विवेचन सारांश
प्रिय भक्त के उनतालीस गुण

ID: 6872
हिन्दी
रविवार, 27 अप्रैल 2025
अध्याय 12: भक्तियोग
2/2 (श्लोक 12-20)
विवेचक: गीता प्रवीण ज्योति जी शुक्ला


देशभक्ति गीत, हनुमान चालीसा पाठ, परम्परागत दीप प्रज्वलन एवं कृष्ण वन्दना के पश्चात् सत्र का आरम्भ हुआ। पिछले सत्र के विवेचन की पुनरावृत्ति सङ्क्षेप में की गयी।

कितने तरह के उपासक होते हैं? 
दो तरह के, निर्गुण उपासक एवं सगुण उपासक। 

सगुण उपासक मूर्ति पूजा, पाठ करते हैं, मन्दिर जाते हैं। निर्गुण उपासक मूर्ति पूजा नहीं करते, एकान्त में तपस्या करते हैं। 

अर्जुन ने श्रीभगवान से पूछा कि इन दो प्रकार के उपासकों में श्रेष्ठ कौन से हैं?
 
श्रीभगवान ने कहा कि हिमालय पर जाकर या एकान्त में तपस्या करना कठिन है। निर्गुण उपासना में कोई भी विषय नहीं होने से कुछ भी सोचना कठिन होता है।

श्रीभगवान ने कहा कि मैं अपने प्रिय भक्त को दिव्य शक्ति प्रदान कर देता हूँ। उनका उद्धार कर देता हूँ, जिससे उनको जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है। 

श्रीभगवान के प्रिय होने के कई साधन बताये गये। 
ध्यान करो, अभ्यास करो, सब कुछ श्रीभगवान को अर्पित कर दो। कुछ भी न कर सको तो कामना रहित हो जाए।

साधन करके प्रिय तो बन गये, परन्तु प्रिय बनने के पहले तुम में कौन से गुण होने चाहिए, आज यह बताने वाले हैं। मन में दूषित विचार चलते रहते हैं, हमारी सोच नकारात्मक होती है, प्रियता कैसे प्राप्त होगी?

पिछले सत्र में प्रिय बनने के साधन बताये गये, आज प्रिय भक्त में क्या गुण होने चाहिए, यह बताने वाले हैं। 

बहुत रुचिकर विषय है। ध्यान से सभी बच्चों को सुनना चाहिए। लेखनी और खाता अपने पास रखते हुए, सुनते हुए, गुणों का स्वतः से मूल्याङ्कन कर के अङ्क भी देने हैं। 

12.12

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्, ज्ञानाद्ध्यानं(व्ँ) विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्याग:(स्),त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥12.12॥

अभ्यास से शास्त्रज्ञान श्रेष्ठ है, शास्त्रज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है (और) ध्यान से (भी) सब कर्मों के फल की इच्छा का त्याग (श्रेष्ठ है)। क्योंकि त्याग से तत्काल ही परम शान्ति प्राप्त हो जाती है।

विवेचन- यह श्लोक पीछे के श्लोक से जुड़ा हुआ है। पहले वाले श्लोक में जो बात कही गयी थी, उसी के आगे की बात इस श्लोक में आयी है। अभ्यास से ज़्यादा शास्त्र का ज्ञान होना चाहिए। शास्त्रज्ञान का अर्थ यह नहीं कि हमें सिर्फ श्लोक ही याद हों। उसका अर्थ भी समझ में आना चाहिये । जीवन में उस ज्ञान को उतारना भी चाहिये। शास्त्रानुसार आचरण होना चाहिए। 

शास्त्रज्ञान से ज्यादा श्रेष्ठ श्रीभगवान का ध्यान है। उससे भी श्रेष्ठ है, कर्म के फल की इच्छा का त्याग। कोई भी कार्य  करने के बाद फल की इच्छा, कामना होती है, उसका त्याग कर देना चाहिये । 

उदाहरण- मैं पढ़ाई कर रही हूँ, परन्तु पिच्यानवे प्रतिशत अङ्क तो आने ही चाहिए, इसलिए अन्दर से बैचेनी सी रहती है। यह नहीं होना चाहिए। पढ़ाई तो करना आवश्यक है, वरना लोग हमें मूर्ख और बुद्धू समझेंगे।
डोरेमॉन धारावाहिक में नोबिता पढता नहीं था, वैसा नहीं करना है। फल की कामना का त्याग करना है, इससे मन को शान्ति  मिलती है।

जितनी कामना होगी, उतनी मन में हलचल और बैचेनी होगी। शान्ति भी हमसे दूर रहती है। जितनी कम कामना होगी उतनी मन में शान्ति  होगी।

