विवेचन सारांश
रज, तम, सत तीनों गुणों का जीवन में महत्व

ID: 1266
Hindi - हिन्दी
शनिवार, 13 अगस्त 2022
अध्याय 14: गुणत्रयविभागयोग
2/2 (श्लोक 14-27)
विवेचक: गीता विदूषी सौ वंदना जी वर्णेकर


प्रदीप्तमान दीप प्रज्वलन के साथ 14 वें अध्याय के विवेचन सत्र का आरंभ किया गया। अज्ञान के अंधेरे दूर हो जाएं, इसलिए श्रीभगवान, भगवद्गीता रूपी दीपक गीता परिवार के माध्यम से हम लोगों के अंतः करण में प्रज्वलित करने का प्रयास कर रहे हैं। मां सरस्वती, संत ज्ञानेश्वर महाराज, सद्गुरु स्वामी गोविंद देव गिरि जी महाराज के चरणों में शत् शत् वंदन करते हुए आज के  सत्र का आरम्भ हुआ। 

हम भारतवर्ष की  पचहत्तरवीं स्वतंत्रता दिवस का अमृत महोत्सव मनाने जा रहे हैं। सभी को हार्दिक शुभकामनायें देते हुए भगवान से प्रार्थना की गयी  कि,

जिस भूमि पर भगवद्गीता का अवतरण हुआ वह हमारी मां भारती, विश्व के गुरु पद पर विराजमान हो जाए। पाँच हजार वर्ष पूर्व श्री भगवान कृष्ण द्वारा ज्ञान की शाश्वत धारा बही। वह मां भारती संपूर्ण सृष्टि को आलोकित करेगी एवं सृष्टि के जीवन उन्नयन का मार्ग प्रशस्त करेगी ऐसा विश्वास रखते हुए चतुर्दश अध्याय के विवेचन सत्र का आरंभ हुआ। 

हमने देखा इस गुणत्रयविभाग योग में गुण का अर्थ होता है रस्सी और यह हमें बांधती है यह तीनों गुण सृष्टि में हैं। यह तीन गुणों में यह तीन रस्सियाँ हमें बाँधती है। जब तक यह तीन गुण हम नहीं जानते, तब तक हम स्वयं को, इस सृष्टि को नहीं जान सकते। उस परमात्मा सृष्टि के रचयिता को भी नहीं जान सकते। इस तरह 14 वें अध्याय के माध्यम से हम स्वयं में झांकने का प्रयास कर रहे हैं। यह अध्याय द्रष्टा बनकर साक्षी भाव से स्वयं को परखने में सहायता करता है। मैं कौन से गुण के आधीन हूँ एवं कौन से गुण में मुझे होना चाहिए? तम से रज गुण में या रज से सत गुण में मुझे होना चाहिये। यह अध्याय हमारे जीवन में प्रविष्ट होना चाहिए और इसलिए यह हमें एक रस्सी में बांधते हैं। यह तीनों गुण सृष्टि में रहने हेतु आवश्यक भी है। देह सत्वगुण के कारण सही दिशा में चलता हैं व रजोगुण के कारण हमारा कार्य चलता है तथा तमोगुण के कारण कार्य रुकता है। कार्य का रुकना, चलना व सही दिशा में चलना तीनों ही आवश्यक है, इसलिए तीनों गुणों का एक महत्व है लेकिन इन तीन गुणों में  सन्तुलन होना चाहिये। स्वयं को परखने वाला, मैं किस गुण में हूँ या होना चाहिए यह परखने वाले ये गुण हैं। यह तीनों गुण तीन श्रृंखला हैं। सत्व गुण सोने की, रज गुण चांदी की, तम गुण लोहे की श्रृंखला हैं। यह तीनों श्रृंखलायें हैं। सत्व गुण के कारण चैतन्य जागता है, विवेक बढ़ता है। ज्ञान का उन्नयन करने वाला यह सत्व गुण है परंतु इसका भी परिणाम कई बार विपरीत प्रभाव  में होता है क्योंकि ज्ञान का कभी अहंकार भी आ जाता है। जब यह भावना मन में जागृत होती है तो यह सत गुण का विपरीत प्रभाव है। रजोगुण के कारण लोभ बढ़ता है तथा श्रम बढ़ता है। कर्म की प्रवृति बढ़ती है, यश भी बढ़ता है, लेकिन यह रजोगुण मनुष्य को इस प्रकार से कर्म में बाँधता है कि लोभ बढ़ता है व मन में अशांति बढ़ती है। तमोगुण अधोगति की ओर ले जाता है। क्या करना है क्या नहीं करना है यह विवेक भी लुप्त हो जाता है। इसमें मोह बढ़ता है आलस्य बढ़ता है। यह सब तमोगुण के विपरीत प्रभाव है। इस प्रकार से रजोगुण से तमोगुण में व तमोगुण से सतगुण में प्रविष्ट होना, यह सत गुण में प्रविष्ट होने की इस प्रक्रिया को धर्म कहा जाता है।

