विवेचन सारांश
अतिशय गूढ़, गोपनीय एवं रहस्यमय ज्ञान एवं विज्ञान का परिचय
योगेश्वर कृष्णजी की प्रार्थना, दीप प्रज्वलन एवं माँ सरस्वती को नमन, वंदन के पश्चात् गुरुदेव, श्रीभगवान, भारत माता, श्रीमद्भगवद्गीता, व्यास भगवान एवं ज्ञानेश्वर महाराज को नमन वंदन करते हुए मकर संक्रांति के पावन पर्व की पूर्व संध्या पर शुभकामनाओं के साथ आज के सत्र का शुभारम्भ हुआ। मकर संक्रांति सूर्य देव के मकर राशि मे संक्रमित हो कर उत्तरायण होने का शुभ पर्व है। जिस प्रकार सूर्य देव उत्तरायण होकर हमें अधिक ऊर्जा प्रदान करते हैं वैसे ही यह अति उत्तम अध्याय अपने गूढ़ ज्ञान से हमारे जीवन को संक्रमित करके हमारे अज्ञानता रूपी अंधकार को समाप्त करता है और हमारे जीवन के उद्देश्य का ज्ञान देकर हमें मुक्ति प्रदान कराता है।
श्रीमद्भगवद्गीता के साधको का भी अभिनन्दन किया गया। ज्ञानेश्वर महाराज को यह गीता जी का नवम् अध्याय, जो राजविद्याराजगुह्ययोग के नाम से जाना जाता है, अत्यंत प्रिय था। महाराष्ट्र में पुणे के निकट आलंदी में गुरुदेव जी ने देवश्री तपोवन का निर्माण किया है, जहाँ वेदों का कार्य होगा, वेदों पर अनुसन्धान होगा, संशोधन भी होगा, वहाँ पर ज्ञानेश्वर महाराज ने सात सौ पच्चीस वर्ष पूर्व सजीव समाधि ली वह भी अपने जीवन के बाईसवें वर्ष में। आज तक इस प्रकार की संजीवन समाधि नहीं हुई है। संजीवन समाधि अद्भुत है। संजीवन समाधि के समय उनके गुरु ने ज्ञानेश्वरी का यही नवम् अध्याय प्रत्यक्ष रखा। यह अध्याय त्रिवेणी संगम जैसा है क्योंकि इसमें ज्ञान योग, भक्ति योग एवं कर्म योग का संगम है। अतः इस अध्याय की महिमा अपरम्पार है। इसमें भगवान अनुपमेय सिद्धांत का प्रतिपादन करते है, जो गीता में अन्यत्र कहीं भी नहीं आया। ज्ञानेश्वरी अपने साधकों तक यह सिद्धांत पहुँचाना चाहती है अतः हम सबको सुनना चाहिए।
इस अध्याय में श्रीभगवान अर्जुन के माध्यम से हमें कुछ अनिर्वाच्य बातें बताने वाले हैं, कुछ गोपनीय बातें बताने वाले हैं जिसमें वे जीव, जगत एवं जगदीश्वर में क्या सम्बन्ध है ये राज खोलने वाले हैं इसलिए इस अध्याय का नाम राजविद्याराजगुह्ययोग है। ये हमारे जीवन को निखारने वाला अध्याय भी है क्योंकि ये ज्ञान एवं विद्या को चमकाने वाला अध्याय है। इसको सुन कर आप सभी सुख के पात्र हो जायेंगे ऐसा ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं। वे सुख जो इन्द्रियों से परे हैं असीम हैं एवं हमेशा रहने वाले हैं। ज्ञानेश्वर महराज कहते है कि इस अध्याय का अनुश्रवण करने से आपका पात्र, अर्थात ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ एवं शरीर, इस तीनों रसों, यथा ज्ञान रस, भक्ति रस एवं कर्म के रस से भर जायेगा। अतः इस अध्याय को ध्यान से सुनना चाहिए।
भगवान कहते हैं--
