विवेचन सारांश
ॐ-तत्-सत् का महत्त्व

ID: 7635
Hindi - हिन्दी
रविवार, 10 अगस्त 2025
अध्याय 17: श्रद्धात्रयविभागयोग
2/2 (श्लोक 14-28)
विवेचक: गीता विदूषी सौ वंदना जी वर्णेकर


चिर पुरातन संस्कृति के अन्तर्गत ईश वन्दना, सद्गुणों के महिमागान, श्री हनुमान चालीसा पाठ एवम् श्री गुरु चरणों के स्मरण के साथ ही सत्रहवें अध्याय के उत्तरार्द्ध के अर्थ विवेचन सत्र का शुभारम्भ हुआ। 

माँ सरस्वती, श्रीवेदव्यास जी, श्री ज्ञानेश्वर महाराज तथा सद्गुरु स्वामी गोविन्ददेव गिरि जी महाराज के चरणों में कोटि-कोटि वन्दन तथा सभी साधकों का विनम्र अभिवादन किया गया।

हमने देखा है कि श्रीभगवान् द्वारा समराङ्गण में गाया गया यह गीत हमारे जीवन का उन्नयन करता है। श्री ज्ञानेश्वर महाराज ने इस गीत की महत्ता गाते हुये हमारे लिए ज्ञानेश्वरी के रूप में एक भावार्थ-दीपिका प्रस्तुत की है।

वे कहते हैं-

तैसा वाग्विलास विस्तारू । गीतार्थेंसी विश्व भरूं ।
आनंदाचें आवारूं । मांडूं जगा ॥
“मैं अपनी वाणी का विस्तार, अपनी वाणी से यह उद्बोधन, अपनी वाणी से ज्ञानेश्वरी इसलिए प्रवाहित कर रहा हूँ ताकि सम्पूर्ण विश्व श्रीमद्भगवद्गीता के अर्थ से भर जाये।” जब तक यह अर्थ हमारे अन्तरङ्ग में प्रवेश नहीं करता, जब तक “गीता पढ़ें, पढ़ाएँ, जीवन में लाएँ" का महत्त्व केवल पढ़ने तक सीमित नहीं रह जाता, तब तक हम वास्तव में इसकी गहराई में नहीं उतरते तथा उस आनन्द की प्राप्ति भी नहीं कर पाते। श्रीमद्भगवद्गीता सत्, चित्, आनन्द परमात्मा का वाङ्गमयी स्वरूप है।

।।जयतु जयतु गीता, वाङ्मयी कृष्णमूर्ति।।

यह वाङ्गमय श्रीकृष्ण की मूर्ति है इसलिए अर्जुन के रथ की कमान जिस प्रकार से श्रीभगवान् ने अपने हाथ में ली थी तथा सारथी के रूप में वे स्वयं वहाँ प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित थे, उसी प्रकार यह वाङ्गमयी श्रीकृष्ण की मूर्ति अन्तरङ्ग से हमारे इस जीवन-रथ का सारथ्य करती है।

पूज्य गुरुदेव के मुखारविन्द से श्रीमद्भगवद्गीता का जो ज्ञान प्रवाहित होता है, हम उसी के कण एकत्र करके, उन्हीं कण रूपी रत्नों से अपने जीवन को सँवारते हैं। पूज्य गुरुदेव ने कहा है-

"सदगुणों की साधना में ध्येय ज्योति नित जले
सङ्ग्राममय जीवन धरा में विजय-रथ ले हम चले"

यदि हमें ऐसा लगता हो कि यह विजय-रथ आगे बढ़ता जाए, हमारे जीवन का उन्नयन प्रतिक्षण होता जाए तो हमारे जीवन में एक संस्कार का पाथेय प्रवाहित होना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता के संस्कार के विषय में पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि एक लोहे के टुकड़े का जब संस्कार होता है तब वह कील बन जाता है। केवल लोहे के टुकड़े का कोई उपयोग नहीं होता, जबकि उसका संस्कार हो जाने के उपरान्त कील का उपयोग अनेक स्थानों पर होता है। संस्कार होने से उस लोहे के टुकड़े का मूल्य बढ़ता जाता है। उससे स्प्रिङ्ग बनता है तो कुछ और अधिक काम में आ जाता है तथा जब और अधिक संस्कार किया जाता है तो वह विमान का पुर्जा भी बन जाता है। इस प्रकार एक लोहे के टुकड़े का मूल्य संस्कारों के कारण बढ़ता गया, उसी प्रकार हमारे जीवन में भी इन संस्कारों को ढालते रहने से हमारे जीवन का मूल्य भी बढ़ता जाता है। इन संस्कारों को ढालने के लिए यह सत्रहवाँ अध्याय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

पूज्य गुरुदेव के अनुसार श्रद्धा का अर्थ है सत्य धारण करने की वृत्ति। सत्य श्रद्धा से ही अन्तरङ्ग में प्रभावित होता है। तर्क से हमारी बुद्धि तराशी जाती है किन्तु श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है।

हमने पिछले सत्र में देखा कि श्रद्धा भी तीन प्रकार की होती है। हम पाँच स्तरों पर जीवन जीते हैं- शरीर के स्तर पर, मन के स्तर पर, इन्द्रियों के स्तर पर, बुद्धि के स्तर पर तथा आत्म-तत्त्व के स्तर पर, जो सर्वोपरि है, जहाँ तक हमारे ऋषि-मुनि, सन्त-महात्मा पहुँचते हैं। वही हमें सच्चिदानन्द परमात्मा के स्वरूप के विषय में बताते हैं। जब हम इन पाँचों स्तरों पर जीवन जीते हैं तो एक-एक स्तर को शुद्ध करना पड़ता है। इसी को संस्कार कहते हैं।

पिछले सत्र में हमने आहार तथा यज्ञ के विषय में चिन्तन किया। आगे श्रीभगवान् तप तथा ज्ञान के विषय में बताने वाले हैं। आहार हमारे व्यक्तिगत जीवन को पुष्ट करता है। आहार हमारे जीवन का उन्नयन भी कर सकता है तथा अपनयन भी कर सकता है। हम जो-जो संस्कार ग्रहण करेंगे, उनमें कुसंस्कार भी हो सकते हैं जो हमारे जीवन का अपनयन करेंगे तथा जो सुसंस्कार होंगे, वे जीवन का उन्नयन करेंगे। हमें मानव-जीवन प्राप्त हुआ है तो यही हमें उन्नयन की ओर ले जा सकता है। केवल मानव जीवन ही योग-योनि है जबकि शेष सभी भोग-योनियाँ हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता एक ऐसा दिव्य ग्रन्थ है जहाँ श्रीभगवान् समाधि का विज्ञान बताने के साथ-साथ आत्मिक स्तर पर जीवन का उन्नयन करते हुए उस परमात्मा के साथ एकाकार होने का विज्ञान भी बताते हैं तथा उसके साथ-साथ भोजन का विज्ञान भी बताते हैं।

पूज्य गुरुदेव ने इसकी एक सुन्दर साधना क्रम दीपिका प्रस्तुत की है कि मनुष्य जब तक यह नहीं समझता कि कहाँ से कहाँ तक पहुँचना है, उसे एकदम से आत्मज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता। हमें अपना व्यक्तिगत जीवन भी शुद्ध करना पड़ेगा। हमने शरीर के स्तर पर आहार के विषय में जाना। इस अध्याय में चार बातें आती हैं जो तीन प्रकार की कैसे हो सकती हैं, यह देखेंगे।

सात्त्विक तथा राजसिक वृत्तियाँ तो कुछ न कुछ उन्नयन करेंगी जिनमें रजोगुण के कारण अपनयन भी होगा तथा अधोगति भी हो सकती है किन्तु तमोगुण तो अधोगति की ओर ही ले जाता है।

आहार तथा तप व्यक्तिगत रूप से जीवन उन्नति की ओर ले जाने वाली प्रक्रिया है। दान तथा यज्ञ, सामाजिक या राष्ट्रीय स्तर पर हमारे जीवन का उन्नयन करने वाली प्रक्रियाएँ हो सकती हैं। जब सर्व-हितकारी, समर्पण की भावना से, सङ्गठित रूप से सृष्टि के लिए कोई भी अच्छा कार्य होता है, उसे सात्त्विक यज्ञ कहा जाता है।

यही सात्त्विक यज्ञ उस समय राजसिक यज्ञ बन जाता है जब मनुष्य अपने कार्य के फल की प्राप्ति की आकाङ्क्षा करता है या प्रसिद्धि प्राप्त करने की कामना करता है।