संत श्री गुलाबराव महाराज जी ने कहा-

हमारे जीवन में किस प्रकार सात्विकता बढ़े? कैसे यह गुण हमें बांधते हैं? ठाकुर रामकृष्ण देव एक कथा के रूप में बताया गया कि एक जंगल में डाकू के रूप में तीन चोर रहते थे। जो भी यात्री वहाँ से गुजरते थे वे डाकू उन्हें लूटते थे। एक बार, एक यात्री अपनी राह भटक गया और तीनों चोरों ने उसे पकड़ लिया। उसके पास जो कुछ भी था सब कुछ लूट लिया। उसने सारा धन दे दिया। अब डाकुओं ने सोचा इसका क्या किया जाए? अगर इसको छोड़ दिया तो वह गांव में जाकर हमारी सूचना दे देगा। एक चोर ने कहा इसे यहीं पर मार देते हैं, दूसरे ने कहा यहाँ पर हम इसे पेड़ से बाँध देते हैं। वन्य प्राणी इसे मारकर खा लेंगे। उस यात्री को पेड़ से बांध दिया गया। आधी रात को तीसरा चोर वहाँ पहुंचा उसने चोर का बंधन तोड़ दिया और कहा मैं तुम्हें जंगल की सीमा तक ले जाऊँगा, वहां जाने के बाद उस तीसरे चोर ने गांव का उसका घर दिखाया और कहा अब आगे की यात्रा तुम्हें करनी हैं। इस तरह यात्री को वह छोड़कर चला गया, फिर वह यात्री गांव जाने के लिए प्रविष्ट हो गया। अब यह जो तीन चोर हैं वह तीन गुण हैं। पहला चोर तम गुण है, दूसरा चोर रज गुण है, तीसरा चोर सत गुण है, यह उस रास्ते पर ले जाएगा जहाँ परमात्मा को प्राप्त करने का रास्ता है व यह गुण परमात्मा का रास्ता दिखायेगा, अंतिम गंतव्य तक पहुंचने का रास्ता दिखायेगा। अंतिम यात्रा गुणों के बंधन से दूर रह कर ही हो सकती है। सत गुण  हमारा अंतिम गंतव्य है वह मार्ग प्रशस्त करता है। वह प्रेरणा देते रहते हैं हमें बाँधते हैं। इसका मतलब यह है कि जिस गुण का आधिक्य है जीवन समाप्त होने के समय उसी गुणों के साथ अगला जन्म मनुष्य को प्राप्त होता है इसलिए मनुष्य की अंतिम स्थिति भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। भगवान कहते हैं केवल देह में रहते हुए ही नहीं बल्कि देह छोड़ते समय भी कौन से गुण का आधिक्य है यह हमें जरूर देखना पड़ता हैं। सतगुण भी व्यक्ति को एक स्थान तक ही ले जाता है, उसके आगे की यात्रा तीनो ही गुणों को छोड़ कर करनी पड़ती है, इस स्थिति को श्रीमद्भगवद्गीता में गुणातीत अवस्था कहा गया है। श्रीभगवान इस अध्याय में इस गुणातीत अवस्था को प्राप्त करने का मार्ग बता रहे हैं। 

14.14

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु, प्रलयं(म्) याति देहभृत्।
तदोत्तमविदां(म्) लोकान्, अमलान्प्रतिपद्यते॥14.14॥

जिस समय सत्त्वगुण बढ़ा हो, उस समय यदि देहधारी मनुष्य मर जाता है (तो वह) उत्तमवेत्ताओं के निर्मल लोकों में जाता है।