12.13

अद्वेष्टा सर्वभूतानां(म्), मैत्रः(ख्) करुण एव च|
निर्ममो निरहङ्कारः(स्), समदुःखसुखः क्षमी||13||

सब प्राणियों में द्वेषभाव से रहित और मित्र भाव वाला (तथा) दयालु भी (और) ममता रहित, अहंकार रहित, सुख दुःख की प्राप्ति में सम, क्षमाशील, निरन्तर सन्तुष्ट, योगी, शरीर को वश में किये हुए, दृढ़ निश्चयवाला, मुझ में अर्पित मन बुद्धि वाला जो मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है। (12.13-12.14)

विवेचन- यहाँ से शुरू होंगें, उनतालीस प्रश्न, जिसके बारे में पहले बताया था। 

प्रश्न- कितने प्रश्न होगें? चर्चा में कितने प्रश्नों के बारे में बताया था। 
विकल्प हैं- उनतालीस, चौवालीस, छियालीस और चौवन। 
उत्तर- बयालीस प्रतिशत बालसाधकों के उत्तर सही हैं। बाकी के अट्ठारह प्रतिशत बाल साधकों का शरीर यहाँ पर है, मन कहीं अन्यत्र घूमने गया है। उन्होंने ठीक से सुना ही नहीं। 

अब श्रीभगवान के प्रिय होने के लिए कौन से उनतालीस गुण चाहिये, उसकी चर्चा एक-एक करके करेंगें। 

अद्वेष्टा- द्वेष का नहीं होना। किसी से भी घृणा, द्वेष नहीं करना। जैसे कि अकारण ही हम किसी के प्रति भी घृणा और द्वेष का भाव रख लेते हैं। 
किसी की सफलता पर, उसको किसी प्रकार के उपहार की प्राप्ति पर, अच्छे अङ्कों की प्राप्ति पर, हम कह देते हैं, इसमें क्या बड़ी बात है? 
ऐसा सोचना ही, द्वेष करना होता है। वही यदि किसी की सफलता पर प्रसंशा करें तो वह द्वेष नहीं होगा। 

आपको इस गुण के अङ्क स्वतः देने हैं। आपके अन्दर द्वेष की भावना कम और अधिक जितनी मात्रा में आती है, उसी के अनुरूप अङ्क देने हैं। द्वेष की भावना नहीं होने से दस में दस अङ्क  की प्राप्ति होगी।
कभी-कभी होने से चार से पाॅंच अङ्क मिलेंगे। हमेशा किसी की सफलता पर द्वेष ही होता है तो फिर शून्य की प्राप्ति होगी। स्वतः अपना मूल्याङ्कन करते हुए अङ्क देते जाना है।

सर्वभूतानां मैत्री- सबसे मैत्री का भाव। 
सबसे मित्रता का भाव अर्थात् मेरा कोई दुश्मन नहीं हैं। हम दुश्मन बना लेते हैं। वह तो मेरा दुश्मन है, उसके अङ्क तो कम आने ही हैं। वह मेरा दुश्मन है, उससे मैं बात नहीं करूँगा। 
विद्यालय में बच्चों के पाँच समूह बना लेते हैं। एक समूह के बच्चे दूसरे समूह के बच्चों से स्पर्धा रखते हैं। हम अधिक शक्तिशाली हैं, हमारे अङ्क अच्छे आते हैं। ऐसा नहीं करना चाहिए। आपस में मित्रता रहनी चाहिए। 

अङ्क का मापदण्ड यह होगा, जिस बच्चे के जितने दुश्मन, उतने अङ्क कम होंगें, जितने मित्र अधिक होंगें उतने अधिक अङ्क प्राप्त होंगें. 

करुणा- दयालु होना। किसी के साथ भी बुरा होने से दया की अनुभूति होना। कुत्ते को पत्थर से मार दिया, किसी भी जानवर को मार कर भगा देते हैं, तो हम दयालु नहीं हुए। कई बार हम अपने भाई-बहन को पढ़ाते हैं, उसके ठीक से नहीं समझ आने पर थोड़ा सा ही पढ़ा कर गाल पर थप्पड़ जड़ देते हैं। इसका मतलब है, हम में दयालुता कम है। ऐसा नहीं करना चाहिए। मच्छर देखते ही तालियाँ बजाना शुरू कर देते हैं। कितने मच्छर मारे, इसकी गिनती शुरू कर देते हैं। हमारा हृदय कितनी करुणा से भरा है, उसके अनुसार ही अङ्क प्राप्त होंगे।

