विवेचन सारांश
श्रीभगवान का परिचय एवं धरा पर अवतरण का प्रयोजन

ID: 2228
Hindi - हिन्दी
शनिवार, 07 जनवरी 2023
अध्याय 4: ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
1/3 (श्लोक 1-10)
विवेचक: गीता विशारद डॉ आशू जी गोयल


दीप प्रज्वलन, श्री गुरु वंदना और प्रार्थना के साथ प्रारंभ होने वाले इस सत्र में श्रीमद्भगवद्गीता जी के महत्व और महिमा को बताया गया। भगवान की अतिशय कृपा और पूर्व जन्म के अच्छे कर्मों और भाग्योदय के कारण हमारा मन श्री गीता जी की ओर प्रवृत्त हुआ है। गीता जी का अर्थ जानना, उसे आत्मसात करते हुए जीवन का उत्थान करना हमारे लिए अत्यंत सौभाग्य की बात है। इसके समान अन्य कोई शास्त्र नहीं जो इस लोक के साथ परलोक को भी सुधारता है। इसके समान सुगम एवम् कल्याणकारी शास्त्र कोई अन्य नहीं है। परम पूजनीय आचार्यों, संतो एवम् महापुरुषों ने कहा है कि इसे बार बार पढ़ने, चिंतन करने से  हर बार,हर क्षण नवीन खजाने की प्राप्ति होती है।

वास्तव में चतुर्थ अध्याय तृतीय अध्याय का परिशिष्ट है क्योंकि कर्मयोग का विषय प्रारंभ करने से पहले तीसरे अध्याय में छत्तीसवें श्लोक में अर्जुन ने श्री कृष्ण से एक प्रश्न पूछ लिया। हमारे मन को पाप में कौन लगाता है जबकि हमारी पाप करने की इच्छा नहीं होती? 

भगवान के लिए यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण था। इसलिए उन्होंने उसका उत्तर भी दिया कि काम, क्रोध एवं रजोगुण के कारण यह होता है। इन्हीं सब बातो से विषयांतर हो गया। इसलिए भगवान अर्जुन को वापस इसी विषय 'कर्म योग' पर पुनः लाए। क्योंकि भगवान के अनुसार कर्मयोग की महिमा अत्यंत गूढ़ है और फिर से अर्जुन को इस विषय की भूमिका बताने के लिए अपने दिव्य रूप को प्रस्तुत करते हुए, अपनी विभूति को प्रकट करते हैं और स्वयं का परिचय देते हैं। यज्ञों की महिमा को कहते हैं, गुरु की महिमा को कहते हैं। इस तरह अद्भुत रत्नों के खजाने से भरा हुआ अध्याय है - यह चतुर्थ अध्याय। अगर ऐसा कहें कि इसमें भगवान ने अपना बायोडाटा (Biodata) दिया है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। 

4.1

श्रीभगवानुवाच
इमं(म्) विवस्वते योगं(म्), प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह, मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥1॥

श्रीभगवान् बोले - मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था। फिर सूर्य ने (अपने पुत्र) वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने (अपने पुत्र) राजा इक्ष्वाकु से कहा।

विवेचन : भगवान ने कहा कि मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से, सूर्य ने अपने पुत्र मनु से और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा। इस श्लोक के पहले अक्षर ( इमम् ) यानी ' इस ' की विशिष्टता है। इस शब्द के अर्थ को लेकर आचार्यों में अलग - अलग ढंग से चर्चा हुई। किसी ने कहा  इमम् ' कर्म योग' के लिए है। किसी ने 'भक्ति योग' और किसी ने 'ध्यान योग' के लिए कहा। इस तरह अलग अलग आचार्यों ने अपने संप्रदाय के अनुसार, अपनी विचारधारा की अनुकूलता के साथ अर्थ बताया। लेकिन स्वतंत्र रूप से विचार करने पर 'इस' का अर्थ कर्म योग के लिए ही उपयुक्त दिखाई देता है। श्रीभगवान ने कहा कि  उन्होंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा और सूर्य ने अपने पुत्र (वैवस्वत) मनु से और मनु ने राजा इक्ष्वाकु को यह ज्ञान दिया।