श्रीमद्भगवद्गीता के साधको का भी अभिनन्दन किया गया। ज्ञानेश्वर महाराज को यह गीता जी का नवम् अध्याय, जो राजविद्याराजगुह्ययोग के नाम से जाना जाता है, अत्यंत प्रिय था। महाराष्ट्र में पुणे के निकट आलंदी में गुरुदेव जी ने देवश्री तपोवन का निर्माण किया है, जहाँ वेदों का कार्य होगा, वेदों पर अनुसन्धान होगा, संशोधन भी होगा, वहाँ पर ज्ञानेश्वर महाराज ने सात सौ पच्चीस वर्ष पूर्व सजीव समाधि ली वह भी अपने जीवन के बाईसवें वर्ष में। आज तक इस प्रकार की संजीवन समाधि नहीं हुई है। संजीवन समाधि अद्भुत है। संजीवन समाधि के समय उनके गुरु ने ज्ञानेश्वरी का यही नवम् अध्याय प्रत्यक्ष रखा। यह अध्याय त्रिवेणी संगम जैसा है क्योंकि इसमें ज्ञान योग, भक्ति योग एवं कर्म योग का संगम है। अतः इस अध्याय की महिमा अपरम्पार है। इसमें भगवान अनुपमेय सिद्धांत का प्रतिपादन करते है, जो गीता में अन्यत्र कहीं भी नहीं आया। ज्ञानेश्वरी अपने साधकों तक यह सिद्धांत पहुँचाना चाहती है अतः हम सबको सुनना चाहिए।
इस अध्याय में श्रीभगवान अर्जुन के माध्यम से हमें कुछ अनिर्वाच्य बातें बताने वाले हैं, कुछ गोपनीय बातें बताने वाले हैं जिसमें वे जीव, जगत एवं जगदीश्वर में क्या सम्बन्ध है ये राज खोलने वाले हैं इसलिए इस अध्याय का नाम राजविद्याराजगुह्ययोग है। ये हमारे जीवन को निखारने वाला अध्याय भी है क्योंकि ये ज्ञान एवं विद्या को चमकाने वाला अध्याय है। इसको सुन कर आप सभी सुख के पात्र हो जायेंगे ऐसा ज्ञानेश्वर महाराज कहते हैं। वे सुख जो इन्द्रियों से परे हैं असीम हैं एवं हमेशा रहने वाले हैं। ज्ञानेश्वर महराज कहते है कि इस अध्याय का अनुश्रवण करने से आपका पात्र, अर्थात ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ एवं शरीर, इस तीनों रसों, यथा ज्ञान रस, भक्ति रस एवं कर्म के रस से भर जायेगा। अतः इस अध्याय को ध्यान से सुनना चाहिए।
भगवान कहते हैं--
9.1
श्रीभगवानुवाच
इदं(न्) तु ते गुह्यतमं(म्), प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं(व्ँ) विज्ञानसहितं(य्ँ), यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥9.1॥
श्रीभगवान् बोले -- यह अत्यन्त गोपनीय विज्ञान सहित ज्ञान दोष दृष्टि रहित तेरे लिये तो (मैं फिर) अच्छी तरह से कहूँगा, जिसको जानकर (तू) अशुभ से अर्थात् जन्म-मरण रूप संसार से मुक्त हो जायगा।
विवेचन - भगवान अर्जुन को अनसूय नाम से सम्बोधित करते हैं। जिसकी दृष्टि दोष रहित होती है, उसे अनुसूय कहते हैं। अर्जुन को भगवान अपना अभिन्न मित्र मानते हैं, अपना प्रिय शिष्य मानते हैं, इसलिए उसे अत्यंत गोपनीय बात बता रहे हैं। भगवान कहते हैं कि सबसे अधिक गुह्य अर्थात गूढ़ एवं गोपनीय ज्ञान एवं विज्ञान ठीक तरह से समझा कर बताऊंगा। ज्ञान एवं विज्ञान के अंतर को भी समझना चाहिए। जो हमें शास्त्रों से, ग्रंथों से, अपने ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त होता है वो ज्ञान है और उसे व्यवहारिक रूप में उपयोगी बनाने का ज्ञान विज्ञान होता है, जैसे आँखों से देखने में पंखा घूम रहा है, यह ज्ञान है, पंखे में क्या है, कैसे घूमता है, यह विज्ञान है। अर्जुन को