इस प्रकार यज्ञ हमारे मन की भावना के अनुसार ही सात्त्विक या राजसिक हो जाते हैं। हम कहते हैं कि “यह श्रीमद्भगवद्गीता का महायज्ञ है जो सामूहिक रूप से किया जाता है।" इस महायज्ञ में बहुत सारे समूह एक साथ हाथ मिला कर इस सृष्टि का उन्नयन करने वाली प्रक्रिया में सहयोग करते हैं, इसलिए यह महायज्ञ कहलाता है। इसके पीछे मूल भावना यह होती है कि “मैंने यह ज्ञान प्राप्त किया है तो मैं इसे अन्यान्य व्यक्तियों तक पहुँचाऊँ क्योंकि मैंने प्राप्त किया है तो देना भी मेरा कर्त्तव्य है, इसलिए यह सात्त्विक यज्ञ है जो हमें कर्त्तव्य-पूर्ति का एक अत्युच्च समाधान प्रदान करता है।

सृष्टि को अहित पहुँचाने वाले, उसका अकल्याण करने वाले समस्त कार्य तामसिक यज्ञ की श्रेणी में आते हैं।

आगे श्रीभगवान् तप के विषय में बताते हैं और यह तप भारतीय सनातन संस्कृति का एक ध्येय वाक्य है जिसका अर्थ है तपाना। तप से शरीर, मन तथा वाणी की शुद्धि होती है। श्रीभगवान् कहते हैं कि यह तप भी तीन प्रकार का होता है। जिस प्रकार अट्ठारह कैरेट के स्वर्ण को तपा कर, अशुद्धियों को गला कर शुद्ध चौबीस कैरेट का स्वर्ण तैयार किया जाता है, उसी प्रकार जब तक जीवन इस प्रकार से तपेगा नहीं, तब तक वह उस परमात्मा के साथ एकाकार हो ही नहीं सकता। हम प्रतिक्षण इस सृष्टि से कुछ न कुछ प्राप्त करते हैं, जैसे वायु, जल आदि जो हमारे जीवन के लिए आवश्यक होते हैं तथा इस प्रकार सृष्टि की क्षति की पूर्ति करने के लिए तथा अपने जीवन की शक्ति को पुनः संवर्धित करने के लिए उसे तपाना पड़ता है। तप से ही हमें बल प्राप्त होता है।

श्रीभगवान् कहते हैं कि तप भी तीन प्रकार के होते हैं- शारीरिक, वाचिक तथा मानसिक। यहाँ श्रीभगवान् स्थूल से सूक्ष्म की ओर आ गये हैं। हमारा शरीर स्थूल है। जब तक हम स्थूल पर नियन्त्रण नहीं करते, तब तक हम मन तथा वाणी पर नियन्त्रण प्राप्त नहीं कर सकते। इनमें सत्त्व अर्थात् ज्ञान का प्रकाश, रजोगुण अर्थात् चञ्चलता तथा क्रियाशीलता और तमोगुण अर्थात् क्रियाशून्यता है।

17.14

देवद्विजगुरुप्राज्ञ, पूजनं(म्) शौचमार्जवम्|
ब्रह्मचर्यमहिंसा च, शारीरं(न्) तप उच्यते||17.14||

देवता, ब्राह्मण, गुरुजन और जीवन्मुक्त महापुरुष का यथायोग्य पूजन करना, शुद्धि रखना, सरलता, ब्रह्मचर्य का पालन करना और हिंसा न करना - (यह) शरीर-सम्बन्धी तप कहा जाता है।


विवेचन- शारीरिक तप का अर्थ है शरीर को तपाना। चातुर्मास में हम व्रत करते हैं। इसे अनशन का व्रत कहा गया है। यह अनशन का व्रत भी हमारे स्वयं के आहार के नियन्त्रण के लिए होता है। तप की एक व्याख्या है-

"तपो द्वन्द्व सहनम्"

जीवन की अनुकूलता-प्रतिकूलता के द्वन्द्व को सहन करने की शक्ति हमें तप से प्राप्त होती है। हम सभी जीवन में अनुकूलता तो चाहते हैं किन्तु केवल अनुकूलता से जीवन नहीं व्यतीत होता, यह हम सब जानते हैं। अनुकूलता के पीछे प्रतिकूलता आती है, प्रतिकूलता के पीछे अनुकूलता आती है। सुख के पीछे दुःख तथा दुःख के पीछे सुख आता है। इस प्रकार से यह चक्र चलता रहता है और हमें इन दोनों को सहना पड़ता है। सहन करने का अर्थ है कि उसका प्रदर्शन नहीं होना चाहिए। उसे सहन करने की क्षमता होनी चाहिए।

श्रीभगवान् कहते हैं, “देवताओं की अर्चना करना, ब्राह्मणों की अर्चना करना, गुरुजनों का भी पूजन करना, प्राज्ञ अर्थात् बुद्धिमान व्यक्तियों का पूजन करना तथा जीवन में शुद्धता रखने के लिए कुछ न कुछ कष्ट उठाना, तप करना, अन्तरङ्ग की सरलता रखना, सत्य का पालन करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, अहिंसा, ये सब शरीर के तप हैं।"

हम चातुर्मास में कुछ न कुछ पूजन आदि करते हैं। इस सृष्टि के अधिष्ठात्रा अथवा सञ्चालक देवताओं का पूजन जैसे वायु देवता, वरुण देवता आदि का पूजन करते हैं।

ब्राह्मण का अर्थ है जो ब्रह्म को जानने की प्रक्रिया के अन्तर्गत वेदों को अपने कण्ठ में धारण करते हैं। इसके लिए वे अपने जीवन को तपाते हैं, वे अपने जीवन की समिधा दे देते हैं और ये हमारी सनातन संस्कृति के शिरोमणि होते हैं। यहाँ ब्राह्मण शब्द का अर्थ केवल जातिवाचक नहीं लेना चाहिए।

गुरु, जिनसे हम कुछ न कुछ शिक्षा लेते हैं। गुरु शब्द का अर्थ बड़ा होता है इसलिए यहाँ हमारे माता-पिता तथा अन्य ज्येष्ठ व्यक्ति भी इसके अन्तर्गत आते हैं। इनका भी पूजन करना, अर्थात् इनकी कुछ न कुछ सेवा करना।  

गुरुदेव कहते हैं कि स्वयं-निर्मित (self made) कहना एक विडम्बना है। कोई भी स्वयं निर्मित हो ही नहीं सकता।

सरलता के लिए हमने देखा था कि पाण्डव तथा कौरव एक ही पाठशाला में पढ़े, दोनों के एक ही गुरु थे- आचार्य द्रोण। उन दोनों को पहला वैदिक पाठ पढ़ाया गया- “सत्यं वद, धर्मं चर।” सबने पढ़ लिया। दूसरे दिन गुरु द्रोणाचार्य ने पूछा कि “सबको पाठ याद हो गया?” केवल युधिष्ठिर चुप रहे तो गुरुदेव ने पूछा कि “क्या तुम्हें याद नहीं हुआ?” लगातार कई दिनों तक गुरुदेव को वही उत्तर मिलता रहा। तब गुरुदेव ने पूछा “इतना छोटा सा पाठ तुम याद नहीं कर सकते?” युधिष्ठिर ने कहा “गुरुदेव! कल तक मैं कुछ न कुछ झूठ बोल रहा था किन्तु आज याद हो गया है।" जीवन में उतारना ही सत्य है।

ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म की प्राप्ति के लिए अपने जीवन में आचरण करना। इसका अर्थ अविवाहित होना नहीं है। एक पत्नीव्रत भी ब्रह्मचर्य कहा गया है।

अहिंसा अर्थात् किसी को मन, वाणी या शरीर से चोट नहीं पहुँचाना।

हमने यक्ष का प्रश्न सुना है, यक्ष ने धर्मराज युधिष्ठिर से सौ प्रश्न पूछे थे। युधिष्ठिर ने उन सब प्रश्नों के उत्तर दिये जबकि अन्य चार भाइयों ने उत्तर नहीं दिये इसलिए उन चारों की मृत्यु हो गई। युधिष्ठिर ने कहा- तपस्व धर्मं वर्तित्त्वं। यह महाभारत की व्याख्या है। स्वधर्म, स्वकर्त्तव्य का पालन करने के लिए कुछ कष्ट होते हैं जो तप कहलाते हैं।

ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-

स्वधर्मु जो बापा, तो नित्ययज्ञु जाण पां।
 म्हणोनि वर्ततां तेथ पापा, संचारु नाहीं।।

