विवेचन सारांश
भगवान के स्वरूप का वर्णन
गीता परिवार के भक्तिपूर्ण गीत, भजन, हनुमान चालीसा, सुमधुर प्रार्थना एवम् गुरुचरणों की वन्दना के साथ देवशयनी एकादशी के अवसर पर भगवान विट्ठल को प्रणाम करते हुए आज के विवेचन सत्र का आरम्भ हुआ। आज देवशयनी एकादशी है, हमारी संस्कृति कितनी उच्च एवं समृद्ध है कि इक्कीस दिन का पैदल प्रवास करके कल सारी पालकियाँ पण्ढरपुर श्रीविट्ठल भगवान् के पास पहुॅंची और आज श्रीविट्ठल भगवान् के दर्शन कर सारे भक्त आनन्दित हो गए।
प्रश्न- एक यात्रा और चल रही है हमारे देश में, इतनी ही बड़ी, इतनी ही महत्वपूर्ण, कोई अनुमान लगा के बता सकता है? कोई उत्तर बता सकता है?
आरव एवं अंश भैया
उत्तर- भगवान् जगन्नाथ जी की रथ यात्रा।
हमारे देश में एक ही समय पर इतनी बड़ी और महत्वपूर्ण दो यात्राएँ चल रही हैं, एक तो जगन्नाथ पुरी की रथयात्रा, और दूसरी पण्ढरपुर के लिए।
ज्ञानेश्वर महाराज स्वामी जी जिन्हें सन्तो के सम्राट कहते हैं पण्ढरपुर में जो पालकीयाँ जाती हैं, उनमें जो सबसे अन्तिम पालकी जाती है, वह ज्ञानेश्वर महाराज की जाती है। जैसे कोई राजा का दरबार लगता है तो सब लोग अपने-अपने स्थान पर विराजते हैं और फिर अन्त में राजा का आगमन होता है, उसी प्रकार हम अपनी कक्षा में शिक्षक के आने के पूर्व अपने नियत स्थान पर जाकर बैठ जाते हैं, उसके पश्चात हमारे शिक्षक आते हैं और हमारी कक्षा आरम्भ होती हैं अर्थात जो सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है वह सबसे अन्त में आते है।
इस प्रकार सारे सन्त महात्माओं की पालकी निकालने के पश्चात् अन्त में ज्ञानेश्वर महाराज की पालकी निकलती है एवं पण्ढरपुर पहुँचकर आषाढ़ी एकादशी का उत्सव मनाते हैं। ज्ञानेश्वर महाराज ने अपने ग्रन्थ ज्ञानेश्वरी में नौवें अध्याय को सुन्दर, सुमधुर एवम् गहन बताया है। इसका नाम भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
प्रश्न- कोई बता सकता है क्या नाम है इस अध्याय का?
उत्तर- राजविद्याराजगुह्ययोग।
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि विद्याओं का एवम् सभी रहस्यो का राजा। ज्ञानेश्वर महाराज भी कहते हैं कि यह अध्याय इतना रहस्यपूर्ण है कि कोई भी इसे सम्पूर्णता से समझ नहीं पाता है। यह उनका भी प्रिय अध्याय है।
जब ज्ञानेश्वर महाराज ने पुणे के पास आळन्दी में समाधि ली थी, उस समय उनकी आयु केवल बाईस वर्ष की थी। समाधि के समय श्रीमद्भगवद्गीता के नौवें अध्याय में ध्यान लगाते हुए समाधिस्थ हो गए। इतने महत्वपूर्ण अध्याय का अध्ययन हम इतने महत्वपूर्ण अवसर पर कर रहे हैं, जहाँ सभी भक्तगण अपने प्रिय भगवान के दर्शन का लाभ ले रहे हैं।
विगत सप्ताह ग्यारहवें श्लोक में श्रीभगवान् ने कहा था किस प्रकार से श्रीभगवान् सारी सृष्टि का अध्यक्ष बनते हैं। हमने उदाहरण से समझा था, कि सभी लोग कक्षा में बैठे हैं, सभी अपना अपना कार्य कर रहे हैं, शिक्षक कक्षा में नहीं है, कोई वार्तालाप कर रहा है, कोई कहानी पढ़ रहा है, कोई आपस में क्रीड़ा कर रहा है, कोई कागज का विमान बना कर फेंक रहा है, और जैसे ही शिक्षक कक्षा में प्रवेश करते हैं, एकदम से सभी शान्त हो जाते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि जब शिक्षक कक्षा में नहीं होते तो बहुत कोलाहल होता है और जैसे ही कक्षा में प्रविष्ट होते हैं, सभी अपने आप शान्त हो जाते हैं। शिक्षक कुछ कहते नहीं हैं मात्र उनकी उपस्थिति से ही सभी शान्त हो जाते हैं। इस तरह श्रीभगवान् कहते हैं कि मेरी अध्यक्षता में मात्र मेरे उपस्थित होने से सारी सृष्टि का कार्य यथावत चल रहा है, मेरे कुछ करने और न करने से यह अलग बात है, लेकिन मेरी उपस्थिति में सभी कार्य व्यवस्थित हो जाते हैं। लोग इस बात को नहीं जानते क्योंकि मैं उनके प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ। कुछ लोग कहते हैं कि यह क्या पत्थर की मूर्ति रख दी मेरे सामने क्या मैं ऐसे भगवान् को मानूँ?
इसे हम एक उदाहरण द्वारा समझते हैं। एक पिता-पुत्र दोनों उच्च कोटि के चित्रकार थे। पिताजी तो श्रीभगवान् को मानते थे, पुत्र विज्ञान को मानता था। उसे श्रीभगवान् में श्रद्धा नहीं थी। पिता ने सोचा ऐसे कैसे चलेगा इतना अहङ्कार उचित नहीं है, उन्होंने पुत्र को सीख देने की ठानी। एक बार पिता ने एक सुन्दर सा चित्र बनाकर पुत्र की शैय्या के समीप रख दिया। उस समय पुत्र सो रहा था। उठते ही पुत्र की दृष्टि चित्र पर पड़ती है और आश्चर्य से पूछता है कि इतना सुन्दर चित्र किसने बनाया है?
क्या आपने बनाया है? पिता उत्तर देते हैं नहीं जादू से बन गया, पुत्र पूछता है, ऐसा कैसे हो सकता है? कोई तो बनाने वाला होगा? अपने आप चित्र कैसे बन सकता है? तब पिता कहते हैं कि अच्छा तो तुम यह मानते हो कि चित्र बनाने के लिए कोई चित्रकार चाहिए, लेकिन यह नहीं मानते कि संसार बनाने के लिए संसार को बनाना वाला कोई चाहिए? तब पुत्र विचार करता है कि सत्य है। कोई मटका बन रहा है तो मटका बनाने वाला कुम्हार तो चाहिए। चित्र बन रहा है तो चित्रकार चाहिए। कोई भी कार्य हो रहा है तो उसको करने वाला कर्ता तो चाहिए। इस प्रकार पिता ने अपने पुत्र को यह सीख दे दी कि कोई तो है जिसके होने से यह सारा कार्य चल रहा है। श्रीभगवान् कहते हैं कि यह बात अज्ञानी नहीं जानते। चित्रकार का पुत्र अज्ञानी था, लेकिन अपने पिता की बात मानता था।
श्रीभगवान् कहते हैं कि ऐसे लोग मनुष्य शरीर को ही सब कुछ मानते हैं। श्रीकृष्ण केवल मनुष्य थे भगवान् नहीं, ऐसा कई लोग मानते हैं। शिशुपाल की कथा अपने सुनी होगी, शिशुपाल बहुत अन्यायी था और उस समय भगवान् श्रीकृष्ण कालिया नाग का वध, कंस का वध, इतने सारे राक्षसों का वध कर गोकुल की रक्षा जैसे कार्य कर चुके थे। फिर भी शिशुपाल यह मानने को तैयार नहीं था कि श्रीकृष्ण भगवान् हैं। वह उनके लिए अनेक अपशब्दों का प्रयोग करता था। कुछ ऐसे लोग भी थे जैसे सुदामा, पाण्डव, माता कुन्ती जो कृष्ण के स्वरूप में श्रीभगवान् स्थित हैं ऐसा जानते थे। जिनके प्रत्यक्ष भगवान् थे और फिर भी वहाँ उनके स्वरूप को नहीं देख पाए कितना दुर्भाग्य था उनका। इस प्रकार के लोगों को श्रीभगवान् मूढ़ की संज्ञा देते हैं।
प्रश्न- एक यात्रा और चल रही है हमारे देश में, इतनी ही बड़ी, इतनी ही महत्वपूर्ण, कोई अनुमान लगा के बता सकता है? कोई उत्तर बता सकता है?
