विशेष, गुरु, ईश्वर आदि पर श्रद्धा होने की स्थिति नहीं है। यहाँ स्वयं पर विश्वास होना आवश्यक है। अर्जुन ने आज स्वयं पर विश्वास किया जाना त्याग दिया है, परन्तु हम अर्जुन द्वारा ही सञ्चालित उस युद्ध की कथा का श्रवण करते हैं जिसमें अर्जुन अकेले ही कौरव सेना को परास्त कर देते हैं। महाभारत में आने वाली यह कथा उस समय की है जब अर्जुन सहित समस्त पाण्डव द्यूतक्रीड़ा में पराजित होने के पश्चात् बारह वर्ष के अपने वनवास को पूर्ण कर, एक वर्ष के अपने अज्ञातवास में विराट नामक एक छोटे से राज्य में वेश बदलकर शरण लिए हुए थे। अज्ञातवास का मात्र एक दिन शेष रह जाता है। कौरव को कहीं से यह ज्ञात हो जाता है कि पाण्डव रूप परिवर्तित कर विराट राज्य की शरण लिए हुए हैं। चूँकि अज्ञातवास की एक शर्त थी कि यदि पाण्डव अपने अज्ञातवास के मध्य में पकड़े जाते हैं, तब वे पुनः बारह वर्ष के वनवास एवं एक वर्ष के अज्ञातवास हेतु जाएँगे। अत: यह जानकर कि अज्ञातवास के दौरान पाण्डव विराट राज्य की शरण में हैं, कौरव सेना जिसमें पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य सहित अनेक महारथी युद्ध हेतु आतुर थे, का अकेले ही अर्जुन द्वारा सामना कर सभी को परास्त कर दिया जाता है।

अर्जुन के हृदय में उपस्थित वह आत्मविश्वास आज कहीं विलुप्त हो गया है। उसी के प्रादुर्भाव हेतु श्रीभगवान् प्रयासरत हैं।

प्रश्न- विराट नगर में अर्जुन अपना नाम परिवर्तित कर किस नाम से रह रहे थे?
उत्तर- वृहन्नला ( विराट नरेश की पुत्री उत्तरा के नृत्य शिक्षक के रूप में।

कभी-कभी हम सामान्य जीवन में स्वयं में निहित आत्मशक्तियों के विषय में विचार नहीं करते परन्तु समय आने पर वे शक्तियाँ स्वयं ही एकत्र होकर  वृहद परिणाम देती हैं। जैसे एक कथा की नायिका एक वृद्ध दादी में इतनी भी शक्ति नहीं थी कि वे चारपाई से उठ सकें, परन्तु जैसे ही उनका घर अग्नि की लपटों से घिर धू-धू कर जलने लगता है, तब वह वृद्ध महिला अपनी चारपाई से उठ खड़ी होती हैं तथा तिजोरी में से सम्पूर्ण धन निकालकर वहाँ से भाग जाती हैं। अग्निकाण्ड से पूर्व उन्हें स्वयं की शक्ति का अनुमान ही नहीं था।

मानव शरीर ईश्वर-प्रदत्त अद्भुत कृति है जिसमें अपार शक्तियाँ निहित है। मात्र विडम्बना यह है कि मनुष्य स्वयं ही अपनी उन शक्तियों के प्रति अनभिज्ञ है।