जितनी करुणा होगी, उतने अधिक अङ्क मिलेंगें।

निर्ममो- यह मैंने किया। अहंता का भाव। यह मेरा है, मेरी पोशाक है, मेरी लेखनी है, मेरा विद्यालय का थैला है। मेरे वाली जो भावना है, उसको दूर करना चाहिये। इसकी जगह यह सोचना चाहिये कि ये सब श्रीभगवान का है। जो भी कुछ कर रहे हैं, श्रीभगवान के लिए कर रहें हैं। 

मेरी प्रिय पोशाक तुमने क्यों पहन ली, यह भाव हुआ तो अङ्क कम मिलेंगे।

निरहङ्कार- अहङ्कार रहित।
अहङ्कार की भावना को दूर करना होगा। किसी स्पर्धा में प्रथम आ गये, उपहार भी मिल गया। यह बहुत से लोगों के मध्य मुझे प्राप्त हुआ है। यह अहङ्कार है। हमारे अङ्क बहुत अच्छे आ जाते हैं तो अभिमान से सबको कहते हैं, मैं कक्षा में प्रथम आया हूँ, कक्षा में ही नहीं, पूरे विद्यालय में मुझे प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है।

जिसको जितना अधिक अभिमान होगा, उतने अङ्क कम मिलेंगे। जो अभिमान रहित है, उसे शत-प्रतिशत अङ्क प्राप्त होगें। 

सम दुःख-सुखः - सुख और दुःख में समानता का भाव होना चाहिए। मन के अनुरूप कुछ नहीं हुआ तो दुःखी हो जाते हैं, मन के अनुकूल होते ही ख़ुशी से उछलने लगते हैं। दोनों ही स्थितियों में समता का भाव, समान भाव होना चाहिए। यह एक बार में सम्भव  नहीं है, अभ्यास से धीरे से हो जायेगा। विद्यालय से आते हैं तो अच्छा परीक्षा फल होने से ख़ुशी से उछलते हुए आते हैं। कम अङ्क आने पर मुँह लटका के आते है, ऐसा नहीं होना चाहिए। 
 
समता की भावना के अनुरूप ही हमें अपने को अङ्क देना है।

क्षमी - क्षमा कर देना। किसी को उसकी गलती को बिना उजागर किए माफ कर देना भी क्षमा ही है। कई बार तो अपनी गलती को स्वीकार कर के क्षमा चाहने वाले को भी हम क्षमा नहीं करते, बल्कि यह कहते हैं कि तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, यह कार्य करने की? कुछ लोगों को तो किसी के क्षमा माँगने  का कोई असर ही नहीं होता है और कुछ कर देते हैं तो कई बार दोहराएँगे, उस दिन क्षमा कर दिया, आगे नहीं करूँगा। यह व्यवहार नहीं करना चाहिए। क्षमा करके भूल जाओ।

जितनी शीघ्रता से क्षमा करेगें, उतने अङ्क प्राप्त होगें।

12.14

सन्तुष्टः(स्) सततं(य्ँ) योगी, यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धि:(र्), यो मद्भक्तः(स्) स मे प्रियः॥12.14॥

विवेचन- अभी तक सात गुणों की चर्चा हो गयी। श्रीभगवान स्वयं का प्रिय होने के लिए आठवाँ गुण बता रहे हैं-

सन्तुष्ट रहना- हमारे पास जो भी है, उसी में सन्तुष्ट रहना। हमारे पास लेखनी रखने का एक डब्बा है, फिर भी दूसरा, नए प्रकार का आधुनिक  डब्बा भी चाइए। जैसे कि एक खाने का डिब्बा, फिर दो खाने का, तीन खाने का और ऊपर से  ढक्कन पर किसी प्रकार का खेल भी हो। जो पास में है, उससे सन्तुष्ट नहीं है। 

नयी कक्षा में प्रवेश के समय नये जूते, नयी विद्यालय की पोशाक, नया थैला, सब कुछ नया चाहिए। सबसे सुन्दर लगें यह भाव और कामना बहुत अधिक नहीं होनी चाहिये। जितनी वस्तुओं की कामना कम होगी तो अच्छे अङ्क प्राप्त होगें और जो सन्तुष्ट नहीं रहते उनके अङ्क कम होगें। 

उदाहरण- डोरेमॉन धारावाहिक में सुनयो के पास खेल के बहुत से खिलौनों को देख कर नोबिता रोने लगता है। डोरेमॉन से वैसे ही खिलौनों को लाने के लिए बोलता है। एक दूसरे की वस्तुओं को देख कर स्पर्धा बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। उसके पास महँगा दूरभाष यन्त्र है, मुझे भी चाहिये । जितनी कामना, इच्छा बढ़ेगी, उतनी ही असन्तुष्टि बढ़ेगी। 

