विवेचन सारांश
आहार और श्रद्धा का सम्बन्ध

ID: 6861
हिन्दी
रविवार, 27 अप्रैल 2025
अध्याय 17: श्रद्धात्रयविभागयोग
1/2 (श्लोक 1-8)
विवेचक: गीता विशारद डॉ आशू जी गोयल


वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनम् ।
देवकी परमानंदं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् ॥

श्रीहरि प्रार्थना, दीप प्रज्वलन के साथ इस सत्र का आरम्भ हुआ। श्रीभगवान् की अतिशय मङ्गलमय कृपा से हम सब लोगों का सद्भाग्य जाग्रत हुआ जो हम अपने जीवन को सुफल करने के लिए, इस मानव जन्म को सार्थक करने के लिए, अपने इस लोक और परलोक को सद्गति प्राप्त करने के लिए, उत्तम गति प्राप्त करने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता में प्रवृत्त हो गए हैं। हम श्रीभगवान् की विशेष कृपा पात्र बनकर, इस मार्ग के लिए चुन लिए गए हैं। पता नहीं, हमारे इस जन्म के कोई विशेष पुण्यकर्म हैं, पूर्व जन्म के पुण्यकर्म फलित हुए हैं या फिर हमारे पूर्वजों के पुण्यकर्म फलित हुए हैं अथवा इसी जन्म में किसी सन्त महापुरुष की कृपादृष्टि हम पर पड़ गयी है, जिस कारण हमारा ऐसा भाग्योदय हो गया कि हम भगवद्गीता को पढ़ने के लिए चुन लिए गए हैं।

सत्रहवाँ अध्याय परिशिष्ट माना जाता है। परिशिष्ट अर्थात, श्रीभगवान् ने जो बातें पूर्व में कही हैं उनका विस्तार यहाँ पर किया है क्योंकि अर्जुन ने कुछ प्रश्न उत्पन्न कर दिए। सोलहवें अध्याय के तेईसवें और चौबीसवें श्लोक में अचानक श्रीभगवान् ने शास्त्रों की महिमा को प्रधानता दी। श्रीभगवान् ने कहा-

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥

एकदम पक्की बात समझ लो अर्जुन! यदि कोई, शास्त्र विधि को छोड़कर अपना मनमाना आचरण करेगा तो उसका नाश पक्का है। अर्जुन ने विचार किया श्रीभगवान् ने पूरी गीता में छह बार श्रद्धा का वर्णन किया और अचानक आपने शास्त्रों को इतना प्रबल कर दिया। अर्जुन के मन में द्वन्द्व उत्पन्न हुआ। तीसरे अध्याय के इकत्तीसवें श्लोक में श्रीभगवान् ने कहा- 

श्रद्धावन्तोऽनासूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥

चौथे अध्याय के उन्तालीसवें श्लोक में कहा- 

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः॥

चालीसवें में कहा- 

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति॥

छठे अध्याय के सैंतालीसवें श्लोक में कहा- 

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत: ||

बारहवें में दो स्थान पर श्रद्धा का उपयोग किया। दूसरे श्लोक में कहा- 

श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्तात्मा माता: ||

बीसवें श्लोक में कहा- 

श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया:।।

अर्जुन के मन में प्रश्न आया कि श्रद्धा बड़ी है या शान्ति बड़ी है? शङ्कित होकर अर्जुन ने इस अध्याय को अपने प्रश्न से आरम्भ किया।

17.1

अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य, यजन्ते श्रद्धयान्विताः|
तेषां(न्) निष्ठा तु का कृष्ण, सत्त्वमाहो रजस्तमः||17.1||

अर्जुन बोले - हे कृष्ण ! जो मनुष्य शास्त्र-विधि का त्याग करके श्रद्धापूर्वक (देवता आदि का) पूजन करते हैं, उनकी निष्ठा फिर कौन-सी है? सात्त्विकी है अथवा राजसी-तामसी

विवेचन: श्रीभगवान्, अर्जुन को अत्यधिक स्नेह से पार्थ कहकर सम्बोधित करते हैं और अर्जुन स्नेह और प्रगाढ़ता से श्रीभगवान् को श्रीकृष्ण कहते हैं।

इस श्लोक में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से प्रश्न किया है जो श्रीभगवान् ने सोलहवें अध्याय के तेईसवें श्लोक में कहा, वही अर्जुन ने यहाँ पर पूछा। वह पूछते हैं कि हे भगवन् मैं वही बात पूछना चाहता हूँ जो आपने कही थी।

जो व्यक्ति शास्त्र विधि को त्याग कर परन्तु श्रद्धा से युक्त होकर देवाधिदेव का पूजन करें, उनकी स्थिति क्या है?
वो सात्त्विक होंगे, राजसिक होंगे अथवा तामसिक होंगे ?

प्रश्न उचित ही है। मुझे शास्त्र नहीं पता हैं परन्तु मेरी श्रद्धा पूरी है। मैं नहीं जानता कि मैं जो भी कार्य कर रहा हूँ, वह शास्त्रों के अनुसार है या नहीं परन्तु मैं श्रद्धा से कर रहा हूँ तब मेरी श्रद्धा सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक होगी?)

पहले श्रद्धा को समझते हैं।

श्रद्धा-
श्र + द्धा
अर्थात सत्य की ओर ले जाने वाला और श्रद्धा का विलोम है, शङ्का


यदि हम विचार करें तो देखेंगे कि जहाँ शङ्का है वहाँ श्रद्धा नहीं होगी और जहाँ श्रद्धा होगी वहाँ शङ्का नहीं होगी। शङ्का होते ही श्रद्धा का नाश होता है। श्रद्धा होते ही शङ्का का नाश होता है। ये दोनों विलोम हैं। ये दोनों एक साथ नहीं ठहर सकते। दोनों ही न हों, ऐसा भी नहीं होगा, या तो श्रद्धा होगी या शङ्का होगी।

एक कवि ने कहा- 

सन्देह करके तिल-तिल मरने से अच्छा है,
यकीन कर और बेवफाई से मर जा।

मनुष्य का मूल स्वभाव है, श्रद्धा। परन्तु आजकल दूरदर्शन पर ऐसे समाचार दिखाए जाते हैं कि सभी बातों पर शङ्का करो। विश्वास तो कहीं भी न करो। पत्नी ने पति को मार कर ड्रम में भर दिया, माता-पिता ने बेटी को मार दिया और बेटे ने पिता को मार दिया। किसी का किसी पर विश्वास ही न रहे। सारे समाचार उल्टे ही चल रहे हैं। ऐसे धारावाहिक देखने नहीं चाहिएं। ये सन्देह को पक्का करते हैं और श्रद्धा का नाश करते हैं।

