विवेचन सारांश
अर्जुन को कर्म का उपदेश
सुमधुर प्रार्थना, श्रीहनुमान चालीसा पाठ, दीप प्रज्वलन, माँ सरस्वती, श्रीवेदव्यास, ज्ञानेश्वर महाराज तथा सद्गुरु स्वामी गोविन्ददेव गिरि जी महाराज के चरणों में शत-शत वन्दन करते हुये श्रीमद्भगवद्गीता माहात्म्य के सुन्दर श्लोकों के गायन के साथ श्रीमद्भगवद्गीता के अध्ययन के अन्तिम चरण, अर्थात् कलश अध्याय के पञ्चम् भाग का विवेचन आरम्भ किया गया।
श्रीभगवान् द्वारा प्रत्यक्ष समराङ्गण में गाया गया यह अत्यन्त सुन्दर गीत है, जिसे सुनते ही तथा कण्ठस्थ या हृदयस्थ करते ही मनुष्य एक सुन्दर यात्रा अर्थात् आनन्ददायी जीवन-यात्रा के लिए उद्यत हो जाता है। विषण्ण जीवात्मा को प्रसन्न करने वाला यह गीत है। अर्जुन को निमित्त बनाते हुये श्रीभगवान् ने प्रत्यक्ष समराङ्गण में यह गीत गाया है। वास्तव में हम सभी का जीवन एक कुरुक्षेत्र होता है। कुरु का अर्थ है करना अर्थात् कर्म तथा क्षेत्र का अर्थ है स्थान। यह कुरुक्षेत्र एक सङ्घर्षपूर्ण परिस्थिति से गुजरता है, इसलिए यह गीत हमें एक पाथेय प्रदान करता है ताकि हम उस मार्ग पर चलते हुये उस परमात्मा की ओर अग्रसर होते हुये अपने जीवन में आने वाली छोटी-मोटी बाधाओं को सरलता से पार कर सकते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता ऐसा सुन्दर पाथेय प्रदान करने वाला ग्रन्थ है तथा भक्ति तथा कर्म का एक सागर है। इसकी गहराई मापना अत्यन्त कठिन है किन्तु जो इसकी शरण में आता है, श्रीमद्भगवद्गीता उसके लिए अपना अन्तरङ्ग खोलती है तथा उसमें छिपे हुए ज्ञान के अनमोल रत्न प्रदान करती है। जिस प्रकार सागर की गहराई में अनन्त रत्न होते हैं, उसी प्रकार श्रीमदभगवद्गीता में भी ज्ञान, कर्म तथा सिद्धान्तों के अनन्त रत्न विद्मान हैं। यह गीत मात्र सात सौ श्लोकों का है, इसलिए हम कहते हैं कि आशय में महत्तम यह श्रीमद्भगवद्गीता आकार में लघुत्तम है।
अब हम इसके अन्तिम पड़ाव तक आ गए हैं। इसकी महत्ता गाते हुये ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-
कीं गीता हे सप्तशती । मंत्रप्रतिपाद्य भगवती ।
मोहमहिषा मुक्ति। आनंदली असे ॥
अर्थात् आनन्द के मार्ग पर अग्रसर करने वाली इस श्रीमद्भगवद्गीता का हम चिन्तन करने का प्रयास कर रहे हैं, इसका अर्थ जानने का प्रयास कर रहे हैं, इसकी गहराई को नापने का प्रयास कर रहे हैं। साथ ही इसके साथ प्रेम तथा भक्ति का एक अनुबन्ध निर्माण करने का भी प्रयास कर रहे हैं तथा इसके अर्थ के चिन्तन में प्रवेश करते हुये उन्हें अपने जीवन में ढालने का प्रयास भी कर रहे हैं। गुरुदेव के शरणागत होते हुए, उनकी छत्रछाया में, उनके ही उपदेश का अनुसन्धान करते हुये श्रीमद्भगवद्गीता का अर्थ समझ रहे हैं।
पिछले सत्र में हमने देखा कि श्रीभगवान् हमारी दृष्टि इस सृष्टि की ओर ले जाते हैं। यह त्रिगुणात्मिका सृष्टि विविधता में ढली हुई है। इस विविधता में जो एकता है तथा इस विविधता का जो केन्द्र बिन्दु है, उसकी ओर यदि हम अग्रसर हो सकते हैं तो यह विविधता हमें प्रभावित नहीं करती है। सृष्टि के प्रभाव से मुक्त होते हुए आनन्ददायी यात्रा को महसूस करना हो तो हमें उस केन्द्र में जाना होगा। यह केन्द्र बिन्दु जो प्रकृति के कण-कण में परमात्मा के रूप में विद्यमान रहता है, वह हमारे जीवन का भी केन्द्र बन जाए।
पहले श्रीभगवान् हमारा दृष्टिकोण सृष्टि की ओर ले गये तदुपरान्त जिस प्रकार यह सृष्टि हमें प्रभावित करती है, जिस कारण प्रत्येक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से अलग प्रतीत होता है, उसी कारण उसके तथा हमारे व्यवहार के विकारों का जो प्रभाव हमारे अन्तरङ्ग पर पड़ता है, वही बहिरङ्ग में हमारे व्यवहार में झलकता है। इससे मुक्त होने के लिए उस केन्द्र की ओर कैसे जाना है? सारे सन्त महात्मा उस केन्द्र की ओर कैसे प्रविष्ट हो जाते हैं? उसके लिए हमें श्रीभगवान् आगे के श्लोकों में मार्ग प्रशस्त करते हैं।
इस प्रकार श्रीभगवान् पहले तो हमारी दृष्टि, सृष्टि की ओर ले गये तथा फिर उस परमात्म तत्त्व को प्राप्त करने का मार्ग भी प्रशस्त किया ताकि हम सृष्टि का स्वरूप तथा सृष्टिकर्ता के विषय में भी जानें तथा सृष्टिकर्ता एवं सृष्टि के साथ स्वयं के सम्बन्ध, (जीव, जीवात्मा तथा जगदीश्वर) उसकी गहराई तथा उसके समस्त रहस्यों को भी समझें।
अब हम समापन की ओर आते हैं तो श्रीभगवान् कहते हैं कि “अर्जुन! यदि तुम्हें सृष्टिकर्ता के साथ जुड़ना है तो तुम्हें उसके अनुसार ही समस्त कार्य करने पड़ेंगे। तुम्हें सारे कर्म उसे अर्पण करने पड़ेंगे।"
अगला श्लोक, जिसे पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि यह श्रीमद्भगवद्गीता का सर्वोच्च मुक्तिदायी सन्देश है, मनुष्य के बन्धनों से मुक्ति प्रदान करने वाला यह सन्देश यदि हम अपने जीवन में ढाल सकते हैं तो हमारे प्रत्येक कर्म के साथ हमारा नित्य अनुबन्ध उस परमात्मा के साथ हो सकता है। कर्म कुछ भी हो सकता है। यहाँ श्रीभगवान् कर्म में कोई उच्चता या निम्नता नहीं बताते।
