विवेचन सारांश
भक्त के लक्षण
आगे श्लोक आठ, नौ और दस में भगवान ने भक्ति करने वाले भक्त को किस रास्ते पर चलना चाहिए वो रास्ता बताना आरम्भ किया।
श्रीभगवान कहते हैं-
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं(न्) निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं(न्) न संशयः।।
तू मुझ में अपने मन को पूरी तरह स्थापित कर और जो तेरा धर्म है उसका पूरी तरह से पालन कर। यदि कोई व्यक्ति इन दोनों (मन और बुद्धि) का पूरी तरह मेरे अंदर निवेश करता है तो जीवन के किसी भी पड़ाव में उसकी ऊर्ध्व गति निश्चित ही होगी। जैसे- छात्र का कार्य है पढ़ना। स्वाभाविक रूप से पढ़ाई के समय मन और बुद्धि दोनों का साथ रखना आवश्यक है, नहीं तो शिक्षक पढ़ा रहे हैं और बुद्धि तो उधर है लेकिन मन कहीं और चला गया तो प्रगति कैसे होगी। इसलिए छात्र को मन और बुद्धि दोनों वहाँ लाने ही पड़ेंगे। इसी प्रकार से कोई अगर कोई व्यवसायी है या गृहिणी है तो दोनों को अपने-अपने काम में मन और बुद्धि लगानी पड़ेगी। रोटी तवे पर डाल दी और मन व्हाट्सऐप पर है तो रोटी अच्छी नहीं बनेगी, फिर यश की प्राप्ति कैसे होगी? ये तो छोटे-छोटे यश हैं, अन्तिम यश तो मोक्ष की प्रप्ति है। अगर मोक्ष की प्राप्ति के लिए भक्ति करनी है तो मन और बुद्धि का साथ होना अति महत्त्वपूर्ण है।
श्रीभगवान आगे कहते हैं-
अथ चित्तं(म्) समाधातुं(न्) न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं(न्) धनञ्जय।।
यदि तू अपना मन और बुद्धि मेरे अंदर स्थिर करने में समर्थ नहीं है तो एक काम कर, अभ्यास कर। प्रारंभ में थोड़े समय अर्थात् एक मिनट, दो मिनट या पाँच मिनट से अभ्यास शुरू किया जा सकता है। समय महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितनी देर भी उपासना करें, मन और बुद्धि को एक कर पूरी श्रद्धा के साथ, समर्पण के साथ करें। मन प्रेम भाव से भर जाये, रोम-रोम पुलकित हो, मन आनन्द से इतना भर जाये कि आँखों से आँसू बह जाएं, इतना मन एकाग्र होना चाहिए।
एक जगह तो भगवान ने कहा भी है कि बहुत पूजा की अपेक्षा नहीं मुझे।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।
मुझे पत्र, पुष्प चढ़ा दो, अगर ये भी नहीं हैं तो जल चढ़ा दो, कुछ भी नहीं है तो मन का भाव मात्र चढ़ाने से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं। पूजा में हमारा मन तो रहता नहीं है। मुझे दफ्तर जाना है, घर में मेहमान आये हैं, रसोई बनाना है, आदि-आदि। मन तो स्थिर है ही नहीं पूजा का फल कहाँ से मिलेगा। मन को स्थिर करने में साँसो का गहरा सम्बन्ध है। साँसो को सम करें, प्रत्येक साँस में भगवान का ध्यान प्रार्थना के साथ करें। मन स्थिर होगा, एकाग्र होगा। मन और साँस का गहरा सम्बन्ध है। कोई नकारत्मक सन्देश सुनने से साँसे फूलने लगती हैं। जैसे मन की नकारात्मकता साँसों को प्रभवित करती है, उसी प्रकार साँसों का नियन्त्रण मन को नियन्त्रित करता है। आज ही से प्रार्थना के समय यह आरम्भ कर दें। गुरु मंत्र समझ कर, अंदर जाती हुई साँस के समय एक मंत्र और बाहर निकलती हुई साँस के साथ दूसरा मंत्र। सिर्फ प्रार्थना के समय ही नहीं हर अच्छे कार्य करने से पहले इसका अभ्यास करें, चाहे परीक्षा दे रहे हो या साक्षात्कार हो।
श्रीभगवान आगे कहते हैं-
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि।।
यदि तू अभ्यास में भी असमर्थ है तो तू जो भी काम कर रहा है, वह मेरा ही समझ कर कर। जो भी कर्म कर रहा है वह मेरे लिए कर। पढ़ाई कर रहे हो तो ऐसा सोच कर करो कि भगवान के लिए कर रहे हो। रसोई बना रहे हो तो इस भाव से बनाओ कि भगवान का भोग बना रहे हो।
12.11
अथैतदप्यशक्तोऽसि, कर्तुं(म्) मद्योगमाश्रितः|
सर्वकर्मफलत्यागं(न्), ततः(ख्) कुरु यतात्मवान्||11||
अभी परीक्षा का समय है। पिछले दिनों एक दसवीं की बच्ची का संवाद आया। वह अपने माता-पिता से कहती है कि आपकी अपेक्षा परीक्षा में पञ्चानवें की है वह मुझसे नहीं हो सकता है। मैं आप से बहुत प्यार करती हूँ। मैं आपको छोड़कर जा रही हूँ, मुझे क्षमा करें। हमारे अपने बच्चे से भी अपेक्षाएं जुड़ी हुई हैं,उन्हें तक हमने नहीं छोड़। हमें बस यह देखना चाहिए कि वह परिश्रम कर रहा है या नहीं?