लक्ष्मण जी ने भरत जी पर सन्देह किया। मानस में चित्रकूट प्रसङ्ग में भरत जी, राम जी को मनाने के लिए आ रहे हैं। उस समय में सारी सेनाएँ, सारी रानियाँ, गुरु वशिष्ठ सभी साथ में ही आ रहे हैं। निषाद ने यह समाचार दिया कि सारी सेना चित्रकूट की ओर आ रही है। निषाद ने विचार किया कि यदि भरत को मिलने आना ही था तो सारी सेना को लाने की क्या आवश्यकता थी? कहीं भरत के मन में खोट तो नहीं है कि मैं जङ्गल में जाकर राम-लक्ष्मण को मार आऊँ? चौदह साल का झञ्झट ही नहीं रहेगा। पूरा राज्य भरत का ही हो जायेगा। वैसे तो लक्षमण जी उत्तम हैं पर कभी-कभी सङ्ग का दोष आ जाता है।

निषादराज ने जिस सन्दर्भ में अपनी बात कही उससे लक्ष्मण जी को भी सन्देह हो गया कि भरत हम दोनों को मारने के लिए सेना लेकर यहाँ पर आए हैं। अतः लक्ष्मण जी तुरन्त रोष में आ गए और श्रीरामजी के पास जाकर बोले कि भैया बड़ा बुरा समाचार है। भरत और शत्रुघ्न पूरी अयोध्या की चतुरङ्गिणी सेना लेकर हम दोनों को समाप्त करने के लिए आ रहे हैं परन्तु आप चिन्ता न करें। मैं जब तक जीवित हूँ अयोध्या की सेना तो क्या? देवताओं की सेना भी आपको छू नहीं सकती। भैया, आप भाभी को लेकर अन्दर जाएँ। मैं अकेला ही भरत, शत्रुघ्न और अयोध्या की पूरी सेना को समाप्त करके आपकी रक्षा करूँगा।

लक्ष्मण जी ने जब इस प्रकार का बड़ा तेजस्वी उद्गार किया तो तुरन्त वहाँ आकाशवाणी हुई कि लक्ष्मण जी, हम आपके प्रभाव को जानते हैं पर कार्य को विचार करके ही करना चाहिए।

अनुचित उचित काजु किछु होऊ।
समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ।

सहसा करि पाछे पछिताहीं।
कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं॥

जो बिना विचारे जल्दी में किसी काम को करके पीछे पछताते हैं, वे बुद्धिमान्‌ नहीं हैं।

ये आकाशवाणी सुनकर लक्ष्मण जी सङ्कोच में पड़ गए। लक्ष्मण जी इतना सब कह रहे हैं परन्तु श्रीराम जी आराम से बैठे हैं और मुस्कुरा रहे हैं। श्रीराम जी ने कहा कि लक्ष्मण, राजनीति की दृष्टि से तुम्हारी बात सही है। भाइयों में इस तरह की राजनीति की बात सुनी भी जाती है, लेकिन तुम भरत को नहीं जानते।

भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरि हर पद पाइ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाइ॥

अर्थात, अयोध्या के राज्य की तो बात ही क्या है। ब्रह्मा, विष्णु और महादेव तीनों का पद पाकर भी भरत को राज्य का मद नहीं होने वाला है। काञ्जी की बूंदों से क्षीरसागर फटता है क्या?

गोपद जल बूडहिं घटजोनी। सहज क्षमा बरु छाड़ै छोनी।।
मसक फूँक मकु मेरु उड़ाई। होइ न नृप मृदु भरतहिं भाई।।
लखन तुम्हार सपथ पितु आना। सूचि सुबंधु नहीं भरत समाना।।


चाहे गौ के खुर के समान जल में अगस्त्य जी डूब जाएँ, चाहे पृथ्वी अपनी सहनशीलता छोड़ दे, मच्छर की फूँक से सुमेरु पर्वत उड़ जाए, पर भरत को राज मद नहीं हो सकता। मैं तुम्हारी और पिताजी की सौगन्ध खाकर कहता हूँ भरत के समान पवित्र और उत्तम भाई संसार में दूसरा हो नहीं सकता। यद्यपि भगवान् श्रीराम का महीनों से भरत जी से कोई सम्वाद नहीं हुआ है तथापि वे लक्ष्मण जी से कहते हैं कि भरत के समान संसार में दूसरा कोई भाई हो नहीं सकता।

यही श्रद्धा है ।

हम कई बार सन्देह के कारण जीवन में अच्छे लोगों को खो देते हैं और बाद में पछताते भी हैं। ऐसा भी होता है कि हमने शङ्का के कारण भूल कर दी पर हम उससे अनभिज्ञ रहे।

श्रद्धा करके धोखा खाना, एक व्यक्ति को शङ्का के कारण खोने से अधिक अच्छा है।

एक बार एक वामपन्थी पत्रकार ने गाँधीजी से पूछा कि आप इतने बड़े व्यक्ति हैं। आप लन्दन से वकालत की पढ़ाई करके आये हैं। आपको नहीं लगता कि ये रामायण और महाभारत काल्पनिक कथा हैं, सत्य नहीं हैं? गाँधी जी ने कहा कि जिस कथा को (राजा हरिश्चन्द्र की कथा) बाइस्कोप में देखकर मेरे जीवन में सत्य उतर गया, उसे देखने के बाद मैंने कभी असत्य नहीं बोला, उससे बड़ा सत्य मेरे लिए क्या हो सकता है?

एक अन्य घटना में गाँधी जी वकालत की पढ़ाई करने लन्दन जा रहे थे। जहाज पर चढ़ने से पहले एक जीवन-बीमा अधिकारी उनसे कहने लगा कि यह बड़ी खतरे की यात्रा है। कुछ प्रतिशत लोग ही वापस आ पाते हैं तो आपको अपने परिवार के लिए बीमा करा लेना चाहिए। जहाज चलने का समय हो रहा था। अतः जल्दी में उस अधिकारी के बहकावे में आकर गाँधी जी ने पाँच हज़ार रुपये का बीमा करा लिया।

जहाज पर चढ़ते ही गाँधी जी के मन में आया कि उनसे अपराध हो गया है। उस अधिकारी की बातों में आकर मैंने यह मान लिया कि यदि मैं नहीं रहा तो मेरे भाई, मेरी पत्नी और मेरे बच्चों का पालन नहीं करेंगे। इसका अर्थ है कि मेरी अपने भाइयों के प्रति श्रद्धा नहीं है। सत्य बात तो यह है कि मेरे भाई मेरे से भी अधिक मेरे बच्चों का ध्यान रखेंगे। मेरे भाई बहुत अच्छे हैं। मैंने ही अपने भाइयों पर अविश्वास किया। उन्होंने लन्दन पहुँचते ही अपने भाई को तार किया कि मुझसे ऐसी भूल हो गयी है। आप उस बीमा को समाप्त करा दीजिये।

श्रद्धा का यह अत्यन्त ही महत्वपूर्ण विषय है। श्रद्धा और विश्वास दो शब्द हैं। इन दोनों में क्या अन्तर है और इनमें से क्या महत्वपूर्ण है?