स्वधर्म का पालन नित्य यज्ञ ही है।

आगे श्रीभगवान् वाणी के तप के विषय में बता रहे हैं। वाणी पर नियन्त्रण, इस पर अङ्कुश आवश्यक है। गलत बातें मैं बोलूँ नहीं और गलत बातें मैं ग्रहण भी न करूँ, इसलिए मौनव्रत भी किया जाता है।

17.15

अनुद्वेगकरं(म्) वाक्यं(म्), सत्यं(म्) प्रियहितं(ञ्) च यत्|
स्वाध्यायाभ्यसनं(ञ्) चैव, वाङ्मयं(न्) तप उच्यते||17.15||

जो किसी को भी उद्विग्न न करने वाला, सत्य और प्रिय तथा हितकारक भाषण है (वह) तथा स्वाध्याय और अभ्यास (नाम जप आदि) भी - यह वाणी-सम्बन्धी तप कहा जाता है।

विवेचन- हमारा गीता-पाठ इस वाङ्गमयी तप के अन्तर्गत ही आता है। श्रीभगवान् कहते हैं, “अपनी जिह्वा से ऐसे शब्द निकलने चाहिए या ऐसी वाणी निकलनी चाहिए जिससे किसी को उद्वेग न आए। वाणी सौम्य व मृदु होनी चाहिए, प्रिय होनी चाहिए तथा हितकारक होनी चाहिए।”

किसी की स्तुति कर दी, किन्तु वह उसके लिए हितकारक नहीं है तो वह वाणी तप की कसौटी में खरी नहीं उतरती है। यदि कोई अप्रिय सत्य है तो जहाँ तक हो सके, उसे टालने का प्रयास करना चाहिए। यदि किसी का हित वह सत्य न कहने में है तो हमें उसे नहीं कहना चाहिए।

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्।
जो सत्य है, वह कहना चाहिए। जो प्रिय है, वह कहना चाहिए। प्रिय है, इसलिए असत्य नहीं कहना चाहिए या जो सत्य किसी को अप्रिय लगे, वह नहीं कहना चाहिए।
 
सन्त कबीर दास जी ने कहा था- 

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।।

 श्री ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-

तैसे साच आणि मवाळ, मितळे आणि रसाळ।
शब्द जैसे कल्लोळ अमृताचे।।

श्री ज्ञानेश्वर महाराज की वाणी मानो अमृतमयी वाणी है। जब शब्द अपने कानों में प्रवेश करें तो अन्दर जाकर अपने अन्तरङ्ग को शान्त करें। ऐसा प्रतीत हो मानो अमृत अपने अन्दर प्रविष्ट हो रहा है।

अपने मुख से इस प्रकार की वाणी प्रवाहित हो इसके लिए भी कुछ न कुछ तप करना पड़ेगा। श्रीभगवान् आगे कहते हैं, “उसके लिए स्वाध्याय करना पड़ेगा।” हम प्रतिदिन जो समाचार-पत्र पढ़ते हैं, वह वाचन है जबकि स्वाध्याय का अर्थ है जो हम लौकिक विद्याएँ सीखते हैं। स्वाध्याय मन के परिष्कार के लिए होता है। गीताजी, रामचरित मानस, ज्ञानेश्वरी आदि का पाठ करना स्वाध्याय होता है। इससे वाणी शुद्ध होती है। हम गीताजी के उच्चारण सीखते हैं, कण्ठस्थ करते हैं, यह स्वाध्याय ही है। श्रीभगवान् ने इसे तप कहा है। यही वाङ्गमय तप कहलाता है। हमारी वाणी से हमारे संस्कारों का पता चलता है।

एक बार एक दृष्टिहीन साधु एक वृक्ष के नीचे बैठकर तप कर रहे थे। उस वन में राजा तथा उसके कुछ सैनिक आखेट के लिए आये। वे सब संयोगवश बिछड़ गये। पहले सैनिक साधु के निकट आया और ज़ोर से चिल्लाया, “ए अन्धे! यहाँ से किसी के जाने की आहट सुनी है क्या? साधु ने नहीं कह दिया। फिर प्रधान जी आये तो उन्होंने कहा, “ओ साधु बाबा! यहाँ से अभी कोई गया है क्या? साधु ने कहा कि “हाँ! शायद एक व्यक्ति यहाँ से गया है।” इसके पश्चात वहाँ राजा आये। उन्होंने पहले अपनी पादुका उतारी, साधु को प्रणाम किया और कहा, “हे साधु महाराज! आपने यहाँ से किसी के जाने की आहट सुनी है क्या?” साधु ने कहा, “महाराज! अभी यहाँ से आपके प्रधान जी और उसके पूर्व आपके एक सैनिक गये हैं।” राजा को बहुत आश्चर्य हुआ और उन्होंने कहा, “हे साधु महाराज! आप तो दृष्टिहीन हैं। आपने मुझे भी कैसे पहचाना कि मैं राजा हूँ और वह प्रधान जी हैं। आपने सैनिक की बात भी कैसे बता दी?” साधु ने कहा कि “मुझे वाणी से ज्ञात हो गया कि आप कोई राजा ही हो सकते हैं। आपने पादुका उतार दी और विनम्रता से ‘साधु महाराज’ कहा और मेरे चरण स्पर्श किए। प्रधान जी ने ‘साधु बाबा’ कहा तथा सैनिक ने ‘ए अन्धे' कहा।” ये वाणी के संस्कार हैं।

आगे श्रीभगवान् मानसिक तप के विषय में बताते हैं।

17.16

मनः(फ्) प्रसादः(स्) सौम्यत्वं(म्), मौनमात्मविनिग्रहः|
भावसंशुद्धिरित्येतत्, तपो मानसमुच्यते||17.16||

मन की प्रसन्नता, सौम्य भाव, मननशीलता, मन का निग्रह (और) भावों की भली भाँति शुद्धि - इस तरह यह मन-सम्बन्धी तप कहा जाता है।

विवेचन- मन को निरन्तर प्रसन्न रहने की आदत लगानी चाहिए। अनुकूलता में भी और प्रतिकूलता में भी क्योंकि मन का तो किसी को ज्ञात नहीं होता है। अनुकूलता में मन अधिक आह्लादित (Euphoria) न हो अथवा प्रतिकूलता में भी शोकाकुल (Depression) स्थिति में न जाए। अन्तःकरण की प्रसन्नता होनी चाहिए।

मराठी में कहते हैं-
मन करा रे प्रसन्न 
सर्व सिद्धि चे कारण 

मन को प्रसन्न रखने की कला आनी चाहिए।
मन कभी भी मिले न पाए,
आए जाए लाख गँवाए।
मन अगर मुरझा गया तो
डगमगायेंगे कदम।

श्रीमद्भगवद्गीता एक मनोवैज्ञानिक ग्रन्थ है। श्रीभगवान् हमें मन के लिए एक सम्बल प्रदान करते हैं।

मनः प्रसाद सौम्यत्वं 
अर्थात् हमारे व्यवहार में मृदुता, सौम्यता होनी चाहिए।

सोम का अर्थ है चन्द्रमा। सौम्य शब्द चन्द्रमा से आता है। चन्द्रमा जिस प्रकार आह्लाददायी होता है उसी प्रकार किसी व्यक्ति का स्वभाव जब सौम्य होता है तब उसका व्यवहार आह्लाददायी होता है, आनन्ददायी होता है। उसके आगमन से ही अन्य लोगों के मन में आनन्द की अनुभूति होती है। 

मौन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसको मानसिक तप कहते हैं। श्रीभगवान् ने इसे वाणी के स्थान पर मानसिक तप कहा है। वाणी को मात्र मौन किया किन्तु मस्तिष्क में अन्तर्द्वन्द्व चल रहा हो, प्रतिक्रियाएँ अथवा वृत्तियाँ चल रही हों तो वह मानसिक तप में अन्तर्भूत नहीं होगा। श्रीभगवान् के अनुसार मन को मौन में ढालना तप ही है। शब्द अपनी छाप छोड़ देते हैं।

बोलतया बोलातचि भेटे, तेथे बोलिलें हें न घटें।
तें मौन तवं गोमटें, स्तवन माझे।।

श्री ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं कि यह मौन तब परिपूर्ण होता है जब उस परब्रह्म परमात्मा से मनुष्य मौन के साथ एकाकार हो जाता है तथा जब वह परमात्मा ही मिल जाता है जिसके बारे में बोलना है तो बोलने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। मौन ही स्तवन हो जाता है।
श्रीभगवान् कहते हैं कि यह अत्युच्च मौन है।