विवेचन-  देह छोड़ते समय, जब जीवात्मा देह को छोड़ता है तब सत्व गुण का आधिक्य है तो अंतिम मार्ग उन्नयन की ओर जाएगा। जीवात्म
  के देह त्याग  करने पर फिर उसे उत्तम निर्मल लोक की प्राप्ति होती है एवं अच्छे कुल में जन्म मिलता है सात्विकता एवं पूजा पाठ वाले घर में अध्यात्मिक मां की कोख से वह जन्म लेता है। भगवान जीवन का अंतिम चरण अत्यंत आवश्यक है यह बताते हैं कि जो मनुष्य के अंतःकरण मैं भाव होगा ,देह त्याग के समय उसी भाव के साथ उसे अगला जन्म मिलेगा। इस प्रकार जड़ भरत की कथा है जो घर छोड़कर तप करने वानप्रस्थ आश्रम चले गए थे। वानप्रस्थ आश्रम में नदी के किनारे तप करने बैठे। तब एक दिन नदी के बहाव से एक मृत शावक, जिसके जन्म के समय माता की मृत्यु हो गयी। ऐसे मृग शावक को उन्होंने बचा लिया। उसे लाड प्यार करके पालने लगे परंतु जब वह चला गया, तब उसी का चिंतन इनके मन में था कि  मेरा राज दुलारा मृग शावक कहाँ गया होगा। फिर  उस समय उनकी मृत्यु हो जाती है एवं उनके विचारों में मृगशावक का चिंतन था, उन्हें अगला जन्म मृग ( हिरण) के रूप में मिला। उनका साधन व्यर्थ नहीं गया परंतु कुछ अतिरिक्त जन्मों  के कारण भगवद्प्राप्ति में विलंब हो गया। अगली गति ऊर्ध्वगामी होनी चाहिए इसलिए कुछ ना कुछ नया सीखते रहना चाहिये। हमारा अंतरंग भगवद्मय हो जाए इसलिए भगवद्गीता पढ़ते रहना चाहिये। भगवद्गीता भगवान कृष्ण की वांग्मयी मूर्ति है इस प्रकार भगवान कहते हैं- हे अर्जुन रजोगुण का अधिक्य होते हुए जो शरीर छोड़ता है उसकी गति कैसी होती है वह अगले श्लोक में निरूपित किया गया। 

14.15

रजसि प्रलयं(ङ्) गत्वा, कर्मसङ्गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि, मूढयोनिषु जायते॥14.15॥

रजोगुण के बढ़ने पर मरने वाला प्राणी कर्मसंगी मनुष्य योनि में जन्म लेता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरने वाला मूढ़ योनियों में जन्म लेता है।

विवेचन- भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन जिस मनुष्य में रजोगुण का आधिक्य हो गया, वह व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त हो गया तो फिर उसका जन्म ऐसे घर में होगा जहाँ कर्म की बहुत हलचल होगी। जिसके घर में कर्म अर्थात व्यापार,उद्योग, दिन-रात कर्म की हलचल है। यह कर्म भी आवश्यक है क्योंकि इसके द्वारा भी जीवन चलता है, यश की प्राप्त होती है। रजोगुण भी आवश्यक है परंतु सत्व गुण अंतिम लक्ष्य तक पहुंचाता है। तम गुण अधिक होने पर, तमोगुण अज्ञान, प्राणी, पशु, कीटक इस प्रकार की योनि प्राप्त होती है इसलिए यह लास्ट इंप्रेशन( last Impression) अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह तीनों गुण जीवन को नियंत्रित करते हैं। 

14.16

कर्मणः(स्) सुकृतस्याहुः(स्), सात्त्विकं(न्) निर्मलं(म्) फलम्।
रजसस्तु फलं(न्) दुःखम्, अज्ञानं(न्) तमसः(फ्) फलम्॥14.16॥

विवेकी पुरुषों ने – शुभ कर्म का तो सात्त्विक निर्मल फल कहा है, राजस कर्म का फल दुःख (कहा है और) तामस कर्म का फल अज्ञान (मूढ़ता) कहा है।

विवेचन- भगवान कहते हैं- हे अर्जुन! तीनों गुणों में सत्व गुण का फल निर्मल होता है, मल रहित होता है, मन को शांति प्रदान करने वाला होता है, मन को आनंद से अभिभूत करने वाला होता है, अच्छे कर्मों का सात्विक फल प्राप्त होता है लेकिन रजोगुण का फल अंततोगत्वा दु:ख कारक होता है कितनी बड़ी विडंबना है कि मनुष्य सुख की प्राप्ति के लिए आपाधापी करता है। बहुत कुछ प्राप्त करना चाहता है, मान, प्रतिष्ठा, पद, समृद्धि यह सारी चीजें सुख के लिए प्राप्त करना चाहता है क्योंकि सभी को सुख चाहिये परंतु तीनों गुणों के अनुसार सुख की कल्पना अलग अलग-अलग है।