आरव एवं अंश भैया
उत्तर- भगवान् जगन्नाथ जी की रथ यात्रा।
हमारे देश में एक ही समय पर इतनी बड़ी और महत्वपूर्ण दो यात्राएँ चल रही हैं, एक तो जगन्नाथ पुरी की रथयात्रा, और दूसरी पण्ढरपुर के लिए।
ज्ञानेश्वर महाराज स्वामी जी जिन्हें सन्तो के सम्राट कहते हैं पण्ढरपुर में जो पालकीयाँ जाती हैं, उनमें जो सबसे अन्तिम पालकी जाती है, वह ज्ञानेश्वर महाराज की जाती है। जैसे कोई राजा का दरबार लगता है तो सब लोग अपने-अपने स्थान पर विराजते हैं और फिर अन्त में राजा का आगमन होता है, उसी प्रकार हम अपनी कक्षा में शिक्षक के आने के पूर्व अपने नियत स्थान पर जाकर बैठ जाते हैं, उसके पश्चात हमारे शिक्षक आते हैं और हमारी कक्षा आरम्भ होती हैं अर्थात जो सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है वह सबसे अन्त में आते है।
इस प्रकार सारे सन्त महात्माओं की पालकी निकालने के पश्चात् अन्त में ज्ञानेश्वर महाराज की पालकी निकलती है एवं पण्ढरपुर पहुँचकर आषाढ़ी एकादशी का उत्सव मनाते हैं। ज्ञानेश्वर महाराज ने अपने ग्रन्थ ज्ञानेश्वरी में नौवें अध्याय को सुन्दर, सुमधुर एवम् गहन बताया है। इसका नाम भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
प्रश्न- कोई बता सकता है क्या नाम है इस अध्याय का?
उत्तर- राजविद्याराजगुह्ययोग।
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि विद्याओं का एवम् सभी रहस्यो का राजा। ज्ञानेश्वर महाराज भी कहते हैं कि यह अध्याय इतना रहस्यपूर्ण है कि कोई भी इसे सम्पूर्णता से समझ नहीं पाता है। यह उनका भी प्रिय अध्याय है।
जब ज्ञानेश्वर महाराज ने पुणे के पास आळन्दी में समाधि ली थी, उस समय उनकी आयु केवल बाईस वर्ष की थी। समाधि के समय श्रीमद्भगवद्गीता के नौवें अध्याय में ध्यान लगाते हुए समाधिस्थ हो गए। इतने महत्वपूर्ण अध्याय का अध्ययन हम इतने महत्वपूर्ण अवसर पर कर रहे हैं, जहाँ सभी भक्तगण अपने प्रिय भगवान के दर्शन का लाभ ले रहे हैं।
विगत सप्ताह ग्यारहवें श्लोक में श्रीभगवान् ने कहा था किस प्रकार से श्रीभगवान् सारी सृष्टि का अध्यक्ष बनते हैं। हमने उदाहरण से समझा था, कि सभी लोग कक्षा में बैठे हैं, सभी अपना अपना कार्य कर रहे हैं, शिक्षक कक्षा में नहीं है, कोई वार्तालाप कर रहा है, कोई कहानी पढ़ रहा है, कोई आपस में क्रीड़ा कर रहा है, कोई कागज का विमान बना कर फेंक रहा है, और जैसे ही शिक्षक कक्षा में प्रवेश करते हैं, एकदम से सभी शान्त हो जाते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि जब शिक्षक कक्षा में नहीं होते तो बहुत कोलाहल होता है और जैसे ही कक्षा में प्रविष्ट होते हैं, सभी अपने आप शान्त हो जाते हैं। शिक्षक कुछ कहते नहीं हैं मात्र उनकी उपस्थिति से ही सभी शान्त हो जाते हैं। इस तरह श्रीभगवान् कहते हैं कि मेरी अध्यक्षता में मात्र मेरे उपस्थित होने से सारी सृष्टि का कार्य यथावत चल रहा है, मेरे कुछ करने और न करने से यह अलग बात है, लेकिन मेरी उपस्थिति में सभी कार्य व्यवस्थित हो जाते हैं। लोग इस बात को नहीं जानते क्योंकि मैं उनके प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ। कुछ लोग कहते हैं कि यह क्या पत्थर की मूर्ति रख दी मेरे सामने क्या मैं ऐसे भगवान् को मानूँ?
इसे हम एक उदाहरण द्वारा समझते हैं। एक पिता-पुत्र दोनों उच्च कोटि के चित्रकार थे। पिताजी तो श्रीभगवान् को मानते थे, पुत्र विज्ञान को मानता था। उसे श्रीभगवान् में श्रद्धा नहीं थी। पिता ने सोचा ऐसे कैसे चलेगा इतना अहङ्कार उचित नहीं है, उन्होंने पुत्र को सीख देने की ठानी। एक बार पिता ने एक सुन्दर सा चित्र बनाकर पुत्र की शैय्या के समीप रख दिया। उस समय पुत्र सो रहा था। उठते ही पुत्र की दृष्टि चित्र पर पड़ती है और आश्चर्य से पूछता है कि इतना सुन्दर चित्र किसने बनाया है?
क्या आपने बनाया है? पिता उत्तर देते हैं नहीं जादू से बन गया, पुत्र पूछता है, ऐसा कैसे हो सकता है? कोई तो बनाने वाला होगा? अपने आप चित्र कैसे बन सकता है? तब पिता कहते हैं कि अच्छा तो तुम यह मानते हो कि चित्र बनाने के लिए कोई चित्रकार चाहिए, लेकिन यह नहीं मानते कि संसार बनाने के लिए संसार को बनाना वाला कोई चाहिए? तब पुत्र विचार करता है कि सत्य है। कोई मटका बन रहा है तो मटका बनाने वाला कुम्हार तो चाहिए। चित्र बन रहा है तो चित्रकार चाहिए। कोई भी कार्य हो रहा है तो उसको करने वाला कर्ता तो चाहिए। इस प्रकार पिता ने अपने पुत्र को यह सीख दे दी कि कोई तो है जिसके होने से यह सारा कार्य चल रहा है। श्रीभगवान् कहते हैं कि यह बात अज्ञानी नहीं जानते। चित्रकार का पुत्र अज्ञानी था, लेकिन अपने पिता की बात मानता था।
श्रीभगवान् कहते हैं कि ऐसे लोग मनुष्य शरीर को ही सब कुछ मानते हैं। श्रीकृष्ण केवल मनुष्य थे भगवान् नहीं, ऐसा कई लोग मानते हैं। शिशुपाल की कथा अपने सुनी होगी, शिशुपाल बहुत अन्यायी था और उस समय भगवान् श्रीकृष्ण कालिया नाग का वध, कंस का वध, इतने सारे राक्षसों का वध कर गोकुल की रक्षा जैसे कार्य कर चुके थे। फिर भी शिशुपाल यह मानने को तैयार नहीं था कि श्रीकृष्ण भगवान् हैं। वह उनके लिए अनेक अपशब्दों का प्रयोग करता था। कुछ ऐसे लोग भी थे जैसे सुदामा, पाण्डव, माता कुन्ती जो कृष्ण के स्वरूप में श्रीभगवान् स्थित हैं ऐसा जानते थे। जिनके प्रत्यक्ष भगवान् थे और फिर भी वहाँ उनके स्वरूप को नहीं देख पाए कितना दुर्भाग्य था उनका। इस प्रकार के लोगों को श्रीभगवान् मूढ़ की संज्ञा देते हैं।
9.12
मोघाशा मोघकर्माणो, मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीं(ञ्) चैव, प्रकृतिं(म्) मोहिनीं(म्) श्रिताः।।9.12।।
(जो) आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृति का ही आश्रय लेते हैं, ऐसे अविवेकी मनुष्यों की सब आशाएँ व्यर्थ होती हैं, सब शुभ-कर्म व्यर्थ होते हैं (और) सब ज्ञान व्यर्थ होते हैं अर्थात् जिनकी आशाएँ, कर्म और ज्ञान (समझ) सत्-फल देने वाले नहीं होते।
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं कि इस प्रकार के लोग अलग-अलग प्रकार के कार्य करते हैं। स्वामी जी कहते हैं कि जो जो भी कार्य आप कर रहे हो उसका विश्लेषण करना चाहिए कि उस कार्य को करते हुए-
क्या आपको भक्ति की प्राप्ति हो रही है?