आत्मविनिग्रह- श्रीभगवान् कहते हैं स्वयं को रोकना/ नियन्त्रित करना। 
जब तक हम स्वयं को नियन्त्रित नहीं करेंगे तब तक दूसरों पर नियन्त्रण नहीं कर सकते।

यदि सासु माँ स्वयं कोई व्रत न करें तो वह अपनी बहू को भी नहीं कह सकती। जब हमारे ज्येष्ठ अपने जीवन में व्रत का पालन करते हैं तो आनेवाली पीढ़ियाँ अपने आप उन्हें अङ्गीकार कर लेती हैं। 

जैसे श्रावणमास में सोमवार का व्रत है। यदि माँ करती है तो बेटी स्वयं माँ से इसके बारे में पूछती है। ससुराल में आकर बहु भी इन सबको अङ्गीकार करती है, इसलिए जब तक हम स्वयं के जीवन में आत्म विनिग्रह नहीं करेंगे तब तक दूसरों को इसके बारे में नहीं कह सकेंगे।

ग़ालिब का एक शेर है-
 
ज़िन्दगी में ग़ालिब, एक ग़लती करता रहा,
धूल चेहरे पर थी, आईना पोंछता रहा।
जब तक हम अपने जीवन को शुद्ध नहीं करेंगे तब तक दूसरों के जीवन की अशुद्धता को नहीं हटा सकेंगे।

भावसंशुद्धि- इसका अर्थ श्रीगुरुदेव ने बहुत सुन्दर बताया है-

Always think positive. 
जो भी घट रहा है उसमें उपस्थित सकारात्मकता को जीवन में लायें। जैसे कोई किसी से बात कर रहा हो तो यह विचार मत करो कि वह आपके बारे में ही बात कर रहा है। इस प्रकार की गलत धारणाऍं अपने जीवन से निकाल देनी चाहिए। उसके लिए अपने मन के भावों को नित्य शुद्ध करना पड़ता है। यदि आपके मन में अनुचित विचार आ रहे हैं तो शीघ्र अपने मन को दूसरी ओर ले जाना चाहिए। परमात्मा के चरण ही इस कार्य में सहयोगी हैं।

श्री ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं- 

रुणुझुणु रुणुझुणु रे भ्रमरा,
सांडीं तूं अवगुणु रे भ्रमरा।
चरणकमळदळू रे भ्रमरा,
भोगीं तूं, निश्चळु रे भ्रमरा।।

वे मन को भौंरे की उपमा देते हुए कहते हैं कि मन इधर-उधर पराग अर्थात् विषयों के सेवन में लग जाता है। निश्छलता से परमात्मा के चरणकमलों का सेवन करो जहाँ से तुम्हारे भावों को शुद्धता प्राप्त होगी। भाव स्वच्छ होते जायेंगे तो मन की स्वच्छता ही हमें परमात्मा तक ले जाएगी।

तपोमानस उच्च्यते- परमात्मा का स्मरण करना। श्रीगुरुदेव कहते हैं, श्रीकृष्ण तथा उनके स्मित हास्य को स्मरण करना। विपरीत परिस्थिति में भी यह हास्य कभी उनके मुख से ओझल नहीं होता है। उसी प्रकार से अपने मन को भी प्रसन्नता में ढालने का प्रयास करना।
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।

इस मनोवैज्ञानिक ग्रन्थ के माध्यम से आगे श्रीभगवान् तीन प्रकार के तप के बारे में कहते हैं कि, तप भी सात्त्विक, राजसिक तथा तामसिक होते हैं।

17.17

श्रद्धया परया तप्तं(न्), तपस्तत्त्रिविधं(न्) नरैः|
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः(स्), सात्त्विकं(म्) परिचक्षते||17.17||

परम श्रद्धा से युक्त फलेच्छा रहित मनुष्यों के द्वारा (जो) तीन प्रकार (शरीर, वाणी और मन) - का तप किया जाता है, उसको सात्त्विक कहते हैं।

विवेचन- शारीरिक, वाचिक तथा मानसिक, ये तीनों जो तप हैं, आगे ये और तीन प्रकार के होते हैं- सात्त्विक, राजसिक और तामसिक।

कोई तप सात्त्विक कब कहलाएगा? परम श्रद्धा से किया गया तप सात्त्विक तप कहलाएगा।

श्रीभगवान्, गीताजी, श्रीगुरुदेव तथा ऋषियों की वाणी है तो यह सत्य ही होगी, यह श्रद्धा है। मीराजी को उनके गुरु ने कह दिया कि ये गिरिधर जी ही तुम्हारे पति हैं तो उन्होंने श्रीकृष्ण को ही अपना पति मान लिया 

                    मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोई।

उन वचनों पर पूरी श्रद्धा रखकर उन्हें अङ्गीकार करना, यह परया अर्थात् परम श्रद्धा है।

इसी श्रद्धा के साथ जब व्यक्ति ये तीनों तप करता है, उनसे फल की इच्छा नहीं रखता अपितु जीवन का उन्नयन चाहता है तथा अपने जीवन को कुन्दन बनाना चाहता है, तब यह सात्त्विक तप कहलाता है।

जब यही तप पाखण्ड अथवा दिखावे के लिए होता है तब उसे राजसिक तप कहते हैं। जीवन का उन्नयन यह भी करता है किन्तु सात्त्विक तप के समान नहीं।

17.18

सत्कारमानपूजार्थं(न्), तपो दम्भेन चैव यत्|
क्रियते तदिह प्रोक्तं(म्), राजसं(ञ्) चलमध्रुवम्||17.18||

जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिये तथा दिखाने के भाव से किया जाता है, वह इस लोक में अनिश्चित (और) नाशवान फल देने वाला (तप) राजस कहा गया है।

विवेचन- श्रीभगवान् आगे बताते हैं कि जब यही तीनों शारीरिक, वाचिक तथा मानसिक तप स्वयं का सत्कार, प्रसिद्धि अथवा सम्मान के लाभ में, पाखण्ड से किए जाते हैं तब ये तप क्षणिक फल देने वाले होते हैं। इस तप को राजसिक तप कहते हैं। स्वयं को बड़ा दिखाने के लिए किए गए तप भी राजस तप की श्रेणी में आयेंगे।

जो तप अत्यन्त मूढ़तापूर्वक, अनुचित सिद्धान्तों के साथ तथा दूसरों का अहित करने के उद्देश्य से किए जाते हैं वे तामस तप हैं।

17.19

मूढग्राहेणात्मनो यत्, पीडया क्रियते तपः|
परस्योत्सादनार्थं(म्) वा, तत्तामसमुदाहृतम्||17.19||

जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से अपने को पीड़ा देकर अथवा दूसरों को कष्ट देने के लिये किया जाता है, वह (तप) तामस कहा गया है।

विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं कि कुछ क्रियाऍं व्यर्थ, अट्टहास के साथ, अनुचित सिद्धान्तों के साथ की जाती हैं। कुछ लोग अनुचित सिद्धान्तों को पकड़कर रहते हैं, उनमें संशोधन नहीं करते, इसलिए हम देखते हैं कि हमारे शास्त्रों में भी रूढ़ीवादिता आ जाती है। कहा गया है- 

शास्त्रात् रूढ़ी बलियसी। 

ये रुढ़ियाँ बदलने के लिए लोग तैयार नहीं होते हैं। वास्तविकता में शास्त्र में क्या कहा गया है, यह भी देखना होता है। जिन्हें शास्त्र का ज्ञान है उनके पास जाकर हमें यह ज्ञात करना चाहिए।

दूसरों को पीड़ा देने के लिए अथवा् उनका अनिष्ट करने के लिए जो भी तप किया जाता है उसे तामस तप कहते हैं।

श्री गुरुदेव कहते हैं, यह सिद्धान्त कि मात्र शरीर को कष्ट देने से ही श्रीभगवान् मिल जाते हैं, यह गलत है क्योंकि शरीर भी श्रीभगवान् का निवास स्थान है। 

हम तेरहवें अध्याय में देखेंगे कि क्षेत्र भी मैं ही हूँ तथा क्षेत्रज्ञ भी मैं ही हूँ।
।।ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।।

सभी श्रीभगवान् का अंश हैं। श्रीभगवान् इस शरीर में रहते हैं तो हम इस शरीर को कितना कष्ट दें, इसकी भी एक मर्यादा होनी चाहिए। 