आवश्यकतानुसार कामना होने से अधिक अङ्क प्राप्त होगें। 

यतात्मा- नौवाँ गुण है। स्वयं पर नियन्त्रण। पढ़ाई के समय पढ़ाई, खेल के समय खेल होना चाहिए। हमें अपने गुस्से, क्रोध पर भी नियन्त्रण नहीं होता है। जब क्रोध आता है तो हाथ में दूरदर्शन को चलाने वाले यन्त्र को ही फेङ्क कर तोड़ देते हैं। क्रोध पर नियन्त्रण नहीं होने से दो जन ऐसे झगड़ा करते हैं कि एक दूसरे के केश ही जोर से खीञ्च लेते हैं। ख़ुद पर नियन्त्रण होना चाहिए। 

दृढ़ निश्चय- यह दसवाँ गुण है। आज निर्णय लेते हैं, कल से नियमित पढ़ाई करेगें। गणित का अभ्यास करेगें, पर कल कभी भी नहीं आता। 

एक कहावत है- 
जमीं टलत, जमाना टलत, बन्दा नहीं टलत। 

किसी सुधी जन ने कहा था, (tomorrow) टूमारो का भाव आये तो ख़ुद के गाल पर दो बार मारो। टू मारो हो गया। आगे से यह भावना अन्दर से स्वतः ही खत्म हो जायेगी। कल शुरू करेगें, ऐसे अनेकों कार्य हमने अपनी नियमावली में डाल रखें हैं पर कल कभी नहीं आता। 

पढ़ाई करते समय मन कहता है खेलने चलो, बाद में पढ़ लेगें। बुद्धि कहती है, पहले पढ़ लो फिर खेलना।
 
श्रीभगवान कहते हैं कि मन और बुद्धि मेरे को समर्पित कर दो तो इनका आपसी युद्ध खत्म हो जायेगा। दृढ़ निश्चय वाले भक्त श्रीभगवान को बहुत प्रिय हैं।

12.15

यस्मान्नोद्विजते लोको, लोकान्नोद्विजते च यः|
हर्षामर्षभयोद्वेगै:(र्), मुक्तो यः(स्) स च मे प्रियः||15||

जिससे कोई भी प्राणी उद्विग्न (क्षुब्ध) नहीं होता और जो स्वयं भी किसी प्राणी से उद्विग्न नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (ईर्ष्या), भय और उद्वेग (हलचल) से रहित है, वह मुझे प्रिय है।

विवेचन- प्रिय भक्त का तेरहवाँ और चौदहवाँ लक्षण है जो किसी को परेशान नहीं करता, न ही स्वयं परेशान होता है। कुछ लोगों को किसी का भी नाम बिगाड़ कर बोल कर दूसरे को परेशान करने में ही आनन्द आता है। जैसे कि देवेश को देवांशी, सोनाली को सोमानी, हिमांशु को हिमांशी, कार्तिकी का कार्तिक, अनन्या का अन्येन्न, नाम बदल देते हैं। ऐसे किसी को भी तङ्ग करना अच्छी बात नहीं है। 

इसी तरह अगर कोई वेदिका को वैदिक बोल कर बार-बार चिढ़ाता है तो चिढ़ कर परेशान भी नहीं होना है। भाई बुला लो, जो भी नाम बोलना है बोल दो। न परेशान करेगें न होगें। 

यहाँ पर सभी बच्चों को बीस अङ्क पर अपना मूल्याङ्कन कर के अङ्क देने है। कितना परेशान करते हैं और कितना परेशान होते हैं?

हर्ष रहित- अनुकूल परिस्थिति में आनन्द में भर कर आकाश तक उछलने लगते हैं। अति प्रसन्न हो जाते हैं, ऐसा भी नहीं करना चाहिये। 
कुछ भी अच्छा होने पर जो बहुत खुशी दिखाने लगता है, उसके अङ्क कम आयेंगे। 

अमर्ष रहित- ईष्या रहित, किसी की सफलता पर, अधिक अङ्क आने पर, उसको उपहार मिलने पर, ईष्या की अनुभूति से यह कहना कि इसमें विशेष बात क्या है? 