आप्त वचनों पर हमारा विश्वास ही श्रद्धा कहलाती है। जब यह बात मैंने सुनी थी, वह मेरे अनुभव में आ गयी, यह मेरा विश्वास है। विश्वास एक सीढ़ी ऊपर है।

उमा कहूं मैं अनुभव अपना,
सत हरि भजन जगत सब सपना।

शिवजी पार्वती जी से कहते हैं, हरि का भजन ही सत्य है, यह सारा जगत् तो स्वप्न की भाँति झूठा है।

अनुभव गम्य कहहि जेहि सब संता।

यह सब सन्त अपने अनुभव से कहते हैं। विवेक चूड़ामणि में आदि शङ्कराचार्य भगवान् कहते हैं- 

सा श्रद्धा कथिता सद्भिर्यया वस्तुपलभ्यते:

शास्त्र और गुरु वचनों में सत्यता का अनुभव कर लेना ही श्रद्धा है। गुरु पर विश्वास श्रद्धा है। गुरु विश्वास की प्रतिमूर्ति होनी चाहिए। गुरु दीक्षा ले ली और गुरु जी पर श्रद्धा नहीं है, विश्वास नहीं है तो आपके गुरु नहीं हुए, यह मान लें।

गोस्वामी जी ने मानस का आरम्भ किया तो दूसरा श्लोक लिखा- 

भवानी शंकरो वन्दे, श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्‌।

मैं शङ्कर जी और पार्वती जी की आराधना करता हूँ जो श्रद्धा और विश्वास के प्रतीक हैं अर्थात जो वक्ता हो वह विश्वास का प्रतीक होना चाहिए और जो श्रोता हो वह श्रद्धा का प्रतीक होना चाहिए।

पार्वती जी को श्रद्धा का प्रतीक बताया

और शिवजी को विश्वास का प्रतीक बताया।

गुरु विश्वास का प्रतीक होना चाहिए और शिष्य श्रद्धा का। श्रद्धा शिष्य है और गुरु विश्वास। पूरी रामायण गुरु ने शिष्य को सुनाई। विश्वास ने श्रद्धा को सुनाई। श्रद्धा को सन्देह था तब नहीं सुनाई।

सतीजी को शिवजी ने कथा सुनानी आरम्भ की और सतीजी ने सन्देह किया। भगवान शिवजी ने कथा सुनानी बन्द कर दी। पार्वतीजी ने जब हाथ जोड़ कर कहा, मैं श्रद्धा से सुनने को तैयार हूँ, तब शिवजी ने कथा सुनाई।

श्रीभगवान् अर्जुन के प्रश्नों से प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रसन्नता से उत्तर देना आरम्भ किया।

17.2

श्रीभगवानुवाच
त्रिविधा भवति श्रद्धा, देहिनां(म्) सा स्वभावजा|
सात्त्विकी राजसी चैव, तामसी चेति तां(म्) शृणु||17.2||

श्री भगवान बोले - मनुष्यों की वह स्वभाव से उत्पन्न हुई श्रद्धा सात्त्विकी तथा राजसी और तामसी - ऐसे तीन तरह की ही होती है, उसको (तुम) मुझसे सुनो।

विवेचन: हे अर्जुन! मनुष्यों के शास्त्रीय संस्कारों से रहित उत्पन्न श्रद्धा सात्त्विक, राजसिक और तामसिक तीनों प्रकार की होती है। श्रीभगवान् ने श्रद्धा के तीन स्रोत बताये पर यहाँ पर एक ही स्रोत का विवरण किया।
श्रद्धा की उत्पत्ति के तीन कारण हैं।

1- स्वभावजा- 
मैं जिस घर में पैदा हुआ, जिस कुल में पैदा हुआ, जिन संस्कारों के साथ पैदा हुआ, वो मेरी स्वभावजा श्रद्धा है। कई लोग शाकाहारी हैं क्योंकि उन्होंने ऐसे घर में जन्म लिया जहाँ शाकाहार ही खाया जाता था। ऐसे लोग सीधे माँस तो नहीं खाते पर अण्डे वाला केक खा लेते हैं। इनकी श्रद्धा स्वभावजा है। सामने माँस आएगा तो नहीं खा सकेंगे। स्वभाव से शाकाहारी हैं। जहाँ दिखाई नहीं देता तो ये खा लेते हैं।

2- सङ्गजा श्रद्धा- 
हम जिन लोगों के साथ रहते हैं, उन लोगों के कारण सङ्गजा श्रद्धा उत्पन्न होती है। हमारे जीवन में बहुत सारे परिवर्तन हमारे साथ के लोगों के कारण आते हैं। परिवार, मित्र मण्डल अथवा कार्यालय में कोई लोग मिल जाते हैं, जिनके कारण हमको किसी विषय में श्रद्धा आती है।
हम गीताजी में लगे, इसके लिए हमारे किसी मित्र ने, किसी परिचित ने प्रेरणा की हो। हमारा कोई मित्र गीताजी के बारे में इतनी सारी बातें करता है कि हमारे मन में भी श्रद्धा आ गयी कि गीता इतनी अच्छी है, मैं भी पढ़ कर देखूँ।

कोई फ़िल्मी लोगों के साथ रहेगा तो उसकी फिल्म में श्रद्धा हो जायेगी। कोई गेम खेलने वाले बच्चों के साथ ऐसा बच्चा रहने लगे जो गेम नहीं खेलता था, उसको भी गेम की आदत पड़ जायेगी।

3- शास्त्रजा श्रद्धा- 
जो मैंने शास्त्र वचनों को पढ़ा-सुना (सन्त-महापुरुष लोग ऐसा कहते हैं, शङ्कराचार्य जी ऐसा कहते हैं, आदि शङ्कराचार्य भगवान्, रामानुजाचार्य भगवान् ने ऐसा कहा, गान्धी जी, विवेकानन्द जी, तुलसीदास जी ने ऐसा कहा) उन बड़े-बड़े लोगों ने ऐसा कहा अतः मुझे भी ऐसा करना चाहिए। ये है शास्त्रजा श्रद्धा।