युद्ध क्षेत्र में,संघर्षपूर्ण स्थिति में विषाद होने पर गीता का ज्ञान भगवान् ने दिया। भगवान ने अर्जुन को इस प्रकार के गुह्यतम ज्ञान के द्वारा युद्धछेत्र को छोड़ने नहीं दिया एवं विषाद का नाश भी किया। ऐसा गोपनीय ज्ञान गुरुकृपा से ही मिलता है। अर्जुन ने भगवान का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया था, ये गीता जी के द्वितीय अध्याय में उल्लेखित है। ज्ञानेश्वर महराज जी बताते हैं कि अर्जुन भगवान के सखा भी हैं, भ्राता भी हैं एवं शिष्य भी है। भगवान को अर्जुन अत्याधिक प्रिय है क्योंकि उसमें पूर्ण समर्पण का भाव है। अर्जुन में भ्रातृ भाव, मातृ भाव, गुरु भाव सब निर्दोष हैं। भगवान कहते हैं कि "मैं तुम्हें ज्ञान भी दूँगा और उसकी अनुभूति भी दूँगा, जिसको जानकर तुम अज्ञान से मुक्त हो जाओगे, इस संसार से मुक्त हो जाओगे एवं मृत्यु के भय से भी मुक्त हो जाओगे। ज्ञान का अर्थ आध्यात्मिक ज्ञान है।
राजविद्या राजगुह्यं(म्), पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं(न्) धर्म्यं(म्), सुसुखं(ङ्) कर्तुमव्ययम्।।9.2।।
यह (विज्ञान सहित ज्ञान अर्थात् समग्र रूप) सम्पूर्ण विद्याओं का राजा (और) सम्पूर्ण गोपनीयों का राजा है। यह अति पवित्र (तथा) अतिश्रेष्ठ है (और) इसका फल भी प्रत्यक्ष है। यह धर्ममय है, अविनाशी है (और) करने में बहुत सुगम है अर्थात् इसको प्राप्त करना बहुत सुगम है।
विवेचन- श्रीभगवान आगे बताते है कि मैं तुम्हें अत्यंत गोपनीय एवं श्रेष्ठ बात बताता हूँ। सभी रहस्यमयी बातें पवित्र नहीं होती है। लेकिन यह बात जो गोपनीय है, रहस्यमयी है एवं पवित्र भी है अति उत्तम है। तुम इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति कर सकते हो क्योंकि तुम यह करने के योग्य हो। यह धर्म युक्त है एवं अत्यंत सुखद, सुगम और अविनाशी है। यह ज्ञान अति पवित्र है, दूषित नहीं होगा एवं अविनाशी है। कभी नष्ट नहीं होगा। इस प्रकार भगवान ने इसकी महत्ता बताई है।
अश्रद्दधानाः(फ्) पुरुषा, धर्मस्यास्य परन्तप।
अप्राप्य मां(न्) निवर्तन्ते, मृत्युसंसारवर्त्मनि।।9.3।।
हे परंतप! इस धर्म की महिमा पर श्रद्धा न रखने वाले मनुष्य मुझे प्राप्त न होकर मृत्युरूप संसार के मार्ग में लौटते रहते हैं अर्थात् बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं।
विवेचन- भगवान अर्जुन को परन्तप का सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि इस संसार को मृत्युलोक कहा गया है। संसार का अर्थ है जो सतत चलता रहता है, संसरति इति संसार। जो परिवर्तनशील है वह संसार है।
जैसे किसी बहती हुए जलधारा में हम हाथ धोते है तो पुनः उसी जल से दोबारा हाथ नहीं धो सकते क्योंकि जल सतत बह रहा है। इसी प्रकार समय सतत परिवर्तनशील है। हमारी देह परिवर्तनशील है लेकिन एक तत्त्व परिवर्तनशील नहीं है और वह अपरिवर्तनशील तत्त्व आत्मा है।