ब्रह्मा जी ने जब मनुष्य की रचना की  तो उससे पूर्व पांच ही  जातियां थीं  - देव, दानव, यक्ष , गंधर्व और किन्नर। हम मनु से पैदा हुए तो मनुष्य कहलाए। ब्रह्मा जी के एक दिन में चौदह मनु होते हैं। सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग और कलयुग यह चतुर्यगी हैं। तैंतालीस लाख और बीस हजार वर्ष की एक चतुर्युगी होती है। ऐसी इकहत्तर चतुर्युगी के लिए एक मनु होता है। हमारी चतुर्युगी के मनु वैवस्वत मनु है और आने वाले मनु का नाम सावर्णी मनु है।

श्रीभगवान ने सूर्य को ज्ञान दिया इसका मतलब यह नहीं हुआ कि यह ज्ञान पहले से नहीं था। यह ज्ञान सदा से विद्यमान था। सूर्य भी नित्य हैं और ज्ञान भी नित्य है। बस भगवान ने समय समय पर परंपरा के इसे अनुसार प्रकट किया या बताया। यहां शब्द के अर्थ के स्थान पर भाव का महत्व अधिक है। इस संदर्भ में बड़ा सुंदर एक प्रसंग है।

 एक पुराने (antique) समान बेचने वाले की दुकान पर प्राय: आने वाले ग्राहक जो पुराने सामान को खरीदने के शौकीन थे, ने उत्सुकता वश पूछा कि क्या दुकान में कोई नया सामान आया है? तब दुकानदार के बेटे ने कहा कि पुराने समान की दुकान पर नई वस्तु कैसे आएगी? तब उस ग्राहक ने समझाया कि नए सामान का अर्थ कि पहले से कुछ अलग आया है क्या? इसलिए ज्ञान तो पुरातन ही है, नित्य ही है लेकिन भगवान आज इसकी बात कर रहे हैं तो यह नवीन जान पड़ता है।

4.2

एवं(म्) परम्पराप्राप्तम्, इमं(म्) राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता, योगो नष्टः(फ्) परन्तप॥2॥

हे परंतप ! इस तरह परम्परा से प्राप्त इस कर्मयोग को राजर्षियों ने जाना। परन्तु बहुत समय बीत जाने के कारण वह योग इस मनुष्यलोक में लुप्तप्राय हो गया।

विवेचन: श्रीभगवान ने कहा है कि परम तपस्वी अर्जुन! इस परंपरा से प्राप्त योग को राजर्षियों ने माना। इसके बाद यह योग पृथ्वी लोक से लुप्त  हो गया। अर्जुन ने जब संन्यासी बन जंगल में जाने की बात की तो भगवान ने कहा कि नहीं, तुम राजर्षियों के कुल के हो। तुम मनु, इश्वाकु, जनक, राजा हरिश्चंद्र, और पाण्डू  जो सभी राजर्षि परंपरा के थे उनके वंशज हो,  ये सभी राज - ऋषि थे। इसलिए केवल संन्यासी, गेरूए रंग के कपड़े वाले व्यक्ति ही ऋषि नहीं होते बल्कि गृहस्थी में रहकर राज्य करते हुए जिसकी दृष्टि समान हो गई, जिन्होंने समत्व को धारण कर लिया, जो कर्ता भाव से मुक्त होकर सारे कर्तव्य कर्म का पालन करने वाला हो,  वे व्यक्ति भी भगवत् कृपा को प्राप्त करते हैं। भगवान ने अर्जुन को भी उसी परंपरा का कहा। योग लुप्त हो गया था का अर्थ है कि बहुत सारी बाते कालातीत चलती हैं। सतयुग में सभी तपस्या करते थे पर द्वापर में तपस्या क्षीण हो गई।