पिछले सत्र में हमने एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात देखी थी कि यहाँ श्रीभगवान् ने सम्पूर्ण सृष्टि अर्थात् समस्त विश्व को समाहित किया है। यहाँ श्रीभगवान् ने किसी विशिष्ट उपासना पद्धति के विषय में नहीं कहा है। हमें किसी भी माध्यम से उनके साथ एकाकार होना है, चाहे हम सगुण-साकार की, सगुण-निराकार की, निर्गुण-साकार की या निर्गुण-निराकार की उपासना करें। उपासना पद्धति कोई भी हो, हमें उस परमात्म तत्त्व के साथ जुड़ना है।
श्रीभगवान् कहते हैं, “जिस परमात्मा से, जिस सृष्टिकर्ता से इस सृष्टि का तथा समस्त प्राणियों का निर्माण हुआ है, अपने कर्मों से उस ब्रह्म की आराधना करना” यहाँ श्रीभगवान् ने हिन्दू नहीं कहा है अपितु समस्त मानवों के लिए कहा है, इसलिए पूज्य गुरुदेव इस श्लोक को सर्वोच्च मुक्तिदायी सन्देश कहते हैं।
सन्त ज्ञानेश्वर महाराज जी कहते हैं-
तया सर्वात्मका ईश्वरा ।
स्वकर्मकुसुमांची वीरा ।
पूजा केली होय अपारा ।
तोषालागीं।
अर्थात् हमें हमारी ठाकुरवाड़ी में बैठकर उस ईश्वर की आराधना करनी चाहिए। पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि उसे छोड़ना नहीं। उसे अपने साथ लेकर चलना। हमने अपने व्यवहार में विहितकर्म के रूप में जो भी स्वीकार किया है, हम इस सृष्टि में आकार प्रतिक्षण जो कर्त्तव्य कर्म करते हैं, हमें वे सब उन्हें अर्पण करना है। “ठाकुरवाड़ी में परमात्मा को मूर्ति में देखना तथा फिर उस परमात्मा को सभी के अन्तरङ्ग में देखना,” यह अत्यन्त सुन्दर अभ्यास है तथा जो व्यक्ति श्रीभगवान् का दिया हुआ यह सन्देश “उस परमात्मा के साथ निरन्तर एकाकार होना” अपने जीवन में ढालने का प्रयास करेगा, उसे वह परम सिद्धि प्राप्त हो जाएगी।
आपने कबीरदास जी और उनके पुत्र कमाल के जीवन का प्रसङ्ग है-
कबीरदास जी अत्यन्त ज्ञानी थे परन्तु वे कभी-कभी नकारात्मक भी हो जाते थे। जिस प्रकार हम आज भी युद्ध की विडम्बना देख रहे हैं, युद्ध के परिणाम देख रहे हैं तथा दुःख भी देख रहे हैं। कबीरदास जी भी उस समय की परिस्थिति देखकर कहते हैं-
चलती चाकी देख के, दिया कबीरा रोये ।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय ॥
अर्थात् संसार की चक्की में सभी पिस रहे हैं। उनके पुत्र कमाल सकारात्मक सोच रखते थे तथा वे अत्यन्त ज्ञानी थे। वे कहते हैं-
कील सहारे जो रहे तो बाल न बांका जाय।।
उन्होंने कहा कि “कील के पास अर्थात् जो केन्द्र में चला जाता है, वही साबुत बच जाता है।” उस केन्द्र की ओर कैसे जाना है? यह बात श्रीभगवान् उस कुरुक्षेत्र में अर्जुन के समक्ष समस्त मनुष्यों के कल्याण के लिए उपदेश के रूप में कहते हैं क्योंकि मनुष्य जाति ही ऐसी है जो सृष्टि को भी बचा सकती है। हमारी दृष्टि egocentric, geocentric तथा cosmo centric होती है। egocentric अहङ्कार अर्थात् क्या “मैं या केवल मेरी यह देह बुद्धि केन्द्र में है? geocentric का अर्थ है कि क्या हम सृष्टि के लिए जीवन जीते हैं? या फिर cosmo अर्थात् उस परमात्मा के लिए जो अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड के नायक हैं, उनके लिए जीवन जीते हैं? श्रीमद्भगवद्गीता हमें दृष्टिकोण में अन्तर प्रदान करती है, हमारी दृष्टि को व्यापक करती है। श्रीभगवान् कहते हैं कि “यदि इस व्यापक दृष्टि से देखेंगे तो स्वधर्म को सर्वोपरि मानेंगे।” श्रीभगवान् दूसरा अत्यन्त सुन्दर सन्देश देते हैं। वे कहते हैं कि “दूसरों के साथ अपनी तुलना करना बन्द कर दो।”
आगे आने वाले सैंतालीसवें श्लोक के प्रथम दो चरण हमने तृतीय अध्याय में भी देखे हैं। इसमें श्रीभगवान् पुनरावृत्ति इसलिए कर रहे हैं कि यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, इसलिए श्रीभगवान् कहते हैं-
18.47
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः(फ्), परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं(ङ्) कर्म, कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥18.47॥
विवेचन- ज्ञानेश्वर महाराज इस विषय पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि-
जया जें विहित। तें ईश्वराचें मनोगत।
म्हणौनि केलिया निभ्रांत। सांपडेचि तो ॥
ज्ञानेश्वर महाराज पुनः कहते हैं-
तैसें स्वामीचिया मनोभावा । न चुकिजे हेचि परमसेवा ।
येर तें गा पांडवा । वाणिज्य करणें ॥
यहाँ धर्म शब्द का प्रयोग किया गया है। यहाँ इस शब्द का गलत अर्थ नहीं लेना है। हमने धर्म शब्द को सङ्कुचित कर दिया और केवल उपासना पद्धतियों को ही धर्म समझ कर ऐसा सोच लिया है कि जो हमारी उपासना पद्धति स्वीकार करता है वही इस सृष्टि में रह सकता है, अन्य नहीं रह सकते, इसलिए हम उसका धर्म परिवर्तन करेंगे और धर्म परिवर्तन यह शब्द भी आता है, लेकिन भगवद्गीता का दृष्टिकोण इतना सङ्कुचित नहीं है। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई- ऐसा इस धर्म का अर्थ नहीं है। श्रीमद्भगवद्गीता में इसका एक अर्थ यह भी निहित है- “धर्म अर्थात् हमारा कर्त्तव्य” जो भगवद्गीता के लिए एक व्यापक सङ्कल्पना है। जो हमें धारण करता है, वह धर्म है, जिसके कारण हम अपना जीवन यापन कर सकते हैं। हमारे पुरुषार्थ में जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष कहा गया है, वह है अपना-अपना कर्त्तव्य। हम कहते हैं राष्ट्र-धर्म अर्थात् राष्ट्र के लिए हमारा कर्त्तव्य, मातृ-धर्म अर्थात् माता का धर्म, पितृ-धर्म अर्थात् पिता का धर्म, पुत्र-धर्म अर्थात् पुत्र का धर्म, समाज-धर्म अर्थात् सम्पूर्ण समाज का धर्म आदि। कर्त्तव्य क्या है? कर्त्तव्य के रूप में जब हम इसकी ओर देखते हैं तो हमें समझ में आता है कि यह सङ्कुचित कल्पना नहीं है, यह सभी राष्ट्रों में समान है। आप सृष्टि में कहीं भी जाएँ, उसका अर्थ वही होगा। अपने राष्ट्र के प्रति अपना कर्त्तव्य राष्ट्रधर्म होता है। राजा का धर्म प्रजा के हित के लिए होता है। हमारी उपासना पद्धतियों में उसे सङ्कुचित न करते हुए हम देखें कि दूसरों के कर्त्तव्य से या दूसरों के जीवन जीने की शैली से या दूसरों ने अपने कर्त्तव्य या कर्म के रूप में जो धर्म स्वीकार किया है, वह अगर हमें बहुत अच्छा लगे, अच्छी तरह से आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से अपना धर्म हमें विगुण लगा तो भी हमें वही करना चाहिए।
मान लीजिये एक जल्लाद के ही परिवार में जन्मा हुआ बालक भी जल्लाद बन जाता है तो उसे कर्त्तव्य के रूप में प्राप्त कर्म है किसी अपराधी को मृत्युदण्ड के लिए फाँसी के तख़्त पर चढ़ाना। अब इस प्रकार से अपना कर्म करते हुए भी उसे यह विगुण प्रतीत होगा। आज विडम्बना यह है कि हमें अपना कर्त्तव्य सदैव विगुण ही लगता है। हमें लगता है कि दूसरों का जीवन हमसे बहुत श्रेष्ठ है, दूसरों को प्राप्त हुआ कर्म हमसे अधिक श्रेष्ठ है। अभियन्ता सोचते हैं कि मेरा वेतन कम है, चिकित्सक सोचते हैं कि हमने तो इतनी अधिक शिक्षा ग्रहण की किन्तु अभियन्ता हम से अधिक वेतन प्राप्त करते हैं। हम सदैव इसकी धन से तुलना करते हैं। वास्तव में हम विचार करें कि यदि हम स्वयं को दूसरे के स्थान पर ढालने का प्रयास करेंगे तो हमें वह कठिन प्रतीत होगा। हमें अपना कर्त्तव्य ही सहज प्रतीत होगा क्योंकि हमें उसका अभ्यास हो जाता है।
श्रीभगवान् कहते हैं कि “हमारे लिए अपना विगुण प्रतीत होने वाला कर्म ही श्रेयस्कर है। वही हमें श्रेय के मार्ग पर ले जाएगा।” अपने स्वभाव, अपनी प्रकृति तथा अपने इस जन्म के संस्कारों, अपने वायुमण्डल संस्कारों तथा हमारे पूर्वजन्म के संस्कारों के अनुसार जो कर्म हमें नियति के रूप में प्राप्त हुए हैं, वे कर्म यदि हम अत्यन्त निष्ठा के साथ करते हैं तो हमारे जीवन में कोई भी अवरोध प्रवेश नहीं कर सकता, इसलिए वर्तमान समय में कौशल परीक्षा (aptitude test) ली जाती है। एक ही माता की दो सन्तानों के स्वभाव, रुचि आदि पृथक होते हैं। यह हमारे पूर्वजों के संस्कार के कारण भी होता है।
श्रीमद्भगवद्गीता हमें सन्देश देती है कि दूसरों की ओर देखकर जीवन जीना बन्द कर दो। आप दूसरों की ओर देखकर जीवन जीएँगे तो आप कभी भी आनन्द प्राप्त नहीं कर सकते, परम आनन्द प्राप्त नहीं कर सकते। “मेरा जीवन, मेरी यात्रा,” मेरी स्वयं की यात्रा है और यह यात्रा आनन्ददायी बनाने के लिए श्रीभगवान् कहते हैं, “जो अपना-अपना स्वधर्म, अपना-अपना कर्त्तव्य, अपना-अपना विहित कर्म अत्यन्त उत्साहपूर्वक तथा रुचि से करेगा, वह उस सिद्धि को भी प्राप्त कर लेगा तथा उसके जीवन में कोई पाप या अवरोध आने की आशङ्का भी मन में नहीं रखना चाहिए।"
इसके लिए ज्ञानेश्वर महाराज बहुत सुन्दर बात कहते हैं। उनके मुखारविन्द से सोलहवें वर्ष में ज्ञानेश्वरी प्रस्फुटित हुई तथा बाईसवें वर्ष में उन्होंने आलन्दी में सञ्जीवन समाधि ली। वे ऐसे योगमूर्ति थे कि वहाँ प्रवेश करते हुए आज भी वे चैतन्य रूप में विद्यमान हैं। वे कहते हैं-
येरी जिया पराविया । रंभेहुनि बरविया ।
तिया काय कराविया । बाळकें तेणें ॥
अगा पाणियाहूनि बहुवें । तुपीं गुण कीर आहे ।
परी मीना काय होये । असणें तेथ ॥
हिन्दी भाषियों को सम्भवतः यह क्लिष्ट प्रतीत होगा किन्तु ज्ञानेश्वर महाराज के शब्द अमृतमय हैं, जिन्हें सुनते ही हमारा अन्तरङ्ग शान्त हो जाता है। वे कहते हैं कि एक छोटे बालक को पर-स्त्री अर्थात् अन्य स्त्रियाँ चाहे रम्भा से भी अधिक रूपवती ही हों, तो भी मातृप्रेम के अभाव में उस बालक के लिये उसका कोई उपयोग नहीं है। उस बालक के लिए तो उसकी कुरूप दिखने वाली माता ही उसका पोषण कर सकती है। उसी प्रकार दूसरे का कर्त्तव्य, दूसरे का विहित कर्म, जो हमें अपने कर्म से अच्छा लगता है, हमारे लिए उपयोगी नहीं है।
एक मुहावरा है- दूर के ढोल सुहावने
हमारे लिए तो हमारा वही कर्म, वही कर्त्तव्य, वही धर्म श्रेयस्कर है और वही हमारा पोषण करेगा। इस प्रकार बालक का पोषण उसकी माता ही कर सकती है। उसके सुन्दर या कुरूप होने से कोई भी अन्तर नहीं पड़ता। ज्ञानेश्वर महाराज आगे कहते हैं कि गौमाता के दुग्ध से निर्मित शुद्ध घी, पानी से बहुत अधिक मूल्यवान होता है लेकिन अगर हमने पानी में रहने वाली मछली लाकर उस घी में छोड़ दी तो उस मछली का क्या होगा? मछली को उसका जीवन पानी में ही मिलता है। उसी प्रकार मनुष्य को स्वयं का जीवन जीते हुए, अपनी यात्रा जीते हुए दूसरों की ओर न देखते हुए अपना जीवन उन्नयन की ओर ले जाने की दिशा में प्रयास करना चाहिए।