अधिक ईष्या करने वाले को कम अङ्क प्राप्त होगें।

भयरहित- डरना नहीं है। कुछ लोग तिलचिट्टे, चूहे, मकड़ी को ही देख कर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगते हैं, जैसे पता नहीं क्या अनहोनी घटना घटित हो गयी? ये सब विष रहित होते है, काटते भी नहीं है। 

हमारे सङ्ग श्री रघुनाथ, तो फिर किस बात की चिन्ता। 

बहुत सुन्दर भजन है। सभी सुनें, सुनने से भय कम होता है।

उद्वेग रहित- कुछ लोग बहुत जल्दी आवेश और जोश में आ जाते हैं। 
जिनको आवेश कम आता है, उनको अधिक अङ्क प्राप्त होगें। 
श्रीभगवान कहते हैं, ऐसे गुणों वाला भक्त मुझे प्रिय है। 

12.16

अनपेक्षः(श्) शुचिर्दक्ष, उदासीनो गतव्यथः|
सर्वारम्भपरित्यागी, यो मद्भक्तः(स्) स मे प्रियः||16||

जो अपेक्षा (आवश्यकता) से रहित, (बाहर-भीतर से) पवित्र, चतुर, उदासीन, व्यथा से रहित (औरः सभी आरम्भों का अर्थात् नये-नये कर्मों के आरम्भ का सर्वथा त्यागी है, वह मेरा भक्त मुझे प्रिय है।

विवेचन- अनपेक्षः अर्थात् अपेक्षा रहित। बहुत अधिक प्राप्त हो जायेगा, ऐसा भाव नहीं रखना है। कोशिश करते रहना चाहिये कि हमारी अपेक्षाएँ कम हो जायें।
 
नीले रङ्ग के जूते चाहिए, फिर सफेद, फिर गुलाबी। इस तरह से नयी वस्तुओं की अपेक्षा बनी रहती है। मेरे साथ उसने ऐसा क्यों किया? पागल है क्या? उसे मुझसे अच्छे से बात करनी चाहिये थी। इस तरह नाना प्रकार की अपेक्षाएँ हो जाती है। हमें अभ्यास से अपनी अपेक्षाएँ कम करनी चाहिये।

सही मूल्याँकन कर के अङ्क देने हैं।

शुचिता— शुचि अर्थात् बाहर व भीतर की, अन्तःकरण की शुद्धता। 
हमारे कमरे में चारों तरफ़ सामान फैला हुआ होता है। विद्यालय से आने पर, बिना हाथ धोये ही भोजन करने के लिए बैठ जाना, शुद्धता नहीं हुई। आते ही अपने थैले, पोशाक, जूतों को चारों कोनों में फ़ेङ्क देते हैं। दूसरे दिन कोई सामान नहीं मिलने पर नाना प्रकार के बहाने बनाने लगते हैं। ये सब यथास्थान पर रखना, भोजन के पहले हाथ धोना, यह बाहर की शुद्धता है।

किसी के प्रति भी बुरा भाव नहीं रखना भीतर की शुद्धता हुई। भजन, विवेचन सुनने से मन की शुद्धता आती है। 

दक्षः- कुशलता। कई बार जल्दी से कार्य पूर्ण करने में ऐसा लिखते हैं कि किसी को समझ में ही नहीं आता है। ध्यानपूर्वक कुशलता से कार्य करने को दक्षता कहते हैं। 

उदासीन- जो बहुत अधिक खुश और दुःखी नहीं होते हैं। खुशी में उछलने नहीं लगते हैं, दुःखी होकर लम्बे-लम्बे आसूँ नहीं बहाते हैं। 

गतव्यथः- जिसके सारे दुःख ख़त्म हो गये हैं। हम तो छोटी-छोटी वस्तुओं की प्राप्ति न होने पर ही दुःखी हो जाते हैं। हमारे अन्दर दुःख भरे पड़े हैं। एक लम्बी सूची है। 

सर्वारम्भपरित्यागी- जो भी कर्म करते हैं, सब कुछ श्रीभगवान को समर्पित कर देते हैं। उन्हें कुछ भी भोग का सामान नहीं चाहिए।

जो कामनारहित है, वही श्रीभगवान को प्रिय हैं। 

12.17

यो न हृष्यति न द्वेष्टि, न शोचति न काङ्क्षति|
शुभाशुभपरित्यागी, भक्तिमान्यः(स्) स मे प्रियः||17||

जो न (कभी) हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है (और) जो शुभ-अशुभ कर्मों से ऊँचा उठा हुआ (राग-द्वेष रहित) है, वह भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है।

विवेचन- अगला गुण है,

न ह्रष्यति न द्वेष्टि- अत्यन्त हर्ष से रहित। जो बहुत ज़्यादा खुश नहीं होते हैं और द्वेष रहित होते हैं। 