भगवान ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है जो हम बचपन से सुनते हुए आ रहे हैं-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भू: मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।
कर्म करता चला जा, फल की अपेक्षा मत कर, लेकिन कर्म पूरी शक्ति के साथ करें। पूरी प्रमाणिकता के साथ, मन और बुद्धि साथ लगा कर करना चाहिए। जिस समय कर्म फल का त्याग होता है, प्रयास और अधिक होता है, उत्तम होता है। अगर प्रयास उत्तम है तो फल तो अच्छा होगा ही। भगवान ने कभी ये नहीं कहा है कि फल नहीं मिलेगा।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्, ज्ञानाद्ध्यानं(व्ँ) विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्याग:(स्),त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥12.12॥
श्रीमद्भगवद्गीता आज से साढ़े पाँच हजार साल पहले कही गयी। वो आज भी वैसी ही है जो साढ़े पाँच हजार साल पहले थी और कल भी वैसे ही रहेगी। इसका कारण ज्ञान है। ज्ञान शाश्वत है, सनातन है। ज्ञान अपरिवर्तनशील है, इसलिये बिना मर्म जाने अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है और ज्ञान से भी ईश्वर का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से भी कर्म फल का त्याग अधिक श्रेष्ठ है। कर्म फल के त्याग के साथ ही परम शान्ति प्राप्त हो जाती है। अगर हमारे जीवन में कहीं अशान्ति है तो इसका कारण हमारे मन में फल की आकांक्षा ही है। हमारे मन में सदैव फल की आकांक्षा रहती है।
महिला मण्डल की बैठक हुई, बैठक में चर्चा हुई। महिला मण्डल की चर्चा जो समाचार पत्र में आई उसमें मेरा नाम नहीं था, इसके लिए भी विवाद होता है। मैंने ऐसा किया है तो मुझे वैसा मिलना चाहिए। समाचार पत्र को कौन ध्यान रखता है परंतु समाज सेवा करने गए वहाँ भी अपेक्षा रहती है। भगवान ने कहा है; अपेक्षा ही सभी समस्याओं का मूल कारण हैं।
अद्वेष्टा सर्वभूतानां(म्), मैत्रः(ख्) करुण एव च|
निर्ममो निरहङ्कारः(स्), समदुःखसुखः क्षमी||13||
हमारे यहाँ गुरुद्वारों में ऐसा भाव देखने को मिलता है। (निरहंकार) भक्त गुरुद्वारे के बाहर सभी भक्तों के जूतों को सुन्दर भाव से साफ करता है। भगवान का कार्य समझकर करता है। ज्ञानी जेल सिहं ने राष्ट्रपति रहते हुए भी गुरुद्वारे के बाहर सभी भक्तों के जूते साफ किये थे।
जब हम सीना तान कर चलते हैं तो मुझमें अहंकार आता है। जब हम झुकते हैं तो अहंकार से मुक्ति मिलती है। जब हम सूर्य नमस्कार करते हैं तो ऊपर उठते समय साँस भरते हैं, झुकने की स्थिति में साँस को बाहर निकालते हैं। भगवान कहते हैं कि जितने भी प्राणी मात्र हैं, किसी के प्रति मन में द्वेष न हो। मन के अंदर मैत्री का भाव हो, करुणा का भाव हो। बिना किसी कारण के दया का भाव हो। सबका मंगल हो, सबका भला हो, ऐसा भाव होना चाहिए। मन में किसी के लिए भी बुरा भाव न आए। सबका भला हो ऐसी मन में चाह हो।