14.17

सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं(म्), रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो, भवतोऽज्ञानमेव च॥14.17॥

सत्त्वगुण से ज्ञान और रजोगुण से लोभ (आदि) ही उत्पन्न होते हैं; तमोगुण से प्रमाद, मोह एवं अज्ञान भी उत्पन्न होते हैं।

विवेचन- भगवान कहते हैं हे अर्जुन! सत्व गुण के कारण ज्ञान उत्पन्न होता है, ज्ञान की आभा, व आलोक उत्पन्न होता है, सुख की प्राप्ति होती है, विवेक की जागृति होती है, शांति भी प्राप्त होती है। रज गुण के कारण लोभ बढ़ता हैं यह मानसिक विकार हैं यह कम नहीं होता, बढ़ता है। शरीर की शक्ति से कामना व कार्य होता है। रजोगुण के कारण लोभ व तमोगुण के कारण प्रमाद बढ़ता है। उदाहरणार्थ- मानो चलते- चलते किसी सत गुणी व्यक्ति को पाँच सौ  का नोट मिल जाता है तो वह मंदिर में डाल देगा, दान दे देगा या किसी जरूरतमंद को दे देगा परंतु यदि रजोगुण व्यक्ति को वह नोट मिल जाये तो वह सबसे पहले मनोरंजन करेगा एवं तीसरा तमोगुणी व्यक्ति को वह नोट मिल जाये तो वह गलत कार्य करेगा, व्यसन में खर्च करेगा। इस प्रकार एक गुण जीवन में ऊपर ले जाता है एक मध्य में ले जाएगा, एक नीचे की ओर ले जाएगा। 

14.18

ऊर्ध्वं(ङ्) गच्छन्ति सत्त्वस्था, मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था, अधो गच्छन्ति तामसाः॥14.18॥

सत्त्वगुण में स्थित मनुष्य ऊर्ध्वलोकों में जाते हैं, रजोगुण में स्थित मनुष्य मृत्युलोक में जन्म लेते हैं (और) निन्दनीय तमोगुण की वृत्ति में स्थित तामस मनुष्य अधोगति में जाते हैं।

विवेचन- यदि किसी से कोई भी चीज छीन ली जाए, तो बुरा लगता है जैसे पद, प्रतिष्ठा, कुर्सी। जो सत गुण में रहता है उसका जीवन उर्ध्वगामी हो जाता है। सत गुण से कोई चीज छीन नहीं सकते। रजोगुण में स्थित राजष मध्य में अर्थात मनुष्य लोक में ही रहते हैं। तमोगुण के व्यक्ति कार्य रूप, निद्रा, आलस्य की स्थिति अधोगति को अर्थात कीट, पशु आदि नीच यौनियों को, नरकों को प्राप्त होते हैं।

संत ज्ञानेश्वर महाराज ने कहा-

माझे असते पण लोको, नाम रूप हरको। 
मज झणे वसको भूत जातो ।।

अर्थात् सात्विक वृत्ति वाला व्यक्ति कैसे होता है? वह कर्म कैसे करता है? वो कहीं पर अपना नाम हो जाये इस भावना से वह कार्य नहीं करता हैं। यह मेरा कर्तव्य है इस भावना के साथ कार्य करता है। मेरा कार्य होना चाहिए, वह रजो गुणी है, दूसरों का काम नहीं होना चाहिए यह भी स्पर्धा निर्माण करती है क्योकिं रजो गुण का आधिक्य होता है।

उदाहरणार्थ- एक माँ के तीन बालक हैं। एक बालक स्कूल से आने के बाद अपना संपूर्ण कार्य,  गृह कार्य कर स्वयं लेता है, यह बालक सतगुण का प्रतीक है,  दूसरा बालक अव्यवस्थित है वह कोई कार्य करने में इच्छुक नहीं होता है, अगर माँ लालच देगी तो कार्य करेगा अर्थात लोभ का फल प्राप्त करने के लिए कार्य करता है यह रजोगुण का प्रतीक है, तमोगुण बालक स्कूल से आकर सोता है, आराम करता है, उसकी किसी भी कार्य में कोई ध्यान नहीं देता, जब माँ लालच देती है तो वह बालक कहता है कि पहले मुझे अपनी वस्तु दे दो उसके बाद मैं कार्य करुँगा। भगवान कहते हैं- हे अर्जुन! गुणों को देखो। तीनों गुणों का द्रष्टा बनकर देखो। जिससे इस जीवन में यह साध्य कर लिया वह भगवान को प्राप्त होता है।