शोचति- शोक नहीं करते हैं। नब्बे प्रतिशत अङ्क की जगह अस्सी प्रतिशत अङ्क आने पर शोक नहीं करने लगते। अरे! यह कैसे हो गया? मैंने तो बहुत परिश्रम किया था। किसी से मित्रता करनी है पर वह मित्रता नहीं करता तो शोक करने लगते हैं। जो किसी भी स्थिति में शोक नहीं करता वह श्रीभगवान को प्रिय है। 

काङ्गक्षति- जिसे बहुत अधिक कामना होती है। यह चाहिए, वह चाहिए, इसकी लम्बी सूची  तैयार हो जाती है। कामनाएँ तो आती-जाती रहती हैं, बढ़ती भी जाती हैं। कामनाओं के परित्याग का प्रयास करना चाहिए।

शुभा-शुभ परित्यागी- यह उनतीसवाँ और तीसवाँ गुण है।
शुभाशुभ परित्यागी अर्थात्‌ बुरे काम नहीं करना है।

चोरी करना, झूठ बोलना, बुरे काम हैं। ये सब नहीं करने चाहिए। इनसे उदासीन हो जाना चाहिए। शुभ कर्म की भी अति नहीं करनी है। सन्तुलित व्यवहार होना चाहिए।

12.18

समः(श्) शत्रौ च मित्रे च, तथा मानापमानयोः|
शीतोष्णसुखदुःखेषु, समः(स्) सङ्गविवर्जितः||18||

(जो) शत्रु और मित्र में तथा मान-अपमान में सम है (और) शीत-उष्ण (शरीर की अनुकूलता-प्रतिकूलता) तथा सुख-दुःख (मन बुद्धि की अनुकूलता-प्रतिकूलता) में सम है एवं आसक्ति रहित है (और) जो निन्दा स्तुति को समान समझने वाला, मननशील, जिस किसी प्रकार से भी (शरीर का निर्वाह होने न होने में) संतुष्ट, रहने के स्थान तथा शरीर में ममता आसक्ति से रहित (और) स्थिर बुद्धिवाला है, (वह) भक्तिमान् मनुष्य मुझे प्रिय है। (12.18-12.19)

विवेचन- शत्रु और मित्र में सम भाव रहना चाहिए। हमारे जो भी शत्रु हैं और मित्र हैं, उनके प्रति व्यवहार एक ही तरह का होना चाहिए। यह एक अच्छा विचार है। आप स्वतः अनुभव करें, आप लोगों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं?

मानापमानयो:- मान अर्थात् मेरी बड़ाई या प्रशंसा कर दी। अपमान अर्थात् किसी ने बुरा व्यवहार कर दिया, अपशब्द कह दिए तो अपमान हो जाता है। शिक्षिका कक्षा में दण्ड देने के लिए कान पकड़ कर खड़ा करवा देती है तो हमारा अपमान हो जाता है। समता होनी चाहिये। 

शीत-उष्ण- जब शीत काल होता है, ठण्डी के समय मोटी रजाई लेकर सोते हैं। ग्रीष्म में पङ्खे, वातानुकूलित मशीन के बिना बैचेनी का अनुभव करने लगते हैं। दोनों परिस्थितियों में सम रहना।

सुख- दुःख- सुख में ज्यादा खुश हो जाते है, दुःख में दुःखी। ऐसा नहीं होना चाहिये। 

सङ्गविवर्जितः विषयों से आसक्ति का नहीं होना। किसी कार्यक्रम की योजना बनाते है, सब तय हो जाने के बाद भी कई बार वह कार्यक्रम रद्द करने पड़ते हैं। उसमें भी परेशान नहीं होना चाहिए। फिर आगे कभी कर लेगें। अभी बच्चों को इसका अनुभव नहीं हुआ होगा। बड़े होने पर ऐसा बहुत बार हो सकता है। आसक्ति का हम कितना त्याग कर सकते हैं, देखना है। 

12.19

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी, सन्तुष्टो येन केनचित्|
अनिकेतः(स्) स्थिरमति:(र्), भक्तिमान्मे प्रियो नरः||19||

विवेचन-
निन्दा-स्तुति- कोई बड़ाई करे तो खुश नहीं होना है, कोई निन्दा करे तो दुःखी नहीं होना है। सम रहना है। 

मौनी- मननशील, अच्छी बातों का चिन्तन करना है। 

सन्तुष्टो येन केन- जो भी प्राप्त है, उसी में सन्तोष का अनुभव करना है। जो मेरे पास है, उतना ही बहुत है। दूसरे के पास किसी वस्तु की अधिकता से बैचेनी का अनुभव नहीं करना है। सैंतीस गुणों की चर्चा हो गई है। 