कुछ लोग दूसरों को कष्ट पहुँचाने के लिए भी तप करते हैं। इस सन्दर्भ में श्रीगुरुदेव कहते हैं कि एक व्यक्ति ने बहुत तप किया तो श्रीभगवान् उसके समक्ष प्रकट हो गए। उन्होंने उसे वरदान दिया कि तुम जो चाहोगे वह तुम्हें मिलेगा किन्तु साथ ही यह भी कहा कि जितना तुम्हें मिलेगा उससे दोगुना तुम्हारे पड़ोसी को मिलेगा। अब वह व्यक्ति विचार में पड़ गया। विचार करके उसने वरदान माँगा कि उसकी एक आँख फूट जाये जिससे पड़ोसी की दोनों आँखें फूट जायेंगी। ऐसा विचार करने वाले लोग भी होते हैं। दूसरों का अनिष्ट करने वाले लोग भी होते हैं। इसके लिए वे तप करते हैं। श्रीभगवान् ऐसे तप को तामस तप कहते हैं।

अब श्रीभगवान् दान की ओर आते हैं। हमने अभी तक आहार व तप के बारे में देखा, जो कि व्यक्तिगत जीवन हेतु आवश्यक हैं किन्तु सामाजिक जीवन हेतु दान आवश्यक है क्योंकि हम प्रकृति से, समाज से कुछ न कुछ लेते हैं जिससे इन्हें क्षति पहुँचती है। इस क्षति की पूर्ति के लिए हमें कुछ न कुछ करना चाहिए, इसके लिए एक संस्था यज्ञ है और एक संस्था दान है।

दान हमारे मन की मलीनता को बाहर निकालता है तथा हमें यश प्रदान करता है। यह दान भी तीन प्रकार का होता है।

हमने जीवन के चार स्तर देखे- यष्टि, समष्टि, सृष्टि तथा परमेष्टि।
हमने व्यक्ति के पाँच स्तर देखे- शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि तथा आत्म/आत्मिक तत्त्व।

यष्टि व्यक्तिगत जीवन, समष्टि सामाजिक जीवन, सृष्टि प्राकृतिक जीवन तथा परमेष्टि अर्थात् वह परमात्मा तत्त्व जिसके अधिष्ठान में यह सृष्टि कार्य करती है।

श्रीभगवान् कहते हैं इनकी शुद्धि करना एवम् जो यहाँ से लिया है उसे आगे देते जाना है।

17.20

दातव्यमिति यद्दानं(न्), दीयतेऽनुपकारिणे|
देशे काले च पात्रे च, तद्दानं(म्) सात्त्विकं(म्) स्मृतम्||17.20||

दान देना कर्तव्य है - ऐसे भाव से जो दान देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर अनुपकारी को अर्थात् निष्काम भाव से दिया जाता है, वह दान सात्त्विक कहा गया है।

विवेचन- तेरा तुझको अर्पण। श्रीगुरुदेव कहते हैं कि देना मेरा कर्त्तव्य है।

जीवन के दो काल होते हैं-
आदान काल और प्रदान काल।

जब हम अपने बाल्यकाल से युवावस्था के काल में होते हैं, तब तक हमारा आदान काल होता है। लेना हमारी नियति होती है किन्तु देना हमारा सद्भाग्य होता है। अभी तक मैंने जो भी प्राप्त किया उसका कुछ भाग लौटाऊॅं।

श्रीज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-
स्वधर्म नीट पाळून, प्राप्त होईल जे धन।
त्याचेच करावे दान, सन्मानाने।।

स्वधर्म का पालन करते हुए हमें जो धन प्राप्त हुआ है उसका कुछ भाग हमें सम्मानपूर्वक दान करना चाहिए। हमारे शास्त्रों में कम से कम दस प्रतिशत दान करने के लिए कहा गया है, इसलिए देना हमारा कर्त्तव्य है, किन्तु यह दान देश, काल तथा पात्रता को देखते हुए करना चाहिए।अपात्र व्यक्ति को दान देकर हम इस सृष्टि का कल्याण नहीं कर सकते, इसलिए यह देखकर दान करना चाहिए कि आपका दान किसी अच्छे कार्य में लगे।

देशे अर्थात् स्थान देखकर। गङ्गा मैया के पावन तट पर दान करना।
काल अर्थात्‌ समय देखकर। अमावस्या अथवा व्यतिपात के मुहूर्त में दिया गया दान पुण्यदायी तथा स्थायी होता है।

ठण्ड में हम कम्बल देंगे तो वह उपयोगी होता है। दीपावली के समय हम बहुत सारा सामान घर से बाहर निकालते हैं। ये सामान हम दूसरों को देते हैं, यह दान सात्त्विक दान में नहीं आता है। हमें नहीं चाहिए इसलिए हम उन वस्तुओं को दे रहे हैं। वस्तुओं को सही समय पर देना चाहिए।

पात्र अर्थात् हम जिसे दे रहे हैं वह उचित उपयोग कर रहे हैं या नहीं। जैसे गोमाता के लिए दान करना। यह भी विचार नहीं करना चाहिए कि हम किसी पर उपकार कर रहे हैं। स्वयं को बड़ा बना कर दान नहीं करना है, छोटा बनकर करना है। ऐसा दान सात्त्विक दान कहलाएगा।

सात्विक दान की कसौटियाँ 

श्रद्धया देयम्- श्रद्धा से देना,
अश्रद्ध्या अदेयम्- अश्रद्धा से न देना 
श्रिया देयम्- श्रेयस्कर देना
भिया देयम्- छोटा बनकर देना। जिसे दे रहे हैं उसका सत्कार करके देना, उसे बड़ा मानकर देना।
हृया देयम्- लीन होकर देना।
संविदा देयम्- किसी की आवश्यकता समझकर देना।

एक बार देवता, मानव तथा दानव ब्रह्माजी के पास गए और उनसे उपदेश की विनती की तो उन्होंने एक ही शब्द दिया । गीताजी में भी जो शब्द आते हैं, हम अपने जीवन के अनुसार उनका अर्थ प्राप्त करते हैं।

देवताओं के लिए से दमन करना ऐसा अर्थ था। देवता सुखपूर्वक विलास करते हैं तो उन्हें नियन्त्रण की आवश्यकता है।
दानवों के लिए से दया करना।
मानवों के लिए से दान करना।

श्रीगुरुदेव कहते हैं, दान से हमारे भीतर की मलीनता भी जाती है तथा अपने पूर्वजों को मुक्ति भी मिलती है।

जब यक्ष ने प्रश्न पूछा कि संसार में मुक्ति किसे प्राप्त होती है तो,
।।दानम् एकपदम् यशः।।

अर्थात् कीर्ति उसे ही प्राप्त होती है जो दान करता है। यह सात्त्विक दान होता है।

यही दान जब फल प्राप्ति हेतु अथवा किसी उद्देश्य से किया जाता है जैसे, चुनाव के लिए टिकट प्राप्त हो जाए अथवा संस्था में कोई पद प्राप्त हो जाये, तो वह राजसिक दान है। यह दूसरी श्रेणी का दान है।
 

17.21

यत्तु प्रत्युपकारार्थं(म्), फलमुद्दिश्य वा पुनः|
दीयते च परिक्लिष्टं(न्), तद्दानं(म्) राजसं(म्) स्मृतम्||17.21||

किन्तु जो (दान) क्लेशपूर्वक और प्रत्युपकार के लिये अथवा फल-प्राप्ति का उद्देश्य बनाकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा जाता है।

विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं कि यह दान निकृष्ट तो नहीं है किन्तु सर्वोपरि भी नहीं है। कभी-कभी इस प्रकार का दान करना अनुचित भी नहीं होता है। श्रीभगवान् कहते हैं, कभी-कभी कष्टपूर्वक दान दिया जाता है या जैसे किसी संस्था के लोग अच्छा कार्य कर रहे हैं तो अब इन्हें दान देना ही पड़ेगा, इस प्रकार क्लेशपूर्वक दिया जाता है अथवा प्रत्युपकार की भावना से, जैसे समाचारपत्र में चित्र आ जाए या नाम हो जाए अथवा फलप्राप्ति की इच्छा से जो दान दिया जाता है, इस प्रकार का दान राजस दान कहलाता है।

कहते हैं एक हाथ से दिए गए दान का दूसरे हाथ को भी पता न चले, वह दान सात्त्विक दान हो गया। दान दिया, दानी का नाम हुआ किन्तु पुण्य चला गया, यह दूसरी श्रेणी का दान हो गया।

हमने सोलहवें अध्याय में भी देखा था कि एक व्यक्ति दान देते समय ऊपर भी नहीं देखता था तो तुलसीदासजी ने उससे पूछा- 