बिना श्रद्धा के मनुष्य कुछ भी ज्ञान या विज्ञान प्राप्त नहीं प्राप्त कर सकता है और जिसमे श्रद्धा नहीं होती, कभी सच्चिदानंद को प्राप्त नहीं कर सकता है, कभी भी सुख दुःख के बंधन से मुक्त नहीं हो सकता है और इस संसार के चक्कर लगाता रहता है। जन्म मृत्यु के चक्कर मे बना रहता है।
जैसे किसी बहती हुए जलधारा में हम हाथ धोते है तो पुनः उसी जल से दोबारा हाथ नहीं धो सकते क्योंकि जल सतत बह रहा है। इसी प्रकार समय सतत परिवर्तनशील है। हमारी देह परिवर्तनशील है लेकिन एक तत्त्व परिवर्तनशील नहीं है और वह अपरिवर्तनशील तत्त्व आत्मा है।
बिना श्रद्धा के मनुष्य कुछ भी ज्ञान या विज्ञान प्राप्त नहीं प्राप्त कर सकता है और जिसमे श्रद्धा नहीं होती, कभी सच्चिदानंद को प्राप्त नहीं कर सकता है, कभी भी सुख दुःख के बंधन से मुक्त नहीं हो सकता है और इस संसार के चक्कर लगाता रहता है। जन्म मृत्यु के चक्कर मे बना रहता है।
मया ततमिदं(म्) सर्वं(ञ्), जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि, न चाहं(न्) तेष्ववस्थितः।।9.4।।
यह सब संसार मेरे निराकार स्वरूप से व्याप्त है। सम्पूर्ण प्राणी मुझ में स्थित हैं; परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ तथा (वे) प्राणी (भी) मुझ में स्थित नहीं हैं - मेरे इस ईश्वर-सम्बन्धी योग (सामर्थ्य) को देख ! सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाला और प्राणियों का धारण, भरण-पोषण करने वाला मेरा स्वरूप उन प्राणियों में स्थित नहीं है। (9.4-9.5)
विवेचन- भगवान अर्जुन को इस गुह्यतम ज्ञान के बारे में बताना प्रारम्भ करते हैं। परमात्मा को प्राप्त करने के लिए कहीं जाना नहीं होता है। भगवान बताते हैं कि मैंने अव्यक्त रूप में सारे विश्व को व्याप्त कर लिया है। यद्यपि वह सम्पूर्ण जगत में व्याप्त है लेकिन वह इन्द्रिय गोचर नहीं है। सम्पूर्ण जगत मुझमें स्थित है, सारा पंचभूत जगत मुझमें व्याप्त है लेकिन मैं उनमें व्याप्त नहीं हूँ। उदाहरण के लिए ज्ञानेश्वर महाराज बताते हैं कि जैसे लहरें सागर में होती हैं लेकिन सारा सागर लहरों में नहीं होता है। लहरें सागर में उठती हैं और फिर सागर में समा जाती है। ऐसे ही सारा जगत मुझ से निकल कर पुनः मुझमें समा जाता है।
जगत का मतलब है।
ज : जायते
ग : गच्छति
त : तिष्ठति
जगत निर्माण होता है, बनता है और नष्ट हो जाता है।
इस जगत के कण - कण में परमात्मा व्याप्त है। जैसे मिट्टी से घड़ा बनता है, उसके कण - कण में मिट्टी है, पर हमें मिट्टी दिखती नहीं है, केवल घड़ा दिखता है। जैसे दूध में अव्यक्त रूप में मक्खन छुपा हुआ है, उसे हम ज्ञान द्वारा प्राप्त कर सकते हैं। जैसे स्वर्ण से आभूषण बनते हैं, उसके कण - कण में स्वर्ण होता है। समुद्र में जल के कारण तरंग बनती है, तरंगों के कारण समुद्र नहीं है। इसी प्रकार सारे भूत मात्र मुझमें हैं, किन्तु वास्तव में, मैं उनमें नहीं हूँ।
भगवान ने अर्जुन को बताया कि इस संसार का कार्य स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों से ही चलता है।
जगत का मतलब है।
ज : जायते