1.  जन्म से स्वभाव में आयी स्वभावजा श्रद्धा।
2. किसी के सङ्ग से आयी सङ्गजा श्रद्धा।
3. शास्त्रों की वाणी से आयी श्रद्धा शास्त्रजा श्रद्धा।

हम शास्त्र विधि का त्याग क्यों करते हैं इसके भी तीन कारण हैं।

1.अज्ञता-
शास्त्र में क्या लिखा है उससे हम अनभिज्ञ हैं। पण्डित जी ने हवन करने के लिए लकड़ी मङ्गाई पर यह नहीं बताया कि कौन सी लकड़ी लानी है और हमें पता ही नहीं है। अज्ञान के कारण कोई भी लकड़ी ले आए। यह अपराध क्षम्य है क्योंकि अज्ञानता के कारण अपराध हुआ।

2. उपेक्षा-
पण्डित जी ने बताया था कि आम की लकड़ी लानी है। दुकान पर आम की लकड़ी समाप्त हो गयी। दूसरी दुकान पर जाने के स्थान पर हमने अमरुद की लकड़ी ले ली यह सोचकर कि लकड़ी तो लकड़ी है, क्या अन्तर है? यह है उपेक्षा के कारण शास्त्र विधि का त्याग।

3. विरोध-
ये क्यों करना है? यही क्यों करना है? मैं यह नहीं करूँगा। आम की लकड़ी से ही क्यों हवन करना है, कटहल की लकड़ी से क्यों नहीं? उससे क्या बुरा हो जाएगा?
मैं तो श्राद्ध का भोजन पण्डितों को नहीं खिलाऊँगा। मैं तो अनाथालय में बाटूँगा। देखूँ, कौन से पितृ आकर मेरा गला पकड़ते हैं? यही है विरोध जन्य शास्त्र विधि का त्याग।

अज्ञता से उत्पन्न शास्त्र विधि की उपेक्षा क्षम्य होती है,
उपेक्षा से की गयी शास्त्र विधि फलहीन हो जाती है,
विरोध से की गयी शास्त्र विधि का त्याग दण्डनीय अपराध है ।

गरुड़ जी ने शिवजी से प्रश्न किया कि मुझे शङ्का है कि ये श्रीरामचन्द्र जी, सकल कोटि ब्रह्माण्ड के नायक परब्रह्म परमात्मा के अवतारी हैं? इनके नागपाश काटने के लिए मुझ जैसे पक्षी को आना पड़ा। ये परब्रह्म परमात्मा कैसे हो सकते हैं?

शिवजी ने उत्तर दिया, खग ही जाने खग की भाषा। अतः आप काकभुशुण्डि जी के पास जाईये। वही आपका समाधान करेंगे।

तबहि होइ सब संसय भंगा।
जब बहु काल करिअ सतसंगा।।

सत्सङ्ग से शङ्का का नाश होता है पर बहुत समय तक सत्सङ्ग करना पड़ेगा। नहीं तो सत्सङ्ग छोड़ते ही शङ्का आ जायेगी। सत्सङ्ग करते रहना पड़ेगा। एक पात्र में थोड़ा सा पानी लीजिये और उसमें थोड़ा सा तेल डाल दीजिये। अब इसमें अपनी उँगली को डूबा दीजिये। बाहर निकालने पर देखेंगे कि ऊँगली पर थोड़ा सा तेल है बाकी पर पानी ही है। अब इस पात्र को ऐसे ही पन्द्रह दिन के लिए छोड़ दीजिये। पन्द्रह दिन बाद इसमें फिर से ऊँगली डाल कर देखेंगे। तेल और पानी आपस में मिले नहीं हैं पर पानी के चारो ओर तेल व्याप्त हो गया है। उँगली पर भी तेल और पानी दोनों ही दिखाई देंगे। पन्द्रह दिन तक तेल के साथ रहने से पानी तैलीय हो गया, यही है सङ्ग का प्रभाव।

17.3

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य, श्रद्धा भवति भारत|
श्रद्धामयोऽयं(म्) पुरुषो, यो यच्छ्रद्धः(स्) स एव सः||17.3||

हे भारत ! सभी मनुष्यों की श्रद्धा अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह मनुष्य श्रद्धामय है। (इसलिये) जो जैसी श्रद्धावाला है, वही उसका स्वरूप है अर्थात् वही उसकी निष्ठा (स्थिति) है।

विवेचन: श्रीभगवान् कहते हैं कि सभी मनुष्यों की श्रद्धा अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह मनुष्य श्रद्धामय है। इसलिये जो जैसी श्रद्धा वाला है, वो स्वयं वही है।

श्रीभगवान् कह रहे हैं कि जो जैसा होता है, उसकी श्रद्धा वैसी ही होती है और जिसकी जैसी श्रद्धा है वो वैसा ही होता है। जो शराब पीता है, उसे शराबी कहते हैं, जो कबाब खाता है, वह कबाबी है, जो दिन भर गेम खेलता है, वह गेमर, जो बहुत पिक्चर देखता है, वह पिक्चर बाज, जो गीता पढ़ता है, गीता वाले, बड़ा पूजा-पाठ करता है, बड़ा धार्मिक आदमी। जिसकी जहाँ श्रद्धा उसका नाम वैसे ही पड़ जाता है, उसको वैसे ही लोगो का सङ्ग अच्छा लगेगा। उसको वैसी ही बातें करना अच्छा लगेगा।
जिसका जैसा स्वभाव है, उसको वैसा ही अच्छा लगेगा। उसकी श्रद्धा वैसी ही हो जाएगी। इसके उलट आप जिस विषय में रूचि लेना आरम्भ करेंगे, आपकी श्रद्धा वैसी ही हो जाएगी। हो सकता है कि आपकी श्रद्धा गीताजी पढ़ने में न हो। आप पाँच-छह सप्ताह विवेचन सुनना आरम्भ कर दीजिये, आपकी श्रद्धा हो जायेगी।

पहले कभी गीताजी के विषय में जानते नहीं थे पर अब प्रतीक्षा रहती है कि कब सप्ताह का अन्त आएगा, और विवेचन सुनने को मिलेगा, अर्थात सङ्ग करने से श्रद्धा उत्पन्न हो गयी। श्रीभगवान् कहते हैं कि मैंने मनुष्य को इतनी ताकत देकर भेजा है कि मनुष्य जैसी श्रद्धा करेगा, वैसा ही बन जाएगा।