क्या आपको ज्ञान की प्राप्ति हो रही है ?
या फिर वैराग्य की प्राप्ति हो रही है?
क्या आपको ज्ञान की प्राप्ति हो रही है ?
या फिर वैराग्य की प्राप्ति हो रही है?
राग अर्थात किसी वस्तु के प्रति विशिष्ट आकर्षण।
रावण को सोने की लङ्का से लगाव था। सीता का सौन्दर्य देखकर मोहित हो गया था। उसके मन का यह भाव की जो भी सुन्दर है, वह मुझे प्राप्त हो। शिवजी के कैलाश पर्वत पर भी उसकी दृष्टि थी जबकि रावण के आराध्य शिवजी ही थे।
स्वामी जी कहते हैं कि हमें विरक्ति चाहिए कि जो नहीं मिला तो नहीं मिला मैंने पूरा प्रयास किया। मेरे भाग्य में नहीं था। वैराग्य, भक्ति एवम् ज्ञान यदि हमें किसी कार्य से नहीं मिल रहा तो यह समझ लेना चाहिए कि यह कार्य व्यर्थ है। हम चलचित्र देखते हैं कुछ अच्छी होती है कुछ में कोई सन्देश नहीं होता। हमारे तीन घण्टे व्यर्थ हो जाते हैं। उस समय का सदुपयोग करते हुए हम कितने अच्छे कार्य कर सकते थे। हमें समय व्यर्थ नहीं गवाँना चाहिए, अच्छे कार्यों में लगाना चाहिए।
हमने सोलहवें अध्याय में दो प्रकार के लोगों के बारे में जाना था।
सोलहवें अध्याय का नाम किसको याद है? नाम बताइए नाम में ही उत्तर है?
उत्तर- ऋत्विक भैया- दैवासुरसम्पदविभागयोग।
नाम में ही दो प्रकार के लोग हैं वे कौन-कौन से होते हैं?
उत्तर- दैवीयगुण एवं आसुरीगुण वाले।
दैवीय गुण वालों के विषय में हम सोलहवें अध्याय में जान चुके हैं।
राक्षसी गुण वाले के विषय में भी जान चुके हैं।
तीसरे जो होते हैं वे मोहिनी प्रकृति वाले होते हैं। व्यर्थ के कार्य करने वाले इसके अन्तर्गत आते हैं।
राक्षसी अर्थात सब कुछ जानते हुए भी गलत करना।
आसुरी अर्थात मन में किसी के लिए अच्छी भावना ही नहीं हैं।जानबूझकर सब कुछ गलत करना जानबूझकर सब कुछ सभी के लिए गलत ही सोचना।
महात्मानस्तु मां(म्) पार्थ, दैवीं(म्) प्रकृतिमाश्रिताः।
भजन्त्यनन्यमनसो, ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।9.13।।
परन्तु हे पृथानन्दन ! दैवी प्रकृति के आश्रित अनन्य मन वाले महात्मा लोग मुझे सम्पूर्ण प्राणियों का आदि (और) अविनाशी समझकर मेरा भजन करते हैं।
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं कि महात्माजन दैवीय गुणों से युक्त होते हैं, उनके सब कार्य दैवीय गुण वाले ही होते हैं।
अर्जुन का कौन सा नाम आया है इस श्लोक में बताइए?
उत्तर- सिद्धांत भैया- उनका नाम है पार्थ।
अर्जुन का कौन सा नाम आया है इस श्लोक में बताइए?
उत्तर- सिद्धांत भैया- उनका नाम है पार्थ।
हमने पिछली बार भी अर्जुन के अलग-अलग नाम की चर्चा की थी, यहाँ पर श्रीभगवान् अर्जुन को पार्थ कहकर सम्बोधित कर रहे हैं। श्रीभगवान् अर्जुन से अतिशय प्रेम करते हैं और मात्र इसीलिए अलग-अलग नाम से सम्बोधित कर रहे हैं, ऐसा नहीं है, श्रीभगवान् यहाँ अर्जुन को समझा रहे हैं।
पार्थ का अर्थ क्या है?
उत्तर- पृथा का पुत्र। माता कुन्ती का एक नाम पृथा भी था। श्रीभगवान् कहते हैं माता कुन्ती दैवीय प्रकृति से युक्त तपस्विनी थी। जब वह छोटी कन्या थी वह राजा कुन्तीभोज की पुत्री थी। जो भी उनके यहाँ पर साधु ऋषि-मुनि सन्त सज्जन आते थे, उनकी सेवा मन लगा करके करती थी।
सेवा करने के लिए दैवीय गुण चाहिएं। गीता परिवार में इतने पाँच हजार से भी अधिक सेवी हमारी कक्षाएँ अच्छे से चलाने के लिए सेवा दे रहे हैं। सारे के सारे दैवीय गुणों से युक्त हैं।
श्रीभगवान् यहाँ अर्जुन को स्मरण कराते हैं कि तुम पृथा के पुत्र हो, इसलिए दैवीय गुणों से युक्त हो और जो दैवीय गुण से युक्त होते हैं वे अनन्यता से श्रीभगवान् का पूजन करते हैं ।
पार्थ का अर्थ क्या है?