श्रीमद्भगवद्गीता हमें यहाँ ऐसा सुन्दर सन्देश देती है। हमारा कर्त्तव्य कर्म, हमारा चयनित कर्म तथा व्यवसाय तथा इस प्रकार से अपना व्यवसाय-स्थल, अपना कर्म-स्थल, अपना कुरुक्षेत्र, मनुष्य तथा ईश्वर के मिलन का एक सुन्दर स्थल बन सकता है। श्रीभगवान् कहते हैं “यदि अपना स्वयं का कर्त्तव्य दोषपूर्ण लगा तो भी हमें उसका त्याग कभी नहीं करना चाहिए। अपना कर्म छोडकर मनुष्य अधोगति को ही प्राप्त होगा। आज क्षत्रिय के रूप में तुम्हें यह युद्ध कर्त्तव्य के रूप में प्राप्त हुआ है परन्तु तुम्हें यह दोषपूर्ण लग रहा है। तुम्हें लग रहा है कि मैं पाप का भागीदार हूँ” क्योंकि हमने देखा कि प्रथम अध्याय में अर्जुन ने युद्ध न करने की कारण मीमांसा बतायी।
सहजं(ङ्) कर्म कौन्तेय, सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण, धूमेनाग्निरिवावृताः॥18.48॥
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं, “हे कुन्तीपुत्र! अपना कर्म हमें दोषपूर्ण लग रहा है, जो हमें अपने जन्म के साथ प्राप्त हुआ, (“ज" का अर्थ है जन्मना तथा सह अर्थात् उसके साथ) तो भी हमें उसका त्याग कभी नहीं करना चाहिए।” प्रत्येक व्यक्ति को अपने जन्म के साथ कुछ न कुछ कर्त्तव्य या कर्म प्राप्त होते हैं। जैसे कमल का पुष्प कीचड़ के साथ जन्म लेता है। अपना काम छोड़कर दूसरे की ओर देखकर उधर दौड़ना नहीं चाहिए। आज सारी सृष्टि इसी कारण परेशान है। मनुष्य का स्वभाव होता है कि दिखावे की होड़ लगने के कारण हमें दूसरों का कर्त्तव्य या कर्म अधिक श्रेष्ठ लगता है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम देखते हैं कि मनुष्य, चाहे वह व्हाट्सएप पर हो या यूट्यूब पर, इंस्टाग्राम हो या और कोई सामाजिक माध्यम (सोशल मीडिया) के जो भी मञ्च हों, उनमें मनुष्य अपनी अच्छाइयों तथा उपलब्धियों का प्रदर्शन करता है लेकिन अपनी बुराइयाँ वह ढँक कर रखता है। वास्तव में ब्रह्माण्ड का नियम यह है कि हम जिस वस्तु का प्रदर्शन करेंगे, वही हमारे जीवन में वाष्पित होकर कम होती है तथा जो हम ढँक कर रखते हैं, वह बढ़ती है। हम अपने दोषों को ढँकते हैं तथा अच्छाइयों का प्रदर्शन करते हैं, जो तिरोहित हो रही हैं।
मराठी में एक कहावत है कि दूर से हमें जो पर्वत बहुत अच्छे तथा हरियाली से भरे हुए लगते हैं, निकट जाने पर हमें वहाँ के कङ्कड़-पत्थर आदि दिखते हैं। उसी प्रकार जो कर्म मेरे पास आ जाता है, उसके दोष हमें दिखते हैं किन्तु जो दूर है वह हमें अच्छा लगता है।
श्रीभगवान् कहते हैं, “जिस प्रकार धुएँ से अग्नि ढँक जाती है, उसी प्रकार सभी कर्मों में कुछ न कुछ दोष अवश्य होते हैं। जो इसे जान लेता है, वह नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।" अब कर्म करने की आवश्यकता नहीं है। कर्म करते हुए भी उस नैष्कर्म्य अवस्था को पहुँचना, जिसमें कर्म करते हुए भी उस कर्म का कोई दोष या बोझ उस मनुष्य को नहीं लगता।
असक्तबुद्धिः(स्) सर्वत्र, जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं(म्) परमां(म्), सन्न्यासेनाधिगच्छति॥18.49॥
विवेचन- जो व्यक्ति कहीं पर भी आसक्ति न रखते हुए, अपनी कामनाओं का त्याग करते हुए, अपने अन्तःकरण के सारे विकारों को जीत लेता है या अपने अन्तःकरण पर जिसका नियन्त्रण होता है, इस साङ्ख्ययोग तथा ज्ञानयोग द्वारा परमात्मा को अपना कर्म अर्पण करते हुए कर्म करने के कारण नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। इस सिद्धि को जीवन-मुक्त अवस्था कहते हैं।
विनोबा भावे कहते हैं “सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं किया और कुछ न करते हुए सब कुछ किया-
जो कछु किया सो तुम किया, मैं कछु किया नाहिं।
कहो कहीं जो मैं किया, तुम ही थे मुझ माहिं।।
"आप मुझमें हैं इसलिए यह कार्य मुझसे हुआ। जो कुछ किया आपने किया।” इस भावना को मन में रखते हुए सब कार्य करना अर्थात् उस अवस्था तक पहुँच जाना कि उनके होने के कारण ही सब कुछ होता है। जिस प्रकार सूर्य के उगने के कारण सारी सृष्टि में हलचल होती है और सभी लोग कर्म में रत हो जाते हैं। पशु-पक्षी भी अपना-अपना भोजन प्राप्त करते हैं। सूर्यास्त भी केवल हमारे लिए होता है क्योंकि हम ही उसे पीठ दिखा देते हैं, वह तो वहीं है। सूर्य की यह अवस्था, जिसे हम कह सकते हैं विभव अवस्था, ऐसी अवस्था उन्हें प्राप्त हो जाती है कि उनके होने के कारण, उनके वहाँ पर जाने के कारण ही कर्म घटित होते हैं। विद्युत वाहिनी में विभव के कारण ही विद्युत धारा प्रवाहित होती है। यहाँ ध्यान देने योग्य यह बात है कि विभव के बिना विद्युत धारा नहीं बहेगी किन्तु विद्युत धारा के बिना विभव रह सकता है।
रमण महर्षि जी का उदाहरण हमने देखा था, “मैं कौन हूँ?” केवल इसका अन्वेषण करते हुए वे वहाँ तक पहुँच गये कि “मैं कौन हूँ तथा सृष्टिकर्ता के साथ मेरा क्या सम्बन्ध है?” वे दक्षिण में स्थित अरुणाचलम नामक पर्वत पर निवास करते थे। वे वहाँ से कभी नीचे आये ही नहीं किन्तु हमारे पूर्व राष्ट्रपति, राधाकृष्ण जी वहाँ गये तथा उन्होंने कहा-
“He is doing nothing but he is doing greatest thing.”