बौद्ध काल में जब भगवान बुद्ध का अवतरण हुआ तो सब कर्म को छोड़कर भिक्षुक बन गए और भक्ति काल में हमें नाम जप, दान पुण्य की अधिकता दिखती है जो पहले भी थी अर्थात अलग - अलग काल में किसी बात की प्रधानता हो जाने से वह उस काल की विशेषता बन जाती है। वर्तमान काल में सेठजी जय दयाल जी गोयन्दका जिन्होंने गीता प्रेस की स्थापना की और भाईजी हनुमान प्रसाद जी पोद्दार को संतो की श्रेणी में अग्रणी माना गया और ये गृहस्थ संत कहलाए। वर्तमान काल में हम अपने प्रधानमंत्री जी को भी पचास वर्षों के बाद राजर्षि के रूप में देखेंगे क्योंकि उन्होंने चालीस वर्ष की आयु तक भिक्षुक का जीवन व्यतीत किया और नवरात्रि में केवल नींबू पानी ग्रहण करने वाले वे एकमात्र प्रधानमंत्री हैं। 

4.3

स एवायं(म्) मया तेऽद्य, योगः(फ्) प्रोक्तः(फ्) पुरातनः ꠰
भक्तोऽसि मे सखा चेति, रहस्यं(म्) ह्येतदुत्तमम्॥3॥

तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझसे कहा है; क्योंकि यह बड़ा उत्तम रहस्य है।

विवेचन: अर्जुन ने आश्चर्यवश पूछा कि इतना उच्च ज्ञान श्रीभगवान उसे क्यों दे रहे हैं? तब श्रीभगवान ने बताया कि अर्जुन उनके लिए साधारण नहीं बल्कि उनके प्रिय सखा और भक्त हैं। इसलिए वे उत्तम एवं गोपनीय ज्ञान अर्जुन को दे रहे हैं।  

4.4

अर्जुन उवाच
अपरं(म्) भवतो जन्म, परं(ञ्) जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां(न्), त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥4॥

अर्जुन बोले - आपका जन्म तो अभी का है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है; अतः आपने ही सृष्टि के आदि में सूर्य से यह योग कहा था - यह बात मैं कैसे समझूँ?

विवेचन: अर्जुन ने श्रीभगवान से कहा कि वे उसे मूर्ख बना रहे हैं। क्योंकि केवल अर्जुन से चार या पांच वर्ष बड़े श्री कृष्ण करोड़ वर्ष पूर्व सूर्य को ज्ञान कैसे दे सकते हैं? क्योंकि सूर्य का जन्म करोड़ों वर्ष पूर्व का है।
अर्जुन ने कहा  कि वह भगवान की बातें समझ नही पा रहा है। अर्जुन की बातें सुनकर श्रीभगवान मुस्कुराए और आगे कहा।

4.5

श्रीभगवानुवाच
बहूनि मे व्यतीतानि, जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं(म्) वेद सर्वाणि, न त्वं(म्) वेत्थ परन्तप॥5॥

श्रीभगवान् बोले - हे परन्तप अर्जुन ! मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, पर तू नहीं जानता।

विवेचन : श्रीभगवान ने मुस्कुराकर कहा कि हे अर्जुन! तुम्हें सारी बात नहीं पता है और मुझे सब पता है क्योंकि मैंने ही तुम्हें विस्मृति की शक्ति दी है अन्यथा तुम जी नहीं पाते। पुरानी स्मृति लुप्त होने से ही मनुष्य नया जीवन जी पाता है। इस संदर्भ में एक बहुत सुंदर कहानी है।