अनिकेत- हमें घर से आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। हम घर से इतने आसक्त हो जाते हैं कि विद्यालय भी नहीं जाना चाहते। जब बहुत छोटे थे, तब विद्यालय नहीं जाने के लिए जमीन पर लोटने लगते थे, घर से इतनी आसक्ति होती थी। यह न होना भी एक गुण है। 

स्थिरबुद्धि- यह अन्तिम गुण है। हमारी बुद्धि एकाग्र होनी चाहिये। पढ़ते समय एकाग्रता से मन लगा कर पढ़ना चाहिये। बुद्धि को इधर-उधर नहीं लगाना चाहिये । 

ऐसे गुणों वाले भक्त श्रीभगवान को प्रिय होते हैं। 

12.20

ये तु धर्म्यामृतमिदं(य्ँ), यथोक्तं(म्) पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा, भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥12.20॥

परन्तु जो (मुझ में) श्रद्धा रखने वाले (और) मेरे परायण हुए भक्त इस धर्ममय अमृत का जैसा कहा कहा है, (वैसा ही) भली भांति सेवन करते हैं, वे मुझे अत्यन्त प्रिय हैं।

विवेचन- श्रीभगवान कहते हैं, अभी तक मैंने जो भी गुणों के बारे में बताया है, उसको जीवन में लाने का प्रयास करना चाहिये। 

उनतालीस गुणों की जो तालिका बनी है, उसका अनुसरण करना है। यह
धीरे-धीरे होगा। हमें सोचना यह है कि कहाँ से शुरू करना है। 

पुष्पिका से सत्र सम्पन्न हुआ। पुष्पिका अध्याय का पूर्ण परिचय होता है। 
यह भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन के मध्य का संवाद है। ब्रह्म विद्या है, योगशास्त्र से लिया हुआ बारहवाँ अध्याय भक्तियोग का अध्याय है।

तीन सौ नब्बे अङ्कों का प्रश्न पत्र हुआ। 
विकल्प हैं-
दो सौ से अधिक अङ्क वाले, 
अढ़ाई सौ से अधिक अङ्क वाले,
साढ़े तीन सौ से अधिक अङ्क वाले,
तीन सौ अङ्क वाले, शत-प्रतिशत अङ्क वाले,
डेढ़ सौ से कम अङ्क वाले।

स्वतः गुणों  का मूल्याङ्कन करने के बाद छ: प्रतिशत बच्चों को डेढ़ सौ से कम अङ्क प्राप्त हुए हैं। इन बच्चों को अभी बहुत कार्य करना है।
छब्बीस प्रतिशत बच्चों को साढ़े तीन सौ से अधिक अङ्क मिले हैं। उन्हें थोड़ा कार्य करना होगा। बत्तीस प्रतिशत बच्चों को अढ़ाई सौ से अधिक अङ्क मिले है, उन्हें भी परिश्रम करना है। छब्बीस प्रतिशत बच्चों को पूर्ण अङ्क मिले हैं। उनको कुछ करना नहीं है, ऐसा नहीं है। उन्हें प्रयास करना है कि ये गुण जीवन में रह जायें और उनका उत्तरोत्तर विकास हो।

परिणाम घोषित करने के बाद सत्र सम्पन्न हुआ और प्रश्नोत्तर सत्र आरम्भ हुआ।

प्रश्नोत्तर

प्रश्नकर्ता- देवांश शर्मा भैया
प्रश्न- हम जो श्लोक कक्षा में सीख रहे हैं, मुझे उन्हें याद करने में समस्या हो रही है। कृपया उपाय बताए?
उत्तर- इसके लिए आप रोज बारहवें अध्याय का पारायण कीजिए और कुछ दिन के बाद आपको ये श्लोक कण्ठस्थ हो जाएँगे।

प्रश्नकर्ता- अवनि दीदी
प्रश्न- हम किसी से दुश्मनी करना नहीं चाहते लेकिन यदि कोई हमसे निरन्तर दुश्मनी करे तो हम क्या करें? 
उत्तर- आपको केवल मात्र अनदेखा करना है। मन में उस व्यक्ति विशेष के प्रति किसी प्रकार का द्वेष नहीं रखना है।

प्रश्न- हमें यह कैसे पता लगेगा कि हम श्रीभगवान के प्रिय हैं?
उत्तर- जब आप में वे उनतालीस गुण आ जाएँगे तो आप अपने-आप श्रीभगवान के प्रिय बन जाएँगे।