14.19

नान्यं(ङ्) गुणेभ्यः(ख्) कर्तारं(म्), यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं(म्) वेत्ति, मद्भावं(म्) सोऽधिगच्छति॥14.19॥

जब विवेकी (विचार कुशल) मनुष्य तीनों गुणों के (सिवाय) अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और (अपने को) गुणों से पर अनुभव करता है, (तब) वह मेरे सत्स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।

विवेचन- जो द्रष्टा बनकर आत्मतत्व के साथ एक हो गया। वे समझ रहे हैं कि केवल गुण ही सब कुछ कर रहे हैं वह केवल द्रष्टा  है। भगवान कहते हैं आप अपने गुणों का चिंतन कर सकते हैं, अपने अंदर झांक सकते हैं। इस प्रकार साक्षी बनो जिस प्रकार सूर्य के माध्यम से, सूर्य के कारण भाप बनती है फिर बादल बनते हैं फिर वर्षा होती है परंतु सूर्य भगवान यहाँ सिर्फ द्रष्टा हैं, उसी प्रकार सूर्य की तरह साक्षी बने, अपने सभी कार्यों के परिणामों को दूर से देखने की कला विकसित करता है वह गुणातीत को पहचान जाता है वह परमात्मा को प्राप्त हो जाता हैं। यह कभी ना खंडित होने वाला सुख है।  रानी रासमणी के बड़े भाई ने  ठाकुर रामकृष्ण परमहंस जी को, काली मां की मंदिर की पूजा व अर्चना करने का दायित्व दे दिया और उन्हें पुजारी के रूप में नियुक्त कर दिया।  उन्होंने कहा यह निर्देश दिया कि माँ काली ही अब  तुम्हारी माँ है. बस उस दिन से वे काली माँ को अपनी चिन्मयी माँ मानने लगे। उनसे बातें करते थे। मां उन्हें उपदेश भी देती थी, उनके लिए वेदांत सीखने का प्रावधान माँ ने कर दिया। उनके लिए तोतापुरी महाराज को हिमालय से बुला लिया। उनकी मां के साथ इतनी ज्यादा एकाग्रता हो गई कि वे अपने को माँ से भिन्न नहीं मानते थे और वे माँ काली को प्राप्त हो गये। वह पूजा करते समय माँ को हार पहनाते हुए खुद को ही पहनाने लगे, वो भोग खुद को ही आरोगने लगे। रानी रासमणी जी के जमाई माथुर जी को उनको यह पता चल गया कि माँ के भाव में हैं। उनको यह समझ में आ गया था कि रामकृष्ण जी तो माँ के साथ एकाग्र हो गए हैं।

आदि शंकराचार्य जी ने कहा -
  
॥ निर्वाण षटकम्॥
मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहम् न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर् न तेजॊ न वायु: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥


अर्थात् मैं बुद्धि नहीं, अहंकार नहीं, चित्त नहीं, मैं तो आत्मस्वरूप हूँ। मैं वह चैतन्य, आत्मा, गुणातीत हूँ वही मेरा स्वरूप है यह जिन्होंने जान लिया वह मुझे ही प्राप्त करते हैं तथा इसको जो जानते हैं वह मुझे ही प्राप्त होते हैं।

14.20

गुणानेतानतीत्य त्रीन्, देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखै:(र्), विमुक्तोऽमृतमश्नुते॥14.20॥

देहधारी (विवेकी मनुष्य) देह को उत्पन्न करने वाले इन तीनों गुणों का अतिक्रमण करके जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था रूप दुःखों से रहित हुआ अमरता का अनुभव करता है।