कहानी - एक धनाढ्य रामप्रसाद सेठ जी खूब धर्म पुण्य करते, साधु संतों की सेवा करते, कथा आयोजन करवाते थे। बहुत धन होने पर भी पर उन्हें संतान नहीं होने का दुख था। गांव में एक दिन बड़े संत आए तो सेठ जी ने स्वभाव वश उनकी आवभगत करते हुए उनकी खूब सेवा - सत्कार किया। कई दिन सेठजी के घर पर रहने के बाद एक दिन संत जी ने पूछा कि आप बहुत संपन्न है पर आपके मुख पर एक मलिनता है। सेठ जी ने बहुत रोते हुए संतान न होने के दुख के बारे में कहा। उन  सिद्ध महात्मा जी सेठ जी को संतान प्राप्ति हेतु मंत्र, पूजा अनुष्ठान बताया और चले गए। कुछ दिन बाद पत्नी सहित संत की बताई पूजा अनुष्ठान विधि को पूरा किया तो उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई। प्रसन्नता के कारण बड़े आयोजन, दान पुण्य आदि किए पर छठे दिन सेठ जी की पत्नी नहीं रही‌ं। सेठ जी बहुत दुखी हुए पर बहुत समय के बाद मिली संतान के मोह में प्रसन्न रहकर उसकी देखभाल करने लगे।  कुछ समय बाद उसने अनुभव किया कि बालक पूरे दिन खूब रोता है। ऐसा वो डेढ़ वर्ष तक करता रहा। सेठजी ने बड़े  चिकित्सक को दिखाया, उसने बताया कि उसकी रीढ़ की हड्डी में विसंगति है जो कभी ठीक नहीं हो सकती। दर्द की दवा वह  दे देगा, जिससे दर्द नहीं होगा पर  वो जीवन भर चल नहीं पाएगा। फिर भी दस से बारह वर्ष तक पूरे देश में उसके इलाज के लिए सेठजी घूमे पर कुछ नहीं हो पाया। अठारह वर्ष का होने पर लंदन के चिकित्सक ने उसे ठीक किया और इसमें सेठ जी ने अपनी कमाई सारी धनराशि खर्च कर दी। अब तक सेठ जी की अधिक कमाई उसके पुत्र के इलाज में जा चुकी थी फिर भी वो उसके ठीक होने पर बहुत प्रसन्न हुए और पुत्र का विवाह किया लेकिन विवाह के छठे दिन रात को उसकी बहू ने बताया कि उसका पति अचेत हो गया है। कुछ बोल नहीं रहा। उसी समय सेठ जी ने वैद्य जी को बुलाया, वैद्य जी ने बताया कि उसे हृदयाघात हो गया है। इस बात से सेठ जी बहुत अधिक विचलित हो गए क्योंकि उनके दुख कम नहीं हो रहे थे। पुत्र के क्रियाकर्म  के बाद उन्हीं संत का अचानक उसी गांव में आना हुआ। तब वह सेठ जी वापस उन्ही सिद्ध संत से मिले और बहुत रोए और रोते रोते इतने अधीर हुए कि उन्होंने ईश्वर और उन संत दोनों को भला बुरा कहा। संत जी भी सेठ जी की अवस्था देखकर चिंतित हो गए। संत ने आंखे बन्द कर कुछ सोचा और पुनः आंखे खोलने पर बहुत क्रोधित हुए और सेठ से कहा कि उसने, उनसे झूठ बोला है एवं उसका असली नाम सुरेश है। उस सेठ को अपने पुराने जीवन की याद आई। युवावस्था में अपने मल्लाह साथी रमेश और उसके साथ किए गए छल का भी स्मरण हुआ। साधु ने कहा कि ये तुम्हारे पूर्व जन्म के कर्मों का फल नहीं बल्कि इसी जन्म के कर्मों का फल है। तुमने मित्र का धन लेकर उसे मार डाला वो ही मित्र रमेश पुत्र रूप में तुम्हारे घर आया और वही महिला चिकित्सक जिसने तुमसे पैसे लेकर रमेश को जहर का इंजेक्शन दे दिया था वह ही तुम्हारी बहू है जिसे अब जिसे अब फल स्वरुप विधवा का जीवन जीना है। सेठ जी अचंभित हो गए और उन्हें भगवान के विधान पर आश्चर्य हुआ।

