विवेचन सारांश
योग तथा प्राणायाम से अंतःस्थित परमात्मा के दर्शन

ID: 1019
हिन्दी
शनिवार, 18 जून 2022
अध्याय 15: पुरुषोत्तमयोग
2/2 (श्लोक 9-20)
विवेचक: गीता विशारद डॉ. संजय जी मालपाणी


परंपरा अनुरूप, प्रार्थना, दीप प्रज्वलन तथा गुरु वंदना के साथ सत्र का आरंभ हुआ। पूर्वार्ध में भगवान ने बताया, माया रूप संसार का वृक्ष कैसे काटा जाता है? वैराग्य से, ज्ञान से, भवसागर कैसे पार हो सकते हैं? आत्मज्ञान के लिए मूलभूत आवश्यकता क्या है? अज्ञान के कारण, आत्मज्ञान जैसे बहुत महत्वपूर्ण चीज का स्वाद ही पता नहीं होता है, इसलिए उसकी चाहत नहीं होती है। आत्मज्ञान को जानने के लिए विवेक को जगाना होगा। विज्ञान निरंतर बदलता रहता है, परंतु ज्ञान सनातन हैं, वह बदलता नहीं। विज्ञान को प्रमाणित किया जा सकता है परंतु आत्मज्ञान जानने की कोई मशीन नहीं है। आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए विवेक अत्यावश्यक है।

15.9

श्रोत्रं(ञ्) चक्षुः(स्) स्पर्शनं(ञ्) च, रसनं(ङ्) घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं(व्ँ), विषयानुपसेवते॥15.9॥

यह (जीवात्मा) मन का आश्रय लेकर ही श्रोत्र और नेत्र तथा त्वचा, रसना और घ्राण –(इन पाँचों इन्द्रियों के द्वारा) विषयों का सेवन करता है।

15.9 writeup

15.10

उत्क्रामन्तं(म्) स्थितं(व्ँ) वापि, भुञ्जानं(व्ँ) वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति, पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः॥15.10॥

शरीर को छोड़कर जाते हुए या दूसरे शरीर में स्थित हुए अथवा विषयों को भोगते हुए भी गुणों से युक्त (जीवात्मा के स्वरूप) को मूढ़ मनुष्य नहीं जानते, ज्ञानरूपी नेत्रोंवाले (ज्ञानी मनुष्य ही) जानते हैं

   

15.11

यतन्तो योगिनश्चैनं(म्), पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो,नैनं(म्) पश्यन्त्यचेतसः।।11।।

यत्न करने वाले योगी लोग अपने आप में स्थित इस परमात्म तत्त्व का अनुभव करते हैं। परन्तु जिन्होंने अपना अन्तःकरण शुद्ध नहीं किया है, (ऐसे) अविवेकी मनुष्य यत्न करने पर भी इस तत्त्व का अनुभव नहीं करते।

विवेचन : भगवान कहते हैं, यह आत्मज्ञान केवल योगीजन प्राप्त कर सकते हैं। जो विमूढ़, सोए हुए हैं, उन्हें यह आत्मज्ञान मिलने की कोई संभावना नहीं है। ज्ञान पाने की जिज्ञासा जगने के बाद स्वयं की खोज शुरू हो जाती है। जिसने समत्व साध लिया है, उसे योगी कहते हैं। सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय, निंदा-स्तुति इनमें समत्व की भावना आ जाए, तो मनुष्य योगी बन जाता है। यह एक व्यापारी के उदाहरण द्वारा समझाया गया। एक व्यापारी जिसे  दस लाख रुपए का मुनाफा अपेक्षित थाI परंतु पांच लाख ही मुनाफा मिल सका तो वह व्यापारी दुखी हुआ कि, मेरा पाँच लाख का नुकसान हो गया। परंतु उसकी पत्नी यह मानकर संतुष्ट थी कि पाँच लाख ही सही, मुनाफा तो हुआ है। इसी तरह संतुष्टि भी योगी का गुण है ।