उत्तर- पृथा का पुत्र। माता कुन्ती का एक नाम पृथा भी था। श्रीभगवान् कहते हैं माता कुन्ती दैवीय प्रकृति से युक्त तपस्विनी थी। जब वह छोटी कन्या थी वह राजा कुन्तीभोज की पुत्री थी। जो भी उनके यहाँ पर साधु ऋषि-मुनि सन्त सज्जन आते थे, उनकी सेवा मन लगा करके करती थी।
सेवा करने के लिए दैवीय गुण चाहिएं। गीता परिवार में इतने पाँच हजार से भी अधिक सेवी हमारी कक्षाएँ अच्छे से चलाने के लिए सेवा दे रहे हैं। सारे के सारे दैवीय गुणों से युक्त हैं।
श्रीभगवान् यहाँ अर्जुन को स्मरण कराते हैं कि तुम पृथा के पुत्र हो, इसलिए दैवीय गुणों से युक्त हो और जो दैवीय गुण से युक्त होते हैं वे अनन्यता से श्रीभगवान् का पूजन करते हैं ।
अनन्यता को एक उदाहरण के द्वारा समझने का प्रयास करेंगे।
एक छोटा बालक खेल रहा था। खेलते हुए उसे अपनी माताजी की याद आ गई है। माताजी व्यस्त होने के कारण समय नहीं दे पा रही हैं। काम बहुत पड़ा था तो वे दूसरा खिलौना पकड़ा देती हैं उसे खेलने के लिए। कुछ समय पश्चात् बालक फिर से जाता है, तो उसे खाने के लिए कुछ दे देती हैं। कुछ और इसका समय चला जाए, खिलौना या मनपसन्द चीज दे दो। फिर भी बालक कहता है कि नहीं अब मुझे मेरी माता जी ही चाहिए, अब मुझे और कुछ नहीं चाहिए बस मेरी माताजी चाहिए।
हमारे जीवन में कुछ अच्छे-अच्छे कार्य होने लगते हैं। हम श्रीभगवान् को भूल जाते हैं। जब ऐसा हो जाता है मन में कि नहीं अब कुछ भी हो जाए चाहे जीवन में दुःख हो चाहे सुख हो कुछ भी अच्छा हो या बुरा हो, श्रीभगवान् को कभी नहीं भूलूँगा।
श्रीभगवान् कहते हैं कि मेरे सिवा जब उसे कुछ दिखता ही नहीं है, जो भी कार्य करना है मेरे लिए ही करना है, इस प्रकार से उनका मन मस्तिष्क होता है इस प्रकार से उनकी भावनाएँ रहती हैं! इसे कहते है अनन्यता से पूजन करना।
हमारे जीवन में कुछ अच्छे-अच्छे कार्य होने लगते हैं। हम श्रीभगवान् को भूल जाते हैं। जब ऐसा हो जाता है मन में कि नहीं अब कुछ भी हो जाए चाहे जीवन में दुःख हो चाहे सुख हो कुछ भी अच्छा हो या बुरा हो, श्रीभगवान् को कभी नहीं भूलूँगा।
श्रीभगवान् कहते हैं कि मेरे सिवा जब उसे कुछ दिखता ही नहीं है, जो भी कार्य करना है मेरे लिए ही करना है, इस प्रकार से उनका मन मस्तिष्क होता है इस प्रकार से उनकी भावनाएँ रहती हैं! इसे कहते है अनन्यता से पूजन करना।
सततं(ङ्) कीर्तयन्तो मां(य्ँ), यतन्तश्च दृढव्रताः।
नमस्यन्तश्च मां(म्) भक्त्या, नित्ययुक्ता उपासते॥9.14॥
नित्य- निरन्तर (मुझ में) लगे हुए मनुष्य दृढ़व्रती होकर लगन पूर्वक साधन में लगे हुए और प्रेम पूर्वक कीर्तन करते हुए तथा मुझे नमस्कार करते हुये निरन्तर मेरी उपासना करते हैं।
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं कि मेरे जो अनन्य भक्त होते हैं, प्रति क्षण मेरा कीर्तन करते हैं। कीर्तन करना सभी को पसन्द होता है। स्वामी जी कहते हैं गाते हुए हम एकाग्र हो जाते हैं, ध्यान लग जाता है, आप अच्छी आवाज में गीताजी के अध्याय गायिए, आपको अच्छा लगता है। कोई भी भजन गाइये तो आपको प्रसन्नता का अनुभव होता है। गीताजी के अध्याय तो प्रतिदिन पढ़ते हैं जो समय है उतना उसे देना है बाकी सारे कार्य करते हुए भी मन में यह विचार होना चाहिए कि मैं अगर व्यायाम कर रहा हूँ, तो यह भाव होना चाहिए कि मुझे देश सेवा करनी है। बड़े होकर लोगों केेे लिए कुछ अच्छा कार्य करना है। ज्ञान का उपयोग सारे लोगों की सेवा व कल्याण के लिए करना है। प्रत्येक व्यक्ति का सारा कार्य कीर्तन के समान ही होना चाहिए जैसे कि वह श्रीभगवान् की आराधना ही कर रहा हो।
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये, यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन, बहुधा विश्वतोमुखम्।।9.15।।
दूसरे साधक ज्ञान यज्ञ के द्वारा एकीभाव से (अभेद-भाव से) मेरा पूजन करते हुए मेरी उपासना करते हैं और दूसरे भी कई साधक (अपने को) पृथक् मानकर चारों तरफ मुखवाले मेरे विराट रुप की अर्थात् संसार को मेरा विराट रुप मानकर सेव्य-सेवक भाव से (मेरी) अनेक प्रकार से (उपासना करते हैं)।
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं कि कुछ लोग ज्ञानयज्ञ के माध्यम से भगवान् की उपासना करते हैं, जैसे हमारी गीता कक्षाएँ चलती हैं। सब लोग गीताजी का अध्ययन करते हैं अर्थ समझने का प्रयास करते हैं। यह ज्ञानयज्ञ ही है, कुछ लोग भक्ति में लग जाते हैं, यह क्या है? यह ज्ञानयज्ञ अर्थात गीता ज्ञानयज्ञ ऐसा हम उद्बोधित करते हैं अर्थात जो श्रीभगवान् हैं वे सम्पूर्ण चराचर में व्याप्त हैं, इसका ज्ञान होना ही ज्ञानयज्ञ है।
कुछ लोग भक्तियज्ञ से करते हैं, कुछ लोग घर में अपने से करते हैं अलग-अलग प्रकार के पूजा करने की विधि हो सकती है, परन्तु पूजा किसकी की जा रही है श्रीभगवान् की ही की जा रही है।
एकत्वेन
अर्थात कुछ लोग कहते हैं कि श्रीभगवान् और मैं एक ही हूॅं अर्थात् श्रीभगवान् मेरे अन्तर में ही स्थित हैं यह भाव होता है।
पृथकत्वेन
अर्थात् श्रीभगवान् मेरे स्वामी हैं और मैं उनका दास हूॅं। इस प्रकार से भावना रहती है। कुछ लोगों की बहुधा अर्थात् अलग-अलग प्रकार से यह लोग मेरी पूजा करते हैं ।
एक बार हनुमान जी और रामजी बैठे थे। हनुमान जी तो रामजी की भक्ति में तल्लीन थे। तभी राम जी ने पूछा कि हनुमान एक बात बताओ तुम्हारा और मेरा सम्बन्ध कैसा है? कठिन प्रश्न था। हनुमान जी सोच में थे कि क्या बोलें। भक्त और भगवान् का सम्बन्ध है, प्रेम का सम्बन्ध है, भक्त और भगवान् का सम्बन्ध है या फिर गुरु और शिष्य का सम्बन्ध है। क्या कहा जाए। हनुमान जी को ऐसे ही बुद्धिमतां वरिष्ठम् नहीं कहते हैं। वे प्रखर बुद्धि के थे। उनको संशय में नहीं डाल सकते। हनुमान जी ने उत्तर दिया-
कुछ लोग भक्तियज्ञ से करते हैं, कुछ लोग घर में अपने से करते हैं अलग-अलग प्रकार के पूजा करने की विधि हो सकती है, परन्तु पूजा किसकी की जा रही है श्रीभगवान् की ही की जा रही है।
एकत्वेन
अर्थात कुछ लोग कहते हैं कि श्रीभगवान् और मैं एक ही हूॅं अर्थात् श्रीभगवान् मेरे अन्तर में ही स्थित हैं यह भाव होता है।
पृथकत्वेन