प्रश्न- हम में वे गुण हैं कि नहीं, यह हमें किस प्रकार पता लगेगा? 
उत्तर- जब बार-बार विवेचन सुनेंगे तो धीरे-धीरे आपको इसके बारे में स्पष्टता होने लगेगी।

प्रश्नकर्ता- चिन्मय दीदी 
प्रश्न- मन को एकाग्र कैसे करें?
उत्तर- मन को एकाग्र करने के लिए ध्यान करें, प्राणायाम करें और गीता जी को पढ़ें, कम से कम आधे घण्टे के लिए।

प्रश्नकर्ता- सौविक भैया 
प्रश्न- अगर कोई हमसे जानबूझकर द्वेष करे तो हम क्या करें?
उत्तर- आपको केवल उसको अनदेखा करना है। उनके आसपास नहीं रहना है और उनसे अधिक बात नहीं करनी है।

प्रश्नकर्ता- सारङ्ग भैया 
प्रश्न- श्रीभगवान ने गीता जी अर्जुन को ही क्यों सुनाई?
उत्तर- पहली बात तो यह कि अर्जुन श्रीभगवान की प्रत्येक बात को मानते थे और अर्जुन में गुण बहुत अधिक थे। जब उन्हें अच्छा ज्ञान मिला तो उन्होंने उसे आगे बाॅंटा। आपको भी ऐसे ही करना है। गीता जी से मिलने वाले ज्ञान को अन्य लोगों में बाॅंटना है।

प्रश्नकर्ता- सानवी दीदी 
प्रश्न- दूसरों के मन को किस प्रकार से जीता जा सकता है?
उत्तर- ऐसा करने के लिए आपको उस व्यक्ति विशेष को जो अच्छा लगता है, वैसा करना चाहिए। यदि आप अपने अध्यापक के मन को जीतना चाहते हैं तो अध्यापक को जैसा आचरण अच्छा लगता है, आप वैसा ही कीजिए।

प्रश्नकर्ता- स्पृहा दीदी 
प्रश्न- मेरी एक सहेली मुझसे बहुत रूखे ढङ्ग से बात करती है। ऐसे में क्या करना चाहिए?
उत्तर- आपके लिए एक मन्त्र है-
ॐ इग्नोराय नमः।
आपको अपनी सहेली के व्यवहार को इग्नोर करना है।

प्रश्नकर्ता- सनिधि दीदी 
प्रश्न- मैं अपनी बुरी आदतों को छोड़ना चाहती हूॅं तो क्या करूॅं? 
उत्तर- इसके लिए आप प्रतिदिन एक टाइम टेबल बनााएँ और उसमें प्रतिदिन निशान लगाइए कि आपने आज कितनी बार अपनी बुरी आदत को दोहराया। ऐसा करने से आप धीरे-धीरे स्वयं से अपनी आदत को छोड़ देंगी।

प्रश्नकर्ता- वेदिका दीदी 
प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता क्यों लिखी गई?
उत्तर- विषादग्रस्त लोगों को विषाद से मुक्त कर जीवन को अच्छे ढङ्ग से किस प्रकार जीना है, यह सब सिखाने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता कही गई और लिखी गई।

प्रश्नकर्ता- हेजल दीदी
प्रश्न- गीता जी में जीवन के बारे में क्या कहा गया है?
उत्तर- गीता जी में जीवन में कर्त्तव्य कर्म करने को कहा गया है और कर्म के फल की इच्छा न करने का उपदेश दिया गया है।

प्रश्नकर्ता- सेजल दीदी
प्रश्न- गीता परिवार कैसे बना? 
उत्तर- परम पूज्य स्वामी गोविन्ददेव गिरि जी ने गीता परिवार की स्थापना की है।

प्रश्न- स्वामी विवेकानन्द जी कौन हैं?
उत्तर- स्वामी विवेकानन्द जी के बारे में विस्तार से पढ़ने के लिए गूगल कीजिएगा। विवेकानन्द जी बहुत महान योगी हुए हैं जिन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता का प्रचार-प्रसार देश-विदेश में किया।

प्रश्नकर्ता- वनिश्का दीदी
प्रश्न- मेरे कुछ सहपाठी मुझसे गीता जी के बारे में सुनकर मेरी खिल्ली उड़ाते हैं तो उनको कोई ज्ञान की बात बतानी हो तो कैसे बताएँ?
 उत्तर- जो सुनना नहीं चाहते और जिनके मन में श्रद्धा नहीं है, उन्हें ज्ञान की कुछ भी बात बताने की आवश्यकता नहीं है।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः॥

इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘भक्तियोग’ नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।