ऐसे अनेक छात्र हैं जो अपनी प्रतिभा, इच्छाशक्ति तथा उचित योजनाओं द्वारा अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्त करते हैं। शक्ति तो गधे में भी होती है परन्तु यह विचारने योग्य है कि शेर ही वन का सम्राट क्यों होता है?
उचित योजनाओं के द्वारा जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में कैसे सफलता प्राप्त की जा सकती है उस हेतु एक कथा-
एक राज्य के राजा ने अपने राज्य के दो व्यक्तियों की बुद्धिमत्ता एवं कार्यकौशल को जाँचने हेतु उनकी परीक्षा लेने की ठानी। उन दोनों को दरबार में बुलाकर उन्हें कुल्हाड़ियाँ दे दी गयीं तथा कहा गया कि लकड़ियाँ काट लाओ। तुम्हें तीन घण्टे का समय दिया जाता है। दोनों निवासी वन जाकर लकड़ियाँ काटना प्रारम्भ करते हैं। समय पूर्ण होने पर दोनों जब राजदरबार पहुँचे, तब उनके द्वारा लायी गयी लकड़ियों की गिनती प्रारम्भ हुई। उनमें से एक व्यक्ति के द्वारा लायी गयी लकड़ियाँ दूसरे व्यक्ति की तुलना में बेहद कम थीं। तब पराजित होने पर वह व्यक्ति विजयी हुए व्यक्ति पर काम न करने का आरोप लगाता है। वह कहता है कि लगभग एक घण्टे तो यह व्यक्ति विश्राम ही करता रहा। तब इसके द्वारा एकत्र लकड़ियाँ मुझसे अधिक कैसे हो सकती हैं। तब वह विजयी व्यक्ति बोला कि मैं विश्राम नहीं कर रहा था। मैं अपनी कुल्हाड़ी को धार दे रहा था तथा धार देने के पश्चात् मैंने लकड़ियाँ काटना आरम्भ किया। चूँकि इस व्यक्ति ने बिना योजना बनाये केवल परिश्रम किया तथा मैंने योजना बना अपने कार्य को सम्पन्न किया, अत: मैं इस प्रतियोगिता में सफल हुआ।

इस कथा से यह स्पष्ट हो गया कि हम जो भी कार्य करते हैं उसकी सफलता, असफलता हमारे द्वारा कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व निर्मित योजना पर निर्भर करती है। अत: आप बालकों को भी परीक्षा हेतु उचित योजना बनाते हुए ही अपना अध्ययन प्रारम्भ करना चाहिए तथा "मैं कर सकता हूँ" ( I Can Do It) जैसे वाक्य पर विचार करना चाहिए। विश्वास मानव हृदय में व्याप्त दुर्बलता को समाप्त करते हुए, उसकी असीमित शक्तियों की पहचान कराता है। अत: मन की दुर्बलता को समाप्त करते हुए हमें आत्मविश्वास सहित अर्जुन सदृश्य जीवन में आने वाली चुनौतियों को शत्रु समझ उनका संहार करना चाहिए।

2.4

अर्जुन उवाच
कथं(म्) भीष्ममहं(म्) सङ्ख्ये, द्रोणं(ञ्) च मधुसूदन।
इषुभिः(फ्) प्रति योत्स्यामि, पूजार्हावरिसूदन॥2.4॥

अर्जुन बोले - हे मधुसूदन ! मैं रणभूमि में भीष्म और द्रोण के साथ बाणों से युद्ध कैसे करूँ? (क्योंकि) हे अरिसूदन! (ये) दोनों ही पूजा के योग्य हैं।

विवेचन- किसी व्यक्ति के अवसाद की अवस्था में जिस प्रकार कोई अन्य व्यक्ति उसे समझने का प्रयास करता है, तब अवसादग्रस्त व्यक्ति के मन में यह विचार आ सकता है कि आप मेरे स्थान पर आकर देखिए।

कुछ ऐसे ही विचार अर्जुन के मस्तिष्क में उत्पन्न हो रहे हैं। अर्जुन ने कहा, "हे शत्रुहन्ता! हे मधुसूदन! मैं युद्धभूमि में किस तरह भीष्म तथा द्रोण सदृश्य पूजनीय व्यक्तियों पर उलट कर बाण चलाऊँगा? वे भीष्म पितामह, जिन्होंने मेरे बाल्यकाल में मुझे स्नेह दिया। जब मैं मिट्टी में क्रीड़ा कर आता, तब पितामह मुझे बेहद प्रेम से अपने श्वेत वस्त्रों पर बैठाते। उसी प्रकार गुरु द्रोणाचार्य मेरे गुरु हैं, जिन्होंने मुझे धनुर्विद्या सहित जीवन को उत्तम बनाने हेतु महत्वपूर्ण विद्या प्रदान की। मेरा बचपन इन दोनों के स्नेहाशीष में बीता है। मैं उनका ऋणी हूँ। मैं उनके प्रति कृतज्ञ हूँ। आज जब वे मेरे शत्रु की भाँति मुझसे युद्ध करने हेतु तत्पर हैं तब मैं कैसे उन पर बाण चलाऊँ?"