ऐसा लगता है कि वे कुछ नहीं कर रहे हैं किन्तु इन सन्त-महात्माओं के उस अवस्था में पहुँचने के कारण यह समाज स्वधर्म के मार्ग पर चलते हुए उस परमात्मा की ओर अग्रसर होता है। वे कुछ करते नहीं हैं, लेकिन यह सब उनके कारण होता है। यह अवस्था है नैष्कर्म्य सिद्धिं परमां।
अब यह सिद्धि प्राप्त होने के पश्चात उसकी क्या अवस्था होती है? श्रीभगवान् कहते हैं-
सिद्धिं(म्) प्राप्तो यथा ब्रह्म, तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय, निष्ठा ज्ञानस्य या परा॥18.50॥
विवेचन- “यह ज्ञानयोग की परानिष्ठा है। कुछ न करते हुए भी सब कुछ किया और सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं किया। इस अवस्था तक हर व्यक्ति पहुँच सकता है किन्तु वह सिद्धि प्राप्त होने के बाद उस ब्रह्म की प्राप्ति कर लेता है। हम ब्रह्मविद्या सीख रहे हैं। “इस सृष्टि का सञ्चालन करने वाली उस शक्ति के साथ मेरा क्या अनुबन्ध है?” यह सीख रहे हैं। जैसे ही हम ब्रह्म की प्राप्ति कर लेते हैं, वह शक्ति हमारे साथ चलने लगती है।
हम यदि एक प्रयोग करें कि हम परमात्मा को भूलें नहीं तथा कहें कि “हम आपके लिए कर्म कर रहे हैं,” तो हम एक क्षण के लिए भी भूलेंगे नहीं कि वह शक्ति हमारे साथ चलती है। वह हमारा भी सारथ्य करती है, वह हमारी पथ-प्रदर्शक बन जाती है। हमारे विवेक तथा बुद्धि को जागृत करती है।
गुरुदेव कहते हैं कि उसे आप किसी भी नाम से पुकार सकते हैं या बिना नाम से भी उसके साथ जुड़ सकते हैं।
अगले तीन श्लोकों में श्रीभगवान् कहते हैं-
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो, धृत्यात्मानं(न्) नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा, रागद्वेषौ व्युदस्य च॥18.51॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी, यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं(म्), वैराग्यं(म्) समुपाश्रितः॥18.52॥
अहङ्कारं(म्) बलं(न्) दर्पं(ङ्), कामं(ङ्) क्रोधं(म्) परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः(श्) शान्तो, ब्रह्मभूयाय कल्पते॥18.53॥
विवेचन- इन तीन श्लोकों को ज्ञानेश्वर महाराज ने क्रमयोग कहा है और इस प्रकार से कोई भी साधक उस अवस्था तक पहुँच सकता है। श्रीभगवान् कहते हैं, “विशुद्ध बुद्धि से युक्त होकर देहबुद्धि (शत्रुबुद्धि) का विनाश करते हुए उसे आत्मबुद्धि तक उन्नयन की अवस्था में ले जाते हैं तथा अत्यन्त धैर्यपूर्वक नियमों को अङ्गीकार करते हुए उन्नयन के मार्ग पर अग्रसर करते हैं। जिस प्रकार नदी के दो तट होते हैं, जिनके कारण उस नदी का प्रवाह सागर तक पहुँचता है। यदि तट नहीं होंगे तो वह जल तितर-बितर हो जाएगा। उसी प्रकार हमारे जीवन के छोटे-छोटे नियम भी हमें उन्नयन की ओर अग्रसर करते हैं।
हमारी ज्ञानेन्द्रियों के पाँच विषय हैं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। इनका संयमित आहार लेते हुए आसक्ति तथा द्वेष, अर्थात् जो हमें प्रिय है, उसके लिए हमारी आसक्ति होती है तथा प्रतिकूल के लिए द्वेष होता है, हम इन दोनों में उलझते रहते हैं। हमें निन्दा प्रिय नहीं होती है, स्तुति प्रिय होती है, हमें इन दोनों का त्याग करके केन्द्र में चलना तथा इन्हें साक्षी भाव से दूर से देखना हमारी अन्तर्यात्रा के लिए आवश्यक है।
श्रीभगवान् कहते हैं, “संयमित रूप से आहार लेने वाला तथा एकान्त का सेवन करने वाला अर्थात् विविक्तसेवी, अपनी वाणी, मन तथा देह पर जिसका पूर्ण नियन्त्रण है और जो अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए वैराग्य धारण करता है, वही व्यक्ति उस ऊँचाई तक पहुँच सकेगा।
बहिरङ्ग में दौड़ने वाले व्यक्ति को अन्दर की यात्रा के लिए एकान्त में रहना आवश्यक है। जैसे हम नियमित रूप से गीताजी कण्ठस्थ करते हैं, हम उन वर्गों में जाते हैं और हमारा गीता जी से अनुबन्ध निर्माण होता है उसके लिए हमें कुछ न कुछ करना पड़ता है इसलिए लोकान्त और एकान्त, इन दोनों के बीच में एक सन्तुलन रखना अनिवार्य है। पूरा एकान्त भी नहीं और पूरा लोकान्त भी नहीं, क्योंकि अभी उसके लिए हमने क्षमता प्राप्त नहीं की है। एकान्त सेवन भी बहुत कठिन होता है।
रामदास स्वामीजी कहते हैं कि कभी लोकान्त करना और कभी एकान्त का सेवन करना। एकान्त के कारण यदि विकार बढ़ रहे हैं तो अधिक एकान्त सेवन नहीं करना है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी ये सब बातें लागू होती हैं। जैसे कोई वैज्ञानिक अनुसन्धान के लिए कार्य कर रहा है तो उसे यह करना ही पड़ेगा। अपनी बुद्धि शुद्ध करते हुए अपने ध्येय में लगानी पड़ेगी। कोई विद्यार्थी अध्ययन करता है, परीक्षा है तो उसे एकान्त सेवन की आवश्यकता होती है।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन को हम सब जानते हैं। उनका एक सन्देश अपने सेवक के लिए रहता था कि जब मैं पढ़ रहा हूँ या कोई कार्य कर रहा हूँ, तब मुझे भोजन के लिए भी न बुलाया जाए। एक बार उनके एक मित्र ने उनके कक्ष में प्रवेश किया, उसने देखा कि वहाँ पर भोजन का थाल रखा था और न्यूटन अत्यन्त व्यस्त थे। उस मित्र ने भोजन कर लिया। थोड़ी देर बाद जब कार्य पूरा करके न्यूटन ने देखा कि उनका मित्र आ गया है तो उन्होंने पूछा कि तुम कब आए? उन्होंने भोजन की खाली थाल को देखा तो बोले कि मुझे कार्य करते हुए इतना समय हो गया, सम्भवतः मैंने भोजन कर लिया है। उन्हें यह भी भान नहीं कि उन्होंने भोजन किया भी या नहीं किया। इसे ध्यानयोग कहते हैं। अपने परमात्मा की ओर इनका लक्ष्य इस तरह केन्द्रित हो जाता है। ये ध्यान से बाहर आना ही नहीं चाहते, ध्यान में रहते हैं, इसलिए जो सामने आता है, उसे स्वीकार करते हुए अपने मन की कामनाओं पर बहुत नियन्त्रण रखते हुए परमात्मा की ओर अग्रसर होते हैं। श्रीभगवान् कहते हैं कि “उसके लिए ये सारे विकार हैं, जिनका सेनापति अहङ्कार है, अत्यन्त आग्रही स्वभाव है, घमण्ड, काम-क्रोध आदि का सङ्ग्रह करके, इनसे मुक्त होते हुए परब्रह्म की ओर अग्रसर होता है।”