जैसी श्रद्धा वैसा फल

संसारिक व्यक्ति की श्रद्धा, भोगों में होती है। भक्त की श्रद्धा, भाव में होती है। ज्ञानी की श्रद्धा, तत्व में होती है। हम बात तो करते हैं तत्त्व और भाव की, पर भोग में लगे रहते हैं। इस जन्म का नहीं, अगले जन्म के भोग का विचार करते हैं। स्वर्ग के भोग का। हमारे बच्चों के लिए, हमारी पीढ़ियों के लिए, हमारे पूर्वजों के लिए, हमारी माताजी की, पिताजी की गति अच्छी हो जाये, ये सब भी भोग ही हैं।

सबका लक्ष्य अलग है, सबके इष्ट अलग हैं। जिसका विवाह नहीं हुआ वह शिवजी का, सोमवार का व्रत करती है, जिसको शक्ति चाहिए वह मङ्गलवार का हनुमान जी का व्रत करता है। मनुष्य अति बुद्धिमान है, वह चुन लेता है उसे कौन से देवता चाहिए? धन चाहिए तो बृहस्पति का व्रत करो। कष्ट काटना है तो शनिवार का व्रत करो। स्थूल शरीर सबका एक सा है पर मन सबका अलग-अलग है। एक गीत है,

पानी रे पानी तेरा रंग कैसा?
जिस में मिल जाऊं, उसके जैसा।

ये मन बड़ा ताकतवर है। इसका सही उपयोग किया तो कहाँ पहुॅंचा सकता है। 
एक अत्यन्त सुन्दर भजन द्वारा इसे स्पष्ट किया गया-
 

सबसे छुपा लोगे पर मन से छुपा लो ऐसे ताकत किसी के पास नहीं है।श्रीभगवान् ने कहा कि अपनी श्रद्धा के अनुसार ही तुम अपने इष्ट बदल लेते हो इसलिए इस मन को सही श्रद्धा देना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 

17.4

यजन्ते सात्त्विका देवान्, यक्षरक्षांसि राजसाः|
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये, यजन्ते तामसा जनाः||17.4||

सात्त्विक मनुष्य देवताओं का पूजन करते हैं, राजस मनुष्य यक्षों और राक्षसों का और दूसरे (जो) तामस मनुष्य हैं, (वे) प्रेतों (और) भूतगणों का पूजन करते हैं।

विवेचन: श्रीभगवान् ने कहा- हे अर्जुन! सात्त्विक मनुष्य देवताओं का पूजन करते हैं, राजस मनुष्य यक्षों और राक्षसों का और तामस मनुष्य प्रेतों और भूतगणों का पूजन करते हैं। जिसकी जैसी दृष्टि उसके देवता भी वैसे ही होते हैं।

उत्तम भक्त देवताओं का पूजन करते हैं।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ

देवता तुमको सारी सुविधाएँ देते हैं, तुम देवताओं को आहुति प्रदान करो। यह सात्त्विक पूजा है। व्यापारियों की गद्दी पर लिखा रहता है- 

ॐ कुबेराय नमः

यह राजसिक पूजा है। कोई बुरी बात नहीं है।
श्मशान में तान्त्रिक लोग रक्त-माँस से पूजा कर रहे हैं।

वीभत्स दिखाई देता है। भूतों को पूजते हैं। चाँद देवता, भैरव की पूजा करते हैं। ऐसी पूजा सामान्य व्यक्ति को अच्छी नहीं लगती। भूत और राक्षसों की पूजा तामसिक पूजा है।

17.5

अशास्त्रविहितं(ङ्) घोरं(न्), तप्यन्ते ये तपो जनाः|
दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः(ख्), कामरागबलान्विताः||17.5||

जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित घोर तप करते हैं; (जो) दम्भ और अहंकार से अच्छी तरह युक्त हैं; (जो) भोग- पदार्थ, आसक्ति और हठ से युक्त हैं; (जो) शरीर में स्थित पाँच भूतों को अर्थात् पांच भौतिक शरीर को तथा अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं उन अज्ञानियों को (तू) आसुर निष्ठा वाले (आसुरी सम्पदा वाले) समझ। ( 17.5-17.6)

विवेचन: जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित केवल मनःकल्पित घोर तप करते हैं। यह दम्भ और अहङ्कार से काम, राग, बल की कामना से युक्त है।

17.6

कर्शयन्तः(श्) शरीरस्थं(म्), भूतग्राममचेतसः|
मां(ञ्) चैवान्तः(श्) शरीरस्थं(न्), तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्||17.6||

विवेचन: शरीर में स्थित पाँच भूतों को अर्थात् पाॅंच भौतिक शरीरों को तथा अन्तःकरण में स्थित परमात्मा को भी कृश करने वाले अज्ञानियों को आसुरी सम्पदा वाले ही जानो।

कुम्भकर्ण ने भी तपस्या की थी। तपस्या रावण ने भी की थी। हिरण्यकश्यप ने भी की थी। हिरण्याक्ष ने भी तपस्या की थी। ये सब अपने शरीर को कृष करने वाली पूजा भी करते हैं, पर इनके लक्ष्य अच्छे नहीं हैं, इनकी शास्त्र विधि अच्छी नहीं है।

श्रीभगवान् कहते हैं कि ये सब आसुरी स्वभाव वाले हैं। आसुरी स्वभाव वाला है तो ऐसी पूजा करेगा और ऐसी पूजा करेगा तो आसुरी स्वभाव वाला बनेगा। यह विपरीत क्रम (vice-versa) है। यदि कोई भैरव की पूजा करता है, शराब-माॅंस चढ़ाता है तो वह तामसिक स्वभाव के आसुरी वृत्ति में आ जाएगा।

अभी तक ऐसी वृत्ति नहीं भी हो पर वैसी पूजा से वैसा स्वभाव हो जायेगा। गणेश जी को देसी घी के लड्डू चढ़ाएँगे तो सात्त्विक बनेंगे। जैसी श्रद्धा वैसा स्वभाव, जैसा स्वभाव वैसी श्रद्धा।
यह विपरीत क्रम चलता रहेगा।

17.7

आहारस्त्वपि सर्वस्य, त्रिविधो भवति प्रियः|
यज्ञस्तपस्तथा दानं(न्), तेषां(म्) भेदमिमं(म्) शृणु||17.7||

आहार भी सबको तीन प्रकार का प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ, तप (और) दान (भी तीन प्रकार के होते हैं अर्थात् शास्त्रीय कर्मों में भी गुणों को लेकर तीन प्रकार की रुचि होती है,) (तू) उनके इस भेद को सुन।

विवेचन: तीन प्रकार का आहार सबको प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं अर्थात् शास्त्रीय कर्मों में भी गुणों को लेकर तीन प्रकार की रुचि होती है।