अर्थात् श्रीभगवान् मेरे स्वामी हैं और मैं उनका दास हूॅं। इस प्रकार से भावना रहती है। कुछ लोगों की बहुधा अर्थात् अलग-अलग प्रकार से यह लोग मेरी पूजा करते हैं ।
एक बार हनुमान जी और रामजी बैठे थे। हनुमान जी तो रामजी की भक्ति में तल्लीन थे। तभी राम जी ने पूछा कि हनुमान एक बात बताओ तुम्हारा और मेरा सम्बन्ध कैसा है? कठिन प्रश्न था। हनुमान जी सोच में थे कि क्या बोलें। भक्त और भगवान् का सम्बन्ध है, प्रेम का सम्बन्ध है, भक्त और भगवान् का सम्बन्ध है या फिर गुरु और शिष्य का सम्बन्ध है। क्या कहा जाए। हनुमान जी को ऐसे ही बुद्धिमतां वरिष्ठम् नहीं कहते हैं। वे प्रखर बुद्धि के थे। उनको संशय में नहीं डाल सकते। हनुमान जी ने उत्तर दिया-
देहबुद्ध्या त्वदासोऽहम् जीवबुद्ध्या त्वदंशकः।
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहम् इति मे निश्चिता मतिः॥
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहम् इति मे निश्चिता मतिः॥
अर्थात् देह बुद्धि से मैं आपका दास हूॅं। मेरा जीवन आपसे अलग है क्या? मैं जीव आपका ही अंश हूँ। मेरी आत्मा और आपकी आत्मा अलग ही नहीं है क्योंकि मैं जीव और आप परमात्मा है और आपका अंश मैं हूॅं।
पन्द्रहवें अध्याय में श्रीभगवान् बोलते हैं, ममैवांशो जीव लोके मेरे अन्दर भी वही चैतन्य है जो श्रीभगवान् के अन्दर है।
अहं(ङ्) क्रतुरहं(य्ँ) यज्ञः(स्), स्वधाहमहमौषधम्।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यम्, अहमग्निरहं(म्) हुतम्॥9.16॥
क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषध मैं हूँ, मन्त्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ (और) हवन रूप क्रिया भी मैं हूँ। जानने योग्य पवित्र, ओंकार, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत का पिता, धाता, माता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, आश्रय, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान (भण्डार) (तथा) अविनाशी बीज (भी मैं ही हूँ)। (9.16-9.18)
विवेचन- इस श्लोक से श्रीभगवान् अगले अध्याय का प्रारम्भ कर रहे हैं। दसवें अध्याय में विभूति योग के बारे में बताया है अर्थात् भगवान् को हम किन-किन रूपों में देख सकते हैं? जैसे श्रीभगवान् ने कहा है कि नदियों में मैं गङ्गा हुॅं, वृष्णिवंश (यादव) में मैं श्रीकृष्ण हूॅं, पाण्डवों में मैं अर्जुन हूॅं। इसी प्रकार से अलग-अलग विभूतियाँ भगवान ने बतलाई है, अर्थात् जिन तेजस्वी रूपों की हम आराधना कर सकते हैं, उनके बारे में बताया है।
श्रीभगवान् कहते हैं कि क्रतु मैं हूॅं, यज्ञ भी मैं हूॅं, मैं ही स्वधा हूॅं (अर्थात जब हम यज्ञ में आहुति देते समय स्वाहा बोलते हैं, तब वह आहुतियाँ देवताओं को अर्पित की जाती हैं और जब स्वधा बोलते हैं, तब वह आहुतियाँ पितरों को जाती हैं) मैं ही औषधि अर्थात् विभिन्न प्रकार की वनस्पति भी मैं ही हूॅं। यज्ञ में प्रयोग किए जाने वाले मन्त्र भी मैं ही हूॅं।
श्रीभगवान् कहते हैं कि क्रतु मैं हूॅं, यज्ञ भी मैं हूॅं, मैं ही स्वधा हूॅं (अर्थात जब हम यज्ञ में आहुति देते समय स्वाहा बोलते हैं, तब वह आहुतियाँ देवताओं को अर्पित की जाती हैं और जब स्वधा बोलते हैं, तब वह आहुतियाँ पितरों को जाती हैं) मैं ही औषधि अर्थात् विभिन्न प्रकार की वनस्पति भी मैं ही हूॅं। यज्ञ में प्रयोग किए जाने वाले मन्त्र भी मैं ही हूॅं।
आज्य अर्थात् यज्ञ में जो घी डाला जाता है जिससे अग्नि प्रज्जवलित होती रहे, क्योंकि यज्ञ का अर्थ है एक से अधिक लोगों का जब भला हो रहा है तो वह यज्ञ हो जाता है। हम अच्छे व्यक्ति बनेंगे तो और बाकी लोगों का भला तो होगा ही होगा तो ये सुनने का कार्य भी यज्ञ ही है। इस प्रकार से आहुति जो डाली जाती है, ऐसा मानते हैं वह अग्नि द्वारा देवताओं तक पहुँचा देती है।
यहाँ प्रश्न उठता है कि सब कुछ श्रीभगवान् आप ही हैं, तो अलग से सारी चीज बताने की क्या आवश्यकता है।
सगुण मतलब मूर्त रूप में ध्यान करना। निर्गुण का मतलब है निराकार का ध्यान करना। जब हम आँखें बन्द करते हैं, ध्यान लगाते हैं तो हमारी आँखों के सामने किसी भगवान् की मूर्ति आती है। हम कभी श्रीकृष्ण की प्रतिमा का ध्यान करते हैं, कभी धनुर्धारी श्रीराम जी की प्रतिमा का ध्यान करते हैं, कभी दुर्गा माता का ध्यान करते हैं। जब हम श्रीभगवान् के स्वरूप को ध्यान में रखकर उपासना करते हैं तो यह सगुण उपासना होती है। निर्गुण का क्या अर्थ है न आकार न कोई चेहरा न कोई गुण न मोरपँख दिखेगा, न तिलक और न ही बंसी दिखेगी। प्रकाश भी वास्तव में एक सगुण ही आता है क्योंकि प्रकाश पर ध्यान कर पा रहे हैं।
श्रीभगवान् सृष्टि की सारी वस्तुओं में बसते हैं। सारे पाण्डवों में तो श्रीभगवान् का अंश है, फिर भी श्रीभगवान् कहते है कि अर्जुन में मेरी विभूति है, अर्जुन में मेरा तेज अधिक मात्रा में है, क्योंकि वह मुझे प्रिय है। सारी नदियाॅं तो भगवद् स्वरूप ही हैं, हम नर्मदाजी, ताप्तीजी, यमुनाजी को भी माता मानते हैं। इस प्रकार से गङ्गा जी का सारा जल पवित्र है। गङ्गा जी का जल कहीं से भी उठा लिया जाए पवित्र है, फिर भी गङ्गोत्री, ऋषिकेश, हरिद्वार ऐसे स्थलों पर हम गङ्गा जी का महत्व अधिक मानते हैं।
इसी प्रकार से श्रीभगवान् कहते हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि में मेरा चैतन्य दिखाई देता है, लेकिन कुछ विशेष व्यक्ति व स्थान पर मेरा तेज अधिक है और उस पर हम ध्यान लगाएँ तो हमारा ध्यान अच्छे से लग पाता है।
सगुण मतलब मूर्त रूप में ध्यान करना। निर्गुण का मतलब है निराकार का ध्यान करना। जब हम आँखें बन्द करते हैं, ध्यान लगाते हैं तो हमारी आँखों के सामने किसी भगवान् की मूर्ति आती है। हम कभी श्रीकृष्ण की प्रतिमा का ध्यान करते हैं, कभी धनुर्धारी श्रीराम जी की प्रतिमा का ध्यान करते हैं, कभी दुर्गा माता का ध्यान करते हैं। जब हम श्रीभगवान् के स्वरूप को ध्यान में रखकर उपासना करते हैं तो यह सगुण उपासना होती है। निर्गुण का क्या अर्थ है न आकार न कोई चेहरा न कोई गुण न मोरपँख दिखेगा, न तिलक और न ही बंसी दिखेगी। प्रकाश भी वास्तव में एक सगुण ही आता है क्योंकि प्रकाश पर ध्यान कर पा रहे हैं।