ब्रह्मभूतः(फ्) प्रसन्नात्मा, न शोचति न काङ्क्षति।
समः(स्) सर्वेषु भूतेषु, मद्भक्तिं(म्) लभते पराम्॥18.54॥
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं, “जो इस प्रकार से ब्रह्मीभूत हो गया, ब्रह्मा से एकाकारिता जिसने प्राप्त की, वह प्रसन्न आत्मा होता है।”
श्रीमद्भगवद्गीता अखण्ड प्रसन्नता का गीत है। अब वह शोक नहीं करता और न आकाङ्क्षा करता है, उसे मेरी परा भक्ति प्राप्त हो जाती है। भूतकाल के लिए हमारा शोक होता है, हमारे भविष्य काल के लिए चिन्ता होती है, हम भविष्य के लिए आकाङ्क्षा करते हैं, इसलिए हमारा मन वर्तमान में स्थित नहीं होता है। मनुष्य यदि वर्तमान में रहे तो वह निरन्तर प्रसन्न रह सकता है। वर्तमान में रहने के लिए कुछ न कुछ कर्म करना अनिवार्य है। अब उसके मन में समत्व की भावना भी आ जाती है। वृत्त के केन्द्र से उस वृत्त पर जो भी बिन्दु होते हैं, वे सब समान दूरी पर होते हैं। केन्द्र में जाना अर्थात् सब से समान अन्तर पर कार्य करना।
भक्त्या मामभिजानाति, यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां (न्) तत्त्वतो ज्ञात्वा, विशते तदनन्तरम्॥18.55॥
विवेचन- श्रीभगवान् पूछते हैं, “बताओ अर्जुन! इस भक्ति से क्या प्राप्त होता है?” वे सृष्टिकर्ता, परमात्मा परब्रह्म कैसे हैं? यह जिज्ञासा हमारे मन में होती ही है परन्तु उनके लिए हमारे मन में जो परिकल्पना होती है, वह संस्कारों के क्षेत्र में होती है। वे जैसे हैं, हम उन्हें वैसे ही नहीं समझते। जिसके मन में वह परम भक्ति उमड़कर आती है, इसका अर्थ होता है कि श्रीभगवान् को पूर्णतः अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग से जानना। श्रीभगवान् कहते हैं कि इसके द्वारा भक्त मुझे तत्त्वत: जानते हैं। तत्त्व को जानना अर्थात् उनके स्वरूप को जानना। इस तरह तत्त्वत: उन्हें जानने के बाद भक्त उनमें ही प्रवेश कर लेते हैं। इस देह में रहते हुए भी वे मुझसे भिन्न नहीं होते। वे जहाँ भी जाते हैं, मैं उनके साथ रहता हूँ।
जेथे जातों तेथे तू माझा साङ्गाती
चालविशी हाती धरूनिया।
अर्थात् जहाँ भी मैं जाता हूँ, मेरे साथ आप होते हैं, हे भगवान!, आप ही मुझे चलाते हैं और मैं चलता हूँ।
ठाकुर रामकृष्णदेव जी कहते थे, “मैं यन्त्र हूँ और वे यन्त्री।” यन्त्र अर्थात उपकरण। बनने के बाद वे जैसा चाहते हैं, मैं वैसा ही करता हूँ।” बहुत ही सुन्दर व्याख्या श्रीभगवान् यहाँ देते हैं। हम किसी के साथ जितना समय व्यतीत करते हैं हम उन्हें उतना ही अधिक जानते हैं। जो सदैव श्रीभगवान् के साथ रहता है, उन्हीं में एकाकार हो जाता है, वह परम तत्त्व को जानता है।
एकाग्रता से किसी को जानना- इसके लिए चार अन्धों का एक प्रसङ्ग हम यहाँ देखते हैं। वे अन्धे हाथी को स्पर्श करके अनुभव करने का प्रयास कर रहे हैं कि हाथी होता कैसा है? जिसने उसके पैर को स्पर्श किया, उसे वह एक खम्भे की तरह लग रहा है। जिसका हाथ पेट को लगा, वह सोच रहा है कि यह तो नगाड़े की तरह है। जिसने पूँछ को छुआ, वह सोच रहा है कि यह तो सर्प जैसा है, परन्तु जिसकी आँखें हैं, वह कहेगा कि ये सारे तो उसके अङ्ग हैं। वह हाथी तो इस तरह के अङ्गों से बना है। श्रीभगवान् जैसे हैं, उन्हें वैसे ही जानना।
ठाकुर रामकृष्ण देव जी इसके लिए एक सन्दर्भ बताते हैं।
एक पेड़ पर एक गिरगिट रहता था। उसी पेड़ के नीचे एक साधु रहते थे जो हर समय साधना में लगे रहते थे। वहाँ से आने-जाने वाले लोगों को कभी वह गिरगिट हरा दिखता था तो कभी लाल और कभी पीला पर एकाग्रता से देखने वाले साधु को तो वह एक जैसा दिखता था। हरा, लाल, पीला, ये तो उसके बदलने वाले रङ्ग हैं। इस तरह की एकाग्रता में जो पहुँच जाता है, उसे अलग से परमात्मा की आराधना करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है।
एक सुन्दर बात ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-
तो करी तेतुली पूजा । तो कल्पी तो जपु माझा ।
तो असे तेचि कपिध्वजा । समाधी माझी ॥
“अरे अर्जुन, वह जो कुछ भी कह देता है, वह मेरी पूजा, तप हो जाती है। वह जिस किसी भी अवस्था में रहता है, वह समाधिस्थ अवस्था ही रहती है। निरन्तर एकाग्र रहने वाला भक्त कैसे रहता है? उसके लिए ज्ञानेश्वर महाराज एक और ओवी कहते हैं-
परि ते भक्ती ऐसे, पर्जन्याची सुटिका जैसी।
धरे वाचूनी अनारसी गतीची नेणे।।
जिस तरह आकाश से निकली हुई वर्षा की एक बूँद धरती तक पहुँचने पर ही रुकती है, उसी तरह भक्ति की अखण्ड रसधारा उस परमात्मा की ओर ही दौड़ती रहती है।
का सकल जलसंपत्ती घेऊनी समुद्रा ते गिवसती।
गंगा जैसी अनन्य गती मिळालीची मिळे।।
एक बार गङ्गा मैया सागर से मिल जाने के बाद उससे कभी मुँह मोड़कर वापस नही जातीं, उससे मिलती ही रहती है। उसी तरह से जो एक बार अन्तरङ्ग से श्रीभगवान् से मिल गया, वह सदा मिला ही रहता है, उससे वह कभी विमुख नहीं होता। देह, कर्म में है और मन, एकाग्रता से उस श्रीभगवान् में ही लगा रहता है।
सर्वकर्माण्यपि सदा, कुर्वाणो मद् व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति, शाश्वतं (म्) पदमव्ययम्॥18.56॥
विवेचन- ऐसे नहीं सोचना है कि भक्त एक ही स्थान पर बैठ कर श्रीभगवान् की भक्ति में लगा हुआ है। ऐसा होता तो कोई वैज्ञानिक कैसे किसी नए आविष्कार को कर सकेगा? इसलिए भक्त श्रीभगवान् का ध्यान तो करता ही है, पर बहिरङ्ग में अपने कर्म भी करता रहता है। श्रीभगवान् की सृष्टि के लिए वह सदा तत्पर रहता है। मेरे प्रसाद को शाश्वत रूप में प्राप्त करता है तथा उस परमपद को भी प्राप्त कर लेता है। यह सब कुछ श्रीभगवान् की भक्ति से ही हो सकता है।