ऐसी देनी देत हो, कित सीखे हो सेन।
ज्यों-ज्यों कर ऊंचा करो, त्यों-त्यों नीचे नैन।।

आपने ऐसा दान करना कहाँ से सीखा कि जैसे-जैसे दान करते जा रहे हैं, आपकी दृष्टि नीचे होती जा रही है।

इस पर वह व्यक्ति बताते हैं कि- 
देनदार कोई और है, भेजत है दिन रैन।
लोग भरम हम पर करें, तासो नीचे नैन।।

देनेवाला तो कोई और है जो भेज रहा है किन्तु लोगों को भ्रम है कि यह मैं दे रहा हूँ, इसलिए लज्जा से मेरे नैन नीचे हो जाते हैं। मैंने मात्र इसे प्राप्त किया है और अब मैं इसे आगे पहुँचा रहा हूँ।

संविभागा, अर्थात् मैं मिला हुआ बाँट रहा हूँ, इस भावना से जो दान किया जाता है वह सात्त्विक दान कहलाता है। 

श्रीभगवान् कहते हैं कि ये चारों बातें हमारे जीवन का उन्नयन करने हेतु सात्त्विकता से परिपूर्ण होती जानी चाहियें। हमारी किसी भी क्रिया में परिपूर्णता नहीं होती है इसलिए श्रीभगवान् अध्याय का समापन एक मन्त्र देते हुए करते हैं, क्योंकि कुछ न कुछ शेष रह जाता है। जब हम कोई यज्ञ अथवा कार्यक्रम करते हैं, घर में विवाह होता है, कहीं भी कुछ न्यून रह ही जाता है तो क्या करना चाहिए? श्रीभगवान् अर्जुन से कहते हैं कि हमारे महानुभाव भी परमानन्द की प्राप्ति हेतु अपने जीवन में तप का पालन करते हैं और कुछ शेष न रह जाए इसके लिए वे भी इस मन्त्र का जाप करते हुए सारी क्रियाऍं करते हैं।

यह मन्त्र कौन सा है?
परमात्मा का अत्यन्त सुन्दर, वेदों में आने वाला नाम।
भगवान् के सहस्र नाम हैं। हम किसी भी नाम से उन्हें पुकार सकते हैं किन्तु उन्हें पुकारने के लिए एक नाम होता है-

तस्य वाचकः प्रणव:।

उन्हें पुकारने के लिए वेदों में जो नाम कहा गया है वह है । अपना कोई भी कार्य करने के पहले इस नाम से बुलाना।

श्रीज्ञानेश्वर महाराज भी यही कहते हैं। हम पुष्पिका में भी देखते हैं 
ॐ तत्सदिती श्रीमद्भगवद्गीतासु, 

ॐ-तत्-सत्, चिरकाल तक सृष्टि की रक्षा करने वाला कार्य हो गया। 

17.22

अदेशकाले यद्दानम्, अपात्रेभ्यश्च दीयते|
असत्कृतमवज्ञातं(न्), तत्तामसमुदाहृतम्||17.22||

जो दान बिना सत्कार के तथा अवज्ञापूर्वक अयोग्य देश और काल में कुपात्र को दिया जाता है, वह (दान) तामस कहा गया है।

विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं कि जो दान सत्कार न करते हुए, जैसे किसी को कोई वस्तु फेंककर दे दी अथवा उसका तिरस्कार करते हुए किया गया, देश और काल न देखते हुए किया गया, पात्रता नहीं देखी गई अर्थात् गलत व्यक्ति को दिया गया वह तामसी दान है।

उदाहरण के लिए दान में धन दिया गया और उस धन का उपयोग अनुचित कार्य जैसे विस्फोटक बनाने इत्यादि के लिए किया जाता है। योग्य व्यक्ति को यह दान न जाने के कारण इस धन का दुरुपयोग हुआ। यह निचले स्तर के दान का वर्णन है जिसे तामस दान भी कहते हैं।

मान लीजिए कहीं कोई निम्न श्रेणी का कार्य है तो उसमें दान देने से समाज का कोई कल्याण नहीं होता है तथा सृष्टि का ह्रास भरा नहीं जा सकता तो ऐसा दान निम्न श्रेणी का दान होता है।

हमारी तप, यज्ञ व दान की संस्था ॐ-तत्-सत् से पवित्र होती है।

17.23

ॐ तत्सदिति निर्देशो, ब्रह्मणस्त्रिविधः(स्) स्मृतः|
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च, यज्ञाश्च विहिताः(फ्) पुरा||17.23||

ऊँ, तत् और सत् - इन तीन प्रकार के नामों से (जिस) परमात्मा का निर्देश (संकेत) किया गया है, उसी परमात्मा से सृष्टि के आदि में वेदों तथा ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना हुई है।

विवेचन- ॐ-तत्-सत् यह परमात्मा का वैदिक नाम है। श्रीभगवान् के इस मङ्गल नाम से किसी भी कार्य का आरम्भ करना चाहिए।

ॐ तत्सदिती- ये परमात्मा के तीन प्रकार के नाम बताए गए हैं।
ॐ अन्य धर्मों में आमीन कहते हैं, ॐ शान्ति प्रदान करने वाला नाम है। इसमें अकार, उकार तथा मकार तीनों आ जाते हैं। 
अ अर्थात् निर्माता ब्रह्माजी।
उ अर्थात् विष्णुजी, भरण-पोषण व पालन करने वाले।
म अर्थात् महेशजी, सृष्टि का संहार करने वाले।

अ उ म ब्रह्मा, विष्णु व महेश। साथ ही इसमें अर्धचन्द्र भी होता है तो तुरीय अवस्था है

जीवन दर्शन की चारों अवस्थाएँ ॐ में आती हैं सुषुप्ति, जागृति, स्वप्न तथा तुर्या, अतः ऊँकार अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है।

ब्रह्मा विष्णु एवम् महेश तीनों इसमें अन्तर्भूत होते हैं। 
GOD- Generator Operator Destroyer.

परमात्मा के तीनों रूप जिसमें अन्तर्भूत होते हैं वह ऊँकार है, इसलिए तेन, पुरा, ब्रह्मा, यज्ञा, वेता- ये सभी ब्रह्मा के नाम हैं तथा सृष्टि के प्रारम्भ से ही ब्राह्मण, वेद व यज्ञ उन्हीं से निर्मित हुये हैं, इसलिए ॐ-तत्-सत्, ब्रह्म की अभिव्यक्ति का नाम है। इसी नाम के साथ वे हमें एक सुन्दर मन्त्र देते हैं जिससे हमारी सारी क्रियाऍं शुद्धता को प्राप्त हो जाएँ। यदि हमारी कोई भूल रह गई हो तो वह समाप्त हो जाए। कहते हैं, कोई भी कार्य पूर्ण होने के बाद बारह बार विष्णुजी का नाम लेने से उस कार्य में हुए दोष समाप्त हो जाते हैं।

17.24

तस्मादोमित्युदाहृत्य, यज्ञदानतपः(ख्) क्रियाः|
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः(स्), सततं(म्) ब्रह्मवादिनाम्||17.24||

इसलिये वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले पुरुषों की शास्त्रविधि से नियत यज्ञ, दान और तप रूप क्रियाएँ सदा 'ॐ’ इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके (ही) आरम्भ होती हैं।

विवेचन- श्रीभगवान् कहते हैं, इसलिए वेदों का उच्चारण करने वाले अर्थात् ब्रह्मवादी व वैदिक ब्राह्मण भी शास्त्र विधि से नियत होकर ही इन सारी क्रियाओं - तप, यज्ञ तथा दान के पूर्व ॐ कहकर ही इनका प्रारम्भ करते हैं।

श्रीज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-
जे ॐकारा ने आरम्भले, तत् शब्दाने ब्रह्मा अर्पले।
म्हणून ते कर्म झाले ब्रह्म स्वरूप।।

कोई भी अच्छी क्रिया करते हुए ॐ का उच्चारण, जैसे गीताजी के पठन करते हुए प्रारम्भ में ॐ कहने से परमात्मा हमारे साथ हो जाते हैं। ॐ परमात्मा की शक्ति है।

ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं,बालक को पुकारने के लिए एक नाम दिया जाता है। माँ द्वारा इस नाम से बुलाने पर वह प्रतिक्रिया देता है इसी प्रकार से ॐ नाम से बुलाने पर परमात्मा स्वयं हमारे कार्य की सिद्धि के लिए आ जाते हैं। हम तप, यज्ञ अथवा दान कुछ भी करें, ॐ कहकर शुरू करने से हम ईश्वर को अपने साथ ले लेते हैं।