श्रीभगवान् सृष्टि की सारी वस्तुओं में बसते हैं। सारे पाण्डवों में तो श्रीभगवान् का अंश है, फिर भी श्रीभगवान् कहते है कि अर्जुन में मेरी विभूति है, अर्जुन में मेरा तेज अधिक मात्रा में है, क्योंकि वह मुझे प्रिय है। सारी नदियाॅं तो भगवद् स्वरूप ही हैं, हम नर्मदाजी, ताप्तीजी, यमुनाजी को भी माता मानते हैं। इस प्रकार से गङ्गा जी का सारा जल पवित्र है। गङ्गा जी का जल कहीं से भी उठा लिया जाए पवित्र है, फिर भी गङ्गोत्री, ऋषिकेश, हरिद्वार ऐसे स्थलों पर हम गङ्गा जी का महत्व अधिक मानते हैं।
इसी प्रकार से श्रीभगवान् कहते हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि में मेरा चैतन्य दिखाई देता है, लेकिन कुछ विशेष व्यक्ति व स्थान पर मेरा तेज अधिक है और उस पर हम ध्यान लगाएँ तो हमारा ध्यान अच्छे से लग पाता है।
पिताहमस्य जगतो, माता धाता पितामहः।
वेद्यं(म्) पवित्रमोङ्कार, ऋक्साम यजुरेव च।।9.17।।
विवेचन- हमारे मन में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि श्रीभगवान् ने सम्पूर्ण सृष्टि की रचना की है तो श्रीभगवान् को किसने उत्पन्न किया? इस प्रश्न का यहाँ श्रीभगवान् उत्तर दे रहे हैं कि सम्पूर्ण जगत का पिता मैं हूॅं, माता भी मैं हूॅं। दुर्गा माँ हों या श्रीकृष्ण श्रीभगवान् चैतन्य स्वरूप में तो एक ही हैं। सम्पूर्ण सृष्टि का धारण करने वाला भी मैं ही हूॅं। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। चन्द्रमा पृथ्वी के चक्कर लगाता है, पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगती है, क्योंकि पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण के कारण चन्द्रमा पृथ्वी के चक्कर लगा रहा है। सूर्य के गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है । सूर्य भी किसी दूसरे ग्रह का चक्कर लगा रहा है। हमारा विज्ञान अभी इतना विस्तृत नहीं हुआ है, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड घूम रहा है गुरुत्वाकर्षण के कारण। इसका ज्ञान अभी हमें ज्ञात नहीं हुआ है क्योंकि विज्ञान ने इतनी प्रगति नहीं की है।
पितामह भी मैं ही हूॅं।
इसके अन्तर्गत एक रोचक कथा आती है। दक्ष प्रजापति की पुत्री सती का विवाह शिवजी से होने जा रहा था। विवाह के सारे विधि विधान किए जा रहे थे। विवाह के समय शिवजी से पूछते हैं, आपके माता-पिता का नाम क्या हैं? शिवजी विष्णुजी का नाम लेते हैं, पितामह का नाम पूछते हैं, शिवजी बताते हैं ब्रह्मा जी। प्रपितामह का नाम पूछते हैं, शिवजी कहते हैं शिवजी।
यह सभी एक ही चेतना के स्वरूप है। प्रकट स्वरूप नहीं था, जिन्हें हम देख नहीं पाए, चैतन्य तत्त्व का अर्थ है। श्रीभगवान् कह रहे हैं कि माता, पिता, पितामह और प्रपितामह भी मैं ही हूॅं।
ओङ्कार का स्वरूप भी मैं ही हूॅं, अन्तरिक्ष (space) में हम कुछ ही मात्रा में आवाज़ सुन सकते हैं, जैसे चमगादड़ एक अल्ट्रासोनिक तरङ्ग छोड़ते हैं, क्योंकि उन्हें दिखता नहीं है। इन तरङ्गो के माध्यम से वस्तु से टकराकर वापस आने की जो गति होती है, उसके माध्यम से उन्हें पता चलता है कि किस दिशा में जाना है। इस प्रकार हम भी अलग-अलग प्रकार के रङ्ग नहीं देख पाते हैं। जो इन्द्रधनुष में होते हैं, उतने ही रङ्ग हम देख पाते हैं। इसी प्रकार सारा ब्रह्माण्ड एक ही आवृत्ति (frequency) के माध्यम से प्रकाशित हो रहा है। वैज्ञानिकों ने उस ध्वनि को सुनने का प्रयास किया तो उन्होंने पाया कि सारा ब्रह्माण्ड ओङ्कार की ध्वनि निर्मित करता है। अगले चरण में श्रीभगवान् कहते हैं कि चारों वेद भी मैं ही हूॅं।
प्रश्न- क्या आपको चारों वेदों के नाम पता हैं?
उत्तर- रक्षिता दीदी- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद
इन चारों वेदों में हमारी संस्कृति बताई गई है। आध्यात्मिक और वैज्ञानिक ज्ञान इन वेदों में है और चारों वेदों का जो सार है, वह हम गीताजी में पढ़ते हैं।
पितामह भी मैं ही हूॅं।
इसके अन्तर्गत एक रोचक कथा आती है। दक्ष प्रजापति की पुत्री सती का विवाह शिवजी से होने जा रहा था। विवाह के सारे विधि विधान किए जा रहे थे। विवाह के समय शिवजी से पूछते हैं, आपके माता-पिता का नाम क्या हैं? शिवजी विष्णुजी का नाम लेते हैं, पितामह का नाम पूछते हैं, शिवजी बताते हैं ब्रह्मा जी। प्रपितामह का नाम पूछते हैं, शिवजी कहते हैं शिवजी।
यह सभी एक ही चेतना के स्वरूप है। प्रकट स्वरूप नहीं था, जिन्हें हम देख नहीं पाए, चैतन्य तत्त्व का अर्थ है। श्रीभगवान् कह रहे हैं कि माता, पिता, पितामह और प्रपितामह भी मैं ही हूॅं।
ओङ्कार का स्वरूप भी मैं ही हूॅं, अन्तरिक्ष (space) में हम कुछ ही मात्रा में आवाज़ सुन सकते हैं, जैसे चमगादड़ एक अल्ट्रासोनिक तरङ्ग छोड़ते हैं, क्योंकि उन्हें दिखता नहीं है। इन तरङ्गो के माध्यम से वस्तु से टकराकर वापस आने की जो गति होती है, उसके माध्यम से उन्हें पता चलता है कि किस दिशा में जाना है। इस प्रकार हम भी अलग-अलग प्रकार के रङ्ग नहीं देख पाते हैं। जो इन्द्रधनुष में होते हैं, उतने ही रङ्ग हम देख पाते हैं। इसी प्रकार सारा ब्रह्माण्ड एक ही आवृत्ति (frequency) के माध्यम से प्रकाशित हो रहा है। वैज्ञानिकों ने उस ध्वनि को सुनने का प्रयास किया तो उन्होंने पाया कि सारा ब्रह्माण्ड ओङ्कार की ध्वनि निर्मित करता है। अगले चरण में श्रीभगवान् कहते हैं कि चारों वेद भी मैं ही हूॅं।
प्रश्न- क्या आपको चारों वेदों के नाम पता हैं?
उत्तर- रक्षिता दीदी- ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद
इन चारों वेदों में हमारी संस्कृति बताई गई है। आध्यात्मिक और वैज्ञानिक ज्ञान इन वेदों में है और चारों वेदों का जो सार है, वह हम गीताजी में पढ़ते हैं।
गतिर्भर्ता प्रभुः(स्) साक्षी, निवासः(श्) शरणं(म्) सुहृत्।
प्रभवः(फ्) प्रलयः(स्) स्थानं(न्), निधानं(म्) बीजमव्ययम्।।9.18।।
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं कि हमारा जीवन बढ़ रहा है, धीरे-धीरे आगे चल रहा है। यह जीवन समाप्त हो जाएगा, फिर अगला जीवन हमें मिलेगा। वह भी ऐसे धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगा। सभी किसी एक मार्ग पर चल पड़े, इसका अन्तिम पड़ाव क्या है?