श्रीगुरुदेव कहते हैं कि संसार को प्रसन्न करने के बजाय श्रीभगवान् को प्रसन्न करना ही सर्वोपरि है। संसार को प्रसन्न करने के लिए चाहे कितनी भी दौड़ कर लो, उसमें कुछ न्यूनता रह ही जाती है, पर श्रीभगवान् स्वयं ही सारी न्यूनताएँ पूर्ण कर लेते हैं। उन कर्मों को श्रीभगवान् को अर्पण करने के बाद हम उस न्यूनता की भावना से भी मुक्त हो जाते हैं। श्रीभगवान् के अन्तरङ्ग को वही पूर्ण रूप से जान सकता है जो एकाग्रता से उनसे जुड़ा रहता है। श्रीज्ञानेश्वर महाराज की एक सुन्दर ओवी को हम यहाँ समझते हैं=
तरि बाहिया आणि अन्तरा, आपुलिया सर्व व्यापारा
मज व्यापकता ते वीरा विषयो करी |
बहिरङ्ग में करने वाले कर्म और अन्तरङ्ग में चलने वाले विचारों का कर्म, जो भी जीवन-यात्रा के कर्म हैं, दोनों ही उनके लिए करना है। इस तरह से जो अपनी जीवन-यात्रा को आगे बढ़ाता है, वह परम भक्ति, परम पद को प्राप्त कर लेता है।
चेतसा सर्वकर्माणि, मयि सन्न्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य, मच्चित्तः(स्) सततं(म्) भव॥18.57॥
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं, “हे अर्जुन! तुम्हें अपने चित्त से, मन से, अपना कर्म कहीं ले जाकर रखना नहीं है।” या फिर मैंने अपने कर्मों को मन्दिर में ले जाकर रख दिया, श्रीभगवान् के सामने, यह सोचना भी नहीं है और ऐसी कोई आवश्यकता भी नहीं है। मन से अपने कर्मों को श्रीभगवान् को अर्पण करना है। मन से उसे अर्पण करना और बुद्धि से उसे जानना भी है, अर्थात् मन और बुद्धि का एकाकार रहना। श्रीभगवान् कहते हैं, “जिसके मन में भक्ति जागृत होती है, उन्हें मैं बुद्धियोग देता हूँ।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
दसवें अध्याय में श्रीभगवान् ने कहा था, “जो मुझ में निरन्तर युक्त रहते हैं, मैं उन्हें बुद्धियोग प्रदान करता हूँ। उनकी बुद्धि को मैं इस प्रकार से प्रज्ञा से भर देता हूंँ। बुद्धियोग से तत्त्वतः उन्हें जानना और मन से एकाकार रहते हुए प्रेम करना है। मन की भावना प्रेम की है, बुद्धि की भावना तर्क की है और दोनों से ही उसे पकड़ना है। हे अर्जुन! इस तरह से तुम मुझे केन्द्र मे रखते हुए चित्त का निरन्तर अनुसन्धान मेरे साथ रखो। युद्धभूमि में भी तुम ऐसा कर सकते हो। ऐसा करने से तुम अपने सारे सङ्कटों से मुक्ति प्राप्त कर सकते हो।
मच्चित्तः(स्) सर्वदुर्गाणि, मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्, न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥18.58॥
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं, ‘यदि तुम अपना चित्त मुझ में लगाओगे तो मेरे कारण, मेरे प्रसाद के कारण, तुम अपने सारे सङ्कटों से तर जाओगे और यदि तुम अहङ्कार के कारण मेरी बात नहीं मानोगे और युद्धभूमि से चले जाओगे तो तुम्हारा पतन हो जाएगा।”
यदहङ्कारमाश्रित्य, न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते, प्रकृतिस्त्वां (न्) नियोक्ष्यति॥18.59॥
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं की “जो मोह बुद्धि है, उसके कारण यदि तुम यह निर्णय करोगे कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तो यह मिथ्या है। तुम केवल बाह्य रूप से युद्ध टालकर जा सकते हो, पर जहाँ जाकर बैठोगे, वहाँ तुम युद्ध का ही चिन्तन करोगे। मन से तुम यहीं कुरुक्षेत्र में ही रहोगे और यही चिन्तन करोगे कि मेरे भाइयों का क्या हुआ? युद्ध में मेरे भाई जीते या फिर दुर्योधन-दुःशासन जीते? जहाँ मन होता है, मनुष्य भी वहीं होता है। यह तुम्हारा जो मिथ्याभाव है, वह तुम्हें युद्ध करने के लिए बाध्य करेगा। तुम जहाँ कहीं भी जाओगे, परमात्मा का ध्यान भी लगाओगे, तो भी कर्त्तव्य के लिए कोई तुम्हें पुकारेगा तो तुम वहाँ से उसकी सहायता के लिये उठ जाओगे, यह तुम्हारा स्वभाव है।
हे म्हणतील गेला रे गेला । अर्जुन आम्हां बिहाला ।
हा सांगें बोलु उरला । निका कायी ॥
श्रीज्ञानेश्वर महराज कहते हैं, “ये लोग तुम्हारे विषय में क्या सोचेंगे? और इतिहास में तुम्हारा क्या नाम लिखा जाएगा? ये लोग तो सोचेंगे कि तुम उनसे डर कर भाग गए हो। इस तरह का अपना अपमान क्या तुम सहन कर पाओगे?” इसलिए श्रीभगवान्, अर्जुन को आगे याद दिलाते हैं।
स्वभावजेन कौन्तेय, निबद्धः(स्) स्वेन कर्मणा।
कर्तुं(न्) नेच्छसियन्मोहात्, करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥18.60॥
विवेचन- “हे कुन्तीनन्दन! मोह के कारण जो कर्त्तव्य कर्म तुम छोड़ने की इच्छा कर रहे हो या तुम ये कर्त्तव्य कर्म करना नहीं चाहते, उनसे तुम अपने संस्कारों के कारण बँधे हुए हो। यह एक बन्धन है जो तुम्हें एक क्षत्रिय के रूप में प्राप्त हुआ है और तुम एक क्षत्रिय के रूप में इसे करोगे ही।
आगे इस सृष्टि की रचना करते हुए ईश्वर किस तरह सभी के अन्तरङ्ग में स्थित हैं और सभी से उनके स्वभाव के अनुसार कर्म करवाते हैं, यह स्पष्ट किया गया है। यह रचना किस की है और इसके रचयिता कौन हैं? इसका वर्णन आगे चलकर श्रीभगवान् बताते हैं।
मोहे कहा ढूंढे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में
ना मैं काबा ना मैं काशी, ना मथुरा कैलाश में|
इस तरह हमारे महात्मा कहते हैं कि वे अन्तरङ्ग में रहते हैं। उनके साथ कैसे एकाकार होना है? योगेश्वर श्रीकृष्ण और पार्थ धनुर्धर जहाँ होंगे, वहाँ कैसी विजयश्री होगी? उसे हम समापन में देखेंगे।
पूज्य गुरुदेव के कृपा प्रसाद से और श्रीज्ञानेश्वर महाराज के आशीर्वाद से, प्रश्नोत्तर के साथ आज का विवेचन सम्पन्न हआ।
प्रश्नोत्तर
प्रश्नकर्ता - श्री मिहीर भैया
प्रश्न - श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण के “ मैं” का क्या अर्थ है?