आगे ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं कि आरम्भ तो ॐ के साथ हो गया, अब आगे तत् शब्द के उच्चारण के साथ उसे ब्रह्म को अर्पित करते हैं। तत् का अर्थ है वह(that), किसी एक इष्ट नाम का आग्रह नहीं है, एक वह जो परब्रह्म है, सृष्टिकर्ता है, शक्ति है उसे अर्पण कर देना।

आगे सत् क्यों कहना?
इस पर श्री ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं, ॐ से ईश्वर आपके साथ क्रिया में सम्मिलित होंगे, तत् शब्द से आपने उन्हें कार्य अर्पित कर दिया किन्तु यह कार्य मैंने किया है, यह भावना जानी चाहिए।

सत् का अर्थ है सत्य। सत् शब्द का प्रयोग करने से हमारे अन्तरङ्ग से द्वैत की भावना समाप्त हो जाती है। वह कर्म चाहे छोटा ही क्यों न हो, वह परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। इस कार्य को मैंने किया है यह भावना भी धुल जाती है। इस अध्याय में हमें कितनी सर्वोपरी भावना प्राप्त होती है। 

श्री ज्ञानेश्वर महाराज की अत्यन्त सुन्दर ओवियाँ हैं
 
म्हणून ब्रह्मातले द्वैतपण आत्मस्वरूपी वाया क्षीण
सत् शब्द तो तिसरा जाण ठेवला आहे नामात।। 

हममें तथा ब्रह्मा में जो द्वैत का संस्कार है वह धुल जाए और हम उसके साथ एकाकार हो जाएँ, इसी के लिए सत् शब्द है।

ॐ से उन्हें बुलाना, तत् से उन्हें अर्पण करना तथा सत् से क्रिया करने के अहङ्कार को धो देना।

आपने ही कार्य करवाया तथा आपने ही अर्पण किया।
जो कुछ किया सो तुम किया, मैं कुछ किया नाहीं 
कहो कुछ कि जो मैंने किया, तुम ही थे मुझ माहीं।।

श्री ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं-
किंबहुना तुमचे केले, धर्म कीर्तन सिद्धीस नेले।
येथे माझे जी उरले, पाईकपण।। 

महान व्यक्ति अपने कर्म ईश्वर को अर्पण करके अपना अन्तरङ्ग धो देते हैं तथा नये सृजन के लिए सिद्ध हो जाते हैं। 'मैंने किया, मैंने किया' की अहङ्कार भावना को धूल लग जाती है।

इस अध्याय में श्रीभगवान् कहते हैं, तत्-सत्।

17.25

तदित्यनभिसन्धाय, फलं(म्) यज्ञतपः(ख्) क्रियाः|
दानक्रियाश्च विविधाः(ख्), क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभि:||17.25||

तत्' नाम से कहे जाने वाले परमात्मा के लिये ही सब कुछ है - ऐसा मान कर मुक्ति चाहने वाले मनुष्यों द्वारा फल की इच्छा से रहित होकर अनेक प्रकार की यज्ञ और तप रूप क्रियाएँ तथा दान रूप क्रियाएँ की जाती हैं।

विवेचन- हे अर्जुन! जो मोक्षाकाङ्क्षी है, यहाँ मोक्षाकाङ्क्षी का अर्थ मृत्यु के पश्चात् देह की मुक्ति से प्राप्त मोक्ष से नहीं है अपितु देह में रहते हुये भी दुःखों, बन्धनों, मोह तथा  परिणामों के भय से मुक्ति से है। तुम्हें अभी युद्ध के परिणाम का भय सता रहा है। तुम्हें इस भय से मुक्ति मिले इसलिए मैं यह मन्त्र जाप कर रहा हूँ। यदि तुम्हारे अन्तरङ्ग की भावना शुद्ध होगी तो युद्ध कर्म भी तुम ईश्वर को अर्पण कर सकते हो।

ॐ-तत्-सत्।

एक जल्लाद भी यदि किसी को ॐ-तत्-सत् बोलकर फाॅंसी देगा तो वह उस कर्म के परिणाम से मुक्त होगा। यह कर्म आपने करवाया, इसलिए फल की अपेक्षा न रखते हुए मुमुक्षु जन यज्ञ, तप और दान क्रियाऍं इस मन्त्र का जाप करते हुये सम्पन्न करते हैं। इसके बाद ये क्रियाऍं सत् हो जाती हैं, सृष्टि के कल्याण हेतु हो जाती हैं तथा परमात्मा को प्राप्त हो जाती हैं।

17.26

सद्भावे साधुभावे च, सदित्येतत्प्रयुज्यते|
प्रशस्ते कर्मणि तथा, सच्छब्दः(फ्) पार्थ युज्यते||17.26||

हे पार्थ ! सत्- ऐसा यह परमात्मा का नाम सत्ता मात्र में और श्रेष्ठ भाव में प्रयोग किया जाता है तथा प्रशंसनीय कर्म के साथ 'सत्' शब्द जोड़ा जाता है।

विवेचन- सद्भाव तथा साधुभाव के द्वारा सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है इसलिए हे पार्थ, एक बार परमात्मा को अर्पित करने की प्रक्रिया हमारे जीवन में प्रारम्भ हो गयी तो हमारा कर्म भी अपने आप शुद्ध होता जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कर्म शब्द का अर्थ सत्कर्म से है। श्रीभगवान् स्वयं यह बात कहते हुये बताते हैं कि ये कर्म चिरकाल तक सृष्टि में रहते हैं और कल्याण करते हैं। ऋषि मुनियों के तप अभी तक इस सृष्टि का कल्याण कर रहे हैं।

पिछले सत्र में किसी ने प्रश्न पूछा था कि अभी भी हिमालय पर्वत पर ऋषि-मुनि रहते हैं क्या?

हाॅं, ये लोग अभी भी रहते हैं और अपने तप का फल सृष्टि के कल्याण हेतु अर्पित कर देते हैं। उन्हें उस से कोई लाभ नहीं चाहिए। हमें ज्ञात भी नहीं है कि वे लोग हमारे लिये कर्म कर रहे हैं।

17.27

यज्ञे तपसि दाने च, स्थितिः(स्) सदिति चोच्यते|
कर्म चैव तदर्थीयं(म्), सदित्येवाभिधीयते||17.27||

यज्ञ तथा तप और दान रूप क्रिया में (जो) स्थिति (निष्ठा) है, (वह) भी 'सत्' - ऐसे कही जाती है और उस परमात्मा के निमित्त किया जाने वाला कर्म भी 'सत्' - ऐसा ही कहा जाता है।

विवेचन- यज्ञ, दान और तप, जब हम इसके साथ सत् शब्द का प्रयोग करते हैं तब उस परमात्मा के लिए कर्म हो जाता है अर्थात् जब हम सद्भाव से करते हैं तो वह उस परमात्मा को अर्पित हो जाता है। ऐसा कर्म सभी पापों को नष्ट कर देता है, दोष-रहित कर देता है और वह कर्म परमात्मा के पास सुरक्षित हो जाता है। सृष्टि के कल्याण के लिए ऐसा कर्म नित्य प्रेरणादायी रहता है जो ऊँ-तत्-सत् रूपी मन्त्र से किया जाता है। जिसको श्रद्धा होगी, वही ऐसा कर्म करेगा।

17.28

अश्रद्धया हुतं(न्) दत्तं(न्), तपस्तप्तं(ङ्) कृतं(ञ्) च यत्|
असदित्युच्यते पार्थ, न च तत्प्रेत्य नो इह||17.28||

हे पार्थ ! अश्रद्धा से किया हुआ हवन, दिया हुआ दान (और) तपा हुआ तप तथा (और भी) जो कुछ किया जाय, (वह सब) 'असत्' - ऐसा कहा जाता है। उसका (फल) न तो यहाँ होता है और न मरने के बाद ही होता है अर्थात् उसका कहीं भी सत् फल नहीं होता।