हे अर्जुन, तू उनके इस भेद को सुन।

श्रीभगवान् ने पहली भक्ति व्यवहारिक
और दूसरी शास्त्रीय भक्ति कही।

जब सात्त्विक, राजसिक और तामसिक की बात करते हैं तो कुछ भी पूरी तरह से सात्त्विक या तामसिक नहीं होता। सबका मिश्रण होता है। किसी में सत्त्व ही हो, तम पूरी तरह समाप्त हो जाए, ऐसा नहीं होता। न ही कुछ भी सौ प्रतिशत है न ही कुछ भी शून्य है। ये तीनों अलग-अलग अनुपात में मिले होंगे।

बात तो प्रधानता की है। किसकी प्रधानता अधिक है। अपने लिए अथवा किसी अन्य को हम सात्त्विक, राजसिक या तामसिक तभी बोलेंगे जब उसमें उस गुण की प्रधानता हो। निद्रा, तामसिक गुण है पर इसकी सभी को आवश्यकता है। सिद्ध सन्त को भी इसका एक भाग अपने जीवन में लेना ही पड़ेता है पर वह चार-छह घण्टे में ही जाग जाएँगे। जो आठ, दस घण्टे सो रहे हैं तो यह तामस को बढ़ाना हो गया।

जैसे हम कहते हैं कि सुबह हो गयी, दोपहर हो गयी, सन्ध्या हो गयी, रात्रि हो गई पर केवल सुबह या रात्रि नहीं। जिसको हम सुबह बोलते हैं वह रात्रि का अन्तिम भाग और दिन का पहला भाग होता है। जिसको दोपहर बोलते हैं वह सुबह का अन्तिम भाग और सांय का पहला भाग मिल रहा होता है। जिसको सांय बोलते हैं वह दोपहर का अन्तिम भाग और रात्रि का पहला भाग मिल रहा होता है। जिसको रात्रि बोलते हैं वह सांय का अन्तिम भाग और सुबह का पहला भाग मिल रहा होता है।
There can not be absolute morning,
absolute noon, absolute evening
or absolute night. It is not possible.

आंशिक रूप में सब बातें मिलेंगी। सत्त्व में रज मिला हुआ दिखाई देगा। सत्त्व के पूर्व में त्रिगुणातीत है, उत्तर में रजोगुण है। रजोगुण के पूर्व में सत्तोगुण है उत्तर में तमोगुण है। तमोगुण के पूर्व में रजोगुण है और उत्तर में तमोगुण है।

श्रीभगवान् कहते हैं कि तुम यज्ञ, तप, दान करोगे या नहीं यह तो पता नहीं परन्तु भोजन सभी करेंगे।

17.8

आयुः(स्) सत्त्वबलारोग्य, सुखप्रीतिविवर्धनाः|
रस्याः(स्) स्निग्धाः(स्) स्थिरा हृद्या, आहाराः(स्) सात्त्विकप्रियाः||17.8||

आयु, सत्त्वगुण, बल, आरोग्य, सुख और प्रसन्नता बढ़ाने वाले, स्थिर रहने वाले, हृदय को शक्ति देने वाले, रसयुक्त (तथा) चिकने - (ऐसे) आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक मनुष्य को प्रिय होते हैं।

विवेचन: श्रीभगवान् ने छह बातें कहीं-
आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीती,

ये सब भोजन करने से बढ़ती हैं। इन सबको बढ़ाने वाले, चिकने, स्थिर रहने वाले, स्वभाव से मन को प्रिय, ऐसे पदार्थ सात्विक मनुष्य को प्रिय हैं।

मूँग की दाल सात्विक मानी जाती है।
अरहर की दाल राजसिक मानी जाती है।
उड़द की दाल तामसिक मानी जाती है।

बीमार होने पर चिकित्सक भी मूँग की दाल खाने को कहते हैं। यह पेट के लिए सुपाच्य है। उड़द की दाल पचने में सबसे कठिन है। दो कटोरी उड़द दाल खा कर जागना कठिन है। तमस से भरी हुई नींद आएगी ही आएगी। अतः हिन्दुओं में मूँग की दाल अधिक प्रचलित है और जो धर्म पूछ कर मारते हैं उनमें उड़द की दाल अधिक प्रचलित है। उनके घरों में उड़द की दाल ही खाई जाती है इसलिए उनका तमस बढ़ता है।

परन्तु यदि मूँग की दाल खाने का समय और मात्रा ठीक नहीं होगी तो यह भी तामसिक हो जायेगी यदि हम छह कटोरी मूँग की दाल खाएँ तो यह सात्त्विक नहीं रहेगी। एक कटोरी दाल खाना सात्त्विक है, दो कटोरी दाल खाना राजसिक है और उससे अधिक खाना तामसिक हो गया जबकि थोड़ी सी उड़द की दाल ले ली जाए तो वह भी तामसिक नहीं होगी। जब हमें ताकत, बल की आवश्यकता होती है तो मूँग में थोड़ी उड़द की दाल मिला लेनी चाहिए तो वो तामस भी सात्त्विक का काम करेगा।

यह एकाङ्गी नहीं है यह ध्यान रखने वाली बात है। ऐसा नहीं है कि उड़द की दाल का स्पर्श ही नहीं करना है। मात्रा और समय से ये बातें बदल जाती हैं। प्रातः काल को जल, दोपहर को छाछ, और रात्रि काल में दुग्ध, ये आयुर्वेद में सात्त्विक बताये गए हैं। इनका समय पलट देने से ये राजसिक हो जाएगा। सुबह उठते ही दुग्ध पीना राजसिक है। दूध सात्त्विक है पर यदि कोई दो लीटर दूध पिए तो यह सात्त्विक नहीं रहा। एक चम्मच दूध पीना भी सात्त्विक नहीं है। मात्रा भी आयु के अनुसार है। बचपन में कितना भी घी-मक्खन खा लेते थे। साठ वर्ष की आयु में यदि मक्खन की टिक्की खाएँगे तो क्या होगा?