उत्तर -”मैं” कहने वाले कौन है? वे परब्रह्म परमात्मा हैं। श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत का संवाद है जिसे आदि शङ्कराचार्य जी ने ढ़ूँढ निकाला था। महाभारत में जहाँ भी श्रीकृष्ण के संवाद हैं, महर्षि वेदव्यास जी ने “ वासुदेव उवाच” कहा है। यहाँ उन्हें सगुण साकार रूप कहा गया है।
कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भगवद्गीता का उपदेश दिया तब वे ईश्वर से जुड़कर “ योगेश्वर” कहलाये।
।।यत्र योगेश्वर: कृष्ण:।।
गीता जी में श्रीकृष्ण के संवादों के लिये “श्रीभगवान् उवाच” कहा गया है, यहाँ श्रीकृष्ण गिरिधर या वंशीधर नहीं हैं अपितु परब्रह्म परमात्मा हैं, सगुण-साकार, पूर्णावतार, इसलिए युद्ध समाप्त होने के बाद जब अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा कि युद्ध भूमि में उन्होंने सारथी के रूप में जो उपदेश दिया था उसे फिर से सुनाएँ क्योंकि अर्जुन उसे भूल गये थे, तो श्रीकृष्ण कहते हैं कि उसके लिए उन्हें पुन: ईश्वर से योग करना होगा।
प्रश्नकर्ता - श्रीमती रश्मी सारागोई दीदी
प्रश्न - अर्जुन की क्या-क्या विशेषताएँ थीं बताएँ ताकि हम भी अर्जुन की तरह बनकर श्रीकृष्ण का सान्निध्य पा सकें?
उत्तर - अर्जुन गुणों की खान थे। सखाभक्ति, त्याग, वीरता, धर्मवीरता, विनम्रता आदि कुछ गुण हैं जो अर्जुन की पहचान हैं।
अर्जुन शब्द का अर्थ ही है ऋजुता अर्थात् सरलता और शौर्य का सङ्गम। अर्जुन मिथ्याचारी नहीं थे, अन्दर और बाहर से एक ही थे, यह थी उनकी सरलता। श्रीकृष्ण की नारायणी सेना के बदले स्वयं श्रीभगवान् को अपने सारथी के रूप में चुनना उनका शौर्य दर्शाता है, वे युद्ध के लिए तैयार थे, उन्हें श्रीकृष्ण एक मित्र और सलाहकार के रूप में चाहिए थे।
उनकी श्रीकृष्ण के प्रति सखाभक्ति सभी जानते हैं।
अपनी माता के कहने पर अर्जुन अपनी पत्नी द्रौपदी को अपने भाइयों के साथ साझा करते हैं यह था उनका त्याग।
एकाग्रता से धनुर्विद्या सीखने के कारण वे महान धनुर्धर बने।
जिस तरह अपने विकारों के साथ अर्जुन श्रीकृष्ण की शरण जाते हैं, हमें भी वही करना चाहिए इससे हमारे विकार भी कम होने लगेंगे और हम श्रीभगवान् के समीप जा पाएँगे।
प्रश्नकर्ता - श्री अनिल गर्ग भैया
प्रश्न - श्री मद्भगवद्गीता में कहा गया है कि भ्रूमध्य और नासिकाग्र पर ध्यान केन्द्रित कर पूजा करना चाहिए, ध्यान किसका करें? साकार परमात्मा का या निराकार परमतत्त्व का?
उत्तर - निराकार परमतत्त्व पर ध्यान केन्द्रित करना कठिन है, इसलिए पहले सगुण और साकार ईश्वर के किसी भी रूप का ध्यान करना चाहिए।
भ्रूमध्य अर्थात् हमारी भौंहों के मध्य आज्ञाचक्र होता है जो गुरु का स्थान कहलाता है इसलिए वहाँ ध्यान केन्द्रित कर अपने गुरु का स्मरण करना चाहिए। नासिकाग्र पर ध्यान केन्द्रित करने से हम अपनी साँसों का अवलोकन कर सकते हैं। वायु व्यापक होती है, वह सञ्चार करते हुए गगन से मिलती है, हमारे मन को सङ्कुचितता से निकालकर परब्रह्म परमात्मा से एकाकार करने में सहायता करती है। वैसे आँखें मूँदकर ध्यान करने से नींद आ सकती है इसलिए अर्धोन्मीलित (अधखुली) नेत्रों से ध्यान करना श्रेष्ठ माना जाता है।
सगुण साकार का चिन्तन कर पहले हृदय-कमल के मध्य परब्रह्म को देखने से ध्यान की भावना मन में आती है उसके बाद निराकार का चिन्तन करना चाहिए जिसके लिए मन को बार(-बार एकाग्र करना पड़ता है।
प्राणायाम, प्रत्याहार, (इन्द्रियों पर नियन्त्रण) परमात्मा की धारणा, ध्यान और समाधी। ये ध्यान के पाँच सोपान हैं।