निंदा और स्तुति को समान मानने वाले हनुमान जी भी उच्च कोटि के भक्त है, "बुद्धिमतां वरिष्ठम्" I लंका दहन के पश्चात जब जामवंत जी भगवान श्रीराम के सामने हनुमान जी की स्तुति करने लगे तो हनुमान जी बोल पड़े " त्राहि माम् प्रभु"। लक्ष्मण जी के इसका स्पष्टीकरण पूछने पर हनुमान जी ने बताया इस स्तुति से कहीं मुझ में अभिमान न आ जाए।

इस प्रकार समत्व से योग साधा जाता है और योगी ही आत्मज्ञान का अधिकारी है। योग का मार्ग इस क्रम से खुलता है -

यम- कुछ चीजें छोड़ना
नियम- कुछ चीजें नित्य करना I
आसन- शरीर का संचालन I
प्राणायाम- प्राणों का संचालन,सांस पर ध्यान एकत्रित करना I
प्रत्याहार- पंचेन्द्रिय और उनके विषयों के ऊपर मन का निग्रह I
ध्यान - विचारों का वेग प्रकाश या वायु से भी अधिक होता है। एक विचार जाने और दूसरे आने के बीच का पल यदि हम समझ लें, उसमें निर्विचार रहे उस स्थिति को ही ध्यान कहते हैंI जो सजगता से,अभ्यास से ही प्राप्त हो सकती हैं। फिर समाधि अवस्था प्राप्त हो जाती है I

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस आ रहा है।  हमें योग करना चाहिए, आसन करने चाहिए, फिर प्राणायाम करेंगे तो समत्व साधते - साधते, सजगता के साथ ध्यान लग जाएगाI निर्विचार अवस्था पकड़ में आ जाएगी। जिज्ञासा जगनी चाहिए। हम बहुत भाग्यशाली हैं  कि हममें  भगवद्गीता सीखने की जिज्ञासा जग गई है। 

15.12

यदादित्यगतं(न्) तेजो, जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ,तत्तेजो विद्धि मामकम्।।12।।

सूर्य को प्राप्त हुआ जो तेज सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है (और) जो तेज चन्द्रमा में है तथा जो तेज अग्नि में है, उस तेज को मेरा ही जान।

विवेचन: जैसे सूर्य हमारे लिए उर्जा का मूल स्त्रोत है वैसे ही ब्रह्मांड की उर्जा का स्रोत  परमात्मा है। वही सृष्टि का संचालन कर रहे हैं। क्योंकि कार्य है तो कारक होता ही है। जैसे घड़ियां होती हैं- एचएमटी, राडो । परंतु इन घड़ियों को बनाने वाला कोई तो कारीगर होता है। इसी प्रकार ब्रह्मांड चल रहा है, कोई तो इसका कर्ता है।

15.13

गामाविश्य च भूतानि, धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः(स्) सर्वाः(स्), सोमो भूत्वा रसात्मकः।।13।।

मैं ही पृथ्वी में प्रविष्ट होकर अपनी शक्ति से समस्त प्राणियों को धारण करता हूँ और (मैं ही) रस स्वरूप चन्द्रमा होकर समस्त ओषधियों (वनस्पतियों) को पुष्ट करता हूँ।

विवेचन: भगवान कहते हैं," वह मैं ही हूं, जो पृथ्वीतल पर अपनी शक्ति से सभी को धारण करते हैं और अमृतमय चंद्र बनकर सभी वनस्पतियों का पोषण करते हैं।" जो - जो ब्रह्माण्ड तत्व में हैं वह सब हमारे शरीर के पिंड में भी स्थित है। यह एक अद्भुत शास्त्र है।

गीता परिवार के एक वरिष्ठ सदस्य श्री सुरेश जी जाधव का उल्लेख कर बताया गया कि उनका श्वास पर किस तरह संयम था। वे योग शास्त्र के श्रेष्ठ जानकार थे। उनके द्वारा बताए गए प्राणायाम जब बच्चों को सिखाए गए तो उनके परिणाम दस प्रतिशत बढ़ गए।