जो बुरे लोग होते हैं उनकी गति भी श्रीभगवान् की होती है। उनको बुराई से निकाल के थोड़ा अच्छा बनना पड़ता है। बाल्मीकि ऋषि की कथा हमें पता है। पहले वे डाकू थे फिर एक दिन नारद जी ने उनको कहा कि राम-राम का जाप कीजिए। उनके पाप इतने अधिक थे कि उनके मुख से राम का नाम भी नहीं निकल पा रहा था। श्रीभगवान् का नाम लेने के लिए भी पुण्य की आवश्यकता होती है। हम इतनी सरलता से राम या कृष्ण बोल देते हैं वह ऐसे ही नहीं हुआ है। यह हमारे सञ्चित पुण्य का फल है। तब नारद जी उनसे कहते हैं कि आप मरा-मरा जप करिए यदि आप लगातार ऐसा कहोगे तो राम-राम का ही जप होगा। इसी तरह अन्तिम गति श्रीभगवान् की ओर ही होती है। अपनी अपनी गति के अनुसार कोई जल्दी पहुँचता है कोई देर से। श्रीभगवान् की प्राप्ति हमें कितनी शीघ्रता से होगी, यह हमारे भाव पर निर्भर करेगा। मेरे मन में कल्याण की भावना है, सुहृत् का अर्थ क्या है एक प्रकार का मित्र। मित्र को जब हम उनसे अच्छा व्यवहार करेंगे तब वह हमसे अच्छा व्यवहार करेंगे। आप उनकी प्रशंसा करो तभी वह आपके मित्र बने रहेंगे।
माता हमारे लिए अच्छी बातें सोचती है। फिर भी उनको उसकी कुछ अपेक्षा नहीं रहती है। वह दूसरी बार भी जब भोजन बनाएँगी तब भी अच्छा ही बनाएँगी । इस प्रकार श्रीभगवान् कहते हैं कि मैं आपका सुहृत् हूॅं। चाहे आप श्रीभगवान् की भक्ति करो या न करो, श्रीभगवान् आपका कल्याण ही करेंगे।
गङ्गा जी सबका कल्याण करती हैं, सबके खेत खलिहान को समृद्ध हरा भरा रखती हैं। हम गङ्गाजी के तट पर जाएँगे तो हमें भी पानी तो मिलेगा लेकिन जब हमें उनकी दिव्यता का पता हैं, तो हम गङ्गा किनारे जाएँगे तो ध्यान लगाएँगे। गीतापाठ करेंगे, जिससे हमें आत्मिक शान्ति, प्रसन्नता, दिव्यता एवं अलौकिकता की प्राप्ति होगी। कुछ लोग सूर्य भगवान् को अर्घ्य प्रदान करते हैं, तो क्या सूर्यदेव केवल उन्हीं को प्रकाश प्रदान करते हैं। इसी प्रकार श्रीभगवान् कहते हैं कि मैं सभी के लिए समान कल्याण कारक हूॅं। मैं ही इस सृष्टि का प्रलय एवं सृजन करता हूॅं। मैं कभी नष्ट नहीं होता।
जो बुरे लोग होते हैं उनकी गति भी श्रीभगवान् की होती है। उनको बुराई से निकाल के थोड़ा अच्छा बनना पड़ता है। बाल्मीकि ऋषि की कथा हमें पता है। पहले वे डाकू थे फिर एक दिन नारद जी ने उनको कहा कि राम-राम का जाप कीजिए। उनके पाप इतने अधिक थे कि उनके मुख से राम का नाम भी नहीं निकल पा रहा था। श्रीभगवान् का नाम लेने के लिए भी पुण्य की आवश्यकता होती है। हम इतनी सरलता से राम या कृष्ण बोल देते हैं वह ऐसे ही नहीं हुआ है। यह हमारे सञ्चित पुण्य का फल है। तब नारद जी उनसे कहते हैं कि आप मरा-मरा जप करिए यदि आप लगातार ऐसा कहोगे तो राम-राम का ही जप होगा। इसी तरह अन्तिम गति श्रीभगवान् की ओर ही होती है। अपनी अपनी गति के अनुसार कोई जल्दी पहुँचता है कोई देर से। श्रीभगवान् की प्राप्ति हमें कितनी शीघ्रता से होगी, यह हमारे भाव पर निर्भर करेगा। मेरे मन में कल्याण की भावना है, सुहृत् का अर्थ क्या है एक प्रकार का मित्र। मित्र को जब हम उनसे अच्छा व्यवहार करेंगे तब वह हमसे अच्छा व्यवहार करेंगे। आप उनकी प्रशंसा करो तभी वह आपके मित्र बने रहेंगे।
माता हमारे लिए अच्छी बातें सोचती है। फिर भी उनको उसकी कुछ अपेक्षा नहीं रहती है। वह दूसरी बार भी जब भोजन बनाएँगी तब भी अच्छा ही बनाएँगी । इस प्रकार श्रीभगवान् कहते हैं कि मैं आपका सुहृत् हूॅं। चाहे आप श्रीभगवान् की भक्ति करो या न करो, श्रीभगवान् आपका कल्याण ही करेंगे।
गङ्गा जी सबका कल्याण करती हैं, सबके खेत खलिहान को समृद्ध हरा भरा रखती हैं। हम गङ्गाजी के तट पर जाएँगे तो हमें भी पानी तो मिलेगा लेकिन जब हमें उनकी दिव्यता का पता हैं, तो हम गङ्गा किनारे जाएँगे तो ध्यान लगाएँगे। गीतापाठ करेंगे, जिससे हमें आत्मिक शान्ति, प्रसन्नता, दिव्यता एवं अलौकिकता की प्राप्ति होगी। कुछ लोग सूर्य भगवान् को अर्घ्य प्रदान करते हैं, तो क्या सूर्यदेव केवल उन्हीं को प्रकाश प्रदान करते हैं। इसी प्रकार श्रीभगवान् कहते हैं कि मैं सभी के लिए समान कल्याण कारक हूॅं। मैं ही इस सृष्टि का प्रलय एवं सृजन करता हूॅं। मैं कभी नष्ट नहीं होता।
तपाम्यहमहं(व्ँ) वर्षं(न्), निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं(ञ्) चैव मृत्युश्च, सदसच्चाहमर्जुन॥9.19॥
हे अर्जुन ! (संसार के हित के लिये) मैं (ही) सूर्य रूप से तपता हूँ, मैं (ही) जल को ग्रहण करता हूँ और (फिर उस जल को) (मैं ही) वर्षा रूप से बरसा देता हूँ (और तो क्या कहूँ) अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् (भी) मैं ही हूँ।
विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं कि सूर्य के रूप में जो ताप होता है, वह मैं ही हूॅं। सागर का पानी है उसकी भाप होती है और फिर वर्षा के रूप में शान्त भी हो रही है। वर्षा के रूप में, वर्षा आ जाती है तो शान्त लगता है, वह भी मैं ही हूं। संसार की सारी वस्तुएँ जो आपके समक्ष उपस्थित हैं वह सब मैं ही हूँ और उनका विलय भी मैं ही हूँ अर्थात् मृत्यु। जो वस्तु सत्यापित की नहीं जा सकती है वह भी मैं ही हूँ अर्थात् सत्य और असत्य भी मैं ही हूँ। श्रीभगवान् हमारे आसपास ही उपस्थित हैं। श्रीभगवान् न होने के प्रमाण देखोगे तो वे कैसे मिलेंगे, यदि उनमें श्रद्धा नहीं होगी।
इस अध्याय में थोड़ा विभूतियोग का आरम्भ कर दिया है, फिर अगले सत्र में हम देखेंगे आगे और अर्पण भक्ति कैसे होती है। श्रीभगवान् कहते हैं कि मुझे क्या चाहिए। मुझे आपसे कोई भी अपेक्षा नहीं है परन्तु आपको देना है तो एक फूल भी दे दिया है, पत्र दे दिया। चाहे एक जल का बूँद भी दे दी तो प्रसन्न हो जाता हूॅं, इससे आपकी देने की वृत्ति बढ़ती है।
इस अध्याय में थोड़ा विभूतियोग का आरम्भ कर दिया है, फिर अगले सत्र में हम देखेंगे आगे और अर्पण भक्ति कैसे होती है। श्रीभगवान् कहते हैं कि मुझे क्या चाहिए। मुझे आपसे कोई भी अपेक्षा नहीं है परन्तु आपको देना है तो एक फूल भी दे दिया है, पत्र दे दिया। चाहे एक जल का बूँद भी दे दी तो प्रसन्न हो जाता हूॅं, इससे आपकी देने की वृत्ति बढ़ती है।
दान देना चाहिए कि नहीं देना चाहिए?