ग : गच्छति
त : तिष्ठति
जगत निर्माण होता है, बनता है और नष्ट हो जाता है।
इस जगत के कण - कण में परमात्मा व्याप्त है। जैसे मिट्टी से घड़ा बनता है, उसके कण - कण में मिट्टी है, पर हमें मिट्टी दिखती नहीं है, केवल घड़ा दिखता है। जैसे दूध में अव्यक्त रूप में मक्खन छुपा हुआ है, उसे हम ज्ञान द्वारा प्राप्त कर सकते हैं। जैसे स्वर्ण से आभूषण बनते हैं, उसके कण - कण में स्वर्ण होता है। समुद्र में जल के कारण तरंग बनती है, तरंगों के कारण समुद्र नहीं है। इसी प्रकार सारे भूत मात्र मुझमें हैं, किन्तु वास्तव में, मैं उनमें नहीं हूँ।
भगवान ने अर्जुन को बताया कि इस संसार का कार्य स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों से ही चलता है।
न च मत्स्थानि भूतानि, पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो, ममात्मा भूतभावनः।।9.5।।
विवेचन - जो निर्माण होता है वह भूत है, इसी भूत शब्द का अर्थ पंचभूत से है। जिसका निर्माण होता है वह नष्ट भी होता है। भगवान कहते हैं, मेरा ईश्वरीय योग देखो, भगवान को समझना इतना सरल नहीं है। मैं सारे भूतों का निर्माण करता हूँ, उनका पोषण करता हूँ। उन भूततत्त्वों में मेरी आत्मा नहीं होती है। जैसे बहुत से घड़ों में जल भर कर रखने पर सूर्य का प्रतिबिम्ब उनमें दिखेगा। लेकिन उन घड़ों में सूर्य तो होता नहीं, केवल प्रतिबिम्ब दिखता है एवं घड़े के टूटने से जल बह जाता है तब सूर्य का प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई देता है। सूर्य तो नष्ट नहीं हुआ, वह तो यथास्थान होता है केवल प्रतिबिम्ब समाप्त हुआ।
यहाँ तीन बातें महत्वपूर्ण बताई हैं।
सृष्टि का आधार परमात्मा है।
जैसे सिनेमा घर का आधार पर्दा होता है, हम पर्दे पर सिनेमा देखते हैं, कभी देखते हुए हँसते हैं कभी रोते हैं लेकिन यथार्थ में तो वह नहीं होता है। जैसे स्वर्ण का आभूषण स्वर्ण का त्याग नहीं कर सकता वैसे ही संसार परम तत्त्व का त्याग नही कर सकता है। सृष्टि का अस्तित्व परमात्मा के बिना नहीं है।
परमात्मा सृष्टि में सीमित नहीं है।
भगवान कहते हैं कि मेरे एक अंश से जगत का निर्माण हुआ है।
ईश्वर अति महत्त्वपूर्ण है।
ज्ञानी संत लोग कण - कण में भगवान को देख सकते हैं उन्हें तत्त्व ज्ञान होता है।
यहाँ तीन बातें महत्वपूर्ण बताई हैं।
सृष्टि का आधार परमात्मा है।
जैसे सिनेमा घर का आधार पर्दा होता है, हम पर्दे पर सिनेमा देखते हैं, कभी देखते हुए हँसते हैं कभी रोते हैं लेकिन यथार्थ में तो वह नहीं होता है। जैसे स्वर्ण का आभूषण स्वर्ण का त्याग नहीं कर सकता वैसे ही संसार परम तत्त्व का त्याग नही कर सकता है। सृष्टि का अस्तित्व परमात्मा के बिना नहीं है।
परमात्मा सृष्टि में सीमित नहीं है।
भगवान कहते हैं कि मेरे एक अंश से जगत का निर्माण हुआ है।
ईश्वर अति महत्त्वपूर्ण है।
ज्ञानी संत लोग कण - कण में भगवान को देख सकते हैं उन्हें तत्त्व ज्ञान होता है।