पहले समय में विवाह में हँसी-खेल में लोटे में पानी के स्थान पर घी लाकर रख देते थे। कुछ धाकड़ लोग उसे पी जाते थे। आजकल तो यह असम्भव है। पुराने लोगों में इतना घी पचाने की शक्ति होती थी आजकल नहीं है।

आयु के अनुसार भी आहार बदलता है। बचपन में जैसा आहार चल जाता है वैसा युवावस्था में नहीं चलता। जैसा युवावस्था में चल जाता है वैसा प्रौढ़ावस्था में नहीं चलता और जैसा प्रौढ़ावस्था में चल जाता है वैसा वृद्धावस्था में नहीं चलता क्योंकि आयु के अनुसार उसकी मात्रा उसके व्यवहार भिन्न-भिन्न होते हैं।

भूख के अनुसार-
जिस समय भूख नहीं लगी है, वही मूँग की दाल सात्त्विक से राजस और तामस हो जायेगी। बिना भूख का खाया हुआ भोजन सात्त्विक नहीं रहता। वह राजस और तामस हो जाता है।

च्यवन नाम के एक बड़े उत्तम मुनि हुए। उन्होंने एक आविष्कार किया, जिसको प्राप्त करने से आयु दीर्घ होती है। इसलिए इसका नाम हुआ, च्यवनप्राश।

आयु को बढ़ाने वाला च्यवनप्राश, सत्त्व को बढ़ाने वाला दूध, बल को बढ़ाने वाला केला, आरोग्य को बढ़ाने वाला सेब, सुख और प्रीती को बढ़ाने वाला आम।

जितना सात्त्विक मनुष्य होगा, उसको उतना ही रसाहार प्रिय होगा। वो खाने से अधिक रस को प्राथमिकता देगा। जितना फलों का रस और जितना रसाहार जीवन में बढ़ेगा, उतना ही सत्त्व बढ़ेगा। जितना भी इटालियन या अमेरिकन भोजन की तरफ जाते हैं, पिज्जा, बर्गर आदि एकदम सूखे आहार हैं। इनमें रस का अभाव है। बेकरी के सामान भी एकदम सूखे हैं, रसरहित। ये सात्त्विक नहीं हैं।

घी, तेल, मक्खन चिकित्सक इसलिए मना करते हैं क्योंकि ये देसी गाय के नहीं हैं। अधिकांश लोग भैंस का दूध पीते हैं। भैंस का दूध पीने से कोलेस्ट्रॉल बढ़ता है।

गाय के दूध में बुरा वाला कोलेस्ट्रॉल नहीं होता, लाभकारी कोलेस्ट्रॉल होता है। देसी गाय का दूध पीने वाले को कभी हृदय रोग नहीं होगा। देसी गाय का दूध प्रज्ञा को भी स्थित करता है। भैंस का दूध प्रज्ञा को जड़ करता है। देसी गाय का दूध, घी, मक्खन कभी हानि करने वाला नहीं होता।

भाव दृष्टि से भोजन-
भोजन बनाने वाला कौन है, उसकी शुद्धता कैसी है? बिना स्नान किये भोजन बना रहे हैं। किसी भी प्रकार के हाथ को भोजन में लगा रहे हैं। किसी भी प्रकार की शुद्धता का विचार किये बिना भोजन को बना रहे हैं तो उसमें भाव दोष आ जाता है। गुस्से में बने भोजन करने से उसमें सत्त्व नहीं रहता। क्रोध और दुःख में बनाए हुए भोजन में भाव दोष होता है। बनाने और परोसने वाले की पवित्रता और भाव महत्वपूर्ण हैं।

प्रेम से खिलाये गए भोजन का स्वाद उत्तम होता है। मीठा आम भी सामने वाले के प्रेम से और अधिक मीठा हो जाता है। उसका भाव उसमें घुल जाता है।

सत्त्व दृष्टि-
न्याय पूर्वक अर्जित धन से दिया गया भोजन।

एक बार नानक देव जी अपने शिष्य बाला और मरदाना के साथ गाँव-गाँव घूम रहे थे। वे बहुत बड़े तपस्वी थे, इसलिए उनका नाम ही नानक तपा हो गया। वे गाँव में प्रवेश नहीं करते थे। गाँव के बाहर ही ठहरते थे। जो कोई स्वयं आकर भोजन दे जाता था तो खा लेते थे, माॅंगने नहीं जाते थे। एक रात से अधिक कहीं रुकते भी नहीं थे।

एक बार तीन-चार दिन तक कोई भोजन लेकर नहीं आया। जमींदार को पता चला तो उसने सोने की थालियों में भोजन भेजा। पूरी, भाजी, खीर, पकवान से सजी थालियाँ भेजी। मरदाना प्रसन्न होकर बोले कि चार दिन की प्रतीक्षा के बाद आज श्रीभगवान् ने पकवान भेज दिए। उसने गुरु जी से भोजन करने को कहा। नानक जी ने कहा, अभी रुको थोड़ी देर बाद खायेंगे। आधे घण्टे बाद फिर पूछा कि अब खाएँ क्या? गुरु जी ने कहा, अभी रुको। ऐसा करते-करते खाना सूख गया।

दो घण्टे पश्चात एक लकड़हारे की बेटी दौड़ती हुई आयी कि गुरु जी, माँ ने कहा है कि गाँव के बाहर सन्त आये हैं। उन्हें रोटी देकर आओ। वह अपने दुपट्टे में तीन मोटी-मोटी रोटी लायी थी। उन्हें उसने गुरूजी को दे दिया। उन्होंने उसकी माँ के लिए आशीर्वाद देकर भेज दिया। गुरु जी ने एक रोटी बाला को और एक रोटी मरदाना को दे दी और खाने को बोला। बाला ने पूछा, गुरु जी उन थालियों का क्या करें? गुरु जी ने कहा, उन्हें छोड़ दो, इस रोटी को खाओ। दोनों शिष्यों ने पूछा, गुरु जी आपने इतने अच्छे पकवान खाने से मना कर दिए और ये सूखी रोटी खाने को कह रहे हैं, इसका क्या कारण है?

गुरु जी ने अपने एक हाथ में लकड़हारे की दी रोटी ली और दूसरे में जमींदार की दी पूरी ली और दोनों को कसकर निचोड़ दिया। लकड़हारे वाली रोटी में से दूध बहने लगा और जमींदार वाली पूरी में से खून बहने लगा। दोनों शिष्य आश्चर्य चकित रह गए। नानक जी ने कहा कि तुम भोजन को देख रहे हो और मैं इसके तत्त्व को देख रहा हूँ। ये जमींदार अच्छा आदमी नहीं है। इसने किसानों और गाँव वालों पर बड़ा अन्याय किया है। बहुत लोगों की जमीन-धन हड़पा है। बहुत लोगों के साथ इसने बड़ा अत्याचार किया है। इसका धन शुद्ध नहीं है। इसकी रोटी हमें नहीं खानी चाहिए। जबकि लकड़हारा बड़ी मेहनत से काम करता है। इसकी एक-एक पाई मेहनत से कमाई हुई है।

इसका धन न्याय युक्त धन है। हम इसका भोजन खायेंगे तो यह हमारे अन्दर सात्त्विकता को बढ़ाएगा।

स्थूल से भाव दृष्टि और भाव से तत्व दृष्टि महत्वपूर्ण है।
इसका ध्यान रखना चाहिए।

हरि नाम सङ्कीर्तन के साथ ही आज के सत्र का समापन होता है।

हरि शरणम्   हरि शरणम्!!  हरि शरणम्!!!  हरि शरणम्।!!!  