सदैव स्मरण रहे कि हमें हमारे अच्छे बुरे कर्मों का फल इसी जन्म में भुगतना होता है।

इसीलिए अगर हमें विस्मृति नहीं होगी तो हमारा जीवन कठिन हो जाएगा। इसीलिए भगवान ने मनुष्य को विस्मरण की शक्ति दी जो उसके लिए आवश्यक है। योगियों को याद आने की शक्ति आ जाती हैं क्योंकि उनमें सत्य धारण करने की क्षमता होती है। वास्तविकता में आध्यात्मिक स्थिति में आगे बढ़ने के लिए नए कर्मों के निर्माण से बचना चाहिए। नए संबंधों से, लेनदेन से बचना चाहिए। कर्मों के खाते में जमा करने की बजाय उसे व्यय करना  चाहिए।



4.6

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा, भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं(म्) स्वामधिष्ठाय, सम्भवाम्यात्ममायया॥6॥

मैं अजन्मा और अविनाशी-स्वरूप होते हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।

विवेचन: अब श्रीभगवान ने छठे श्लोक से दसवें श्लोक तक अपने आप को प्रकट किया। उस दिव्य, गोपनीय ज्ञान को कहा जो कभी किसी को नहीं कहा। जो ज्ञान श्रीभगवान ज्ञानियों को भी नहीं कहते पर भक्त को कहते हैं। स्वामी रामसुख दासजी  महाराज ने इन पाँच श्लोकों को नित्य पठनीय श्लोक कहा है। जो गीता जी का कुछ भी अध्ययन नहीं कर पाते वो नित्य ये पाँच श्लोक पढ़ लिया करें तो उनके लिए इतना ही उचित और उत्तम है। श्रीभगवान ने कहा कि हे अर्जुन! मैं अजन्मा, अविनाशी हूँ, समस्त प्राणियों में ईश्वर हूँ।अपनी प्रकृति को अपने अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ। मैं किसी पर निर्भर नहीं हूँ। तुम (मनुष्य) अपने जन्म से संबंधित किसी बात को तय नहीं कर सकते परंतु मैं ऐसा कर सकता हूँ। मेरा जन्म किसी माता के गर्भ से नहीं होता। मै स्वयं प्रकट होता हूँ। अपने जन्म से संबंधित समस्त तथ्यों को मैं स्वयं तय करता हूँ। 

श्रीभगवान ने आगे के अट्ठारह अध्याय तक स्वयं को इसी दिव्य भगवद्स्वरूप में स्थित कर अर्जुन को दिव्य ज्ञान दिया।

4.7

यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं(म्) सृजाम्यहम्॥7॥

हे भरतवंशी अर्जुन! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको साकाररूप से प्रकट करता हूँ।

 विवेचन : श्रीभगवान ने कहा कि जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब तब मैं इस स्वरूप को रचता हूँ अर्थात साकार होकर, सम्मुख होकर लोगों के बीच प्रकट होता हूं। श्रीभगवान जब भी इस धरा पर अवतार लेते हैं तो अज्ञानियों को वे साधारण मनुष्य की तरह ही दिखाई देते हैं। अधिकतर लोगों को वे मात्र एक महापुरुष दिखते हैं। श्रीभगवान ने कहा कि अपनी प्रकृति को अपने अधीन करके मैं पृथ्वी पर आता हूँ। धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करने हेतु आता हूँ और धर्म और अधर्म को समझने के लिए इनका कोई मौलिक स्वरूप नहीं है, इसे हमें समझना होगा। हम गोरा और काला किसको कहते हैं। अगर विचार करें तो वेस्टइंडीज वालों के सामने हम लोग गोरे और यूरोप वालों के सामने हम लोग काले दिखाई देते हैं। तो इसका अर्थ यह हुआ कि हम न गोरे हैं और न काले हैं। महत्व सिर्फ तुलना का है।