यथाकाशस्थितो नित्यं(व्ँ), वायुः(स्) सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि, मत्स्थानीत्युपधारय॥9.6॥
जैसे सब जगह विचरने वाली महान् वायु नित्य ही आकाश में स्थित रहती है, ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी मुझमें ही स्थित रहते हैं - ऐसा तुम मान लो।
विवेचन - भगवान कहते हैं जैसे आकाश में वायु है वैसे ही भूत मात्र मुझ में स्थित है। आकाश में सर्वत्र वायु है, आकाश ने वायु को व्याप्त कर लिया है। परमात्मा सर्व व्यापक है। जहाँ वायु नहीं हो ऐसा स्थान तो नहीं हो सकता कि वहाँ आकाश नहीं होगा, उसी प्रकार विश्व का विस्तार हम नहीं जान सकते। यह तो परमात्मा का एकमात्र अंश है।
सर्वभूतानि कौन्तेय, प्रकृतिं(य्ँ) यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि, कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥9.7॥
हे कुन्तीनन्दन ! कल्पों का क्षय होने पर (महाप्रलय के समय) सम्पूर्ण प्राणी मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं (और) कल्पों के आदि में (महासर्ग के समय) मैं फिर उनकी रचना करता हूँ।
विवेचन - भगवान कहते हैं, हे कौन्तेय, जैसे घंटा, दिन एवं वर्ष होते हैं, इसी तरह कल्प एक काल है। सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं कलयुग, ये सब मिल कर एक महायुग बनाते हैं। ऐसे एक हजार महायुग से ब्रह्मा जी का एक दिन और उतने ही समय के बाद एक रात होती है। यह एक कल्प होता है।
जैसे हमारे सोने पर हमारा सारा संसार नष्ट हो जाता है और जागने पर दिखाई देने लगता है - ऐसा प्रतीत होता है, लेकिन वास्तव में यह हमारा भ्रम होता है। यह संसार मुझमें विलीन हो जाता है और पुनः वापस प्रकट हो जाता है। इसी तरह यह निर्माण होता है और नष्ट होता है। भगवान कल्प के आरम्भ में सृष्टि का निर्माण करते हैं और कल्प की समाप्ति पर सृष्टि को नष्ट करते हैं।
जैसे हमारे सोने पर हमारा सारा संसार नष्ट हो जाता है और जागने पर दिखाई देने लगता है - ऐसा प्रतीत होता है, लेकिन वास्तव में यह हमारा भ्रम होता है। यह संसार मुझमें विलीन हो जाता है और पुनः वापस प्रकट हो जाता है। इसी तरह यह निर्माण होता है और नष्ट होता है। भगवान कल्प के आरम्भ में सृष्टि का निर्माण करते हैं और कल्प की समाप्ति पर सृष्टि को नष्ट करते हैं।
प्रकृतिं(म्) स्वामवष्टभ्य, विसृजामि पुनः(फ्) पुनः।
भूतग्राममिमं(ङ्) कृत्स्नम्, अवशं(म्) प्रकृतेर्वशात्।।9.8।।
प्रकृति के वश में होने से परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण प्राणी समुदाय की (कल्पों के आदि में) मैं अपनी प्रकृति को वश में करके बार-बार रचना करता हूँ।
विवेचन - भगवान कहते हैं कि गुण तथा कर्म के अनुसार मनुष्य की प्रकृति का निर्माण होता है। सभी भूत-आत्माएं अपनी - अपनी प्रकृति के अनुसार विभिन्न योनियों में उत्पन्न होती है तथा अपने कर्मों के अनुसार फलों का भोग करती है। भूत तीन प्रकार के कर्मों, यथा सत्कर्म, रजस कर्म एवं तमस कर्म से बंधे होते है। यह प्रकृति परमात्मा की है। वे अपनी ही प्रकृति को स्वीकार करते हुए बारम्बार इस समस्त सृष्टि का निर्माण एवं विलय करते हैं। यह क्रम निरंतर चलता रहता है। ईश्वर की प्रकृति से उत्पन्न सृष्टि उसी प्रकृति में विलीन हो जाती है।