जिस प्रकार कभी-कभी हमारे परिवार के सदस्य हमारे निर्णयों का विरोध करते हुए हमारे समक्ष आ खड़े हो जाएँ तथा उनमें से एक हमारी माँ हों, तब ऐसी स्थिति में हमारी स्थिति भी अर्जुन सदृश्य ही होगी क्योंकि हम अपनी माँ से बेहद प्रेम करते हैं। हम इनके कृतज्ञ हैं तथा भावात्मक रूप से जुड़े हुए हैं। अर्जुन के जीवन में पितामह एवं गुरु द्रोणाचार्य भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जैसे हमारे माता, पिता आदि।

2.5

गुरूनहत्वा हि महानुभावान्,श्रेयो भोक्तुं(म्) भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव,
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्॥2.5॥

महानुभाव गुरुजनों को न मारकर इस लोक में (मैं) भिक्षा का अन्न खाना भी श्रेष्ठ (समझता हूँ); क्योंकि गुरुजनों को मारकर यहाँ रक्त से सने हुए (तथा) धन की कामना की मुख्यता वाले भोगों को ही तो भोगूँगा!

विवेचन- अर्जुन कहते हैं, "पितामह, गुरु द्रोणाचार्य जैसे महापुरुषों को, जो मेरे गुरु हैं, उन्हें मारकर जीने की अपेक्षा इस संसार में भिक्षा माँग कर भोजन ग्रहण करना श्रेयस्कर होगा। भले ही वे सांसारिक लाभ के इच्छुक हों, किन्तु हैं तो गुरुजन ही, जिन्होंने मुझे मेरे बाल्यकाल में स्नेह दिया, जिनके द्वारा दी गई शिक्षाओं से आज मैं महान धनुर्धर हूँ। मैं उनको कैसे हानि पहुँचाऊँ?"
चूँकि अर्जुन की यह दशा उनके भीतर की दयालुता को स्पष्ट करती है, यही कारण है कि श्रीभगवान् सदैव अर्जुन के साथ हैं तथा अर्जुन के परम् मित्र हैं।

अर्जुन कहते हैं कि "यदि उनका वध मेरे द्वारा होता है तो हमारे द्वारा भोग्य प्रत्येक वस्तु उनके रक्त से सनी होगी।"

2.6

न चैतद्विद्मः(ख्) कतरन्नो गरीयो,यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम:(स्),
तेऽवस्थिताः(फ्) प्रमुखे धार्तराष्ट्राः॥2.6॥

(हम) यह भी नहीं जानते (कि) हम लोगों के लिये (युद्ध करना और न करना, इन) दोनों में से कौन-सा अत्यन्त श्रेष्ठ है अथवा (हम उन्हें जीतेंगे) या (वे) हमें जीतेंगे। जिनको मारकर (हम) जीना भी नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्रके सम्बन्धी (हमारे) सामने खड़े हैं।

विवेचन- अर्जुन कहते हैं, "हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए क्या श्रेष्ठ है-उनको जीतना या उनके द्वारा जीते जाना। अट्ठारह अक्षौहिणी सेना में से सात अक्षौहिणी सेना पाण्डवों के साथ तथा ग्यारह अक्षौहिणी सेना कौरवों के निहित है। यदि हम धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध कर देते हैं, तब हमें जीवित रहने की आवश्यकता नहीं है। वे हमारे भ्राता हैं। हम उनके साथ खेलते हुए बड़े हुए हैं। फिर भी वे युद्धभूमि में हमारे समक्ष, हमारे विरोध में युद्धक्षेत्र में शत्रु रूप में खड़े हैं।"

2.7

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः(फ्),पृच्छामि त्वां(न्) धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः(स्) स्यान्निश्चितं(म्) ब्रूहि तन्मे,
शिष्यस्तेऽहं(म्) शाधि मां(न्) त्वां(म्) प्रपन्नम्॥2.7॥

कायरता रूप दोष से तिरस्कृत स्वभाव वाला (और) धर्म के विषय में मोहित अन्तःकरण वाला (मैं) आपसे पूछता हूँ (कि) जो निश्चित कल्याण करने वाली हो, वह (बात) मेरे लिये कहिये। मैं आपका शिष्य हूँ। आपके शरण हुए मुझे शिक्षा दीजिये।