4.8

परित्राणाय साधूनां(म्), विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय, सम्भवामि युगे युगे॥8॥

साधुओं-(भक्तों-) की रक्षा करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ।

विवेचन:  धर्म को बचाने के लिए साधुओं की रक्षा और अधर्म को घटाने के लिए पापियों का नाश करना पड़ता है।

बाल्मीकि जी ने कहा:-  

रामो विग्रहवान् धर्म: यानी राम विग्रहवान् धर्म हैं।

साधु वह नहीं जो केवल गेरुआ वस्त्र धारण करता है साधु वह है जिसने अपने मन को साध लिया, अपनी इच्छाओं और कामनाओं को साध लिया। इसीलिए साधना से साधक और साधक से साधु की यात्रा होती है।

यही रामचरितमानस में भी कहा गया है:-

बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥

इन सबके लिए समय समय पर मुझे प्रकट या अवतरित होना पड़ता है।

अर्थात गो, देवता और संतों के हित के लिए श्रीभगवान मनुष्य के अवतार में या स्वयं की इच्छा के अनुसार  समय - समय पर भिन्न - भिन्न अवतारों में अवतरित होते हैं।

बालकांड के एक दोहे में आया है -

तब-तब प्रभु धरि विविध सरीरा।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।

भगवान सज्जनों की पीड़ा हरने आते हैं। उनके दस या चौबीस अवतार नही बल्कि वो अनंत है अर्थात 

हरि अनंत हरि कथा अनंता।

जैसे द्रौपदी को बचाने के लिए भगवान वस्त्रावतार और समुद्र मंथन के समय भगवान ने मोहिनी अवतार धारण किया।अतः समय समय पर साधुओं की रक्षा के लिए भगवान को भिन्न-भिन्न अवतारों में प्रकट होना पड़ता है। 

4.9

जन्म कर्म च मे दिव्यम्, एवं(म्) यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं(म्) पुनर्जन्म, नैति मामेति सोऽर्जुन॥9॥

हे अर्जुन ! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। इस प्रकार (मेरे जन्म और कर्मको) जो मनुष्य तत्त्वसे जान लेता अर्थात् दृढ़तापूर्वक मान लेता है, वह शरीर का त्याग करके पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता, प्रत्युत मुझे प्राप्त होता है।

विवेचन:  श्रीभगवान ने कहा कि अर्जुन मेरे जन्म और कर्म दिव्य, निर्मल और आलौकिक है। जो मनुष्य तत्व से इसे जान लेता है वह शरीर को त्याग कर पुनर्जन्म नहीं, अपितु  मुझे प्राप्त कर लेता है। मैं साधारण दिखता तो हूँ, पर वास्तव में हूँ नहीं।

रामचरितमानस में एक बहुत सुंदर प्रसंग‌ है - बनवास के समय  भगवान श्री राम जब वाल्मीकि जी के आश्रम पर पहुंचे, तब उन्होंने अत्यंत नम्रता से वाल्मीकि जी से पूछा कि मैं कहा रहूॅं। तब वाल्मीकि जी कहा कि हे भगवान! आप कहां नही रहते हैं, यह तो पहले बताइए ?