सूर्य का तेज बुद्धि को प्रकाशित करता है। चंद्र का रस मन को प्रभावित करता है। यह मन - बुद्धि का तादात्म्य प्राणायाम से हो सकता है। यह प्राणायाम और समत्व समझ आए तो आत्मज्ञान का परिचय हमें निश्चित रूप से हो सकता है।

15.14

अहं(व्ँ) वैश्वानरो भूत्वा, प्राणिनां(न्) देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः(फ्), पचाम्यन्नं(ञ्) चतुर्विधम्॥15.14॥

प्राणियों के शरीर में रहने वाला मैं प्राण-अपान से युक्त वैश्वानर (जठराग्नि) होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।

विवेचन: जठराग्नि और श्वास-प्रश्वास पर भी ईश्वर का नियंत्रण है। अन्न को पचाने वाली ऊर्जा भी भगवान का ही रूप है। परमात्मा सर्वत्र व्याप्त हैं और हम जैसी कल्पना करते हैं उस रूप में वह हमें साकार लगते हैं।
प्रकाश एक है परंतु उसका उपयोग विभिन्न प्रकार से होता है I उजाला देने के लिए, सौर उर्जा की तरह, या फिर डॉक्टर एक्स रे में भी इसका उपयोग करते हैं। इस प्रकार भगवान एक ही है, परंतु वह हम उन्हे, कभी मुरली मनोहर, कभी बांके बिहारी, कभी लड्डू गोपाल तो कभी गिरधारी जैसे अलग-अलग स्वरुप में देखते हैं।

15.15

सर्वस्य चाहं(म्) हृदि सन्निविष्टो, मत्तः(स्) स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं(ञ्) च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो, वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।15।।

मैं ही सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ तथा मुझसे (ही) स्मृति, ज्ञान और अपोहन (संशय आदि दोषों का नाश) होता है। सम्पूर्ण वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ। वेदों के तत्त्व का निर्णय करने वाला और वेदों को जानने वाला भी मैं (ही हूँ)।

विवेचन: परमात्मा सभी प्राणियों के ह्रदय में स्थित है। वे ही स्मृति, ज्ञान और विवेक हैं। प्रत्यक्ष वेद, वेदकर्ता तथा वेदवेत्ता भी स्वयं भगवान ही हैं।

तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझ में यह सारा संसार I
इसी भावना से अंतर भर, मिलूं सभी से तुझे निहार।।

इस प्रकार सभी चर अचर में परमात्मा के ही दर्शन का भाव हो।

प्रतिपल निज इंद्रिय- समूह से, जो कुछ भी आचार करूंi
केवल तुझे रिझाने को बस, तेरा ही व्यवहार करूं।।
इस संदर्भ में, भाईजी और सेठजी जिन्होने गीता प्रेस की नींव रखी, उनका कार्य याद किया गया। उन्होने अपने सभी वस्त्रालय, गीता प्रेस के नाम कर दिए और अपने आप को गीता प्रेस के लिए भगवान का कर्मचारी मानकर जीवनयापन करने लगे। आदि गुरु शंकराचार्य ने भी मानस पूजा के लिए लिखा है - मेरे सारे विषय भोग तेरी पूजा बन जाएं । मेरी निद्रा भी तेरी समाधि बन जाए। मेरा संचार तेरी प्रदक्षिणा बन जाए। मेरे सारे शब्द स्तोत्र बन जाए। मैं जो जो कर्म करूं वह सब तेरी आराधना बन जाएं। इस प्रकार का भाव आने पर हम अनायास ही प्रसन्न रहने लग जाएंगें।

15.16

द्वाविमौ पुरुषौ लोके, क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः(स्) सर्वाणि भूतानि, कूटस्थोऽक्षर उच्यते।।16।।