न च मां(न्) तानि कर्माणि, निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनम्, असक्तं(न्) तेषु कर्मसु।।9.9।।
हे धनञ्जय ! उन (सृष्टि-रचना आदि) कर्मों में अनासक्त और उदासीन की तरह रहते हुए मुझे वे कर्म नहीं बाँधते।
विवेचन - भगवान मानव रूप धारण कर, सृष्टि के कल्याणार्थ पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। मानव रूप में वे अपने सभी कर्त्तव्य कर्मों का पूर्ण मनोयोग से निर्वहन करते हैं। भगवान उन कर्मों या उनके फल में, किसी भी रूप में आसक्त नहीं होते हैं। वे सभी कर्म करते हुए भी अनासक्त रहते हैं तथा दृष्टा बन कर सभी कर्म करते हैं। कर्म बंधन भी दो प्रकार के बताये गए हैं-
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-अनिच्छा से किया हुआ कर्म, बंधन कहा जाता है।
-फलाकांक्षा अर्थात परिणाम का चिंतन करते हुए कर्म भी बंधन की ही श्रेणी में आते हैं।
हमारे भीतर स्थित आत्मतत्त्व ही हमसे सभी कार्य कराता है, परन्तु वह तत्त्व स्वयं सभी बंधनों से मुक्त है। इसीलिए समस्त सृष्टि का संचालक होने पर ह सभी कर्म तथा कर्मफल से विलग रहता है।
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-अनिच्छा से किया हुआ कर्म, बंधन कहा जाता है।
-फलाकांक्षा अर्थात परिणाम का चिंतन करते हुए कर्म भी बंधन की ही श्रेणी में आते हैं।
हमारे भीतर स्थित आत्मतत्त्व ही हमसे सभी कार्य कराता है, परन्तु वह तत्त्व स्वयं सभी बंधनों से मुक्त है। इसीलिए समस्त सृष्टि का संचालक होने पर ह सभी कर्म तथा कर्मफल से विलग रहता है।
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः(स्), सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय, जगद्विपरिवर्तते।।9.10।।
प्रकृति मेरी अध्यक्षता में सम्पूर्ण चराचर जगत को रचती है। हे कुन्तीनन्दन ! इसी हेतु से जगत का (विविध प्रकार से) परिवर्तन होता है।
विवेचन - भगवान अर्जुन को बताते हैं कि समस्त सृष्टि उन्हीं के आधीन हो कर कार्य करती है। उन्हीं की अध्यक्षता में ही सभी कार्य होते हैं। परमात्मा की अध्यक्षता में प्रकृति ही सारी सृष्टि का निर्माण एवं पालन करती है। जिस प्रकार मंत्रीगण अपने राजा की अध्यक्ष्ता में राज्य के सभी कार्यों का निर्वहन करते हैं उसी प्रकार परमात्मा के निर्देशानुसार ही समस्त सृष्टि का सञ्चालन होता है। पृथ्वी, सागर, सूर्य, सौरमण्डल, सभी परमात्मा की प्रकृति के अधीन, कार्यों का निर्वहन करते हैं। परमात्मा के कारण प्रकृति है, वही उसके स्वामी हैं। जीव को भली भांति इसे समझ लेना चाहिये।
इसके उपरांत सत्र समाप्त हुआ एवं प्रश्नोत्तर सत्र प्रारम्भ हुआ।
प्रश्नकर्ता - सुहास जी
प्रश्न - निराकार एवं साकार ब्रह्म का अंतर बताये ?