अहम् को मन से निकाल दें। मैंने यह किया, मैंने वह किया ऐसा नहीं है। जब हम नहीं थे तब भी सब कार्य हो रहे थे, जब हम नहीं रहेंगे तब भी सब कार्य होते रहेंगे। हमारे आने-जाने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। इसमें समत्त्व आ जाने पर आनन्द की प्राप्ति होती है। योग का दूसरा अर्थ है समत्त्व।
सन्तुष्टः(स्) सततं(य्ँ) योगी, यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धि:(र्), यो मद्भक्तः(स्) स मे प्रियः॥12.14॥
हमने देखा है; शादी में जाते हैं तो लोग छोटी-छोटी कमियाँ निकालते रहते हैं। यह खान-पान ठीक नहीं है, यह व्यवस्था ठीक नहीं है। अगर हम अच्छाई देखें तो बहुत-सी मिल जाएगी। एक कागज जिस पर एक काला धब्बा है तो हम यही कहेंगे कि एक काला धब्बा है। पूरा कागज साफ है, सुंदर है परंतु हम यह देखने की कोशिश ही नहीं करते हैं।
मैं एक बहुत बुजुर्ग महिला से मिला। उनका जीवन हमेशा अभाव में गुजरा है। लेकिन जब उन्हें देखता हूँ, उनसे मिलता हूँ, उनके चेहरे पर जो आभा, तेज और आत्मसंतुष्टि दिखती है वो आत्मविभोर, मन्त्रमुग्ध कर देती है। अगर मैं संतुष्ट हो रहा हूँ तो भगवान को प्रिय होता जा रहा हूँ।
यस्मान्नोद्विजते लोको, लोकान्नोद्विजते च यः|
हर्षामर्षभयोद्वेगै:(र्), मुक्तो यः(स्) स च मे प्रियः||15||
जिसके कारण किसी दूसरे प्राणी को कोई पीड़ा नहीं पहुँचती हो। जो हर्ष (क्षणिक आनंद की अनुभूति), अमर्ष (क्षणिक दु:ख / जिसे दूसरों की प्रगति पर दु:ख हो), उद्वेग (reactive होना, न सुनने की आदत नहीं होना) और भय से मुक्त रहता है, वह मुझे बहुत प्रिय है।
जब रेलवे स्टेशन पर किसी ट्रेन का इंतजार कर रहे होते हैं और उद्घोषक उद्घोष करता है- ट्रेन पाँच घंटे विलम्ब से चल रही है, देरी के लिए मुझे खेद है, उसे तनिक भी खेद नहीं होता। यात्री तब क्षणिक खेद महसूस करते हैं। जब ट्रेन आ जाती है तो यह क्षणिक खेद हर्ष में परिवर्तित हो जाता है। भगवान कहते हैं- जो हर्ष, अमर्ष, भय व उद्वेग इन चारों को छोड़ देते हैं, ऐसे भक्त मुझे अत्यंत प्रिय है।
अनपेक्षः(श्) शुचिर्दक्ष, उदासीनो गतव्यथः|
सर्वारम्भपरित्यागी, यो मद्भक्तः(स्) स मे प्रियः||16||
अंतर में निर्मलता, सावधानी, तटस्थता रखना और दु:खों से मुक्त हो जाना चाहिए। हमें भाव बदलना है, दृष्टिकोण बदलना है। जिंदगी में कोई भी दु:ख आए वो क्षणिक होता है। दु:ख से बाहर निकलना आना चाहिए, तब हमारा सुख और दु:ख में सम रहना प्रारम्भ हो जाता है। सुख और दुःख हमारे अन्दर नहीं हैं। ये तो बाहर ही स्थित हैं जो समय के साथ नष्ट हो जाते हैं। परिवार में किसी का स्वर्गवास हो जाने से, जीवन में आया सबसे बड़ा दु:ख समय के साथ कम हो जाता है। दो-तीन साल और बीतने के बाद नाम मात्र का रह जाता है। सुख भी जो पाँच साल पहले भोगा था वो भी खत्म हो गया। सुख और दु:ख दोनों ही क्षणिक हैं। इसलिये न सुख में हर्ष करें, न दु:ख में क्रोध करें। हम सुख-दु:ख में सम रहें। अंदर तो केवल आनन्द है। यह बाह्य सुख-दु:ख हमें आनन्द तक पहुँचने में बाधक हैं। कभी-कभी भगवान हमें कोई कष्ट देते हैं तो हम भगवान को कोसने लगते हैं, ऐसा हमारे साथ ही भगवान क्यों करते हैं। भगवान किसी से बैर नहीं करते हैं, वो हमारी अच्छाई के लिए ऐसा करते हैं। हमें सेवा का अवसर देते हैं।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि, न शोचति न काङ्क्षति|