विवेचन- जो भी हुतं अर्थात् यज्ञ, दत्तं अर्थात् दान, तथा तप बिना श्रद्धा के किया जाता है, वह असत्य हो जाता है। वह न तो इस लोक में कोई लाभ देता है, न ही परलोक में या मृत्यु के पश्चात् ही उसका कोई लाभ होता है। कितने भी बड़े-बड़े दान, काम, अश्वमेध यज्ञ, सागर जैसे जलाशय भी यदि हम श्रीभगवान् को अर्पित नहीं करते हैं, तो वे नष्ट हो जाते हैं या निरर्थक हो जाते हैं। जो भी कार्य करने के लिए संसाधन हमें प्राप्त होते हैं, वे परमात्मा के द्वारा ही प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार विद्युत बनाने के लिए थर्मल पावर में कोयला उपयोग में आता है, वह हमें प्रकृति से ही प्राप्त होता है। कोई भी कार्य करते समय मन में नित्य यही भावना रखें कि जो कुछ है, वह सब श्रीभगवान् को ही अर्पित है। श्रीभगवान्  श्रीभगवान् को ही अर्पित। आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक, इन तीनों प्रकार के तापों से मुक्त होंगे, यदि हम श्रद्धा के अनुसार कार्य करेंगे।

गुरुदेव भी कहते हैं कि ऐसा आवश्यक नहीं है कि जहाँ मेरी श्रद्धा हो, वहाँ अन्य लोगों की भी श्रद्धा हो, ऐसी अपेक्षा न रखते हुए अपनी श्रद्धा को बढ़ाना है, अन्यथा अन्य लोग भी वहीं श्रद्धा रखें, जहाँ हमारी है तो इस बात को लेकर मनमुटाव या खींचातानी अन्तर्मन में चलती रहेगी। इस कारण हमारे अन्तर्मन में द्वेष निर्माण हो जाते हैं जिससे हमारा अन्तर्मन मलिन हो जाता है। हमारा मन, बुद्धि, वाणी, व्यवहार, सब शुद्ध हों, इसके लिए यह अध्याय एक बहुत ही सुन्दर पाथेय है।

साधकों की जिज्ञासाओं के समाधान के साथ आज का विवेचन सत्र समाप्त हुआ।‌

प्रश्नोत्तर 

प्रश्नकर्ता - श्री भूषण पण्डित भैया 
प्रश्न - इस अध्याय के छब्बीसवें श्लोक में श्रीभगवान् कहते हैं 
सद्भावे साधुभावे च सदित्येत् प्रयुज्यते”।
कृपया इसका अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर - अन्त:कर्म में श्रेष्ठ भाव उदित होने के लिए”सत्” का उपयोग कर उसे उत्तम कार्य के साथ जोड़ने से चिरन्तन उन्नयन होगा। कोई भी दोष रहित नहीं होता, इन्हें दूर करने के लिए सत् और साधु भाव का प्रयोग कर अन्त:करण शुद्ध किया जा सकता है।

श्री ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं- 
प्रभु तुम्हीं महेशाच्या मूर्ति, आणि मी दुबळा अर्पितसे भक्ति।
म्हणोनि बोल जर्ही गंगावती, स्वीकाराल कीं।।
दुर्बल मन से की गई पूजा भी ईश्वर स्वीकार करते हैं।

प्रश्नकर्ता - श्री वी पी अग्रवाल भैया 
प्रश्न - कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिन:।
        आहारा राजसस्येष्टा, दुःख शोकामयप्रदा:।।17·09।।
यह जानते हुए भी कि अधिक मसालेदार भोजन हमारे लिए हानिकारक होता है हमें समारोहों में वैसा भोजन करना पड़ता है जबकि हम घर पर सात्त्विक भोजन ही ग्रहण करते हैं। तो क्या यह गलत है?
उत्तर - हम सामान्य जीव हैं, हमें हमारे जीवन का उन्नयन करना है जिसके लिए श्रीभगवान् हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। वे सांसारिक व्यक्तियों को उपदेश दे रहे हैं, हम संन्यासी नहीं हैं इसलिए श्रीभगवान् के बताए सिद्धान्तों का दुराग्रह नहीं करना चाहिए। कभी-कभी जीवन में आनन्द लाने के लिए ऐसा राजसिक भोजन करने में कोई आपत्ती नहीं है लेकिन उसकी आदत नहीं पड़नी चाहिए। विवेक बुद्धि के साथ हमें एक सन्तुलन बनाए रखने का प्रयास करते रहना चाहिए।

प्रश्नकर्ता - श्रीमती माधुरी दीदी 
प्रश्न - हम सात्त्विक अथवा राजसी वृत्ति में ही क्यों नहीं रह सकते?
उत्तर - हमारा मन चञ्चल है, जिसके साथ रहता है उसी के गुण ग्रहण करता है परन्तु अपने उद्धार के लिए श्रीभगवान् के बताए सिद्धान्तों का पालन करना चाहिए। जब हम कोई गलत काम करते हैं तो हमारी अन्तरात्मा हमें सचेत करती है लेकिन यदि हम उसकी बात नहीं सुनेंगे तो वह ध्वनि क्षीण होती जाती है और हमें गलत काम करने की आदत हो जाती है, जैसे पहली बार सिगरेट पीते समय हमारा मन हमें रोकने का प्रयास करता है परन्तु हम मन की नहीं सुनते और सिगरेट पीने की आदत हो जाती है 

प्रश्नकर्ता - श्री स्वरूप देशपाण्डे भैया 
प्रश्न - सन्तों की वाणी में पूजा या ध्यान का अपना महत्त्व है लेकिन मन एकाग्र नहीं हो पाता, इसके लिए क्या करना चाहिए?
उत्तर - हमारा मन चञ्चल है, उसे बार-बार खींच कर लाना पड़ता है, इसलिए एकदम से ध्यान में नहीं बैठना चाहिए, जैसे एक हवाई जहाज को उड़ान भरने के लिए पहले दौड़कर एक निश्चित गति पकड़नी पड़ती है तभी वह ऊपर उठ सकता है, वैसे ही हमारा मन हवाई जहाज है, ध्यान ऊँचाई की उड़ान है और शारीरिक क्रियाएँ वह दौड़ है जो मन को एक निश्चित गति देती है इसलिए पहले शरीर को नियन्त्रित करना होगा जिसके लिए विभिन्न पूजा विधियाँ हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता में शारीरिक, वाचिक और मानसिक तप की श्रेणियाँ बताईं गईं हैं, स्थूल से सूक्ष्म की ओर धीरे-धीरे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया गया है, इसलिए भगवद्गीता परिपूर्ण है। 
जप, माला, फूल चढ़ाना, बिल्व पत्र चढ़ाना, मन्त्र पढ़ना आदि विधायें शरीर को नियन्त्रित करने का अभ्यास हैं, क्रमशः मन की रुचि पूजा में होने लगेगी।

श्री ज्ञानेश्वर महाराज ने कहा है- 
तो करीं ते तुली पूजा, जो जलुपी तो जप माझां, 
तों असे तो ची कपिध्वजा, समाधि माझीं।।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो जिस भी तरह से उनकी पूजा करता है उन्हें वह स्वीकार है। पहले वाणी से स्तोत्र पाठ, फिर शरीर से पूजा और उसके बाद ध्यान केन्द्रित करना चाहिए जिससे मन नहीं भटकेगा।
योगाभ्यास और प्राणायाम भी शारीरिक तप की विधियाँ हैं।

प्रश्नकर्ता - श्री निहार बेनर्जी भैया 
प्रश्न - कहते हैं कि मृत्यु के समय ॐ का जप करने से सद्गति प्राप्त होती है लेकिन जीवन सांसारिक जाल में फँसा हुआ है तो क्या परम् गति प्राप्त नहीं होगी?
उत्तर - अन्तिम समय का महत्त्व बहुत है। हमारे अधूरे कर्मों को पूरा करने के लिए पुनर्जन्म लेना पड़ता है। यदि जीवन भर परमात्मा से निष्काम भक्ति की है तो अन्तिम समय में स्वयं श्रीभगवान् हमारा उत्तरदायित्व लेते हैं। जीवन भर जिसने परमात्मा की सेवा की, मृत्युशैया पर श्रीभगवान् स्वयं उनकी परिचर्या करते हैं।

प्रश्नकर्ता - श्री के आर एम भैया 
प्रश्न - पूजा करने का समय नहीं मिलता है और जब भी ध्यान में बैठते हैं तो जो भी स्तोत्र पढ़े हैं, जैसे विष्णु सहस्रनाम या दुर्गाष्टक आदि याद आ जाते हैं, क्या यह अच्छी बात है?
उत्तर - यह बहुत ही अच्छी बात है। हमने अपने मन को नियन्त्रित कर लिया है, परन्तु शारीरिक गतिविधियाँ भी महत्त्वपूर्ण हैं और आवश्यक भी, क्योंकि शरीर ही मन को एकाग्र करने का माध्यम है।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(म्) योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय:।।

इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘श्रद्धात्रयविभागयोग’ नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।