- राम सरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर।

पर तब भगवान ने वहां उन्हें रोक दिया अर्थात भगवान ज्ञानियों के सामने छिपते हैं पर भक्तों के सामने स्वयं प्रकट हो जाते हैं जैसे शबरी और अर्जुन के सामने स्वयं ही प्रकट हुए।

मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा॥

कहु रघुपति सुनु भामिनि बाता, मानउॅं एक भगति कर नाता।
मम दरसन फल परम अनूपा, जीव पाव निज सहज सरूपा।।

यही भगवान की सरलता है।

श्रीभगवान ने कहा जो इस बात को समझ लेता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता और वह मुझे प्राप्त कर लेता है।

4.10

वीतरागभयक्रोधा, मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा, पूता मद्भावमागताः॥10॥

राग, भय और क्रोध से सर्वथा रहित, मेरे में ही तल्लीन, मेरे ही आश्रित तथा ज्ञानरूप तप से पवित्र हुए बहुत-से भक्त मेरे भाव (स्वरूप) को प्राप्त हो चुके हैं।

विवेचन : श्रीभगवान ने कहा कि हे अर्जुन! जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए, वह मेरा सान्निध्य प्राप्त कर लेता है।

राग - यानी मैं और मेरा।
भय-  जिसको मेरा माना वो चला ना जाए।
क्रोध -और जब मेरा चला जाता है, तब क्रोध उत्पन्न होता है।

इन तीनों को त्यागने से भगवत् आश्रय की प्राप्ति होती है (मामुपाश्रिता), मेरे में तल्लीन हो जाओगे (मन्मया) और ज्ञान रूपी अग्नि के तप से पवित्र हो जाओगे (ज्ञानतपसा)। श्रीभगवान ने स्पष्ट किया कि राग, भय और क्रोध को त्यागने से मद्भावमागता: मेरे भाव को प्राप्त करोगे तो अर्जुन के मन में प्रश्न आया कि आपके भाव को कैसे प्राप्त करना है? इसका उत्तर हम अगले विवेचन सत्र में जानेंगे। श्रीभगवान ने अपना सुंदर परिचय दिया है तो भगवान की स्तुति एक भजन के साथ की गई।

भजन की लिंकः-

https://drive.google.com/file/d/1qgo8fToy-_jD8sMKOJ8D_nrQqGfEJvIb/view?usp=sharing


हरि नाम संकीर्तन एवं योगेश्वर श्री कृष्ण के चरणों में परिणाम के पश्चात विवेचन सत्र समाप्त हुआ और प्रश्नोत्तर सत्र आरंभ हुआ।

प्रश्नोत्तर -

प्रश्नकर्ता - बजरंग जी

 प्रश्न-जब कोई पागल व्यक्ति किसी का हत्या करता है तो कानून उसे माफ़ कर देता है तो क्या भगवान भी कर देते हैं?

उत्तर-  जी हाँ, बिल्कुल क्योंकि कर्म में भाव का महत्व अधिक होता है। उसे फल आंशिक मिलता होगा क्योंकि उसका विवेक जागृत नहीं हैं।

प्रश्नकर्ता- कमलेश जी

प्रश्न- पहले हम पूरे समय कृष्ण जी की उपासना करते हैं पर जब मुझे उनकी आवश्यकता होती है तो हे राम ही मुंह से निकलता है तो इसमें कोई आपत्ति तो नहीं?

उत्तर- परमात्मा का नाम अलग अलग लेने से उन्हें कोई फर्क नही पड़ता, अगर हम ऐसा सोचते हैं तो इसका अर्थ है कि अभी हमारी बुद्धि सीमित है हम उन्हें अभी तक समझ ही नहीं पाए हमें अभी और समझने की आवश्यकता है।

प्रश्नकर्ता -कमलेश शर्मा जी

प्रश्न- गुरु की आवश्यकता है पर कोई गुरु नहीं मिल रहे?

उत्तर- धर्म श्री अपार्टमेंट, विद्यापीठ मार्ग पर स्वामी जी का आश्रय लें और मोशी में वेद श्री तपोवन आश्रम हैं।

प्रश्नकर्ता- रश्मि मित्तल जी

प्रश्न- किसी को पुनर्जन्म की स्मृति रहती है तो क्या वो सही है?

उत्तर - स्मृति याद रहना न अच्छा है न बुरा है और किसी - किसी को रहती है पर पूरी नही रहती।