                 
प्रश्नोत्तर सत्र 

प्रश्नकर्ता - सञ्जीव भैया। 
प्रश्न- श्रद्धा की उत्पत्ति स्वभावजा, सङ्गजा और शास्त्रजा के अनुसार होती है परन्तु इस जन्म में मैं स्वभावजा को तो नहीं बदल सकता। इसमें से सङ्गजा और शास्त्रजा में आप किसको सबसे श्रेष्ठ मानते हैं?
उत्तर- दोनों ही महत्वपूर्ण है इसलिए सत्सङ्ग को बहुत महत्व दिया है। सत्सङ्ग करने से अच्छे लोगों का सङ्ग करने से श्रद्धा सात्त्विक हो जाएगी। शास्त्र सङ्ग और सत्सङ्ग दोनों ही बहुत महत्वपूर्ण है। केवल पुस्तकें पढ़ने से या सत्सङ्ग सुनने से भी पूरा काम नहीं हो सकता। हमारे आसपास के मिलने वाले और श्रेष्ठ लोगों से हमारा परिचय होना चाहिए, जो समय-समय पर हमारा मार्गदर्शन करें और हमें समझाएँ। हमें अच्छे रास्ते पर ले जाएँ, हमारी गलतियों को ठीक करें। ऐसे अच्छे उत्तम लोगों का सङ्ग हमें श्रद्धावान बनाता है।

प्रश्नकर्ता - पुष्प लता दीदी।
प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीगीता पढ़ते हुए मेरे मन में एक प्रवृत्ति आई कि मैं अपने वचनों से, अपने मित्रों को मेरे अनुभव बाँटू। मेरे मित्र भी शिक्षा विभाग से सेवानिवृत हैं लेकिन सबको रुचि नहीं होती है तो क्या जिनकी रुचि नहीं है उन्हें नहीं बताना चाहिए? 
उत्तर- ऐसा नहीं है लेकिन अपनी बात को कह देना चाहिए आग्रह नहीं करना चाहिए। बहस भी नहीं करनी चाहिए, यदि कोई ज्यादा तर्क-वितर्क करें तो उन बातों से दूर हो जाओ। जिसकी रुचि भी नहीं है और श्रद्धा भी नहीं है तो उनसे तर्क-वितर्क करने से कुछ लाभ नहीं होता।

प्रश्न- मुझे यह लगता है कि क्या एक दूसरे से बात करते हुए और ज्यादा गहराई से हम इस पर विचार कर सकते हैं? 
उत्तर- ये बातें बहुत अच्छे से समझानी पड़ती हैं एकअगर उन्हें तर्क से समझ आ गया तो वह मान लेगा परन्तु कुछ लोगों को तर्क देने से भी वह नहीं मानेगा तो उन्हें समझाना ही बेकार है।
आपस के सम्बन्ध नहीं बिगड़ने चाहिए, अगर उनको तर्क समझ नहीं आया तो वह व्यक्ति खराब तो नहीं है न ? हमें सम्बन्ध नहीं बिगाड़ने हैं बस प्रेम से अगर समझ आ गया तो ठीक है।

प्रश्नकर्ता- भरत भैया।
प्रश्न- कहते हैं तुलसी, मेरे राम को रीझ भजो या खीज। यदि राम को श्रद्धा से भजो या खीज से तो इसका क्या अर्थ है?
उत्तर- ऐसा नहीं है कि श्रद्धा से भजा जाए या बिना श्रद्धा के, एक ही बात है। यदि राम नाम बोलते ही रहेंगे तो कम से कम, यह जो राम नाम का वृक्ष है वह तो उग ही जाएगा।  हम राम राम भजते ही रहेंगे तो राम हमारे मन में बस ही जाएँगे। बीज धरती पर यदि उल्टा पड़े या सीधा, वृक्ष तो उग ही जाता है लेकिन अगर वृक्ष में मेरी श्रद्धा होगी तो उसके फल भी रसीले होंगे। श्रद्धा नहीं होगी तो वह फल भी सूखे होंगे और श्रद्धा से काम करने से वृक्ष भी दीर्घ काल तक फल देता रहेगा।

प्रश्नकर्ता-  चिन्मय भैया।
प्रश्न- आपने बताया था कि गायत्री मन्त्र ब्राह्मणों के लिए होता है तो हम लोग इसे कर सकते हैं क्या? 
उत्तर- गायत्री मन्त्र ब्राह्मणों के लिए ही नहीं है बल्कि यह यज्ञोपवीत पहनने वालों के लिए है, इसलिए वेदों के अनुष्ठान में कुछ भागों में यह लिखा है कि बिना यज्ञोपवीत धारण किए पढ़ने से इसका दोष माना जाता है। वैसे तो यह खुला है कोई भी इसे कर सकता है। 
इस मन्त्र का जाप महिलाएँ नहीं कर सकती। इसके अलावा वेद मन्त्र को छोड़कर जो भी मन्त्र हैं, वह महिलाएं कर सकती हैं।

प्रश्नकर्ता- दीपिका दीदी।
प्रश्न- भगवान श्री कृष्ण गोकुल में कितने दिन तक रहे थे?
उत्तर- भगवान श्री कृष्ण ग्यारह वर्ष की आयु में गोकुल छोड़कर आ गए थे फिर उसके बाद नहीं गए। 

प्रश्नकर्ता- मन्दाकिनी दीदी। 
प्रश्न- आपने एक बार बताया था कि द्वितीय अध्याय का एक श्लोक है, जिसके मन में कोई शङ्का हो तो उसे पढ़ना चाहिए तो वह कौन सा श्लोक था और उसे कैसे करना है? 
उत्तर - यह दूसरे अध्याय का सातवाँ श्लोक है। इस श्लोक को 108 बार लिखना है और गीताजी की पुस्तक को खोलकर उस श्लोक का पन्ना अपने हृदय में रखकर सो जाना है।

प्रश्नकर्ता- देवी दीदी।
प्रश्न- भैरव देवता कौन है? क्या उनकी पूजा करने वाले केवल तामसिक स्वभाव के ही होते हैं?
उत्तर- मैंने भैरव आदि देवता के बारे में बात की है ऐसे देवता जिनको माँस चढ़ाया जाता है, मदिरा चढ़ाई जाती है ऐसे देवता को तामसिक देवता माना जाता है। यदि उनकी पूजा सात्त्विक रूप में की जाए तो वह सात्त्विक देवता होते हैं।

"ॐ श्री कृष्णार्पणमस्तु"