इस संसार में क्षर (नाशवान्) और अक्षर (अविनाशी) – ये दो प्रकार के ही पुरुष हैं। सम्पूर्ण प्राणियों के शरीर क्षर और जीवात्मा अक्षर कहा जाता है।

15.16 writeup

15.17

उत्तमः(फ्) पुरुषस्त्वन्यः(फ्), परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य, बिभर्त्यव्यय ईश्वरः।।17।।

उत्तम पुरुष तो अन्य (विलक्षण) ही है, जो ‘परमात्मा’– इस नाम से कहा गया है। (वही) अविनाशी ईश्वर तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर (सबका) भरण-पोषण करता है।

विवेचन : विश्व में दो प्रकार के पुरुष हैं। क्षर यानी नाशवान देह वाले। अक्षर यानी अविनाशी। परंतु जो पुरुषोत्तम है वह इन दोनों से भी भिन्न है। वह परमात्मा है। हमारे यहां सात चिरंजीवी लोग बताए गए हैं- अश्वत्थामा, हनुमान, विभीषण, परशुराम, व्यास, कृपाचार्य और बली। हमारे जैसे, जो नाशवान देह वाले है, याने क्षर है। उत्तम पुरुष इन सब से अलग होते है। वह तीनों लोगों का स्वामी है, वही परमेश्वर है ।

15.18

यस्मात्क्षरमतीतोऽहम्, अक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च, प्रथितः(फ्) पुरुषोत्तमः।।18।।

कारण कि मैं क्षर से अतीत हूँ और अक्षर से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में ‘पुरुषोत्तम’ (नाम से) प्रसिद्ध हूँ।

विवेचन: जो स्वयं को प्रकाशित करता है वह अविनाशी है, सर्वोत्तम है। उसे ज्ञानीजन पुरुषोत्तम के रूप में जानते हैं।

15.19

यो मामेवमसम्मूढो, जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां(म्),सर्वभावेन भारत।।19।।

हे भरतवंशी अर्जुन ! इस प्रकार जो मोह रहित मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ सब प्रकार से मेरा ही भजन करता है।

विवेचन: भगवान कहते हैं," जो ज्ञानी पुरुष मेरे स्वरूप को जानते हैं वह मुझे ही भजने लगते हैं।" भगवान कहते हैं, अर्जुन! पराक्रम खूब करना किंतु योगी भी बनना। हम सब सुगंध की खोज में कस्तूरी मृग की तरह दौड़ रहे हैं । परंतु वह सुगंध परमात्मा रूप में हमारे भीतर ही है। अंदर ही प्रकाश है, अंदर ही सुख का झरना है, पर हम बाहर खोज रहे हैं। जिस क्षण इस बात का अनुभव होने लग जाए कि अंदर बैठा परमात्मा ही सब कुछ करता है, हम योगी बन जाएंगे।

15.20

इति गुह्यतमं(म्) शास्त्रम्, इदमुक्तं(म्) मयानघ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्, कृतकृत्यश्च भारत।।20।।

हे निष्पाप अर्जुन ! इस प्रकार यह अत्यन्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया है। हे भरतवंशी अर्जुन ! इसको जानकर (मनुष्य) ज्ञानवान् (ज्ञात-ज्ञातव्य) (तथा प्राप्त-प्राप्तव्य) और कृतकृत्य हो जाता है

विवेचन: स्वयं भगवान द्वारा बताए गए इस परम रहस्य को जो जान लेंगे वह बुद्धिमान पुरुष कृतकृत्य हो जाएंगे। स्वयं के साथ ही वे आसपास के सभी जन को भी आलोकित कर देंगे। सभी प्रसन्न, आनंदित हो जाएंगे। हमारे भीतर आनंद का झरना खोल दे, ऐसा मार्ग इस अध्याय में भगवान ने हमें सिखाया।

कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने वाले इस सत्र का समापन हुआ।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे पुरुषोत्तमयोगो नाम पञ्चदशोऽध्याय:॥

इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘पुरूषोत्तमयोग’ नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।