सबसे पहले श्रीभगवान् को फूल चढ़ाएंगे फिर आगे जाकर बाकी जगत में सारे लोगों को प्रसन्नता का दान देंगे। सर्वप्रथम श्रीभगवान् को भक्ति भाव अर्पित करेंगे, जिन्होंने हमें जीवन दिया है। दूसरा कार्य माता-पिता को प्रणाम और फिर उसके बाद बाकी सारे जगत में बाकी लोगों के लिए कार्य इस प्रकार से हमारा जीवन होना चाहिए।
हरिनाम सङ्कीर्तन के साथ आज के विवेचन सत्र का समापन हुआ।
सबसे पहले श्रीभगवान् को फूल चढ़ाएंगे फिर आगे जाकर बाकी जगत में सारे लोगों को प्रसन्नता का दान देंगे। सर्वप्रथम श्रीभगवान् को भक्ति भाव अर्पित करेंगे, जिन्होंने हमें जीवन दिया है। दूसरा कार्य माता-पिता को प्रणाम और फिर उसके बाद बाकी सारे जगत में बाकी लोगों के लिए कार्य इस प्रकार से हमारा जीवन होना चाहिए।
हरिनाम सङ्कीर्तन के साथ आज के विवेचन सत्र का समापन हुआ।
प्रश्नोत्तर सत्र
प्रश्नकर्ता- लक्षिता दीदी
प्रश्न- दीदी, श्रीभगवान् अगर है तो फिर दिखाई क्यों नहीं देते?
उत्तर- श्रीभगवान् तो हैं परन्तु उन्हें देखने के लिए हमें बहुत तप की आवश्यकता है। जैसे ध्रुव ने बहुत साल तक तप किया और श्रीभगवान् ने उनको दर्शन दिए। इसी प्रकार से और भी अनेक उदाहरण हैं। जैसे महर्षि रामकृष्ण परमहंस काली माता के बहुत भक्त थे। वे उन्हें दर्शन देती थी। वे हमेशा यूं ही कहते थे कि वही मेरी माता है तो और मैं किसी से बात नहीं करता। उनका भाव ही ऐसा मधुर और दृढ़ था कि उनको माँ के दर्शन होते थे। यह आवश्यक नहीं कि वे हमें अगले जन्म में ही प्राप्त होंगे या किसी और जन्म में प्राप्त होंगे। वे हमें इस जन्म में भी प्राप्त हो सकते हैं। हमारे अन्दर उतना तेज, श्रद्धा, भक्ति और तप होना चाहिए जिससे कि हम उन्हें पा सकें।
प्रश्न- क्या भगवान् साधु सन्तों को दिखाई देते हैं?
उत्तर- श्रीभगवान् साधु सन्तों को अवश्य दिखाई देते हैं। जिनको एक बार उनके दर्शन हो जाते हैं वे बताएंगे नहीं, क्योंकि वह आनन्द इतना अपरिमित होता है कि उसका वर्णन किया ही नहीं जा सकता। उसके बाद सारी इच्छाएँ ही समाप्त हो जाती हैं और यह इच्छा भी समाप्त हो जाती है कि मैं लोगों को जाकर बताऊँ कि मुझे श्रीभगवान् के दर्शन हुए। वे श्रीभगवान् के साथ एकरूप हो जाते हैं।
आदि शङ्कराचार्यजी ने बहुत सारे शास्त्रों के सरल भाष्य लिखे है। इस प्रश्न का भी बहुत सुंदर वर्णन दिया है-
प्रत्यक्ष देवता माता।
अगर परमात्मा के रूप का प्रत्यक्ष रूप वर्णित करना हो तो माता के रूप में ही साक्षात् परमात्मा के स्वरूप का दर्शन होता है।
पण्ढरपुर, महाराष्ट्र का एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है, जो भगवान् विट्ठल (विष्णु का एक रूप) और उनकी पत्नी रुक्मिणी को समर्पित है। इसकी कथा भक्त पुण्डलिक से जुड़ी है, जिन्होंने अपने माता-पिता की सेवा के लिए श्रीभगवान् को ईट पर खड़े होने के लिए कहा। भक्त पुण्डलिक अपने माता-पिता की बहुत सेवा करते थे। एक दिन भगवान् विष्णु (विट्ठल के रूप में) उनके घर पधारे। पुण्डलिक अपने माता-पिता की सेवा में व्यस्त थे। भगवान् ने कहा-
"मैं द्वारकाधीश द्वारिका से आया हूं।"
तब पुण्डलिक ने भगवान् विट्ठल से कहा कि वे ईट पर खड़े होकर उनकी प्रतीक्षा करें, जब तक वे अपने माता-पिता की सेवा पूरी न कर लें। भगवान् विट्ठल, भक्त की भक्ति से प्रसन्न होकर, उसी ईट पर खड़े रहे। पण्ढरपुर के नाम से प्रसिद्ध इस स्थान पर भगवान् विट्ठल की मूर्ति, जो ईट पर खड़ी है, आज भी वहाँ पूजी जाती है।
प्रश्नकर्ता- लक्षिता दीदी
प्रश्न- दीदी, श्रीभगवान् अगर है तो फिर दिखाई क्यों नहीं देते?
उत्तर- श्रीभगवान् तो हैं परन्तु उन्हें देखने के लिए हमें बहुत तप की आवश्यकता है। जैसे ध्रुव ने बहुत साल तक तप किया और श्रीभगवान् ने उनको दर्शन दिए। इसी प्रकार से और भी अनेक उदाहरण हैं। जैसे महर्षि रामकृष्ण परमहंस काली माता के बहुत भक्त थे। वे उन्हें दर्शन देती थी। वे हमेशा यूं ही कहते थे कि वही मेरी माता है तो और मैं किसी से बात नहीं करता। उनका भाव ही ऐसा मधुर और दृढ़ था कि उनको माँ के दर्शन होते थे। यह आवश्यक नहीं कि वे हमें अगले जन्म में ही प्राप्त होंगे या किसी और जन्म में प्राप्त होंगे। वे हमें इस जन्म में भी प्राप्त हो सकते हैं। हमारे अन्दर उतना तेज, श्रद्धा, भक्ति और तप होना चाहिए जिससे कि हम उन्हें पा सकें।
प्रश्न- क्या भगवान् साधु सन्तों को दिखाई देते हैं?
उत्तर- श्रीभगवान् साधु सन्तों को अवश्य दिखाई देते हैं। जिनको एक बार उनके दर्शन हो जाते हैं वे बताएंगे नहीं, क्योंकि वह आनन्द इतना अपरिमित होता है कि उसका वर्णन किया ही नहीं जा सकता। उसके बाद सारी इच्छाएँ ही समाप्त हो जाती हैं और यह इच्छा भी समाप्त हो जाती है कि मैं लोगों को जाकर बताऊँ कि मुझे श्रीभगवान् के दर्शन हुए। वे श्रीभगवान् के साथ एकरूप हो जाते हैं।
आदि शङ्कराचार्यजी ने बहुत सारे शास्त्रों के सरल भाष्य लिखे है। इस प्रश्न का भी बहुत सुंदर वर्णन दिया है-
प्रत्यक्ष देवता माता।
अगर परमात्मा के रूप का प्रत्यक्ष रूप वर्णित करना हो तो माता के रूप में ही साक्षात् परमात्मा के स्वरूप का दर्शन होता है।
पण्ढरपुर, महाराष्ट्र का एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है, जो भगवान् विट्ठल (विष्णु का एक रूप) और उनकी पत्नी रुक्मिणी को समर्पित है। इसकी कथा भक्त पुण्डलिक से जुड़ी है, जिन्होंने अपने माता-पिता की सेवा के लिए श्रीभगवान् को ईट पर खड़े होने के लिए कहा। भक्त पुण्डलिक अपने माता-पिता की बहुत सेवा करते थे। एक दिन भगवान् विष्णु (विट्ठल के रूप में) उनके घर पधारे। पुण्डलिक अपने माता-पिता की सेवा में व्यस्त थे। भगवान् ने कहा-
"मैं द्वारकाधीश द्वारिका से आया हूं।"
तब पुण्डलिक ने भगवान् विट्ठल से कहा कि वे ईट पर खड़े होकर उनकी प्रतीक्षा करें, जब तक वे अपने माता-पिता की सेवा पूरी न कर लें। भगवान् विट्ठल, भक्त की भक्ति से प्रसन्न होकर, उसी ईट पर खड़े रहे। पण्ढरपुर के नाम से प्रसिद्ध इस स्थान पर भगवान् विट्ठल की मूर्ति, जो ईट पर खड़ी है, आज भी वहाँ पूजी जाती है।