शुभाशुभपरित्यागी, भक्तिमान्यः(स्) स मे प्रियः||17||
समः(श्) शत्रौ च मित्रे च, तथा मानापमानयोः|
शीतोष्णसुखदुःखेषु, समः(स्) सङ्गविवर्जितः||18||
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी, सन्तुष्टो येन केनचित्|
अनिकेतः(स्) स्थिरमति:(र्), भक्तिमान्मे प्रियो नरः||19||
एक बार एक भक्त ने भगवान बुद्ध के ऊपर थूक दिया। उनके शिष्य अत्यंत क्रोधित हो रहे थे लेकिन भगवान बुद्ध ने कहा, और कुछ कहना है? भगवान बुद्ध की इस बात पर भक्त को आत्म ग्लानि हुई। दूसरे दिन वह पुष्पहार लेकर आया। भगवान बुद्ध ने फिर कहा, और कुछ कहना है? उनके लिये दोनों स्थितियाँ समान थीं।
ये तु धर्म्यामृतमिदं(य्ँ), यथोक्तं(म्) पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा, भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥12.20॥
समापन प्रार्थना के साथ विवेचन सत्र समाप्त हुआ और प्रश्नोत्तर सत्र आरंभ हुआ।
प्रश्नोत्तर
प्रश्नकर्ता- आकांक्षा जी
प्रश्न- सभी में भगवान निवास करते हैं फिर भी मेरा भाई झूठ बोलकर मुझ पर आरोप क्यों लगाता है (जबकि मैंने कप को तोड़ा ही नहीं)?
उत्तर- आपको पता है कि वो झूठ बोल रहा रहा है। आप रिमोट कण्ट्रोल की तरह व्यवहार न करें, अपनी माता को सच बता दें और मौन रहें, विवाद में न फँसे। आप देखेंगे कि उसे अपराधबोध होगा और वह स्वयं स्वीकार करेगा।
प्रश्नकर्ता- शशि जी
प्रश्न- मुझे संस्कृत नहीं आती है, मुझे लगा कि गीता सीखनी चाहिए। क्या यह संभव है?
उत्तर- मैंने ऐसे भी साधक देखें हैं जिन्हें अक्षर ज्ञान नहीं था, जो बिल्कुल भी पढ़-लिख नहीं सकते थे। उन्होंने भी अंगुली रखकर आरम्भ किया और अच्छा परिणाम आया। आज तो गीता परिवार अनुपठन के लिए रिकॉर्ड किया हुआ ऑडियो और विडिओ, साथ ही सरल पठनीय श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक का इमेज उपलब्ध कराता है। देखकर और सुनकर अभ्यास करते रहें, अवश्य ही सुन्दर परिणाम आएगा।
प्रश्नकर्ता- अलका जी
प्रश्न- सर्वप्रथम बारहवाँ अध्याय हमें क्यों पढ़ाया जाता है?
उत्तर- बारहवाँ अध्याय भक्तियोग है। अगर इस एक अध्याय का पाठ ही नित्य किया जाये तो भी पर्याप्त है। साथ ही यह छोटा है एवं उच्चारण की दृष्टि से सरल है। स्वामी गोविंददेव गिरि जी के निर्देशानुसार ऐसा पाठ्यक्रम बनाया गया जो सुन्दर, सरल और व्यवस्थित हो, जिसे सभी रुचि से सीखें।
प्रश्नकर्ता- सुमित्रा जी
उत्तर- आस्था और जिज्ञासा के साथ आप भी गीता पढ़, समझ और कंठस्थ कर सकते हैं। कठिन लगने वाले इस कार्य को लर्न गीता वेबसाइट के माध्यम से गीता परिवार ने सरल और सुगम कर दिया है। सिर्फ श्रद्धा, विश्वास और दृढ़ निश्चय के साथ अभ्यास करते रहना है। अवश्य ही सुन्दर और अच्छा परिणाम आयेगा ।
इसके साथ ही इस सत्र का समापन हुआ।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासु उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां(य्ँ) योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः॥