विवेचन- अर्जुन के कायरतापूर्ण वाक्य श्रवण कर श्रीभगवान् भिन्न-भिन्न तर्कों द्वारा अर्जुन को समझाते हुए उनमें पुनः वह आत्मविश्वास जागृत करने हेतु प्रयासरत हैं जो एक कुशल योद्धा के लक्षण हैं। जब कभी कोई व्यक्ति मात्र छिपकली के उसके समक्ष आ जाने पर भयभीत हो जाए तब वह कायरता की श्रेणी में आता है। उसी प्रकार अर्जुन का यह विलाप भी उनके मन की दुर्बलता का द्योतक है जो उनके शब्दों में निहित है।

अर्जुन ने कहा, "अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ तथा सम्पूर्ण धैर्य खो चुका हूँ। ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे हेतु श्रेयस्कर हो, उसे निश्चित रूप से बताएँ। अब मैं आपका शिष्य हूँ एवं आपका शरणागत हूँ। कृपया मुझे उपदेश दें।
कठोपनिषद में आने वाले दो शब्द-
  • श्रेय अर्थात् अच्छा है।
  • प्रेय अर्थात् पसन्द है।
जैसे रात्रि में बारह बजे टीवी देखना प्रेय हो सकता है परन्तु यह श्रेय नहीं है। उसी प्रकार फास्टफूड ग्रहण करना प्रेय है परन्तु श्रेय नहीं है।

किसी व्यक्ति के अस्वस्थ होने पर चिकित्सक द्वारा औषधियों का दिया जाना उस व्यक्ति हेतु श्रेय होगा परन्तु उस व्यक्ति हेतु प्रेय हो, यह आवश्यक नहीं है।

अत: जिस क्षण अर्जुन ने श्रीभगवान् को अपने गुरु रूप में चयन किया, उन्होंने अर्जुन हेतु श्रेय वचनों का उल्लेख अर्जुन के समक्ष करना प्रारम्भ किया।

2.8

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्,यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं(म्),
राज्यं(म्) सुराणामपि चाधिपत्यम्॥2.8॥

कारण कि पृथ्वी पर धन-धान्य समृद्ध (और) शत्रुरहित राज्य तथा (स्वर्ग में) देवताओं का आधिपत्य मिल जाय तो भी इन्द्रियों को सुखाने वाला मेरा जो शोक है, (वह) दूर हो जाय (ऐसा मैं) नहीं देखता हूँ।

 विवेचन- अर्जुन कहते हैं- "मुझे ऐसा कोई साधन नहीं दिखता जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके। स्वर्ग के देवताओं के आधिपत्य के समान इस धनधान्य-सम्पन्न समस्त पृथ्वी पर निष्कण्टक राज्य प्राप्त कर भी मैं इस शोक को दूर नहीं कर सकूँगा।" चूँकि अर्जुन के पिता इन्द्र के स्वर्ग का राज्य भी अर्जुन को युद्ध करने हेतु प्रेरित करने में समर्थ नहीं है। तब एकमात्र श्रीभगवान् ही हैं, जिनके वचनों का श्रवण कर अर्जुन की कायरता, उनके मन की दुर्बलता जाती रहेगी तथा वे पुनः आत्मविश्वास को प्राप्त होंगे।

इसी के साथ आज के विवेचन सत्र का समापन हुआ तथा प्रश्नोत्तर सत्र आरम्भ हुआ। 
प्रश्नोत्तर