उत्तर - निर्गुण निराकार ब्रह्म को समझने के लिए दूध एवं उसमें स्थित मक्खन का उदहारण दिया। जैसे दूध में मक्खन छिपा रहता है, लेकिन कुछ विशेष प्रक्रिया के उपरांत वह घनीभूत हो कर ऊपर आ जाता है, वैसे ही भगवान का निर्गुण रूप ज्ञान, भक्ति की विशेष प्रक्रिया से घनीभूत हो कर सगुण रूप में प्रगट होता है। भक्त की निश्छल भक्ति से निर्गुण से सगुण साकार होता है। हमें ब्रह्म को दोनों रूपों में देखना चाहिए।
प्रश्नकर्ता - संजना पुरोहित
प्रश्न - श्रीमद्भगवद्गीता को क्या महिलाएं पढ़ सकती है, कोई विशेष सावधानी?
उत्तर - स्त्री पुरुष सभी इस महाग्रन्थ को पढ़ सकते हैं, परायण कर सकते हैं। महिलायें जब भी चाहे पढ़ सकती हैं, समझ सकती हैं। हर स्थिति में हर कोई पढ़ सकता है, समझ सकता है क्योंकि यह अति श्रेष्ठ ग्रन्थ है, भगवान की वाणी में उपदेश है अतः शुद्धता और सम्मान का ध्यान रखना चाहिए। ईश्वर में माता - पिता दोनों का वास होता है इसलिए स्त्री - पुरुष दोनों के लिए समान भाव है।
अंत में भगवान योगेश्वर की प्रार्थना के उपरांत सत्र का समापन हुआ।
इसके उपरांत सत्र समाप्त हुआ एवं प्रश्नोत्तर सत्र प्रारम्भ हुआ।
प्रश्नकर्ता - सुहास जी
प्रश्न - निराकार एवं साकार ब्रह्म का अंतर बताये ?
उत्तर - निर्गुण निराकार ब्रह्म को समझने के लिए दूध एवं उसमें स्थित मक्खन का उदहारण दिया। जैसे दूध में मक्खन छिपा रहता है, लेकिन कुछ विशेष प्रक्रिया के उपरांत वह घनीभूत हो कर ऊपर आ जाता है, वैसे ही भगवान का निर्गुण रूप ज्ञान, भक्ति की विशेष प्रक्रिया से घनीभूत हो कर सगुण रूप में प्रगट होता है। भक्त की निश्छल भक्ति से निर्गुण से सगुण साकार होता है। हमें ब्रह्म को दोनों रूपों में देखना चाहिए।
प्रश्नकर्ता - संजना पुरोहित
प्रश्न - श्रीमद्भगवद्गीता को क्या महिलाएं पढ़ सकती है, कोई विशेष सावधानी?
उत्तर - स्त्री पुरुष सभी इस महाग्रन्थ को पढ़ सकते हैं, परायण कर सकते हैं। महिलायें जब भी चाहे पढ़ सकती हैं, समझ सकती हैं। हर स्थिति में हर कोई पढ़ सकता है, समझ सकता है क्योंकि यह अति श्रेष्ठ ग्रन्थ है, भगवान की वाणी में उपदेश है अतः शुद्धता और सम्मान का ध्यान रखना चाहिए। ईश्वर में माता - पिता दोनों का वास होता है इसलिए स्त्री - पुरुष दोनों के लिए समान भाव है।
अंत में भगवान योगेश्वर की प्रार्थना के उपरांत सत्र का समापन हुआ।