विवेचन - जो पुरुष है इस देह में, उत्पत्ति के कारण तीनों गुणों का उल्लंघन करते हैं वह फिर दुखों को प्राप्त होते हैं। मनुष्य का जन्म भी दुख ही है।यह तीनों गुणों की प्राप्ति करते हैं जन्म, मृत्यु जरा। वे इस देह में रहते हुए तीनों गुणों से मुक्त होकर अमृत की प्राप्ति करते हैं। भगवद्गीता देह में रहकर जिस प्रकार गुणों से मुक्त होकर परमात्मा प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करती हैं वे मनुष्य अमृत तत्व की प्राप्ति करते हैं।

14.21

अर्जुन उवाच
कैर्लिंगैस्त्रीन्गुणानेतान्, अतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः(ख्) कथं(ञ्) चैतांस्, त्रीन्गुणानतिवर्तते॥14.21॥

अर्जुन बोले – हे प्रभो! इन तीनों गुणों से अतीत हुआ मनुष्य किन लक्षणों से (युक्त) होता है? उसके आचरण कैसे होते हैं? और इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कैसे किया जा सकता है?

विवेचन- अर्जुन ने पूछा  - इन तीनों गुणों से अतीत पुरुष किन - किन लक्षणों से युक्त होते हैं बताइये? यह किस प्रकार का आचरण करते हैं यह भी बताइये? भगवान के मुखारविंद से अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर देने हेतु अगले श्लोक में यह शाश्वत धारा बही है:- 

14.22

श्रीभगवानुवाच
प्रकाशं(ञ्) च प्रवृत्तिं(ञ्) च, मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि, न निवृत्तानि काङ्क्षति॥14.22॥

श्री भगवान बोले – हे पाण्डव! प्रकाश और प्रवृति तथा मोह – (ये सभी) अच्छी तरह से प्रवृत्त हो जायँ तो भी (गुणातीत मनुष्य) इनसे द्वेष नहीं करता और (ये सभी) निवृत्त हो जायँ तो (इनकी) इच्छा नहीं करता।

विवेचन- हमने पहले के श्लोकों में देखा तीनों गुण आवश्यक हैं। हम सभी में यह तीनों गुण होते हैं। तमो गुणी व्यक्ति में रज व सत गुण होते हैं परंतु अत्यंत कम मात्रा में होते हैं। जो गुणातीत हो गया उसमें प्रकाश, सत्व गुण का लक्षण, प्रवृत्ति हैं। क्रिया करने की वृत्ति यह रजो गुण के कारण हैं। तीसरा गुण मोह है। इन तीनों गुणों के तीन लक्षण है यह अंतःकरण में नियुक्त है। जो उसका द्वेष नहीं करता, उससे आकांक्षा नहीं करता, क्रिया को साक्षी भाव से देखता है वह समझो गुणातीत हो गया।

14.23

उदासीनवदासीनो, गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव, योऽवतिष्ठति नेङ्गते॥14.23॥

जो उदासीन की तरह स्थित है (और) (जो) गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता (तथा) गुण ही (गुणों में) बरत रहे हैं – इस भाव से जो (अपने स्वरूप में ही) स्थित रहता है (और स्वयं कोई भी) चेष्टा नहीं करता।

विवेचन- यह गुणातीत व्यक्ति उदासीन (ऊपर) बैठता है अर्थात दूर से देखता है, उसी प्रकार वह जीवन में देखता हैं। जो गुणों के कारण विचलित नहीं होता, इन गुणों के कारण यह सब कार्य हो रहा है जो यह समझता है, वह परमात्मा के साथ नित्य एकाकार में रहता है। उदाहरणार्थ- हमने देखा कोरोना की महामारी में तमोगुण बढ़ गया परंतु गीता परिवार ने गीता की कक्षाओं का संचालन किया गया यह तमोगुण इस प्रयास से  सत गुण में बदल गया।

14.24

समदुःखसुखः(स्) स्वस्थः(स्), समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीर:(स्), तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥14.24॥

जो धीर मनुष्य सुख-दुःख में सम (तथा) अपने स्वरूप में स्थित रहता है; जो मिट्टी के ढेले, पत्थर और सोने में सम रहता है, जो प्रिय-अप्रिय में सम रहता है। जो अपनी निन्दा-स्तुति में सम रहता है; जो मान-अपमान में सम रहता है; जो मित्र-शत्रु के पक्ष में सम रहता है (और) जो सम्पूर्ण कर्मों के आरम्भ का त्यागी है, वह मनुष्य गुणातीत कहा जाता है। (14.24-14.25)