प्रश्नकर्ता- रिया अग्रवाल दीदी 
प्रश्न- जो योद्धा बहुत सारे बड़े-बड़े युद्ध करते हैं, कभी-कभी उनकी आँखों में भी अश्रु आ जाते हैं, तो वह तो गलत नहीं हैं न। फिर उन्हें कायर क्यों बुलाया जाता है? 
उत्तर- अश्रु आना गलत नहीं है, किन्तु अभी युद्ध का शङ्ख बज चुका है। इस समय अर्जुन कह रहे हैं कि मैं युद्ध नहीं करूँगा। यदि युद्ध नहीं करना था तो यह निर्णय पहले लेना चाहिए था। अब युद्ध आरम्भ होने के समय यह कहना कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, यह नहीं बोल सकते। इसके अतिरिक्त, अर्जुन अभी तक जो भी तर्क दे रहे हैं, हमें लगता है कि वे सही बोल रहे हैं, लेकिन वे इस समय सही नहीं बोल रहे हैं। श्रीभगवान उस स्थिति से ऊपर उठ कर देख रहे हैं। श्रीभगवान को पता है कि यदि आज युद्ध नहीं किया तो इससे क्या हानि होगी? अर्जुन को राज्य मिले या नहीं मिले, इससे श्रीभगवान को अधिक अन्तर नहीं पड़ता, लेकिन गलत सत्ता आ जाएगी तो अत्याचार बढ़ता जाएगा। इसलिए दुष्टों का नाश करना आवश्यक है। इसलिए वे अर्जुन को निमित्त बना कर कह रहे हैं कि युद्ध करो। अर्जुन उस दृष्टि से नहीं देख पा रहे हैं कि यदि आज मैंने युद्ध नहीं किया तो इन लोगों की वृद्धि होगी तथा ये शेष नागरिकों को हानि पहुँचा देंगे। इसलिए श्रीभगवान आरम्भ में अर्जुन को थोड़ा सा डाँटते हैं। अगले श्लोक में हम देखेंगे कि श्रीभगवान अर्जुन को बहुत स्नेह भी कर रहे हैं। 

प्रश्नकर्ता- मधुश्री दीदी 
प्रश्न- जमदग्नि नाम के एक ऋषि थे, जिनके पुत्र परशुराम जी थे। वे बहुत महान ऋषि माने जाते हैं। उन्होंने अपनी माता का सिर काट दिया था। उन्हें अपनी माता पर दया नहीं आयी। उन्होंने ऐसा क्यों किया? 
उत्तर- उनके पिता की आज्ञा थी जो उन्हें माननी पड़ी थी। बाद में उन्होंने अपनी माता को क्षमा करवा कर फिर से जीवित करवा लिया था। अर्जुन की बात भी सही है कि द्रोणाचार्य ने मुझे इतना बड़ा धनुर्धर बनाया है, मैं इन्हें क्यों मारूँ? भीष्म पितामह की भी कोई गलती नहीं है फिर मैं इन्हें क्यों मारूँ? फिर भी अर्जुन को बाण चलाने पड़े। वहाँ की व्यवस्था यही थी कि भीष्म पितामह उस राज्य के सेवक थे तो उन्हें कौरवों की सारी बातें माननी पड़ती थीं, चाहे वे गलत ही क्यों न हों? 

प्रश्नकर्ता- रिया दीदी 
प्रश्न- जब श्रीकृष्ण के इस पृथ्वी पर अन्तिम क्षण थे, तब अर्जुन जी भी उनसे मिलने आये थे, जबकि उन्हें ऐसा करने से मना किया गया था। इससे उनके धनुर्विद्या के सारे गुण समाप्त हो गए थे। क्या सच में ऐसा हुआ था? 
उत्तर- ऐसा सुना है किन्तु श्रीभागवत् में ऐसा प्रसङ्ग है या नहीं, इस बात की पुष्टि करनी पड़ेगी। 

प्रश्नकर्ता- मधुश्री दीदी 
प्रश्न-  मीराबाई बहुत सम्पन्न परिवार से थीं और बहुत बड़ी कृष्ण भक्त थीं। तो उन्होंने रजवाड़े में ही रहकर भक्ति क्यों नहीं की?  
उत्तर- उनको वहाँ भक्ति का वातावरण नहीं मिल रहा था। पहले तो उनका विवाह करवा दिया गया था। फिर विवाह के बाद उनके पति तो उनका बहुत सहयोग करते थे किन्तु उनकी मृत्यु के बाद मीराबाई के पति के घर के शेष सदस्यों को उनकी भक्ति करना पसन्द नहीं था। उन्होंने अनेक बार मीराबाई को मारने का भी प्रयास किया, उन्हें विष भी दिया। इसलिए वहाँ भक्ति करना उनके लिए सम्भव नहीं हो पा रहा था। इसलिए उन्होंने घर त्याग दिया था।