विवेचन- जिस प्रकार एक नट अभिनय करता है। उसको पता होता है कि वह नट है अभिनय के बाद वह अपने मूल स्वरूप पर आ जाता है। अपना मूल स्वरूप नहीं भूलता। उसी प्रकार गुणातीत व्यक्ति अपना स्वरूप को नहीं भूलता वह यह जान जाता हैं कि कार्य गुणों के द्वारा किया जा रहा है। वह समान भाव में आ जाता है स्वयं को भूल जाता है। स्व में जो स्थित है, जो अपने मूल स्वरूप को जान गया वह सुख-दुख (मिट्टी, पत्थर, स्वर्ण) सभी को समान मानता है या अतुल्य व संतुलन जीवन में गुणातीत व्यक्ति बन जाता है।

14.25

मानापमानयोस्तुल्य:(स्), तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी, गुणातीतः(स्) स उच्यते॥14.25॥

विवेचन- भगवान कह रहे हैं - अर्जुन तुम गुणातीत के लक्षण पूछ रहे हो। गुणातीत मान अपमान दोनों में समान रहता है। वह जानता है यह मेरे साथ में नहीं है इसलिए वह प्रतिक्रिया नहीं देते। वह समान रहता है उसे सारी परिस्थितियां एक सी लगती हैं। शत्रु व मित्र को समान ही मानना चाहिये। शत्रुता को याद नहीं रखना चाहिए क्योंकि इससे दुख होता है इसलिए मनुष्य को बुरा व्यवहार भूल जाना चाहिये। दूसरों का प्रभाव हमारे अंतकरण पर नहीं होना चाहिए। भक्ति गुणातीत अवस्था तक पहुंचाती है यह सब गुण भक्ति से ही आता हैं। ज्ञान को भी भक्ति की आवश्यकता होती है।

14.26

मां(ञ्) च योऽव्यभिचारेण, भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्, ब्रह्मभूयाय कल्पते॥14.26॥

और जो मनुष्य अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मेरा सेवन करता है, वह इन गुणों का अतिक्रमण करके ब्रह्म प्राप्ति का पात्र हो जाता है।

विवेचन- भगवान कहते हैं अव्यभिचारी भक्ति यानी भगवान की भक्ति, भगवान के लिए। इस प्रकार की भक्ति जीवन में उदित हो गई तो वह मनुष्य परमात्मा को प्राप्त करता है। उदाहरणार्थ - जिस प्रकार रोते हुए बालक को खिलौने दो तो वह नहीं मानता वह बालक माँ को चाहता है, खिलौने नहीं चाहता, माँ उसको गोद में उठा लेती है और वह चुप हो जाता है। उसी प्रकार मनुष्य अव्यभिचारी भक्ति से गुणातीत हो सकता है। भगवान से भगवान को माँगना चाहिए। सारे दिन में कम से कम से एक निमिष के लिए भगवान से भगवान को माँगना चाहिये।

14.27

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्, अमृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य, सुखस्यैकान्तिकस्य च॥14.27॥

क्योंकि ब्रह्म का और अविनाशी अमृत का तथा शाश्वत धर्म का और ऐकान्तिक सुख का आश्रय मैं (ही हूँ)।

विवेचन- भगवान कहते हैं अब इस अविनाशी, परब्रह्म, परमात्मा वह अमृतस्य है, वही शाश्वत है, नित्य धर्म का अखंड एकरस आनंद जिसके कारण प्राप्त होगा वह एक मैं ही हूँ। वह परब्रह्म परमात्मा भगवान श्री कृष्ण के मुखारविंद से जो भगवद्गीता प्रभावित हुई, जो ज्ञान प्रभावित हुआ, उस ब्रह्म में कृष्ण  व भगवान के रूप में कोई अंतर नहीं हैं।जो ब्रह्म परमात्मा को विश्व में देखता हैं उसे अमरत्व प्राप्त होता है। इस प्रकार परमात्मा को समझना, उसे कृष्णमूर्ति के रुप में देखना है जिसने समझ लिया उसे परमात्मा  के एकतत्व स्वरूप की प्राप्ति हो गई।

इस तरह से 14 वें अध्याय गुुुणत्रयविभागयोग का सुंदर सारगर्भित, अर्थपूर्ण विवेचन सत्र समाप्त हुआ।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(म्) योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्याय:।।

इस प्रकार ॐ तत् सत् - इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषदरूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में ‘गुणत्रयविभागयोग’ नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।